tag:blogger.com,1999:blog-6293457581278140692024-02-19T01:19:48.376-08:00रचना की भूमि पर आलोचना की पहली आँखइस ब्लॉग में चिंतन, रचना, आलोचना आदि पर अपने विचार और जो विचार मुझे अच्छे लगे हैं, उनको लोगों के साथ बाँटना चाहूँगी।
कुछ मौलिक कुछ उद्धृत कुछ अनूदित- जीवन की ही तरह होगा यहाँ सब।rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.comBlogger29125tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-5711954750939987972014-05-07T08:12:00.001-07:002014-05-07T08:12:15.716-07:00आपको बाज़ार से जो कहिए ला देता हूँ मैं.......<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h2 style="text-align: justify; text-indent: .25in;">
<span style="font-size: small;"><span style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;"> </span></span></h2>
<h2>
<span style="font-size: small;"><span style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;"> Writing on the
wall </span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">अर्थात् किसी के भी बारे
में एक तरह का निर्णयात्मक लेखन। कई बार किसी पुस्तक के फ्लैप पर लिखी सामग्री </span><span style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">writing</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;"> </span><span style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">on the wall </span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">जैसी हो जाती है। मुझे नहीं पता कि <b><i>सेप्पुकु</i></b> उपन्यास का फ्लैप
लेखन किसने किया है, पर इस उपन्यास के संभवित पाठकों को यह '<b>भित्ति-लेख'</b> तो
पढ़ना ही पड़ेगा; अगर पहले नहीं, तो चाहे वह उपन्यास पढ़ लेने के बाद ही उसे पढ़ें
; क्योंकि संभवतः इस उपन्यास को समझने के लिए भी फ्लैप का पढ़ा जाना आवश्यक है; कुछेक सूत्र तो आपको अवश्य मिल सकते हैं।</span></span></h2>
<span style="font-size: small;"><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">यह कहना आवश्यक है कि 'सेप्पुकु' कोई <b><i>मस्ट रीड</i></b>
उपन्यास नहीं है। आप उसे नहीं भी पढेंगे, तब भी आपके जीवन में कुछ अधूरा या सूना
नहीं रह जाएगा। उसी तरह, उसे पढ़ लेने के बाद, आप जीवन के किसी अमूल्य सत्य या
विलक्षण अनुभूति से नहीं गुज़रने वाले। तो सवाल यह है कि क्या <b><i>सेप्पुकु </i></b>को
पढ़ा जाना चाहिए और अगर पढ़ा जाना चाहिए तो क्यों</span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;"> इन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर में ही इस प्रश्न का उत्तर नहित है कि मुझे 'सेप्पुकु'
पर लिखना क्यों ज़रूरी लगा।</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">'सेप्पुकु' विनोद भारद्वाज द्वारा लिखित संभवतः एक, <b><i>न
भूतो न भविष्यति कृति</i></b> है। इस विधान को आप एक सूत्रात्मक वाक्य के रूप में
लें, गुणात्मक वाक्य के रूप में न लें। क्योंकि इस कथन से उपन्यास की गुणवत्ता
नहीं बढ़ती, बल्कि, उपन्यास को समझने में मदद मिलती है। <b><i>न भूतो न भविष्यति</i></b>
इसलिए कि यह हमारे वर्तमान जगत में से एक अत्यन्त
कठिन एवं जटिल कथ्य को लेकर लिखा गया उपन्यास है। सामान्य आदमी को बाज़ार जिस तरह
प्रभावित करता है, उस तरह कला से जुड़े लोगों को नहीं करता। बाज़ार आम आदमी का
भौतिक जीवन दुःसह बना देता है। फिर भी उसके
जीवन मूल्यों पर अधिक असर नहीं पड़ता। पर
बाजार जब कला जगत में प्रवेश करता है तो वह उसकी जड़ों तक जा कर उसके मूल्यों को
ख़त्म कर देता है; जो कहीं- न- कहीं समाज
की मूल्य व्यवस्था पर असर डालता है। कला अगर संस्कृति का हिस्सा है, तो बाजार इस
संस्कृति की जड़ों को किस बेशर्मी से नष्ट करता है, इसका उदाहरण यह उपन्यास है।<br /> </span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">विनोद भारद्वाज को कला की दुनिया का चार दशकों का अनुभव है,
जो पिछले कई वर्षों से लिखे जाने पर भी अगर यह 100 पृष्ठों में ही आ पाया है (पृ
7-पृ 103 तक) तो सोचना यह है कि शिल्पी (विनोद भारद्वाज) ने कितना अनावश्यक पत्थर
काट कर तराशा होगा और यह मूर्ती गढ़ी होगी। आधुनिक काल से लेकर यानी नयी कला से ले
कर उत्तर- आधुनिक कला- दुनिया की यात्रा का सारा निचोड़ इन 100 पृष्ठों में
उपन्यासकार ने प्रस्तुत कर दिया है। इस उपन्यास में कुल 11 अध्याय हैं। अतिम चार
पृष्ठों के अध्याय को छोड़ें तो प्रत्येक अध्याय 7-10 अथवा 11 पृष्ठों की सीमा में
है। आधुनिक काल में आत्महत्या का दार्शनिक मुद्दा बहुत प्रसिद्धा हुआ था उसका
वैचारित बिन्दु (अस्तित्ववादी जीवन दर्शन) विद्रोह, क्रांति और सिस्टम से लड़ने का एक
हथियार था, वह, उत्तर-आधुनिक काल में आ कर
अपना अर्थ बदल देता है। व्यवस्था का विरोध अब शर्म का पर्दा बन जाता है। अपने अपयश
को छिपाने के लिए आत्महत्या को सेप्पुकु जैसे शब्दों में लपेटकर प्रस्तुत किया
जाता है। यहाँ तक पहुँच कर आत्महत्या कलाकार के विद्रोह का नहीं अपितु बेचारगी का
सबब बन जाता है, जिसे, दुर्भाग्य से इस बाज़ार में बेचा जा सकता है। इसे पिछले ज़मानें
के बचे रह गए व्यवस्था-विरोध के मूल्य का अवशेष माना जा सकता है; पर वास्तव में
सत्य यह है कि आत्महत्या करना आज कलाकार की कला-नियति भी हो सकती है। इसे किसी भी तरह
के अच्छे या बुरे अथवा नैतिकता या अनैतिकता जैसे मूल्यों के रूप में नहीं देखना
चाहिए।</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">मूल्य- ह्रास से मूल्यहीनता(अथवा अ-मूल्यता </span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">) की तरफ जाने का अर्थ क्या होता है; तब, जब मूल्यहीन होने
का अर्थ नेगिटिविटी नहीं, बल्कि अ-मूल्यता हो और यह अ-मूल्यता भी अपनी तरह का एक
मूल्य बन जाए ; इस बात को अगर अत्यन्त तटस्थता से समझना हो तो यह उपन्यास पढ़ना
आवश्यक है। इस उपन्यास का जो कथ्य है, उससे निकलने वाले जो अर्थ-संदर्भ हैं, वे
किसी अन्य तरीक़े से किसी भी अन्य उपन्यास में आ नहीं सकते थे- ऐसा इस उपन्यास को
पढ़ कर लगता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस उपन्यास की अर्थ-संरचना एकदम सधी हुई है।पिछले
दौर की तुलना एवं समझदारी के संदर्भ में आज आज की घोर मूल्यहीन (पतनशील) स्थितियों
को दर्शाता यह कथ्य, केवल कला-जगत को आधार बना कर ही लिखा जा सकता था; हम जिस समाज
में रह रहे हैं उसमें किस हद तक मूल्यहीनता प्रवर्तमान है, यह बात कला की दुनिया के
मार्फत इसलिए पता चलती है कि कला की दुनिया सामान्य जीवन से अधिक छूट के साथ जीती है। पहले
से ही कला और कलाकारों को यह छूट मिली हुई है कि वे सामान्य लोगों की तुलना में
अधिक अमर्यादित जीवन जी सके। यह छूट एक तरह से समाज ने ही उनको दी हुई है; और चित्रकला
के अलावा किसी अन्य कला में यह आंतरिक साहस एवं सुविधा ही नहीं है कि वह इस प्रकार
के कथ्य के साथ दो-दो हाथ कर सके।</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">दूसरी तरफ यह भी एक सत्य है कि कलाकारों के प्रति समाज का एक अधिक सम्मान भरा दृष्टिकोण
भी है। 'सेप्पुकु' उपन्यास उस सम्मान-रक्षा का आखिरी आवरण हटा देता है। अलग-अलग
कला-क्षेत्रों को ले कर हिन्दी में इसके पहले भी इस तरह के उपन्यास लिखे गए हैं।
जैसे फिल्म की दुनिया पर सुरेन्द्र वर्मा का 'मुझे चाँद चाहिए' और नाटक की दुनिया
पर निर्मल वर्मा का 'एक चिथड़ा सुख'। पर नाटक और फिल्म कंपोज़िट आर्ट होने के कारण
उसका कथ्य ही अलग हो जाता है...। उसकी समस्या अलग हो जाती है। प्रस्तुति की कला
होने के कारण उसका भीतरी कलात्मक परिवेश और बाहरी सामाजिक परिवेश अलग हो जाता है। और फिर ये दोनों उपन्यास जिस समय रचे गए थे, तब,
अभी कला जगत में भौंडेपन (वल्गैरिटी- इसको
कमीनगी भी पढ़ा जा सकता है) के उस बिन्दु पर नहीं पहुँचा था जहाँ 'सेप्पुकु'
पहुँचता है। और चित्रकला एक कंपोज़िट आर्ट नहीं है। यह एकल कला है जिसमें कला का
विचार और अभिव्यक्ति- दोनों चित्रकार की चेतना और होने का अंश है; जबकि इस उपन्यास
में इसी को (विचार एवं अभिव्यक्ति) बाँट दिया गया है। सेलिब्रेटी चित्रकार सोचेगा
और मज़दूर तदनुसार चित्र बनाएगा जिसकी क़ीमत कला के सौदागर तय करेंगे। औद्योगिक
क्रांति के बाद मज़दूर का अपने उत्पाद से अलगाव हो जाता है क्योंकि वह उत्पादन की
पूरी प्रक्रिया का एक हिस्सा भर है। पर आज के दौर में चाहे सर्जक चित्रकार हो,
चाहे कर्मिक चित्रकार हो, गैलेरी की मालिक हों
खरीददार हो या बेचनवार, हरेक की रुचि केवल वर्तमान और भविष्य में प्राप्त
होने वाले धन को केन्द्र में रखे हुए है। आधुनिक काल में पूँजी के चरित्र और
उत्तर-आधुनिक काल में पूँजी के चरित्र के बीच रहे इस अंतर को विनोद भारद्वाज ने
बताया है।</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">ईमानदारी की बात तो यह है कि इस उपन्यास के शीर्षक ने ही
सबसे पहले मुझे आकृष्ट किया था। (जब किताब का मुखपृष्ट नहीं देखा था, तब भी)। इस
उपन्यास का सेप्पुकु के अलावा कोई और
शीर्षक संभव ही नहीं था। कला जगत के घिनोने और भोंडे यथार्थ के लिए ऐसा ही एक
पहेली जैसा नाम अपेक्षित था।<a href="file:///C:/Users/PARIJAT/Desktop/%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%81%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE.docx#_edn1" name="_ednref1" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="line-height: 115%;">[i]</span></span><!--[endif]--></span></a> उपन्यास
में लेखक ने 'सेप्पुकु' का अर्थ समझाया है। यह एक तरह की हाराकीरी है। हाराकीरी
यानी आत्महत्या। इस उपन्यास का दूसरा ही अध्याय इस नाम से है। 'सेप्पुकु का संबंध
कॉर्पोरेट कला से है, आर्ट मार्केट से है और यही कला बाज़ार जब फलता-फूलता है और तो
फेक आर्ट का धंधा भी फलने फूलने लगता है।' कला का कॉर्पोरेट अवतार, फेक कला और पेज
थ्री संस्कृति ने कला की असली ज़मीन ही बदल दी है। अब कला की दुनिया में आर्ट गैलेरी
के मालिक और मालकिनें, सेलीब्रेटी चित्रकार होना, फेक कला, कला को ऑथेंटिकेट करने
का चक्कर, नकली ख़रीददारी, कला की मजदूरी करने वाले कलाकारों का जीवन और नैतिकता
जैसे मुद्दों को इस उपन्यास में स्थान मिला है। कॉर्पोरेट कला -- यह एक नयी बात
आयी। जैसे एक स्थपति इमारत बाँधने के लिए पहले योजना बनाता है और मज़दूर उसके
अनुसार काम करते हैं, उसकी कल्पना को साकार करते हैं, वैसा ही चित्रकला के क्षेत्र
में हुआ है। चित्रकला में विचार और रंग संयोजन सेलीब्रेटी कलाकार का होता है, उस
पर काम यानी मज़दूरी तो अन्य कलाकार करते हैं। जब चित्र तैयार होता है, तो चित्रकार
उस पर अपने हस्ताक्षर करता है। चित्र की कीमत हस्ताक्षरों के ऑथेंटिकेशन से तय
होती है। चित्रकार की अनुपस्थिति में कोई निकटस्थ भी यह काम कर लेता है। इन सभी के
लिए पैसों का लेन-देन होता है। चित्रकला की इस घिनौनी दुनिया में धन और सेक्स का
जितना भौंडा रूप हो सकता है, उसे विनोद भारद्वाज ने खुले ढंग से लेकिन फिर भी यथा
संभव संयमित तरीक़े से( संक्षेपीकरण भी एक तरह का संयम है) प्रस्तुत किया है। जैसे
न्यूड पेंटिंग होते हैं। न्यूड होने के कारण वे खुले ही होते हैं परन्तु पेंटिंग
होने के कारण वे कलात्मक संयम के साथ प्रस्तुत होते हैं।</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">इस उपन्यास में बलदेव और प्रतापनारायण के माध्यम से दो छोटी
जगहों से आने वाले कलाकारों की कला यात्रा को आधार बना कर पूरे चित्रकला जगत की उन
सच्चाइयों को उजागर किया है जिसे विनोद भारद्वाज जैसा ही कोई बता सकता था; क्योंकि
उनका संबंध इतने लंबे समय से इस कला की दुनिया से रहा है। विनोद भारद्वाज ने
चित्रकला जगत में व्याप्त सभी तरह के व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक संबंधों को बेरहमी
से प्रस्तुत किया है। कॉर्पोरेट जगत के चित्रकला में प्रवेश के कारण जिस तरह बलदेव
जैसे लोग, अधिक क्षमतायुक्त होने के बावजूद एक दलाल बन कर रह जाते हैं और कमर्शियल
आर्ट सीखा हुआ सामान्य व्यक्ति , प्रतापनारायण कला जगत में सेलीब्रेटी बन जाता है;
लेखक ने इसकी करुण कथा अत्यन्त निर्ममता से उजागर की है। 'एक ग्रेटकैशर की आत्मकथा' शीर्षक वाले अध्याय में लेखक ने इस करुण कथा का
बयान किया है। जिसे मार्केट उठाता है उसे जीवन में सब कुछ मिलता है और जिसका
मार्केट नहीं है उसकी अपनी कला भी उसकी सगी
नहीं है। मार्केट ही तय करता है कि कौन अधिक क्षमतायुक्त है। अपना खराब समय
आने की भनक पाते ही प्रताप जैसे कलाकार को सेप्पुकु कर लेना पसंद करना पड़ता है।
प्रताप का कोमा में जाना और मरना एक तरह से इस बात का संकेत है कि आज के समय में बाज़ार
ही आपको कोमा में डालता है और आपको आत्महत्या की दिशा में ले जाता है। मार्केट
आपको एक तरह से मार डालता है। मार्केट के द्वारा की गयी हत्या कलाकार की आत्महत्या
के रूप में दिखती है। प्रताप की मृत्यू तब होती है जब वह अपनी प्रसिद्धी के शिखर
पर होता है अतः उसकी मृत्यू इतनी करुण नहीं जितनी सुहास हाडे की, जो किसी समय पेज
थ्री का सेलीब्रेटी था और मरने पर उसी की गैलेरी में आयोजित प्रदर्शनी में उसका
ज़िक्र नहीं होता। बाजार मरने के साथ तभी सहानुभूति रखता है जब उसका उसमें कोई लाभ
हो। फिर इसमें सुभाष बाबू, नरेश बाबू और न जाने कितने ही नामी अनामी बाबू हैं जो
इस कला बाज़ार के डेली वेजर्स हैं। कला बाजार में आयी, तो जिन्स बन गयी और तो और कितनी
भोंडी बन गयी इसकी प्रतीति इस उपन्यास को पढ़ कर होती है।</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">लेखक ने इसकी वस्तु को प्रतापनारायण और बलदेव इन दो पात्रों
के कला जीवन के इर्द-गिर्द बुना है। इसके साथ उपन्यास के अन्य कथा अंश जोड़े हैं; कला
जगत के अनेक अनुभवों को जोड़ उसकी तमाम आंतरिक सच्चाइयाँ उजागर की हैं। इसमें कुछ
वास्तविक कलाकारों का भी उल्लेख है पर चूंकि यह एक कलाकृति है अतः माना जा सकता है
कि उनके नाम वास्तविक होंगे, घटना प्रसंग नहीं। फिर इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता।
कलाकारों को विदेश भेजना, उनकी प्रदर्शनियाँ लगवाना, उनको पुरस्कार दिलवाना, उन पर
समीक्षा लिखना और लिखवाना --- इसका संबंध कला के मेरिट से नहीं है, बल्कि कला की
राजनीति और कला के बाजार से जुड़ी है यह पता चलता है।</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">अचानक हमें लगता है कि साहित्य में भी तो ऐसा ही होता है—कमोबेश।
चित्रकला का जगत दृश्यमान (विजुएल) अतः यहाँ भी सब दिखाई पड़ता है। साहित्य में वह इतना दृष्टिगोचर नहीं है। केवल
चिंतन और चेतना के स्तर पर विद्यमान है। बस यही इस उपन्यास की सफलता है </span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">!</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;"> विनोद भारद्वाज नें असल में कॉर्पोरेट दुनिया और मार्केट
के कला में दखल को इस तरह खोल कर रख दिया है कि यह उपन्यास हमारे उत्तर आधुनिक समय
का एक कलापरक दस्तावेज़ बन गया है। आधुनिक काल तक तो शर्म, हया जैसे मूल्यों के
ह्रास की चिंता कवियों और आलोचकों को थी; यानी कि वो मूल्य <b>थे</b> ; परन्तु
बाजार के इस दौर में इनकी न आवश्यकता है,
न ही कोई ज़िक्र...... दे जस्ट डोन्ट एग्ज़िस्ट .... । अपने पाँव जमाने की
कोशिश करता प्रताप नारायण रस्तोगी जैसा चित्रकार इस बात से शर्मसार नहीं है कि
किसी समय अपने गुरुवत् रहे अध्यापक से बड़े शहर में एक घंटा बिताने के पैसे ले।
साथ में खाना पीना भी। वहाँ दूसरी ओर गुरु भी कम नहीं है। इसके पहले कबी उसने
रस्तोगी के सामने चूम लेने की चाहना जैसा निवेदन किया था। गुरु –शिष्य के संबंधों
में आयी परिवर्तन की वास्तविकता का भी यहाँ निदर्शन है। किसी के साथ बिताए हुए समय की कीमत वसूलने की
हकीकत आधुनिक काल तक वेश्याओं या कॉल गर्ल्स तक सीमित थी; पर इस मूल्यहीनता अथवा अ-मूल्यता
के दौर में इसका भी विस्तार हो गया है।<br /> </span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;"> </span></span><hr align="left" size="1" width="33%" />
<span style="font-size: small;"><a href="file:///C:/Users/PARIJAT/Desktop/%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%81%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE.docx#_ednref1" name="_edn1" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 115%;">[i]</span></span><!--[endif]--></span></a>
</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: small;">सेप्पुकु, विनोज
भारद्वाज, वाणी प्रकशन, दिल्ली, 2014 प्रथम संस्करण, मूल्य 200 रूपए, हार्ड बाउंड,
103 पृष्ठ, आइ.एस.बी.एन</span><span style="font-size: 9pt;"><o:p></o:p></span></span>
</div>
rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-9896765212363830532014-04-22T13:38:00.000-07:002014-04-22T13:38:18.186-07:00पुस्तक समीक्षा(समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-left: 2.0in; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">क्या जामक लौटाए जा सकते हैं?</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">श्री विद्यासागर नौटियालजी का गद्य पढ़ना हमेशा ही एक प्रीतिकर अनुभव होता है।
अतः जब उनका सद्य प्रकाशित (2012) उपन्यास पढ़ा तो जैसे उस अनुभव को दृढ होते हुए
पाया। <b><i>मेरा जामक वापस दो</i></b> अपने शीर्षक में अबूझ-सा लगता है क्योंकि
जामक का अर्थ-संदर्भ हमारे पास नहीं है। " <b><i>जामक </i></b></span><b><i><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">–<span lang="HI"> पचास घरों का एक छोटा-सा गाँव। पिछले कुछ बरसों से इस गाँव के एक छोर पर
काली रहता है , दूसरे छोर पर हरि। काली ऊँचाई पर रहता है। जहाँ हरि रहता है, वह
गाँव में सबसे निचले स्तर पर, भागिरथी के तट के पास है। हरि के मकान के बाद पुल को
पार करते ही वह बटिया शुरु होती है जो मनेरा बाँध की ओर जाती है। गांव की सीमा के
बाहर नदी को पार कर लेने के बाद वह बटिया गंगोत्री-उत्तरकाशी मोटर मार्ग से जुड़
जाती है। पहाड़ों और उनकी चोटियों-घाटियों से निकलकर दुनिया से संपर्क करा देने
वाली एक मात्र बटिया।"</span></span></i></b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">उत्तर काशी में बसा यह छोटा-सा गाँव लेखकीय चिंताओं के केन्द्र में है। उपन्यास
को पढ़ लेने के बाद जामक का भौगोलिक परिचय हमें मिलता है और यह भी पता चलता है कि
लेखक जामक को <u>किस से</u> और <u>क्यों</u> वापस माँग रहा है। गुमनामी के अँधेरे
में रहे इस गाँव को पहले वहाँ हो रहे विकास कार्यों के परिणाम स्वरूप मानव-सर्जित
भूकंपों का सामना करना पड़ा और फिर (संभवतः) उसी के परिणाम स्वरूप प्राकृतिक आपदा
रूप भूकंप का सामना करना पड़ा। यहाँ सायमन को भगा कर (गो बैक सायमन वाले सायमन को)
हिन्दुस्तान लेने की बात नहीं है फिर भी सायमन के स्वातंत्र्योत्तर काले वंशजों ने
तत्कालीन देशवासियों के वर्तमान वंशजों से जो छीना है, और छीन रहे हैं आज भी
लगातार, उसको वापस लेने की आवाज़ जामक वासियों को किस तरह क्रमशः मिलती है, इसे लेखक
ने अपने इस उपन्यास में दिखाने की कोशिश की है। आज़ादी के बाद सामान्य जन के शोषण का ठेका जिन
व्यवसायियों तथा सरकारी कारिंदों ने लिया है उसका बड़ा सच्चा चित्र इस उपन्यास में
प्रस्तुत हुआ है। </span><b><i><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></b></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">उत्तरकाशी में आए विनाशकारी भूकंप की घटना को केन्द्र बनाकर लिखा गया यह
उपन्यास, आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी आम जनता और अंतराल के गाँवों में रहते
लोगों की बदहाली का खरा चित्र हमारे सामने प्रस्तुत करने में सफल हुआ है। राजनीतिक
पार्टियाँ तथा व्यापारियों की मिलि-भगत को, जिसमें पत्रकारिता की भी एक सहयोगात्मक
भूमिका रहती है, बड़े ही विस्तार के साथ इस उपन्यास में चित्रित किया है। इस लोकतांत्रिक
व्यवस्था में सबसे अधिक किसे भुगतना पड़ता है, लेखक ने इसका सटीक चित्र हमारे
सामने रखा है। इसका एक मुख्य कारण है </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">–<span lang="HI"> गाँव में शिक्षा का अभाव। शिक्षा के प्रचार
में विचारधाराएं तथा विचारधाराओं को चलाने वाली राजनैतिक पार्टियाँ किस प्रकार
अपने हाथ सेंकती हैं इसे इस उपन्यास की कथा-वस्तु का विषय बनाया गया है।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"> प्रकृति विरुद्ध विकास, प्रकृति बनाम
अंधविश्वास, मिथ, (प्राकृतिक) संकट विरुद्ध सरकारी नीतियाँ, समय के साथ बदलते
पारिवारिक संबंध, स्त्री-शिक्षा और वास्तविक विकास के बिंदु इस उपन्यास का कलेवर
रचते हैं। लेखक ने भूकंप का अनुभवजन्य वास्तविक चित्रण किया है-</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">"<b><i>मक़ान
काँपा, थरथराया और फिर यों हिलने-डोलने लगा कि जैसे किसी बच्चे का पालना हिल रहा
हो बांए से दाहिने और फिर दाहिने से बांए, या कोई हंडोला झूल रहा हो आगे से पीछे।
भयानक और विचित्र आवाज़ें करते हुए उस घर की इमारत के जोड़-जोड़ टूटने उखड़ने लगे।</i></b>"
</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"> पर्यावरण अध्ययन की दृष्टि से यह एक
अत्यन्त महत्वपूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है। आज के बहु-विध विमर्शों में
पारिस्थितिक पद्धति तथा पर्यावरण विमर्श केवल विज्ञान तक सीमित न रह कर साहित्य एवं
मानविकी तथा विधि जैसे विषयों में भी अपनी पैठ रखने लगे हैं। विकास के नाम पर
मनुष्य पर्यावरण संकट को किस तरह बढ़ावा दे रहा है , सरकार किस तरह से संकट को
गहरा बनाने की नीतियाँ गढ़ रही है, इन सब का चित्र इस उपन्यास में बख़ूबी मिलता है।
हमें लेखक की प्रगतिशील दृष्टि का भी परिचय भली भाँति मिलता है। कोंग्रेस,
दक्षिणपंथी तथा वामपंथी पार्टियाँ जनता को किस तरह खुवा देने वाले चक्राकार में घुमा
रही हैं, कभी विकास के नाम पर तो कभी सुशासन के नाम पर तो कभी राष्ट्रीय अस्मिता
के नाम पर, इसे लेखक ने इस उपन्यास में संप्रेषित करने का उपक्रम किया है। बदलते
हुए समय के साथ पहाड़ का भोला-भाला आदमी भी कितना चालाक होता जा रहा है, इसकी ओर
भी लेखक ने इशारा किया है।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">लेखक को विश्वास है कि आदमी कुदरत से जीत नहीं सकता क्योंकि-</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">"<b><i>लेकिन
कुदरत भी जिसका कुछ न बिगाड़ सके ऐसा कोई भवन कौन बना सका है आज तक ? कुदरत की बात
अलग है। उसकी हरकतें किसी को पूछ कर नहीं होतीं। वह एक झटके में इन्सानी बस्तियों
को नेस्तनाबूद कर दे। पहाड़ों को झकझोरते हुए वहाँ जमा मिट्टी-पत्थरों को घटियों
में बिछा दे और उनकी सूरत</i></b></span><b><i><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">–<span lang="HI">शकल को ही बदल डाले। ........कुदरत से कौन
जीत सकता है। आदमी, पालतू पशु और बनैले जानवर, वनस्पति ? इनमें से कुदरत जिसे चाहे
घायल कर दे, अशक्त बना दे, वह जिसकी चाहे जान ही ले ले। " </span><o:p></o:p></span></i></b></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">इस भयावह भूकंप में अगर कोई चीज़ ऐसी है जिसके सहारे टिका जा सकता है तो वह है
केवल प्रेम और दूसरे के प्रति सह- सम-वेदना।
यही वे दो प्रमुख तत्व हैं जिसके बल पर आम आदमी ज़िंदा है और उसी के बल पर यह
पर्यावरण भी बना रह सकता है। पर साथ ही लेखक को भय इस बात का भी है कि अगर
परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया तो वह दिन दूर नहीं कि पहाड़ का यह भोला
जीव अपनी मूल प्रकृति ही खो देगा। </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">यह कृति अपनी भाषा, अनुभव की सच्चाई और यथार्थ को देखने तथा दिखाने की लेखक की
पैनी और औचित्यपूर्ण संतुलित दृष्टि के कारण अवश्य ही पढ़ा जाना चाहिए। हिन्दी में
अब इस तरह के उपन्यास लिखे जा रहे हैं यह हिन्दी पाठक के लिए भी आश्वस्ति का विषय
है। भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा से जन-जीवन तथा लोगों के परस्पर के व्यवहार में
अंतर आ सकता है, प्रदेशवार उसमें भिन्नता भी हो सकती है, परन्तु तंत्र की जड़ता
एवं लूट तो स्थाई भाव की तरह सर्वत्र व्याप्त है- फिर भूकंप चाहे उत्तरकाशी में
आया हो या गुजरात में।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">मेरा जामक वापस दो- विद्यासागर नौटियाल (उपन्यास)</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">प्र. सं-2012</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">मूल्य 350-00 </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-left: 2.5in; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">डॉ. रंजना अरगडे, </span></b><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-left: 3.0in; text-align: justify;">
<b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, </span></b><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-left: 3.0in; text-align: justify;">
<b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">गुजरात युनिवर्सिटी, नवरंगपुरा अहमदाबाद</span></b><b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 10.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"> </span><b><i><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></b></div>
</div>
rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-14913224105860714212013-09-29T04:50:00.003-07:002013-09-29T04:50:42.103-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="Section1">
<div style="mso-element-anchor-horizontal: column; mso-element-anchor-vertical: paragraph; mso-element-frame-hspace: 2.85pt; mso-element-linespan: 2; mso-element-wrap: around; mso-element: dropcap-dropped; mso-height-rule: exactly;">
<table align="left" cellpadding="0" cellspacing="0" hspace="0" vspace="0">
<tbody>
<tr>
<td align="left" style="background-color: transparent; border: rgb(0, 0, 0); padding: 0in 2.85pt;" valign="top">
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 48.05pt; margin: 0in 0in 0pt; mso-element-anchor-horizontal: column; mso-element-anchor-vertical: paragraph; mso-element-frame-hspace: 2.85pt; mso-element-linespan: 2; mso-element-wrap: around; mso-element: dropcap-dropped; mso-height-rule: exactly; mso-line-height-rule: exactly; page-break-after: avoid; text-align: justify; text-indent: 0.25in; vertical-align: baseline;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 36pt; mso-bidi-language: HI;">शमशेर<o:p></o:p></span></div>
</td>
</tr>
</tbody></table>
</div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>हिन्दी के उन थोड़े
–से कवियों में हैं जो अपने जीवनकाल में ही एक मिथ बन गये – कुछ इस तरह की बात
अपने वक्तव्य में कभी संभवतः, श्री अशोक वाजपेयी ने कही थी। आज मैं जब सोचती हूँ ,
तो सचमुच , मुझे लगता है कि कई मायनों में यह सही है क्योंकि शमशेर की तरह लिखना,
सोचना और जीना लगभग अन-अनुकरणीय है। एक कवि ,शुद्ध कवि ,कैसा हो सकता है- इस बात को
अगर हमें जानना हो तो निश्चय ही शमशेरजी उसके उदाहरण हो सकते हैं। अन-अनुकरणीय
इसलिये कि शमशेर जैसा कवि होने का मतलब है - </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt 0.5in; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span lang="EN-IN" style="font-family: Wingdings; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;"><span style="mso-list: Ignore;">Ø<span style="font-size-adjust: none; font-stretch: normal; font: 7pt/normal "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">कला के प्रति हाड़ तक ईमानदार होना </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt 0.5in; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span lang="EN-IN" style="font-family: Wingdings; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;"><span style="mso-list: Ignore;">Ø<span style="font-size-adjust: none; font-stretch: normal; font: 7pt/normal "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">अभियक्ति<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>(लिखित और मौखिक दोनों ही)
के प्रति सच्चा होना </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt 0.5in; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span lang="EN-IN" style="font-family: Wingdings; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;"><span style="mso-list: Ignore;">Ø<span style="font-size-adjust: none; font-stretch: normal; font: 7pt/normal "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">अपनी भाषा के स्वरूप को इसलिये निरंतर निखारना कि यह कवि होने के नाते एक
अ-लिखित कर्त्तव्य माना गया है।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt 0.5in; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span lang="EN-IN" style="font-family: Wingdings; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;"><span style="mso-list: Ignore;">Ø<span style="font-size-adjust: none; font-stretch: normal; font: 7pt/normal "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मुक्त आकाश में उड़ना, पर दूसरों की स्पेस हथियाकर नहीं,बल्कि दूसरों के लिये
इस तरह जगह बनाते हुए कि उनकी परवाज़ का भार और उपस्थिति का दबाव न हो।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt 0.5in; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span lang="EN-IN" style="font-family: Wingdings; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;"><span style="mso-list: Ignore;">Ø<span style="font-size-adjust: none; font-stretch: normal; font: 7pt/normal "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">अथाह प्रेम करना और प्रेम के मूल्य में ही सभी मूल्यों का समावेश कर लेना। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 12pt 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">असल में
शमशेरजी पर कुछ भी लिखने का आरंभ करते ही हमें अपनी ही कही हुई बात इसलिये रहस्यमय
लगने लगती है कि हम जो लिख रहे होते हैं वह चूँकि वर्तमान में लगभग नदारद ही है
अतः लिखते के तुरंत बाद लगने लगता है कि कहीं यह अतशयोक्ति तो नहीं है। यह बात
शमशेरजी की कविताओं पर जितनी लागू होती है उतनी ही उनके गद्य पर भी लागू होती है।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
</div>
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-IN; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-language: EN-US;"><br clear="all" style="mso-break-type: section-break; page-break-before: auto;" />
</span>
<br />
<div class="Section2">
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">1</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">अगर मैं अंतिम बात से आरंभ करूं तो मुझे उनकी उन कविताओं का
स्मरण आता है जिनमें उन्होंने प्रेम की बात की है। शमशेरजी जिस समय में प्रेम की
बात करते हैं वह समय ही अब बीते ज़माने की बात हो गया है। आज का नया पाठक , नया
कवि प्रेम को इस तरह नहीं देख सकता जहाँ प्रेम करने के क्षण में सात सागर उफ़न उठेंगे।
<b><i>'चुका भी हूँ नहीं मैं, /कहाँ किया मैंने प्रेम अभी, /जब करूंगा प्रेम ,
पिघल उठेंगे युगों के भूधर, /उफ़न उट्ठेंगे सात सागर, किन्तु मैं हूँ मौन अभी,/कहाँ
किया मैंने प्रेम अभी।</i></b><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>असल में इस
कविता में हम प्रेम नामक मूल्य या तत्व या अस्तित्व का एक ऐसा स्वरूप देख सकते हैं
जिसके विषय में आज<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सोचना भी कठिन हो गया
है। शमशेर के लिये प्रेम एक ऐसी उर्जा थी जो सचमुच धरती को आलोड़ित कर दे। आज
व्यक्ति के मन में भी भूधर या सात सागर इस तरह जमा ही नहीं <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>हैं कि कुछ पिघल सके। अब हमारे लिये ऐसा कुछ भी
होने देने जितना अवकाश ही शेष नहीं रहा है। कवि के मन में तब यह विशवास था कि अगर
कवि प्रेम करे- और कवि का प्रेम निश्चित रूप से व्यापक ही होता है- तो यह संभव हो
सकता है। कवि का अपने कवि भर होने के कारण इतना तो विश्वास था ही कि ऐसा होगा। आज
कवि क्या अपने कवि होने के कारण एक सींक तक हिला सकेगा इसका भरोसा कर सकता है ? वह
क्यों लिखता है और उसके लिखने से क्या वह भरोसा रख सकता है कि कुछ परिवर्तन होगा।
कविता से परिवर्तन हो जाये यह संभव नहीं, यह तो ठीक है। परन्तु कवि का अपने शब्द
और अपने आप पर इतना भरेसा भी कहाँ रह गया है। इसलिये यह कविता मुझे एक मिथक की तरह
लगती है कि कोई कवि यह सोचे कि उसके प्रेम करने से ऐसा-ऐसा हो जायेगा। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">आज इस बात की कितनी आवश्यकता है कि मनुष्य के प्रेम करने से
इस हमारे पूरे परिवेश में भी कोई हलचल हो। कोई स्पंदन हो। मनुष्य ने नदियों और
पर्वतों पर अपनी दृष्टि इस क़दर गाड़ रखी है कि वे अब मनुष्य की भावनाओं या ऊर्जा
से अ-प्रभावित ही रहते हैं। आज के भावनाहीन मनुष्य के लिये निश्चय ही ऐसा कह और
सोच पाना असंभव है। वह क्या चीज़ है जो आड़े आती है? फिर क्यों महज़ एक बादलों का
तार उसे उलझा रहा है? वह कौन-सा तार है जो उसकी लंबी-लंबी घासों को पार करती
टांगों के आड़े आ रहा है। यह महज़ वही है – कि अब प्रेम करने जितना सहज भाव ही
मनुष्य जीवन से नदारद हो गया है। यह संकट आज क पूरे मानव समाज का संकट है, जिसकी
तरफ़ कवि इशारा करता है। शमशेरजी की कविता का यही सौन्दर्य है कि जैसे-जैसे हम
अपने मनुष्य होने के अनुभव में प्रौढ़ होते जाते हैं वैसे – वैसे उनकी कविताएं
सौन्दर्य का खोल उतारती शब्द की मूल</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">/</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">ज़मीनी अर्थवत्ता को हमारे
सामने रखती हैं। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि शमशेर की कविताएं एक भ्रम रचती
हैं। वह हमें ऐसा प्रतीत कराती हैं कि शमशेर एक सौन्दर्यवादी कवि हैं। अतः सौन्दर्यवादी
जहाँ एक सशक्त कवि को अपने पक्ष में पाकर प्रसन्न होते हैं वहीं दूसरे पक्ष के कवि
और आलोचक उन पर सोचना छोड़ देते हैं। क्यों शमशेर ने अपने आप को इस सीमा तक
असंप्रेषणीय रहने दिया है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है जो शमशेर के अध्येताओं के
लिये एक पहेली से कम नहीं है। जिसने केवल और केवल ज़िन्दगी भर कविता ही की है,
जिसने केवल <span dir="RTL">कला के माध्यम </span>से अपने जीवन को सुविधाजनक बनाने
की<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कोशिश न की हो- चाहे भैतिक स्तर पर हो <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>या भावनात्मक स्तर पर, वह अपने आप को इतना
असंप्रेष्य क्यों बनाना चाह रहा होगा, यह एक प्रश्न तो है ही। संभवतः उनके लिये
कविता या कला एक नितांत पवित्र वस्तु थी और वे उसे अंत तक वैसा ही रहने देना<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>चाहते थे। इसे आप पवित्रतावादी अभिगम की तरह न
लें। बल्कि इस तरह समझें कि कला उनके लिए जीवन की सबसे अमूल्य वस्तु थी कि जिसके
साथ कुछ भी अघटित करना गुन्हा हो मानों उनके लिए। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>उनकी ऊषा कविता को जब मैंने पहली बार पढ़ा तब
सौन्दर्य के एक उदाहरण के रूप में उसे पढ़ा था, समझा था। एक ऐसी कविता जिसमें आकार
लेती सुबह अपनी अद्भुत् प्रक्रिया और रंगों के साथ हमारे सामने प्रकट होती है। इस
रूप में भी कविता के अर्थ ने मुझे आल्हादित किया था। शमशेर के सौन्दर्य बोध को
दर्शाने वाली महत्वपूर्ण कविताओं में ऊषा का समावेश किया जाता है। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">लेकिन वर्षों बाद इस कविता को पढ़ते हुए मुझे सहसा यह
प्रतीत हुआ कि इस सौन्दर्य बोध के भीतर शमशेरजी की समाज-दृष्टि भी श्लिष्ट है। यह
कविता आकाश के रंगों का वर्णन न हो कर धरती के रंगों का चित्रण है। बहुत नीला शंख
जैसा भोर का नभ में शंख के कारण जहाँ मंदिर का दृश्य सिरजता है<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>वहीं राख से लीपे हुए चौके में ग्रामीण घर की
बात है। काले सिल पर लाल केसर पूजा आदि का संदर्भ है तो स्कूल में जाते हुए बच्चे
बाद के दृश्य में हैं, जहाँ स्लेट खड़िया चाक मल दी हो किसीने – वाली पंक्तियां
आती हैं। फिर<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>काम करती ग्राम-स्त्रियां
हैं। आप अगर सौन्दर्यवादी हैं तो आसमान में देखें और जीवन वादी हैं तो धरती पर
देखे। कवि<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सौन्दर्य के आवेष्टन में जीवन
के चित्र उपस्थित करते हैं। इससे रचना कविता भी बनती है और जीवन का चित्र भी
उपस्थित करती है। कवि का कौशल इस कविता में यह है कि वे एक साथ धरती और आकाश के
दृश्य कविता में रचते हैं। इससे कविता का सौन्दर्य बोध बढ़ता भी है। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>प्रेम के मूल्य का
शमशेर के लिए अर्थ यही है कि दोनों पक्ष समान भूमि पर हों। <b><i>तुम मुझसे प्रेम
करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।</i></b> उनसे लिए प्रेम का एक अर्थ है शांति। यह
शांति किसके लिए ? और कैसी<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>? उन बच्चों के
लिए, जिनके वास्ते युद्ध के औजारों के लोहे को गलाकर खिलौने बनाए जाएं। शमशेरजी की
कविताएं<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>एक ऐसे अनुभव विश्व में हमें ले
जाती हैं जो ग़ज़ब का वास्तविक और अविश्वसनीय है। इस संदर्भ में उनकी टूटी हुई
बिखरी हुई कविता के आरंभ को देखा जा सकता है। <o:p></o:p></span></div>
</div>
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-IN; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-language: EN-US;"><br clear="all" style="mso-break-type: section-break; page-break-before: auto;" />
</span>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify;">
<b><i><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></i></b></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">टूटी हुई बिखरी हुई </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>चाय की दली हुई
पाँव के नीचे</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt 3.5in; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पत्तियाँ मेरी कविता । </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">बाल मैल से रुखे , गरदन से फिर भी </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">चिपके</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">,</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> कुछ ऐसी मेरी खाल मुझसे अलग-सी,
</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मिट्टी में मिली –सी।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>दोपहर बाद के
धूप-छाँव में खड़ी इंतज़ार में ठेले-गाडियाँ </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">जैसे मेरी पसलियाँ।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt 1in; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>खाली बोरे सूजों से
रफ़ू किये जा रहे हैं</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">, <o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt 1.5in; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">जो कि मेरी आँखों का सूनापन है। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">ठंड भी एक मुस्कुराहट लिए हुए है </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt 2in; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">जो कि मेरी दोस्त है।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">उपरोक्त पंक्तियां अपने आप मे और साथ-ही-साथ कविता के परिप्रेक्ष्य में बड़ी
विलक्षण हैं। मुझे कई बार लगता है कि भावों को इस तरह लिखने का क्या कारण हो सकता
है। इतना अधिक अपने आप को इन-ह्यूमन बनाने का क्या कारण हो सकता है। उपरोक्त <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कविता के विश्व में अगर हम प्रवेश करते हैं तो
इन पंक्तियों के ठीक बाद आने वाले बिम्बों के जक्सटापोज़ में ये पंक्तियां कविता
में विरुद्ध का सौन्दर्य रचती हैं। हालांकि यह <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सौन्दर्य हमारे हृदय को भाव-पक्ष की दृष्टि से
आलोड़ित भी करता है।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>मेरी कविता और मैं के
दो चित्र कवि ने हमारे सामने रखे हैं। पहले अपनी कविता के विषय में- तो कैसी - <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>दली हुई चाय की पत्तियों की तरह जो टूटी हुई और
बिखरी हुई हैं- ऐसी ये चाय की पत्तियां कहाँ हैं तो पाँव के नीचे हैं। यानी
पद-दलित हैं। कई-कई बार उबल और निचुड़ जाने पर, सारा सत्व निकल जाने पर जब चाय की
पत्तियों को फेंक दिया जाता है और वह पद-दलित हो जाती हैं- कवि अपनी कविता को इस
बिम्ब में रखते हैं। जितनी सत्वहीन उनकी कविता हो गई है उतने ही सत्वहीन हैं उनकी
खाल और बाल। बाल मैल से रूखे हैं, गरदन से फिर भी (पसीने के कारण) चिपके हुए हैं
और खाल , जो कि शरीर से चिपकी हुई होती है, वह मानों अलग-सी है और मिट्टी में
मिली-सी है। लक्षणा के स्तर पर इसका अर्थ नष्ट हुई-सी भी लिया जा सकता है। यह
मैला-कुचैला पन जब ठेलेगाडियों के बिम्ब के साथ पढते हैं तो एक श्रमिक का चित्र भी
उभरता है। पर दोपहर बाद की धूप-छाँव में खड़ी ये ठेलेगाडियाँ हमें सोचने के लिए
बाध्य करती हैं कि यह श्रमिक का नहीं बल्कि निष्फल प्रेम में टूटे और बिखरे प्रेमी
का चित्र है- वहाँ आखों के सूनेपन का उल्लेख है । क्योंकि <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बोरे जिस तरह मैले और रूखे- फटे होते हैं वैसे
हो गए इस कवि ने अपने आप का चित्र हमारे सामने रखा है। ये जो इंतज़ार की ठेले
गाडियां हैं-उन्हें कवि अपनी पसलियों की तरह कहता है। दोपहर बाद की धूप-छाँव में
ठेलेगाडियों की छायाएं ज़मीन पर जो चित्र रचती होंगी वे पसलियों की मानिंद दिखते
होंगे। पसलियों के बीच में ही तो होता है हृदय। उसी हृदय में ही तो भाव उठते हैं,
उन्हीं भावों से ही तो कविता का निर्माण होता है, वही हृदय तो टूट और बिखर गया है।
वातावरण में जो एक ठंड है वही दोस्त बन गई है। कठिनाइयां और कष्ट कवि के इतने
क़रीब हैं, जैसे दोस्त होते हैं। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">इस पृष्टभूमि में कवि उन सुंदर आकर्षक बिम्बों को रचते चले जाते हैं जो इस
कविता में और शमशेरजी की रचनाशीलता में अमर हो गए हैं। कबूतरों ने एक ग़ज़ल
गुनगुनाई से लेकर बहुत से तीर बहुत सी नावें तक कवि अद्भुत् बिम्ब सृष्टि करते
चलते हैं। जैसा कि इसके पूर्व कहा है इस कविता का विश्व ग़ज़ब का वास्तविक और
अविश्वसनीय है। वास्तविकता की पृष्टभूमि में आसमान में गंगा की रेत है, नाव की
पतवार बनती बाँसुरी है, ऊषा की खिलखिलाहट पहने हुए फूल हैं और कितना कुछ। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">कविता संरचना की दृष्टि से यह निराला की वनबेली कविता की याद दिलाती है। उसमें
भी मूल कविता की एक अलग-सी दिखने वाली पृष्ठभूमि है फिर कविता का आरंभ होता है। पर
दोनों कविताओं का पोत अलग होने के कारण प्रभाव भी अलग दिखाई पड़ता है। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">शमशेर की कविता में और उनके जीवन में अगर प्रेम को निकाल दिया जाए तो कुछ नहीं
रहेगा- सिवाय खाली बोरे के(सूजों से रफू किये जाते !) </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">2</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt 0.25in; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">अगर कविता कला है तो कला का क्या अर्थ हो सकता है? <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>शब्द विभिन्न माध्यमों के जरिए अपने अनुभवों और
अपने परिवेश को शब्दों द्वारा नया रूप देना। और ऐसा करते हुए अनंत कष्ट भी अगर
सहना हुआ तो उसकी तैयारी रखना। शमशेरजी ऐसा मानते थे कि जब तक भाषा सही नहीं होगी
भाव सही नहीं हो सकते। कवि आखिरकार भाषा से ही तो काम करता है। कवि चाहे चौबीसों
घंटे कवि नहीं हो पर अगर वह कलाकार है, तो उसे चौबीसों घंटे कलाकार ही रहना पड़ता
है। पर कलाकारी इन्सानियत की क़ीमत पर तो नहीं ही – मुझको मिलते हैं कवि और कलाकार
बहुत, पर इन्सान के दर्शन हैं मोहाल। इन्सान होना ही कलाकार होने की पहली शर्त है-
यह शमशेर की कविताओं में दिखाई पड़ता है। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">शमशेरजी की एक कविता है- जिसमें उन्होंने काले और सफ़ेद पत्थर के बहाने नस्लीय
भावना को प्रस्तुत किया है। एक बार उनसे बातचीत में एक चौंकाने वाली बात का अनुभव
हुआ। उन्होंने कही कि ये जो ब्नैक हैं उनके प्रति मुझे घिन है। मेरे लिए यह
अत्यन्त आघात जनक बात थी। मैंने कहा कि आप तो मार्क्सवादी हैं और यह आपका विधान तो
इसके विरोध में जाता<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>और इतना ही नहीं इससे
तो आप नस्लवादी भी हैं। अपनी शमशेरीय अदा में उन्होंने कहा कि हो सकता है पर यही
सच है। फिर अपने दिल्ली के अनुभवों के आधार पर उन्होंने अपनी बात को जस्टीफाय
किया। पर मेरा आलोचक उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। उन्होंने कहा तुम को जो
मानना है तुम मान सकती हो, पर मेरी सच तो यही है। मैंने कहा इसका मतलब आपकी
अभिव्यक्ति और अनभूति में फाँक है। उन्होंने कहा कि तुम इसका जो अर्थ लगाना चाहो।
मैंने तर्क किया कि इसका मतलब यह हुआ कि आप को कालों पर गोरों के अत्याचार के
प्रति जो सहानुभूति है , कविता में , वह झूठी है। उन्होंने कहा कि नहीं, वह सच्ची
है। व्यापक मानवीय संदर्भ में बात को देखना और नितांत निजि स्तर पर उसे स्वीकारना-
दोनों मेरे लिए अलग अनुभव है। जिस अनुभव के कारण इस घिन का उन्होंने उल्लेख किया
था वह दिल्ली की बसों में सफ़र करते हुए जो भीमकाय अफ़्रीकी स्त्रियों तथा पुरुषों
से भीड़ के कारण जो नैकट्य निर्मित होता था- वह उस भाव के लिए ज़िम्मेदार था। मेरे
भीतर के नए-नए आलोचक और अन-अनुभवी प्रगतिशील चेतना को यह गवारा नहीं हुआ और मैंने
कहा कि इस बात को तो मुझे लिकना पड़ेगा। उन्होंने कह कि तुम जो चाहे कर सकती है-
पर जो हैं, वह तो है ही।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">आज जब मैं इस बात को कह रही हूँ तो मुझे लगता है कि इस तरह कौन कह सकने की
हिम्मत कर सकता है जब तक कि वह सही अर्थों में सच्चा न हो। भीतर तक ईमानदार। कविता
का बाहर व्यक्ति को जो महसूस होता है उसमें और कविता के भीतर कवि को जो कहना होता
है या कविता के भीतर कवि जिस संवेदना को रखना चाहता है उसके आशय भी अलग होते हैं।
कविता में आई संवेदना अक्षर रूप में होती है जो कवि के वास्तविक भौतिक जीवन के समाप्त
हो जाने पर भी बनी रहती है ; जो वास्तव में युगों तक मनुष्य का दिशा निर्देशन करती
है।महत्वपूर्ण तो वही अक्षर संसार है। मुझे यह भी सोच कर स्चर्य होता है कि
शमशेरजी ने यह कन्फेशन क्यों किया। अगर न किया होता तो क्या फर्क पड़ता। और इस बात
का उल्लेख करने की आवश्यकता इस समय मुझे क्या आन पडी। मुझे हमेशा ही यह लगा है कि
शमशेर का कवि और व्यक्ति झूठ, फ़रेब और बेईमानी से कोसों दूर थे। यह निश्चय ही एक
सामान्य सत्य है कि आज भी बौद्धिक या कलाकार अपनी रचनाओं में जो लिखते हैं उसे
व्यक्तिगत जीवन में अगर नहीं मानते तो भी एक दंभ-सा बनाए रखते हैं कि वो ऐसा ही
मानते हैं। वे औरों से तो क्या अपने आप से भी इस फांक को छिपाए रखना चाहते हैं।
दूसरी बात मेरी समझ में यह आई कि व्यक्ति के रूप में कवि का अनुभव और कलाकार के
रूप में उसकी अनुभूति में एक बारीक फ़र्क होता है। शमशेरजी ने मुझे अपने रचनाकार
के वर्कशॉप में ले जा कर वह सब दिखाया जो एक शोधार्थी और काव्य को समझने की
प्रक्रिया में तन्मय एक संवेदनशील पाठक के लिए आवश्यक होता है। ऐसे कन्फेशन्स जब
आज अपने आप-से कोई नहीं करता तो अन्य के सामने सारे खतरे उठाते हुए करना- कोई
साधारण वीरता का काम नहीं है। शमसेर अपने भीतर किसी तरह का दंभ नहीं रखते थे।
उन्हें नुकसान फ़ायदे की अपेक्षा सच-झूठ में अधिक रुचि थी। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 10pt; mso-pagination: widow-orphan no-line-numbers; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">जिस कविता का यहाँ उल्लेख है उसे आप पढ़ेंगे तो पाएंगे कि यह इलीयट की भाषा
में थर्ड वॉइस में लिखी हुई रचना है। अतः कविता की पहली अथवा दूसरी आवाज़ मे कवि
ने ऐसा कुछ भी स्वीकारा नहीं है जिसके लिए उनकी कलागत ईमानदारी पर कोई संदेह हो।
मेरे कठोर, पाषाणवत् वचनों के आगे उनका सच्चा और कोमल कवि-हृदय धरा हुआ था- <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सब कुछ झेलने के लिए तैयार। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">एक बार बातचीत को दौरान उन्होंने कहा था कि मेरी ऊषा कविता
पर बालकृष्ण राव की एक कविता का गहरा प्रभाव है। मैंने कहा आपने इस बात को कभी कहा
नहीं। तो उन्होंने कहा कि हाँ, मुझे यह कहना चाहिए था। पर अब मैं कहीं इस बात को
अवश्य लिखूंगा। इस बात को वे कह/लिख तो नहीं पाए परन्तु उनके मन में यह बात थी कि
जिस कविता को उनकी महत्वपूर्ण कविता के रूप में माना जात है उस पर एक और कवि का
प्रभाव है। बालकृष्ण राव की कविताओं और जीवन से भी वे काफ़ी प्रभावित थे। उन्होंने
मुझे बताया था कि उनके घर में जो सबसे अधिक आकर्षक लगता था वह उनके घर में बिछी
सफ़ेद झक्क चादरें जिन्हे मिसेस राव बड़ा क़रीने से बिछाती थीं। यह जो सुरुचि है,
उसने शमशेरजी को सदैव आकर्षित किया था। इस सुरुचि को वे अपने जीवन में संभवतः उस
हद तक नहीं ला सके थे जैसा बालकृष्ण राव या अज्ञेय के जीवन में उन्होंने देकी थी-
अतः एक कविता में वे कहते भी हैं- जो नहीं है, जैसे कि सुरुचि, वह नहीं है, उसका
ग़म क्या। यह कविता अज्ञेय को समर्पित है। वास्तविक जीवन में वह नफ़ासत भौतिक अभावों
के होते हुए भी जितनी संभव थी वे पाने की कोशिश करते थे । (नहाने के लिए उनका
पसंदीदा साबुन हमेशा ही पीयर्स रहा, और खाने में रबड़ी, दूध , मिठाई ,हलवा और आम)
पर यह सब भी पाने के लिए अर्थागमोपाय में किसी तरह की गड़बड़ियाँ नहीं। अच्छी
स्तरीय चीज़ों को पसंद करना एक बात है परन्तु उन्हें पाने के लिए अन्यान्य मार्ग
अपनाना – यह उनकी फितरत संभवतः नहीं थी। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">पर इस नफ़ासत को कला में उन्होंने पूरी तरह से अपनाया। कला
में इस नफ़ासत को लाने के लिए उन्होंने बहुत श्रम किया है। वे यूँ ही कवि नहीं बने
हैं। कवि बनने के लिए जिस व्युत्पत्ति की जिस तैयारी की आवश्यकता हो सकती है उसे
उनकी डायरियों में देखा जा सकता है। उनके कुछ वर्षों के सान्निध्य एवं उनकी
डायरियाँ आदि देख कर उनके लगभग पाँच दशकों बाद पैदा हुई मैं यह अंदाजा लगा सकती
हूँ कि शमशेरजी ने हर क्षण केवल और केवल अपने कला माध्यमों को पैना करने में,
बेहतर बनाने में जीवन के हर क्षण को बिताया होगा। हाँ, आदमी, कोई भी आदमी, फिर वह
कवि क्यों न हो- खाता-पीता भी है, प्रेम भी करता है, नौकरी करता है---राजनीति – समाज-संस्कृति
आदि मामलों में पड़ता भी है- पर यह सब करते हुए भी शमशेरजी ने लगातार अपने भीतर के
कलाकार को बेहतर बनाया है। मानों यह सब भी इसलिए कि उस भीतर के कलाकार को पोषण
मिले। इस अर्थ में यह कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि जिस तरह एक भक्त कवि प्रति
क्षण अपने आराध्य को समर्पित होता है उसी तीव्रता से एवं निष्ठा से शमशेरजी अपनी
कला के प्रति समर्पित थे।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">3</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-tab-count: 1;"> </span>मैं ईमानदारी
से कह सकती हूँ कि मैंने आज तक किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा है जिसे निंदा रस
में रुचि न हो- सिवाय शमशेरजी के। नौ वर्ष का समय कम नहीं होता। इतना लंबा समय और
उसके पहले थोड़ा-थोड़ा करके साथ रहे समय को गिन लें तो एकाध-डेढ़ साल और जोड़ दें </span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">;</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: Arial; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: Arial;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">तो इस पूरे समय में मुझे याद है कि केवल दो प्रसंग ऐसे हैं जिनमें उन्होंने दो
लोगों को ले कर कुछ नकारात्मक कहा था- आप इसे निंदा कहें या हक़ीक़त का बयान- मैं
कह नहीं सकती। इसका उल्लेख संभवतः अपने किसी लेख में मैंने किया है अतः दोहराने का
कोई अर्थ नहीं है। मैं हमेंशा सोचती कि यह कितनी अजब बात है कि सामान्य तौर पर
