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गुरुवार, 11 नवंबर 2010

बेदखली

वह मुझसे बेइन्तिहा प्यार करता है

मेरे वर्तमान, भूत और भविष्य की भी,
सुख-सुविधाओं और दुख-दर्दों की चिंता करता हुआ...
नहीं करता वह बिल्कुल भी चिन्ता अपने
बढ़ते हुए रक्त-चाप और ख़ून में पड़ी अ-पची शकर की मात्रा की।

वह मेरी इज्जत करता है,
मेरी आबरू के लिए अच्छों-अच्छों को धूल चटा देता है,
मेरे लिए लौकी की सब्ज़ी तक खा लेता है।
वह मुझसे बेइन्तिहा प्यार करता है।

मेरी तरक्क़ी के लिए वह
अत्यन्त चिंतित रहता है, हमेशा ही।
मैं लिखूं और पढ़ूं और अपना काम करूं- इसी कारण अपने दिन और अपनी रातें भी बरबाद करता है।
वह स्वीकार करता है – मेरी बुद्धिमत्ता,
अपने से अधिक, मुझे अकलमन्द मानता है।
जबकि
हर संकट से उबरने का रास्ता वही सुझाता है।
ज़रूरत पड़ने पर, दुनिया से दो-दो हाथ करने की तैयारी के साथ...।

मेरी इच्छा के विपरीत
वह न मुझे छूता है, न कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती ही करता है।
मेरी भावनाओं की कद्र करता है।
औरत होने के मेरे अधिकारों को स्वीकारता है।
अपने रक्त-चाप की ऊँचाई पर बैठ कर !

ऐसा नहीं कि उसे मुझसे कोई शिकायत नहीं है।
मुझसे उसे जो-जो हैं, उन
बहुत सारी शिकायतों को
गाहे-बगाहे व्यक्त भी करता है।
पर इसमें कोई शक़ नहीं कि वह मुझसे भरपूर प्यार करता है।

मेरे भूतकाल में
मेरी मर्जी के विरुद्ध
वह कभी नहीं झांकता ।
मुझे दुख पहुँचे, इस तरह मेरे घावों को कुरेदता भी नहीं है।
तमाम नुकीले प्रश्नों की बाण-शैया पर ता-उम्र लेट कर
अनखोली और उपेक्षित, अपमानित भावनाओं की गठरी
अपने हदय के सिरहाने रख
मेरा हौंसला बढ़ाता रहता है.......

वह, मेरा जीवन साथी

कभी नहीं समझता कि मेरी
वह जगह अब नहीं रही मेरे पास
जिस पर पाँव जमाकर कभी मैं साँस लेती थी।
वह जगह -
उसके प्रेम, चिंताओं और मेरी सुरक्षा में बिछे उसके पलक-पाँवडों
में कहीं दब गई है।
• * * * * * * * * * * * * * * *

मैं उस जगह का क्या करूंगी ?
यह सवाल मैं पूछती हूँ अपने आप से

ऐसा क्या है जो शेष रहता है करने के लिए
किसी के इतना सब कुछ कर लेने के बाद !

करने के लिए कुछ रहना चाहिए या नहीं
यह भी एक सवाल मेरे भीतर उठता है ?
क्योंकि मुझ जैसी आलसी, नहीं आलसिन, के लिए यह संतोष का विषय होना चाहिए-
कि कोई है उसके पास जो उस से बेइन्तिहा प्रेम करता है-
सब कुछ के बावजूद।

मैं उस खो गई जगह का क्या करना चाहती हूँ ?
कुछ भी तो नहीं !
फिर क्यों उस छिन गई जगह के लिए मेरे मन में कचोट है, अब भी।
क्या अपनी स्मृतियों के कब्रिस्तान के लिए मुझे चाहिए वह जगह ?
ताकि हर वर्ष चढ़ा सकूं फूल, जला सकूं मोमबत्ती, अगरबत्ती....?
मैं सोचती हूँ क्या करूंगी, उन स्मृतियाँ का भी
जिनसे सिवा दुख, पराजय और धोखे के, कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
वह जगह
जहाँ मैं केवल रपट कर गिरी ही हूँ।
बार-बार.... कितनी ही बार।
वह जगह
जिसने मुझे यही बोध दिया है
कि कितनी बेवकूफ़ थी मैं
कि भरोसा करती थी जिस किसी पर, तो बस करती ही चली जाती थी।
धोखा खा कर भी अविश्वास करने में, बरसों निकाल देती थी।

यूँ ज़िन्दगी के बहुत वर्ष ज़ाया किए।

आत्महत्या के दरवाज़े तक पहुँच कर लौट आई ज़िन्दगी के लिए इससे बेहतर वर्तमान क्या हो सकता है ?

एक हल्का-फुल्का जीवन
जिसमें न बिल भरने की चिंता, न आटे-दाल की फिक्र,
न बच्चे को बड़ा करने का भार
न रीति-रिवाज़ों की बंदिशें
जिसमें चर्चा करने की छूट, असहमत होने की भी अनुमति...