किसी भी व्यक्ति को जो सर्वाधिक पसंद है वह निंदी ही है- फिर वह चाहे वह <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>गलियों में रहती स्त्रियों की मानिंद उसे कहें
या बौद्धिकों की तरह मंच पर से कहें या कवियों की तरह मय-प्यालों के बीच कहें( और
भूल जाएं) –पर इतना लंबा समय चौबीस घंटों तक साथ रहते हुए मैंने उन्हें ऐसा करते
हुए कभी नहीं सुना।</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मेरे लिए यह एक आदर्श स्थिति है। मैंने सोचा कि मैं भी ऐसा
करूँ। पर मैं उस मिट्टी की नहीं बनी जिससे कलाकार शमशेर का पिंड बना था। कलाकार
ऐसा ही आदर्श हो सकता है। उनकी बाढ़ कविता अपने साथी और वरिष्ठ कवियों,
साहित्यकारों आदि पर वे जो मीठी फ़ब्तियाँ कसते हैं, वे असल में उनका रचना विश्व
है। ये टिप्पणियाँ कविता बन कर जब आती हैं तो अज्ञेय या जैनेन्द्र, महादेवी,
मिसेज़ अश्क आदि प्रतीक बन जाते हैं , व्यक्ति के साथ-सात उस तरह जीवन को देखने और
समझने वालों का। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">शमशेरजी के साथ रहते हुए मैंने देखा कि उनके मन में नए
कवियों को ले कर एक ग़ज़ब का भरोसा था। तब तक स्थापित मंगलेश डबराल, अरुण कमल, असद
ज़ैदी, उदयप्रकाश, राजेश जोशी<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>आदि की
कविताओं के साथ-साथ बाद में लिखने वाले निलय उपाध्याय जैसे कवियों की कविताओं के
प्रति वे आश्वस्त थे। इतने कि कहते थे अब लगता है कि मुझे कविता लिखने की ज़रूरत
नहीं है क्यों कि ये सभी लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। मैं जो भी कुछ<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कहना चाहता हूँ , ये नए कवि बहुत बेहतर तरीक़े
से उसे लिख रहे हैं। संभवतः मुझसे भी बेहतर ................। एक इतने बड़े कवि का
अपने समय के नए कवियों के प्रति यह मानना एक दम साहित्य-संसार के परिलोक जैसी घटना
है। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">शमशेरजी की कविता सहजता से बहुत सारे लोगों के बीच नहीं
पहुँचती, इसमें कोई संदेह नही। पर शमशेरजी की कविताएं उन सभी स्थानों को लगभग
शब्दांकित करती हैं जो उनके पहले किसी के द्वारा शायद ही संभव हुआ है। इस संदर्भ
में मुझे उनकी ये पंक्तियाँ याद आती हैं- तीन तरफ़ों<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सपाट कोना...। अपने कमरे के किसी भी कोने को आप
देखिए- छत की तरफ़- तो आपको समझ में आ जाएगा कि तीन तरफ़ों का सपाट कोना क्या होता
है। इसमें निरि भौतिक तथ्यात्मकता है। क्योंकि जो कोना है उसकी तीन तरफ़े हैं- दो
दीवारों की और एक छत की.... कमरे के उस हिस्से को कभी इसके पहले कविता में स्थान
नहीं मिला था। यह एक अभिव्यक्ति हौ जो कवि अपनी भाषा को देता है। उसी तरह शब्द बिम्बों
के माध्यम से अत्यन्त सामासिक शैली में वे कहते हैं- आसमान में गंगा की रेत आईने
की तरह हिल रही है। इस बात को समझाने के लिए कई पंक्तियाँ खर्च हो जाएँगी, पर
शमशेर खड़ीबोली हिंदुस्तानी में सामासिकता संभव बनाते हैं और इसके लिए बिम्बों का
सहारा लेते हैं। कविता में शब्द विधान, कथन, बिम्ब, प्रतीक, ध्वनि, अलंकार. वक्रोक्ति
....कितने ही प्रकारों से अर्थ खोलते हैं। शमशेर कविता की इस नई भाषा को इस दृष्टि
से लगातार समृद्ध बनाते चलते हैं। इसलिए अगर उन्हें अज्ञेय कवियों का कवि कहते हैं
तो यह उनकी निंदा नहीं है। न ही उन पर व्यंग्य। यह शमशेर के कवि की पहचान भी है। </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">-4-</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">शमशेरजी के काव्य की और उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह
थी कि उनके पास सबके लिए जगह थी। हिन्दी में अपने समकालीनों, अग्रजों पर कविताएं
लिखने की जो परंपरा मानों शमशेर से आकार पाती है। उनकी कविताओं का एक बहुत बड़ा
हिस्सा दूसरों पर लिखी कविताओं का है। उसमें कवि साहित्यकार तो हैं ही, पर कलाकार,
संगीतकार, चित्रकार, कम्यून के साथी सभी उनकी कविताओं में झलकते हैं। शमशेर जी के
पास हर एक के लिए स्पेस था । पर उन्होंने कभी किसी का स्पेस हथिया कर अपने लिए
स्पेस नहीं बनाया। उनकी अपनी स्पेस में कई लोगों के लिए भी हमेशा स्पेस रहा है। आज
जब सारी लड़ाई <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>स्पेस की है तब शमशेरजी
जैसे कवि का न हो ना इस अर्थ में अखरता है कि धीरे-धीरे कुछ मूल्य ही दृश्य-फलक से
अदृश्य हो रहे हैं हमारे इस तरह के कवियों के जाने के बाद। । उनकी कविता की संरचना
में भी स्पेस का अपना महत्व है। जितना महत्व शब्दों का है उतना ही महत्व स्पेस का
भी है। अपनी कविताओं के प्रकाशन को ले कर शमशेरजी बहुत सजग थे। जिस कविता में
पंक्तियाँ जिस तरह से जितना स्पेस दे कर उन्होंने लिखी होती थी , प्रकाशित रूप में
भी वे उन्हें उसी तरह देखना चाहते थे। कविता में शब्दों के बीच भावों की उपस्थिति
उसी तरह बनी होती है जैसे नाटक में संवादों के बीच के मौन में अभिनय का महत्व होता
है। अतः होली </span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">:</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> रंग और
दिशाएँ<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>जैसी कविताएँ <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>शब्दों को जिस तरह नियोजित कर के लिखा है उसमें
भी अर्थपूण बनती हैं। शमशेरजी के यहाँ कई बार एक शब्द भी वाक्य का काम करता है।
वाक्य में जितने स्पेस की आवश्यकता पड़ती है, उसके स्थान पर अगर शब्द से काम चल
जाता है तो शमशेरजी शब्द से काम चला लेते हैं</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">। </span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">पिकासोई कला</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">अथवा
घनीभूत पीड़ा जैसी कविताओं में इसके उदाहरण मिल सकते हैं। घनीभूत पीड़ा की इन
पंक्तियों को देखें-</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मौह-सत्य भौंह
बंक</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">लौह सत्य
प्रेम पंक</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">-अन्यथा व्यथा व्यथा वृथा</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">इन पंक्तियों में यों तो प्रेम और मोह के संदर्भों को
पिरोया गया है पर सहसा ये पंक्तियाँ भी याद आ जाती हैं</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">वाम वाम वाम दिशा </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">समय साम्यवादी</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">पृष्ठभूमि का विरोध अंधकार लीन</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">व्यक्ति कुहा स्पष्ट हृदय भाव आज हीन.....</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">उसी तरह पिकासोई कला की इन पंक्तियों को देखें-</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">रेखाएँ तनों का तनावों का<span style="mso-tab-count: 1;"> </span>लिबास</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">लिबास<span style="mso-tab-count: 2;"> </span>रंग<span style="mso-tab-count: 1;"> </span>प्रतिबिंब<span style="mso-tab-count: 2;"> </span>आत्यंतिक</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">तालमेल<span style="mso-tab-count: 2;"> </span>निरपेक्ष<span style="mso-tab-count: 2;"> </span>नाटकीय</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div align="center" class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: center;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">स्थिरतरीय<span style="mso-tab-count: 2;"> </span>रेखाएँ
<span style="mso-tab-count: 2;"> </span>और<span style="mso-tab-count: 2;"> </span>रंग</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">इस कविता में चित्रकला के कारण इस प्रकार शब्दों का प्रयोग
हुआ है, ऐसा कह सकते हैं। पर वाम दिशा अथवा घनीभूत पीड़ा में ऐसे नहीं है। <span style="mso-tab-count: 2;"> </span></span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">शमशेरजी की कविताएँ जितनी कठिन हैं उनका व्यक्तित्व उतना ही
सरल था। शमशेरजी के परिचय में आने वालों के पास इस सरलता की अनेक कहानियाँ होंगी।
व्यक्ति- शमशेर एक सामाजिक उपस्थिति है <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>तो
कवि शमशेर एक विशिष्ट कलाकार- उपस्थिति है <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">:</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>दोनों को जैसा होना चाहिए वैसा ही हम उनको पाते
हैं। परन्तु दोनों का ही अनुकरण करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि न निष्काम भाव से
कला की ऐसी साधना करना सरल है और न ही सहज भाव से दूसरों के लिए जगह बनाना हर किसी
के लिए संभव नहीं है। उसका संभवतः वह चुनाव है । आदर्शों को हम अपने घरों में
क़ीमती फ़्रेम में ही मढ़ कर रखते है , उसका हमारे जीवन से- रोज-बरोज़ के जीवन से
क्या वास्ता </span><span lang="HI" style="font-family: "@Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">!</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span lang="HI" style="font-family: "@Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">!</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p> </o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNoSpacing" style="line-height: 115%; margin: 0in 0in 0pt; text-align: justify; text-indent: 0.25in;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><span style="mso-tab-count: 8;"> </span><span style="mso-tab-count: 1;"> </span>रंजना अरगडे</span><span lang="EN-IN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
</div>
rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-21806027143157171632013-05-29T09:44:00.003-07:002013-05-29T09:44:50.649-07:00गुजराती और हिन्दी अन्तःसंबंध के चौराहे पर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 16.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">भाषाओं की
नस-नस एक दूसरे से गुथी हुई है</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">(मगर उलझी हुई
नहीं)</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">हमारी
साँस-साँस में उनका सौन्दर्य है</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">(मॉ ड
र्निस् टिक्) कहो मत</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">अभी हमें लड़ने
दो।<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn1" name="_ftnref1" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[1]</span></span><!--[endif]--></span></a></span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">गुजरात और
हिन्दी के अन्तःसंबंध पर बात करते हुए अनायास ही शमशेरजी की इस कविता का स्मरण हो आता है। विशेष
रूप से इसलिए कि आज हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के परस्पर संबंध की जो भूमिका
बन रही है उसे हमारे मनीषी कवि शमशेर बहादुर सिंह ने किस तरह देखा है-</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">यह स्टेज महान</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.8in; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">मूर्खों के लिए
है</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">आह यह आधुनिक स्टेज</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">परिस्थितियाँ
हीरो हैं</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">और यांत्रिक
राजनीति हिरोइनें </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 1.5in; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">जितने ही भाषा
प्रदेश और देश उतने ही अंक हैं </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 3.3in; text-indent: .5in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">इस नाटक के !<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn2" name="_ftnref2" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[2]</span></span><!--[endif]--></span></a></span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">मेरा आशय
इस पूरी कविता का विश्लेषण करने का नहीं
है अपितु इस कविता के द्वारा कवि ने भाषाओं की राजनीति और उसके करुण परिणामों की
ओर संकेत किया है, उसका निर्देश करना है। <a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_edn1" name="_ednref1" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[i]</span></span><!--[endif]--></span></a>
आज अपने ही भूमि पर गुजराती और हिन्दी की
अन्तःसंबंधता पर अपनी बात का आरंभ करते हुए मैं कुछ उदासी-का –सा अनुभव भी कर कर रही हूँ। उदासी के कारणों की चर्चा फिर करेंगे पहले तो मैं इस मंच की आभारी हूँ कि अन्तःसंबंधता
की चर्चा के बहाने मैं पुनः गुजरात में हिन्दी की स्थिति के मुद्दे को अन्तर्राष्ट्रीय
मंच पर ला पा रही हूँ। आज मेरी ही तरह गुजरात
के अन्य अनेक हिन्दी के अध्यापकों को यह भूल जाना पड़ रहा है कि हमारे राज्य की
दूसरी राजभाषा हिन्दी है। इस समय गुजरात
में हिन्दी अध्यापन अध्ययन घोर संकटपूर्ण स्थितियों में है तथा राजकीय नीतियों के अनेक
स्तर- प्रस्तरों के नीचे दब गया है। इतना कि उससे उबरने की कोई तात्कालिक उम्मीद
नज़र नहीं आती। इस बात का समर्थन यहाँ
बैठे गुजरात में हिन्दी पढ़ा रहे सभी
अध्यापक करेंगे। मुझे इस बात का भी उल्लेख करना चाहिए कि दक्षिण गुजरात के हिन्दी
प्राध्यापकों ने राज्य सत्ता की हिन्दी - नीति का विरोध करते हुए संगठित रूप से
सबसे पहले मशाल उठाई थी, जिसके प्रकाश
-बिंब अब भी देखे जा सकते हैं </span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">;</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> यह आयोजन इसका उदाहरण है। सूरत से छप रहे ताप्तीलोक ने इस संकट को वाचा दी
थी।</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">इसमें कोई
संदेह नहीं कि व्यक्तिगत स्तर पर, सामाजिक
स्तर पर अथवा सांस्कृतिक स्तर पर जब भी
चोट लगती है उस पर कविता या साहित्य ही मलहम
लगाता है। शमशेरजी भी ज़माने की चोट खाए
हुए थे संभवतः, तभी भाषा-संबंधी,
अभिव्यक्ति संबंधी विवादित तथा आहत मन की पीड़ाएं वे जानते थे। उन्हीं की भाषा में कहूँ तो गुजरात
में हिन्दी का अक्स बहुत गहरे तक उतर गया है। उसकी जड़ें गुजरात की धरती में गहरे
तक उतर चुकी हैं। एक तरह से हिन्दी भाषा, गुजरात प्रदेश की पसलियों में उसी तरह
समाहित है जिस तरह मनुष्य की पसलियों में व्यंजन तथा उनके बीच में स्वर होते हैं।</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 2.0in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">मगर मेरी पसली
में हैं</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 2.0in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">व्यंजन </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 2.0in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">और उन्हीं के
बीच में हैं स्वर<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn3" name="_ftnref3" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[3]</span></span><!--[endif]--></span></a> </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 2.0in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">(उसे मेरा ही
कहो फिलहाल)</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 150%;">गुजराती और हिंदी के
अंतः संबंध को समय के कुछ चौराहों में बाँट दें तो उन पर रुकते हुए चलने का एक
आनंद तो मिलेगा ही।</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 150%;"> पहला चौराहा भाषा का है। भाषा और लिपि
के संदर्भ में गुजराती और हिन्दी का नैकट्य बड़ा स्पष्ट एवं दृष्टव्य है। लिपियाँ
भाषा का कउंटेनंस होती हैं। वे भाषा का वह चेहरा होती हैं जिससे भाषाएं अपनी एक
पहचान भी स्थापित करती हैं। उस दृष्टि से
हिन्दी तथा गुजराती की लिपियों में केवल कुछ-एक स्वर व्यंजनों की लिखावट में भेद
है। इस बात को तो भूला ही नहीं जा सकता है कि मध्यकाल में गुजराती देवनागरी में
लिखी जाती थी । अर्थात् मध्यकाल तक
गुजराती ध्वनियाँ देवनागरी लिपि में पहचान पाती रही हैं। इन दो भाषाओं के बीच जो
आपस में गहरा संबंध है उसकी जड़ है- शौरसेनी अपभ्रंश जिसमें से दोनों विकसित हुई
हैं। शौरसेनी अपभ्रंश का क्षेत्र मथुरा के आस-पास का रहा है जहाँ की केन्द्रीय
बोली ब्रज है। ब्रज का महत्व भक्ति तथा संगीत के कारण इतना अधिक रहा कि उसे भाषा
का दर्ज़ा मिला। <a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn4" name="_ftnref4" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[4]</span></span><!--[endif]--></span></a>
गुजराती तथा हिन्दी का यह संबंध इन भाषाओं के
परस्पर स्रोत, उच्चारण, लेखन,
साहित्यिक स्वरूपों तक ही सामित नहीं है अपितु व्याकरणगत भी अनेक समानता
लिए हुए है। यही कारण है कि गुजरात में हिन्दी कभी भी एक अजनबी अथवा परायी भाषा
नहीं रही। </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 150%;">अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ</span></b><b><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 150%;">क ख ग घ , च छ ज झ, ट ठ
ड ढ. प फ ब भ म, य र ल व , श, ष स ह, क्ष त्र ज्ञ</span></b><b><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="GU" style="font-family: Shruti, sans-serif;">અ, આ ઇ ઈ ઉ ઊ એ ઐ ઓ ઔ</span></b><b><span style="font-family: Kokila, sans-serif;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span lang="GU" style="font-family: Shruti, sans-serif;">ક ખ ગ ઘ, ચ છ જ ઝ, ટ ઠ ડ ઢ પ ફ બ ભ મ, ય ર લ
વ, શ ષ સ હ, ક્ષ ત્ર જ્ઞ </span></b><b><span style="font-family: Kokila, sans-serif;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">उपरोक्त दृष्टांत से यह स्पष्ट है स्वरों की पहचान,
शिरोरेखा की अनुपस्थिति एवं कुछेक व्यंजनों की पहचान में फ़र्क है जैसे झ, ज, फ ख,
आदि। यूं गुजराती हिन्दी ध्वनियों के पहचान पत्र भी मिलते जुलते हैं। यही वह द्वार
है जिसमें से होकर हिन्दी गुजराती का परस्पर जुड़ाव सघन होता गया। मध्यकाल में तो
जो गुजराती लिखी जाती थी उस पर शिरोरेखा भी लगती थी।</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">भाषा के संदर्भ में गुजराती तथा हिन्दी की अंतः संबंधता की
स्थिति को समझने के लिए एक समानांतर उदाहरण लिया जा सकता है। हिन्दी प्रदेशों में
जब उर्दू हिन्दी की बात होती है तब एक मत यह भी होता है कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा की दो शैलियाँ
हैं । इसी तरह यह कहा जा सकता है कि गुजराती भाषा में उर्दू की जड़ें भी उतनी ही
गहरी हैं। गुजराती के साथ उर्दू इस कदर घुल मिल गई है कि यह सोचना असंभव लगता है कि अगर
गुजराती भाषा में से उर्दू (फारसी) के
शब्द निकाल दिए जाएं तो उसकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य कितनी कम हो जाएगी। गुजराती भाषा एक तरह से श्रीहीन भी हो जाएगी</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">,<span lang="HI">ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं माना जाए । अगर
यह कहा जाए कि हिन्दी में उर्दू शब्दों के प्रमाण का जितना प्रतिशत है, गुजराती
में यह प्रतिशत उससे अधिक ही होगा, कम तो बिल्कुल
भी नहीं होगा । इतिहास में इसके कारण
मौजूद हैं ही। अतः इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">इमसें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि रचना के स्तर पर आज
गुजराती में सबसे अधिक लोकप्रिय अगर कोई काव्य विधा है तो वह ग़ज़ल ही है। उसकी
जडें भी कितनी दूर तक गयी हैं । वली को आप चाहे दकनी कहें या गुजराती बात एक ही
है। तभी मज़ार टूटी थी तो अन्तः संबंध के
इतने पुराने और गहरे संबंध को राजनीति के हथियार से आघात पहुँचाया गया था। पर
ग़ज़ल का कोई क्या कर सकता है। गुजरात में ग़ज़ल लाने का श्रेय ही वली को जाता है। संभवतः इसी के फलस्वरूप गुजराती भाषा और संवेदना में इस क़दर उर्दू
समाविष्ट है, घुली-मिली है कि जो लोग कहते हैं कि गुजरात की रक्तवाहिनी में
मुसलमानों के लिए घृणा बहती है उन्हें समय के इन चकित चौराहों पर स्थित प्रेम
की वाणी को पढ़ लेना चाहिए।</span><a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_edn2" name="_ednref2" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[ii]</span></span><!--[endif]--></span></span></a><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> ग़ज़ल प्रेम की ही तो बात करने के लिए पैदा हुई है। गुजरात में हिन्दी का संबंध सत्ता के कारण नहीं
बना है। वह सामान्य जन के , लोक के द्वारा जाँचा तथा परखा गया है। इस लोकतांत्रिक
समय में यह सोचना भी लगभग असंभव-सा लगता है कि लोक की साख, सत्ता के कारण गिरे। अर्थात् सत्ता की भाषा नीति जो भी हो, पर अगर
लोक ने किसी बात को मान्य रख लिया है तो सत्ता कुछ नहीं कर सकती। भाषा की सत्ता जब-जब
लोक की रही
है, वह पराजित नहीं हुई है। ख़ुसरो से वली
तक की हिन्दवी, गूजरी और दकनी भाषा-
परंपरा वह मूल उत्स है जिससे आगे चलकर
हिन्दी और उर्दू दोनों का विकास हुआ है। अतः हिन्दवी भाषा और उसके साहित्य को
उर्दू मान बैठना उचित नहीं है। उसका जितना
संबंध उर्दू से है उससे कहीं अधिक संबंध
हिन्दी से है। दकनी हिन्दी के अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है। गूजरी- हिन्दी,
हिन्दवी, और दकनी के बीच की कड़ी और दकनी का पूर्व रूप है। </span><a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn5" name="_ftnref5" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[5]</span></span><!--[endif]--></span></span></a><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> जैसा कि अभी
उल्लेख किया कि हिन्दी उर्दू में जो सगापन है वही गुजराती उर्दू में भी है, इस
नाते भी गुजराती और हिन्दी में एक अन्तर्संबंध स्थापित होता है। </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">आज समय के
चौराहे पर यहाँ, गुजरात में, और देश में भी, भाषा विवाद, माध्यम विवाद की राजनीतिक
तथा लालफीताशाही दुकानें खुली हुई हैं और किंकर्तव्यविमूढ-से हम मानों अपनी ज़मीन खो चुके हैं, इस मुद्रा में अपने आप को पाते
हैं। । राजनीतिक दाँव-पेंच की उलझाव भरी
सीढियों पर चढ रहे हैं, उतर रहे हैं।
किंतु फिर भी हमें विश्वास है कि समय के इसी चौराहे पर हम जो गुजरात में रह रहे हैं अपनी
हिन्दी अस्मिता को प्राप्त कर सकेंगे क्योंकि हमें पता है कि गुजरात की धरती तथा
रचनात्मकता में हिन्दी की जड़ें बहुत गहरे तक उतर गयी हैं। </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">दूसरा चौराहा
है माध्यम। यह बात भी नई नहीं है कि मध्यकाल में (लगभग रीतिकाल में )कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला
प्रसिद्ध थी। इस पाठशाला की विधिवत्
स्थापना सन् 1747 ईस्वी में आचार्य कनक कुशल एवं उनके शिष्य कुँवर कुशल के संचालन
में की गई। ये दोनों राजस्थान के निवासी एवं पिंगल शास्त्र में पारंगत जैनाचार्य
थे। महाराव लखपतसिहजी ने उनकी विद्वत्ता
से प्रभावित हो कर उन्हें ससम्मान कच्छ में आमंत्रित किया व उन्हें रेहा
नामक जागीर एवं भट्टारक की पदवी से समलंकृत करके ब्रजभाषा काव्य-शाला के
आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn6" name="_ftnref6" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[6]</span></span><!--[endif]--></span></a> यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि इस पाठशाला के
विकास एवं संवर्द्धन में जैनाचार्य एवं
कच्छ की राज्य सत्ता ने सक्रीय भूमिका निभाई। विद्यार्थियों के पढ़ने एवं रहने का
खर्च राज्य उठाता था। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात उसके पाठ्यक्रमों की है। यदि
पाठ्यक्रमों के आधार पर किसी शैक्षणिक संस्था की महत्ता निर्धारित की जा सकती है तो
ब्रज-पाठशाला एक उच्च कोटि की शिक्षा संस्था थी।<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn7" name="_ftnref7" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[7]</span></span><!--[endif]--></span></a>
यानी आज के नैक ग्रेडिंग में ए प्लस तो मिल ही जाता! पर हमें यह याद रखना होगा कि
यह राज्याश्रयी थी, राज्याधीन नहीं। राज्याश्रयी होने के कारण उसका समुचित विकास
हो सका ,अगर राज्याधीन होती तो आज इतिहास में इसका कहीं उल्लेख भी नही होता। अभी 21 फरवरी को
सर्वत्र मातृभाषा दिवस मनाया गया। पर हमारा अनुभव यह बताता है कि जब जब कोई मुद्दा
किसी दिन में सीमित और समर्पित हो गया , समझिए उस मुद्दे का अंत हो गया। अपनी
समग्र चेतना और शक्ति से अंग्रेज़ी माध्यमों का समर्थन करते हुए हम किस तरह से
मातृभाषा के महत्व को स्थापित कर सकेंगे , यह भी एक प्रश्न है। </span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; text-indent: .3in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> तीसरा चौराहा है साहित्य । केवल अपभ्रंश के कारण यानी
मूल की समानता के कारण ही नही, भाषा की एक सांस्कृतिक साझी विरासत भी होती है । गुजराती
हिन्दी की यह सांस्कृतिक विरासत धर्म, आस्था तथा सामाजिक रहन सहन के रूप में
समाज में उजगर हुए हैं। साहित्य के माध्यम से यह सभी प्रकट होता रहा है। गुजरात में मध्याकाल में ब्रज तथा राजस्थानी
में बहुत कुछ लिखा गया। अतः इसके संदर्भ में जितना कहा जाए कम ही है। इसके पूर्व
डॉ. अम्बाशंकर नागर, डॉ. गोवर्द्धन शर्मा, दयाशंकर शुक्ल, डॉ रामकुमार गुप्त,
महावीरसिंह चौहान, ओमानंद सारस्वत आदि ने इस क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण काम किए
हैं, जिनको दोहराने अथवा उसकी फेहरिस्त देने का इस समय कोई औचित्य नहीं है। लेकिन इस संदर्भ में एक संकेत अवश्य करना
चाहूँगी कि मध्यकाल में प्रचलित ब्रज, पुरानी गुजराती तथा राजस्थानी एवं संतों की
सधुक्कडी कुछ इस तरह प्रवर्तमान थीं कि जैसे एक ही व्यंजन, विभिन्न सम्मिलित स्वाद से युक्त हो।</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">मोटे तौर पर
समाज में भाषा के दो मुख्य उपयोग निश्चित हैं। एक तो जब मनुष्य उसे अपने नित्य-प्रति के व्यवहार तथा संबंध प्रस्थापन
में उपयोग में लाता है। अपनी छोटी-छोटी लौकिक इच्छाओं तथा सपनों को अभिव्यक्त करता
है। दूसरा उपयोग यह कि मनुष्य अपनी संवेदनाओं एवं विचारों की गहराई तथा व्याप को
आकारित करने के लिए सृजन-धर्मी हो जाता है। वह जो कुछ लिखता है, सृजन करता है उसे
वह अपनी ज़मीन की भाषा से जोड़ता है अथवा अपनी परम्परा तथा संस्कृति की ज़मीन से
जोड़ता है।(स्व) डॉ. अंबाशंकर नागर तथा डॉ
महावीर सिंह चौहान ने गुजरात के हिन्दी में लिख रहे रचनाकारों को मोटे तौर पर दो
भागों में बाँटा है-एक वे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है एक वे जिनकी मातृभाषा
हिन्दी है और जो उत्तर प्रदेश बिहार, राजस्थान मध्यप्रदेश आदि हिन्दी भाषा-भाषी
राज्यों से हिन्दीतर प्रदेशों में आकर बसे हैं। <a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn8" name="_ftnref8" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[8]</span></span><!--[endif]--></span></a>
गुजरात की समकालीन हिन्दी कविता- युग संपृक्ति<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn9" name="_ftnref9" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[9]</span></span><!--[endif]--></span></a>
में डॉ महावीर सिंह चौहान ने एक बहुत मार्मिक प्रश्न उठाया है कि क्या गुजरात की
समकालीन हिन्दी काव्य परंपरा गुजरात की मध्यकालीन हिन्दी रचनाशीलता का ही सहज
परिणाम है </span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> इस प्रश्न में
एक और नुक़्ता जोड़ना अर्थपूर्ण होगा कि रचनात्मकता के स्तर पर आज लिखा जाने वाला
हिन्दी साहित्य अपनी स्तरीयता में मध्यकाल में लिखे जाने वाले हिन्दी साहित्य के
समकक्ष है </span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> इस संदर्भ में
डॉ शिवमंगल सिंह सुमन का यह कथन अर्थपूर्ण
है</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> - </span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">हिन्दी भाषी
प्रांतों में रहने वाले हिन्दी के कवि और लेखक इस तथ्य का अनुमान भी नहीं कर सकते
हैं हिन्दीतर प्रांतों में रहने वाले
कवियों और लेखकों के क्या अभाव –सभाव हो सकते हैं। इसमें अड़चनें और
सुविधाएं दोनों साथ-साथ होती हैं। अड़चन तो यह है दैनंदिन व्यवहार में न आने के
कारण ऐसी रचनाओं में हिन्दी मुहावरों की पकड़ प्रयत्न साध्य हो जाती है और सुविधा
यह है कि अन्य प्रांतीय भाषाओं का भाव सौकार्य और समृद्धि उसे अनायास ही प्राप्त
हो जाती है जिससे हिन्दी का मानस प्रसार
और अधिक व्यापक हो कर भारत की विभिन्न साधनाओं की समन्वय भूमि बनने का आधार प्राप्त करता है। <a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn10" name="_ftnref10" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[10]</span></span><!--[endif]--></span></a><a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftn11" name="_ftnref11" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="line-height: 150%;">[11]</span></span><!--[endif]--></span></a></span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> नागरजी
ने जो विभाजन किया है उसे वर्तमान समय में थोड़ा इस तरह से विस्तृत किया जा सकता
है।</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">लेखक की स्थानीयता की दृष्टि से- </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpFirst" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto; mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">1-<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">गुजरात में
जन्में हिन्दीतर भाषी रचनाकार</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto; mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">2-<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">गुजरात में
प्रवासी की हैसियत से आए हिन्दी भाषा-भाषी रचनाकार</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto; mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">3-<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">गुजरात में आकर
स्थायी रूप से बस जाने वाले पर प्रांतीय रचनाकार</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpLast" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto; mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">4-<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">गुजरात में
जन्में हिन्दी भाषी रचनाकार</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-left: 0in; text-indent: .2in;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">व्यवसाय की
दृष्टि से</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpFirst" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto; mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">5-<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">अध्यापक</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto; mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">6-<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">व्यवसायी</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto; mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">7-<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">व्यापारी</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto; mso-list: l0 level1 lfo1; text-indent: -.25in;">
<!--[if !supportLists]--><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">8-<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">मुक्त लेखक<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">हिन्दी गुजराती के बीच आज भी भाषा तथा संस्कृति गत
अन्तर्संबंध, राजनीतिक तथा सामाजिक अन्तर्संबंध बना हुआ है। </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">मध्यकाल में मीराबाई एक ऐसा नाम है जो हिन्दी तथा गुजराती
दोनों ही साहित्यों के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान को प्राप्तपर प्रतिष्ठित हैं। प्रणामी
संप्रदाय के जामनगर निवासी, स्वामी प्राणनाथ ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में
पहली बार पहचाना था। वे भी गुजराती थे। गद्य
के उन्नायकों में से एक लल्लूलाल, गुजराती थे। स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा
गांधी- ये सभी गुजराती थे, हिन्दीकी राष्ट्रीय अस्मिता तथा विकास के लिए प्रतिबद्ध थे। ये सभी राष्ट्रीय
स्तर पर जाने जाते थे। आज गुजरात में रहने
वाले और हिन्दी में लिखने वाले, हिन्दी के
लिए काम करने वाले लोगों की राष्ट्रीय पहचान क्या है</span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> मीरा की पहचान कृष्ण
भक्ति थी, भाषा माध्यम थी, प्राणनाथ की पहचान उनकी अपनी धार्मिक – सांस्कृतिक भूमि
थी, भाषा माध्यम थी। फोर्ट विलियम कॉलेज
ने लल्लूलाल को पहचान दी, राजनीति ने गांधीजी को पहचान दी तथा स्वामी दयानंद
सरस्वती को राष्ट्रीय नवजागरण ने पहचान दी। </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> आज
समकालीन हिन्दी साहित्य के पास ऐसी क्या आधार भूमि है, जो उसे पहचान गे सकता है</span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> आज राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्य में गुजरात का
प्रतिनिधित्व क्या है </span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> गुजरात में
लिखी जाने वाली कविताएं, कहानियाँ तथा उपन्यास, समीक्षा आदि मुख्यधारा का एक
हिस्सा बन सके हैं </span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> स्वतंत्रता के पूर्व गुजरात में जो कुछ भी
हिन्दी संबंधित हुआ वह मुख्यधारा के समानांतर था। आजादी के बाद भारत में विभिन्न प्रदेश
बने अतः एक विभाजन तो अपने आप हो ही गया। विश्वविद्यालयों में हिन्दी अध्यापन का आरंभ हुआ
अतः <b>हिन्दी-सेवी </b>की संख्या में वृद्धि हो गयी। हिन्दी में पढ़ना लाभदायी
है- तो हिन्दी में और हिन्दी का अध्ययन
किया गया। स्वतंत्रता मिल गई अतः राष्ट्र भक्ति मसला नहीं रहा, आधुनिकता के कारण
भक्ति मसला नहीं रहा, अतः अन्तः संबंध के आधार प्रश्नचिह्न के घेरे में आ गए। फिर
हिन्दीतर प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के अनुदान एवं हिन्दीतर होने की सत्ता ने हिन्दी के विकास में
बाधा पहुँचायी। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हिन्दी के साथ किसी-न-किसी रूप से संबंधित
लोगों का संख्या पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है, परन्तु इन सभी में हिन्दी भाषा की
अस्मिता के लिए समर्पित लोगों की संख्या
कितनी </span><span style="font-family: Symbol; line-height: 115%;">?</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> पूरी ज़िन्दगी
हिन्दी का लाभ और हिन्दी से रोटी कमाने वाले हिन्दी के लोग आज अपनी मातृ-भाषा के
संवर्द्धन में लगे हैं, अवसर मिलने पर अंग्रेज़ी के समर्थक भी हो जाते हैं.....पर
इन सब में हिन्दी तो रघुवीर सहाय के
शब्दों में </span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">'</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;">दुहाजू की बीबी</span><span lang="HI" style="font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; line-height: 115%;">'</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> ही बनी रहती है। यह स्थिति बहुत चिंताजनक है।</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> आज
गुजराती और हिन्दी का अन्तःसंबंध सबसे सशक्त रूप से अगर स्थापित हो सकता है तो वह
अनुवाद के माध्यम से। गुजरात में रहने वाले , जो हिन्दी पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं
उन्हें एक आंदोलन के स्तर पर अनुवाद का कार्य करना चाहिए। गुजराती और हिन्दी के
परस्पर अनुवादों से संवेदना के तार नई भूमिका पर
जुड़ सकते हैं। हिन्दी के माध्यम से भारत में गुजराती की अस्मिता को
प्रतिष्ठित कर सकते हैं और गुजराती के माध्यम से मुख्य धारा की संवेदना को समझ कर,
ग्रहण कर के अपनी संवेदना का विस्तार कर सकते हैं। </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> </span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpLast" style="line-height: 115%; margin-left: .45in; mso-add-space: auto;">
<br /></div>
<div>
<!--[if !supportFootnotes]--><br clear="all" />
<hr align="left" size="1" width="33%" />
<!--[endif]-->
<div id="ftn1">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref1" name="_ftn1" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[1]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">भाषा, शमशेर
बहादुर सिंह, चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ 65<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn2">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref2" name="_ftn2" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[2]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वही<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn3">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref3" name="_ftn3" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[3]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">एक नीला दरिया
बरस रहा है, शमशेर बहादुर सिंह, चुका भी हूँ मैं नहीं<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn4">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref4" name="_ftn4" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[4]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">गुजराती की
समकालीन कविता में हास्य व्यंग्य, माणिक मृगेश, अभिनंदन ग्रंथ पृ- 115<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn5">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref5" name="_ftn5" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[5]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हिन्दी भाषा और
साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान, डॉ अंबाशंकर नागर,अभिनंदन ग्रंथ,हिन्दी
साहित्य हिन्दी साहित्य का परिषद् अहमदाबाद, 1985<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn6">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref6" name="_ftn6" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[6]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हिन्दी भाषा और
साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान, डॉ. अंबाशंकर नागर अभिनंदन ग्रंथ,
पृष्ठ-316<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn7">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref7" name="_ftn7" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[7]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">वही, पृष्ठ 317<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn8">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref8" name="_ftn8" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[8]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">गुजरात का
समकालीन हिन्दी साहित्य, आचार्य रघुनाथ भट्ट अभिनंदन ग्रंथ<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn9">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref9" name="_ftn9" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[9]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">आचर्य गघुनाथ
भट्ट अभिनंदन ग्रंथ पृ-270<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoFootnoteText">
<br /></div>
</div>
<div id="ftn10">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref10" name="_ftn10" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[10]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">आचर्य गघुनाथ
भट्ट अभिनंदन ग्रंथ पृ-270<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div id="ftn11">
<div class="MsoFootnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ftnref11" name="_ftn11" title=""><span class="MsoFootnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoFootnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[11]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">चंद्रमा मनसो
जातः, डॉ शिवमंगलसिंह सुमन,हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान
पृ 54<o:p></o:p></span></div>
</div>
</div>
<div>
<!--[if !supportEndnotes]--><br clear="all" />
<hr align="left" size="1" width="33%" />
<!--[endif]-->
<div id="edn1">
<div align="left" class="MsoNormal">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ednref1" name="_edn1" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><span style="line-height: 150%;"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[i]</span></span><!--[endif]--></span></span></a><span style="line-height: 150%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">शमशेरजी ने जिन रक्त-रंजित (लहु लुहान) ज़ख़्मों को खोल कर
दिखाया है वह आश्चर्यजनक रूप से सईद के ओरिएंटलिज़्म की संकल्पना के समानांतर है। असल में भाषाओं को
ले कर एक उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण कवि का दिखाई पड़ता है- सैद्धांतिक स्तर पर। अपनी भाषाओं तथा संस्कृति को ले कर हमें अपनी
परंपरा के अनुसार देखना चाहिए , पश्चिमी दृष्टि से नहीं- इस बात को एक गहरे
व्यंग्य के साथ कवि ने यहाँ प्रस्तुत किया है. </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoEndnoteText">
<br /></div>
</div>
<div id="edn2">
<div class="MsoEndnoteText">
<a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A4%20%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%83%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7.docx#_ednref2" name="_edn2" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-family: Calibri, sans-serif; line-height: 150%;">[ii]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif;">प्रसिद्ध भाषा-विद् गणेश देवी ने गुजरात दंगों के बाद एक
साक्षात्कार में यह कहा था कि गुजरात के लोगों के खून में घृणा है। इस बात पर बहुत
विवाद हुआ था।<span style="font-size: 11pt;"><o:p></o:p></span></span></div>
</div>
</div>
</div>
rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-82006444701991750822013-01-26T21:04:00.003-08:002013-01-26T21:04:37.300-08:00मिथक की पुनःसर्जना का मनोविज्ञान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoEndnoteText">
<span class="MsoEndnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-family: "Calibri","sans-serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-language: GU; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">[1]</span></span><!--[endif]--></span> <span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 11.0pt; mso-bidi-language: HI;">गुजराती कवि प्रवीण पंड्या की कविता इस कौरव पाँडव के समय
में से प्रेरित</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 11.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoEndnoteText">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-indent: 0.3in;">
<span class="MsoEndnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-family: "Calibri","sans-serif"; font-size: 11.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-language: GU; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">[1]</span></span><!--[endif]--></span>
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">प्रायः भाषा शिल्प शब्द प्रयोग साथ किया जाता है। पर इतना समझना आवश्यक है कि
अगर ताना-बाना भाषा है तो पट शिल्प है;
मिट्टी अगर भाषा है तो मूर्ति शिल्प है, रंग अगर भाषा है तो चित्र शिल्प
है- अर्थात् मिथकीय अभिव्यंजना के नए
अभिगम किस तरह रंग और चित्र-पट दोनो में है, मिट्टी और मूर्ति में दोनों में हैं।
अर्थात् कथा-संदर्भ एवं भाषा। इनको अलग कर के समझना असंभव है। ताने-बाने के अभाव
में पट का निर्माण असंभव है, और पट के
अभाव में रंग चित्र का निर्माण नहीं कर सकते। ताने-बाने की गति और विधि अलग अलग
पोत निर्माण करते हैं। भाषा के विशिष्ट प्रयोग कृति के शिल्प का निर्माण करते हैं।
</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-right: 0.1in;">
<b><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">संदर्भ पुस्तकें</span></b><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoBibliography">
<!--[if supportFields]><span
lang=HI style='font-size:9.0pt;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";
mso-bidi-language:HI'><span style='mso-element:field-begin'></span><span
style='mso-spacerun:yes'> </span></span><span style='font-size:9.0pt;
font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI'>BIBLIOGRAPHY<span
style='mso-spacerun:yes'> </span>\l <span lang=HI>1081 <span style='mso-element:
field-separator'></span></span></span><![endif]-->Alex Preminger.<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><u>Encyclopedia of Poetry and Poetics.</u><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> दि.न.</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoBibliography">
Northrope Frye.<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><u>Fables of Identity.</u><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span>New York<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span>&<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span>London: A Harvest/HBJ<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span>Book, USA, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">1963.</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoBibliography">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">डॉ नगेन्द्र. <u>मिथक और साहित्य.</u>
दिल्ली: नेश्नल पब्लिशिंग हाऊस</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">1979.</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoBibliography">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">डॉ</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">.</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">भोलाभाई</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">पटेल</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">. “</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">पुराण</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">कल्पनोनो</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">साहित्य</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">मां</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">विनियोग</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">.” </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">भोलाभाई</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">पटेल</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">. </span><u><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">पूर्वापर</span></u><u><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">.</span></u><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">मुंबई</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">: </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">र</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">.</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">र</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">शेठ</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">नी</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">कंपनी</span>, <span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">1976.</span><span lang="GU" style="font-family: "Arial","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-indent: 0.3in;">
<br /></div>
<div class="MsoBibliography">
<br /></div>
<div class="MsoEndnoteText">
<br /></div>
</div>
rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-67985057039159569572013-01-26T20:46:00.003-08:002013-01-26T20:46:19.253-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="border-bottom: solid #4F81BD 1.0pt; border: none; margin-left: .2in; margin-right: 0in; mso-border-bottom-themecolor: accent1; mso-element: para-border-div; padding: 0in 0in 4.0pt 0in;">
<div class="MsoTitle" style="margin-left: 0in; text-align: justify;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">मिथक</span><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">की</span><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">पुनःसर्जना</span><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">का</span><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">मनोविज्ञान</span><o:p></o:p></b></div>
</div>
<div class="MsoSubtitle" style="text-align: justify;">
<b style="background-color: black;"><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">महाभारत</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">की</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">असीम</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">संभावनाएं</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="GU" style="font-family: "Times New Roman","serif";">-
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">भाषा</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">शिल्प</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">में</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">मिथकीय</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">अभिव्यंजना</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">के</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">नवीन</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Times New Roman","serif";">
</span></span><span class="MsoIntenseReference"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-bidi-language: HI;">अभिगम</span></span><u><span style="color: #c0504d; font-variant: small-caps; letter-spacing: .25pt; mso-bidi-language: HI; mso-themecolor: accent2;"><o:p></o:p></span></u></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpFirst" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">क्या कौरवों
पाँडवों का समय सचमुच समाप्त हो गया है </span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%96%20%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%202013(%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%95).docx#_edn1" name="_ednref1" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-size: 11pt; line-height: 150%;">[i]</span></span><!--[endif]--></span></span></a><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> क्या समुद्र मंथन के समय धोखे से अमृत पीने वाले
राहू - केतु तथा असुरों को अमृत न देने की अनीति करने वाले देव, अब, इस हमारे आज
के समय में नहीं हैं </span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> बसों में, बड़े-बड़े आलीशान मक़ानों में अथवा तो
फार्म-हाऊसेस में तबदील होती कुरु-सभाओं में द्रौपदियाँ बलात्कृत हो रही हैं....
क्या कौरव पाँडवों का समय सचमुच समाप्त हो गया है !</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">! एक साझे-सम्मिलित भारतीय समाज के
रूप में आज से पूर्व कभी भी, या आज वर्तमान में भी, क्या कोई व्यक्ति
महाभारत अथवा रामायण के कथा -संदर्भों से अपने को, अपने जीवन को पूरी तरह से अलग कर सका है </span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> ये कथाएं और इनके संदर्भ आज भी प्रीतिकर रूप में अथवा तो
भयावह रूप में भी, भारतीय जन-मानस के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। इन कृतियों के रचनाकाल
को ले कर विद्वानों में मतभेद हो सकता है,
इन ग्रंथो के चरित्रों को चाहे तो कोई कल्पना-प्रसूत ही कह ले अथवा कपोल-कल्पित ही
क्यों न मान लें ; जनमानस की हृदय-चेतना में रामायण तथा महाभारत की कथाएं एवं
संदर्भ गहराई से अंकित हैं। यह मान लेने की कतई आवश्यक भी नहीं</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> कि इन ग्रंथों को जनता ने पढ़ा होगा। यह ज्ञान
तो परंपरा से उतर आया है , उतरता चला आ रहा है आज तक। इनके घटित होने के विषय में
भारतीय जन-मानस एक प्रतिशत भी संदेह नहीं करता। हमारा रोज़-ब-रोज़ का सामान्य जीवन
और व्यवहार महाभारत तथा रामायण के विभिन्न संदर्भों से युक्त ही रहता है। ये दोनों
कृतियाँ चालू वर्तमान काल (</span></span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: BN;">Present continuous)</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> में जन-मानस
के हृदय में विद्यमान रहती हैं। आज तक
भारतीय काव्य</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">-<span lang="HI"> कथाओं में
</span>, <span lang="HI">उपन्यास</span>-<span lang="HI"> नाटकों में</span>,<span lang="HI"> अथवा तो फिल्मों की कथाओं में; क्या महाभारत और रामायण
के निहितार्थों से उनको अलगा पाना संभव हुआ हैं</span></span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> भारतीय पारिवारक संबंध, नायक नायिका
से अपेक्षाएं क्या वास्तव में बदल गयी हैं</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> आज भी लक्ष्मण रेखा पार करनेवालियों की खैर नहीं समझी जाती। आज भी, भाषा में सुरक्षित तथा
प्रयुक्त यह प्रयोग दहला देता है। मानों हम अचानक एक मिथिकल समय में जीने लगते
हैं।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">इसी बिन्दु पर आकर यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि मिथकों के संदर्भ में अब
तक प्रायः पाश्चात्य नज़रिये से ही सोचा गया है। भारतीय संदर्भ में मिथ संबंधी
विचारणा की क्या स्थिति है इस पर डॉ. नगेन्द्र के मंतव्य को ध्यान में लिया जा
सकता है।(डॉ. नगेन्द्र की पुस्तक से उद्धरण लेना है।) सीधी सी बात यह है कि भारतीय
मानस के लिए मिथक कोई बीती हुई घटना नहीं है। लेकिन क्या मिथक की संकल्पना के
संबंध में भ</span><span lang="BN" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: BN;">া</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">रतीय दृष्टिकोण की संभावना पर विचार करना आवश्यक हो गया है</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> और क्यों</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> या फिर यह एक निरा वैचारिक पिष्टपेषण ही होगा</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> एडवर्ड सईद के बाद अब यह एक साहित्यिक प्रचलन तो नहीं हो
गया है कि हर मुद्दे पर एक भारतीय(ओरियंटल) सोच का होना अथवा विकसित किया जाना आवश्यक
माना जाए</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> निश्चय ही इसे एक
संकीर्ण राष्ट्रीयतावादी सोच कहा जा सकता है अथवा प्रतिगामी/ प्रतिक्रियावादी कह
कर एक तरफ़ डाल दिया जा सकता है, किन्तु ऐसा करने से मिथ संबंधी भारतीय वस्तुस्थिति
का जायज़ा नहीं लिया जा सकता । पश्चिम में
मिथक कहने पर एक पुरातन विस्मृत काल का संदर्भ ध्यान में आता है। भारतीय जन
मानस तथा समाज का जहाँ तक प्रश्न है, लोगों के नाम, दुकानों के नाम, घरों के नाम
तथा जीवन के विविध व्यापारों के संबंध में मिथकीय संदर्भों की भरमार यहाँ पर देखी
जा सकती है। यह हमारी आज की वर्तमान प्रयुक्त भाषा का हिस्सा है। इसका एक कारण भारतीय
संस्कृति का सातत्य भी हो सकता है। वैदिक काल से आज तक भारतीय संस्कृति की अस्खलित
उपस्थिति देखी जा सकती है। इसीलिए यज्ञ जैसा अनुष्ठान भी तब से लेकर आज तक चला आ
रहा है। इस अनुष्ठान को पिछड़ा तथा प्रतिगामी बताने के लिए पश्चिमी मानसिकता की
कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि भारतीय इतिहास में जैन तथा बौद्ध धर्म पहले यह कर
चुका है। आधुनिक काल में भी उस पर व्यंग्य करते हुए भारतेन्दु भी अपनी <i>वैदिकी हिंसा हिंसा न
भवती</i> के साथ मौजूद हैं। भारतीय संस्कृति की इतनी दीर्घकालीन सातत्यपूर्ण
उपस्थिति ने मिथकों को कभी भी भूतकाल नहीं बनने दिया है। अगर भारतीय भूगोल के किसी
भी हिस्से में सीता तथा भीम की रसोई बताई जाएगी तो इसे मान लेने में कोई आपत्ति
नहीं होती है। इसी तरह हाल ही में हुआ राम- सेतु का विवाद इसका बहुत बड़ा उदाहरण
है। राम- सेतु के होने अथवा न होने के विवाद के पीछे यही दो मुख्य बिन्दु तो थे-
एक वह वर्ग जो हमारी सांस्कृतिक एवं सामाजिक भी, सातत्य पूर्ण उपस्थिति को स्वीकार
करता है तथा एक वह वर्ग जो उसका अस्वीकार कर के इस सातत्य को तोड़ने का षड्यंत्र
करना चाहता है। </span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">"</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">अपने अपने राम</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">"</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> लिख कर भगवान सिंह ने चाहे राम का मिथक तोड़ने का प्रयास किया हो परन्तु उनके शोध पूर्ण उपन्यास से यह अवश्य
ज्ञात होता है कि उस समय लंका तथा अयोध्या के बीच व्यापार संबंध थे। यानी मिथकों
का काल इसके पूर्व का है। मिथक असल में हमारी पहचान को और अधिक गहरे रोपने का काम
करते हैं। यही बात एशिया की अन्य संस्कृतियों के संदर्भ में भी कही जा सकती है। चीन
तथा जापान के देशों की संस्कृति के इसी सातत्य को आज भी उनकी फिल्मों के माध्यम से
बड़े गौरव पूर्ण ढंग से प्रदर्शित होता देखा जा सकता है। ऐसी कोई भी फिल्म, जिसका
अगर नायक चीनी अथवा जापानी है, तो वह अपने धर्म अथवा किसी परंपरा के चिह्न की
रक्षा के लिए अपनी परम्परागत युद्ध पद्धति से प्रयत्नशील दिखाई पड़ता है।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: center; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">2</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<br /></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">सेमिनार के इस अंतिम सत्र में मिथक की पुनःसर्जना के मनोविज्ञान पर चर्चा
अपेक्षित है। महाभारत की ज़मीन असीम
संभावनाओं से भरी है। अतः युगानुरूप इसमें भाषा शिल्प</span><a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%96%20%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%202013(%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%95).docx#_edn2" name="_ednref2" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-size: 11pt; line-height: 150%;">[ii]</span></span><!--[endif]--></span></span></a><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> की मिथकीय अभिव्यंजना के नवीन अभिगम देखे जा सकते हैं। पर
फिर भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर चर्चा करना अनिवार्य है, मसलन </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpLast" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpFirst" style="line-height: 115%; margin-right: 0.1in; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><b style="background-color: black;"><span style="font-family: Wingdings; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;">Ø<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";"> </span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">साहित्य और
मिथक का क्या अन्तर्संबंध है</span><span style="font-family: Symbol; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-right: 0.1in; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><b style="background-color: black;"><span style="font-family: Wingdings; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;">Ø<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";"> </span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">उत्तर</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">-<span lang="HI">आधुनिक समय में मिथ का क्या महत्व है </span></span><span style="font-family: Symbol; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-right: 0.1in; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><b style="background-color: black;"><span style="font-family: Wingdings; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;">Ø<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";"> </span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मिथ साहित्य
स्वप्न तथा भाषा काल एवं समय के संदर्भ में किस तरह भिन्न हैं, संरचना की दृष्टि
से इनमें क्या समानता है ।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoListParagraphCxSpLast" style="line-height: 115%; margin-right: 0.1in; text-align: justify; text-indent: -0.25in;">
<!--[if !supportLists]--><b style="background-color: black;"><span style="font-family: Wingdings; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-family: Wingdings; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Wingdings;">Ø<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";"> </span></span><!--[endif]--><span dir="LTR"></span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">नयी
टेक्नोलॉजी ने मिथकों की अभिव्यक्ति में ऐसा क्या कर दिया है कि मिथक अर्थ एवं
अभिव्यंजना-दोनों ही स्तर पर नयापन ला देते हैं।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpFirst" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मिथक तथा
साहित्य का संबंध सबसे पहले उसकी स्वरूपगत संरचना की समानता में देखा जा सकता है।
मिथक का संबंध केवल और केवल साहित्य से नहीं है। उसका संबंध धर्म, कर्मकांड, दर्शन
से भी है। किन्तु साहित्य के विद्यार्थियों
को, वह</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI"> यानी मिथक, साहित्य से अभिन्न लगता है। महाभारत मुख्यतः साहित्य-कृति है। परन्तु अगर यह कहा जाए कि महाभारत अपने आप में
एक मिथक है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मिथक
और महाभारत - दोनों की संरचना में समानता
है। मिथक का स्वरूप कथात्मक अथवा कथा-संकुल<w:sdt citation="t" id="944901"><!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-begin'></span><span lang=EN-US> CITATION Ale \l 1033 </span><span
style='mso-element:field-separator'></span><![endif]--><span lang="EN-US"> (Preminger)</span><!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-end'></span><![endif]--></w:sdt> के रूप में होता है,
उसमें अतियथार्थ का तत्व होता है,, वह कहीं न कहीं अनुष्ठानों से संबंधित है, वह
असंभव को कल्पित करता है, उसमें जन्म मरण से जुड़े विचित्र तत्व होते हैं।<w:sdt citation="t" id="2093195"><!--[if supportFields]><span style='mso-element:
field-begin'></span> <span lang=EN-US>CITATION </span>डॉन791 <span lang=EN-US>\l
</span>1081 <span style='mso-element:field-separator'></span><![endif]--> (डॉ.नगेन्द्र)<!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-end'></span><![endif]--></w:sdt> </span><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">महाभारत क्या है</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> वह एक महा-कथा है और उसमें कितनी सारी अन्य कथाएं तथा
उप-कथआएं हैं । अनेक कथा संकुल हैं - जिसमें- पुरुररवा की कथा, शकुन्तला की कथा,
सावित्रि की कथा ...हैं। प्रकृति और
मनुष्य के परस्पर संबंध हैं- जैसे गंगा और भीष्म के जन्म-मरण के अविश्वसनीय,
अतिलौकिक संदर्भ इसमें हैं- जैसे याज्ञसेनी और पाँडवों कौरवों के जन्म संदर्भ। पर
एक ही अन्तर है जो महाभारत को साहित्य बनाता है- और वह है महर्षि वेदव्यास द्वारा
उसका रचा जाना। मिथकों के रचयिता अनाम होते हैं। इसका अर्थ यह है कि इन रचनाओं के रचे
जाने के पूर्व इनमें निहत मिथक रचे जा चुके थे जिन्हें महाभारत में वेदव्यास
पुनर्निर्मित करते हैं। मिथक की पुनः सर्जना होती है। मिथक तो प्रायः मानव
संस्कृति के ऊषः काल से उद्भवित माने गए हैं<w:sdt citation="t" id="944899"><!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-begin'></span> <span lang=EN-US>CITATION </span>पटे76
<span lang=EN-US>\l </span>1081 <span style='mso-element:field-separator'></span><![endif]--> (पटेल)<!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-end'></span><![endif]--></w:sdt> और यह अतीत हमारे समय-बोध
की पकड़ से बाहर होता है।<w:sdt citation="t" id="944900"><!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-begin'></span> <span lang=EN-US>CITATION </span>पटे76
<span lang=EN-US>\l </span>1081 <span style='mso-element:field-separator'></span><![endif]--> (पटेल)<!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-end'></span><![endif]--></w:sdt> मिथक कालातीत होते
हैं और इसलिए प्रत्येक युग के साहित्य को आकर्षित करते हैं। मिथक में नूतन
दृष्टिकोण की अनेक संभावनाएं होती हैं। प्रत्येक युग का जाग्रत दृष्टा कवि उसमें
युगानुरूप संभावनाएं देखता है। यहीं आकर यह बात स्पष्ट होती है कि साहित्य और मिथक
परस्पर संबद्ध है। </span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मनुष्य का विश्व अत्यन्त जटिल है। उसके चारों ओर रहे जगत की तुलना में उसका
विश्व जटिल इसलिए है क्योंकि उसने अभिव्यक्ति एवं जीवन-यापन के लिए (प्राणियों की
तुलना में) नयी तकनीकों का इजाद किया है। एक क्षण के लिए अगर मान लिया जाए कि
ईश्वर है तो यह संसार उसी का प्राकट्य</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">(manifestation)<span lang="HI"> है- ऐसा माना जा सकता है। यानी ईश्वर की कल्पना
करना ही एक प्रकार से मिथक की सर्जना करना है। जब तक ईश्वर की कल्पना नहीं थी,
नदी, पर्वत, पेड़ आदि अपने अभिधात्मक रूप में ही पहचाने जाते थे; जैसे ही ईश्वर की
कल्पना की गयी, ये प्राकृतिक तत्व अभिधात्मक न रह कर लक्षणा एवं व्यंजना प्रधान हो
जाते हैं। इतना ही नहीं ये प्राकृतिक
तत्व, मिथकीय प्रतीकात्मकता से युक्त भी हो जाते हैं। मिथकीय प्रतीक एक प्रकार की
भाषा होते हैं, क्योंकि ये किसी-न-किसी अर्थ को संप्रेषित करते हैं। भाषा का काम भी
मुख्यतः संप्रेषण करना ही है और मिथकीय प्रतीक भी किसी न किसी प्रकार का संप्रषण
ही करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संप्रेषण के स्तर पर मिथक और भाषा एक ही प्रकार
का काम करते हैं। मिथक मनुष्य जाति के स्वप्नों, उम्मीदों एवं आकांक्षाओं का
संप्रेषण करते हैं। उनकी अभिव्यक्ति प्रतीकों अथवा कथाओं- कथा-संकुलों द्वारा होती
है। जैसे नवरात्रि के जवारे प्रजनन का प्रतीक हैं (धार्मिक अनुष्ठान) संपाति
असंभव उड़ानों का प्रतीक है (प्रकृति), उर्वशी असीम सौन्दर्य का प्रतीक है (मनुष्य
की तीव्र लालासा)। विचार एवं भाव का संप्रेषण साहित्य में भाषा के माध्यम से होता
है। मिथक की रचना आदिम समय में इतिहास-पूर्व के किसी समय में होती है , उसका टाईम-स्पेस (देश-काल) अनिश्चित
होता है और वह किसी भी समय में अपना रूप और तात्पर्य बदल कर अर्थ देने की क्षमता
रखते हैं। साहित्य की रचना का काल निश्चित
होता है और वह ऐतिहासिक अथवा चैतसिक काल एवं भौगोलिक देश में घटित होता है। किस तरह बदलते समय के साथ मिथक कथाओं की
अभिव्यक्ति बदली है</span>, <span lang="HI">यह चर्चा का विषय हो सकता है। </span><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">असल में मिथक और साहित्य का संबंध बड़ा गहरा है। साहित्य में मिथक कथाएं या तो
पुनर्निर्मित होती हैं अथवा मिथक अलंकार रूप आते हैं, या फिर युगबोध को प्रकट करते
हैं अथवा तो कभी भाव के प्रतीक रूप में
आते हैं। जिस तरह मिथ में आकार और अर्थ
दोनों होते हैं उसी तरह साहित्य में आकार और अर्थ दोनों होते हैं। नवरात्रि में
उगाए जाते जवारे में आकार तो है ही पर उसमें प्रजनन का अर्थ निहित है। स्त्री
शक्ति का अर्थ निहित है। डॉ नगेन्द्र<w:sdt citation="t" id="2093192"><!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-begin'></span> <span lang=EN-US>CITATION </span>डॉन79
<span lang=EN-US>\l </span>1081 <span style='mso-element:field-separator'></span><![endif]--> (नगेन्द्र)<!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-end'></span><![endif]--></w:sdt> ने साहित्य के स्वरूप
की संरचना को यज्ञ के साथ जोड़ा है। नाटक के आकार को यज्ञ प्रक्रिया के अनुरूप बता
कर साहित्य स्वरूप को मिथक के समकक्ष बताया है। पश्चिम में ट्रेजेडी(साहित्य
स्वरूप) को भी धार्मिक अनुष्ठान के साथ जोड़ कर देखा गया है। अर्थात् सिथक एवं
साहित्य स्वरूपों की संरचना में समानता को देखना साहित्य को मिथक तथा मिथक को
साहित्य के समकक्ष रखता है।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: center; text-indent: 0.5in;">
<br /></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: center; text-indent: 0.5in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">3</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify;">
<span style="background-color: black;"><b><i><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">ऊधो मन
रे नहीं दस-बीस</span></i></b><b><i><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></b></span></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify;">
<b><i><span lang="HI" style="background-color: black; font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;">एक हुतो
सो गयो स्याम संग, को आराधै ईस<o:p></o:p></span></i></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">गोपियाँ उद्धव से जब उक्त निवेदन करती हैं तो उनका वास्तविक इरादा संभवतः कुछ
और रहा होगा, पर उसका मुख्य अर्थ यह निकाला जा सकता है कि मन एक ही है और वह कृष्ण
के प्रति समर्पित है। पर यह कहना कि <i>मन रे नहीं दस –बीस</i> इस संभावना को भी प्रस्तुत करता है कि मन एक से
अधिक यानी दस –बीस होने की संभावना बनी हुई है। और मन इसलिए दस बीस हो सकते हैं
क्योंकि हमारे यहाँ चतुरानन, दशानन, चतुर्भुज, अष्टभुज अथवा त्रिनेत्र की भी
परिकल्पना है। सामान्य बातचीत में यह कहते सुना गया है कि आखिर दो ही हाथ हैं
मेरे..। अर्थात् शारीरिक मर्यादा इंगित है। मन अगर अधिक होते तो और क्या किया जा
सकता था</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> इसीलिए अपने देवी देवताओं में चतुर्भुज और चतुर्मुख की
कल्पना करते हैं। मनुष्य जीवन के अभावों के परिप्रेक्ष्य में जो कल्पना करता है,-
अभावों की वही पूर्ति मिथक कथाओं तथा
कल्पनाओं के रूप में जन्म लेती हैं। यह सोचने की बात है कि मनुष्य अगर अपने सामान्य शरीर की तुलना में अधिक अंगों-उपांगों
से जन्म ले- मसलन वह चतुर्मुखी या त्रिनेत्र हो तो वह कौतुहल का विषय होता है। उसे
असामान्य माना जाएगा, उसके प्रति न सम्मान का भाव होगा न ही प्रेम का, पर एक
प्रकार की एपेथी या निचले स्तर की कुतुहल-वृत्ति का भी भाव रहेगा। मनुष्य के जिस
स्वरूप को उसकी मिथकीय उपस्थिति में खुले दिल से स्वीकारा जाता है, उसे वास्तविक
जीवन में आशंका भय अथवा अविश्वास के साथ ही देखा जाता है। चार हाथों वाला शिशु
अथवा मनुष्येतर मुख से जन्मा शिशु क्या गजानन अथवा अष्टभुजा की तरह स्वीकार्य होगा</span><span style="font-family: Symbol; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-bidi-language: HI; mso-char-type: symbol; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS"; mso-symbol-font-family: Symbol;">?</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"> उसके सामाजिक जीवन का भविष्य उसकी स्वरूपगत असामान्यता में
बाधक बनता है। उसकी न शादी होगी न ही उसे कोई नौकरी देगा। इसका एक अर्थ यह होता है
कि एक तरफ़ मिथकों का मनुष्य के वास्तविक जीवन में कोई सीधा स्वीकार नहीं है पर
फिर भी वह नित्य प्रति मनुष्य के वास्तविक जीवन का एक हिस्सा भी हैं। चतुर्भुज
अथवा चतुरानन ईश्वरों को वास्तविक मानने में एक प्रतिशत भी संदेह नहीं होता।
संभाव्यता के कारण और लौकिक वास्तविकता से भिन्न होने के कारण उसे सत्य मानने में
कोई आपत्ति नहीं होती। इसी संभाव्यता को अरस्तू ट्रेजेडी के केन्द्र में देखता है।
यही संभाव्यता साहित्य भी रचती है और यही संभाव्यता मिथक भी रचती है। अर्थात् <i>है
</i>और <i>था</i> के बीच है संभाव्यता- ऐसा हो सकता है- और इसी संभाव्यता
का ही दूसरा नाम साहित्य है और मिथक भी इसी संभाव्यता से जन्म लेता है। इसका अर्थ
हुआ कि यथार्थ अथवा वास्तविक न होते हुए भी यथार्थ होने की प्रतीति का नाम साहित्य
है, मिथक है।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">साहित्य के क्षेत्र में मिथक-चर्चा का प्रवेश '60 के दशक में हुआ। <i>नॉर्थरोप
फ्राय</i> की पुस्तक <i>फेबल्स ऑफ आइडेंटिटि</i><w:sdt citation="t" id="2093191"><!--[if supportFields]><span style='mso-element:field-begin'></span><span
lang=EN-US> CITATION Fry63 \l 1033 </span><span style='mso-element:field-separator'></span><![endif]--><span lang="EN-US"> (Frye)</span><!--[if supportFields]><span
style='mso-element:field-end'></span><![endif]--></w:sdt>- जो इस संदर्भ में
अत्यंत प्राथमिक ग्रंथ माना गया है, सन् 63 में प्रकाशित हुआ। यानी उत्तर-आधुनिकता
का आरंभ तथा आधुनिकता के अन्तिम चरण पर मिथकीय काव्य-दृष्टि एवं आलोचना का उद्भव
होता है। आधुनिकता की निश्चितता, व्यक्ति-अस्मिता एवं शाश्वतता से ठीक विपरीत
उत्तर-आधुनिकता अनिश्चितता, (अनेकान्तता) समूह की पहचान एवं परिवर्तनशीलता की बात
करता है। आधुनिकता जहाँ कला आंदोलनों की उर्वरा भूमि रही है वहाँ उत्तर आधुनिक समय
में साहित्य तमाम ज्ञान के क्षेत्र एवं विषयों से घिरा, अन्तर्विद्याकीय प्रमुखता
का रहा है। मिथक आधुनिकता एवं उत्तर-आधुनिकता के बीच इस तरह अवस्थित है कि उसके
पाँव आधुनिकता की ज़मीन पर पंजों के बल पर टिके हैं और नज़र भविष्य पर टिकी है। इस
उत्तर-आधुनिकता के दौर में मिथक का यही महत्व है कि वह स्त्री मिथकों के नए
संदर्भों को उजागर करता है। साथ ही एक
प्रश्न भी खड़ा करती है कि अगर मिथ का संबंध कहीं- न- कहीं हमारी पहचान से जुड़ा
है तो दलित, आदिवासियों के मिथ की खोज इस समय का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होना
चाहिए; क्यों कि मिथ के मूल में जो कुछ भी है- धर्म, अनुष्ठान, अतिकल्पना सभी कुछ
दलित जीवन में भी होनी चाहिए। आदिवासी जीवन की तो भूमि ही प्रकृति है अतः
ऋतु-चक्र, ऊषा रात्रि जन्म-मरण के अनुष्ठान वहाँ भी मौजूद हैं। राजनीतिक आधार
विमर्शों को अस्थायी आधार दे सकते हैं, परन्तु मिथक पहचान देते हैं, सामूहिक
आकांक्षाओं को रूप देते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक संदर्भ(अधिकार)
अथवा दबाव अथवा समय की माँग दलित एवं नारी साहित्य अथवा अन्य प्रकार के हाशिए के साहित्य
के अस्तित्व के लिए जितने कालजयी साबित नहीं होंगे, उतने इनके मिथक होंगे।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मिथक तथा टेक्नॉलॉजी के संबंध की चर्चा इसलिए रोचक हो सकती है क्योंकि हमारे
सामने एक तरफ़ <i>मैट्रिक्स, एवेटार, कोई मिल गया एवं कृष</i> जैसी फिल्में
हैं तो दूसरी तरफ़ काफ्का के मेटामॉरफोसिस की
ट्रेजेडी को टेक्नॉलॉजी के कारण मक्खी जैसी रोमैंटिक कॉमेडी मे बदलते हुए देखा
जा सकता है। रूप परिवर्तन करना भी मनुष्य की अदम्य इच्छा का एक उदाहरण है। सिनेमा का माध्यम और सिनेमा की भाषा में यह रूप
परिवर्तन का काम जब संभव होता है तो इसके कई तरह के परिणाम आ सकते हैं। इसके मूल
में भावातिरेक, (प्रेम अथवा क्रोध), राजनीति अथवा असुरक्षा आदि को देखा जा सकता है।
महाभारत में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं। वृक्ष में बदलते यक्ष या पत्थर में
बदलते पाँडवों के मिथक इसी तरह के उदाहरण हैं। संभवतः शाप तथा उःशाप वह तकनीक है जो रूप परिवर्तन की कांक्षा का मिथक निर्माण करती
है। अतः संरचना के स्तर पर संस्कृत का महत्वपूर्ण साहित्य, मिथक के पुनर्निर्माण
के लिए शाप तथा उःशाप का प्रयोग करता है। यानी यह कहा जा सकता है कि मूल में
महाभारत की मिथक कथाओं में रूप परिवर्तन संस्कृत काल एवं मध्य काल में श्राप की तकनीक काम में ली जाती है। नवजागरण काल
में राजनीति रूप परिवर्तन का आधार बनती है, (ऐयारी प्रधान उपन्यास) आधुनिक काल में ट्रेजेडी, तो उत्तर-आधुनिक काल
में फार्स इसके लिए ज़िम्मेदार है। टेक्नॉलॉजी
और मिथक एक ऐसा नया क्षेत्र है जिस पर भविष्य में अधिक काम किया जा सकता है।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 12pt; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">मिथक, साहित्य, स्वप्न तथा भाषा देश एवं काल के संदर्भ में किस तरह भिन्न हैं,
संरचना की दृष्टि से इनमें क्या समानता है इस पर विचार करना महत्वपूर्ण होगा। मिथ का
काल इतिहास-पूर्व का होता है, साहित्य का काल ऐतिहासिक तथा चैतसिक (मनोवैज्ञानिक)
होता है, स्वप्न का काल अचेतन में स्थित
है तथा भाषा का काल प्राण में अवस्थित है। मिथक तथा कुछ अंश तक स्वप्न को छोड़ दें
, तो भाषा और साहित्य का देश ऐतिहासिक है। मिथक का देश सांस्कृतिक तथा सामूहिक
अचेतन है, वह कहीं अन्य घटित हुआ होता है; स्वप्न का देश व्यक्ति का अचेतन है। यूँ
मिथ और स्वप्न अचेतन की सृष्टि है तथा साहित्य एवं भाषा चेतन की; इसीलिए जब भाषा
में मिथकीय अभिव्यक्ति होती है तो वह चेतन तथा अचेतन के द्वन्द्व का परिणाम है। (
यहाँ इस बात की चर्चा नहीं की जा रही है कि भाषा भी एक मनोवैज्ञानिक पक्ष होता है)
ऐतिहासिक देश काल में जब मिथक यात्रा करते हैं तो युगबोध निर्धारित करता है कि
मिथक का स्वरूप क्या होगा। मिथक का संबंध जन्म मरण की घटनाओं के साथ होता है। मिथ
अपने निर्माण के बाद समय में बदलता है।
जन्म-मरण, भय संत्रास आदि मिथक निर्माण के कारण हैं। पुत्र-प्राप्ति के प्रसंग में,
नियोग दरम्यान भय से माता (अंबालिका) आँख बंद कर लेती है तो धृतराष्ट्र का जन्म
होता है। महाभारत में वह एक अन्ध राजा के रूप में चित्रित है। महाभारत जब समय में
आगे बढ़ता है तो यह शारीरिक अंधत्व प्रतीकात्मक हो जाता है, रवीन्द्रनाथ में गांधारी
के निवेदन में पुत्र मोह का प्रतीक तथा भारती के अंधा-युग में सत्ता मोह
का प्रतीक बन जाता है। भाषा और साहित्य का देश-काल एक ही है-
ऐतिहासिक-भौगोलिक-चैतसिक । अतः जब साहित्य तथा भाषा में मिथक आता है तब ऐतिहासिक
एवं अचेतन का संयोग होता है और एक सर्वथा नए अर्थ का उदय होता है। इस संदर्भ में
द्रौपदी का चरित्र महाभारत का बड़ा
विलक्षण मिथ है। उस पर बहुत लिखा गया। नरेन्द्र शर्मा से लेकर महाश्वेता तक ने
अपने तरीके से इस मिथक को व्याख्यायित किया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि
मिथक कथा-रूप होते हैं, अतः उनकी अनंत व्याख्याएं संभव हैं। यही मिथक की सार्थकता
भी है। उसमें अर्थ की अनंत संभवनाएं बनी हुई हैं। समाज, संस्कृति, राजनीति,
विचारधारा --- सभी इनमें नए और अनुकूल अर्थ देखते हैं। पर अपने मूल रूप में मिथक
बड़े कॉम्पैक्ट(संपुटित) होते हैं। द्रौपदी का जन्म अग्नि में हुआ तथा मृत्यु हिम
में। जन्म ऊर्जा का तथा मृत्यु शीत का प्रतीक है। फिर दृश्यात्मक रूप से यह
अत्यन्त सुंदर है। इसमें रंग का(केसरी तथा श्वेत) तथा स्पर्श (शीत तथा ताप का
विपरीत सौन्दर्य भी है। द्रौपदी कितने सारे अर्थ देती है। ताप तथा शीत के बीच की
उसकी जीवन-कथाएं कितने सारे संदर्भों एवं अर्थों से भरी हैं।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 12pt; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<span lang="HI" style="background-color: black; font-family: 'Arial Unicode MS', sans-serif; font-size: 12pt; line-height: 115%;"><b>देह की उपस्थिति, जीवन की उपस्थिति का संकेत है। इसी तरह देह-विलय जीवन की
अनुपस्थिति का संकेत है। अतः मिथक की रचना में देह की उपस्थिति/अनुपस्थिति का बड़ा
मूल्य है। इसके आधार पर कई मिथक बने होंगे। ये मिथक या तो प्रतीकों के रूप में
अथवा कथाओं के रूप में या फिर कथन-पद्धतियों में विभक्त हो कर विभिन्न रूप धारण
करते हैं। दीये का जलना अथवा बुझना, मिट्टी के घड़े का फूटना अथवा फोड़ना --- इसी
प्रसंग में एक मिथक की चर्चा की जा सकती है। मृत-प्रियजन के लौटने की कामना संभवतः
मनुष्य की आदिम इच्छा रही होगी। तो मिथ है – मृतक का लौटना । सावित्री की कथा का मिथ
इसी प्रकार का है। महाभारत इस मिथ की पहली अभिव्यक्ति कही जा सकती है। फिर महर्षि
अरविंद सावित्री महाकाव्य की रचना करते हैं। फिर समय में मिथ आगे बढ़ता है। आधुनिक
काल के मशाल-पुरुष मोहन राकेश सावित्री के मिथ का विरूपीकरण करते हैं। भारतीय समाज में सावित्री सम्मान का प्रतीक है।
वट-सावित्री का धार्मिक अनुष्ठान आज भी संपन्न होता है। कुंती, द्रौपदी, सावित्री
सतियाँ है। महाभारत की सावित्री जिसका विशेषण 'सती', अब संज्ञा हो चुका है, वह आधे अधूरे में एक विरूपित
चरित्र के साथ दृष्टिगोचर होती है। वह अपने पति महेन्द्रनाथ से असंतुष्ट है। अतः
उसका संबंध चार पुरुषों से दिखाया गया है। फिर भी वह द्विधा में है। 'आधे- अधूरे' की सावित्री का पति आत्महत्या करना चाहता है।
एकदम विपरीत गति। महाभारत की सावित्री अपने पति को मौत के मुँह से बचा लायी है,
राकेश की सावित्री पति को मौत के मुँह में धकेलने के लिए तत्पर। ऐश्वर्य भोगने
वाला इन्द्र राकेश में आ कर बनता है महेन्द्र पर है वह कंगाल एवं नपुंसक। चार
पुरुषों से संबंध बनाने वाली सावित्री की खोज पूर्णता की ही है। इस नाटक में वह पूर्ण पुरुष की खोज कर रही है।
पूर्णपुरुष तो केवल कृष्ण ही हैं। आधे अधूरे में काले सूट वाला आदमी – सूत्रधार
है। कृष्ण काले और यह काले सूट वाला आदमी। एक गज़ब की समानता है। सतीत्व एवं पूर्ण
पुरुषोत्तम का मिथ आधुनिक काल में आ कर इस हद तक विरूपित हो जाता है। <o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormalCxSpMiddle" style="line-height: 115%; margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 12pt; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">देश और काल मिथकों में नया अर्थ भरते हैं। देश और काल की ही कसौटी पर साहित्य
तथा भाषा भी अर्थ पाते हैं। स्वप्न, मिथ, साहित्य तथा भाषा की संरचना में समानता
है। स्वप्न के अर्थ स्वप्न के दृश्यों में छिपे हैं। मिथ के अर्थ उसके प्रतीकों
एवं आकारों में समाहित हैं, साहित्य का अर्थ उसकी रचना और संभाव्यता में है, उसके
अलंकारों और बिम्बों मे है और उच्चरित तथा लिखित ध्वनि एवं शब्द में उसके अर्थ
छिपे हैं। यह जो प्रतीक तथा तात्पर्य का युग्म है</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">,<span lang="HI"> वह देश और काल में यात्रा करते हुए मिथकीय अभिव्यंजना के नए अभिगम प्रस्तुत करते
हैं। </span><o:p></o:p></span></b></div>
<div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="background-color: black;"><br /></b></div>
<!--[if !supportEndnotes]-->
<hr size="1" style="text-align: left;" width="33%" />
<!--[endif]-->
<div id="edn1">
<div class="MsoEndnoteText" style="text-align: justify;">
<b style="background-color: black;"><a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%96%20%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%202013(%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%95).docx#_ednref1" name="_edn1" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-family: "Calibri","sans-serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-language: GU; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">[i]</span></span><!--[endif]--></span></a> <span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 11.0pt; mso-bidi-language: HI;">गुजराती कवि प्रवीण पंड्या की कविता इस कौरव पाँडव के समय
में से प्रेरित</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 11.0pt; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoEndnoteText" style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
<div id="edn2">
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<b style="background-color: black;"><a href="file:///D:/New%20articles/%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%96%20%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%202013(%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A5%E0%A4%95).docx#_ednref2" name="_edn2" title=""><span class="MsoEndnoteReference"><!--[if !supportFootnotes]--><span class="MsoEndnoteReference"><span style="font-family: "Calibri","sans-serif"; font-size: 11.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-language: GU; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">[ii]</span></span><!--[endif]--></span></a>
<span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">प्रायः भाषा शिल्प शब्द प्रयोग साथ किया जाता है। पर इतना समझना आवश्यक है कि
अगर ताना-बाना भाषा है तो पट शिल्प है;
मिट्टी अगर भाषा है तो मूर्ति शिल्प है, रंग अगर भाषा है तो चित्र शिल्प
है- अर्थात् मिथकीय अभिव्यंजना के नए
अभिगम किस तरह रंग और चित्र-पट दोनो में है, मिट्टी और मूर्ति में दोनों में हैं।
अर्थात् कथा-संदर्भ एवं भाषा। इनको अलग कर के समझना असंभव है। ताने-बाने के अभाव
में पट का निर्माण असंभव है, और पट के
अभाव में रंग चित्र का निर्माण नहीं कर सकते। ताने-बाने की गति और विधि अलग अलग
पोत निर्माण करते हैं। भाषा के विशिष्ट प्रयोग कृति के शिल्प का निर्माण करते हैं।
</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-right: 0.1in; text-align: justify;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; font-size: 12.0pt; mso-bidi-language: HI;">संदर्भ पुस्तकें</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoBibliography" style="text-align: justify;">
<!--[if supportFields]><span
lang=HI style='font-size:9.0pt;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";
mso-bidi-language:HI'><span style='mso-element:field-begin'></span><span
style='mso-spacerun:yes'> </span></span><span style='font-size:9.0pt;
font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI'>BIBLIOGRAPHY<span
style='mso-spacerun:yes'> </span>\l <span lang=HI>1081 <span style='mso-element:
field-separator'></span></span></span><![endif]--><b style="background-color: black;">Alex Preminger.<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><u>Encyclopedia of Poetry and Poetics.</u><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> दि.न.</span><o:p></o:p></b></div>
<div class="MsoBibliography" style="text-align: justify;">
<b style="background-color: black;">Northrope Frye.<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><u>Fables of Identity.</u><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span>New York<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span>&<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span>London: A Harvest/HBJ<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span>Book, USA, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">1963.</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoBibliography" style="text-align: justify;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">डॉ नगेन्द्र. <u>मिथक और साहित्य.</u>
दिल्ली: नेश्नल पब्लिशिंग हाऊस</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">1979.</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoBibliography" style="text-align: justify;">
<b style="background-color: black;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">डॉ</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">.</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">भोलाभाई</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">पटेल</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">. “</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">पुराण</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">कल्पनोनो</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">साहित्य</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">मां</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">विनियोग</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">.” </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">भोलाभाई</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">पटेल</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">. </span><u><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">पूर्वापर</span></u><u><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">.</span></u><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">मुंबई</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">: </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">र</span><span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">.</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">र</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">शेठ</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">नी</span><span lang="HI" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">कंपनी</span>, <span lang="GU" style="font-family: "Shruti","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;">1976.</span><span lang="GU" style="font-family: "Arial","sans-serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Arial; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin; mso-no-proof: yes;"><o:p></o:p></span></b></div>
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 10pt; margin-left: 0in; margin-right: 0.1in; margin-top: 0in; text-align: justify; text-indent: 0.3in;">
<br /></div>
<div class="MsoBibliography" style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="MsoEndnoteText" style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
</div>
</div>
rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-4928663901566773522012-03-11T03:12:00.004-07:002012-03-11T03:20:12.061-07:00अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी, इग्नू. दिल्ली में पढ़ा पर्चा--2,3,4 मार्च 2012<div style="mso-element:para-border-div;border:none;border-top:solid #C0504D 1.5pt; padding:1.0pt 0in 0in 0in"> <p class="MsoTitle" style="text-align: justify;line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-bidi-language:HI">अनुवाद के आईने में विचारधारा एवं राजनीति के चेहरे</span></b><b><o:p></o:p></b></span></p> </div> <p class="MsoNormal" align="right" style="text-align: justify;line-height: 150%; "><span ><b> </b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-top: 12pt; margin-right: 0in; margin-left: 0in; margin-bottom: 0.0001pt; text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहाँ सब कुछ राजनैतिक अथवा विचारधारात्मक-सा लगता है। जीवन की सर्वाधिक सूक्ष्म संवेदनाओं से लेकर जीवन की कठोर वास्तविकताओं तक --- सब कुछ जैसे राजनैतिक अथवा विचारधारात्मक आवरण में लिपटा हुआ दिखाई पड़ता है। <i>अगर हमारा लेखन (रचना) इस तरह का हो गया है तो क्या अनुवाद इससे कुछ भिन्न होगा।</i> यह बात इस तरह लिखते-लिखते ही मुझे परम आचार्य देरिदा की शैली का स्मरण हो आया कि (कहीं) यह बात असल में, मैं, रोमान्टिक कवि पर्सी बिसी शैली की प्रसिद्ध कविता </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Shruti; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-hansi-font-family:Shruti; mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height: 150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI">ओड टू दी वैस्ट विंड</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%; font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Shruti;mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-hansi-font-family:Shruti;mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> की जानी-मानी पंक्ति </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">If <i>Winter comes, can spring be far behind- </i></span><i><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span></i><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> की तर्ज़ पर लिख रही हूँ, और यहाँ क्या मेरा उपरोक्त कथन उसका अनुवाद ? रूपांतर ? इस्तेमाल ? उल्लेख ? है। लेकिन मुझे यह कहना होगा कि मेरा यह कथन कि </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Shruti; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-hansi-font-family:Shruti; mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height: 150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI">अगर लेखन इस तरह का हो गया है तो क्या अनुवाद इससे कुछ भिन्न होगा... </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Shruti;mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family:Shruti;mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">दूर-दूर तक यह शैली के पंक्ति का अनुवाद नहीं है। न ही उसकी पैरोड़ी। मैं दरिदा की शैली में अपना लेख लिखने की अथवा , अब इस समय, इसकी विस्तृत व्याख्या करने की ज़ुर्रत भी नहीं करूंगी क्योंकि मैं इस रूप में न तो देरिदा की लेखन शैली का अनुकरण करना चाहती हूँ, न ही अनुवाद। न ही मेरी इतनी हैसियत है। </span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-top: 12pt; margin-right: 0in; margin-left: 0in; margin-bottom: 0.0001pt; text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">पर इसमें कोई संदेह नहीं कि देरिदा की बदौलत (ही) आज हम अनुवाद को लेकर इस तरह सोचने के लिए प्रवृत्त हुए हैं। अनुवाद पिछले कुछ एक दशकों से लेखन का सम-स्थानीय हो गया है। अनुवाद के संदर्भ में देरिदा ने अपने दो मशहूर लेखों- </span><span style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language: HI">What is a </span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family: "Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language: HI">'</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">Relevant</span><span style="font-size:12.0pt;line-height: 150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-bidi-language:HI">'</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%; font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI"> Translation <span lang="HI"> तथा </span>Living On Borderlines <span lang="HI">में कई नए मुद्दे उठाएं हैं। वाल्टर बेंजामिन की संकल्पना का आधार ले कर देरिदा ने अनुवाद को लेखन(रचना) का उत्तर-जीवन कहा है। कई सारे पेंच-कस तथा जटिलताओं के साथ जिस तरह प्रस्तुत किया है उसे मैंने यहाँ लगभग एक सपाट कथन में लिखा दिया है। अनुवाद विषयक देरिदा की इस नितांत भिन्न दृष्टि का अपना एक राजनैतिक संदर्भ भी था। साथ ही उनके अपने (निजि एवं नस्लगत) सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक अनुभव(अप्रिय) भी थे जिसके फलस्वरूप वे एक ही साथ अनुवाद को हिंसात्मक (एनिहिलेट) तथा पुनः जीवन (उत्तर-जीवन) दोनों ही मानते थे। यूं भी देरिदा एक ही साथ दो विरोधी अथवा विपरीत स्थितियों की सह-कल्पना के लिए जाने जाते हैं। जैसा कि वे कहते हैं कि </span></span><span lang="HI" style="font-size: 12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनूदित नहीं हो सकता और कुछ भी ऐसा नहीं है कि जो अनूदित हो सकता है'। </span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI;mso-no-proof:yes">(Derrida, 2001)</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> अगर हमारा आज का संदर्भ देरिदा की संकल्पना को समझने के उपक्रम का होता तो अवश्य ही इस पर अधिक विचार किया जा सकता था पर जहाँ तक आज के हमारे विषय का प्रश्न है, मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगी कि अपनी बात कहने के लिए ही मुझे देरिदा के कथनों की बीच-बीच में आवश्यकता पड़ सकती है। मसलन, हम देरिदा की निजि तथा नस्लीय अनुभूति वाली बात पर आएं तो मेरे मन में एक समानांतर रूपक यह जागता है कि जिस तरह एक अच्छी रचना पढ़ कर सहृदय को अपने अनुभवों का अनुरणन उसमें सुनाई पड़ता है</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">, <span lang="HI">देरिदा की इन अनुभूतियों को पढ़ कर मेरे मन में भी एक भारतीय अनुभव का अनुरणन जागता है। देरिदा की अनुभूतियों के ठीक विपरीत भारतीय अनुभव को देखा जा सकता है। रचना के उत्तर – जीवन के कई उदाहरण राहुल सांकृत्यायन की अनुवाद-प्रवृत्ति में देखे जा सकते हैं। यह बात बहुत जानी-मानी है कि राहुल सांकृत्यायन ने उन अनेक ग्रंथों का चीनी से संस्कृत या हिन्दी में अनुवाद किए। अनुवाद का यह उत्तर-जीवन, पाली से चीनी में. चीनी से फिर संस्कृत/हिन्दी के अनुवाद- पथ पर से आ कर(यात्रा कर के- </span>travel/travail)<span lang="HI"> हमारे पास लौट आए हैं। <i>'लिविंग ऑन बॉर्डर लाईंन्स'</i> में शुद्धतावादियों पर तन्ज़ कसते हैं देरिदा। अगर भारत में भी हम शुद्धतावादी नज़रिया अपनाएं तो यह बहुत मुश्किल हो सकता है। जिस तरह अपहृत तथा बलात्कृत कन्या को प्रायःहमारे समाज में स्वागत- योग्य नहीं समझा जाता , उसी तरह यह इतनी लंबी भाषायी-यात्रा कर के आई किसी कृति के विषय में भी हम क्या यही समझ रखेंगे</span></span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family: Symbol;mso-ascii-font-family:"Arial Unicode MS";mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-bidi-language:HI;mso-char-type:symbol;mso-symbol-font-family:Symbol">?</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> भारत की अपनी सांस्कृतिक स्थितियां पश्चिम से इतनी भिन्न रही हैं कि हमारे लिए यही एक बड़े आनंद का तथा तसल्ली का विषय हो जाता है कि </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">चलो इस बहाने वह प्राचीन ज्ञान तो सुरक्षित है</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">। हमें अपनी धरोहर तथा लुप्त ज्ञान की पुनः प्राप्ति का आनंद अधिक रहा है। यूं भी अशुचि स्थानों पर पड़ी स्वर्ण मुद्राओं ( इसी के आधार पर संपत्ति-प्रतीक) को शुद्ध करके लिये जाने में किसी को भी परहेज़ नहीं हो सकता है, ऐसा मानने वाली मानव प्रजा हैं हम। (हम यानी केवल भारतीय नहीं , बल्कि , समग्र मनुष्य जाति</span><span style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:Symbol;mso-ascii-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-hansi-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI;mso-char-type: symbol;mso-symbol-font-family:Symbol">?</span><span lang="HI" style="font-size: 12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language: HI">) उसी तरह यह भी सच है कि इतिहास में क्रमशः भाषा और मनुष्य तभी विकसित हो सके हैं, बचे भी रह सके हैं ,जब वे शुद्धता के प्रति आत्म-दाह की सीमा तक आग्रही नहीं रहे हैं। ग्रंथ अनूदित हुए हैं, उन्हें पुनर्जीवन मिला है। टीकाएं तथा व्याख्याएं भी अगर अनुवाद का ही एक रूप हैं तो निश्चय ही भारतीय प्राचीन ज्ञान का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसी कारण सुरक्षित रहा है। । इसमें एक बात को ध्यान रखें कि हमारे यहाँ मृत्यू तथा जीवन दोनों ही प्रसंगों के साथ ही एक तरह की अशुचिता जुड़ी हुई है। यानी देरिदा का ही विरोधाभास उधार लें तो मांगलिक और अमांगलिक दोनों ही प्रसंगों के साथ अशुचिता जुड़ी हुई है। लेकिन दोनों ही अनिवार्य तथा इच्छनीय हैं। हमारे यहाँ की भाषाई संस्कृति की परंपरा तो शुद्धता के तमाम आग्रहों के मुँह पर एक तमाचा है।</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">दूसरी बात यह है कि हमारे यहाँ भाषाओं की सहोपस्थिति साहित्य की रचनात्मकता का ही एक हिस्सा रहा है। चाहे खुसरो हो या रसख़ान – एक ही कविता की दो पंक्तियों में दो विभिन्न भाषाओं का इस्तेमाल करने का रुझान उनमें देखा जा सकता है। इसे उस संस्कृत परंपरा के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है जहाँ संस्कृत के साथ प्रकृतों का प्रयोग कृति की बनावट का हिस्सा रहते थे। इसलिए संभवतः संस्कृतियों की सहोपस्थिति हमारे लिए जितनी सहज है उतनी ही सहज भाषाओं की सहोपस्थिति भी रही है। तभी संस्कृति-अध्ययन तथा एक जाति का संहार कर के (एनिहिलेट) उस पर अपना कब्ज़ा कर लेना हमारे अनुभव का वैसा हिस्सा कभी नहीं बने जैसा पश्चिमी देशों का अनुभव रहा है।(महाभारत में भी वंश को एनिहिलेट करनी की बात है, जाति को नहीं) </span><span style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language: HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">पर फिर भी देरिदा के कारण ही पहली बार गोया, अनुवाद-दृष्टि प्रयोजनमूलकता एवं प्रचार की परंपरागत दृश्यात्मकता से आगे बढ़ कर एक स्वतंत्र अस्तित्व धारण कर चुकी है। सैद्धांतिक रूप से आज लेखन तथा अनुवाद दोनों ही समानता की भूमि पर स्थित नज़र आते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अब साहित्य की भाँति अनुवाद का एक स्वतंत्र अस्तित्व है। ठीक उसी तरह जैसे किसी समय तुलनात्मक साहित्य सामान्य साहित्य के अधीन, उसका एक हिस्सा था, पर कालांतर में अलग हो गया और अनुवाद जो तुलनात्मक साहित्य तथा सामान्य साहित्य के अधीन माना जाता था वह अब स्वतंत्र हो गया। किसी के भी अधीनत्व से निकल कर अपनी स्वतंत्र इयत्ता का साथ आज अनुवाद खड़ा है। तभी उसकी विचारधारा और उसकी राजनीति पर चर्चा प्रासंगिक हो जाती है। </span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">यानीकि जिस तरह साहित्य की अपनी एक राजनीति है क्या उसी तरह अनुवाद की भी अपनी एक राजनीति है </span><span style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:Symbol;mso-ascii-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-hansi-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-bidi-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI;mso-char-type: symbol;mso-symbol-font-family:Symbol">?</span><span style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language: HI">!</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:Symbol; mso-ascii-font-family:"Arial Unicode MS";mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-bidi-language:HI;mso-char-type:symbol;mso-symbol-font-family:Symbol">?</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> अनुवाद की राजनीति तथा साहित्य की राजनीति क्या अलग है? या उनमें कोई समानता है? इस बात को पड़तालना रोचक हो सकता है कि व्यापक स्तर पर अनुवाद के वास्तविक कार्य तथा अनुवाद अध्ययन क्या किसी तरह के विचारधात्मक झुकाव से प्रभावित होते हैं अथवा नहीं। इक्कीसवीं सदी में साहित्य को देखने का नज़रिया बदल गया है। अनुवाद बाजारोन्मुखी हो गए हैं और विचारधारा का स्थान विमर्शों ने ले लिया है। फिर विमर्श भी विभिन्न विचारधारात्मक चौखुंटों में बँट गए हैं। हमारे पास मार्क्सवादी नारी है, गाँधीवादी नारी है, राष्ट्रवादी नारी है उसी तरह विभिन्न प्रकार के दलित और आदिवासी भी हैं। अर्थात् साहित्य के द्वारा इन प्रकारों को हम देखते पहचानते हैं, परन्तु इनके बाहर भी निरे स्त्री-पुरुष रहते हैं, जो शायद ही साहित्य में प्रवेश पा सकते हैं। लेखक के घोल में घुल कर मनुष्य निरा मनुष्य कहाँ रह पाता है। </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">गोदान</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> का होरी और गोदान के बाहर का </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">होरी</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> एक ही नहीं है। वह भिन्न हैं। असल में यह प्रश्न सर्जनात्मक विश्व का भी है। वास्तविक विश्व जब सर्जनात्मकता के क्षेत्र में प्रवेश करता है, तब वह बदल जाता है। वह वास्तविक विश्व नहीं रहता। तभी हम देखते हैं कि महाश्वेता देवी के आदिवासियों, ध्रुव भट्ट तथा मनुभाई पंचोली </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">दर्शक</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> के आदिवासियों में अंतर है। इन आदिवासियों को उन लेखकों ने जिस तरह देखा है, वे वैसे हैं। </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">दर्शक</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> के उपन्यास </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">कुरुक्षेत्र</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> (हिन्दी अनुवाद- वाणी प्रकाशन, दिल्ली) के आदिवासी स्वार्थी, हिंसक तथा अज्ञानी हैं। उन्हें अपना हित समझ में नहीं आता। सत्ता द्वारा, सत्ता के स्वार्थ द्वारा प्रेरित विकास करते हैं और सत्ता के पक्ष में निर्णय बदलने वाले इन आदिवासियों का तभी महत्व है जब वे सत्ता को अनुकूल रहें। तत्वमसि(राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) में ध्रुव भट्ट के आदिवासी अस्मिता से भरे , जुझारू, अपनी परंपराओं पर गर्व करने वाले हैं, जिनका अंत में भला तभी हो सकता है, अगर वे व्यापक भरातीय परंपरा का अनुसरण करते हुए, अपने को उसका हिस्सा मानते हुए , अपनी अस्मिता पर गर्व करें। जबकि महाश्वेता का आदिवासी(चोट्टीमुंडा और उसका तीर, जंगल के दावेदार, राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली)) अपने पाँवो पर ,अपनी ज़मीन पर खड़ा, सत्ता को चुनौति देता है। यानी जो आदिवासी सर्वाधिक अनूदित हो रहा है वह तो तीसरा आदिवासी है। जो अधिकरों के लिए लड़ता है। जो राजनैतिक सत्ता अथवा परंपरा की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, जो अपने जंगलों पर अपनी दावेदारी अपने बलबूते पर करता है। जो तुलना में सर्वाधिक लोकतांत्रिक है। उत्तर-आधुनिक दौर में जब यह आदिवासी विमर्श हो रहा है तब इस बात को ध्यान में लेना होगा कि महाश्वेता का आदिवासी 1980 के पहले का है जो( मार्क्सवादी) विचारधारा का पक्व समय था और दर्शक तथा ध्रुवभट्ट का आदिवासी (क्रमशः 1991 तथा 2001) विमर्श के दौर का । अर्थात् वह कन्स्ट्रकटेड है। विमर्शों के फलस्वरूप अपनी विचारधारा अथवा सत्ता की विचारधारा के अनुरूप </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">डिजाईंड</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> है। अपनी मूल प्रकृति के अनुसार , जब तक सत्ता नहीं बन जाता, मार्क्सवादी विचार, हमेशा ही प्रतिरोध की विचारधारा रही है। अतः वह सत्ता की विचारधारा नहीं है। तभी महाश्वेता के आदिवासी इन बाद के आदिवासियों से अधिक सच्चे लगते हैं। </span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> पर यह कहना सचमुच बहुत कठिन है कि वास्तविक आदिवासी किस तरह होंगे? किस की तरह होंगे? सवाल इतना ही है कि हमारी वर्तमान राजनीति किस तरह के आदिवासियों को महत्वपूर्ण मानती है । क्या उसी तरह के आदिवासी अनूदित होकर दूसरी भाषा में जाते हैं? यह हमारे सामने बहुत स्पष्ट है कि सबसे अधिक बिकने वाले आदिवासी महाश्वेता के हैं। क्या इसका एक कारण यह है कि ये आदिवासी विमर्शों के दौर के पहले के हैं ? अतः चाहे चोट्टी के तीर पर रहने वाले मुंडा आदिवासी हों या जंगल के दावेदार हों, जितनी उनकी चर्चा हुई है, उतनी चर्चा उन स्रोत भाषा-पाठों के बाहर न तो ध्रुव भट्ट के नर्मदा तीर पर रहने वाले साठसाली आदिवासियों की हुई, न ही दर्शक के महाभारत कालीन नाग आदिवासियों की। अगर सर्जनात्मक प्रक्रिया की बात करें तो ध्रुव भट्ट ने भी महाश्वेता की ही तरह क्षेत्र पर जा कर ही , आदिवासियों के बीच रहकर ही, यह उपन्यास लिखा है। बाद में भी वे उस क्षेत्र में जा कर काम करते रहे हैं। पर संघर्ष और अस्मिता का जो आदर्श महाश्वेता के आदिवासियों में, व्यवस्था से लड़ते हुए हम देखते हैं वह ध्रुव भट्ट में उस तरह नहीं है। वहाँ व्यवस्था ( मारवाड़ी) या सरकार उतनी बुरी नहीं है, बल्कि वह आदिवासियों की मदद करती दिखाई पड़ती है। विरोध की हिंसा वहाँ नहीं है अतः हमें संभवतः उतना आकृष्ट नहीं करती, अथवा जकड़ती नहीं है। वहाँ फोकस संभवतः विदेश में रह रहे भारतीय नायक के भीतर सोयी हुई भारतीयता की रक्षा करने का उपक्रम भी है। फिर प्रगतिशील विचारधारा का कालगत तथा भौगोलिक व्याप भी बड़ा है। सो अनूदित होते हैं प्रगतिशील आदिवासी। यों भी दक्षिणपंथी विचारधारा तो हमेशा ही संदेह के दायरे में रही है। अतः अनुवाद कैसा हुआ है, यह बात इस मुद्दे पर निर्भर है कि अनुवाद किस चीज़ का हुआ है। अनुवाद की गुणात्मकता इस बात पर तय नहीं की जाती कि वह मूल से कितना वफ़ादार है, इत्यादि। अथवा वह </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">रेलेवेंट</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> है या नहीं। बल्कि, कौन-सी विचारधारा उसे रैलेवेंट बनाएगी, इस बात पर ध्यान दिया जाता है। आज की हमारी गणतांत्रिक लोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था किसी भी रूप में धार्मिक अथवा दक्षिणपंथी विचारधारा को बढ़ावा नहीं देती। यहाँ मैं इस संदर्भ में ध्रुव भट्ट के</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> तत्वमसि </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">का इसलिए भी उल्लेख करना चाहती हूँ क्यों उसके अनुवादक की हैसियत से इस कृति का अनुवाद करने की प्रक्रिया से गुज़रते हुए, अनुवाद कर लेने के बाद तथा पुस्तक के प्रकाशित होने के बाद के अपने अनुभवों का आकलन जब करती हूँ तो मुझे यह साफ़ दिखलाई पड़ता है कि अगर अनुवादक के रूप में मैंने पुस्तक के आरंभ में कृति के हिन्दुवादी झुकाव संबंधी मंतव्य नहीं दिए होते अथवा निर्मल वर्मा के </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">अंतिम अरण्य</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> के साथ उसकी तुलना न की होती तो संभवतः कृति को अधिक पाठक मिलते। एक अनुवादक के रूप में मेरे लिए महत्वपूर्ण यह बात थी कि अनुवाद ऐसा हो कि मूल का स्वाद दे। मुझे इस बात की प्रसन्नता भी है कि अनुवाद को पढ़ने पर स्वयं लेखक का कहना यह था कि ऐसे लगता है जैसे मैंने यह कृति हिन्दी में लिखी है। अथवा विभिन्न कार्य क्षेत्रों से जुड़े कुछ लोगों के मंतव्य को ध्यान में लूं तो उन्हें यह कभी नहीं लगा कि वे एक अनूदित कृति को पढ़ रहे हैं। पर उसकी पाठकीय स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि राजनीतिक विचारधारा का बल अनुवाद के रेलेवेंट होने में अधिक काम करता है। तब मैं अनुवाद और राजनीति तथा विचारधारा के पारस्परिक मुद्दों के संदर्भ में </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height: 150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height: 150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI">इनोसेंट</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Shruti;mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family:Shruti;mso-bidi-language:HI"> </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">थी तथा अनुवाद की गुणात्मकता के पक्ष में विचारधारा तथा राजनीति की हिंसा से भिड़ लेने की तैयारी रखती थी। तब मुझे इस बात का पूरा अंदाज़ा नहीं था कि बाज़ार भी विचारधाराओं में आ चुके हैं और विचारधाराएं बाज़ारोन्मुखी हो गयी हैं। प्रकाशन संस्थाएं साहित्य की गुणवत्ता से अधिक विचारधाराओं के बाज़ार तथा बाज़ार में खड़ी विचारधाराओं को अधिक महत्वपूर्ण मानती हैं। ख़ैर। शायद तब अनुभव के स्तर पर पहली बार अनुवाद के आईने में मैंने विचारधाराओं एवं राजनीति के चेहरे दिखाई पड़े थे।</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family: "Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">रचना की तरह ही अनुवाद भी अपनी एक सामाजिकता रखते हैं। मसलन आपने महाश्वेता को नहीं पढ़ा है तो आप साहित्यिक सामाजिकता में पिछड़े माने जा सकते हैं। हम जो अन्य भाषा-भाषी हैं, किसी भी कृति को उसके अनुवाद में ही पढ़कर जानते हैं। महाश्वेता के उपन्यास को हम उसकी विचारधारा के कारण ही अनुवाद में भी उत्तम मानते हैं। क्योंकि अनुवाद में तो कृति के सौन्दर्य पक्ष की चिंता हमें करनी ही नहीं होती, क्योंकि उसे पढ़ने की शुरुआत में ही हम जानते हैं कि अनुवाद में मूल का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाता है। अतः अनुवाद में उत्तम सर्जनात्मक / सौन्दर्यात्मक मूल्य वाली कृति का महत्व उतना नहीं है जितना प्रचलित तथा प्रतिष्ठित विचारधारा का रहता है। यह अनुवाद की राजनीति है। अपनी काव्यातमकता में तथा गुजराती साहित्य के इतिहास में राजेन्द्र शाह कितने भी बड़े कवि क्यों न हो, ज्ञानपीठ विवाद के बाद, गुजरात के बाहर अब इस बात को स्वीकार करना कि आप उन्हें महत्वपूर्ण मानते हैं, अपने आप को अस्पृश्य कर लेने के बराबर है। </span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">यहाँ अनुवाद की एक और राजनीति काम करती है, जो बड़ी सूक्ष्म किन्तु ख़तरनाक़ भी है। । अगर राजेन्द्र शाह के प्रति फैले इस तिरस्कार या घृणाभाव को हमें बढ़ाना हो तो हम उनके बदतर अनुवाद कर के उस राजनीति को पुष्ट कर सकते हैं। इतना ही नहीं, कविताओं के चुनाव से ले कर अनुवाद की गुणात्मकता तक इस राजनीति को फैलाया जा सकता है। अतः यह कहा जा सकता है कि मूल लेखन में जहाँ केवल विचारधारा ही प्रश्न के घेरे में है वहाँ अनुवाद में यह बढ़कर वर्तमान राजनीतिक सरोकारों एवं बाज़ार तक तक फैल जाती है। राजेन्द्र शाह के अनुवाद इसके उदाहरण हैं। यहाँ फिर महर्षि देरिदा को याद किया जा सकता है। आप पाठ को किस तरह पढ़ते हैं और पाठ के किस अंश को अपनी समझ का आधार बनाते हैं- सहत्वपूर्ण यह है। (सूरदास के) ऊधो की खेप (ज्ञान) को बाजार के परिप्रेक्ष्य में समझें अथवा धर्म के परिप्रेक्ष्य में- यही तय करता है उसके अनूदित होने को, उसके पाठ को। उसी तरह </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">ईदगाह</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> में बाज़ार के नकार को देखना अथवा पारिवारिक संवेदनाओं की सघन व्यापकता को ही देखना है, यह बात तय करेगी कि आप आज उसका अनुवाद करना चाहते हैं अथवा नहीं। पाठ को देखने का आपका तरीक़ा क्या है। गुजराती की पहली कहानी(</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:Symbol;mso-ascii-font-family: "Arial Unicode MS";mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-hansi-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language: HI;mso-char-type:symbol;mso-symbol-font-family:Symbol">?</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">)- शांतिदास(1900, लेखक अंबालाल साकरलाल देसाई) जिसे गुजराती कहानी के विकास में पहली केवल उल्लेख भर के लिए माना गया है, वह आज के बाज़ारवाद के विरुद्ध भी एक ज़बरदस्त टिप्पणी के रूप में पढ़ी जा सकती है। पर आज तक किसी भी गुजराती समीक्षक ने उसे इस तरह देख कर इस बात की भूमिका नहीं बनाई कि उसका गुजराती से हिन्दी में अनुवाद करने का उपक्रम हो। उत्तर गुजरात के छोटे से गाँव का एक युवक मुंबई पढ़ने जाता है और वहाँ से किस तरह विदेसी(मुंबई तब विदेश ही था, गाँव वालों के लिए) जूते लाता है और धीरे धीरे गाँव के जूते बनाने वालों का व्यवसाय संकट में पड़ता है, सामाजिक संबंध खतरे में पड़ते हैं, पर गाँव वाले मिल कर उसका प्रतिरोध करते हैं------ तब उसमें लेखक स्वदेशी की बात करना चाहते थे और आज उसमें बाज़ारवाद का पाठ भी झलकता है। पर चूंकि, वह कहानी- कला की दृष्टि से कमज़ोर है अतः उसको आरंभिक कहानी का नमूना मान कर भुला दिया गया है। स्वयं लेखक उसे </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif"; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">लेख</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> कहता है। खैर । कहने का मतलब यह है कि गुजरात की अपनी विचारधाराओं के कारण एक अच्छी रचना अभी बंद पड़ी हुई है। सवाल यह है कि हम अपनी पहचान किस तरह स्थापित करना चाहते हैं। यह एक राज्य की अपनी राजनीति का एक हिस्सा है। अथवा तो किस की राजनैतिक पहचान स्थापित करने का उपक्रम किया जाना है , यह भी तो इस राजनीति का हिस्सा हो सकता है ! यहाँ यह उल्लेख काम का हो सकता है कि —गांधीजी भारतीय राजनीति में 1900 में नहीं थे। स्वदेशी की संकल्पना गांधीजी के पहले इतने प्रभावक रूप से प्रकट हो चुकी थी, यह तथ्य गांधीजी द्वारा स्वदेशी आंदोलन की बात को क्या कमजोर करती है ? क्या यह अनुवाद की गांधीवादी राजनीति का एक हिस्सा है ?</span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">अनुवाद की राजनीति , सत्ता की राजनीति है। अनुवाद को </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Shruti;mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS"; mso-hansi-font-family:Shruti;mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI">नॉलेज इटसेल्फ</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Shruti; mso-fareast-font-family:"Arial Unicode MS";mso-hansi-font-family:Shruti; mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height: 150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language:HI"> कहना भी एक तरह की राजनीति है, जिसे राजनीतिक सत्ता अपनी तरह से इस्तेमाल करना चाहती है। फिर अनुवाद को राजनीति अपने मतलब के लिए साहित्य की तुलना में अधिक बेहतरी से इसलिए इस्तेमाल कर सकती है क्योंकि अनुवाद को वह अब भी इस्तेमाल करने की चीज़ मानती है। क्योंकि अनुवाद </span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> अनाथ</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Shruti","sans-serif";mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";mso-bidi-language:HI">'</span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> है- अगर उसे हम लेखन का उत्तर-जीवन मान लें। वह केन्द्र में नहीं है, परिधि पर है। उसे जब चाहे केन्द्र से परिधि और पुनः केन्द्र में लाया जा सकता है। फिर अनुवाद का वैसा कोई रचनात्मक कॉपीराईट नहीं है- कि एक कृति के लिए एक अनुवाद। एक ही कृति के कई अनुवाद होते रहे हैं और होते रहेंगे। पौधा एक है पर उस पर अनेक फूल लग सकते हैं। कौन-से पाठ अनूदित होंगे, किन अनुवादों को सम्मानित स्वीकृति मिलेगी किन को कभी नहीं, यह सत्ता की राजनीति तथा विचारधारा ने अपना विशेषाधिकार मान लिया है। <o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> अपनी स्वतंत्र इयत्ता के साथ खड़े अनुवाद को देरिदा तक आते आते अगर स्पेस मिला है तो उसे इस स्पेस में जीवित रहने के लिए रचना से अधिक संघर्ष करना होगा इसमें कोई संदेह नहीं। </span><span style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif";mso-bidi-language: HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span ><b><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> </span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-left: 5in; line-height: 150%; "><span ><b><br /></b></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-left: 5in; text-indent: 0.15pt; line-height: 150%; "><span ><b><br /></b></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-left: 5in; text-indent: 0.15pt; line-height: 150%; "><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><span ><b><br /></b></span></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-left: 5in; text-indent: 0.15pt; line-height: 150%; "><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><span ><b><br /></b></span></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-left: 5in; text-indent: 0.15pt; line-height: 150%; "><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><span ><b><br /></b></span></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-left: 5in; text-indent: 0.15pt; line-height: 150%; "><span><br /></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-left: 0.2in; text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><o:p><span> </span></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;margin-left: 0.2in; text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"> </span><span style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><o:p></o:p></span></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;text-indent: 0.2in; line-height: 150%; "><span lang="HI" style="font-size:12.0pt;line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif"; mso-bidi-language:HI"><o:p><span> </span></o:p></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;line-height: 150%; "><span style="font-size:12.0pt; line-height:150%;font-family:"Arial Unicode MS","sans-serif""><o:p><span> </span></o:p></span></p>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-88478723849305319672011-11-08T23:04:00.000-08:002011-11-08T23:11:37.801-08:00समय की नब्ज़ पर नासिरा शर्मा<div align="justify"><br /><strong><span style="color:#ffcc33;"><span style="font-size:130%;">साहित्य पर बात करना हमेशा ही एक ज़िम्मेदारी भरा काम होता है। आज जो छप रहा है उसमें हमारी रुचि का साहित्य कौन-सा है, इसे हर पाठक तय कर लेता है। हो सकता है, जो आज लोकप्रिय एवं चर्चित नहीं है, वह हमारी रुचि हो। वैसे लोकप्रियता अथवा चर्चित होना, कोई एकमात्र मापदंड नहीं है किसी भी साहित्य को परखने का। लेकिन हमें जिस प्रकार का साहित्य अच्छा लगता है, उसके अपने आधार भी होते ही हैं। आज कथा-साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। अच्छा और बहुत अच्छा से लेकर सामान्य तक। इसमें मुझे हमेशा ही नासिरा शर्मा का साहित्य बड़ा आकर्षित करता रहा है। नासिरा शर्मा के अलावा मुझे और भी अनेक रचनाकार अच्छे लगते हैं। परन्तु आज इस आलेख में नासिरा शर्मा के साहित्य पर चर्चा करने का उपक्रम है।<br />इस दौर में जब साहित्य, कला,विचार और भावनाएं सभी बाज़ार की चीज़ें बन गई हैं, ऐसे में इस बात की पहचान करना ही बहुत कठिन हो गया है कि जितना सब प्रकाशित हो रहा है उसमें सच्चा साहित्य कौन-सा है। किसे हम सच्चा साहित्य कहें। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि क्या आज सच्चे साहित्य जैसी कोई अवधारणा रखी जा सकती है ? जब मनोरंजन और बाज़ार- आज के युगबोध का वह केन्द्रीय आधार बन गया है जिसके अन्तर्गत नारी, दलित, संस्कृति, धर्म तथा राजनीति और पर्यावरण जैसे विषय-क्षेत्रों का समावेश किया जा सकता है ; इतना ही नहीं विचारधाराएं, संवेदनाएं तथा बौद्धिकता भी इसकी गिरफ्त में आने से अपने आप को बचाने में कई बार विवश अनुभव करती दिखाई पड़ रही हैं। जो चीज़ें हमारी शर्म और चिन्ता का विषय होनी चाहिए उन्हें हमने मनोरंजन बना लिया है। मानवता को शर्मसार करने वाली सभी बातों को हमने भौंडे संगीत और चमकदार पन्नियों में पैक करके बाज़र में रख दिया है और उसे खरीदते हुए हम गौरवान्वित अनुभव करते हैं; गौरव इस बात का है कि इस तेज़ गति बाजार के रोलर-कोस्टर में अब हम ख़रीददार की हैसियत तो पा ही गए हैं। ऐसे में वह साहित्य जो हमें मनुष्यता की ज़मीन से जुड़े रहने का बल देता है, क्रमशः कम होता जा रहा है। सच-झूठ की इस ज़द्दोज़ेहद भरी परिस्थिति में नासिरा शर्मा की रचनाशीलता हमारे लिए बड़ी अहम् हो जाती है।<br />नासिरा शर्मा का साहित्य उपन्यास और कहानी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उन्होंने हमारे समय के उन ज्वलन्त मुद्दों पर चिन्तन किया है जिससे हमारी सामाजिक संरचना, हमारी लोकतांत्रित सत्ता और हमारी संस्कृति प्रभावित रही है। औरत के लिए औरत तथा राष्ट्र और मुसलमान इसी तरह की उनकी दो पुस्तकें हैं। इधर स्त्री आत्मकथाओं की विपुल चर्चा हमारे यहाँ हो रही है , ऐसे में नासिरा शर्मा का लंबा लेख -जायज़ा तीसरी आँख से सरहद के आर पार का की उपस्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण साबित होती है। इस आत्मकथनात्मक लेखन में एक मुस्लमान बौद्धिक स्त्री के हिन्दु परिवार में विवाह होने के जो अनुभव हैं, वे अपनी अभिव्यक्ति के लिए ईमानदारी और साहस की अपेक्षा रखते हैं, जो नासिरा शर्मा के लेखन में सर्वत्र दिखाई पड़ता है। यह हमारा आज के यथार्थ का कलात्मक एवं वास्तविक अंकन है जो आए दिन अख़बारों के समाचार बनता है (हालांकि गलत कारणों से)। पर यह हमारी आज की ज्वलंत समस्या तो है ही। नासिरा शर्मा का यह विस्तृत आलेख बड़ा ही सकारात्मक है। असल में आज सकरात्मक लेखन की भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी सनसनीखेज़ लेखन की मानी जाती रही है। नासिरा शर्मा का लेखन इस बात की ओर हमारा ध्यान दिलाता है कि हमारा समाज आज़ादी के बाद क्रमशः संकीर्ण होता चला गया है।<br />इस लेख में एक स्थान पर वे लिखती हैं कि शाल्मली में जो सास का चरित्र आलेखित हुआ है, उसके मूल में उनकी अपनी सास का चरित्र ही है। शाल्मली उपन्यास में नासिरा शर्मा शाल्मली की सास के बहाने उस मुद्दे से भिड़ती हैं जो कि अक्सर नारी संबंधी चर्चाओं में उठता है कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है। नासिरा शर्मा के समग्र लेखन में से उभरता यह एक सकारात्मक नज़रिया उनके लेखन की विशेषता है। नासिरा शर्मा ने इराक़, अफ़ग़ानिस्तान तथा ईरान पर भी जो अध्ययन ग्रंथ लिखे हैं, वे उनके उस मिजाज़ और चिन्ताओं को प्रकट करते हैं जो हमारे समय के अन्तर्राष्ट्रीय बोध का एक अहम् अंश है। असल में नासिरा शर्मा हमारे समय के दर्दनाक़ मुद्दों की जड़ों और उनमें समाप्त होते मानव अधिकारों का अपनी रचनाओं के द्वारा अत्यन्त मार्मिक चित्रण करती हैं। औरत के लिए औरत पुस्तक एक तरह से शाल्मली तथा ठीकरे की मंगनी के सह पाठ के रूप में पढ़ी जा सकती है, उसी तरह ज़िन्दा मुहावरे तथा अक्षयवट- ये दोनों पुस्तकें राष्ट्र और मुसलमान का सहपाठ बनती हैं। सात नदियाँ एक समंदर, तथा इब्ने मरियम (कहानी संग्रह) के कुछ अंश उनके ईरान संबंधी अध्ययन लेखों का सहपाठ बन जाते हैं। संगसार, पत्थर गली आदि कहानी संग्रह मानव अधिकारों के प्रश्नों को बड़ी शिद्दत से उठाते हैं। मानव अधिकारों के प्रश्नों को सीधे-सीधे उठाने वाले साहित्य में नासिरा शर्मा की भूमिका अग्रणी मानी जा सकती है। आज के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृश्यपटल पर मानव अधिकारों का मुद्दा सिर चढ़कर बोलता है। नासिरा शर्मा का अपने साहित्य में इस तरह के मुद्दों का पूरी गंभीरता से उठाना उनके निजि लेखकीय दृष्टिकोण का आलेखन करता है। वे एक तरह से प्रतिबद्धता के साथ लिख रही हैं। एक लेखक अपने आस-पास के समाज में फैली इन समस्याओं तथा मर्यादाओं को सिवा अपने लेखन के जरिए, और किस तरह प्रकट कर सकता है?! लेखक जो कुछ भी ग्रहण करता है अपने समाज से, अतः उसे केवल अगर कुछ लौटाना है तो समाज को ही- अलबत् बेहतर स्वरूप में।<br />नासिरा शर्मा के उपन्यास स्त्री, आज़ादी, विभाजन, भारतीय संस्कृति तथा पानी जैसे मुद्दों पर केन्द्रित हैं। सात नदियां एक समंदर ईरान के उस संघर्ष पर केन्द्रित है जिसमें आज़ादी को बचा लेने की ज़द्दोज़ेहद में वहाँ के बौद्धिकों को जिन तकलीफों का सामना करना पड़ा था, उसका विवरण है। आज़ादी के लिए दुर्निनिवार कष्ट सहन करती स्त्रियों को लेखिका ने जिस तरह प्रस्तुत किया है, उससे एक बात स्पष्ट होती है कि स्त्रियों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वही उनकी सामाजिक स्वतंत्रता का आधार बन सकती है। इस उपन्यास में कथा उस प्रदेश(देश) से संबंद्ध है जहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता के खतरे में पड़ने की अधिक संभवना बनी रहती है। इसे हम नारीवाद के आरंभिक मुद्दे से जोड़ सकते हैं जिसमें मताधिकार की बात केन्द्र में थी।<br />ठीकरे की मंगनी स्त्री के अपने स्पेस की बात करता उपन्यास है। स्त्री का अपना एक वजूद होता है और महरूख, जो कि उपन्यास की नायिका है, अपने निर्णय खुद लेती है। वह न अपने मंगेतर के पास जाती है और न ही अपने पिता के पास लौटती है, बल्कि नौकरी कर के अपनी आजीविका स्वयं कमाती है। महरुख के चरित्र को लेखिका ने जिस तरह विकसित किया है और उसका जो अंत भी किया है—उसे पढ़ कर यह कहा जा सकता है कि वह एक सुलझी हुई भारतीय सोच की लेखिका हैं। पश्चिम में अपने स्पेस के लिए संघर्ष करती स्त्री को अगर वर्जिनीया वुल्फ़ के अ रूम फॉर वन्स ओन के द्वारा पहचाना जाता है तो भारतीय संदर्भ में स्त्री किस तरह अपने स्पेस का निर्माण करती है, उसका उदाहरण ठीकरे की मँगनी की महरुख़ है। भारतीय मानस में जब अपनी ज़मीन, अपने स्थान के लिए स्त्री कोई निर्णय लेती है, तो निश्चय ही वह अपने परिवेश के अनुकूल ही होगा- देखा-देखी में किया गया नहीं- यह बात नासिरा शर्मा अपने उपन्यासों में लगातार रखती चलती हैं। जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया उनके उपन्यासों की विशेषता है। शायद पश्चिम की तुलना में भारतीय मानसिकता भी अधिक सकारात्मक है, ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा ।<br />दाम्पत्य जीवन में अनबन को लेकर कई उपन्यास हिन्दी में लिखे गए हैं । नासिरा शर्मा का शाल्मली इसी श्रेणी में आता है। पर शाल्मली अपनी वैचारिकता में इस विषय के सर्व सामान्य उपन्यासों से भिन्न है। उपन्यास की नायिका ऊँचे पद पर कार्यरत एक अफ़सर है जिसका विवाह उसके अफ़सर होने के पूर्व नरेश से हुआ था, जो उस समय एक क्लर्क था। शाल्मली अफ़सरी की परीक्षा पास करने के बाद लगातार तरक़्क़ी करती चली गई और नरेश जहाँ का तहाँ रह जाता है। यह अलग बात है कि शाल्मली को अफ़सर बनाने में नरेश की भी भूमिका रही थी। परन्तु बाद में नरेश हीनता ग्रंथी से पीड़ित हो जाता है। और उनके दाम्पत्य में एक प्रकार की दूरी आ जाती है। दांपत्य जीवन में आयी दूरी के बावजूद एक पढ़ी-लिखी, अफ़सर औरत, अगर तलाक़ नहीं लेती तो इसका कारण यह नहीं कि वह दब्बू है या कमज़ोर है, पर यह उसका अपना एक समझदारी भरा निर्णय, उसका अपना चुनाव भी हो सकता है। और यह चुनाव इस तर्क पर आधारित है कि अन्यत्र जुड़ जाने के बाद समस्या हल हो ही जाएगी यह ज़रूरी नहीं। फिर शाल्मली को नरेश से घृणा भी नहीं है, वह अपने दिल के किसी कोने में उसके लिए प्रेम भी अनुभव करती है। शाल्मली एक मैच्यौर स्त्री की तरह हमारे सामने आती है। हिन्दी की कई औपन्यासिक कृतियों में दाम्पत्य जीवन की समस्याओं में तलाक़ का मुद्दा आया है। तलाक़ एक तरह से आधुनिकता का प्रतीक बन गया है, अतः कई पाठकों को शाल्मली का यह निर्णय कि तलाक़ नहीं लेना है -बहुत पिछड़ा और दक़ियानूसी लगता है। लेकिन हमारे अपने समय में यह बात भी अब अनुभव का हिस्सा बनती जा रही है कि तलाक़ ले लेने से न तो हमेशा ही लाभ होता है और न ही यह दाम्पत्य जीवन में आयी विसंगतता को दूर करने का कोई कारगर तरीक़ा साबित हुआ है।<br />नासिरा शर्मा का अक्षयवट हिन्दु-मुस्लिम समस्या को जड़ों में जाकर पड़तालता एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह हमारी अपनी साझा संस्कृति का एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना जाता है। नासिरा शर्मा अक्षयवट के प्रतीक द्वारा एक सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ती हैं। नासिरा शर्मा का दायरा तंत्र के भ्रष्टाचार और उसमें रही भेद नीति तक फैला हुआ है। वह यथार्थ को उसकी व्यापकता में देखता है। सवाल हिन्दू-मुसलमान का ही नहीं है, पर सवाल उस भ्रष्ट-तंत्र का है जो मनुष्य को और क़ौमों को भेद की दिशा में जाने को बाध्य करता है।<br />यहाँ हमें मंज़ूर ऐहतेशाम के उपन्यास सूखा बरगद का सहज ही स्मरण हो आता है। इस उपन्यास में सघन भावुकता है। यह मूलतः धर्म निरपेक्षता के तथा मार्क्सवादी वैचारिक छलावे के परिणामों की ओर इशारा करता है। लेकिन इसका पट अलग है। भावुकता हमेशा ही जकड़ती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह सूखा बरगद हमें जकड़ता है, वैसे अक्षयवट नहीं। परन्तु साथ ही यह कहना ही होगा कि अक्षयवट हमें सोचने के लिए मज़बूर करता है। इसमें दो क़ौमों को केवल क़ौम की तरह न देख कर एक ही तंत्र में पिसते नागरिकों की तरह देखा गया है। यह सोच हमें अपनी लोकतांत्रिक प्रणाली में पैठ गयी मूलभूत कमज़ोरी तक ले जाने का काम करती है। अक्षयवट का शीर्षक लेखिका के उस नज़रिए को स्पष्ट करता है जो उनके प्रायः सकारात्मक पक्ष को उभारता है।<br />यह एक अजब बात है कि अपनी संरचना में सूखा बरगद में स्त्री सहज भावुकता है जबकि अक्षयवट में एक तटस्थ, कठोर-सी चिंतनात्मकता है जो निश्चय ही स्त्री-सहज नहीं मानी जा सकती। यह अन्तर रचनाकार की मानसिकता का भी है और शायद उस देश( स्पेस) का भी जिस पर उपन्यास की कथा खड़ी है। एक कथा भोपाल की ज़मीन पर घटती है और एक इलाहाबाद में। अक्षयवट का बाहरी विस्तार बड़ा है तो सूखा बरगद भीतर की गहराइयों में उतरता हुआ दिखता है। पर हमारे आज के इस संदर्भ के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ के रूप में इन उपन्यासों को गिनना चाहिए।<br />इधर उनका जो उपन्यास चर्चित रहा है उसमें इस दौर की सबसे अहम् समस्या पर उनकी नज़र गयी है। नारी, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार आदि से अधिक महत्वपूर्ण और पहले जो समस्या आने वाली है, जिस पर हमारा वजूद टिका है- हमारा - यानी स्त्री, पुरुष, हिन्दू ,मुस्लमान , अमीर ग़रीब, अनपढ़ विद्वान- वह है पानी की समस्या। कुँइयाजान में जिस पानी की समस्या को उठाया है, उसका संबंध केवल भारत से नहीं है अपितु वह एक वैश्विक समस्या है।<br />कुँइयाजान की बात करने से पूर्व नासिरा शर्मा के उपन्यासों के एक महत्वपूर्ण पक्ष की बात करना ज़रूरी है। वह पक्ष उनकी भाषा से जुड़ा है। नासिरा शर्मा की औपन्यासिक भाषा में जो आत्मविशवास झलकता है, वह सबसे पहले पाठक को आकर्षित करता है। उपन्यासों में कथा की जटिल बुनावट का प्रबंधन करना सरल नहीं होता। विचार और वर्णन – दोनों के स्वाद के साथ संवेदनशीलता को बनाए रखना, बहुत कठिन होता है। अपने लगभग पिछले उपन्यासों में नासिराजी ने कथा-वर्णन को प्रधानता दी है। हाँ, अक्षयवट में इस नयी बुनावट की शुरुआत दिखाई पड़ती है। ऐसे लगता है कि लेखिका को अब उपन्यास के शिल्प की अपेक्षा उस समस्या में रुचि है जो उपन्यास रचना से अधिक गंभीर है। यों भी इस उत्तर-आधुनिक समय में परम्परागत शिल्प के ढाँचों का कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया है।<br />उपन्यास में कथ्य यों ही नहीं आता । वह हमारे अपने वर्तमान जीवन से संबद्ध होता है। एक अजब इंटर-डिसीप्लीनरी जीवन हो गया है आज हमारा । इस आज के हमारे समय में एक दूसरे के क्षेत्र में इंटरसेप्ट करता हुआ यथार्थ दिखाई पड़ता है जो अब उपन्यास के शिल्प का भी हिस्सा बन गया है। यह अत्तर अधुनिक समय की अंतरपाठीयता के उदाहरण हैं। कुँइयाजान में इस तरह की अंतरपाठीयता में इंटरसेप्शन मीडिया और सेमीनार प्रोसीडिंग्स का है। सवाल यह उठता है कि इस तरह के प्रयोग या रचना विधान उपन्यास में किस हद तक उपयोगी और कारगर साबित होता है। अख़बार की कतरनें और जल समस्या पर हुए एक सेमीनार के प्रोसीडिंग्स हमारे इस समय की उस सचाई को भी प्रस्तुत करती हैं कि मानव – अस्तित्व के इन अहम् मुद्दों पर आज चर्चा जितनी हो रही है, संभवतः काम उतना नहीं हो रहा। इस एक ध्वन्यार्थ के उपरान्त यह उपन्यास के भावुक क्षणों को संतुलित करने का काम भी करता है।<br />उपन्यास में कई कथाएं, उप-कथाएं और प्रसंग हैं। और है एक गाथा – जल की, जीवन की- जिसे लेखिका हमारे सामने रखना चाहती हैं। शकरआरा और ख़ुर्शीदआरा की कथा , समीना और कमाल की कथा, राबिया और मख़फ़ूरुल रहमान( मग्गा) की कथा बदलू और बुआ का कथा-प्रसंग, रमेश-रत्ना-शमीमा का प्रसंग, पन्नालाल सुनार का प्रसंग..... अनेक कथा-गुच्छों से भरे इस उपन्यास का नायक तो पानी ही है। सावन के झूलों से लेकर कुँइयों के पानी को जान मानते ये सभी चरित्र अपने जीवन के सुख-दुखों में पानी की महत्ता को महसूस करते हैं। मौत हो या जन्म ... पानी के बिना कुछ भी संभव नहीं है।<br />कुँइयाजान में वर्णित जल समस्या और पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधो में आए आर्द्रता के संकट की हक़ीकत को जिस तरह लेखिका ने अपने कथा-विन्यास में गूँथा है, उससे यह पता चलता है कि लेखिका के लिए मनुष्य की भावना और संबंध का वही स्थान है जो स्थान पानी का मनुष्य के जीवन के होने के लिए ज़रूरी माना जाता है। पहले पाठ में ऐसा लगता है कि कथा में थोड़ी जटिलता आ गई है, अतः थोड़ी उलझन-सी होने की संभावना है। इस अर्थ में कि दोनों मुख्य कथाएं बन जाती हैं। उप-कथा नहीं बनती । ऐसा नहीं लगता कि कमाल-समीना अथवा शकरआरा और ख़ुर्शीदआरा की कथा कम महत्वपूर्ण है। अतः एकबारगी यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि लेखिका संबंधों के सूखेपन को धरती के सूखेपन से जोड़ रही हैं या इसके विपरीत। परन्तु संभवतः इन दोनों को ही लेखिका उभारना चाहती हैं। नासिरा शर्मा के संदर्भ में यह कहना इसलिए ज़रूरी हो जाता है क्यों कि नासिरा शर्मा की औपन्यासिक कला बहुत सीधी रही है। वे कथ्य के सीधे संप्रेषण में ही कला की सार्थकता मानती हैं। संभवतः इसीलिए मुझे नासिरा शर्मा का कथा –साहित्य अधिक रुचता है। फिर वे जिन समस्याओं को उठाती हैं, उनके प्रति वे केवल उत्सवी-भाव से जुड़ी नहीं होती। अतः समस्याओं की जड़ तक ही नहीं जातीं बल्कि उनके विषय में, अपना एक दृढ मत भी रखती हैं। उनके मत से असहमत हुआ जा सकता है , परन्तु अपने मत को रखने के उनके आधार और तरीक़े इतने नायाब और ठोस होते हैं कि उनकी बातों को नज़रंदाज़ तो नहीं ही किया जा सकता है।<br />कुँइयाजान में लेखिका ने सपनों का ज़बरदस्त उपयोग किया है। भारतीय विश्वास यह है कि स्वप्न आने वाली घटना का संकेत देते हैं और वैज्ञानिक दृष्टि यह है कि स्वप्न हमारे मन के अपराध-बोध को प्रकट करते हैं। शकरआरा का स्वप्न इसी प्रकार का है और समीना तथा ख़ुर्शीदआरा का स्वप्न आने वाली घटना के विषय में है। लेखिका ने पात्रों के स्वभाव के अनुसार स्वप्नों का उपयोग किया है। शकरआरा के प्रति पाठकों की तथा अन्य पात्रों की सहानुभूति जग सके इस हेतु लेखिका ने स्वप्न के डिवाइस का अच्छा उपयोग किया है। शकरआरा के चरित्र को बदला तो नहीं जा सकता था, परन्तु स्वप्न के माध्यम से जिस तरह लेखिका ने उसके अपराध-भाव को हमारे सामने रखा है, एक क्षण भर में ही, हमारे मन में उसके प्रति सहानुभूति जाग उठती है।<br />अपनी औपन्यासिक यात्रा में नासिरा शर्मा क्रमशः जीवन-सत्यों के निकट आती हुई लगती हैं। कुँइयाजान में एक और बात रेखांकित करने वाली है – अपने उपन्यासों में नासिरा ने स्त्री पात्रों के परस्पर के संबंधों को बड़ी ज़िम्मेदारी से निभाया है। शायद इस तरह और किसी के उपन्यासों में हमें देखने को नहीं मिलता। केवन शाल्मली का अपनी सास से ही अच्छा संबंध नहीं है, क्योंकि शाल्मली पढ़ी लिखी थी और उसकी सास अत्यन्त संवेदनशील थी। पर राबिया, जो एक ग़रीब घर की लड़की थी, उसका संबंध अपनी कर्कशा सास से जिस तरह का लेखिका ने चित्रित किया है, हमें हैरत में डालता है। राबिया का व्यवहार अपनी इस कर्कशा सास के प्रति देख कर लगता है कि यह किसी दूसरी दुनिया की बात है। उसी तरह शमीमा और अनवरी का संबंध भी सास-बहू का ही है। उसी तरह शकरआरा के अखरने वाले व्यवहार को देख कर भी उसकी बहन ख़ुर्शीदआरा के उसके प्रति व्यवहार का जो रूप पाठकों के समक्ष लेखिका ने उभारा है, ऐसा लगता है कि परिवार-विमर्श की शुरुआत लेखिका ने की है। घर है , संबंध हैं तो हद दर्ज़े की कडुआहट आने पर भी रिश्तों को बनाए रखना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। अक्षयवट के बाद इस उपन्यास में लेखिका ने बहुत साफ़-साफ़ भारतीय पारिवारिक संस्कृति और संबंधों की महिमा को ऐसे उपन्यास में उजागर किया है, जिसमें किसी तरह की सांस्कृतिक विचारधारा या राजनीति का प्रभाव दिखायी नहीं पड़ता । ख़ुर्शीदआरा और शकरआरा के माध्यम से लेखिका ने बहनापे का एक विमर्श भी रखा है। नारी-विमर्श में इधर सिस्टर-हुड(बहनापे) की जो संकल्पना उभर कर आयी है , उसे लेखिका ने अपने अन्य उपन्यासों के माध्यम से तो प्रकट किया ही है, पर इस उपन्यास में उसका खिला और खुला एवं निखरा रूप दिखायी पड़ता है। समीना ख़ुर्शीदआरा की बेटी है और शकरआरा की बहू। शकरआरा का अपनी बहन ख़ुर्शीदआरा के प्रति भाव जानते हुए भी उसके मन में अपनी सास के प्रति कोई दुर्भाव नहीं है। यह जो समझदारी इन स्त्री चरित्रों में लेखिका ने डाली है , एक ऐसा दृष्टिकोण रखा है जो समाज में प्रचलित और चित्रित किए जाने वाले दृष्टिकोण पर सिरे से प्रश्न-चिह्न तो लगाता ही है, साथ ही वह पुरुष समाज की स्त्री के प्रति गढ़ी हुई परंपरागत मान्यता को ठेंगा भी दिखाती है।<br />इस उपन्यास में नासिरा शर्मा ने स्त्री का गौरव केवल उपन्यास में चित्रित स्त्री चरित्रों के द्वारा ही व्यक्त नहीं किया है, परन्तु जो जल की कथा इसका मुख्य नैरेटिव्ह है, उसमें भी इसको गूंथा है। " कुआं पुलिंग है, कुईं स्त्रीलिंग। कुईं केवल अपने व्यास में छोटी होती है, गहराई में नहीं। कुईं एक अर्थ में कुएं से बिल्कुल अलग है। कुआं भूजल तक पहुँचने या पाने के लिए बनता है, पर कुईं भूजल से ठीक वैसे नहीं जुड़ती जैसे कुआं, बल्कि कुईं वर्षा के जल को बड़े विचित्र ढंग से समेटती और सँजोती है। तब भी जब वर्षा नहीं होती। यानी कुईं में न तो सतह पर बहने वाला पानी है, न भूजल है। यह तो नेति-नेति जैसा कुछ पेचीदा मामला है।"