फिर क्यों चाहिए मुझे वह जगह
जो मैंने खुद कभी छोड़ दी थी।
धीरे-धीरे खुद ही अपने को समझाया है मैंने,
कि वह एक बेहद मूर्खता भरी ज़िन्दगी थी
जो मैंने जी थी कभी।
इन्सानी ज़िन्दगी के वे उम्र के, सबसे बेहतरीन वर्ष, अर्थहीन हो गए थे।
मेरा यौवन, मेरा वसंत, मेरी बहारें
अन्तहीन रेगिस्तान में बने रेत के महल की मानिंद हो गए थे।
जिस पर
मुँह बिराता, मृगजल – सा मेरा विश्वास
मेरे भरोसे को बड़ी सफाई से तोड़ दिया गया है।
मैंने जाना था कि
अमृत का वह स्वाद एक स्वप्न था जो आँख खुलते ही अफसोस बन कर रह गया।
***********

जीवन के उस उजाड़ किनारे पर
मिला था वह, जो मुझे बेइन्तिहा प्रेम करता था...
बरसों से , मेरे ही अन्जाने।
उस उजाड, ध्वस्त और परती भूमि के साथ
मैं ही तो गई थी उसके पास....'पथ नहीं मुड़ गया था...'।

फिर अब क्यों मुझे चाहिए अपनी वह जगह !

मृत स्मृतियों में अँखुएँ नहीं फूटते
बीते जलों से सींचन नहीं होता
परती ज़मीनों पर कुछ भी उगाना नामुमकिन है।
तो क्यों चाहिए मुझे अपनी वह परती ज़मीन
जबकि किलकारियों से लहलहा रहा है मेरा आँचल।

संसार भर के संघर्ष ज़मीन के लिए ही तो होते है।
मैं क्यों तब चाहती हूँ वह शापित ज़मीन
जिसने हर लिया था मेरा सब कुछ ?
मेरी आर्द्रता, मेरी कोमलता, मेरी चंचलता,
मेरी दृढता, मेरा ज़मीर, मेरे आत्मज....

मेरा वह अजन्मा भविष्य,
जो आज भी
मेरे सफल एवं उज्जवल वर्तमान की तरफ़
अपनी पराजित पर अजिंक्य मुस्कान के साथ, मेरी ओर देखता-सा है..
मुझे एक ऐसे अफ़सोस में भिगोते हुए
(जो कि मुझे मालूम है कि कितना व्यर्थ है)
सचमुच, कितना अच्छा हुआ कि वह भविष्य,
अजन्मा ही रहा...
क्या पता मैं सम्हाल भी पाती उसे, अगर वह होता.....
और यह नहीं होता
जो है.........
वही मेरी वर्तमान,
जो मुझे बेइन्तिहा प्यार करता है।

पर
मुझे मालूम है
जब भी मरूंगी मैं,
मेरे प्राणहीन रोमों में
उस जगह के न होने की टीस बराबर बनी रहेगी
जिससे सर्वथा अन्जान
वह,
जो मुझे करता है बेइन्तिहा प्यार
संभवतः
सोच रहा होगा कि अपने तई,
(अपनी कला भर की जगह छोड़ कर,)
अपनी जान से भी अधिक उसने मुझसे किया प्रेम।

क्या उसे कभी याद आएगी, वह जगह, जो मेरी थी और
उसके पास महफूज़ रखी थी।

वह इस पूरे समय मानता रहा,
संभवतः,
उस जगह से छिलेगा हमारा वर्तमान
लगेगी चोट, होगी पीड़ा...अतः रखी रह गई महफूज़ ... यों इन सारे वर्षों तक...
अँधेरे में पंख फड़फड़ाती,
विस्मृत-सी वह जगह, उसी के पास
जिसे पूरा जीवन, भूलने की कोशिश में, अपने भीतर
समय की कब्रगाह में गाड़ती.... मैं -
यह सोचती रही,
कि चाहे हुए क्षणों की, खिलखिलाते कणों की
अनचाही और व्यर्थ सी जगह का, आखिर क्या करती मैं
गर मान लो, मिल जाती मुझे !
वह जगह जो मेरी है, पर मेरे पास नहीं है ...... महफूज़ ।
रंजना अरगडे
9/8/2010

4 टिप्‍पणियां:

  1. कृपया शब्दों का आकर ज़रा सा बढ़ा दें... धन्यवाद...

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  2. पूजा जी, मैंने अक्षरों का आकार बढ़ा दिया है।

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  3. झकझोरती पंक्‍ति‍यॉं...बेहद आर्द्र और संवेद्य।

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  4. बहुत बहुत धन्यवाद। ब्लॉग पर रखी मेरी कविताओं पर आपकी यह पहली टिप्पणी। मुधे अच्छा लगा।
    रंजना अरगडे

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