(पृ-314) लेखिका ने इसमें पानी से निर्मित राजस्थान की सामाजिकता, यहाँ की मान्यताएं, पानी का शास्त्र, कुईं बनाने की विधि, इसके पौराणिक संदर्भ, पानी से होने वाले रोग, लोगों की बेहाली का जो चित्र खींचा है वह यथार्थ का ऐसा चिट्ठा है जिसका न तो इन्कार किया जा सकता है और नही उससे मुँह चुराया जा सकता है। लेखिका ने डॉ कमाल को पानी की समस्या के प्रति जिस शिद्दत से जोड़ा है वह इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि कमाल तो एक ऐसे शहर का बाशिंदा है जहाँ गंगा बहती है। पर अब वहाँ भी पानी का संकट तो है ही। जब तक बेहतर स्थिति वाले, संकटमय स्थिति की पहचान नहीं कर पाएंगे, तब तक हमारी समस्याओं का अंत नहीं हो सकता । फिर अपनी तरक्की के लिए यह सब करना उसके लिए क़तई आवश्यक नहीं था। पर जब तक हैव्स (जिनके पास है) हैव नॉट्स( जिनके पास नहीं है) के लिए काम नहीं करेंगे तब तक इस देश की तरक्की संभव नहीं है।<br />कुँइयाजान में एक तरफ़ पानी का खरा सच और दूसरी तरफ़ संबंधों का सच है। उपन्यास के अंत में जब समीना भी मर जाती है, अपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म देने के बाद, तो डॉ. कमाल दुखी तो होते हैं पर निराश और हताश नहीं। क्योंकि उन्होंने जीवन के उस सत्य को पा लिया था, तमाम रुकावटों के बाद , बरसों बीत जाने के बाद भी अगर नदियाँ अपना रास्ता नहीं भूलतीं , फिर लौट आती हैं, तो मनुष्य को निराश होने का कोई कारण नहीं है। डॉ. कमाल भी अपने पुराने रास्ते- समाज के लिए कुछ करना- पर लौट जाता है। उपन्यास का अंत इस सकारात्मक बिंदु पर होता है।<br />इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका नासिरा शर्मा ने स्त्री की जो गाथा लिखी है वह इसलिए भी विलक्षण है कि चाहे जल के रूप में कुँइया या मनुष्य के रूप मे स्त्री- वही इस समाज को जीवित रखने का मूल भूत आधार है। जब कुछ नहीं होता तब भी स्त्री तो होती ही है- अपने आप को समाप्त कर के भी समाज को जीवित रखने की ज़द्दोज़ेहद करती हुई...। शायद इसीलिए स्त्री-संबंधों के सकारात्मक पक्ष को भी लेखिका ने बड़े एहतियात से उभारा है।<br />नासिरा शर्मा अपनी पूरी लेखकीय ईमानदारी से हमारे समय के उस पक्ष को अपने उपन्यासों तथा अन्य लेखों का विषय बना रही हैं जिनका मूल्य आने वाले समय में आँका जाएगा, अगर इस समय की समीक्षा उसे नहीं देख पा रही है तो। किसी भी लेखक के पास आखिर क्या होना चाहिए- भाषा, दृष्टि, बोध, संवेदनाएं...यह सब कुछ नासिरा शर्मा के पास है। उत्तर आधुनिक दौर में परम्परागत स्वरूपों के विखंडन में रचा कुइयाँजान का कलेवर कहीं न कहीं हमारे विखंडित होते समाज का भी चित्र है, जिसे लेखिका अपने अर्जित सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वासों के आधार पर संभवतः बचा लेना चाहती है।<br />हमारे समय में इतने अधिक नैरैटिव्हज़् लिखे जा रहे हैं कि प्रायः समीक्षक की तो यही इच्छा होती है कि किसी भी तरह का लेखन या तो इस पक्ष में हो या उस पक्ष में, लेकिन एक ईमानदार लेखन हमेशा ही मनुष्य के पक्ष में होना चाहिए। मनुष्य के पक्ष में लिखा जाता साहित्य इस बात की माँग करता है कि रचनाकार सक्षम हो और अपने समय में अपने ही दृढ पाँवों पर खड़ा रह सकने की उसकी क्षमता हो। विचारधारा की बैसाखियों की अपेक्षा अपनी वैचारिकता पर उसे अधिक विश्वास हो, जो अपने समय की नब्ज़ को पहचानता हो। निश्चय ही इस रूप में नासिरा शर्मा एक सफल लेखिका हैं।<br /><br /><br /></span></span></strong></div>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-38381111775732855062011-10-21T08:21:00.001-07:002011-10-21T08:27:53.058-07:00आग के आईने में माटीगंधी कविता के असमाप्त बिरवे<DIV align=justify><STRONG>2011 का वर्ष आया और अब समाप्त भी हो जाएगा। पूरे वर्ष देश-भर में शताब्दी समारोहों के आयोजन होते रहे और दिसंबर अंत तक कुछ और स्थानों पर भी होंगे। लेकिन इस शताब्दी वर्ष में जो दबी-खुली शिकायत प्रायः लोगों की रही वह यह भी कि चारों पर एक साथ कां ही जगहों पर आयोजन हुए। या तो चारों पर अलग-अलग या कभी दो, कभी तीन। या कभी केवल एक। इस अर्थ में हैद्राबाद विश्वविद्यालय को बधायी देनी चाहिए कि उन्होंने चारों कवियों पर एक साथ चर्चा करना मुनासिब समझा। अगर केवल हिन्दी की ही बात करें तब भी 2011 केवल शमशेर, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल तथा नागार्जुन का ही शताब्दी वर्ष नहीं है परन्तु यह गोपालसिंह नेपाली तथा उपेन्द्रनाथ अश्क का भी शताब्दी वर्ष है। इस वर्ष कितनी ही पत्रिकाओं ने, लगभग सारी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने, शताब्दी कवियों पर अंक निकाले जिनमें से कुछ में नेपाली और अश्क का भी समावेश किया गया है। 1911 से 2011.... यह 1911 इतना महत्वपूर्ण क्यों है। इस की इस विशेषता पर बहुत पहले प्रभाकर माचवे ने लोकप्रिय सीरीज़ में नागार्जुन पर कविताएं संपादित करते समय इशारा किया था। लेकिन वह 1977 की बात है और इन कवियों की शताब्दी आने में तब बहुत समय शेष था । संभवतः 2011 के पूर्व इस प्रश्न पर हमने गंभीरता से विचार ही नहीं किया कि 1911 का इतना महत्व होगा। क्योंकि यह बात हमें पता है कि 2000 के बाद हर वर्ष किसी न किसी रचनाकार की जन्मजयंति आने ही वाली है।<br />लेकिन भारतीय साहित्य के अध्येता के रूप में 2011 के आते ही धीरे धीरे क्रमशः हमारे सामने यह संयोग और आश्चर्य खुलता गया कि यह फैज़ अहमद फैज़ तथा मजाज़ का भी शताब्दी वर्ष है। यह तेलगु कवि श्री श्री का भी शताब्दी वर्ष है । यह गुजराती कवि उमाशंकर जोशी, श्रीधराणी तथा प्रह्लाद पारेख का भी शताब्दी वर्ष है। भारतीय साहित्य में ऐसे और भी कई नाम होंगे जिनका मुझे पता नहीं है, उनके नाम हम इस सूची में जोड़े जा सकते हैं। ऐसे इस समय आज जब हम, अपनी भाषा के केवल इन चार कवियों को याद कर रहे हैं तो असल में, हम अपने काव्यात्मक चुनाव तथा अपनी मर्यादा में रहते हुए उस वर्ष 1911 के इस चमत्कारिक संयोग पर ही सोच रहे हैं।<br />भारतीय लोकजागरण और भारतीय नवजागरण के बीच हमने एक लंबी नींद का आनंद उठाया। जागे तो देखा कि हमारी स्वतंत्रता बाधित हुई है। और इसे प्राप्त करने का संकल्प भी हमारे मन में बन चुका था। 1911 की प्रसिद्ध चीनी क्रांति के मार्गदर्शक सुन-यात्स-सुन की प्रेरणा से एम.एन रॉय, रासबिहारी वोज़ तथा लाला लाजपतराय जैसे भारतीय स्वतंत्रता के राष्टवादी नेताओं को साम्राज्यवादी ताक़त का सामना करने की तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने की प्रेरणा मिली। इसी चीनी क्रांति द्वारा 267 वर्ष पुराने साम्राज्यवादी शासन का अंत हुआ था। यह अलग बात है कि फिर 1949 में इन राष्ट्रवादियों तथा कम्युनिस्टों के बीच खूनी संघर्ष हुआ तथा राष्ट्रवादियों की हार हुई। इस समय इसकी विस्तृत चर्चा का कोई अवकाश नहीं है, परन्तु चीन की 1911 की क्रांति के जो तीन सिद्धांत थे- लोकतंत्र, राष्ट्रीयता एवं जनकल्याण- वह हमारे लिए अब भी मौजूं हैं, वर्तमान कम्यूनिस्ट चीन के लिए हो न हो। देश की तत्कालीन शासकीय व्यवस्था के परिवर्तन की कामना के बीच काल के गर्भ में गोया इन रचनाकारों ने आकार ग्रहण किया। 1911 का महत्व हमें तब समझ में आएगा कि जब हम इसे भारतीय साहित्य की उस दैदिप्यमान स्वातंत्र्योत्तर पीढ़ी के साथ जोड़ कर देखेंगे जिसने साहित्य रचना के नए मूल्य-मापों को तय किया था। 2011 तक आते आते यह सोचना भी रोचक हो सकता है कि सौ वर्षों की यह यात्रा असल में कितनी वैविध्य पूर्ण रही है। 1910, 1911, 1912, 1913 में जन्मे हमारे इन्हीं कवियों ने हिन्दी की प्रगतिशील और प्रयोगवादी काव्यधारा का स्वरूप तय किया। स्वतंत्रता, लोकतंत्र, राष्ट्रीयता तथा प्रगतिशीलता हमारे स्वतंत्रता संघर्ष तथा स्वातंत्र्योत्तर काल के मूल्य बने रहे। छायावाद के बाद हिन्दी कविता का स्वरूप और आगे की कविता की दिशा को तय करने वाले ये हमारी भाषा के महत्वपूर्ण कवि हैं –इसमें तो संदेह नहीं ही हो सकता है। भारतीय इतिहास के नए अध्याय के रचे जाने की प्रक्रिया में जन्में इन रचनाकारों को पढ़ते पढ़ते साहित्य के पाठक के रूप में हमारी चिंतन एवं पठन-यात्रा विचारधाराओं से होते हुए विमर्शों के स्टेशन पर रुकते हुए अब सायबर स्पेस के अननोन ज़ोन में प्रवेश कर चुकी है। ये रचनाकार स्वयं भी अपनी रचना-यात्रा में इतिहास तथा विचारधारा के विभिन्न पड़ावों से गुज़रे हैं। लेकिन मुश्किल तो यह है कि रचनाकार अपनी सृजनशीलता में हमेशा खुला होता है पर आलोचक उसके एक हिस्से में, जो उसे सर्वथा प्रिय होता है , अपनी एक जगह बना लेता है जहाँ बैठ कर वह उसे परखता रहता है। उसका मूल्यांकन करता है। वह असल में रचनाकार को भी अपनी आलोचकीय कम-निगाही (तंग-नज़री) में बाँध लेना चाहता है ; पर रचनाकार के तो इरादे कुछ और ही होते हैं। क्या कहता है वह -<br />बहुत से तीर बहुत सी नावें बहुत से पर इधर<br />उड़ते हुए आए, घूमते हुए गुज़र गए<br />मुझको लिए सबके सब। तुमने समझा<br />कि उनमें तुम थे। नहीं नहीं नहीं ।<br />उनमें कोई न था। सिर्फ़ बीती हुई<br />अनहोनी और होनी की उदास<br />रंगीनियाँ थीं । फ़क़त।<br />रचनाकार तो अपनी रचनाओं में अपने समय को अंकित करता चलता है। अपने समय की छबियाँ, जो उसकी नज़र से गुज़री हैं, उसकी कविता में प्रतिबिंबित होती हैं। हर कवि एक ही समय की उन्हीं छबियों को अलग कोणों से अथवा दृष्टि से देखता है। दृष्टि- स्थान के बदल जाने से छवि ही बदल जाती है कई बार। ये हमारा समय कैसा है- जिसमें विद्वान अँधेरा है और ढपोरशंखी सूर्य हैं, जिनके सहारे हैं हम और हमारा यथार्थ भेड़िये-सा भयंकर हो गया है /यथार्थ/जिससे बचाव नहीं है। (केदारनाथ अग्रवाल,आग का आईना पृ-27) हमारा समय असल में चर्चा का समय है। हम मीटिंग, सेमीनार तथा वर्कशॉप के दौर के लोग हैं। समस्याओं को बातों में सुलझाते हैं – आग जल रही है / किताबों में लपालप/ कागज़ नही जलता/ हाथ में उठाए किताब सूरज की / आदमी अँधेरे में बैठा है। (केदारनाथ अग्रवाल,आग का आईना लेकिन कवि का काम तो इस विद्वान अँधेरे में भी उस आदमी को खोजना है जो आदमी है,और अब भी आदमी है/ तबाह हो कर भी आदमी है, चरित्र पर खड़ा है देवदार की तरह बड़ा(है)( केदारनाथ अग्रवाल, वही )<br />कविता ऐसा क्या करती है कि उसकी हमें ज़रूरत हो; हम जो आज इतने अकेले पड़े हुए लोग हैं कि कई बार अपने घरों में ही अकेले पड़ जाने की स्थिति में आ गए हैं। गाँव अब वैसे गाँव नहीं रह गए हैं और शहर अधिक निर्दय और कठोर हो गए हैं। कोई भी ऐसा नहीं मिलता जिसे अपना कहें ( शमशेर बहादुर सिंह, सुकून की तलाश वाणी प्रकाशन 1998) राजनीति का कुलिश बढ़ गया है- कैसा सियासत का तूफ़ान कि आग की लपटों में इन्सान/ अपनों पर अपनों की ही बेदादगरी क्यों बाक़ी है।( शमशेर बहादुर सिंह, काल, तुझसे होड़ है मेरी, वाणी प्रकाशन,1988) तब इन कवियों का यह रचनाभाव हमें अपने को अपने में और समाज में अधिक गहरे रोपने में कितना काम आता है। कविता अँधेरा फाड़ कर रात को तिरोहित कर देने का काम नहीं वरन् सृष्टि की समग्रता को धूप के पारदर्शी आइने में उजागर कर देने का काम भी सृजन करता है/ और ऐसे समर्थ और साहसी सूरज को –उसके ताप-दाप और प्रकाश के साथ शब्दों में बिम्बित करने का काम कविता करती है। ( केदारनाथअग्रवाल, रास्ता इधर से है, पीपल्स पब्लिशिंग हाउस,1978)<br />हमारे इन शताब्दी कवियों ने कविता के अलावा निबंध, उपन्यास, आलोचना आदि गद्य विधाओं में भी बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। कथा-साहित्य में अज्ञेय और नागार्जुन अपने समकालीन गद्यकारों से इस मायने में आगे हैं कि जो प्रमुखतः गद्यकार हैं उन्होंने इतनी सशक्त कविता नहीं लिखी है। समकालीन रचनाकारों का मूल्यांकन हो, या साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन हो अथवा नारीवादी आलोचना हो- शमशेर अपने कई समकालीन आलोचकों के पीछे तो नहीं ही हैं। लेकिन अगर हम कविता की बात करें तो भाव तथा विचार और भाषा-शिल्प तथा संरचना (एकदम सस्यूर की समझ में नहीं तो केवल रूपाकार की तरह से ही) की बात तो करेंगे ही। आज जब भाव तथा विचार का स्वरूप और उसके प्रति हमारी समझ में ख़ासा परिवर्तन आ चुका है , अब हम पुरानी खोल में नए लोग हो गए हैं , तब इन कवियों – चार या बारह, या और अधिक- के काव्य विश्व के विषय में किस तरह सोच सकते हैं। अब जब न प्रकृति–मनुष्य-ईश्वर, भाषा-अभिव्यक्ति-संदर्भ, देश-काल-सापेक्षता- सभी के विषय में हम ठीक वैसा नहीं सोचते , तो ये हमारे कवि ( शमशेर-जनवरी, अज्ञेय-मार्च, केदारनाथ अग्रवाल–जुलाई तथा नागार्जुन-जून) क्यों हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। अब जब कभी-कभी यह चर्चा भी होने लगी है कि क्या सचमुच साहित्य की आवश्यकता है भी, सिवाय कि मेरे आपके तरह के लोगों के लिए एक आजीविका के साधन के रूप में....!?!<br />इसमें कोई संदेह नहीं कि कवि का शिल्प और शैली कविता की ज़िन्दगी की दीर्घता तय करते हैं। इस संदर्भ में मुझे लगता है कि नागार्जुन की कविताएं हमारे समय की और आने वाले समय की बड़ी मूल्यवान कविताएं बनी रहेंगी। उनकी वे कविताएं जो अत्यन्त सामयिक हैं , वे भी अपनी शैली के कारण आकर्षण बनाए रखेंगी। नागार्जुन और शमशेर के यहाँ गीति काव्य-रूपों का तथा छन्दों का ग़ज़ब का वैविध्य है। इस पर बात हुई है। इसे सभी स्वीकारते हैं। नागार्जुन चूँकि संस्कृत, पालि , प्राकृत, मैथिली बंग्ला आदि के प्रकांड ज्ञाता थे अतः उनकी कविताओं में काव्य-रूपों एवं छन्दों का वैविध्य दिखाई पड़ता है। मुझे कई बार लगता है कि ये चारों कवि हिन्दी कविता के चार विलक्षण स्वभावों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये स्वभाव उनकी काव्य-शैलियों के निर्माण में सहायक साबित हुआ है। इन शैलियों को कवियों ने अपने जीवन से, अपने विभिन्न संस्कारों से ग्रहण किया हैं। इन चारों के काव्य-विश्व में एक विलक्षण बात सामने आती है। इनमें प्रकृति के प्रति जो अथाह प्रेम है वह जब इनकी कविता में प्रकट होता है तो कवि-स्वभावानुकूल ही। अज्ञेय की प्रकृति बड़ी अनुशासनबद्ध लगभग औपचारिक-सी खिलती खुलती है तो नागार्जुन के यहाँ प्रकृति एकदम उन्मुक्त खुला जंगल। शमशेरजी की कविताओं में प्रकृति ऐन्द्रीयता से भरपूर, निजत्व भावों से सभर तो केदारनाथ अग्रवाल की लोकरंग में रंगी प्रकृति दिखाई सर्वत्र पड़ती है। यह प्रकृति केवल बाहर की नहीं है परन्तु भीतर की भी है। जैसे कवि की श्रेष्ठता को मापने का एक मापदंड उसका स्त्री के प्रति दृष्टिकोण माना गया है उसी तरह काव्य-वस्तु के प्रति कवि के रुख की पहचान करने का एक मापदंड उसका प्रकृति-चित्रण हो सकता है। प्रकृति-चित्रण हिन्दी में अपने पूरे जोम पर छायावाद में देखा गया है। परन्तु छायावादियों का प्रकृति के प्रति नज़रिया एक जैसा तो नहीं था। प्रकृति मनुष्य की निकटतम सहचर है- गोत्र की दृष्टि से। (प्राणियों का तो वह सगोत्र ही माना जाएगा) प्रकृति के प्रति कवि का व्यवहार उसके इतर सामाजिक व्यवहारों को पहचानने में निश्चय ही सहायक हो सकता है। तभी इन चारों की कविताओं में अभिव्यक्त प्रेम भी ऐसा ही है और थोडा और गहरे जाओ तो इन चारों में आता समाज भी ऐसा ही है। ये चार हिन्दी-कविता की रचनागत-शैलियों को रेखांकित करती हैं। यानी कि उन्मुक्तता, ऐन्द्रियता, शालीनता (औपचारिकता) तथा लोकरंगिता- इन चार स्वभावों की कविता का प्रतिनिधित्व ये कवि करते हैं। केदारनाथ प्रकृति से मनुष्य-हृदय तक जाते हैं- अब भी है कोई चिड़िया जो सिसक रही है , नील गगन के पँखों में, नील सिंधु के पानी में , मैं उस चिडिया की सिसकन से सिहर रहा हूँ, वह चिड़िया मानव का आकुल हृदय है। (आग और बर्फ की वसीयत, फूल नहीं रंग बोलते हैं) इसलिए उनकी चिंता हमेशा समाज के आखिरी मनुष्य के सुख-दुख के साथ जुड़ी हुई थी। इसीलिए उनकी प्रकृति में वह औपचारिकता नहीं थी जो हमारे संभ्रांत समाज का लक्षण है, जिसमें हम और आप रहते हैं। मैंने धूप से कहा कि थोड़ी गर्मायी दोगी उधार - कविता के कवि की हम आलोचना चाहे करें पर हमारा विश्व भी यही है... एक बड़ी औपचारिकता और शालीनता इस कविता में दिखाई पड़ती है। एक संभ्रांत कल्चर। एक ऐसा कल्चर जो जाने अन्जाने हमने स्वीकार कर लिया है। संभवतः इसीलिए हमें केदारनाथ और नागार्जुन की प्रकृति का उन्मुक्तपन अच्छा लगता है। प्रेयसी को कलगी बाजरे की कह देने की स्पष्टता की अपेक्षा कठोर प्रेमिका से कन्फ्रंट करने वाले शमशेर की प्रेमिका और प्रकृति हमें भाती है कि अपनी तरफ़ से हम युद्ध-विराम यह कह कर घोषित कर देते हैं--- कि अगले जनम में....। हम सब ऐसे हैं।<br />निराला के बाद उनकी परंपरा में प्रायः नागार्जुन को रखा जाता है। इसका कारण है कि इन दोनों में ही ओजत्व है। नागार्जुन की कविता को आप पढ़ना शुरु करें तो प्रत्येक शब्द में से नागार्जुन ज़िंदा होते दिखाई पड़ते हैं। अक्षर-देह से वास्तविक नागार्जुन बाहर आते दिखाई पड़ते हैं। नागार्जुन में साहस है, रणनीति है, निश्छलता है और कवि होने के शौक़ से अधिक कवि होने की ज़िम्मेदारी दिखाई पड़ती है। यह ज़िम्मेदारी कविता के प्रति उन्मुख न हो कर काव्य-वस्तु के प्रति अधिक है। इसीलिए नागार्जुन के शब्द जहाँ काटो तो खून नहीं कि मुद्रा में अगर होते हैं तो ग़ज़ब के खिलंदड़ेपन को प्रकट करते हुए भी दिखाई देते हैं। नागार्जुन की कविता बोलती है। खड़ीबोली कविता के इस गुण का विकास नागार्जुन के यहाँ ख़ूब इफ़रात से हुआ है। उनकी कविता जहाँ राजनेताओं की ऐसी-तैसी कर सकती है वहीं किशोरों को भी लुभा सकती है। जो जीवन को पूरा का पूरा जिएगा वह हर तरह की कविता इफ़रात में लिखेगा। यह तो अच्छा ही है कि कवियों का जीवन आलोचकों के हाथ में नहीं होता, न ही विचारकों के, वरना कितने ही कवियों की कविताएं रचना की सुबह नहीं देख पातीं।<br />इस संदर्भ में यहाँ मुझे नागार्जुन के संदर्भ में दो प्रसंगों का उल्लेख करने का मन होता है। पहला प्रसंग है खंडवा में श्रीकान्त जोशीजी के घर किसी प्रसंग में मैं शमशेरजी के साथ गयी थी। वहाँ बाबा भी आए थे। जोशी जी का घर सरकारी क्वार्टर की तरह था, बहुत बड़ा नहीं था। बरामदा, बैठक, रसोई, ग़ुसलख़ाना, फिर एक और कमरा और दूसरी तरफ़ एक और कमरा(शायद)। शमशेरजी, जोशीजी और अन्य लोग बैठक में बैठे बातें कर रहे थे। उस दिन पानी की क़िल्लत थी , मैं ग़ुसलखाने से होते हुए उस कमरे में आई तो बाबा वहाँ थे किसी से बात करते हुए। मेरे पहुँचने के बाद वे मुझसे बात करने लगे। फिर थोड़ी देर में मैंने देखा कि हम दोनों ही उस कमरे में हैं। बात विचारधाराओं के आग्रह या दुराग्रह तथा कविता पर एवं आलोचना पर पड़ते असर की थी। अचानक बाबा ने कहा कि इनका(प्रगतिशीलों) का बस चलता तो वे मुझे मार-डालते( यहाँ इसे लक्षणा में लिया जाए) पर मैं टिका रहा। उनकी आँखें भर आईं थीं। उस समय आज की तुलना में मेरी उम्र काफी कम ही थी( यह 82-83 की बात है) और समझ भी कम ही थी। अतः मैं अपने मंतव्यों को रखते समय भविष्य की सोच नहीं रखती थी। फिर विचारधारा और विचारधारा का वहन एवं प्रचार-प्रसार करने वालों के बीच की फाँक कई बार देख चुकी थी अतः अनुभव को बिना पकाए रखने में भय महसूस नहीं करती थी। ऐसी ही मेरी किसी बात की प्रतिक्रिया में बाबा ने वह बात कही थी। दूसरा प्रसंग दिल्ली का है जो मैं भूल नहीं सकती। एक बार कनाट प्लेस में मैं बाबा के साथ कहीं जा रही थी। हम लोग पैदल चल रहे थे और दुनिया भर की बातें हो रही थीं। बाबा सीधे सामने देख कर चल रहे थे और बात कर रहे थे मुझसे और मैं उन्हें सुनने के लिए उनके चेहरे की ओर देख रही थी। उस समय वहाँ जो दफ्तर थे उनमें लंच-ब्रेक था और लोग दफ्तरों से बाहर आए हुए थे। बाबा ने सहसा कहा कि तुम को पता है कि ये लोग तुम्हें मेरे साथ देख कर क्या सोच रहे होंगे। कह रहे होंगे कि यह बुड्ढा बड़ा रंगीन है..... एक जवान लड़की के साथ घूम रहाहै। यहाँ इस हमारे समाज में लोग स्त्री-पुरुष को जब एक साथ देखते हैं तो केवल यही सोचते हैं। यह हमारा समाज है। अचानक हुए इस सवाल –जवाब के लिए मैं तैयार तो नहीं थी। पर एक संवेदनशील कवि का भीतरी और बाहरी संघर्ष अवश्य ही आज इसमें मैं देख सकती हूँ। एक विचारशील ज़िम्मेदार कवि को जब ऐसा कहना पड़ता होगा तो वह उसे हल्केपन-से कभी नहीं कहता। पर बाबा में यह साहस था , जीवन में और कविता में कि वह ऐसा कह सकते थे। कवि जिस समाज में रहता है उससे उसका संवाद किस तरह का हो सकता है, यह भी उसकी कविता के द्वारा प्रकट होता है।<br />कहने का अर्थ मेरा इतना ही है कि कवि स्वयं विचारधारा के बाहरी दबाव को स्वीकार नहीं कर सकता है, क्योंकि वह प्रकृति से स्वतंत्र होता है। स्वतंत्रता के संदर्भ में अज्ञेय और शमशेर का नाम तो हमें लेना ही होगा। परन्तु इस बात को ध्यान में रखते हुए कि स्वतंत्रता की संकल्पना भी कवि-प्रकृति के अनुसार ही होगी। शमशेर प्रेम में ऐसी स्वतंत्रता की कामना करते हैं- तुम मुझसे प्रेम करो , जैसे मैं तुमसे करता हूँ। व्यक्तिगत प्रसंग में स्वतंत्रता अगर समानता के लिए है तो जनता की एकता जनता की स्वतंत्रता को बचाने के लिए ज़रूरी है यह बात वे वाम वाम वाम दिशा कविता में कह चुके हैं। अज्ञेय प्रेम को अधिक प्रगाढ़ बनाने के लिए प्रेम में मुक्ति और स्वतंत्रता की बात करते हैं। उनके लिए प्यार अकेले हो जाने का एक नाम है / यह तो सब जानते हैं/ पर प्यार अकेले छोड़ना भी होता है /इसे /जो वह कभी नहीं भूली /उसे ,जिसे मैं कभी नहीं भूला..<br />जैसे नागार्जुन की कविताओं में से एक ज़िंदा होता चेहरा दिखाई देता है उसी तरह अज्ञेय की तथा शमशेर की घुलती हुई तस्वीर उनकी कविताओं के शब्दों में प्रकट होती है। नागार्जुन का चेहरा उभरता–सा है और इन दोनों का चेहरा घुलता–सा है। जबकि केदारनाथ अग्रवाल अपने शब्दों के सहचर हैं- जैसे वे अपनी कविताओं में प्रकृति के सहचर हैं, जैसे मज़दूरों-किसानों के सहचर हैं, जैसे अपनी पत्नी के सहचर हैं...। कविता को समझने की यह प्रक्रिया, यह भाव-संबंध शब्दों का, कवि की रचनात्मकता से हम जोड़ सकते हैं।<br />ये चारों कवि सही अर्थों में साहित्य-जीवी थे। यानी अगर वे लिख नही रहे होते , तो होते भी क्या, यह प्रश्न हमें होता है। आजीविका के लिए चाहे आप सम्पादकत्व करें या वक़ालत, पर जीने के लिए तो कविता उनके लिए साँस के समान ही थी। जो सूरज को आईने कहता हो(के.ना) और जिसकी पुतलियों में सूरज डूबता हो(श.ब.) ऐसे कवि हमारे लिए हर समय ज़रूरी रहेंगे क्योंकि ज़मीन का ज़मान नही बदला है (के.ना) ज़मीनी यथार्थ का पैकेज़ बदलता है, उसके भीतर के कंटेंट में कुछ परिवर्तन आता भी है परन्तु मूलभूत तत्व तो एक ही रहते हैं।<br />आज की आलोचनात्मक भाषा में बात करें तो नागार्जुन और रवीन्द्रनाथ के बादल के घिरने की रूमानियत जहाँ हमें कालीदास की हायपरटेक्स्ट में ले जाती है, वहीं फिर भी क्यों मुझको तुम अपने बादल में घेरे लेती हो ... आज नई पीढ़ी के पाठकों को शमशेर की यह ऐंद्रीय रूमानियत किसी तेल या शैंपू के कारण बने घने बालों के संदर्भ दृश्य की ओर ले जा सकती है। दे देने की उदार और मानवीय गरिमा के सर्वोत्तम भाव का जब लगभग तिरोधान हो चुका है और विज्ञापनों की मायावी और अ-वास्तविक दुनिया में बैठे हम लोग क्या केवल एक सेमीनार के लिए ही इन कवियों को याद कर रहे हैं या मुट्ठियों से फिसल रही अपनी संवेदनाओं को बचाने के लिए उन्हें बार-बार याद करना चाहते हैं।<br />हमारे इस समय में एक और भी बात है जो हमारे पारिवारिक भाव को चुनौति देती रहती है। हमारे समाज में जनता का नेतृत्व करने वाले लोगों के पारिवारिक भाव को जनता ध्यान से देखती है। इस पारिवारिक भाव में अन्य संबंधों की अपेक्षा पत्नी के प्रति भाव का एक ख़ासा मूल्य है। समाज का भावनात्मक नेतृत्व कवि-साहित्यकार करता है। केदारनाथ अग्रवाल पत्नी के लिए लिखी कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं। वे स्वयं इस बात को स्वीकारते हैं कि जैसा मैंने अपनी पत्नी पर लिखा और किसी ने नहीं लिखा होगा।(रामशंकर द्विवेदी के साथ की बातचीत साहित्य-अमृत, जनमशती अंक फरवरी 2011) केदारनाथ ने अपनी पत्नी के प्रति भाव को प्रकृति में मिला लिया। क्योंकि प्रकृति ही रहने वाली है। मैंने पहले उसको अपने शरीर में लिया फिर अपनी चेतना का अंश बना लिया, तो वह मेरे आत्मप्रसार की रमणी बन गयी।(वही)। कोई द्वंद्व नहीं है उनके भीतर। तुम मुझे प्रेम करो मैं तुम्हें प्रेम करूँ- इतना काफी है। फिर चाहे तुम राम से करो कृष्ण से करो जैसे मैं प्रकृति से करता हूँ। कोई जैलेसी नहीं। नागार्जुन अपनी सिंदूर तिलकित भाल कविता में भी पत्नी को याद करते हैं तो पूरे ग्रामीण परिवेश के साथ याद करते हैं। अज्ञेय के लिए पत्नी उनका घर है, बल्कि घर की एकमात्र खिड़की जिससे वे दुनिया को देखते समझते हैं। घर और पत्नी इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें यह याद भी नहीं रहता वैसे ही जैसे सांस लेते हुए हमें याद नहीं रहता कि हम सांस ले रहे हैं। शमशेर अपनी मृत पत्नी याद करते हुए कहते हैं कि-<br />तुम आओ तो ख़ुद घर मेरा आ जाएगा, इस कोनों-मकाँ में तुम जिसकी जिसकी हया हो, लय हो, तुम मुझे इस अंदाज़ से अपनाओ जिसे दर्द बेगानारवी कहें, बादल की हँसी कहें, जिसे कोयल की तूफ़ान-भरी सदियों की चीखें, कि जिसे हम-तुम कहें। (आओ- 1949)<br />यहाँ दो भाव हैं- पत्नी के स्मरण को घर से बाहर के गाँव-जीवन और प्रकृति में मिला देना और प्रकृति –समाज को पत्नी के होने या स्मरण में मिला देना। क्योंकि समाज में इसी तरह की मानसिकता के लोग विद्यमान हैं अतः हर प्रकार के व्यक्ति के लिए ये कवि अपने कवि-स्वभाव के साथ महत्वपूर्ण हो सकते हैं।<br />शताब्दी स्मरण के इस मुहूर्त पर एक बात जो मुझे बहुत आकर्षित करती है वह यह है कि ये कवि उस पीढ़ी के हैं जब एक दूसरे के प्रति परस्पर सौहार्द्र का भाव बहुत घना था। यह एक जाना हुआ तथ्य है कि आलोचकों की विचारधारात्मक खींचतान या पूर्वाग्रह भी इन कवियों के परस्पर स्नेह संबंध को कम नहीं कर पाये थे। शमशेरजी को चाहे आलोचकों के एक वर्ग ने नयी कविता का प्रथम नागरिक कह कर अज्ञेय के विरोध में इस्तेमाल करने का प्रयत्न किया हो परन्तु उस समय तो उन्होंने इस बात को हवा नहीं ही दी बल्कि अंत तक वे अज्ञेय की प्रतिभा को स्वीकारते भी थे तथा उनके प्रति एक आदरभाव भी रखते थे। इस संदर्भ में हम मुक्तिबोध के प्रसंग को भी उदाहरण के रूप में याद कर सकते हैं जिसका खुलासेवार ब्यौरा रचनावली के पत्रों वाले भाग में उपलब्ध है। कवियों के लिए कविता की समझ अधिक महत्वपूर्ण होती है, विचारधारा नहीं। स्वयं शमशेर ने जब प्लॉट का मोर्चा लिखा तब उसे पहले अज्ञेय को दिखा कर ठीक कराना चाहते थे। विशेषकर भाषा की दृष्टि से। यह भी एक संयोग है कि इन दोनों कवियों की बीमारी में (हालाँकि वर्षों का अंतराल बहुत बड़ा है) अपनी तरफ़ से ठोस मदद के लिए चुपचाप कोई समकालीन कवि सामने आया , तो वह अज्ञेय ही थे। शमशेर जी की अज्ञेय पर लिखी कविता तो प्रसिद्ध है ही। बल्कि उन्होंने अज्ञेय पर दो कविताएं लिखी हैं। शमशेर ने नागार्जुन पर भी कविता लिखी है। नागार्जुन ने केदारनाथ अग्रवाल पर लिखी है। केदारनाथ ने नागार्जुन पर लिखी है और शमशेर पर भी लिखी है। शमशेर पर उनके बाद की पीढ़ियों के लेखकों ने लिखा है। यहाँ सवाल परस्पर के सौहार्द्र का है जो अब धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है। एक दूसरे के प्रति स्पर्द्धा का भाव किसी भी युग के रचनाकारों में होना सहज स्वाभाविक है। इस तरह की खोज हमारे यहाँ कम हो पायी है। एक बार नाट्यदर्पण की भूमिका पढ़ते हुए मैंने पाया कि यह बात रामचंद्र-गुणचंद्र के समय में भी थी। निराल-पंत के संदर्भों से हम परिचित हैं । परन्तु एक दूसरे के प्रति सौहार्द्र भाव की खोज कर के उदाहरण सामने रखना हमारे आज के समय की आवश्यकता है। अपने समकालीनों का आदर करने की जो संस्कारिता इन कवियों से हमें दाय में मिली है, हमें उस परंपरा का वहन करना चाहिए। क्योंकि आज हमें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता है। शमशेरजी की तो विशेषता ही रही है कि उन्होंने अपने समकालीनों, अग्रजों और अपनी पार्टी के लोगों पर , इतना ही नहीं घर के बसंता के नाम भी प्रेम की पाती लिखी है। उनके इस प्रकार की कविताओं का तो एक संग्रह भी हो सकता है। नागार्जुन ने भी इस प्रकार की कविताएं लिखी हैं। वे शैलेन्द्र पर भी लिखते हैं और सबसे आकर्षित मुझे इस बात ने किया कि उन्होंने राजकमल चौधरी पर भी कविता लिखी है। हमारी समकालीन आलोचना की परिधि में जो अनेक कवि नहीं आते उनमें एक राजकमल चौधरी भी हैं। भाव की दृष्टि से मुझे हमेशा ऐसा लगा है कि रील धुली तो गजानन माधव मुक्तिबोध दिखे और रील नहीं धुली तो राजकमल चौधरी दिखे। तस्वीर का नेगेटिव्ह राजकमल चौधरी है और पॉज़िटिव्ह गजानन माधव मुक्तिबोध। भाव के उदात्तीकरण की आवश्यकता कवि को कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है उसके ये दोनों कवि उदाहरण हैं।<br />इस हमारे समय में जहाँ रचनाएं पाठ बन गयी हैं, पाठ अन्तर्पाठ बन गए हैं और अन्तर्पाठ हायपर टेक्स्ट और मैटा टेक्स्ट बन गए हैं। यानी कि अब हम एक सर्वथा नई दुनिया में सांस ले रहे लोग हैं। ( कई बार अपने से ही सवाल करने जी होता है- क्या सचमुच) हमारी दुनिया सर्वथा भिन्न हो गयी है। अब हम एक डिजिटल दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं। पिछली शताब्दी के आरंभ से ले कर उसी शताब्दी के अंत अंत में इन कवियों ने अपना जीवन जी लिया था। मुझे याद है बाबरी मस्जिद वाली घटना के बाद भीतर तक हिल जाने वाले शमशेरजी ने बहुत पीड़ा के साथ यह वाक्य कहा था- मुझे नहीं मालूम था कि जीते जी अपने ही जीवनकाल में यह सब भी देखना पड़ जाएगा। यह सर्वथा अनपेक्षित तथा उनकी कल्पना के बाहर की बात थी। गोया अपने सामने समय को करवट लेते उन्होंने देखा । समय ने एक करवट ली ही थी कि वे मंच पर आए और समय की दूसरी करवट में तो हृदय-मन-सोच सब आलोडित हो कर जैसे कुचला गये हो।<br />हमारे ये विद्यार्थी जो हमारे सामने बैठे हैं उनकी और हमारी दुनिया में एक फर्क आ गया है। यह फर्क यथार्थ के परसेप्शन का फर्क है। हमारे उनके पठन में फर्क आ गया है। ज़रूरी नहीं है कि हम उन्हें साहित्य में प्रकट यथार्थ को अपनी कक्षाओं में जिस तरह पढ़ाते हैं, ठीक उसी तरह वे उसे परसीव करते हों। वे विचारधाराओं की उत्कटता से परिचित नहीं हैं, वे विमर्शों को ले कर ठीक वैसा नहीं सोचते , जैसा हम सोचते हैं। परीक्षा में तैयारी कर के हमारे पढ़ाए अनुसार लिखना एक बात है, पर जीवन-संदर्भों में उस पर विश्वास करना दूसरी बात है। यहाँ मैं उस प्रश्न को नहीं छेड़ना चाहती कि उनके लिए साहित्य के मायने क्या रह गए हैं। अगर वे साहित्य में एम.ए इत्यादि नहीं कर रहे होते तो क्या शताब्दी कवियों – इस वर्ष के नहीं बल्कि हर वर्ष किसी न किसी शताब्दी कवि को कितना पढ़ते और समझते। पसंद करने की बात यहाँ नहीं है।<br />तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि शताब्दी कवियों को याद करना हम साहित्य के प्रोफेशनल्स का ही काम है। जैसे किसी भी क्षेत्र में विषय से जुड़ी किसी नई खोज पर सिंपोज़ियम होते हैं, वे चाहें मैनेजर्स हों या हैर-ड्रेसर्स हों, उसमें रुचि ले कर काम करते हैं। शताब्दी कवियों को याद करना क्या इस तरह की कोई बात है, या नहीं। तो, साहित्य आखिर हमारे सामाजिक जीवन में कौन-सी उपयोगिता छोड़ जाते हैं.. यह सवाल तो बना ही रहता है। अगर इन शताब्दी कवियों/रचनाकारों के साहित्य को हम प्रोफेशनल्स सचमुच मूल्यावान मानते हैं , तो ऐसा क्या हमें करना चाहिए कि हमारे अकादमिक और प्रोफेशनल क्षेत्र के बाहर जा कर हम व्यापक समाज के लोगों तक उसे पहुँचाने का काम करें। हमें अपनी परिक्षाओं और डिग्रियों से आगे जा कर क्यों इन रचनाकारों पर अलग से सोचना चाहिए। वे कौन-सी बातें इन रचनाकारों में हैं जो आज भी समाज को बेहतर बनाने में कामयाब हो सकती हैं। लेकिन सबसे पहले तो हमें अपने आप से एक सवाल पूछना चाहिए कि ऐसा करना क्या हम अपना काम मानते हैं। हम साहित्य के अध्यापकों के लिए यह बहुत आवश्यक हो गया है कि हम नए सिरे से चीज़ों पर सोचें। नहीं तो इतिहास से ले कर हायपर टेक्स्ट तक की जो गाड़ी हमारे सामने से गुज़र रही है वह और आगे चली जाएगी और हम वहीं अपने स्टेशन पर खड़े के खड़े रह जाएंगे – क्या हम यह एफोर्ड कर सकते हैं। जिन रचनाकारों का मूल्य हमने समझा है और वाक़ई में वे मूल्यवान हैं, उन्हें हम किस तरह आने वाली पीढ़ी तक ले जाएं, यह भी हमारा काम है।<br />हर पीढ़ी अपनी समझ और रुचि के अनुकूल रचनाकारों को स्वीकार करती ही है। प्रश्न इतना ही है कि हम इन रचनाकारों को आज उस माध्यम के द्वारा नई पीढ़ी तक ले जाएं। इसलिए सायबर स्पेस में जहाँ हर कोई सरलता से पहुँच सकता है, वहाँ तक इन्हें ले जाने का काम हमारा है। सायबर स्पेस में कविता के नए ठिकानों तक जा कर, उपलब्ध स्पेस में बेहतर सामग्री को शामिल करना हमारा काम होना चाहिए। विचारधारा और विमर्श इसमें आड़े नही आने चाहिएं। इस शताब्दी वर्ष में हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हम प्रस्तुति और प्रकाशन के नए माध्यमों में अपने साथ-साथ इन अपने प्रिय और मूल्यवान रचनाकारों को भी शामिल करते चले जाएं, क्या मालूम कौन-सा नया पाठक वर्ग उनको पढ़ने के लिए उत्सुक तैयार बैठा है। इसके लिए हमें सबसे पहले तो अपने पूर्वग्रहों से निकल कर इन रचनाकारों की कविताओं की व्यापक भूमि को पहचानने की कोशिश करनी होगी। यह शिकायत भी लोगों को है कि कविता कोई नहीं पढ़ता। पर मेरे साथ आपका भी यह अनुभव होगा कि साहित्येतर क्षेत्रों के कई लोग अपने वक्तव्यों को पुष्ट अथवा अलंकृत करने के लिए भी कविताओं को तो खोजते ही रहते हैं। आम जन भी कविताएं पढ़ना पसंद करते हैं, सवाल यह है कि उनके पास कितनी ऐसी कविताएं उपलब्ध हैं और इस बढ़ती हुई मँहगाई में किस दाम पर वह ख़रीद सकता है। सायबर स्पेस में यह सुविधा है कि वह कम दामों(या मुफ्त) में उनको प्राप्त कर सकता है। मैं कोई विज्ञापन नहीं कर रही , पर आने वाले समय में अगर हम इस दिशा में नहीं जाएंगे , तो हम अपना ही नुक्सान करेंगे। अंत में नागार्जुन के स्वर को ध्यान से सुनें कि वह क्या कहते हैं-<br />दिन है/ शताब्दी समारोह के समापन का/ दिन है-पंडों की धूमधाम का/ दिन है धान रोपने का सावन का/ दिन है/ स्मृति की सरिता में प्लावन का..<br />नहीं, केवल स्मृति की सरिता में प्लावित होने के लिए ही यह शताब्दी स्मरण हम नही कर रहे परन्तु इन कवियों को पढ़ने का अर्थ है अपनी छूटती हुई साँसों को अधिक से अधिक जी लेने की कोशिश करना।<br />रंजना अरगडे</STRONG><STRONG></STRONG> </DIV>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-57324990864384534532010-12-12T04:36:00.000-08:002010-12-12T04:56:27.267-08:00शमशेरजी को याद करते हुए<div align="justify"><br /><span style="color:#330033;">मुझे याद आता है कि जिस वर्ष शमशेरजी का देहावसान हुआ, उसी वर्ष मेरेसामने दो प्रस्ताव आए थे। पहला यह कि मैं शमशेरजी के साथ बिताए वर्षों के संस्मरणों पर एक पुस्तक लिखूं। दूसरा यह कि मैं रचनावली का काम तुरन्त आरंभ कर दूँ । मैंने पूछा कि रचनावली की इतनी जल्दी क्या है तो यह कारण सामने रखा गया कि देर होने से फिर लोग शमशेरजी को भूल जाएँगे, बाद में इस बात का इतना महत्व नहीं रहेगा। तब मैंने यह कहा था कि जिस कवि को लोग इतनी जल्दी भूल जाने वाले हों, उनकी रचनावली की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिए। जहाँ तक संस्मरणों का प्रश्न है मुझे इसमें इतनी रूचि इसलिए नहीं रही कि पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी में संस्मरणों का दुरुपयोग भी बहुत हुआ है। उसकी विश्वसनीयता खंडित हुई है ; क्योंकि संस्मरणों के तथ्यात्मक आधार की जाँच हर बार संभव नहीं होती। फिर संस्मरणों की पुस्तकें मुझे कई बार शोक सभा की याद दिलाती हैं जिसमें व्यक्ति, मृतक की कम, अपनी ही बात अधिक करता है। अथवा कई बार यह भी होता है कि हम संस्मरणों के माध्यम से किसी की लकीर को छोटा कर के अपनी लकीर बड़ी करना चाहते हैं। मैं यह मानती हूं कि रचनाकार की रचनाएं ही अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। बहरहाल, आज जब मुझे आपके सामने शमशेरजी के संस्मरण सुनाने हैं, तो मेरी कोशिश यही रहेगी कि इन्हें उस अर्थ में शोक सभा का रूप न मिले अथवा मैं किसी की लकीर को छोटा न करूं।<br />1<br />मानों हम सहज ही कहीं टहलने निकल गए हों.....मसलन किसी नदी किनारे या किसी ऐसी जगह जहाँ सहसा बहुत कुछ घटित हो जाता है ; जैसे भरे बाज़ार में या मेले में..... 'क्या हो रहा है' का कौतुहल हमें अचानक, हमारे ही अन्जाने उस खेलते, लहर-लहर पानी के एक ऐसे प्रवाह में ढकेल देता है कि हमारे पास 'क्या किया जाए' इस बात पर सोचने का न तो विकल्प होता है न ही वक्त; और हम बस बहते चले जाते हैं प्रवाह के साथ-साथ... और ठीक वहीं और तभी जा कर रुकते हों जब प्रवाह की गति उसकी अनुमति दे।<br />अथवा मेले में खेल देखने की उत्सुकता से चले हों और हमारे हाथों में एक बेहद प्यारे, पर खो गए बच्चे की ज़िम्मेदारी आ पड़ती है और उस दिलक़श बच्चे को देख कर हमारे मन में भी यही विचार आता है कि 'अच्छा हुआ कि हम वहाँ मौजूद थे।'<br />अथवा भीड़ भरे बाज़ार में बीच सड़क पर कोई हादसा हुआ है और सभी अपनी-अपनी राह चले गए हों। आप भी उस हादसे के गवाह हों और लुहलुहान घायल को उसकी नियति पर नहीं छोड़ सकते क्यों कि यह वो शख़्स है जिसने मनुष्य जाति की भावनाओं को लहूलुहान होने से बचाया है ; जिसके भीतर के एकांत में मनुष्य, समाज, आत्मीयों की स्मृति, बेचैन हो कर घूम रही है , वह अपने घायल पाँवों पर खड़े रहने की ज़द्दोज़ेहज में जब आपकी ओर देखता है तो आपको सहसा अपनी एक छवि उसके भीतर दिखाई देती है। उसने कभी आपको बताया नहीं था कि आप उसकी बेचैन स्मृतियों का एक हिस्सा हैं, पर आप स्वयं अपने को जब वहाँ देखते हैं तो सिवा उस लहूलुहान अकेले व्यक्ति के साथ होने के, कोई और विचार आप के भीतर नहीं जागता।<br />इन तीन दृश्यों का मिला-जुला भाव और स्वरूप मेरे सामने थे जब वह निर्णय मेरे भीतर जगा और शमशेरजी ने मेरे साथ आने का चुनाव किया।<br />2<br />शमशेरजी के साथ मेरी स्मृतियां तब से जुड़ी हैं जब 1978 में मैंने उनपर शोध करने का निर्णय किया और 1979 में मैं उनके समक्ष एक शोध-छात्रा के रूप में उपस्थित हुई थी। उन स्मृतियों में एक ऐसे कवि की छबि अंकित है जिसे अपने पर काम कराने या होने को लेकर कोई विशेष उत्साह तो नहीं ही रहता था, बल्कि, उनकी कोशिश यह रहती थी कि कोई ना ही करे तो अच्छा है। इसका कारण यह था कि उन्होंने अपनी कविताओं को इस तरह कभी नहीं देखा कि उनका कोई मूल्य हो, सिवा उनके लिए या उनकी तरह सोचने वालों के लिए। पर उनके समक्ष जो व्यक्ति उपस्थित है, जो इस प्रकार के या किसी भी प्रकार के कार्य के लिए पहुँचा हो. उसके आतिथ्य के प्रति वे सदैव ही तत्पर रहते थे। उस यात्रा में शमशेरजी को मैं अपनी आँखों से नहीं परन्तु उस व्यक्ति की आँखों से देख रही थी जिनके माध्यम से मैं वहाँ पहुँची। अतः मेरा उनके प्रति भाव पक्षपात से भरा हो, यह स्वाभाविक है। मैंने ख़ुद अपने ढंग से अपने अनुभव से तो शमशेरजी को बाद में जाना।<br />शमशेरजी के साथ मेरे अपने अनुभव उज्जैन और बाद में सुरेन्द्रनगर आदि के दिनों... वर्षों के हैं। ये अनुभव कई प्रकार के हैं। जिनमें शमशेरजी के साथ मेरे अपने, मेरे परिवार के साथ के, शमशेरजी के साथ उनके परिवार के, साहित्यकारों के साथ के आदि आदि। शामिल हैं। मैं उन्हीं में से कुछ आपके बीच बाँटना चाहती हूँ।<br />उज्जैन के दिनों की बातें मैंने इसके पहले भी कहीं-न-कहीं लिखी हैं। मैं यह भी जानती हूँ आज की यह कोई अनंत बैठक नहीं है कि मैं अपनी बातें कहती चली जाऊं। मुझे इस बात का भी एहसास है कि संभवतः बीमारी और उसके बाद के दिनों में शमशेरजी की क्या स्थिति थी और उनका जीवन किस तरह बीतता था यही जानने की उत्सुकता संभवतः लोगों के बीच अधिक है। मैं यह भी जानती हूँ कि एक यह उत्सुकता भी, शायद, हिन्दी प्रेमियों के बीच है कि आखिरकार धुर उत्तराखंड का जीव पश्चिमी खंड में कैसे जा कर बसा। फिर कौन है यह रंजना ? सैकड़ों शोध-छात्रों में यह एक शोध-छात्रा । हमारे समाज की यह भी एक विडंबना है कि इन्सान जब बदहाली से बच जाता है, तो अचानक उसकी ओर हमारा ध्यान जाता है। अरे! ! वरना यह चर्चा तो आम है कि हम अक्सर यह अफ़सोस जताते रहे हैं कि फ़लां कवि/लेखक के अंतिम दिन बड़े कष्ट में बीते। यह हमारी नकारात्मक भावनाओं का पोषण करती है और हमें एक तरह का संतोष भी देती है, कहीं-न-कहीं। हिन्दीतर भाषी परिवार में हिन्दी के इस महत्वपूर्ण कवि के दिन कैसे बीते होंगे, यह उत्सुकता अगर कौतुहल का मुद्दा रहा है, तो इस बात पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं है। मैं इसे स्वाभाविक ही मानती हूँ।<br />3<br />इस भूमिका के बाद अब मैं अपनी स्मृतियों को टटोलती हूँ तो मुझे दिखाई पड़ते हैं वह शमशेरजी जिनके साथ रहते हुए मुझे हमेशा यह लगा कि I was the chosen one!.<br />अहमदाबाद से उज्जैन अगर पास नहीं तो दूर भी नहीं था। एक रात का सफ़र। जाने के लिए गाड़ी तो तब एक ही थी, पर बसें दो-चार तो थी हीं। बस की यात्रा बहुत आरामदायक नहीं थी, क्योंकि राज्य परिवहन की सामान्य बसें तो जैसी थीं, वैसी थीं। और यह कोई आजकल की बात तो नहीं है। 1980 में हड्डियां दुखाने वाली सडकों पर चलती ये बसें मुझे कभी कष्टदायक नहीं लगी थीं क्योंकि एक तो उम्र ऐसी थी और दूसरे कोई विकल्प भी नहीं था। शाम होने से पहले यानी 6 बजे से पहले अगर मन में इच्छा हो जाती तो साढ़े सात की बस पकड़ कर उज्जैन के लिए चल देती थी। शमशेरजी के यहाँ सभी के लिए जगह थी। उनकी आवभगत का अनुभव मैं दिल्ली में कर चुकी थी। चाय के लिए मना करने पर दूध का आग्रह रखने वाले शमशेरजी के यहाँ जाने के लिए भला संकोच होने का कोई कारण नहीं था। ऐसी ही अनेक बार की यात्राओं में शमशेरजी से बढ़ता हुआ परिचय एक अधिकार-भरी आत्मीयता में बदलने लगा। शमशेरजी का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि इस तरह का अधिकार-भाव रखने वाले कितने ही लोग उज्जैन में मैंने देखें हैं। शमशेरजी सभी के लिए बाहें खोल कर ऐसे उपस्थित हो जाते कि हर कोई यह मानता कि शमशेरजी उनके विशेष निकट हैं। शमशेरजी से मेरा नाता कविता के माध्यम से जुड़ा था और मैंने यह पाया कि उन्हें कविता की मेरी समझ के प्रति विश्वास एवं आदर था जो वे अक्सर मेरे शोध-निर्देशक आदरणीय डॉ. भोलाभाई पटेल की तारीफ़ करते हुए प्रकट करते थे। इसी का परिणाम यह हुआ कि एक दिन उन्होंने मुझसे यह कहा कि जब यहाँ का ( प्रेमचंद पीठ) कार्यकाल पूरा हो जाएगा तो मैं अपना सारा सामान तुम्हारे यहाँ रखूंगा और मैं स्वतंत्र हो कर जहाँ मेरी इच्छा होगी , घूमूंगा। भविष्य की बात थी, मैंने उसे उतना ही महत्व दिया , जितना उस समय के लिए योग्य था। पर हाँ, मुझे ख़ुशी हुई कि शमशेरजी का मुझ पर भरोसा है। उनकी इस बात के पीछे नियति का क्या खेल था मैं तब नहीं जान पायी थी।<br />मैंने यह पहले लिखा है पर मुझे कहने का मन होता है कि उज्जैन में शमशेरजी अकेले रहते थे पर उनके यहाँ रोज़ चार लीटर दूध तो कम-से-कम आता था। फिर फल आदि की इफ़्रात। उनके घर के आँगन के पिछवाड़े एक बग़ीचा था जिस में अमरूद के पेड़ थे। उन पर अमरूद लगा करते थे। उस बग़ीचे के अमरूदों, गिलहरियों, चिड़ियों साँपो, मोर ( कभी - कभार आने वाले), अमरूद के पेड़ों से छनती आती धूप-छांही, सभी शमशेरजी की बातचीत का हिस्सा थे। उस आँगन में मैंने उन्हें योगासन करते हुए देखा है। आसन करते हुए बीच-बीच में वे आसनों की प्रक्रिया में होने वाली अनुभूतियों की बात करते और मुझे स्मरण आती उनकी वे कविताएं – सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता....। मुझे प्लॉट का मोर्चा का वह रेखा चित्र भी याद आता और समझ में आता कि इन कविताओं में जो बिम्बों की जटिलता है वह एक विशिष्ट अनुभूति के कारण है। उस अनूभूति को समझ लेने पर कविता एकदम सरल हो जाती है। फ़्रांसिसी प्रतीकवादी कवियों ने प्रतीकों की जिस निजता की बात की है उसका रहस्य भी तभी समझ में आता है। शमशेरजी का नहाने का तरीक़ा बड़ा विशिष्ट था। अपना पायजामा ऊपर तक, लगभग जांघों तक, चढ़ाए, एक मग्गे में पानी ले कर, छोटा-सा तौलिया गीला कर के उस पर पीयर्स साबुन लगाते थे। पहले वे सूखे तौलिए से अपना बदन रगड़ते थे , फिर साबुन लगे गीले तौलिए से अपना बदन साफ़ करते थे और फिर एक बार साफ़ पानी में तौलिया भिगो कर बदन पर लगा साबुन साफ़ करते और अंत में एकाध मग्गा पूरे शरीर पर डाल लेते। यह उनका किफायती स्नान का प्रत्यक्ष उदाहरण था। (किफायत पानी की, समय की नहीं) यही किफ़ायत सुरेन्द्रनगर जैसे शहर में बड़ा वरदान साबित हुई थी।<br />शमशेरजी अमरूदों को देखते हुए इलाहाबाद को याद करते और इलाहाबाद को याद करते हुए बहुत कुछ उनकी स्मृति पटल पर खिंच जाता। ऐसे में ही उहोंने मुझे भुवनेश्वर के जीवन की ट्रेजेडी के विषय में बताया था। मैने तो भुवनेश्वर को नहीं देखा , ज़ाहिर है, पर शमशेरजी ने भुवनेश्वर का जो चित्र खींचा था मुझे हमेशा ऐसा लगा है, और आज भी ऐसा लगता है कि मैं भुवनेश्वर से मिल चुकी हूँ। मेरे कहने का अर्थ यही है कि शमशेरजी अपनी बात को जिस गहन आत्मीयता से कहते थे कि चाहे प्रसंग की बारीकियां आपको याद न रहें उसके प्रभाव आपके चित्त पर स्थायी हो जाते थे। इलाहाबाद के सिविल लाईन्स इलाके में रात-बे-रात घूमते(भटकते) भुवनेश्वर का चित्र, मानों , मेरी अपनी स्मृति का हिस्सा बन गया है। 'वग़रना तू भुवनेश्वर...' कविता में शमशेरजी ने अपने समय के इस कलाकार के बारे में कहा ही है। पर इतना तो है कि भुवनेश्वर की कला के प्रति आदर होते हुए भी शमशेरजी भुवनेश्वर के ख़स्ताहाल के लिए ख़ुद भुवनेश्वर को ही एक हद तक ज़िम्मेदार भी मानते थे।<br />मैं जब शमशेरजी के यहाँ उज्जैन जाया करती थी तब रोज़ उनके साथ सुबह घूमने का अवसर मैं नहीं चूकती थी। इन्हीं प्रातः-चालों में कला और कृति के मर्म को समझने की बारीकियां मैंने सीखी होंगी। सौन्दर्य किसे कहते हैं- यह शमशेरजी की कविताओं से तो जाना ही है पर अपने चारों तरफ़ के परिवेश में उसे कैसे देखना , यह मैंने उन्हीं से सीखा है। किसी पेड़ की जड़ें ज़मीन के नीचे किस दिशा में होंगी जिसके कारण वह ज़मीन के बाहर किसी विशेष दिशा में बढ़ता है, पेड़ों पर लगे पत्तों की संरचनाएँ किस तरह अलग-अलग होती हैं जिनसे पेड़ों को पहचाना जा सकता है, उनकी डालियों के बढ़ने और आकारों आदि की वे अक्सर चर्चा करते थे। मुँड़ेर पर बैठी गिलहरी या आँगन में पड़ते धूप-छाँही के रेखाचित्रों के सौन्दर्य तथा उनके साथ गोया कोई आत्मीय रिश्ता हो कुछ इस तरह उन पर वे जब बोलते थे तो मैंने मानों पहली बार जाना कि 'कवि' किसे कहते हैं। शमशेरजी के पास इस तरह की इतनी बातें थी और उनको इस तरह सुनते हुए मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि धीरे-धीरे मैं सौन्दर्य-शास्त्र में दीक्षित हो रही हूँ। अपने आस-पास के परिवेश को कितनी बारिकी से किस तरह देखना चाहिए यह भी शमशेरजी के साथ की हुई प्रातः-चाल का ही परिणाम है।<br />लेकिन उज्जैन में चाहे आत्मीय ही सही, पर थी तो मैं एक मेहमान ही।<br />4<br />शमशेरजी का कार्यकाल जिस अप्रैल( 1985) में पूरा होने वाला था और नरेश मेहता आने वाले थे , मैं उनसे मिलने चली गई। मैंने सोचा था उनसे मिलते हुए फिर मैं कहीं घूमने निकल जाऊंगी , क्योंकि गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ने वाली थीं। मेरा एक स्वप्न था कि नौकरी करूंगी और छुट्टियों में भारत-भ्रमण का कार्यक्रम। पर सब कुछ बदल गया। शमशेरजी उज्जैन में नहीं थे। प्रेमलता वर्मा अपनी बेटी श्रुति के साथ आई हुईं थीं और शमशेरजी उनसे मिलने दिल्ली गए हुए थे। उनके नौकर रणजीत ने बताया कि वे दो-चार दिनों में आ जाएंगे । वह ख़ुद भी बाहर जाने वाला था। मैंने सोचा कि मैं रुक ही जाऊं और उनसे मिल कर फिर चल दूंगी। शमशेरजी आए। पर भयंकर लू लगने से बीमार। फिर तो सारा कार्यक्रम ही उलट-पुलट गया। रणजीत भी चला गया था। मैं वहीं रुकी। इस बीच नरेशजी भी आ गए थे। पीठ का कार्यभार संभालने के लिए। पर शमशेरजी इतने बीमार थे कि उनका जाना संभव नहीं था। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है उनके स्वजनों को मेंने चिट्ठी लिखी कि वे आ कर शमशेरजी को ले जाएं। पर नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था। मैंने भी सोचा कि शमशेरजी ने कहा भी था , सो मैं ही उन्हें ले जाती हूँ। फिर ठीक होने पर जैसी उनकी मर्ज़ी।<br />लेकिन उन दिनो उज्जैन में अपनी तीमारदारी के चलते मैंने काफ़ी अ-प्रियता कमा ली थी। डॉक्टर ने उन्हें पूरा आराम करने के लिए कहा था। पर स्वयं शमशेरजी और उनके मिलने वाले( जो उन्हीं की तरह थे) डॉक्टर की सलाह से बहुत वाक्फियत नहीं रखते थे। मुझे एक कड़ी नर्स का रोल करना पड़ा था। उसी समय यह गुनगुनाहट मैंने सुन ली थी कि 'रंजना ने शमशेरजी पर जैसे कब्ज़ा कर लिया है।' पर आप अगर नर्स हैं तो नर्स हैं। शमशेरजी से जब उनके लोग मिलने(समय-अ-समय) आते थे और मेरी रोक का सामना करते थे, तो वे ही नहीं, शमशेरजी स्वयं भी नाराज़ होते थे। पर बाद में कहते थे कि तुम बहुत अच्छा कर रही हो। मेरी रोक पर शमशेरजी की नाराज़गी तो लोगों ने देखी, पर बाद में जो वे कहते वो तो केवल मैं जानती थी। जंगल में मोर नाचा....। लेकिन मेरे लिए तसल्ली की बात यह थी कि डॉक्टर प्रसन्न थे और शमशेरजी ठीक हो रहे थे। लू से परेशान, अपनी स्थिति का बयान शमशेरजी इस तरह करते थे—'जैसे सिर में सैंकड़ो-सैंकडों चूरे हुए काँच के टुकड़े भरे हुए हों और वे चुभ रहे हों, इस तरह पीड़ा हो रही है।' इंतज़ार करने के बाद जब कहीं से कोई न आया, न ख़त ही मिला तो मैंने शमशेरजी के सामने यह प्रस्ताव रखा कि आप अपना सामान तो वैसे भी मेरे यहाँ रखने वाले थे, तो क्यों न आप अभी मेरे साथ चले चलिए, फिर ठीक होने पर जैसा अपको उचित लगे, कीजिए। शमशेरजी को यह बात जँच गई। पर उन्होंने एक शर्त रखी थी। मैं तुम्हारे साथ तभी आऊंगा जब मकान का किराया मैं दूंगा। मुझे पहले तो हँसी आई। मैंने पूछा इससे फ़र्क क्या पड़ता है। उन्होंने इसका कोई कारण तो नहीं बताया पर अपने आग्रह पर वे अटल रहे। मैंने सोचा यह बात बीच में नहीं आनी चाहिए, अतः मैंने उनकी बात मान ली। फिर जब उस पर मैंने सोचा तो मुझे लगा कि इसका संबंध उनके स्वाभिमान और स्वतंत्रता की भावना से है। वे मेरे घर में नहीं रहना चाहते थे पर अपने घर में मुझे रखना चाहते थे। मुझे यह बात अच्छी भी लगी और समझ भी आ गई क्योंकि मेरे अपने घर में शमशेरजी से कम-से-कम 10-12 वर्ष बड़े दादाजी थे। अतः शमशेरजी की बात मुझे स्वाभाविक भी लगी।<br />5<br />मैं उस दुर्भाग्यपूर्ण शाम को नहीं भूल सकती जब पहली बार शमशेरजी को डिमेन्शिया का दौरा पड़ा। हम सुरेन्द्रनगर में थे और रोज़ की तरह शाम को टहलने निकले थे। शमशेरजी अभी अपने लू के प्रभाव से नाज़ुक हुई तबीयत से पूरी तरह उबरे नहीं थे। चलते-चलते अचानक उन्होंने कहा अब घर चलना चाहिए। मैंने कहा ठीक है। फिर उन्होंने कहा कि देखो घर जल्दी चलो कितने सारे तोते उड़ रहे हैं। मैंने देखा, एक भी नहीं था। फिर मैं समझी कि मज़ाक़ कर रहे हैं। मैंने पूछा कहाँ हैं। तो उन्होंने कहा देखो सब जगह। मैं थोड़ी घबराई। मैंने पूछा कहाँ। तो ऊपर इशारा किया और चलने लगे। मैंने भी कहा चलिए। पर थोड़ी चिंता हुई। पर चिंता बढ़ी तब, जब हम घर पहुँचे। घर पहुँचे तो उन्होंने कहा चलो घर चलें। मैंने कहा घर तो आ गया है। कहने लगे कि नहीं घर चलो। अब तो मेरे ही मानों तोते उड़ गए। मेरी कुछ समझ में नहीं आया पर इतना मैं जान गई कि कुछ गड़बड़ है। मैने सोचा कुछ देर इंतज़ार ही कर लिया जाय। हो सकता है यह स्थिति देर तक न भी रहे। । थोड़ी देर के बाद उन्होंने रंग और कागज़ माँगा, और कुछ बनाने लगे। मैंने देखा कि उनका हाथ अस्थिर था, रेखाएँ ठीक से बन नहीं रहीं। लिखावट अस्पष्ट-सी। जो बन रहा था वह मेरी समझ से परे था। मैंने पूछा कि क्या बना रहे हैं। कहने लगे तोते.... उड़ रहे हैं। वही बना रहा हूँ। हरी स्केच पेन से बनी वे रेखाएं मानों आने वाले विकट समय का मानों संकेत थीं। अब मेरा दिल बैठ गया। डॉक्टर को बुलाया। उन्होंने कंपोज़ दे कर सुलाया। और कहा कि चिंता न करें, सुबह तक ठीक हो जाएगा । कुछ हो, तो बुला लेना। तब फोन की सुविधा नहीं थी। यहाँ शमशेरजी घर में अकेले। और मैं निपट अकेली। सोचा एक पत्र अशोकजी को लिखूँ, लिखा भी पर पोस्ट नहीं कर सकी। अशोकजी से मेरी कोई आत्मीयता या कोई गहरा परिचय तो था नहीं, पर मुझे इतना पता था कि शमशेरजी को उन पर भरोसा था और वे शमशेरजी का बेहद आदर करते थे।<br />शमशेरजी स्वस्थ रहें यह मेरी ज़िम्मेदारी थी ; पर उन पर मेरा ऐसा कोई सामाजिक या अन्य अधिकार वाला रिश्ता नहीं था कि मैं जो चाहूँ कर सकूँ- साहित्यिक-समाज के प्रति मेरी एक जवाबदेही भी बनती थी। मुझे याद है वह प्रसंग एक दिन जब सुबह की प्रात-चाल में मैं शमशेरजी के साथ थी। रास्ते में एक बुज़ुर्ग मिले जिन्होंने पैनी दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए शमशेर जी से पूछा- ये कौन हैं आपकी। शमशेरजी ने तुरन्त कहा –बान्धवी। बुज़ुर्ग महाशय बान्धवी शब्द के अर्थ की चर्चा देर तक करते रहे। खैर। यही वह संबंध था, जिसे शमशेरजी ने अपने तई तय किया था। पर मैंने तो ऐसा कुछ भी तय नहीं किया था। उनके साथ अपने जुड़ाव को मैं एक ऋणानुबंध मानती रही हूँ जो पूर्व-जन्म के किसी अ-जाने शेष संबंध की पूर्ति था। इसे आप मेरी मान्यता और प्रतीति का सच कह सकते हैं, वैज्ञानिक सच तो यह नहीं ही कहा जा सकता। न ही यह कोई साहित्यिक सच था। पर उस समय इससे कोई फ़र्क तो पड़ता नहीं था क्योंकि तब ज़रूरी यह था कि शमशेरजी को जल्द-से-जल्द स्वस्थ करना है। परन्तु दूसरा दिन तो अधिक चिंता-भरा था शमशेरजी लगभग उसी स्थिति में रहे। वे किसी को पहचान नहीं रहे थे। मेरा नाम भूल गए थे। उन्हें याद नहीं था कि वे कहाँ हैं। न अपने भाई तेजबहादुर का उन्हें कोई स्मरण था, न ही शोभादीदी का। बस अपनी एक भांजी का उन्हें स्मरण था।<br />क्या करूं क्या न करूं ...सोचने हुए मैं तब पहली बार पोस्ट – आफिस गई और श्री अशोक वाजपेयी जी को फोन किया। अशोकजी तब भोपाल में थे। उन्होंने मध्य-प्रदेश सरकार के माध्यम से गुजरात सरकार से कह कर शमशेरजी के इलाज की उत्तम व्यवस्था करवा दी। तब हमारे यहाँ राज्यपाल डॉ स्वरूप सिंह थे। शमशेरजी की मृत्यु पर राज्यपाल के यहाँ से पुष्पांजलि आई थी, जिससे यहाँ के साहित्यकारों के बड़ा आश्चर्य हुआ था।<br />यह 1985 की बात है। 1985 से ले कर 1992 तक शमशेरजी की तबीयत ऐसी ही रही- कभी कम कभी ज़ियादा। उन दिनों की बात करना मुझे हमेशा ही कष्टकर लगता है। पर आज भी मुझे सोच कर कई बार हँसी भी आती है कि वे मुझे क्या-क्या नहीं समझते थे। कभी किसी ऐंबेसी में काम करती कोई सेक्रेटरी, कभी नरेन्द्र शर्मा, कभी मिसेस नरवणे ..... वे स्वयं कभी इलाहाबाद, कभी दिल्ली कभी बम्बई होते। उनके साथ जैसी बातचीत होती मैं समझ जाती आज शमशेरजी किस शहर में हैं। कई बार दिनों तक अंग्रेज़ी में बोलते थे, तो कई बार मुझे लगता था कि गोया मैं किसी नाटक के पात्र से बात कर रही हूँ। किसी तीसरे व्यक्ति को इस बात का अहसास तक नहीं हो पाता कि शमशेरजी मानसिक रूप से कब किस शहर में हैं और दूसरे को वे क्या समझ रहे हैं। देश और काल से परे कवि अपने ही वंडर लैंड में मज़े से जी रहे थे। कभी अचानक कहते कि रंजना मैं हिस्ट्री डिपार्टमैंट जा रहा हूँ। मैं पूछती कहाँ है। तो जैसे मैं उनके साथ कोई खेल न कर रही होउँ और उन्होने भाँप लिया हो, इस तरह हँस देते और आगे चल पड़ते। सामने का बंद दरवाजा वे खोल नहीं पाते अतः थोड़ी देर वहीं रुक कर वापस कमरे में चले जाते।<br />उन दिनों मैं जिस घर में रहती थी वह तीन कमरों का छोटा-सा मक़ान था। उसके चारों ओर बगीचे की खुली जगह थी। मैं घर तो खुला रखती थी पर बगीचे के फाटक पर ताला लगा देती थी। एक दिन दोपहर को कॉलेज से घर आई और बगीचे के दरवाज़े का ताला खोल कर अंदर गई। घर खुला था। अंदर जा कर देखा तो शमशेरजी कहीं नहीं थे । ढूँढते हुए बाहर आई तो देखती हूँ- 'पत्र हीन नग्न गाछ' की मुद्रा में खड़े कुछ सोच रहे थे। मैं हतप्रभ। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ। मैंने पूछा यहाँ क्या कर रहे हैं। तो मेरी ओर देख कर मुस्कराए और कहा कि सोचता हूँ लायब्रेरी चला जाऊँ। मैं कहने को थी कि आप... पर सोचा कि जो अपने वंडरलैंड में जी रहा है उसे इस दुनिया के रीति-रिवाज़ों से क्या लेना देना। मैंने कहा हाँ, चलिए। फिर उन्हें घर के भीतर ले आई। दरवाज़ा बन्द किया। पर मुझे ईमानदारी से कहना चाहिए कि बाहर से अन्दर आते हुए मैंने आस-पास देख लिया था कि लोग अपने मक़ानों के बाहर तो नहीं हैं। उस दिन के बाद से मैं कॉलेज जाती थी तो घर को ताला लगा कर जाती थी। यह मुझे अच्छा नहीं लगता था अतः एक ऐसे मक़ान की खोज करती रही जो बन्द होने पर भी खुलेपन का अहसास दे और सुरक्षित भी हो। ऐसा घर मुझे मिल भी गया जिसके पिछवाड़े बड़ा सा आँगन था और बरामदा जालियों वाला; ताकि ताला बन्द करने पर भी शमशेरजी को यह प्रतीत न हो कि वे बन्द हैं।<br />इसके बाद वह समय भी आया कि शमशेरजी लगभग पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे। हाँ बुढ़ापा अपने साथ कई तरह की तकलीफ़ें लाया था। फिर डिमेंशिया और पार्किन्सन्स के कारण जो ब्रेन सेल में नुक़सान हो गया था वह तो अपनी जगह था ही। पर मुझे तो याद आता है शमशेरजी का वह बच्चों-का सा हँसना, मज़ाक़ करना और लगातार नई नई भाषाओं को पढ़ने के सपने देखना और योजनाएं बनाना।<br />सुरेन्द्रनगर के दिनों में कुछ युवा लोगों का एक ग्रुप बन गया था। हम लोग हर गुरुवार को मिल कर शमशेरजी की कविताओं को गाते थे। हमारे एक मित्र मुकेश पंचोली का स्वर बहुत अच्छा था । यों मुकेश चित्रकार थे। इसके पहले वे दुष्यन्त की ग़ज़लें और गुजराती के कवियों की कविताओं को स्वर-बद्ध कर चुके थे। शमशेरजी की भाषा और उर्दू के उच्चारणों की चुनौति स्वीकार करते हुए छोटे से शहर में रहने वाले गुजराती भाषी मुकेश ने कई ग़ज़लें और कविताएं अलग-अलग अंदाज़ मे स्वर-बद्ध की हैं। उस हमारे पूरे मजमें में कई ऐसे लोग भी थे जिन्हें न हिन्दी साहित्य का परिचय था न ही इस बात का पता था कि शमशेरजी का हिन्दी साहित्य में क्या स्थान था और वे यहाँ क्यों हैं आदि। वे तो यही मानते थे कि बापाजी की ग़ज़ल बहुत अच्छी है। उनमें एक टेलीफोन ऑफ़िस का कर्मचारी था जो तंदुरुस्त कद-काठी का था और एक कपास का सामान्य व्यापारी जो बिहारी की नायिका की तरह न दिखने वाला। कपास के इस व्यापारी को बीड़ी पीने का शौक़ था और गाने सुनते हुए तो विशेष। बीड़ी का धुआँ तो दिखता था पर पीने वाला नहीं क्योंकि वह तंदुरस्त कद-काठी के पीछे छिप कर धूम्रपान का आनंद लेते थे। शमशेरजी के लिए यह बड़ी हैरानी की बात थी कि धुँआ तो दिख रहा है, बू भी आ रही है पर उसका स्रोत कहीं दिखाई नहीं दे रहा। वे परेशान हो कर यहाँ-वहाँ देखते पर समझ नहीं पाते। बाक़ी सब शमशेरजी की परेशानी समझते थे और मुस्कुराते भी थे । पर शमशेरजी ने इस बारे में कभी कुछ नहीं पूछा। न उस समय न बाद में कभी मुझे। उनकी समस्या यह नहीं थी कि बीड़ी क्यों पी जा रही है या कौन पी रहा है। पर जो हो रहा है वह उन्हें दिख नहीं रहा है। इन सभी सामान्य लोगों से शमशेरजी बड़ी आत्मीयता और आदर से मिलते थे। एक अर्थ-शास्त्र का विद्यार्थी भी था, मेरी एक सहेली और प्रवीण जो उस समय गुजराती कविता और नाटक के क्षेत्र में सक्रीय थे। नियमित रूप से कई वर्षों तक यह हमारी संगीत-मजलिस चला करती जिसमें शमशेरजी अपनी कविता-गान के प्रथम श्रोता थे क्योंकि बाक़ी सब गाते थे। उन्हें निश्चय ही अच्छा लगता था और इसीलिए वे मुकेश के प्रति उनका विशेष स्नेह था। उस पूरे दौर में मेरी भूमिका यह रहती थी कि मैं इन मजलिसों का सातत्य बनाए रखूं क्योंकि इन क्षणों में शमशेरजी को बड़ा आनंद मिलता था। शमशेरजी की मृत्यु के बाद भी कई वर्षों तक उनकी स्मृति में हर 13 जनवरी को हम मिल कर उन्हे गाते रहे। इन्हीं में मेरी माँ भी शामिल रहती, जब कभी वे मुझसे मिलने सुरेन्द्रनगर आतीं। शमशेरजी इस पूरी प्रकिया में हर व्यक्ति की विशेषताएं भी पहचान लेते थे। और हर व्यक्ति से उसी तरह बात भी करते। मुकेश से बात करने का उनका भाव जहाँ सम्मान से भरपूर था वहीं प्रवीण से बात करते थे तो लगातार उनके भीतर के नाटककार को चुनौति देते हुए और हवा से ज़मीन पर लाने की कोशिश करते हुए। असल में आने वाले संभवित ख़तरों से बचाने की कोशिश करते हुए, जिसको प्रवीण उस समय शायद न पहचान पाए हों पर बाद में उसकी व्यंजना और महत्व समझ गए।<br />मैं उस शहर में थी तब अविवाहित थी। अतः ऐसे कई लोग मुझसे मिलने आते थे जो बड़ी शराफ़त से टाईम-पास करने की कोशिश करते थे। मैं परेशान भी रहती थी। एक बार मैंने शमशेरजी से इस विषय में कहा। शमशेरजी चाहे बीमार और अस्वस्थ थे पर जैसे मेरी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी हो इस तरह वे उन लोगों से निपटते भी थे। एक बार देर रात को दो सज्जन मेरे घर आए। वे बैठे ही थे कि शमशेरजी अपने कमरे से बाहर आए और कहा- बहुत देर हो गई है , अब सोने का वक्त हो गया है। आप फिर कभी आएँ। उसके बाद इस संकट का मुझे सामना नहीं करना पड़ा।<br />शाम के समय अकेलेपन का अहसास शायद सबसे तीव्र होता होगा, इस बात को मैं शमशेरजी के साथ रहते हुए समझ सकी थी। उनका किसी बात का कोई आग्रह नहीं रहता था पर जैसे निवेदन के स्वर में वे कहते थे कि रंजना तुम शाम को कहीं जाया मत करो। एक बार मैंने कारण पूछा तो बड़े अनमने स्वर में कहा एक अजब किस्म की घबराहट होती है।<br />दिवाली और गर्मियों की छुट्टियों में हम प्रायः बडौदा चले जाते थे। अतः पूरे घर को व्यवस्थित कर के, बन्द करना एक बड़ा काम होता था। उस घर में बहुत खिडकियां थीं और एकाध भी खुली रह जाती तो कबूतरों की वंश-परम्परा का आरंभ हो जाता था। अतः एक बार मैंने यह आग्रह किया कि कबूतरों को उड़ा कर खिड़कियां पूरी तरह बंद कर दूं। शमशेरजी ने ठीक है..... पर अभी इस घोसलें में बच्चे हैं। उन्हें बड़ा हो कर उड जाने दो। मैंने कहा कि इनके उड़ने से पहले तो दूसरे अंडे तैयार होंगे। हाँ, यह तो है। पर खिड़कियां बन्द करने पर इन्हें दाना कौन डालेगा। मैंने तर्क तो किया पर अचानक मुझे ध्यान आया कि मैं एक कवि के साथ हूँ। कई बार ऐसा होता है कि आप व्यवस्था में इतने मुस्तैद हो जाते हैं कि जिन बातों का महत्व है उन्हीं का विस्मरण हो जाता है। मेरी चिंता घर गंदा होने की थी और उनकी चिंता कबूतरों के बच्चों की जान को ले कर थी। शमशेरजी के साथ होने का मतलब केवल धूप चिड़िया की बात करना नहीं पर उनकी संवेदना को व्यावहारिक स्तर पर खरा भी होते हुए देखना था, इस बात को मुझे समझना बाक़ी था। उसके बाद मैंने ऐसी कोशिश नहीं की।<br />शमशेरजी से मिलने हिन्दी के कई अनाम और नामी गिरामी लोग सुरेन्द्रनगर आए। ख़त आता और मैं कहती शमशेरजी फलाँ आ रहे हैं। ऐसे ही एक बार एक ख़त आया और शमशेरजी ने कहा रंजना किताबें ताले में रख दो और ज़रा देख लेना कि मेरी पांडुलिपियाँ कहीं बाहर तो नहीं हैं। मैं चौंकी। फिर उन्होने मुझे एक क़िस्सा सुनाया कि कैसे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार उनके घर आए थे। वे ग़ुसलख़ाने में थे। उनके बाहर आने तक तो वे सज्जन जाने की तैयारी कर चुके थे। ग़ुसलख़ाने से निकलने के बाद उन्होंने देखा कि उक्त सज्जन अपने कुर्ते के भीतर कुछ छिपा कर ले जा रहे हैं। वे इस मुग़ालते में थे कि शमशेरजी की नज़रें तो कमज़ोर हैं, उन्हें पता नहीं चलेगा। फिर शमशेरजी ने पड़ताल की तो पता चला कि किसी उर्दू कवि की पांडुलिपि जो शमशेरजी को देखने के लिए दी गई थी वह नदारद थी। बड़े नामों के छोटे कामों से मेरा परिचय यूं हो रहा था।<br />एक बार अज्ञेयजी का पत्र मेरे नाम आया । वत्सल निधि की ओर से उन्हें वे कुछ आर्थिक मदद करना चाहते थे। शमशेरजी की रुचि अज्ञेयजी से मिलने की थी। पर अफ़सोस, वह दिन नहीं आ सका क्योंकि जिस दिन अज्ञेयजी आने वाले थे, उसके कुछ दो-चार दिन पहले ही उनका अवसान हो गया। बाद में इलाजी आईं थीं। अज्ञेयजी के प्रति शमशेरजी के मन में बड़ा आदर था। इस बात को वे लिख भी चुके हैं। मुझे तो इन तमाम वर्षों में एक बात बड़ी विलक्षण लगी कि ताले वाले प्रसंग और एकाध कोई और प्रसंग होगा कि शमशेरजी ने ऐसी बात कही होगी । पर मैंने उन्हें किसी की भी निंदा करते हुए नहीं सुना। यह आश्चर्य की ही बात है क्योंकि चौबीस घंटो कोई साथ हो और निंदा रस का अभाव हो- यह अविश्वसनीय बात ही है।<br />उन्होंने अपने शेष जीवन का प्रोग्राम बना रखा था कि कौन-कौन सी किताबें पढ़नी हैं। हम लोगों ने सूरसागर, रामचरित मानस आदि का संयुक्त वाचन किया था। शेक्सपीयर–समग्र का जो एडिशन मेरे पास था वह दूसरी बार बाईंड किया हुआ था। एक दिन देखती हूँ शमशेरजी पन्ने अलग कर कर के पढ़ रहे हैं। मुझे देखते ही कहने लगे ऐसे पढ़ने में बड़ी सुविधा है। किताबों में ऐसी ज़िल्द होनी चाहिए कि आप मोड़ कर भी बड़े आराम से पढ़ सकें। ऐसी एक किताब उनके पास थी भी। पकड़े जाने पर शैतानी करता हुआ बच्चा जिस तरह की सफ़ाई देता है कुछ वैसी मुद्रा शमशेरजी की अक्सर हो जाती। एक बार जब वे उज्जैन में थे और मैं मिलने गई थी तो कहने लगे कि तुम्हें पता है यह मेरा संस्कृत हिन्दी शब्द कोश पुकार पुकार कर कह रहा था कि मुझे रंजना के यहाँ जाना है। अच्छा हुआ तुम आ गईं। तुम ले जाना। एक बहुमूल्य पुस्तक की प्राप्ति की अपेक्षा उसे मुझे देने का उनका अंदाज़ इतना विलक्षण और अमूल्य लगता है कि मेरे पास कोई शब्द नहीं कि मैं बयान कर सकूं। ग़ालिब की ग़ज़लें और ऋग्वेद की ऋचाएं उनके नियमित पाठ का हिस्सा थे। अंत तक इन दो पुस्तकों को तो वे पढ़ते ही थे। ऋग्वेद पढ़ना आस्था का आदर करना, मार्क्सवाद के नियमों में आता है या नहीं , मैं नहीं जानती पर जो सच है वह तो यही कि शमशेरजी ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में केवल और केवल गायत्री मंत्र सुनना और बुदबुदाते हुए उसका पाठ करना चुना था। उनकी डायरियों में भी इन मंत्रों को समझने की कोशिशें दिखाई देती हैं। असल में शमशेरजी ऋग्वेद को भी एक कलाकार की दृष्टि से ही समझना और पढ़ना चाहते थे, पढ़ते भी थे।<br />6<br />शमशेरजी को खिलाने का शौक़ तो था ही पर अच्छी चीज़ें खाने का भी शौक़ था। मिठाई, हलुआ, रबड़ी, जलेबी फल (ख़ास तौर पर आम और फिर पपीता और केले) दूध, शहद, हल्दी... इन सब का सेवन वे बड़े मज़े से करते। शहद वे इस तरह खाते कि शहद की बोतल को मुँह से लगा लेते। अपनी प्रिय वस्तुओं के सेवन के बाद उनके चेहरे पर जो आनंद और संतोष मैंने देखा है , इन भावों का इतना निर्मल स्वरूप मैंने कम लोगों में देखा है। हलुआ तो उन्हें इतना प्रिय था कि अगर वे सो रहे होते तो हलुए की ख़ुशबू जैसे उनकी नींद में चली जाती और वे उठ जाते। एक बार इसी तरह हम सहेलियाँ जाग कर काम कर रही थीं । रात को भूख लगी सो सोचा हलुआ बनाएँ। शमशेरजी तो सो रहे थे, हम यह सोच रही थीं कि अगर जागते होते तो अवश्य ही ख़ुश होते। थोड़ी देर में देखते हैं कि शमशेरजी कमरे के दरवाज़े पर खड़े हैं और बड़े भोलेपन से कह रहे हैं कि मुझे सपने में हलुए की खुशबू आई और मैं जाग गया। हम जी भर कर हँसे।<br />शमशेरजी की आम-प्रीति तो आज भी हमारे घर में याद की जाती है। प्रत्येक गर्मियों में शमशेरजी को याद करते हुए आम खाना हमारे घर की आदत में शामिल हो गया है। अच्छे भोजन की तरह उत्सवों और ऋतुओं के प्रति शमशेरजी के मन में हमेशा उत्साह रहता था। उनके चेहरे पर उत्सव का आनंद दिखाई पड़ता था। चाहे होली हो, दिवाली हो या ईद। होली पर रंगों में रंग जाना उन्हें प्रिय था। वे टेसू के फूलों के रंग से अपने को और दूसरों को बड़े प्यार से रँगते थे। दिवाली पर रँगोली बनाना और दिए के शीतल प्रकाश में आत्मस्थ होने के दृश्य मुझे भूलते नहीं। हम लोगों में दिवाली उस तरह नहीं मनती जैसे उत्तर प्रदेश में। पड़वे के दिन घर के पुरुषों को सुबह तेल की मालिश करना फिर उबटन से नहलाना...यह हमारे घर की परंपरा है। शमशेरजी जिन वर्षों में साथ थे और जिस दिवाली पर हम सब साथ होते तो माँ, बहन, भाभी और मैं.... हम सभी उन्हें तेल की मालिश करते। वे इस रिवाज़ में भी उतना ही आनंद लेते और कहते यह तो बहुत अच्छा रिवाज़ है। सभी जगह ऐसा ही रिवाज़ होना चाहिए। संभवतः इसका कारण यह होगा कि वे स्वयं मालिश प्रेमी थे। उनकी बनाई रंगोली मेरी स्मृति के साथ-साथ एक तस्वीर में भी क़ैद कर रखी है मैंने। वर्षा और वसंत शमशेरजी की प्रिय ऋतुएं थीं। मुझे लगता है वसंत ऋतु में पीले कपड़े खरीद कर पहनने की आदत मुझे शमशेरजी के साथ रहते हुए ही पड़ी है। मुझे ही क्यों, आज भी मेरी माँ और बहन मुझे पूछती हैं हर वसंत पंचमी पर कि इस बार क्या खरीदा।<br />7<br />दस वर्ष कम नहीं होते किसी के साथ रहते हुए, विशेष कर जो वर्ष आपके जीवन के सबसे अहम् वर्ष हों। मझे ख़ुशी इस बात की है कि इन वर्षों में मैंने जीवन और जगत के विभिन्न रूप देखे और उन्हें समझने का तरीक़ा भी सीखा। इन वर्षों में शमशेरजी के साथ रहते हुए मेरे भीतर का स्पेस उनकी उपस्थिति से कितनी दूर तक भर गया था उसका अहसास मुझे तब हुआ जब 12 मई 1993 की शाम को शमशेरजी इस दुनिया से विदा ले कर दूसरी दुनिया की राह पर चल पड़े थे और हम शेष लोग घर लौट आए थे। आज मई की शाम अकेली.... मेरे भीतर के उस खालीपन और अकेलेपन को अपने अलावा मेरे दादाजी की आँखों में झांकता हुआ भी मैंने देखा था। इन वर्षों में अगर शमशेरजी अपना जीवन सुख से बिता पाये थे तो उसके लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार थे। उनकी ज़िन्दादिली और जीवट ही उन्हें सुख से जिला रहे थे, जिसको बनाए रखने में मुझे मेरे परिवार का सहयोग मिला और उनकी अगर तीमारदारी मुझसे हो सकी तो इसके लिए अपने परिवार के अलावा मित्रों का साथ मुझे हमेशा याद रहेगा। शमशेरजी ने एक बार मुझसे कहा था कि माँ की मृत्यु के बाद परिवार का सुख मुझे यहीं तुम्हारे परिवार में मिला है। उनके इस भाव के लिए हमारा परिवार हमेशा ही अपने को सौभाग्यशाली मानता है।<br />शमशेरजी की कई तरह की यादें मेरे भीतर सोई पड़ी हैं...पर आज के लिए बस इतना ही।<br />धन्यवाद।<br /><br /></div></span>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-42600809565153248472010-11-22T06:12:00.000-08:002010-11-22T06:21:09.510-08:00<div align="justify"><br /><span style="color:#333333;"><strong>सावन<br /></strong></span><strong><span style="color:#000066;">मैली, हाथ की धुली खादी<br />सा है<br />आसमान ।<br />जो बादल का पर्दा वह मटियाला धुँधला-धुँधला<br />एक – सार फैला है लगभग :<br />कहीं - कहीं तो जैसे हलका नील दिया हो ।<br />उसका हलकी-हलकी नीली झाँइयाँ<br />मिटती बनती बहती चलती हैं। उस<br />धूमिल अँगनारे के पीछे, वह<br />मौन गुलाबी झलक<br />एकाएक उभर कर ठहरी, फिर मद्धिम हो कर मिट गई :<br />जैसे घोल गया हो कोई गँदले जल में<br />अपनी हलकी-मेंहदी वाले हाथ<br /><br />मैली मटियाली मिट्टी की चाक<br />भीगी है पूरब में<br />------ सारे आसमान में<br /><br /><br />नीली छाया उसकी चमक रही है<br />जैसे गीली रेत<br />( यह जोलाई की पंद्रह तारीख है :<br />बादल का है राज)<br />या जैसे , उस फ़ाख़्ता के बाज़ू के अंदर का रोआँ<br />कोमल उजला नीला<br />(कितना स्वच्छ !)<br />जिसको उस शाम हमने मारा था !<br />*<br />सावन आया है :<br />ख़ूब समझता हूँ मैं<br />सावन की यह पलकें<br />मूँद रही हैं मुझको<br />(सिंह श. ब., प्रतिनिधि कवताएँ) <br /><br /><br /></span><span style="color:#993300;">इसका मतलब तो यह हुआ कि हमने मान लिया है कि शमशेर के शब्दों की काया बिम्ब-स्वरूप है। यहाँ दो सवाल हैं- पहला यह, कि शमशेर, यानी कि कवि के शब्दों की काया बिम्ब के अलावा भी कोई है? हो सकती है? अगर है, तो कवि-शब्द की काया के कितने स्वरूप होते हैं? दूसरा सवाल है कि क्या ऐसा कहना यानी शमशेर की कविता पर अपनी सोच को मर्यादित करना है ? क्या यह शमशेर के काव्य की प्रशंसा है अथवा उसकी यथा-तथता? या फिर कहीं हम बिम्बों के माध्यम से उनकी कविता के उस बिन्दु तक तो नहीं पहुँचना चाहते हैं, जहाँ से हम उनकी कविता को समझने की प्रक्रिया मे आते हैं? आज की अपनी बात को मैंने इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द रखने का प्रयत्न किया है।<br />इन सारे प्रश्नों की पृष्ठभूमि में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का 'कविता क्या है' निबंध का यह कथन तो है ही- "काव्य में मात्र अर्थ-ग्रहण से काम नहीं चलता, बिम्ब ग्रहण अपेक्षित होता है"। (रामचंद्र शुक्ल, 1998) अर्थात् बिम्ब ही कविता का वह तत्व है जो उसको कविता के रूप में पहचान देता है।<br />1<br /><br />किसी भी कविता में, प्राथमिक स्तर पर, शब्द सुना और देखा जाता है। इसे थोड़ा और विस्तार दें तो शब्द छुआ भी जाता है और समझा भी जाता है। इसके बाद के स्तर पर अगर श्रवणेन्द्रियों से होता हुआ शब्द, मधु-सा टपकता है तो मीठा लगता है और तीखा हो तो कडुआ, तीता। यों कवि के शब्दों की काया दृश्य के अलावा ध्वनि हो सकती है , प्रज्ञा हो सकती है। प्रतीक या मिथक भी हो सकती है, जहाँ पहुँच कर शब्द संस्कृति बनता है। लेकिन शब्दों के खरदुरे या मुलायमियत होने का अनुभव अथवा उसके मीठे-तीते का अनुभव करना और कराना एक विशेष कौशल है । यह कौशल ही उसे छलावा भी बनाता है। जो जैसा नहीं है , उसे वैसा बताना एक ऐसा छलावा है जो मनुष्य न जाने कब से बड़े शौक़ से किये जा रहा है और इस पर किसी को कोई गंभीर आपत्ति भी नहीं है। इस बीच आपत्ति उठाने वाले प्लेटो आदि से ले कर यथार्थवादियों की एक लम्बी परंपरा भी आ गई । परन्तु इससे कोई बहुत फर्क पड़ा हो ऐसा नहीं है। साहित्य भी तो, अधिकांशतः, जो जैसा नहीं है उसे वैसा बताता है। यह छलावा उसके कलात्मक होने भर से नहीं सिद्ध होता; अपने आदर्श और यथार्थ रूप में भी साहित्य छलावा तो है; असल में अनुभव का साहित्य में रूपांतरण होना ही उसे छलावा बनाता है। रूपांतरण यानि जो जैसा है उससे कुछ अलग बताना यानि छलावा। इसीलिये, तमाम तर्कों और हक़ीकतों के बावजूद साहित्य कला है, कला है और कला है। वह कुल जीवन तो नहीं है आपका, न ही कुल समाज, न कभी वह ऐसा था ! साहित्य और जीवन के संदर्भ में कौन किससे बड़ा है या छोटा है – यह प्रश्न नहीं है। किस को किस की तरह होना चाहिये या नहीं होना चाहिये, यह भी प्रश्न नहीं है। प्रश्न तो यह है कि यह जो रचनाकार है , वह जिस शब्द का प्रयोग करता है, वह उसके रचना-तंत्र(क्रिएटिव सिस्टम) में किस रूप को धारण करके कविता आदि के विश्व में अपनी जगह बनाता है। वह प्राथमिक रूप से क्या है और रचना प्रक्रिया से गुज़रते हुये कालांतर में समझ के किस स्तर पर उसके रूप में क्या परिवर्तन होता है। प्रश्न तो ये हैं ।<br />यह तो सहज है कि आप क्रमशः पहली फिर दूसरी फिर तीसरी....यूं सीढ़ियाँ चढें। ऐसा भी हो सकता है कि आप पहली के बाद पाँचवी फिर आठवीं फिर दसवीं.... यूं कूदते लाँघते चढ़ जाएँ। पर ऐसा सोचना, करना और देखना भी घबराहट भरा हो सकता है कि आप पहली के बाद आठवीं फिर चौथी फिर बारहवीं फिर नौवीं....यूं चढ़ें। अर्थात् – कविता को पहले आप सोचें और फिर देखें और फिर समझें और फिर सुनें और फिर पढ़ें.... । आपको पहले या तो कविता दिखाई पड़ेगी या सुनाई, तभी आप समझ और सोच सकते हैं। पर शमशेरजी की कविता तो....? बादलों की सीढ़ियों के उलझे पुलझे पथों पर चढ़ना उतरना है- ऐसा अगर कहेंगे तो यह शमशेरजी की कवि-शक्ति की निंदा नहीं है बल्कि यह उनकी कविताओं की एक पहचान भी है। कविता का रास्ता राजमार्ग तो नहीं है कि बिना धूल-धक्कड़ के साफ़ सुथरे आप निकल जाएं- जैसे राजधानी के फर्स्ट ए.सी में सफ़र किया हो।<br />2<br />शब्दों की काया..... बिम्ब । शब्द तो खुद ही काया है। तो इस काया की कौन-सी काया! काया केवल त्वचा तो नहीं कि छिलका अलग कर के भी फल का आस्वाद ले लिया। काया में त्वचा से लेकर धमनियों के भीतर बहते रक्त-कण, जिनके नीचे अस्थियाँ-सभी कुछ तो है।। शमशेरजी उन अस्थियों के मौन को सुनना और सुनाना चाहते हैं जैसे अरावली के नीचे की गहरी दरारें भी दिखाना चाहते हैं। इन सबका समावेश है- काया में –<br />मगर<br />मेरी पसली में हैं- गिन लो<br />व्यंजन: और उनके बीच में हैं<br />स्वर........<br />हाँ मगर<br />वह<br />स्व<br />र<br />एक फ़नल<br />धुँधुवाता<br />विशाल आकाश में (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं)<br />अरावली के पुरातन तम पहाड़ों के नीचे, गहरे धरती के अंदर तक दरारें इस तरह एक स्थिर चक्कर में चली गई हैं जैसे कविता की पंक्तियाँ ; और स्वर विशाल आकाश में धुँधुवाते-से हैं; वह स्वर जो उन व्यंजनों के बीच में थे जो कवि की पसलियों में हैं ; और कवि तीनों कालों के बीच- है, भवता, था- के व्याप में उलझे-पुलझे पथों पर भटक रहा है अपनी कविता को मूर्तरूप देने , उसे आकारित करने के लिये। यह जो कवि की , किसी भी कवि की, काव्य रचना के लिये जो उलझन है, उसे शमशेर जिन बिम्बों के द्वारा व्यक्त करते हैं , वह इसलिए हमें विलक्षण लगते हैं क्योंकि काव्य रचना-प्रक्रिया अपने आप में जटिल ही होती है। विलक्षणता उसकी जटिलता में है- और हम प्रभावित होते हैं, कवि की सफलता पर। कवि धरती के भीतर, मनुष्य- देह के भीतर और आकाश में कहीं उलझे-पुलझे पथों में----- विचरता है, अपने साथ कुछ बिम्बों को लेकर, और यह सब टैंजिबल(स्पर्शक्षम) लगता है। कवि कहीं न कहीं यह इंगित करना चाहते हैं कि कविता की रचना-प्रक्रिया भी वैसी ही टैंजिबल है। शमशेर के यहाँ उस प्रतीति और अनुभूति को मूर्त रूप मिलता है ।<br />या जब कवि कहता है सौन्दर्य त्वचा में नहीं, थिरकते रक्त में नहीं, कहीं इनके पार.... (सिंह श. ब., चुका भी हूँ मैं नहीं) तो पार कहाँ? वहाँ जहाँ आत्मा होती है? या वह जिसे सर्जनात्मकता कहते हैं ? आत्मा के चक्कर में बुद्धिमानों को नहीं पड़ना चाहिये। हाँ, सर्जनात्मकता की बात की जा सकती है।<br />3<br />सर्जनात्मकता। कॉलरिज के लिये कल्पना ही सर्जनात्मकता है। कल्पना=सर्जनात्मकता। जो नव-सर्जन के लिये काव्यगत पदार्थों को मिलाती है, बिखराती है, पिघलाती है, अथवा नया प्रत्यय ढूँढ़ती है—वह कल्पना शक्ति है। प्रश्न तो हमारा यही है कि यह सर्जनात्मकता कवि के सृजन-व्यापार में किस रूप में आती है। आचार्य शुक्ल कल्पना को भावना कहते हैं। उनके अनुसार " कल्पना दो प्रकार की होती है- विधायक और ग्राहक। कवि में विधायक कल्पना अपेक्षित होती है और श्रोता या पाठक में अधिकतर ग्राहक। अधिकतर कहने का अभिप्राय यह है कि जहाँ कवि पूर्ण चित्रण नहीं करता, वहाँ पाठक या श्रोता को भी अपनी ओर से कुछ मूर्ति-विधान करना पड़ता है।...किसी प्रसंग के अन्तर्गत कैसा ही विचित्र मूर्ति विधान हो , पर यदि उसमें उपयुक्त भाव संचार की क्षमता न हो तो वह काव्य के अन्तर्गत न होगा।" (शुक्ल) शमशेरजी के यहाँ उपयुक्त भावसंचार की उपस्थिति लगातार देखी जा सकती है, इसीलिये उनकी कविता पर लगे रीतिकालीन प्रभाव के आरोप बेमानी हो जाते हैं। यह भावसंचार प्रभावी बनता है उनकी बिम्बसृष्टि के औचित्य और समृद्धि और फलस्वरूप, इतना तो तय है। शमशेर की लगभग सभी महत्वपूर्ण कविताओं में पाठक को अपनी ओर से कुछ-न-कुछ मूर्तिविधान तो करना ही पड़ता है- जिसे नई कविता की शब्दावली में हम कहते हैं- अन्तरालों को भरना।<br />शमशेरजी के लिये कविता एक फ्लैश की तरह आती है। उनका कहना था कि अगर उस क्षण उन्होंने उसे लिख लिया तो लिख लिया , वरना वह ग़ायब हो जाती है। शमशेरजी की कविताओं में जो बिम्ब हैं ,वे बहुत ही फोर्सफुल है। ठीक उनके चित्रों की रेखाओं एवं रंगों की तरह।<br /><br /><br />शमशेरजी की कविताओं में भी आए इस तरह के फोर्सफुल चित्र हमारे मन में धँस कर रह जाते हैं –<br />तब छन्दों के तार खिंचे-खिंचे थे,<br />राग बँधा-बँधा था,<br />प्यास उँगलियों में विकल थी-<br />कि मेघ गरजे;<br />और मोर दूर और कई दिशाओं से<br />बोलने लगे-- -- पीयूअ! पीयूअ! उनकी<br />हीरे नीलम की गरदनें बिजलियों की तरह<br />हरियाली के आगे चमक रही थीं। (सिंह श. )<br />बिजली की चमक, हीरे नीलम की गरदन को विशेषता देती है। कवि कहना तो यही चाहता है कि मोर की हरी-नीली गरदन बिजली की तरह चमक रही थी अर्थात् गरदन की लोच में बिजली का आकार और बिजली की चमक से गरदन के हीरे-नीलम वाले चमकीले रंगों में और चमक आना- चित्र इस तरह निर्मित होता है कि मोर की हरे-नीले रंग की लोचदार और बिजली की तरह चमकती गरदन । उसी तरह छन्दों के तार खिंचे खिंचे थे , राग बँधा-बँधा था , प्यास उँगलियों में विकल थी----- कि मेघ गरजे... रचनात्मकता का वह क्षण है जिसमें रचना का जन्म होने ही वाला है-- (तुलनीय-अब गिरा अब गिरा...वह अटका हुआ आँसू की तरह )--- शमशेर की कविताओं में, उसका ऐसा अनुभूति सभर चित्रण शब्दों की इसी तरह की बिम्ब-काया में प्रत्यक्ष होता है ।<br /><br />इसी तरह का एक और उदाहरण है-<br />एक नीला आईना<br />बेठोस –सी यह चाँदनी<br />और अंदर चल रहा हूँ मैं<br />उसी के महातल के मौन में। (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं, 1990,1994)<br />चाँदनी में चलने का भौतिक अनुभव कविता में 'बेठोस' शब्द के प्रयोग से इसलिए विशिष्ठ बन जाता है, क्योंकि आसमान को' नीला आईना' कहा है। आईना ठोस है, और पारदर्शी है; चाँदनी अठोस है, पारदर्शी है और आसमान में है; और आईने से प्रतिबिंबित हो कर जब धरा पर उतरती है तो वह पारदर्शी चाँदनी, जो ठोस नहीं है, कवि उसे अठोस कहता है । अठोस शब्द का प्रयोग कहीं न कहीं ठोसत्व का 'बोध' देता है, अर्थ नहीं। अर्थ तो उसका अठोस ही है , पर काव्यगत बोध में ठोसत्व का अर्थ शामिल हो जाता है, जैसे झूठ को असत्य कहने से सत्यत्व का बोध होने लगता है। नकारवाची शब्द प्रयोग में स्वीकारवाची अर्थबोध, बिम्बों के कारण अधिक प्रतीतिजनक लगने लगता है।<br />4<br />शमशेरजी की कविताओं में बिम्ब की उपस्थिति उस सर्जनात्मक बिन्दु की आवश्यकता है जो काव्य-रचना के लिये ज़रूरी है। कभी बिम्ब ही सीधे-सीधे कविता को आकार देते हैं, जैसे ऊषा, संध्या, योग आदि कविताओं में, तो कभी कविता के भाव तक पहुँचने के लिये कवि घुमावदार रास्तों से होता हुआ वहाँ पहुँचता है। अलबत् उन घुमावदार रास्तों में भी मिलते तो बिम्ब(शायद मेरे ही अनेक बिम्ब मात्र) ही हैं। इस संदर्भ में उनकी 'टूटी हुई बिखरी हुई' कविता का उदाहरण लिया जा सकता है।<br />यह कविता प्रेम की असफलता में भी अपने मनुष्य होने की गरिमा को सुरक्षित रखने के प्रयास की कविता है। प्रेम की असफलता की पीड़ा से कविता का आरंभ होता है- अतः पाठक को कवि जिन रास्तों से ले जाता है, वे निहायत कष्टकर हैं ।कवि डाउन टू अर्थ, ज़मीनी बात करता है। उनमें है चाय की दली हुई कुचली हुई पत्तियां हैं, ठंड है, ठेलेगाडियां हैं, खाली बोरे हैं- जिन्हें सूजों से रफू किया जा रहा है.....प्रेम की अनुभूति जहाँ व्यक्ति को सातवें आसमान पर चढ़ा देती है, वहीं उसकी असफलता उसे डाउन टू अर्थ पर भी ले आती है। इन रास्तों से होते हुए वह प्रेम की उन अनुभूतियों में हमें ले जाते हैं जो बेहद रंगीन और आकर्षण से भरपूर हैं। कबूतरों की ग़ज़ल, इत्रपाश, आसमान में आईने की तरह हिलती और चमकती गंगा की रेत, जंगली फूलों की दबी हुई ख़ुशबू, प्यास के पहाड़ों पर झरने की तड़प, नाव की पतवार बनती बाँसुरियाँ, ऊषा की खिलखिलाहटें, शाम के पानी में डूबते ग़मगीन पहाड़ , पलकों के इशारे में बसी हुई ख़ुशबुएँ ......बिम्बों का यह ऐसा मनोहारी मायावी संसार है जिसका यथार्थ है वह दली हुई कुचली हुई चाय की पत्तियाँ वगैरह। लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकती। शमशेर की शब्द-काया अपनी विशिष्ट अभिव्यक्तियों के द्वारा ऐसे भाव- प्रवाह में ले जाती है कि वहाँ याददाश्त गुनहगार बनी हुई है, रंगों के लपेट खुलते ही नहीं हैं और उन्हें जला देने के सिवा कोई चारा नहीं रहता। किसी पिकनिक में दाँतों में चिपकी रह गई दूब की नोक जो बरसों बाद भी गड़ने की प्रतीति कराती है.... पूरी कविता में मणि-समुद्र की मानिंद बिम्ब बिखरे पड़े हैं..... अपनी निजि पीड़ा को प्रस्तुत करने का ऐसा सुंदर तरीक़ा कि लोग कहें, शमशेर के ही शब्दों में- 'हो चुकी जब ख़त्म अपनी ज़िन्दगी की दास्ताँ, उनकी फ़रमाइश हुई है इसको दोबारा कहें।'<br />5<br />शमशेर की कविता में शब्दों की बिम्ब-काया के रूप और तरीके भिन्न हैं। इस बात को उनकी तीन कविताओं के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगे। 'एक पीली शाम', 'रोम सागर के बीचोबीच' तथा 'घनीभूत पीड़ा'।<br />'एक पीली शाम' कविता अत्यन्त सुगठित-सी कविता है जिसका आरंभ ही एक बिम्ब से होता है। 'एक पीली शाम/पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता/शान्त।' कविता पढ़ लेने के बाद हमें यह प्रतीति होती है कि कविता में रहे भाव-विश्व को बिम्बों के माध्यम से अत्यन्त सुचारु रूप से प्रस्तुत किया गया है। अतः इस कविता का सौन्दर्य हमारे सामने मानों बड़े ही गाणितिक रूप से उभरता है। यथा- अटका हुआ आँसू= अटका हुआ पत्ता, सांध्य-तारक=आँसू, ज़रा अटका हुआ पत्ता=अटका हुआ आँसू इत्यादि हमारी समझ में आता है। कविता निश्चय ही संवेदना से भरपूर है पर इसमें निहित कलात्मकता उसे क्लासिक बनाती है। निश्चय ही यह शमशेरजी की उत्तम कविताओं में से एक है। क्लासिक कविता की तरह इसमें भावनाओं को इस तरह प्रस्तुत किया है कि लगे ही नहीं कि भावनाएँ हैं। हमारा ध्यान कविता में व्यक्त भावनाओं से पहले कविता के सौन्दर्य-विधान की ओर जाता है। कविता की कलात्मकता की शब्द-काया बिम्बों का रूप धर कर आती है।<br />लेकिन 'रोम सागर के बीचोबीच' कविता का आरंभ तो एक सामान्य कथन से ही होता है। सहज रूप से कही गई अपनी बात की पुष्टि के लिये कवि तुरंत ही अलंकारों का सहारा लेता है ; एकदम नए किस्म के । कवि की कल्पना है कि रोम सागर के अंदर हमारे किसी प्राचीन पूर्वी देश की भूखी आत्मा इधर-उधर भटक रही है, जैसे घोर वर्षा में डाल से विच्छिन्न घोंसलें का तिनका टूटकर गिरा हो। आत्मा को तो भटकते हुए हमने अपनी मान्यताओं में सुना है, संस्कारों में ग्रहण किया है। पर आत्मा किसी प्राचीन पूर्वी देश की हो और भूखी हो, यह बात हमें चौंकाती है। और वह भटक कैसे रही है, कवि कहता है - घोर वर्षा में डाल से विच्छिन्न घोंसले के तिनके-सी, जो ज़रा सी हवा में भटक सकते हैं। सैद्धांतिक रूप से 'सा' का प्रयोग अलंकार का बोध देता है। पर यह अंश पढ़ कर जितने फोर्सफुल तरीक़े से घोंसले का बिम्ब हमें प्रभावित करता है, उतना ही प्राचीन देश की पूर्वी आत्मा का बिम्ब भी हमें एक कौतुहल में डालता है। यह कविता डॉ. इरीना ज़ेहरा के लिये है। इरीना ज़ेहरा का जाना, कवि के लिये हमारी संस्कृति के एक अंश का जाना है, जैसे और भी कवि-कलाकारों का जाना होता है, दाहरण के लिये आर.एन.देव, बन्नेभाई, मुक्तिबोध आदि। कवि के भीतर भी कुछ मर जाता है। कविता में इस मृत्यु-बोध का एक अद्भुत् बिम्ब रचा गया है। इस बिम्ब में जटिलता है, पर यह जटिलता जीते-जी मर जाने के बोध को दर्शाने के लिये है। कवि को लगता है कि वे एकाएक किसी सुलगते हुए घर में एक बहुमूल्य कलम की तरह गुम हो गये हैं। वे एक साथ लपटों और ख़ामोश रिमझिम का अनुभव करते हैं। चारों तरफ़ पहाड़ के झरनों का शोर है और वे स्वयं किसी प्राचीन गूँज में डूब गये हों, ऐसा उन्हें लगता है। कविता में साथी के छूट जाने का बोध, जो डाल से टूटे घोंसले के तिनके जैसा है, उसके कारण, जो एक शून्यता की प्रतीति होती है, वह इतनी तीव्र है, कि सगे भाई का , छः सौ मील दूर से आना और बहनों-बेटियों की पत्र के लिये प्रतीक्षा भी उन्हें विचलित नहीं करती। कवि मानों सुन्न हो गया है। इस अनुभव को साक्षात्कृत कराने के लिये इस तरह के बिम्ब के अलावा कवि के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है।<br />वहीं, 'घनीभूत पीड़ा' कविता एकदम ही अलग है। शमशेर का चित्रकार शमशेर के कवि की मदद के लिये आगे आता है। कवि की चेतना रचनात्मक क्षण से लबालब है, पर कवि को शब्द नहीं मिल रहे .... तो अपनी भावानुभूति को उन्होंने रेखाओं से उकेरना आरंभ कर दिया। कुछ टूटे-अधूरे चित्र से बनते हैं। कुछ शब्द प्रकट होते हैं। कुछ देर में फिर शब्द गायब और चित्र उपस्थित ..... यह प्रक्रिया पूरी कविता में चलती रहती है। कविता रेखांकन से आरंभ हो कर रेखांकन पर समाप्त होती है। असल में एक गहन व्यथा का भाव कवि के हृदय में भरा हुआ है जिसका कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है। पर यह सघनता कवि को बेचैन भी करती है। कविता में रेखाएं हैं और रेखाओं को व्याख्यायित करते शब्द । कवि को जो कहना है वह कविता के अंत में इस तरह आता है-' देखा था वह प्रभात/तुम्हें साथ, पुनः रात/ पुलकित ..... फिर शिथिल गात,/तप्त माथ, स्वेद, स्नात/मौन म्लान , पीत पात/पुनः अश्रु बिम्ब लीन/शनैः स्वप्न-कंप वात/हे अगोरती विभा/जोहती विभावरी/ हे अमा उमामयी/भावलीन बावरी/ मौन-मौन मानसी/मानवी व्यथा भरी।' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं)<br />इन तीनों कविताओं में विरह जनित पीड़ा मुख्य है। कोई था, जो अब नहीं है। और जो नहीं है, वह कवि के बहुत निकट था।( इसी क्रम में 'आओ' कविता भी शामिल की जा सकती है।) पर जहाँ 'एक पीली शाम' के बिम्ब ग़ज़ब के क्लासिक हैं, उसमें विरह-जनित अभाव की अभिव्यक्ति में अद्भुत संयम है, वहीं' रोम सागर के बीचोबीच ' में एक शॉक, एक शून्यता, एक तरह के सांस्कृतिक अभाव की प्रतीति है और 'घनीभूत पीड़ा' में एक रूमानियत है- अपने निजि अभाव को व्यष्टि के अभाव में बदलते हुए भी उसमें अपनेपन की मुद्रा बनी रहती है ,जो कविता के आरंभ और अंत में आए अशआरों में व्यक्त होती है- 'लजाओ मत अभाव की परेख ले, समाज आँख भर तुम्हें न देख ले' तथा ' ज़बाँदराज़ियाँ ख़ुदी की रह गईं, तेरी निगाहें जो कहना था सो कह गईं ।'<br />बिम्ब, शमशेर के शब्दों की काया ही नहीं बल्कि आत्मा भी हैं – बिम्ब स्वयं ही कविता बन जाते हैं उनकी रचनात्मकता में। 'अम्न का राग' कविता में भी, जैसा कि शमशेर की कविताओं के पाठकों को पता है, अनेकानेक बिम्ब हैं। पर उनकी इस कविता में कुछ ऐसे बिम्ब हैं, जिनकी व्यंजनाएं दूर तक जाती हैं। जैसे- 'आज न्यूयोर्क के स्कायस्क्रेपरों पर/ शांति के डवों और उसके राजहंसों ने/ एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा /और शोर पैदा कर दिया है।' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं, 1990,1994) शांति के डव और उनके राजहँस- में एक व्यंजना तो छिपी हुई है ही। पर उन डवों ने क्या किया है- उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा और शोर पैदा कर दिया है- आप देखिये, उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा – शब्दों से जो बिम्ब निर्मित होता है- हाँ, बिम्ब , क्योंकि यह हल्का-सा उजला अँधेरा बहुत सारे कबूतरों के एक साथ आसमान में उड़ने का परिणाम है, और शोर उन डवों के पंखों की फड़फड़ाहट है। इस अभिधा- मूला व्यंजना को साकार करता है आसमान में उड़ता यह डव-समूह । राजहंस एक भिन्न संस्कृति है और डव एक अलग संस्कृति है..... कवि दोनों को साथ देख रहे हैं। उस समय कवि ने संभव है कुछ और सोच कर लिखा हो; आज हम उस उजले सुख के हल्के अँधेरे को गहरा होते हुए देख रहे हैं और उसे गहरा बनाने में डवों और राजहंसों की समान भूमिका भी हमें दिखाई दे रही है। शमशेर अपनी कविता में इस तरह दूर तक जाती व्यंजनाओं के अद्भूत् बिम्ब निर्मित करते हैं, जिससे जीवन-गत यथार्थ काव्य-गत सच में परिणमित हो जाता है।<br />शमशेरजी ने अपनी कविताओं में हमारे वर्तमान समय के जो बिम्ब खड़े किए हैं, वे हमें अंदर तक हिला देते हैं। 'बाढ़-1948' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं) इस संदर्भ में उनकी मार्मिक रचना है। इस जनतंत्र में वर्ग-विभक्त समाज में कितने कल्चर्स एक साथ हैं- उसका बयान और कवि की उन पर टिप्पणी- हमें सोचने पर बाध्य करती है। महादेवी साहित्य के पृष्ठों से निकल कर बाढ़-पीडितों में चने बाँट रही जो न जैनेन्द्र कर रहे हैं न अज्ञेय, न कृष्नचंद्र, न नेमिचंद्र। हमारा बौद्धिक वर्ग आज भी ऐसे समय राजनीति और चिंतन करता है। पर एक वर्ग, बहुत बड़ा वर्ग, जो जनता का है वह संकट समय में केवल स्वजनों के साथ होना चाहता है- जो अक्सर संभव नहीं हो पाता, आज भी। मगर इसकी चिंता न लेखकों को है न राजनेताओं को और न ही बौद्धिकों को, न ही कभी थी। कवि ने, एक बन रही , निर्मित हो रही संस्कृति को, बाढ़ के ज़िन्दा दृश्यों से बने जिस बिम्ब द्वारा हमारे सामने रखा है – वह दिल दहलाने वाला है। उसमें हम साफ़-साफ़ बौद्धिकों का दंभ, स्वार्थ और संवेदनहीनता देख सकते हैं - जो आज हमारा सामान्य जीवन बन गया है- और जैसा कि शुक्लजी कहते हैं –मूर्त और गोचर रूप में।<br />असल में बहुत कुछ कहा जा सकता है और भी। कितनी ही कविताएं जैसे होलीःरंग और दिशाएं, न पलटना उधर, सौन्दर्य, , शिला का खून, सींग और नाखून..हैं ; इन सभी कविताओं की चर्चा के माध्यम से शमशेर के शब्दों की बिम्ब-काया के स्वरूपों पर बात हो सकती है- पर बात को एक जगह पर आ कर रोक देना ज़रूरी है- अतः मैं अपनी बात को इस समय के लिये यहीं रोक देना उचित समझती हूँ। धन्यवाद।<br />संदर्भ-<br />रामचंद्र शुक्ल. (1988, वर्तमान संस्करण2009). रामचंद्र शुक्ल संचयन. (नामवर सिंह, सं.) दिल्ली: साहित्य अकादेमी.<br />शमशेर बहादुर सिंह. (1975). चुका भी हूँ मैं नहीं. दिल्ली: राधा कृष्ण प्रकाशन.<br />शमशेर बहादुर सिंह. (1990, पुनर्मुद्रण 1994). प्रतिनिधि कवताएँ. राजकसन प्रकाशन, दिल्ली.<br />शमशेर बहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.<br />शमशेर बहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.<br />शमशेर बहादुर सिंह. (1990, पुनर्मुद्रित 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.<br />शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिन्नी: राजकमल प्रकाशन.<br />शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.<br />शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.<br />शमशेरबहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.<br />संपादक नामवर सिंह रामचंद्र शुक्ल. (1998). रामचंद्र शुक्ल संचयन. (नामवर सिंह, सं.) दिल्ली: साहित्य अकादेमी , दिल्ली.<br /><br /></div></span></strong>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-11861025045776389302010-11-11T05:35:00.000-08:002010-11-12T04:39:04.001-08:00<div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><span style="font-size:130%;">बेदखली<br /><br /></span></span><span style="color:#663300;"><span style="font-size:130%;">वह मुझसे बेइन्तिहा प्यार करता है<br /><br />मेरे वर्तमान, भूत और भविष्य की भी,<br />सुख-सुविधाओं और दुख-दर्दों की चिंता करता हुआ...<br />नहीं करता वह बिल्कुल भी चिन्ता अपने<br />बढ़ते हुए रक्त-चाप और ख़ून में पड़ी अ-पची शकर की मात्रा की।<br /><br />वह मेरी इज्जत करता है,<br />मेरी आबरू के लिए अच्छों-अच्छों को धूल चटा देता है,<br />मेरे लिए लौकी की सब्ज़ी तक खा लेता है।<br />वह मुझसे बेइन्तिहा प्यार करता है।<br /><br />मेरी तरक्क़ी के लिए वह<br />अत्यन्त चिंतित रहता है, हमेशा ही।<br />मैं लिखूं और पढ़ूं और अपना काम करूं- इसी कारण अपने दिन और अपनी रातें भी बरबाद करता है।<br />वह स्वीकार करता है – मेरी बुद्धिमत्ता,<br />अपने से अधिक, मुझे अकलमन्द मानता है।<br />जबकि<br />हर संकट से उबरने का रास्ता वही सुझाता है।<br />ज़रूरत पड़ने पर, दुनिया से दो-दो हाथ करने की तैयारी के साथ...।<br /><br />मेरी इच्छा के विपरीत<br />वह न मुझे छूता है, न कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती ही करता है।<br />मेरी भावनाओं की कद्र करता है।<br />औरत होने के मेरे अधिकारों को स्वीकारता है।<br />अपने रक्त-चाप की ऊँचाई पर बैठ कर !<br /><br />ऐसा नहीं कि उसे मुझसे कोई शिकायत नहीं है।<br />मुझसे उसे जो-जो हैं, उन<br />बहुत सारी शिकायतों को<br />गाहे-बगाहे व्यक्त भी करता है।<br />पर इसमें कोई शक़ नहीं कि वह मुझसे भरपूर प्यार करता है।<br /><br />मेरे भूतकाल में<br />मेरी मर्जी के विरुद्ध<br />वह कभी नहीं झांकता ।<br />मुझे दुख पहुँचे, इस तरह मेरे घावों को कुरेदता भी नहीं है।<br />तमाम नुकीले प्रश्नों की बाण-शैया पर ता-उम्र लेट कर<br />अनखोली और उपेक्षित, अपमानित भावनाओं की गठरी<br />अपने हदय के सिरहाने रख<br />मेरा हौंसला बढ़ाता रहता है.......<br /><br />वह, मेरा जीवन साथी<br /><br />कभी नहीं समझता कि मेरी<br />वह जगह अब नहीं रही मेरे पास<br />जिस पर पाँव जमाकर कभी मैं साँस लेती थी।<br />वह जगह -<br />उसके प्रेम, चिंताओं और मेरी सुरक्षा में बिछे उसके पलक-पाँवडों<br />में कहीं दब गई है।<br />• * * * * * * * * * * * * * * *<br /><br />मैं उस जगह का क्या करूंगी ?<br />यह सवाल मैं पूछती हूँ अपने आप से<br /><br />ऐसा क्या है जो शेष रहता है करने के लिए<br />किसी के इतना सब कुछ कर लेने के बाद !<br /><br />करने के लिए कुछ रहना चाहिए या नहीं<br />यह भी एक सवाल मेरे भीतर उठता है ?<br />क्योंकि मुझ जैसी आलसी, नहीं आलसिन, के लिए यह संतोष का विषय होना चाहिए-<br />कि कोई है उसके पास जो उस से बेइन्तिहा प्रेम करता है-<br />सब कुछ के बावजूद।<br /><br />मैं उस खो गई जगह का क्या करना चाहती हूँ ?<br />कुछ भी तो नहीं !<br />फिर क्यों उस छिन गई जगह के लिए मेरे मन में कचोट है, अब भी।<br />क्या अपनी स्मृतियों के कब्रिस्तान के लिए मुझे चाहिए वह जगह ?<br />ताकि हर वर्ष चढ़ा सकूं फूल, जला सकूं मोमबत्ती, अगरबत्ती....?<br />मैं सोचती हूँ क्या करूंगी, उन स्मृतियाँ का भी<br />जिनसे सिवा दुख, पराजय और धोखे के, कुछ भी हासिल नहीं हुआ।<br />वह जगह<br />जहाँ मैं केवल रपट कर गिरी ही हूँ।<br />बार-बार.... कितनी ही बार।<br />वह जगह<br />जिसने मुझे यही बोध दिया है<br />कि कितनी बेवकूफ़ थी मैं<br />कि भरोसा करती थी जिस किसी पर, तो बस करती ही चली जाती थी।<br />धोखा खा कर भी अविश्वास करने में, बरसों निकाल देती थी।<br /><br />यूँ ज़िन्दगी के बहुत वर्ष ज़ाया किए।<br /><br />आत्महत्या के दरवाज़े तक पहुँच कर लौट आई ज़िन्दगी के लिए इससे बेहतर वर्तमान क्या हो सकता है ?<br /><br />एक हल्का-फुल्का जीवन<br />जिसमें न बिल भरने की चिंता, न आटे-दाल की फिक्र,<br />न बच्चे को बड़ा करने का भार<br />न रीति-रिवाज़ों की बंदिशें<br />जिसमें चर्चा करने की छूट, असहमत होने की भी अनुमति...<br /><br />फिर क्यों चाहिए मुझे वह जगह<br />जो मैंने खुद कभी छोड़ दी थी।<br />धीरे-धीरे खुद ही अपने को समझाया है मैंने,<br />कि वह एक बेहद मूर्खता भरी ज़िन्दगी थी<br />जो मैंने जी थी कभी।<br />इन्सानी ज़िन्दगी के वे उम्र के, सबसे बेहतरीन वर्ष, अर्थहीन हो गए थे।<br />मेरा यौवन, मेरा वसंत, मेरी बहारें<br />अन्तहीन रेगिस्तान में बने रेत के महल की मानिंद हो गए थे।<br />जिस पर<br />मुँह बिराता, मृगजल – सा मेरा विश्वास<br />मेरे भरोसे को बड़ी सफाई से तोड़ दिया गया है।<br />मैंने जाना था कि<br />अमृत का वह स्वाद एक स्वप्न था जो आँख खुलते ही अफसोस बन कर रह गया।<br />***********<br /><br />जीवन के उस उजाड़ किनारे पर<br />मिला था वह, जो मुझे बेइन्तिहा प्रेम करता था...<br />बरसों से , मेरे ही अन्जाने।<br />उस उजाड, ध्वस्त और परती भूमि के साथ<br />मैं ही तो गई थी उसके पास....'पथ नहीं मुड़ गया था...'।<br /><br />फिर अब क्यों मुझे चाहिए अपनी वह जगह !<br /><br />मृत स्मृतियों में अँखुएँ नहीं फूटते<br />बीते जलों से सींचन नहीं होता<br />परती ज़मीनों पर कुछ भी उगाना नामुमकिन है।<br />तो क्यों चाहिए मुझे अपनी वह परती ज़मीन<br />जबकि किलकारियों से लहलहा रहा है मेरा आँचल।<br /><br />संसार भर के संघर्ष ज़मीन के लिए ही तो होते है।<br />मैं क्यों तब चाहती हूँ वह शापित ज़मीन<br />जिसने हर लिया था मेरा सब कुछ ?<br />मेरी आर्द्रता, मेरी कोमलता, मेरी चंचलता,<br />मेरी दृढता, मेरा ज़मीर, मेरे आत्मज....<br /><br />मेरा वह अजन्मा भविष्य,<br />जो आज भी<br />मेरे सफल एवं उज्जवल वर्तमान की तरफ़<br />अपनी पराजित पर अजिंक्य मुस्कान के साथ, मेरी ओर देखता-सा है..<br />मुझे एक ऐसे अफ़सोस में भिगोते हुए<br />(जो कि मुझे मालूम है कि कितना व्यर्थ है)<br />सचमुच, कितना अच्छा हुआ कि वह भविष्य,<br />अजन्मा ही रहा...<br />क्या पता मैं सम्हाल भी पाती उसे, अगर वह होता.....<br />और यह नहीं होता<br />जो है.........<br />वही मेरी वर्तमान,<br />जो मुझे बेइन्तिहा प्यार करता है।<br /><br />पर<br />मुझे मालूम है<br />जब भी मरूंगी मैं,<br />मेरे प्राणहीन रोमों में<br />उस जगह के न होने की टीस बराबर बनी रहेगी<br />जिससे सर्वथा अन्जान<br />वह,<br />जो मुझे करता है बेइन्तिहा प्यार<br />संभवतः<br />सोच रहा होगा कि अपने तई,<br />(अपनी कला भर की जगह छोड़ कर,)<br />अपनी जान से भी अधिक उसने मुझसे किया प्रेम।<br /><br />क्या उसे कभी याद आएगी, वह जगह, जो मेरी थी और<br />उसके पास महफूज़ रखी थी।<br /><br />वह इस पूरे समय मानता रहा,<br />संभवतः,<br />उस जगह से छिलेगा हमारा वर्तमान<br />लगेगी चोट, होगी पीड़ा...अतः रखी रह गई महफूज़ ... यों इन सारे वर्षों तक...<br />अँधेरे में पंख फड़फड़ाती,<br />विस्मृत-सी वह जगह, उसी के पास<br />जिसे पूरा जीवन, भूलने की कोशिश में, अपने भीतर<br />समय की कब्रगाह में गाड़ती.... मैं -<br />यह सोचती रही,<br />कि चाहे हुए क्षणों की, खिलखिलाते कणों की<br />अनचाही और व्यर्थ सी जगह का, आखिर क्या करती मैं<br />गर मान लो, मिल जाती मुझे !<br />वह जगह जो मेरी है, पर मेरे पास नहीं है ...... महफूज़ ।<br />रंजना अरगडे<br />9/8/2010 </span></span></div>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-3157158513881758852010-10-29T12:04:00.000-07:002010-10-29T12:26:55.208-07:00शमशेर जनम शती<div align="justify"><span style="color:#339999;">शमशेरजी को याद करना यानी अपनी भाषा के सामर्थ्य तथा अपनी भावनाओं, संवेदनाओं की सूक्ष्मताओं को पहचानना है। जिस समय में हम सांस ले रहे हैं और अपने को ज़िन्दा समझ कर जीने का दंभ भर रहे हैं उस समय मेंएक ऐसे कवि को याद करना सचमुच बहुत मूल्यवान होता है जिसने जीवन को आखिरी दम तक जिया है। शमशेरजी को जहाँ तक मैं जानती हूँ , उन्होंने नितांत विपरीत जीवन-स्थितियों में अपने को जीवन से जोड़े रखा । यही जीवन का वह माद्दा था जिसे देख अनुभव कर लगता है कि जैसे वे किसी अन्य लोक के जीव थे। जीवन में कितना ही बार अपने प्रेम को उन्होंने अपने पास से सरकते हुए कहीं और जाते देखा होगा, कौन कह सकता है। पर द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास फिर भी मैं करता हूँ प्यार ..... जैसी कविता क्योंकर लिखी होगी, यह प्रश्न मन में उठे बिना नहीं रहता। प्रेम में धन का क्या मूल्य है यह तो कहना मुश्किल है पर मैली हाथ की धुली खादी जैसी उपमा aur टूटी हुई बिखरी हुई के आरंभिक बिम्ब निश्चय ही इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यह भौतिक अर्थ में मुफ्लिसी में जीता कवि अपने शब्द एवं भाव वैभव में किसी राजा-महाराजा से कम नहीं रहा होगा। शमशेर शब्द के कलाकार हैं। शब्दों को वे अपनी कविता में इस तरह प्युक्त करते हैं जैसे कोई जादूगर झूठ-मूठ की दुनिया बनाते-बनाते सचमुच की दुनिया गढ़ लेते ।</span></div><div align="justify"><span style="color:#339999;">इस शताब्दी वर्ष में उनको याद करना हिन्दी के उन तमाम पाठकों को याद रना जिसके लिए कवि ने कहा है- उसे मरे ही कहो, फिलहाल। </span></div>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-45676659431064376772010-05-29T03:07:00.000-07:002010-05-29T03:11:27.189-07:00<strong>जिन खोजा तिन पाइयाँ ..............</strong><br />'भारत मेरा देश है और हम सब भारत-वासी भाई-बहन हैं------' स्कूल में की गयी यह प्रतिज्ञा संस्कारों में इस क़दर धंस गई है कि अभी-अभी तक यह बोध भी नहीं होता था कि मैं कोई अन्य हूँ और कहीं और रहती हूँ । मैं जो भी हूँ और जो भी मेरा मूल प्रदेश है, इससे मुझे कभी कोई फ़रक नहीं पड़ा था; क्योंकि पहले राजस्थान और बाद में इतने वर्षों से गुजरात में रहते हुए मुझे कभी यह नहीं लगा कि मैं अपनी भूमि पर नहीं रहती। अब भी नहीं लगता। पर अब इधर कुछ और-और-सा लगने लगा है। यानी पहले मुझे इस बात के प्रति कोई रुचि नहीं थी कि मैं महाराष्ट्र प्रदेश , मराठी-भाषा, मराठी साहित्य आदि के बारे में जानूं। बल्कि अगर कोई मराठी-मराठी करने लगता तो मुझे बड़ी कोफ़्त होती। अपनी मराठी अस्मिता , पहचान को मैं बहुत प्रकट नहीं करना चाहती थी। बल्कि मझमें मराठी अस्मिता जैसा कुछ था भी नहीं। मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि ऐसा करना संकीर्णता है, क्योंकि हम तो भारत वासी हैं। फिर जिस प्रांत में रह रहे हैं, उससे भी मेरा ऐसा लगाव नहीं था कि उस - मय हो जाऊँ। यानी एक तरह से मैं इस मामले में सेक्यूलर थी !<br />पर इधर देखती हूँ, पूरे देश का भावात्मक नक्शा बदल रहा है। लोग अपनी अस्मिता को ले कर इतने सजग हो गये हैं कि समाज मे रह रहे परिधि पर के ही नहीं, जो केन्द्र में हैं (अथवा अब तक थे) वे भी अपनी अस्मिता को ले कर झंडे उठाने लगे हैं। ख़ैर। मैं अब तक तो अपने आप को संयोग से मराठी और संयोगवशात् गुजरात का समझती रही हूँ। फिर मैंने विवाह भी एक गुजराती परिवार में किया, जो संयोग से ब्राह्मण है। इसी तरह जीवन का क्रम चल रहा था और है भी।<br />जब वर्षों पहले असम में आंदोलन हुआ और ग़ैर असमियों के लिये असम में रहना मुश्किल हो गया, तब मैं इतनी समझदार(!) नहीं थी और सोचती थी कि यह राष्ट्र के प्रति द्रोह करने जैसा है। अब जब अपने जीवन के पचास से कुछ अधिक साल पूरे कर चुकी हूँ और ऐसा मानती हूँ कि कुछ अकल में बढ़ोतरी हुई है तो पाती हूँ कि यह बढ़ोतरी आदर्श से यथार्थ और उदारता से संकीर्णता की ओर जाने वाली है। क्या सचमुच अब समय और परिस्थितियां बदली हैं या मुझे अब वह दिखायी देने लगी हैं !<br /><br />मुझे पहला धक्का तब लगा जब एक बार हमारे भूतपूर्व कुलपतिजी ने बिना किसी भूमिका के मुझसे कहा कि मैं आपको हिन्दी से जुड़ी किसी समिति में नहीं रख सकता क्योंकि यह आदेश है कि हिन्दी भाषियों को न रखा जाये। मैंने तुरंत हँस कर कहा- 'सर, फिर तो मैं फ़्रेम के बाहर हूँ, क्योंकि न तो मैं हिन्दी भाषी हूँ और न ही गुजराती। मैं मराठी भाषी हूँ।' लेकिन तब पहली बार मुझे लगा कि मुझे कम-से-कम उस भाषा, उस प्रजा उसकी संस्कृति, साहित्य के बारे में जानना चाहिये, जिसकी बदौलत लोग मुझे पहचानते हैं, या मैं पहचानी जाती हूँ। जब भी यह प्रयत्न किया तो अचानक बैकग्राऊंड में बिगुल की आवाज़ और छत्रपति शिवाजी महाराज की जय सुनाई पड़ती। मुझे शिवाजी पर गर्व होना ही चाहिये और है भी और जानती हूँ कि यह कहना भी चाहिये क्योंकि अभी मुझे अपने बेटे को बड़ा भी करना है। पर एक सवाल मेरे मन में हमेशा उठता था कि क्या शिवराया के पहले महाराष्ट्र में कुछ नहीं था। कोई नहीं था। इधर मुंबई में आमचा महाराष्ट्र की जो हिंसक लहर उठी है उसके फलस्वरूप मेरी यह जिज्ञासा तीव्र हुई। मेरा बचपन का आदर्शवाद, भारत को एक राष्ट्र मानने की भावना, बुढ़ापे तक आते आते बीते जन्म की कहानी न हो जाये , ऐसा डर मुझे कई बार लगता है। ख़ैर।<br />लेकिन इतिहास के पास सभी बातों का उत्तर होता है। एक बार भारतेन्दु ग्रंथावली में मैंने भारतेन्दुजी के द्वारा लिखा मराठों का इतिहास पढ़ा। पर उससे मेरी मूल जिज्ञासा शांत नहीं हुई। पर मुझे अच्छा भी लगा कि एक हिन्दी भाषा के लेखक को यह आवश्यकता महसूस हुई कि वो मराठों का इतिहास लिखे। ऐसा नहीं कि उन्होंने मराठों के बारे में बहुत अच्छा लिखा हो , पर लिखा, यह महत्वपूर्ण है ।<br />मुझे याद है एक बार , बल्कि कई बार , हम दोनों बहनें मराठियों की जाति व्यवस्था आदि के बारे में चर्चा करतीं हैं। और हमें यह प्रश्न होता कि मराठियों में वैश्य जाति के सरनेम क्या होते होंगे। घर में चर्चा की तो अंत में यह निष्कर्ष निकला कि मराठे युद्धवीर थे अतः वहाँ अन्य लोगों ने आ कर व्यवसाय किया। वहाँ वैश्य जाति नहीं है। हमारे लिये तो यह निष्कर्ष भी आल्हादक था, कि हम औरों से अलग हैं। यह सारी जिज्ञासाएं हम उन बहनों की हैं जो पूरी ज़िन्दगी मराठी होते हुए भी, महाराष्ट्र में नहीं रहीं और इस संबंध में अज्ञान थीं। असल में हमें कभी इसकी आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई। इसलिए इस संबंध में कुछ भी नया जानना हमारे लिये किसी डिस्कवरी से कम नहीं होता था !<br />हम बहनें अपने में रही संगीत एवं कला-प्रीति को अपने मराठी-पन से जोड़ती हैं और भाषा-उच्चारण की शुद्धता को भी इसी विरासत की देन मानती हैं। 'एक वार- दो टुकड़े' के अपने रुखे स्वभाव को भी मैं इसी विरासत की देन मानती हूँ।<br />इसी क्रम में मुझे पता चला कि मराठी के ख्यातनाम विद्वान और लेखक (स्व)कृष्णाजी पांडुरंग कुलकर्णी(1893-1964) मेरी माँ के सगे फुफेरे भाई लगते थे। उन्होंने मराठी भाषा पर कुछ लिखा है- ऐसा मेरी 78 वर्षीय माँ ने इन गर्मियों की छुट्टियों में बातों-बातों में मुझे बताया। 86 वर्षीय पिताजी ने दावा किया कि उन्होंने उनकी किताब पढ़ी ही नहीं, बल्कि साक्षात् कृ.पां जी को सुना भी है। बस फिर क्या था---- फ़ोन, नेट, पद्मजा घोरपड़े, मेहता पब्लिशर्स, ......करते-करते उनकी एक किताब और काफ़ी सारी जानकारी प्राप्त कर ली। किताब मैंने पढ़ी।' मराठी भाषा उद्भव व विकास' ।<br />इतनी लंबी भूमिका का कारण यह है कि मेरे सारे सवालों तथा जिज्ञासाओं के उत्तर मुझे मेरे ही पूर्वज की पुस्तक से मिल गए। मैंने जाना कि पाणिनी-काल के बाद में महाराष्ट्र में जो बस्तियाँ बसीं और व्यवस्थित रूप से मराठी भाषा, मराठी धर्म और मराठी साहित्य की रचना का आरंभ हुआ, वह यादव-कालीन महाराष्ट्र से होता है । ये वे यादव हैं जो उत्तर से आ कर महाराष्ट्र में बस गये थे। भिल्लम पहले राजा थे, जिनके राज्यकाल में मराठी-जन की समृद्ध विरासत ने आकार ग्रहण किया। लगभग इस वंश के आठ राजा हुए जिनके राज्यकाल में मराठी साहित्य का उद्भव और विकास का आरंभिक चरण संपन्न हुआ। यही महानुभावों का भी समय था और यही ज्ञानेश्वरी का भी समय था। इस विरासत को तो हम संसार भर में रह रहे मराठी अपने हृदय का अंश मानते हैं। पर इतिहास कहता है कि 100 वर्षीय यादव कालीन साम्राज्य में यह सब हुआ। ख़ैर, यह तो इतिहास की बात हुई। मेरी समझ में यह आया कि सांस्कृतिक और धार्मिक महाराष्ट्र की पहचान यादव-कालीन ज्ञानेश्वरी से होती है और राजनैतिक महाराष्ट्र की अस्मिता शिवाजी से पहचानी जाती है। संस्कृति पर यों भी राजनीति केवल महाराष्ट्र में नहीं , पूरे भारत में हो रही है। यह जय हे की कर्ण-भेदी ध्वनि कश्मीर से ले कर तमिलनाडु तक सुनाई पड़ रही है। यह हमारी अपनी परंपरा है- संस्कृति–धर्म-राजनीति की समेकित परंपरा, कौरवों-पांडवों से ले कर अंबानियों और ठाकरे बंधुओं तक बनी हुई है, इसमें कोई क्या कर सकता है।<br />मैंने जिस बात की ओर इशारा किया वह यह कि इस पुस्तक में लेखक ने इतने वैज्ञानिक ढंग से उस भूमि के बारे में, जिसे आज हम महाराष्ट्र के नाम से जानते हैं, उस पर कब-कब और किस-किस तरह लोग आए, बसे, किस तरह जातियों का निर्माण हुआ, किस तरह मराठी भाषा बनी---- आदि जानकारी दी है कि मुझे कभी हजारीप्रसादजी याद आते तो कभी रामविलासजी। हिन्दी जाति के विषय में जिस तीव्रता से रामविलासजी की जिज्ञासा जगी होगी उतनी ही तीव्र निष्ठा से इस पुस्तक में मराठी जाति के विषय में दिखाई पड़ती है।<br />मुझे यह जानकारी मिली कि वर्षों तक यह पुस्तक एम.ए के पाठ्यक्रम में रही है। अब पिछले कुछ वर्षों से नहीं है। लेकिन मेरे लिये यह अधिक महत्वपूर्ण था कि मैं जिन उत्तरों की खोज में थी उन तक मैं पहुँच सकी।<br />एक बार एक ज्योतिषी ने मुझे बताया था कि आपका अपने ननिहाल से गहरा ऋणानुबंध रहेगा। इससे गहरा ऋणानुबंध क्या होगा जो मुझे ठेठ अपनी अस्मिता की जड़ों तक ले गया !rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-24223357177850983352010-04-01T23:07:00.000-07:002010-04-01T23:18:29.962-07:00विस्थापन<div align="center"><span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#cc0000;">विस्थापन का साहित्य</span></strong></span><br /><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#663366;">विस्थापन का विस्तार कहाँ से कहाँ तक हो सकता है, तो इस प्रश्न का उत्तर संभवतः यही होगा- अपने घर-गाँव से जबरिया फेंके जाने एवं सांस्कृतिक चौपाल का ई-चौपाल में बदलने (उमा वाजपेयी, 2007) से लेकर बाज़ारवाद के फलस्वरूप अपने भीतर आई बेदख़ली (रामरतन ज्वेल, 2007) तक; लेकिन इस विस्तार तक जाने का खतरा यह है कि विस्थापन का जो वर्तमान प्रसंग है, वह एक तरफ़ रह जाएगा । मुद्दा ठोस न रह कर कुछ वायवीय हो जाएगा। सांस्कृतिक चौपाल का ई-चौपाल में बदलना अथवा बाज़ारवाद के फलस्वरूप अपने भीतर आई बेदख़ली पर व्यक्ति का वश तो नहीं है, पर उसकी हिस्सेदारी अवश्य है और प्रकारांतर से सहमति भी ; पर अपने घर-गाँव से जबरिया फेंके जाने में व्यक्ति की सहमति कदापि नहीं है, हाँ उसका वश चाहे न हो।<br />जम्मू-कश्मीर का समकालीन सृजन, जो मुख्यतः विस्थापन को लेकर है, पर सोचते हुए, सबसे पहले जो बात विशेष रूप से आश्चर्य में डालती है, वह यह कि वहाँ कश्मीरी भाषा के अलावा डोगरी, हिन्दी,पंजाबी,उर्दू, अंग्रेजी एवं गोजरी भाषा में भी साहित्य-सृजन हो रहा है। एक ही प्रदेश में इतनी सारी भाषाओं में साहित्य रचा जाना एक विलक्षण तुलनात्मक परिस्थिति का निर्माण करता है। किसी एक प्रदेश में अनेक भाषाओं में सृजन होना संभवतः विलक्षण बात नहीं लगेगी ; पर जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक और भौगेलिक स्थिति और उसके वर्तमान विस्थापन के संदर्भ में यह अवश्य ही विलक्षण बन जाती है। राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी चेतना को इन भाषाओं के साहित्य में देखना निश्चय ही रोचक हो सकता है।<br />इन रचनाओं में विस्थापन की स्थिति के अनुभव कई तरह के हैं। ये अनुभव दहशत, आशंका, पीड़ा, अविश्वास से लेकर आशा, आस्था तथा नव-निर्माण के स्वप्न तक फैले हुए हैं। उनमें एक अनुभव जम्मू कश्मीर की इस अंग्रेज़ी कविता में देखा जा सकता है- "कभी वहाँ मेरा घर था/ ग्यारह बर्फ़-जाडों के बाद / जहाँ मैं लौट आया था / एक सैलानी की तरह"। (संतोष, 2007) वह थोड़ी सी जगह कवि को मासूम बच्चों की मुस्कानों, कुछेक नवयुवकों की आँखों में और उन बूढों में मिली जो अपनी धरती से बे-पनाह प्यार करते हैं। कवि भविष्य के प्रति निराश नहीं है। हाँ, पर पूरी तरह सावधान, क्योंकि कभी भी कोई ज़ेहादी आ कर बंदूक का ट्रिगर दबा सकता है।<br />विस्थापन की इन कविताओं में दहशत का भाव विद्यमान है। इस दहशत के भाव के कारण हो सकता है कि इन्हीं कविताओं को आतंकवाद से प्रभावित भाव-बोध की कविता भी कहा जाए। पर कश्मीर के संदर्भ में, जैसे अन्य इसी प्रकार की स्थितियों में जी रहे देशों में भी, ये कविताएं अथवा साहित्य विस्थापन की भूमिका वाला साहित्य हो जाता है ; क्योंकि यहाँ, यही दहशत तो विस्थापन के मूल में है। इस संदर्भ में डॉ.मनोज की डोगरी कहानी दस्तकें एवं एम.के वकार की गोजरी कहानी आदमी नहीं उल्लेखनीय हैं। दरवाज़े पर होती ठक-ठक कितनी दहशत पैदा कर सकती है, उसे एक छोटी सी कहानी में एम.के वकार बताते हैं ; उसी को कुछ विस्तार से डॉ मनोज ने वर्णित किया है। यह दहशत आदमी नहीं कहानी के एक खानाबदोश को उतना ही सकते में डालती है, जितना कि दस्तकें कहानी के एक स्थायी निवासी को। (वकार, 2007) इन कहानियों में उन पात्रों का संदर्भ है, जो कम-सेकम अभी तक तो निर्वासित नहीं हुए हैं। लेकिन कब हो जाएँगे इस संदर्भ में कुछ कहा नहीं जा सकता। पर वे जो निर्वासित हो चुके हैं और कहीं और , किसी अन्य भूमि पर बसते हैं उनके लिए तो खुली पीठ पर कोड़े की मार सहने जैसा अनुभव ही है। किन्तु ऐसी स्थिति में भी वे आशावादी हैं- "ज़लावतन होना /अर्थात्/ रेल्वे प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना / किसी ऐसी ट्रेन की /जो तुम्हें अपनी जडों तक ले जाए/ और साथ ही अपने भीतर की यात्रा पर भी/कि नहो तुम्हें विस्मृत/अपना अतीत/अपनी शिनाख़्त /अपने देवता/अपनी जन्म भूमि।" यह आशावाद इन पंक्तियों में भी देखा जा सकता है-"मुझको यकीन है कि वो मंज़िल भी आएगी/ पूछेगा मुझसे मेरा सफ़र , रास्ता कहाँ"। (ज़ाफ़री, 2007)<br />जलावतनी का गीत गाते ये निर्वासित कहते हैं- "मैं पहनता हूँ/ अपने ही देश के जूते/पर यह कल्पना करता हूँ/अपनी धरती पर चल रहा हूँ/ " इस ख़ूबसूरत ख़याल के बाद वे कहते है- "मैं पहनता हूँ अपने ही देश के जूते/जो मुझे कहीं भी ले जा सकते हैं/ सिर्फ़ वहाँ नहीं/ जहाँ से हमें निकाला गया"। (संतोषी, 2007) जलावतनी का अर्थ होता है- अपनी जड़ों से कट जाना, अपनी अस्मिता खो देना, निरंतर अनिश्चय में जीना, अपने पद, प्रतिष्ठा और इतिहास से वंचित हो जाना, अपने अस्तित्व, आस्था, मूल्य तथा मानवीय गरिमा के खतरे में पड़ जाने का और जीवन की तलछट का अनुभव करना; अथवा तो फिर इन्हीं परिस्थितियों में जिजीविषा के साथ नयी संभावनाओं को तलाशना। जलावतन होने का अर्थ है एक ऐसी ट्रेन प्रतीक्षा करना जो फिर जड़ों तक ले जाए और साथ ही अपने भीतर एक ऐसी यात्रा लगातार करना कि जिससे अपना अतीत, अपनी पहचान, अपने देवता और अपनी जन्मभूमि का विस्मरण न हो जाए। (चौधरी, 2007)<br />लक्ष्य प्राप्ति के लिए मृत्यु और दुख की आकांक्षा करता कश्मिरी कवि कहता है-"अरे, मेरा करो अपहरण/ले जाओ मुझे अपने यातना शिविर में / कुछ नहीं कहूँगा मैं/करो जो कुछ भी करना है / मेरे शरीर के साथ/ जिन्दा जलाओ, काटो/या दफ़न करो..../ तरस गया हूँ अपनी ज़मीन के स्पर्श के लिए" (अग्निशेखर, तड़प,,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, 1996)। भौतिक सुविधाओं को प्राप्त करना कहीं न कहीं उस दुख को भूल जाना है, जिसका होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि अभावों के अँधेरों में पैदा हुआ यह दुख ही दूसरों की खुशी का अहसास कवि को देता है। इस दुख में जीवन की बंद स्मृतियाँ सँजोई पड़ी हैं, जिसे कवि ने अपने जिगर में पाल रखा है। (अग्निशेखर, साईकल ,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, 1996)<br />अपनी ज़मीन के लिए संघर्ष करते इन विस्थापितों के लिए निराशा नहीं, अपितु आशावादिता का होना आवश्यक है। यह एक बहुत बड़ा अंतर है आधुनिक काल के अस्तित्ववादियों एवं इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों में। आधुनिक काल में प्रचलित अस्तित्ववादी चिंतन में मृत्यु ही जीवन का परम लक्ष्य माना गया था ; पर राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए मृत्यु तभी स्वीकार्य है अगर लक्ष्य –प्राप्ति के लिए वह अनिवार्य साबित हो; और उनका लक्ष्य है, अपनी मातृभूमि में वापस लौटना। इस हेतु वे किसी भी क़ीमत पर अपने भीतर जग रही आशा को खोना नहीं चाहते हैं। आशा को ही खो देंगे तो कैसे चल सकता है। "मेरी सोयी हुई माँ के चेहरे पर/ किसी छिद्र से पड़ रहा है /थोड़ा –सा प्रकाश/हिल रही हैं उसकी पलकें/कौन कर रहा है इस अँधेरे में / सुबह की बात" (अग्निशेखर, थोडा सा प्रकाश, 1996) यह आशावादिता निर्वासन भोग रहे एक कवि की है तो इसी को एक कहानी में भी देखा जा सकता है, जिसकी नायिका को आतंकवादी उठा कर ले ही नहीं गए थे, बल्कि उस पर इतना अत्याचार किया और उसे गर्भवती भी बनाया। नायिका उनसे बच निकलने के लिए लगातार प्रयत्नशील है। वह अपने इस प्रयास में कामयाब भी हो जाती है ; यह जानते हुए कि अब उसे कोई स्वीकरेगा नही। अपने साथ अन्याय करने वालों को ठिकाने लगा कर जब वह बच निकलती है तो कहानी के अंत में लेखिका ने लिखा है- "गु गू गु.... पूर्वी आकाश में उजास फूटा। चिनार के पत्तों के बीच छिपी गुगी ने कुहुक कर उसका ध्यान खींचा। .....साफ़ तलैया के पास पहुँच कर उसने बच्ची को चौड़ी चट्टान पर लिटा दिया। बच्ची सख़्त स्पर्श पा कर पहले कुनमुनाई, बाद में चीख़ मार कर रोने लगी। विनी को उसके रुदन की आवाज़ अनूठी लगी। जैसे पहली बार सुन रही हो। उसने हथेली भर-भर पानी बच्ची पर उछाला और उसकी ऊँची उठती आवाज़ों के खंड़हर में गूँजते और आसमान को छूते देखती रही। के दिल से सारा डर निकल गया।" (चंद्रकांता, 2007) यहाँ आवाज़ और अभिव्यक्ति का महत्व इसलिए है कि दहशतगर्दों के साथ रहते हुए, पकड़े जाने के भय से उस बच्ची का मुँह कस कर बाँध दिया गया था। यह आवाज़ एक तरह से मुक्ति की आवाज़ थी।<br />इतिहास एवं सांस्कृतिक बोध की अनिवार्य उपस्थिति अगर अग्निशेखर की कविता में है तो तन्हा निज़ामी की कविता में भी है। ललद्यद को याद करते हुए तन्हा निज़ामी कहते हैं- "न हो आद्य कवियित्री ललद्यद की पीड़ा का स्मरण किसा को/ ओ मेरे देश/तुम्हें सींचा है मैंने अपने रक्त से/ मेरी आत्मा में रचे बसे सुगंधित वन/ये नदियाँ/ ये पेड़/ ये मौसम हैं तुम्हारा श्रृंगार/जिनकी मैं करता हूँ वंदना" (निज़ामी, 2007) तन्हा निज़ामी ललद्यद की जिस पीड़ा को याद नहीं करना चाहते उसे अग्निशेखर याद करते हैं – "तुमने समय के तंदूर में मारी छलांग/ और उदित हुई तन ढंककर/स्वर्ग के वस्त्रों में/ बिखेरते हुए बर्फ़-सा प्रकाश कहा तुमने/ कौन मरेगा और मारेंगे किसको.......विकल्प की आग में छलांग है हमारा निर्वासन" (अग्निशेखर, ललद्यद के नाम, 1996)। अग्निशेखर ने यह कविता निर्वासन में लिखी है। पीड़ा को जिलाए रखना इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी कविताओं का लक्षण बन जाता है।<br />कश्मीरी पंडितों की अपने इतिहास में जो यात्रा हुई है उसका एक वर्णन "पनुन कश्मीर" कविता में अयाज़ रसूल नाज़की करते हैं। कविता में शारिका पीठ से हारी दरवाज़े तक आते-आते कश्मीरी पंडित यह भूल जाते हैं कि आज अष्टमी है और मीट नहीं खाना है। (नाज़की, 1997) यह कहना मुश्किल है कि इसमें कवि इन दो विपरीत स्थितियों के माध्यम से क्या कहना चाहता है। पर शारिका पीठ और हारी दरवाज़ा इतिहास के दो काल-खंड हैं, जिनमें से होते हुए आए इन पंडितों के रहन-सहन में भी अब बरसों अंतर आ गया होगा। क्या यह पहचान के धीरे-धीरे बदल जाने का संदर्भ है जिसको पाठकों के समक्ष रख कर पनुन कश्मीर की व्यर्थता बता रहा हो ? या यह केवल एक तथ्यगत संकेत है? यह भी एक प्रश्न है। परन्तु पहले अपनी नदी और अब अंत में अपनी मातृभूमि छीन लिए जाने की आशंका से घिरा कवि उस धीमे और क्रमशः बदलते कश्मीर के चेहरे में कहीं अपने अस्तित्व और भूमिका को नए सिरे से जाँच और तलाश रहा है- संभवतः।<br />विस्थापन की इन कविताओं में एक बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि क्या घाटी के भीतर के और घाटी के बाहर के कवि – यानी निर्वासित पंडित और घाटी में रह गए मुसलसानों- के बीच क्या रिश्ता है ? यह अत्यन्त संवेदनशील मुद्दा इसलिए भी है कि आज यह संघर्ष कहीं न कहीं धार्मिक भी हो गया है; जबकि कश्मीर अपनी प्रकृति से धर्म-निरपेक्ष रहा है। क्या वर्तमान दहशत उसके इस मूल स्वभाव को बदल देना चाहती है? इस संदर्भ में बशीर अतहर अपनी एक कविता में कैसी मार्मिक संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं, उसे तो पूरा ही देखना आवश्यक है-<br />मेरा क्या होगा<br />तुम्हॆं लगता है<br />तुम्हारे विस्थापन पर ख़ुश हुआ था मैं<br /><br />तुम्हें यही लगता है<br />कि हडप कर तुम्हारी घर-गृहस्थी<br />मालामाल हो जाने की स्वप्न था मेरा<br />तुम्हारे विरसे का स्वामित्व<br />पृथ्वी का एकाधिकार पाऊँगा मैं<br />आकाश को खींचकर कदमों तले<br />बिछाऊँगा मैं<br /><br />तुम्हें यही लगता है<br />कि इसी ताक में था मैं<br />कि सपनें के महल बनाऊँगा<br />शमशानों पर<br />तुम्हारी हर स्मृति<br />हर चीज़ को मिटाकर<br />छोडूँगा उन पर छाप अपनी<br /><br />पर तुम्हें नहीं पता<br />कि ज़रूर किये मैंने शमशानों पर खड़े<br />अपने स्वप्न महल<br />और मेरे अपने ही सपने हुए भस्म<br />मैंने ओढ़ लिया तुम्हारा फ़िरन<br />वो बन गया कफ़न मेरा<br />मैंने बाट ली तुम्हारी शिखा की रस्सियाँ<br />इस तरह मिटाते हुए तुम्हारे निशान<br />मिट गई मेरी अपनी अस्मिता<br />रेत से जैसे पदचिह्न<br />लील जाते हुए तुमहारा वजूद<br />जाने कहाँ गया मेरा होना<br />कल ही बनाई मैंने<br />एक नयी मोहर<br />और हर उस चीज़ पर लगा दी<br />जो तुम्हारी थी<br />पर सोचा नहीं<br />इन कब्रिस्तानों का क्या करूँ<br />जो फैलते जा रहे हैं रोज-रोज<br />इतनी है लाशें<br /><br />तुम तो चिता की आग में<br />एक दिन हो जाओगे लीन<br />मगर मेरी कब्र...<br />क्या होगा उसका (अतहर, मेरा क्या होगा, 2007)<br />यह कविता कश्मीरी पंडितों के नाम है। यह एक तरह से अपराध-बोध की सकारात्मक अभिव्यक्ति भी है, जो मन को छूती है।<br />कश्मीर में रहने वाले मुसलमान बाशिंदों में और दहशतगर्द मुसलमान में जो अंतर है वह भी इस और अन्य कविताओं में साफ़ देखा जा सकता है , क्योंकि धर्म चाहे जो हो, ज़मीन तो दोनों की कश्मीर है। कश्मीर के सौन्दर्य और कश्मीर की संस्कृति के नष्ट हो जाने का सभी को समान अहसास है। (आज़ाद, 2007)<br />इस कविता के साथ-साथ उन कहानियों को भी देखा जा सकता है जो डोगरी भाषा में लिखी गई हैं, जिनके सारे चरित्र मुसलमान हैं और वे बहुत अच्छे हैं; इस मायने में कि घाटी में जिस तरह की परिस्थिति है उसके लिए आम मुसलमान ज़िम्मेदार नहीं है। ये सारी कहानियाँ गैर-मुसलमानों के द्वारा लिखी गई हैं।<br />जैसे कि पहले बताया गया है कश्मीरी विस्थापन की कविताओं की विशेषता यह है कि इसमें एक साथ आठ भाषाओं की कविताएँ मिलती हैं। कश्मीरी, हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू. डोगरी तथा गोजरी। विस्थापन के अनेक आयाम इन कविताओं में मिलते हैं । वास्तविक धरातल पर जिसे राजनीति ने पक्ष-प्रतिपक्ष बना दिया है , कविता में भी दोनों ही अलग-अलग भूमिका के साथ मौजूद है पर विस्थापन का भाव दोनों में है। एक दूसरे के प्रति संबंध का भाव दोनों में है। अगर कश्मीर के मुसलमान को हिन्दु की पीड़ा महसूस होती है तो तमाम दूरियों के बाद भी जलावतन हुए कश्मीरी मुसलमान के लिए एक हिन्दु कवि भी उतना ही दुखी है क्योंकि जलावतनी में स्थितियाँ तो सभी के लिए एक जैसी हैं।<br />लेकिन जो जलावतन नहीं हुआ है, उससे भी कवि पूछना चाहता है कि कैसे हो? क्योंकि भीतर से दोनों ही लहुलुहान हैं। (अग्निशेखर, कश्मीरी मुसलमान 1,2, 1996)<br />मातृभूमि की ही तरह माताएं भी इन रचनाओं में एक जैसी ही हैं- माताएँ इंतज़ार कर रही हैं, सीमापार गए बच्चों की, माताएँ ,जो बिलख रही हैं, कुचली जा रही हैं और कवि को चिंता है कि क्यों कोई माताओं के मानवाधिकार का प्रश्न नहीं उठा रहा है (अग्निशेखर, माताएँ, 1996) या फिर यह एक और माँ भी है - "वह गरिमामय/हर शाम दरवाज़ा खोले / बाट जोहती अपने छोटे-छोटे राजकुँवरों की/ ----------"वह कुछ लज्जित और आशंकित भी है पर "घुप्प अँधेरे में पड़ोसियों ने एक लंबी दहाड़ सुनी कि मरो नहीं रे/ अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है/ अभी तो तुम्हारे नाख़ूनों पर गीली है मेहँदी।" (शफाई, 2007)<br />राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अपने मिथकों और अपने इतिहास को बार-बार दोहराना आवश्यक है। ऐतिहासिक ललद्यद की तरह ही सतीसर के मिथक पर लिखी अग्निशेखर की लंबी कविता इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। इसमें नागों के साथ हुई वंचना को लेखक ने बहुत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। नाग पहले राक्षसों से, फिर कश्यप ऋषि से और फिर देवताओं से भी ठगे जाने का अनुभव करते हैं और इसीलिए विरोध को जिलाए रखते हैं- "मेरे विरोध में/छिपा है/ मेर जीवन का स्वप्न" (अग्निशेखर, सतीसर-चैंतीस, 2006) सत्ता किस तरह भोले आम आदमी को ठग लेती है , इस बात को कवि ने विष्णु के मिथक से भली भाँति रेखांकित किया है।<br />इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अपनी आस्था और संस्कृति, अपने मिथक और अपने देवता अपना इतिहास और अपना वर्तमान इसलिए भी मूल्यवान हो जाता है क्यों कि अपनी ज़मीन के लिए केवल वही संघर्ष नहीं कर रहे बल्कि शरणार्थी शिबिर में रह रही उनकी अगली पीढ़ी भी कर रही है। वह पीढ़ी, जो किसी अस्थाई व्यवस्था की अपेक्षा अपने कर्तृत्व पर अधिक भरोसा रखना सीख गई है-<br />इस बारिश में<br />कैंप के पिछवाडे<br />मुर्दा भैंस के कंकाल में छिपाकर<br />रख आता है एक बच्चा<br />उपनी पतंग<br />तंबू से उठ गया है<br />उसका विश्वास (अग्निशेखर, शरणार्थी शिविर में-12, 2006)<br />संदर्भ सूची<br /><br />1. अग्निशेखर. (2006). कालवृक्ष की छाया में. दिल्ली, भारत: सारांस प्रकासन.<br />2. अग्निशेखर. (2006). कालवृक्ष की छाया में. दिल्ली: सारांश प्रकाशन.<br />3. अग्निशेखर. (1996). तड़प,,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली: शारदापीठ प्रकासन.<br />4. अग्निशेखर. (1996). थोडा सा प्रकाश. अग्निशेखर में, मुझसे छीन ली गयी मेरी नदी (पृ. 10). दिल्ली: शारदा पीठ प्रकाशन.<br />5. अग्निशेखर. (1996). मुछसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली, दिल्ली, भारत: शागदापीठ प्रकाशन.<br />6. अग्निशेखर. (1996). मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली, भारत: शारदापीठ प्रकाशन.<br />7. अग्निशेखर. (1996). ललद्यद के नाम. In अग्निशेखर, मुझसे छीन ली गई मी नदी (pp. 56-58). दिल्ली: शारदापीठ प्रकाशन.<br />8. अग्निशेखर. (1996). साईकल ,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली: शारदापीठ प्रकाशन.<br />9. अतहर, ब. (2007, जुलाई-सितंबर). मेरा क्या होगा. वसुधा , p. 74.<br />10. आज़ाद, न. (2007, जुलई-सितंबर). धेरे में. वसुधा , pp. 279-280.<br />11. कुंदनलाला चौधरी. (जुलाई-सितंबर 2007). जलावतन. वसुधा , पृ. 305.<br />12. चंद्रकांता. (2007, जुलाई-सितंबर). आवाज़. (क. प. संपादक-अग्निशेखर, Ed.) वसुधा , 74 (वर्ष-4 अंक 2), pp. 231-238.<br />13. ज़ाफ़री, ल. (2007, जुलाई-सितंबर). हिज़रत. वसुधा , p. 283.<br />14. नाज़की, अ. र. (1997, जुनाई सितंबर). पनुन कश्मीर. वसुधा , p. 73.<br />15. निज़ामी, त. (2007, जुलाई-सितंबर). ओ मेरे देश. (क. प. अग्निशेखर, Ed.) वसुधा , 2 (2), pp. 76-77.<br />16. नीरज संतोष. (जुलाई-सितंबर 2007). थोडी सी जगह. (अतिथि संपादक अग्निशेखर, मोहन सिंह कमलाप्रसाद, सं.) वसुधा (2), पृ. 308.<br />17. बशीर अतहर. (जुलाई-सितंबर 2007). मेरा क्या होगा. वसुधा , पृ. 74.<br />18. राजेन्द्र शर्मा उमा वाजपेयी. (2007). गतिविधियाँ. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.<br />19. राजेन्द्र शर्मा. (2007). गतिविधियां. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.<br />20. रामरतन ज्वेल, र. श. (2007). गतिविधियाँ. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.<br />21. वकार, म. (2007, जुलाई-सितंबर ). वसुधा , pp. 128-136( दस्तकें)312-314(आदमी नहीं).<br />22. शफाई, न. (2007). बैन-विलाप. वसुधा , 69.<br />23. संतोषी, म. क. (2007, जुलाई-सितंबर). जलावतनी का गीत. वसुधा , p. 209.<br /><br /><br />बलकाक और नोनो-वेद राही,दस्तकें –डॉ.मनोज, धूप-तेजाब-डॉ. सुशील, अर्थ वर्क- चमन अरोरा, मिनार, दरिया और राजनाथ-बन्धु शर्मा, उत्तर क्या है- नरसिंह देव जम्वाल, फिरौति- प्रवीश केसर, यह तोता है- अर्चना केसर, माई-देशबन्धु डोगरा, अतीत की फाँस-ओम गोस्वामी<br /></div></span></strong></span>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-52288221509867272232010-04-01T05:19:00.000-07:002010-04-01T05:28:50.576-07:00Kashmirrajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-19448412375904541832010-03-13T01:20:00.000-08:002010-03-13T01:47:16.407-08:00हिला हिलबिला हिला क्या बिल... महिला<div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">हिला कर रख दिया है महिला बिल ने सभी को। यही हमारे समाज </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">की लिटमस परीक्षा है। कौन कितने पानी में है महिलाओं की स्वतंत्रता </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">और अधिकारों के प्रति यह अब खुलने लगा है। मैं तो कहती हूँ हो </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">जाये हिसाब किताब। अगर हमारे धर्माचार्यों को( दोनों ) को कुबूल नहीं कि</span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span> महिला आरक्षण हो, तो मैं कहती हूँ धर्म और भगवान का भी बँटवारा </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">हो जाए। महिलाएं अब अपना अलग मंदिर बनाएँ। पुजारी भी वही हों,</span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"> </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">इसमें पुरुषों को प्रवेश न हो। सारी देवियाँ महिलाओं के हिस्से।अब से </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">अंबा, दुर्गा, भवानी, ग्राम-देवियाँ, सरस्वती, गायत्री किसीको भी पूजने का </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">हक़ पुरुषों को न हो। विष्णु आप लें , लक्ष्मी हम ले लेते हैं। रिद्धि-</span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">सिद्धि हमारी, गणेशजी आपके। राधा हमारी , कृष्ण आपके। पार्वती </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">तथा आधे शंकर हमारे आपके केवल आधे शंकर। महिलाएँ मरें तो </span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;">महिला पुजारी सब करें-विधि-विधान। इस संदर्भ में और भी बहुत कुछ</span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span></span></strong></span> </div><div align="justify"><span style="color:#cc0000;"><strong><span style="font-size:180%;"><span></span> कहा जा सकता है। पर पहले इतना तय हो जाए--फिर आगे की बात। </span></strong></span></div>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-34229102149646318032010-02-16T18:44:00.000-08:002010-02-16T18:56:01.280-08:00मोरनियां<div align="center"><span style="color:#000099;"><span style="font-size:180%;"><strong>मोरनियाँ</strong><br /></span></span><br /></div><span style="color:#009900;"><span style="font-size:180%;"><blockquote><p align="center"><span style="color:#009900;"><span style="font-size:130%;"><strong>मोर के रंगों को धारण कर,<br />मोरनियां बन जाती हैं चोरनियां<br />चोरनियां...........दिल चोरनियां<br /><span></span></strong></span></span></p><p align="center"><span style="color:#009900;"><span style="font-size:130%;"><strong>कैसे हो जाती हैं </strong></span></span></p><p align="center"><span style="color:#009900;"><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#cc0000;">दिल-चोरनियां..........</span>मोरनियां ? </strong></span></span></p><p align="center"><span style="color:#009900;"><strong><span style="font-size:130%;"></span></strong><p align="center"><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#666666;">– मटमैली एकदम सादी-सी मोरनियां<br />होती हैं साधारण </span></strong></p></span><p></p><span style="font-size:130%;"></span><span><blockquote><p align="center"><span style="font-size:130%;color:#666666;"><strong></strong></span> </p></blockquote><p align="center"><strong><span style="color:#ff6666;">मैंने</span></strong></span></p><p align="center"><strong><span style="color:#ff6666;">पहले भी कहा था<br />सुंदर नहीं होती हैं मोरनियां<br />फिर भी ... किस क़दर दिल चोरनियां !</span></strong> <p align="center"><p align="center"><p align="center"><p align="center"><p align="center"><p align="center"><p align="center"><p align="center"> </p><p></p><p></p><p align="center"> </p><p></p><p align="center"> </p><p></p><p align="center"> </p><p></p><p align="center"> </p><p></p><p align="center"> </p><p></p><p align="center"> </p><p></p><p align="center"><strong><span style="color:#000099;">के रंगों में धीरे-धीरे<br />रिम-झिम, रिम-झिम सराबोर हो जाना – आद्यंत – सरापा<br />उनकी नीली-हरी गरदनों की लचक में<br />झूम-झूम झूमना</span></strong></p><p align="center"><strong><span></span><span style="color:#000099;"><br /><span style="color:#6600cc;">रिम-झिम, रिम-झिम ......टे हें ओ ..... टे हें ओ ......<br />यही तो है, मोर के रंगों को धारण करना !<br /></span><br />मोर –पाखी आँखों में झिल-मिल....झिल-मिल...मिलना<br />झिप-झिप झिप-झिप......<br />चुप-चुप …… …… चुप-चुप</span></strong></p><p align="center"><span></span></span><span style="color:#000099;"><strong><br />बनती है चोरनियां........ये मोरनियां<br />मयूर-रंग में पगी.......... ये मोरनियां .....</strong></span></p></blockquote></span></span>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-73668769728978808942010-02-15T10:01:00.000-08:002010-02-15T10:24:44.696-08:00कश्मीर<strong>राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी चेतना : सौन्दर्य-चेता धरती का वर्तमान विमर्श</strong><br /> रंजना अरगडे<br /><strong>वर्तमान समय, साहित्य के विविध पक्षों और स्वरूपों के माध्यम से हम तक पहुँच रहा है। केन्द्र का साहित्य और हाशिए का साहित्य- इसकी प्रमुख पहचान बन गया है। साहित्य को देखने के हमारे परंपरागत दृष्टिकोण में इससे बहुत अंतर आया है। अब हम भाषा, संवेदना और विचार के स्तर पर उस तरह नहीं सोचते जैसे दो-एक दशक पूर्व सोचते थे। हाशिए के सारे मुद्दे अब चर्चा के केन्द्र में हैं। यह अलग बात है कि इन मुद्दों पर सोचते हुए हम कितने मानवीय बने रहते हैं और कितने बाज़ार से प्रभावित होते हैं। लगभग हम सभी इस बात को जानते हैं कि बाज़ार वही बेचता है, जो बिकता है। उसी की माँग खड़ी होती है और की भी जाती है। स्त्री, दलित, अ-श्वेत जब तक बाज़ार के लिए उपयोगी होंगे तब तक एक उत्पाद के रूप में वे खूब बिकेंगे ; और वह बिकते रहें इसकी कोशिश भी बाज़ार की ताक़तें करती रहेंगी, इसमें कोई संदेह नहीं। <br />अभिव्यक्ति के इन सभी पक्षों में एक प्रश्न विस्थापितों का भी है। विस्थापितों का प्रश्न अन्य विमर्शों से भिन्न है, अपनी प्रकृति में और अपने व्याप में। विस्थापित किसी भी सत्ता के लिए उस काँटे की तरह हैं, जो दुखता भी है, दिक भी करता है, पर संभवतः वह कभी नासूर नहीं बन सकता, ऐसा उन्हें भरोसा है। सत्ता का यह विश्वास कितना स्थाई है यह तो समय ही बता सकता है। फिर अभी तक तो वह बाज़ार की आवश्यकता नहीं बना है, क्योंकि राजनैतिक रूप से वह एक न सुलझने वाला गुंजलक भी है। <br />किसी भी भाषा का समाज जब अपने अस्तित्व(होने) की ज़द्दोज़ेहद एवं संकट से उबरने के लिए लड़ रहा होता है, जूझ रहा होता है, तभी उस भाषा में सर्वोत्तम साहित्य रचा जाता है। इलीयट की यह बात सच ही होनी चाहिए क्योंकि आज के संघर्षशील दौर में विभिन्न देशों में, अपने ज़मीनी अस्तित्व के लिए जी-जान से लड़ने वाले, जब अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर रहे हैं, अपनी ज़मीन को बचाने के लिए उनकी जो आवाज़ें सुनाई पड़ रही हैं, वे इस बात की गवाह हैं कि इसके पहले इस तरह की अभिव्यक्तियां हमने नहीं सुनी थीं। ये सारी अभिव्यक्तियां हमारे अपने समय की महाकाव्यात्मक अभिव्यक्तियां हैं क्यों कि इनमें मानवीय संवेदना और अ-मानवीय सत्ता के बीच की गहरी खाई को रेखांकित किया गया है। अलग-अलग भाषा-वैज्ञानिक कुल-कुनबों मे बंटी ये सारी भाषाएं वास्तव में विस्थापितों की भूमि पर आ कर एक हो जाती हैं, क्योंकि इन सभी में उसी एक अमानवीय-सत्ता और स्थिति के प्रति संघर्ष और संवाद का बिन्दु है। इस उत्तर- आधुनिक समय में, वैश्विकीकरण के इस दौर में इन सभी अभिव्यक्तियों को एक मान कर चलना चाहिए, फिर चाहे इन अभिव्यक्तियों के देश, रंग, धर्म, जाति और नस्ल अलग-अलग ही क्यों न हो। <br /><br />1<br />यह बात सर्वविदित है कि आधुनिकता से उत्तर-आधुनिकता तक आते-आते संवेदना-बोध का केन्द्र बदल गया है। पहले व्यक्ति अपने सुख-दुख,पहचान, अस्तित्व, स्वतंत्रता की चाहना के लिए चिंतित था। पहले व्यक्ति केन्द्र में था, समाज हाशिये पर; व्यक्ति अपनी सोच और ऐषणाओं से बद्ध था। उसकी प्राप्ति के लिए कार्यरत । उसकी बौद्धिकता और हार्दिकता के केन्द्र में केवल वह खुद था। उसका कोई वर्ग नहीं था- न कोई जाति, देश , लिंग, धर्म, समूह। जैसे आधुनिकतावादी। या फिर अगर था भी कोई वर्ग, तो उसका आधार भी न तो स्वमान ही था, न ही आत्म-गौरव - बल्कि पूँजी और उसका वितरण। जैसे मार्क्सवाद। मार्क्सवाद जिन शोषितों की बात करता है उनका भी तो, न कोई रंग, देश जाति, नस्ल, धर्म या समूह ही है । पर उनका कोई ऐसा, ज़मीन या धरती के किसी टुकड़े विशेष के लिए संघर्ष का मसला भी तो नहीं , क्यों कि उनके यहाँ तो दुनिया के मज़दूरों को एक करने की बात है। वहाँ स्पेस शासन के लिए, सत्ता के लिए चाहिए था। हाँ, वह सत्ता –व्यक्ति- विशेष की न हो कर प्रोलेतेरियत की हो, ऐसा उनका यूटोपीयन स्वप्न अवश्य था। अतः व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विचारधारा का रिश्ता था, कोई ज़मीनी रिश्ता नहीं था। दूसरी ओर, नाकामियां, दुख-दर्द, पीड़ा, मरने की उत्सुक अभिलाषा, समाज व्यवस्था के प्रति विद्रोह, जीवन के प्रति व्यर्थता का बोध, अलगाव-बोध आदि अस्तित्ववादी चिंतन के केन्द्र में भी व्यक्ति ही रहा । <br />व्यक्ति से समूह की ओर आती उत्तर-आधुनिकता की सोच और चिंतन की दिशाओं में भी बदलाव आया। अस्तित्व वादी अनुभूतियों का एक नया विकसित रूप, उत्तर-आधुनिक समय की अपनी प्रकृति के अनुसार, आज समूह-केन्द्री हो गया है। चूंकि उत्तर आधुनिक की ज़मीन अलग है अतः इस अस्तित्ववादी भाव-भूमि का स्वरूप भी अलग दिखाई पड़ता है। इसे हम राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी चेतना कह सकते हैं। यहाँ दुःख – दर्द की इच्छा नहीं है। इच्छा तो सुख की है। उससे भी आगे बढ़ कर शांतिमय अस्तित्व की। पर यह सुख, यह शांति मिलेगी कि नहीं , या कब मिलेगी, कोई नहीं जानता। पर हाँ, अगर दुःख-दर्द नहीं होगा, तो कोई उनकी ओर देखेगा भी नहीं। और दुःख दर्द भी सामान्य नहीं बल्कि मरने-मारने जितना। ये राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी स्वेच्छा से ही दुःख दर्द चाहते हैं, पर इसका आधार एवं कारण जीवन की व्यर्थता न हो कर दूसरी ज़मीन पर रहते हुए महसूस होती वर्तमान जीवन की व्यर्थता का बोध है। अपनी जन्म-भूमि के अलावा अन्य ज़मीन पर ज़बरन रहने को विवश इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए दुःख दर्द ही वह एक रास्ता है जो संभवतः इन्हें अथवा इन की आने वाली पीढियों को उस ज़मीन पर रहने का अवसर बना सकता है, जिसका वे स्वप्न देख रहे हैं और उस स्वप्न को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।<br />पीड़ा का बोध इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए इसलिए आवश्यक है क्योंकि लंबे अंतहीन एवं परिणाम विहीन लगने वाले संघर्ष से कहीं घबरा कर, अगर थोड़ी देर के लिए भी मन हटा-सा, तो सुविधाओं से भरा और अंधा कर देने वाली हार-मालाएँ पहनाता बाज़ार का आकर्षण उन्हें दबोच न ले। एक विचित्र डिक्टॉमी भी है। एक ओर जहाँ बाज़ार का प्रचार करने वाले प्रचार –माध्यम इन आंदोलनकर्ताओं की बात का प्रचार करने के लिए उपयोगी हैं, वहीं इनको पथ से हटाने के लिए भी सक्षम भी हैं। अतः राष्ट्र-धर्मी अस्तित्ववादियों का बाज़ार के साथ एक दोहरा संबंध है। विशेष रूप से आंदोलनों में जब समूह कार्यरत रहता है तो ऐसे अवसर आने की संभावना अधिक रहती है। पीड़ा के इस बोध के लिए आवश्यक है कि अपनी वर्तमान दशा को बार-बार चित्रों, फ़िल्मों ,साहित्य, नाटक, आंदोलन आदि के द्वारा जीवित रखा जाए। मीडिया के द्वारा इसे हर संभव प्रयत्न द्वारा अलग-अलग समूहों तक पहुँचाया जाए। <br />विस्थापितों के लिए अपनी ज़मीन की माँग रखना उस फ़ासीवादी मानसिकता से बिल्कुल अलग है जो अपनी ज़मीन पर अपने और अपने-जैसों के अलावा और किसी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं कर सकते। बल्कि वे पीड़ा में इसलिए रहते हैं अथवा रहने की परिस्थिति में पहुँच गए हैं कि उन्हें तो अपनी ज़मीन की दरकार है। वे मग़रूरी से नहीं बल्कि पीड़ा के रास्ते से अपना ध्येय प्राप्त करना चाहते हैं। ज़मीन के अभाव के कारण मग़रूरी का अभाव है, ऐसा नहीं है , परन्तु जहाँ-जहाँ विस्थापन है उन समूहों का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है और एक गरिमामयी संस्कृति भी रही है। उन ऐतिहासिक स्मृतियों के कारण भी इन विस्थापितों की पीड़ा, विवश पीड़ा न रह कर मानवीय पीड़ा के रूप में उभरती है।<br />यही गरिमामयी पीड़ा उन्हें अपने ध्येय-प्राप्ति के लिए मरने की उत्सुक अभिलाषा तक ले जाती है। शांति भरा जीवन और सुख के कुछ रंग चाहते इन राष्ट्र–धर्मी अस्तित्ववादियों के लिए मृत्यु एक उत्सुकता भरी अभिलाषा बन कर आती है। यही कारण है कि वे यथा संभव अपनी संस्कृति और कला में, जीवन के चित्रों को पैनेपन के साथ उकेरते हैं । अपनी परंपरा एवं इतिहास का सतत स्मरण उनकी पीड़ा, दुःख-दर्द, मृत्यु की अभिलाषा – सभी के लिए आवश्यक है। साथ ही उन के लिए यह अनिवार्य है कि वे वर्तमान का यथार्थ भी सतत अपने ज़ेहन में रखें। अतः राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी, एक साथ तीन बिन्दुओं पर जीते हैं। ये तीन बिन्दु हैं :<br />1-अतीतगामिता<br />संघर्ष भावना की लौ की आधार-भूमि यही अतीतगामिता है। ध्येय प्राप्ति के लिए अतीतगामिता अनिवार्य है ।<br />2-संवाद-धर्मिता<br />संवाद-धर्मिता की भूमि राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियो के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। विस्थापितों के संघर्ष के मानवीय पक्ष तथा संवेदनशीलता के लिए साहित्य, कला तथा संप्रेषण के आधुनिकतम माध्यमों को बेहतर से बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल करना एवं विभन्न प्रकार के नेट-वर्किंग के द्वारा बहु-संख्यकलोगों तक पहुँचना राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अनिवार्य है। <br />3-वर्तमान का यथार्थ-बोध<br />इन रा.ध. अ. के लिए ध्येय-प्राप्ति हेतु सतत वर्तमान में जीना अनिवार्य है । वर्तमान राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं एवं राजनीति के बरक्स रणनीति गढ़ कर अपने मूल उद्देश्य के प्रति सजग रहना। विस्थापितों के भविष्य एवं वर्तमान का निर्णय हमेंशा ही वे लोग नहीं करते जो विस्थापित हैं या जो कार्यकारी एवं सीधे ज़िम्मेदार, सत्ता पर बैठे हैं। वे लोग जो कहीं और बैठे हुए हैं, वे लोग तय करते हैं कि फिलिस्तीनियों का क्या होगा, कश्मिरियों का क्या होगा, बांग्लादेशियों का क्या होगा...... इत्यादि, इत्यादि। इस अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में बाज़ार की केन्द्रीय भूमिका रही है। उत्पाद, वितरण और उपभोक्ता – का निर्णय कोई एक, कहीं बैठे , किसी के लिए कर रहा है। यह उत्पाद- वितरण आदि, ज़ाहिर है, चीज़-वस्तुओं तक सीमित नहीं है- यह सत्ता और शासन-प्रकारांतर से जन-संस्कृति तक फैल गया है। इसीलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कि बाज़ार के माध्यम से अन्य देशों के निर्वासित और विस्थापित कौन होंगे , इस निर्णय को प्रभावित कोई और ताक़त कर रही है। <br />अर्थात् रा.अ. एक साथ वर्तमान, अतीत एवं कला- लोक में बने रहते हैं। एक साथ तीन बिन्दुओं पर जीना निश्चित ही सरल काम नहीं है ।<br />2<br />मानवीय संवेदना और अ-मानवीय सत्ता के बीच की गहरी खाई इन रा.ध.अ के लिए सबसे अधिक चुनौति वाली जगह है। क्योकि यह अ-मानवीय सत्ता विदेशी नहीं है। यहाँ किसी उपनिवेशवादी ताक़त के साथ या किसी राजा-महाराजा से लड़ना नहीं है, बल्कि अपनी ही चुनी हुई सरकार से, अपनी ही शर्तों पर, अपनी ही ज़मीन के लिए, अपने ही लोगों से संघर्ष करना है। यानी एक तरह से यह अपनों के साथ अपनों की लड़ाई है। यह तथ्य इस आंदोलन को वैचारिक स्तर पर अपने पूर्व-वर्ती आधुनिक और भावनात्मक स्तर पर, उसके भी पूर्व-वर्ती स्वतंत्रता आंदोलन से अलगाता है।<br />अलगाव-बोध की भूमि पर इन रा .अ को दूसरी ज़मीन पर अ-लगाव के साथ रहते हुए अपनी भूमि के प्रति लगाव की भावना में देखा जा सकता है। <br />आधुनिकता के दौर में जो ईश्वर बैक-फुट पर चला गया था वही उत्तर-आधुनिकता में दृश्य फलक पर उपस्थित दिखाई पड़ता हैं । विस्थापित, चूँकि अपनी परंपरा को भूल नहीं सकते, भूलना नहीं चाहते, अतः वे अपने ईश्वर, अपनी पूजा-उपासनाओं को भी नहीं भूल सकते। फिर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि चाहे आधुनितावाद हो या मार्क्सवाद, किसी ने भी ईश्वर की अनुपस्थिति में मनुष्य को बेहतर जीवन तो नहीं ही दिया है। और यह बात शीशे जितनी साफ़ है। जहाँ तक वैज्ञानिक खोजों का प्रश्न है, उसके संपन्न होने में ईश्वर की उपस्थिति कहीं भी बाधा रूप नहीं है। <br />अपनों के साथ अपनों की लड़ाई हमेशा ही दुःखदायी रही है। विशाल स्तर पर इसे हम कौरवों-पांडवों की लडाई के साथ भी जोड़ सकते हैं , क्योंकि वहाँ भी मसला सुई की नोक के बराबर की ज़मीन का रहा है। इसे यहूदियों के आरंभिक निष्कासन से भी जोड़ सकते हैं। वह घटना आज तक यहूदियों की नियति की नियंता बनी हुई है। बिना उस पीड़ा और अलगाव के दर्द की गहराई को समझे, हम कभी भी यहूदियों को पूरी तरह समझ नहीं सकते। <br />उसी तरह इस्लामियों के विस्थापन को हम मोहम्मद पैगंबर के मक्का से मदीना जाने और फिर से इस्लाम जैसे नए धर्म के साथ मक्का लौटने से भी जोड़ सकते हैं। पर इस लौटने में उद्देश्य की रचनात्मक सफलता का दर्शन किया जा सकता है।<br />यह सफलता उन तिब्बतियों को नहीं मिल सकी है जो आज तक ज़िलावतनी(एक्ज़ाईल) में जी रहे हैं। <br /> यहां एडवर्ड सईद के ओरिएंटलिज़म को भी याद किया जा सकता है। सईद अपने को अपनी तरह देखने और समझने की शुरुआत करने के लिए कहता है। जब हम अपने को अपनी तरह देखेंगे तो सबसे पहले अपनी ज़मीन ही दिखेगी जिस पर खड़े रह कर अपने बारे में अपनी तरह सोचा जा सकता है।<br />3<br />विस्थापन अ-सीम और काल-मुक्त है। वह एक वैश्विक फ़िनोमिनन है। यों भी कहा जा सकता है कि विस्थापन मनुष्य की नियति है। मनुष्य के होने के मूल में ही विस्थापन है। एक अर्थ में जीव मात्र के होने का कारण उसका विस्थापन ही है। दार्शनिक स्तर पर ब्रह्म से विस्थापित होता है, तब जीव, अस्तित्व में आता है। अगर हमें यह बात अच्छी नहीं लगती तो हम कह सकते हैं कि माता के गर्भ से विस्थापित हो कर बच्चा अस्तित्व धारण करता है। यानी कि बिना विस्थापित हुए अस्तित्व संभव नही है। होने के लिए विस्थापन आवश्यक है। लेकिन यह तर्क वैसा ही है जैसे इसाई धर्म मे यह बात आई कि स्वर्ग का राज्य तो ग़रीबों के लिए है तो पृथ्वी पर से उन्हें खत्म करो और स्वर्ग भेजो। ऐसे सिद्धांत उन लोगों के लिए हमेंशा ही लाभदायी रहते हैं, रहे हैं, जो अपने लिए और अपने वंशजों के लिए अमाप सत्ता की कामना अपना एकाधिकार समझते हैं। हम, एक मानव समाज के रूप में उस मायाजाल से तो निकल आए हैं। परन्तु साथ ही यह भी देख रहे हैं कि इससे बचाने वाली सोच ने भी अन्ततः तो ऐसा कुछ किया नहीं कि मनुष्य अपनी बदहाली से बच सके। उत्तर आधुनिक दौर तक आते आते , यह हम लोगों के सामने स्पष्ट हो गया है कि आत्म-गौरव , आत्म-रक्षा तथा अधिकार हर व्यक्ति को अथवा मानव समूह को अपने बूते पर, संघर्ष कर के, लड़ कर अथवा अन्यथा प्राप्त करना होगा। अतः उसे अपने पूर्वानुभवों तथा अब तक प्राप्त समझ के सहारे ही अपना रास्ता तय करना होगा। रा.ध अ भी इसी मार्ग पर चलते हुए अगर ईश्वर पर भरोसा रखते हैं अथवा अपनी परंपराओं को जीवित रखते हैं, तो यह उनका अपना सोचा और चुना हुआ मार्ग है। इससे एक संकेत यह भी मिलता है कि वर्तमान व्यवस्थाओं ने अलग-अलग रूपों में अलग-अलग समूहों को निराश ही किया है। <br />यह विस्थापन देशों और राष्ट्रों की सीमाओं को पार करने वाला भी है और आंतरिक विस्थापन भी इसमें शामिल है। विभिन्न प्रकार के विस्थापन को समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे विस्थापन के स्वरूप को ठीक तरह समझा जा सकता है। विस्थापन के मुख्यतः दो कारण देखे जा सकते हैं। धर्म-सत्ता और राजनीतिक सत्ता। वर्तमान समय में विकास के कारण भी विस्थापितों की एक नई जमात बनती जी रही है। चाहे जंगलों में बड़े बाँधों के निर्माण की बात हो या शहर के बीचोबीच नदियों को ख़ूबसूरत बनाने की योजना हो – इन योजनाओं के कारण विस्थापित हुए जन-समूहों को विकास के नाम पर अपनी ज़मीन से बेदख़ल होना पड़ रहा है। औद्योगिक विकास आधुनिक काल से यात्रा करते-करते जब उत्तर-आधुनिक काल में आता है , तब तक समूह जागृत हो चुके हैं। अतः आधुनिक काल में इस प्रकार के विस्थापन को ले कर जितना उहा-पोह नहीं हुआ, उत्तर आधुनिक काल में यह अन्तर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करने लगा है। <br />4<br />इस बिन्दु पर आ कर विस्थापन और अप्रवासी के बीच का अन्तर और एक बिन्दु पर उनके बीच के संबंध-सूत्र को भी समझना चाहिए। जब अपनी इच्छा से अपने विकास के लिए पराई भूमि में कोई बसता है, तो वह अप्रवासी के अन्तर्गत गिना जा सकता है। हम जहाँ अपने लाभ, अपने विकास के लिए जाते हैं, तो हमें उस भूमि की शर्तों पर रहना होता है। अपनी इच्छा से , अपने विकास के लिए किया हुआ स्थलांतर भी कालांतर में हमें ऐसा बोध दे सकता है कि हमारे साथ परायेपन का व्यवहार हो रहा है। यह भी दुःखद और एक हद तक कभी-कभी अ-मानवीय हो सकता है। पर यह चूँकि हमारा चुनाव है, अतः इनसे लड़ने का हमारा तरीका अलग हो सकता है। भारत जैसे बहु- प्रांतीय राष्ट्र में यह आंतरिक प्रवासी कहाए जा सकते हैं , जैसे विदेशों में अपनी आजीविका तथा बेहतर भविष्य की तलाश में रह रहे भारतीय समूह के लोगों को हम अप्रवासी के रूप में पहचानते हैं। निश्चित ही उनकी अपनी समस्याएं होंगी और हो सकती हैं, पर फिर भी वे विस्थापित नहीं हैं, बल्कि अपनी इच्छा से किसी और ज़मीन पर स्थापित होने के पूर्ण प्रयास में रत। अतः महाराष्ट्र में रहते उत्तर-वासियों का संघर्ष, या श्रीलंका में रहते तमिळों का संघर्ष, पाकिस्तान में रहते अफ़ग़ानी या मुहाजिर अथवा उत्तराखंड(वर्तमान) में रहते तराई के लोगों की समस्याएं इन विस्थापितों की समस्याओं से और स्थिति से बिल्कुल ही अलग हैं। उसी तरह बिहार में से झारखंड की माँग, उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड की मांग, मध्य-प्रदेश से छत्तीसगढ़ का बनना या अब तेलंगाना- इनमें और विस्थापितों में जो अंतर है वह एक ज़मीन को दो में बाँटने की अनिवार्यता- क्योंकि हक़ और अधिकार और सुविधाओं का सही वितरण नहीं हो रहा था- ऐसी भावना घर कर गई थी। इसके राजनीतिक पहलू भी हैं जिनकी चर्चा यहाँ अनिवार्य नहीं है। इन सबका संबंध तत्कालीन राजनीतिक हवाओं एवं ऐषणाओं से ही जुड़ा है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा।<br />हाँ, लेकिन इन अप्रवासियों में तथा विस्थापितों के बीच एक विचित्र संबंध-सूत्र है। अपनी इच्छा से विदेश गए समूह अ-प्रवासी कहाते है। वहाँ वे और उनकी पीढ़ियां रहती हैं और वे वहीं के नागरिक भी हो जाते हैं। पर किसी राजनीतिक अथवा अन्य कारण से अगर उन्हें लौटना पड़े तो अपने ही मूल देश में वे विस्थापित हो जाते हैं। <br />5<br />विस्थापन के मुद्दे को हम सांप्रदायिक मसले के साथ नहीं जोड़ सकते क्योंकि वहाँ ज़मीन से अधिक, राजनीतिक सत्ता में लिपटे धार्मिक मत-भेद की लड़ाई है। धार्मिक मत-भेद भारत में कोई नया मसला नहीं है। इसमें राजनीति का हस्तक्षेप भी नया नहीं है। परन्तु अन्तर तब आता है जब,अब राजनीति का ढाँचा बदल गया है, शासन किसी शाही परिवार अथवा किसी विदेशी सत्ता का नहीं है। अब तो लोगों द्वारा चुनी , लोकतांत्रिक सत्ता है, तब , धर्म और राजनीति के मायने सैद्धंतिक रूप से न मध्य-कालीन रहते हैं, न ही उपनिवेशवादी। संभवतः इसीलिए यह संघर्ष अधिक पीड़ा दायक कहा जा सकता है। इसीलिए इस रा.अ का रास्ता भी पीड़ा से हो कर गुज़रता है। जिन समुदायों ने संघर्ष के स्थान पर मुख्य धारा में अपने को शामिल कर लिया अब उनके विस्थापन को लोग भूल भी चुके हैं। सिंधी बोलने वाला समूह हमारे देश का एक मात्र ऐसा समूह है जिसका कोई प्रांत नहीं है। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए बंगाली, पंजाबी, सिखों की तुलना में सिंधियों की स्थिति इसलिए भिन्न रही क्यों कि शेष सभी अपने-अपने भाषा-प्रांत के साथ अपनी पहचान को सरलता से जोड़ कर एक हो गए। सिंधियों का कोई भाषा-प्रांत यहाँ था नहीं और विभाजन की विभीषिका से गुज़रने के बाद स्वतंत्र भारत की ज़मीन पर आ कर अपने लिए अलग प्रांत माँगने की कोई भूमिका बनने का तब प्रश्न भी खड़ा नहीं हुआ। भारत की अपनी सांस्कृतिक प्रकृति ही ऐसी रही है कि यहाँ जो भी आया उसका हमेंशा स्वीकार ही हुआ है। धीरे-धीरे सिंधियों ने अपने आप को पूरे भारत में फैला लिया। यह उनका अपना चुनाव रहा है। इस चुनाव से उनको कोई शिकायत भी नहीं है। उन्होंने धर्म को तरजीह दी और भारत में आने का चुनाव किया। उसके बरक्स भारत में रहने वाले इस्लाम को मानने वालों ने ज़मीन के टुकड़े के साथ भारत से अलग अपना अस्तित्व चाहा और प्राप्त किया। हो सकता है कि कहीं न कहीं इसके साथ मध्य-काल की अपने शासन की स्मृतियों की भूमिका हो।<br />6<br />कश्मिरी विस्थापितों का प्रश्न धर्म से नहीं जुड़ा है बल्कि, ज़मीन से जुड़ा है। उस ज़मीन से जो उनकी थी और जहाँ से उन्हें ज़बरन हट जाना पड़ा है। चूँकि आज 1947 नहीं है, समय और स्थितियां भी बदल गई हैं। फिर, कश्मीर भारत की वैचारिक, कलात्मक एवं दार्शनिक परंपराओं का एक सशक्त उत्स भी रहा है। जिस भूमि पर प्रत्यभिज्ञा दर्शन का अवतरण करने वाली अभिनवगुप्त जैसी प्रतिभा ने जन्म लिया हो ; कश्मीर वह धरती है जहाँ गए बिना शंकराचार्य, 'शंकराचार्य' नहीं होते - कम लोग जानते होंगे कि मूल कश्मिरी अपना प्रकृति से ही धर्म-निरपेक्ष रहे हैं; उस भूमि के बाशिंदे अगर अपनी ज़मीन के मूलभूत सौंन्दर्य को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो यह सहज और स्वाभाविक ही कहा जा सकता है। उनमें वह ताक़त है ; उनकी अस्मिता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वर्तमान अवसरवादी राजनीति सर पटक कर रह जाएगी, पर इन रा.ध.अ को अपने लक्ष्य में सफलता तो मिलेगी ही। जिस तरह इज़राईल में दुनिया भर के यहूदी लौटे और जिस तरह पैगंबर साहब मदीने से मक्का सफ़ल हो कर लौटे , उसी तरह कश्मिरियों को अपने कश्मीर में लौटने का अवसर मिलेगा। इस बात को ये रा.ध.अ. जानते हैं, इसीलिए वे भूतकाल का विस्मरण नहीं करते। वे मानव-धर्मी पीड़ा के जरिए अपनी अस्तित्व की लडाई लड़ रहे हैं। जिस तरह इंतज़ार हुसैन मानते हैं कि स्मृतियों में जीते रहना इसलिए आवश्यक है कि इससे भविष्य- निर्माण की संभावनाएं सर्जनात्मक स्तर पर बनी रहती हैं। जब कोई समूह अपने अस्तित्व के लिए इस तरह लड़ रहा होता है तब अपनी इस लड़ाई में वह अकेला ही होता है। इस अकेलेपन के साथ लड़ने के लिए आस्था का होना, आशावादिता का होना निहायत अनिवार्य है ; यह आस्था और आशावादिता वर्तमान राजनीति से नदारद है अतः ये रा.ध.अ जिन बिन्दुओ पर एक साथ जीते हैं उनकी आधार-भूमि ये तीन बिन्दु बनते है- <br />1-वर्तमान की रक्षा तथा भविष्य- निर्माण के लिए इतिहास-बोध की अनिवार्य उपस्थिति।<br />2-मानवीय-गरिमा की रक्षा के लिए संस्कृति-चेतना को लोक कला-साहित्य वैचारिक संपन्नता के दीप द्वारा जलाए रखने का आकंक्षा। <br />3- कठोर-संवेदनहीन एवं बहरी राजनीतिक ताक़तों के स्वार्थ एवं षड्यंत्रों के विरुद्ध ईश्वर में दृढ आस्था बरक़रार रखना।</strong>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-61098192754911481552009-12-17T03:42:00.000-08:002009-12-17T03:43:04.012-08:00rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-20733075465717986872009-08-17T02:23:00.000-07:002009-08-17T02:40:08.230-07:00हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य<p align="justify"><strong><span style="color:#663333;"><span style="font-size:180%;"><span style="color:#6600cc;">हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य</span><br /></span><span style="font-size:130%;">रंजना अरगडे़</span></span><br /></strong><br /><span style="font-size:130%;color:#993399;"> स्वतंत्रता के 60 वर्षों बाद 2008 में जब इस प्रकार का आयोजन हो रहा है, तो निश्चय ही यह एक तरह का स्टॉक-टेकिंग है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक उत्साह वर्द्धक पहल है। आज हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य की बात करना मेरी दृष्टि में तीन कारणों से महत्वपूर्ण है।<br /></span><span style="font-size:130%;color:#993399;"><span class=""> <strong>पहला </strong> </span></span><span style="font-size:130%;color:#993399;"><span class="">हिन्दी</span> का हमेंशा से ही एक भारतीय परिप्रेक्ष्य रहा है, जिसके विषय में हमें पता होते हुए भी हमने विशेष ध्यान नहीं दिया। इस संदर्भ में हमारा भक्तिकालीन साहित्य उदाहरण के रूप में लिया ही जा सकता है। साथ ही भारत का स्वतंत्रता संग्राम तथा स्वातंत्र्योत्तर स्थितियाँ भी समान ही रही हैं, लगभग।<br /><strong>दूसरा </strong> </span><span style="font-size:130%;color:#993399;"><span class="">हिन्दी</span> शिक्षण अधिक समर्थ और पुष्ट बनाने के लिए तथा<br /><strong>तीसरा </strong></span><span style="font-size:130%;color:#993399;">समग्र वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी अथवा किसी भी एक भारतीय भाषा एवं साहित्य के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक भी हो गया है। <br /><span class=""> हालाँकि</span> इसका बीज उस कथन में पड़ चुका था जब पिछले कुछ वर्षों से 14 सितंबर को भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाए जाने की बात की जाने लगी है। इस विचार का मूल जनक या जननी कौन है, मैं नहीं जानती किन्तु मैंने तो पहली बार इसे इस सभा के अध्यक्ष श्री अशोक वाजपेयी जी के एक प्रकाशित व्याख्यान में पढ़ा था जो आपने नागरी प्रचारिणी सभा के मंच से कुछ वर्षों पूर्व दिया था।<br /><span class=""> मैं</span> समझती हूँ कि इस क्षण हमें किसी भी परिभाषा तथा व्याख्या में न पड़कर सीधे बात पर आना चाहिए। परन्तु बिना इस बात को भूले कि इस प्रकार के सम्मेलन के आयोजन के पीछे वे व्यापक विश्वगत तथा गहरे प्रदेशगत दबाव भी हैं, जिनका सामना हिन्दी पढ़ाने वाले उन दोनो प्रकार के अध्यापकों पर पड़ रहा है, जो हिन्दी तथा हिन्दीतर भाषी राज्यों में अध्यापन कर करे हैं। इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि वैश्वीकरण के कारण हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं पर संकट आ रहा है। हालाँकि इसके साथ असहमत होने वाला भी एक वर्ग है। संकट तो आ ही रहा है पर इसके लिए जितना ज़िम्मेदार वैश्वीकरण है, उससे अधिक अब तक बनी हमारी मानसिकता भी कि हिन्दी शिक्षण को हम उतनी गरिमा नहीं दे सके जितनी देनी चाहिए। हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी को लेकर बड़ा उत्साह रहा है फिर चाहे वह दक्षिण हो या गुजरात। जिस संस्थान के परिसर में हम खड़े हैं, वही उसका एक उदाहरण है। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है कि जहाँ गुजराती के साथ हिन्दी को भी राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है। पर आज स्थितियों में जो परिवर्तन आया उसके लिए ज़िम्मेदार हमारी वह लाभ लेने वाली मानसिकता भी है। हमने इस स्थिति से लाभ तो लिए, परन्तु इसकी गरिमा की वृद्धि न कर सके परन्तु उसे बचा कर भी न रख सके।<br /><span class=""> यह</span> एक अजब स्थिति है कि बदलती परिस्थितियों में भारतीयता और संस्कृति जैसे मुद्दों पर सभी को इसलिए भी बात करनी पड़ रही है क्योंकि वैश्विक स्तर पर जब पहचान की बात आती है तब आपके सामने जो सवाल खड़े होते हैं उनका उत्तर उन्हीं रास्तों पर से हो कर मिलता है। हमने अपने साहित्यकारों को लगभग सूचना के स्तर पर ही पढ़ा-पढ़ाया है। अतः हजारीप्रसाद या महादेवी को पढ़ कर हमने अपने छात्रों में या स्वयं अपने में यह चेतना कितनी जगाई होगी कि आखिरकार जातियों का गठन एक ऐतिहासिक परिस्थिति तथा समय की मांग रहा है और अपनी जड़ों को जान कर ही अपनी गरिमा की पहचान होती है इत्यादि। हमने समावेशी दृष्टि की अपेक्षा भेद-दृष्टि को विकसित किया। यही भेद-दृष्टि आज एक विकराल संकट बन कर देश और विश्व में हमारी पहचान को ले कर एक प्रश्न बन गई है। इस भेद-दृष्टि का प्रभाव इतना रहा है कि अज्ञेय, निर्मल जैसे रचनाकार भी चर्चा के हाशिए में ही रहे हैं। हिन्दी साहित्य की भूमिका वास्तव मे शांतिनिकेतन जैसी संस्था, यानी कि बंगाल में रह कर लिखे गये हिन्दी पहचान के एक अकादमिक प्रयास के रूप में देखा जाता, तो तमाम हिन्दीतर राज्यों में उसे पढ़ाने का उपक्रम होता और निश्चय ही इससे हिन्दी शिक्षण का भला ही होता। पर इसे केवल एक और इतिहास के रूप में देख कर, केवल तभी पाठ्यक्रमों में रखा गया जब एक विशेष साहित्यकार के रूप में हजारीप्रसाद को पढ़ाया जाता रहा। उक्त दृष्टि के अभाव में जहाँ से हजारी प्रसाद ने बात को छोड़ा था, उसके आगे कोई प्रयास नहीं किया गया। यहाँ मुझे उल्लेख करना चाहिए कि गुजरात में भी मध्यकालीन संतों का हिन्दी वाणी, ब्रजभाषा पाठशाला, तथा महामति प्राणनाथ जैसे क्षेत्रों में काम हुआ है पर अगर हम कह सकें तो हिन्दी वर्चस्व का स्वर तथा साहित्य की अपनी विशेष राजनीतिक दृष्टि के कारण उन कामों पर वैसा विचार नहीं हुआ है जिससे हिन्दी शिक्षण की भारतीयता उभर कर आती। <br /> हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य को मोटे तौर पर दो स्तरों पर देखा जा सकता है। विषय के स्तर पर तथा भाषा के स्तर पर। या कहें कि सामग्री के स्तर पर तथा अभिव्यक्ति के स्तर पर। पुनः हिन्दी शिक्षण की सामग्री को आधारगत, सृजनात्मक एवं सूचनात्मक इन तीन विभागों में बाँटा जा जा सकता है। आधारगत सामग्री के अन्तर्गत काव्य-शास्त्र, भाषा-विज्ञान तथा व्याकरण को ले सकते हैं। सृजनात्मक में कहानी कविता इत्यादि में प्रस्तुत भक्ति, नवजागरण, किसान, दलित, नारी आदि मुद्दों को ले सकते हैं। तथा सूचनात्मक में साहित्य के इतिहास को शामिल कर सकते हैं।<br />अभिव्यक्ति के स्तर पर भाषा-प्रयोग, द्विभाषिकता, अनुवाद तथा काव्य उपकरणों आदि को लिया जा सकता है।<br /><span class=""> यह</span> आवश्यक है कि हम अपनी आधारगत सामग्री अर्थात् काव्यशास्त्र, व्याकरण एवं भाषा विज्ञान को अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ही तुलनात्मक स्वरूप में पढ़ाएँ। हिन्दी, संस्कृत, पश्चिमी के साथ-साथ प्रादेशिक एवं दक्षिण-भारतीय काव्य-शास्त्र का कुछ अंश हमारे पाठ्यक्रम में होना चाहिए। इस समय संस्कृत तथा पश्चिमी काव्य शास्त्र का जितना अंश पढ़ाते हैं उसे कम करके प्रादेशिक और दक्षिणी-(तोलकप्पियम्) को शामिल करें। जिससे सृजनात्मक सामग्री में जब उन हिस्सों को शामिल करेंगे तो विद्यार्थी परस्पर संबंध जोड़ सकता है</span><a title="" style="mso-footnote-id: ftn1" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=629345758127814069#_ftn1" name="_ftnref1"><span style="font-size:130%;color:#993399;">[1]</span></a><span style="font-size:130%;color:#993399;">। व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान तो अनिवार्य रूप से प्रादेशिक भाषा के साथ तुलना करके ही पढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि चाहे हिन्दी भाषी प्रदेश हों या हिन्दीतर, सभी पर अपनी भाषा या बोली के संस्कार होते ही हैं, जिसका प्रभाव उनकी भाषा तथा व्याकरण पर देखा जा सकता है।<br /><span class=""> मैं</span> गुजरात से आ रही हूँ अतः मैं इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी समझती हूँ कि वर्तमान समय में भी हमारे महत्वपूर्ण कवियों की रचना में भाषा तथा शिल्प के स्तर पर भारतीयता का प्रभाव, सामग्री तथा रचना-रीति एवं वाक्य-रचना में भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए राजेन्द्र शाह की कविताओं में बंगाली गीतों की लय है तो राजेन्द्र शुक्ल की कविताओं में सधुक्कडी भाषा का प्रयोग है। उसके अनुवाद की आवश्यकता ही नहीं है। राजेन्द्र शुक्ल लिखते हैं ग़ज़ल पर वृत्त संस्कृत है तथा भाषा न गुजराती है न हिन्दी, बल्कि, जैसे मैंने कहा सधुक्कडी।<br /><span class=""> हिन्दी</span> के शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य अलग से न हो कर मुख्य पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। जब हम सृजनात्मक सामग्री की बात करते हैं तब मध्यकालीन साहित्य में मीराँ के पदों में कुछ गुजराती के पद शामिल करने चाहिए या कृष्ण भक्ति परंपरा में दयाराम अथवा बंगाल के वैष्णव भक्त (ब्रजबुलि) शामिल करने चाहिए, अथवा भक्ति की अलग-अलग धाराओं के भारतीय कवियों की रचनाओं को अनुवाद में ही सही पर शामिल करना चाहिए। हमें कबीर के साथ ही अखो तथा ज्ञानेश्वर तथा गुरु गोविन्द सिंह को भी पढ़ना चाहिए। यानी हम केवल हिन्दी के मध्यकाल को न पढ़ा कर भारतीय मध्यकाल को पढ़ाएं। उसी तरह भारतीय नवजागरण काल को या भारतीय आधुनिक काल को, भारतीय दलित या भारतीय नारी साहित्य को पढें। हालांकि यह तुलना ठीक न भी लगे परन्तु जिस तरह इंडियन इंग्लिश की अवधारणा है वैसे ही भारतीय हिन्दी की अवधारणा के बारे में सोचना होगा।<br />इसी को ध्यान में रख कर भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य को नए सिरे से लिखने की आवश्यकता भी होगी।<br /><span class=""> अनुवाद</span> का महत्व हिन्दी के पाठ्यक्रमों में केवल रोज़गार की दृष्टि से ही नहीं है। पर समूचे भारतीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी पढ़ने वालों की सोच का माध्यम हिन्दी नहीं है। अतः अभिव्यक्ति का वैविध्य देखा जा सकता है। सृजनात्मक साहित्य में इस विचलन को सकारात्मक रूप से देखने की छूट मिल जाती है पर अन्य स्थानों पर ऐसा नहीं हो पाता। संभव भी नहीं है। प्रयोजनमूलकता के क्षेत्रों में तो यह समस्या है ही नहीं क्योंकि वहाँ तो भाषा का स्वरूप ही भिन्न है। प्रश्न केवल पढ़ने-पढ़ाने तथा आलोचना की भाषा का रह जाता है। हिन्दी शिक्षण में जब समावेशी तथा आंतरिक रूप में भारतीय परिप्रेक्ष्य को हम शामिल करेंगे तो यह प्रश्न नहीं रहेगा कि सोच की भाषा हिन्दी ही हो अथवा नहीं। भाषा प्रयोग में चाहे स्वैराचार को स्थान न दें पर अत्यधिक शुद्धतावादी दृष्टिकोण पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए।<br /> इस प्रकार के पुनर्लेखन एवं कार्यों के आरंभिक प्रयास हमारे लेखकों ने किया ही है</span><a title="" style="mso-footnote-id: ftn2" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=629345758127814069#_ftn2" name="_ftnref2"><span style="font-size:130%;color:#993399;">[2]</span></a><span style="font-size:130%;color:#993399;"> और हमारे पास ऐसी संस्थाएं भी हैं जिनके साथ मिल कर हम ऐसा काम कर सकते हैं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान है ही, साहित्य अकादमी है, भारत सरकार का भाषा विभाग है, अनुवाद परिषद् भी है ... अगर इन सबके साथ हमारी इच्छा शक्ति भी जुड़ जाए तो यह काम कठिन नहीं है।<em><span style="font-size:100%;"><strong><br /></strong><br /></span></em><br /></span><a title="" style="mso-footnote-id: ftn1" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=629345758127814069#_ftnref1" name="_ftn1"><span style="color:#993399;"><em>[1]</em></span></a><span style="color:#993399;"><em> रस, ध्वनि, रीति तथा अरस्तू, कॉलरिज एवं इलियट तथा संरचना एवं उत्तरसंरचनावाद केवल इतने ही मुद्दे संस्कृत एवं पाश्चात्य में से ले कर शेष हिन्दी, प्रादेशिक एवं दक्षिणी काव्य-शास्त्र के लिए जा सकते हैं। दक्षिण के प्रांत अपने अपने साहित्य की काव्य-शास्त्रीय परम्परा को शामिल कर सकते हैं। <br /><br /><br /></em></span><a title="" style="mso-footnote-id: ftn2" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=629345758127814069#_ftnref2" name="_ftn2"><span style="color:#993399;"><em>[2]</em></span></a><span style="color:#993399;"><em> नगेन्द्र द्वारा संपादित भारतीय काव्य-शास्त्र का इतिहास</em></span></p>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-4686279765110181682009-07-02T23:23:00.000-07:002009-07-02T23:31:37.655-07:00प्रेमचन्द का नारी-विमर्श – विचार एवं व्यवहार<p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#000099;"><span style="font-size:180%;"><strong><span class=""> प्रेमचन्द</span> का नारी-विमर्श – विचार एवं व्यवहार</strong><br /></span> <strong> </strong><em><span style="font-size:100%;"><strong>डॉ. रंजना अरगड़े<br /></strong></span></em><br /><strong><em><span style="font-size:100%;">जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया, उसके अनुसार उन्होंने निरंतर आचरण किया. इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य, दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जाँचते की कसौटी भी हैं. </span></em> <em><span style="font-size:85%;"> प्रेमचन्द पर महादेवी वर्मा<br /></span></em></strong><em><span style="font-size:85%;"> <strong>(सहमत मुक्तनाद के 'मुंशी प्रेमचंद प्रकाशन से साभार)</strong></span></em><strong><br /></strong><br /> यह संभव ही नहीं कि प्रेमचन्द जैसा लेखक अपनी रचनाओं में तथा अपने चिंतन में स्त्री संबंधी विचार, मंतव्य तथा दृष्टिकोण को उजागर न करे। प्रेमचन्द का जीवन–काल (1880-1936) स्वतंत्रता-प्राप्ति के विभिन्न तबक़ों का वह दौर था जब हर संवेदनशील रचनाकार के लिए हिन्दी, नारी तथा स्वतंत्रता की बात करना अनिवार्य-सा था। ऐसा करना उस युग की मांग थी। यह तथ्य सर्व विदित है कि नवजागरण काल में राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महादेव गोविन्द रानड़े, महर्षि कर्वे, दयानंद सरस्वती आदि के नाम स्त्रियों के अन्दर तथा स्त्रियों के प्रति जागृति लाने तथा फैलाने के क्षेत्र में प्राथमिक माने जाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन सामाजिक विचारकों ने स्त्री-जागृति मुहिम की नींव डाली थी। उपरोक्त प्राथमिक विचारकों के लगभग सौ वर्ष बाद प्रेमचन्द का आगमन एक लेखक के रूप में होता है। प्रेमचन्द और गांधी भारतीय समाज तथा राजनीति में एक बिन्दु पर साथ-साथ सक्रिय होते दिखाई पड़ते है। गांधी जी का कार्य-क्षेत्र मुख्यतः राजनीतिक होने के कारण उनका प्रभाव-क्षेत्र अधिक तात्कालिक एवं व्यापक था। प्रश्न यह है कि स्त्री-संबंधी चिंतन विषयक प्रेमचन्द का क्या नज़रिया था ? साथ ही अपने विचारों को उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में किस हद तक अपनाया, अपना सके, उसे कहाँ तक निभाव कर सके।<br />प्रेमचन्द के नारी विमर्श पर यह मेरा तीसरा आलेख है। पहले दोनों आलेखों में मैंने उनके उपन्यासों को आधार बना कर, उनमें निहित उनके स्त्री- चिंतन को समझने का प्रयत्न किया था। इस आलेख में मैंने उनके संपादकीयों को केन्द्र में रखा है तथा उनमें व्यक्त विचारों को मुख्यतः शिवरानी देवी की पुस्तक प्रेमचन्द- घर में के साथ पढ़ने की चेष्टा की है। कुछ निष्कर्षों तक भी पहुंचने का प्रयास किया है। अमृत राय की प्रेमचन्द कलम का सिपाही को भी इसी संदर्भ में देखा है। इस प्रकार के पाठ से अनेक प्रश्न उठ सकते हैं- मसलन किसी एक या दो किताबों के आधार पर किसी लेखक के विचार एवं व्यवहार को जाँचना कितना योग्य हो सकता है ? हो सकता है कि अध्ययन से निकले निष्कर्ष पूर्णतः निष्पक्ष न भी हों – परन्तु फिर भी मेरा यह मानना है कि प्रेमचन्द के स्त्री- चिंतन को जांचना हो तो सबसे विश्वसनीय पाठ शिवरानी देवी का ही हो सकता है। अमृत राय की पुस्तक में उन मुद्दों के संदर्भ में भी मन्तव्य मिलते हैं, जहाँ शिवरानी देवी मौन हैं। <br />हंस तथा जागरण के कई संपादकीयों में प्रेमचन्द ने महिला-आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में नारी के अधिकारों की पैरवी की है। उन दिनों विश्व में तथा भारत में चल रहे महिला-आंदोलन की गतिविधियों पर प्रेमचन्द की बड़ी पैनी नज़र थी। उन दिनों शारदा-ऐक्ट(1929) पर विचार चल रहा था। बाल-विवाह, विधवा- अधिकार , सती-प्रथा आदि से जुड़ा यह कानून हरि विलास शारदा के प्रयत्नों से अस्तित्व में आया। आगे चलकर इसमें कई परिवर्तन आए और फिर वह समाप्त भी हो गया, किन्तु तब वह एक्ट महिलाओं का एकमात्र तारणहार समान था।<br /> <br /><span class=""> प्रेमचन्द</span> के कथा-साहित्य में तो नारी के विविध रूपों एवं स्थितियों के अनेक पहलू उजागर हुए हैं। असल में स्त्री की करुण दशा से उसे मुक्ति दिलवाते वैचारिक एवं सामाजिक प्रयासों का आरंभ तो, जैसे कहा जा चुका है, राजा राममोहन राय से हो ही चुका था। वास्तविक सेवा-सदनों तथा विधवा- आश्रमों की स्थापना भी हो चुकी थी। उसके बाद लिखा भारतीय साहित्य कहीं न कहीं उन बातों को अपने साहित्य में स्थान देता रहा था । प्रेमचन्द का प्रयास भी उसी परंपरा की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। संपादकीयों में भी वही नज़रिया इस बात की पुष्टि करता है कि प्रेमचन्द जन-संचार माध्यमों के द्वारा भी वही stand ले रहें हैं जो रचनात्मक साहित्य में लेते रहे हैं । नारी-विषयक उनके सम्पादकीय में प्रकट उनके विचार उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति से मेल खाते दिखते हैं- अर्थात् कहीं कोई फांक नहीं है। अलबत्ता, इस बात की पूरी तरह से पड़ताल करने की भी आवश्यकता है कि उनके वास्तविक जीवन के साथ उनके वैचारिक और सर्जनात्मक चिन्तन कहाँ तक जोड़ कर देखा जाना उचित है और देखने पर क्या परिणाम निकलते हैं।<br />अपने संपादकीयों में प्रेमचन्द उन स्त्रियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं जो वास्तविक रूप में अभावग्रस्त या शोषित है। जो अनपढ़, शोषित आदि है, उनकी बेहतर स्थिति के लिए वे प्रयत्नशील दिखते हैं, किन्तु जो वहाँ पहुंच चुकी हैं उनके प्रति प्रेमचन्द के पास अतिरिक्त अनुकंपा नहीं है। अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने वाली स्त्रियों के प्रति, या वे, जिनके पास किसी भी तरह की सत्ता है, चाहे वह रचनात्मक क्यों न हो, उनके प्रति प्रेमचन्द बहुत सदय नहीं दिखते।(प्रेमचन्द के इस रवैये को आजकल के आरक्षण मुद्दे के संदर्भ में देखा जाए तो मालूम होगा कि समान या लगभग समान स्तर प्राप्त कर लेने पर शोषित समाज के प्रति समान भूमिका पर ही निर्णय लिया जाना चाहिए, ऐसा आज एक पक्ष का मत उभरता दिखाई पड़ रहा है। प्रेमचन्द कहीं ऐसा मानते होंगे कि बौद्धिक तथा कला के क्षेत्रों में बराबरी की बात होनी चाहिए, वहाँ पक्षपात की बात नहीं होनी चाहिए, वहाँ पक्षपात या विशेषाधिकार के लिए कोई स्थान नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचन्द दलितों के पक्षधर तो थे परन्तु दलितों की राजनीति से उनका कोई मतलब नहीं था। अर्थात दलित-चेतना एवं नारी-चेतना दोनों के वे पक्षधर थे परन्तु दोनों के वादियों के वे पक्षधर नहीं थे।) पश्चिम के नारी–आंदोलन संबंधी दृष्टिकोण के प्रति प्रेमचन्द बहुत सहमत न भी हों, परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों के अधिकारों के लिए उन्होंने बहुत लिखा इसमें दो-राय नहीं हो सकती । जहाँ तक केवल विचार प्रकट करने हों, कड़े से कड़ा और कठोर से कठोर विचार प्रेमचन्द ने बेलौस एवं निर्भीकता से प्रकट किया है किन्तु जहाँ वह विचार उनसे सीधे टकराता दिखता है, वहाँ कई बार प्रेमचन्द ने एक अलग तरह का stand भी लिया है। इस संदर्भ में दो संपादकीयों का उल्लेख करना आवश्यक होगा –<br />क्या कविता नारियों का ही क्षेत्र है में उन्होंने सुभद्राकुमारी चौहान के इस मन्तव्य का विरोध किया कि महिलाएँ चूँकि अधिक भावना शील होती हैं अतः बेहतर कविताएँ लिखती हैं।(1) विरोध का मुद्दा उठाते हुए प्रेमचन्द यह गिनाने की कोशिश करने लगते हैं कि कितनी कम स्त्रियों ने वास्तव में अब तक(1933 तक) लिखा है। प्रेमचन्द जैसे रचनाकार से यह कतई अपेक्षित नहीं हो सकता। भारतीय समाज से जो रचनाकार इतना परिचित हो वह क्यों सुभद्राकुमारी के इस वक्तव्य पर इस तरह असंतुलित हो उठे ? यहाँ किसी तरह की प्रतिस्पर्धा का तो कोई प्रश्न नहीं था ? फिर ?<br /> उसी तरह दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका रिसाला में एक मुस्लिम महिला के इस मंतव्य पर कि हिन्दुओं की तुलना में मुस्लिम कम संख्या में शिक्षित हैं। और तभी ऊँचे ओहदों पर भी हिन्दू ज़्यादा है , प्रेमचन्द जिस तरह प्रतिक्रियायित होते हैं, आश्चर्य लगता है। इस सम्पादकीय का शीर्षक है सांप्रदायिकता का ज़हर महिलाओं में । जागरण मार्च 1934 में छपे इस संपादकीय में प्रेमचन्द उस महिला का विरोध करते हुए ख़ुद सांप्रदायिक होते दिखाई पड़ते हैं –<br /> देवीजी को यह भ्रम कदाचित् सांप्रदायिक पत्रों के पढ़ने से हो गया। मुसलमान हिन्दुओं से ज़्यादा शिक्षित हैं। ( अगर बाल की खाल निकालना हो तो कहा जा सकता है कि यहाँ इस महिला ने शिक्षित कम- ज़्यादा होने का मुद्दा नहीं उठाया है, बल्कि संख्या के कम- ज़्यादा होने की बात उठाई है- बहरहाल) वे आगे कहते हैं कि सरकारी ओहदों पर भी मुसलमान कसरत से हैं, हिन्दुओं से कहीं ज़्यादा। पुलिस तथा माल में एक तरह से उन्हीं का साम्राज्य है। आमदनी के सारे विभागों पर उन्हीं का कब्जा है। हाँ, डाकख़ाना या क्लर्की जैसे रुखे-सूखे विभागों में हिन्दू ज़्यादा हैं इसीलिए मुसलमानों ने इधर ध्यान न दिया क्योंकि .यहाँ सूखा वेतन था और काम आँख फोड़ और गर्दन तोड़। मगर अब इन विभागों में भी यह कमी पूर्ण होती जा रही है। (2)<br /><span class=""> ये</span> संपादकीय पढ़कर मुझे भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदी गोपाल शेवड़े का प्रसंग स्मरण हो आया, जिन्हें उनकी घोर अनिच्छा के बावजूद उनके पति ने पढ़ाया- बल्कि अत्याचार-वत् पढ़ाया। पर फिर जब वे डॉक्टर बन गयीं, उनमें अपनी एक सोच विकसित हुई, तो उन्हें तानों से छलनी भी कर दिया।<br />यह एक टिपिकल पुरुष-वृत्ति है । अनपढ़ स्त्री, जरूरतमंद स्त्री के उत्थान के हिमायती पुरुष प्रायः स्त्रियों की उस स्थिति को, उन मन्तव्यों को नहीं सह सकते जो पुरुषों के बनाए क़ायदे- क़ानूनों, विचारों, आचारों की परिधि को तोड़ते हैं। सारी स्वतंत्रता, सुविधा, प्रगति पुरुषों की इच्छा तथा उनकी बनाई मर्यादा के भीतर हो। भारतीय स्त्री के समक्ष यह तथ्य गहरे से रेखांकित किया जा चुका है कि लक्ष्मण-रेखा को लांघने वालों का अस्तित्व अपहृत कर लिया जाता है(या कर लिया जाएगा)<br /> क्या यह प्रेमचन्द के नारी-चिंतन की मर्यादा कही जाएगी ? या प्रेमचन्द के नारी-चिंतन का वास्तविक रूप सतह के भीतर है, जो ऐसे कुछ संपादकीयों में प्रकट विचारों से काफी भिन्न है, जिसे उनके समय के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए- यह मेरा प्रश्न है। <br /> मोटे तौर पर यह समझा गया है कि प्रेमचन्द के नारी चिंतन पर आर्य-समाज, गांधी जी तथा बाद में चलकर प्रगतिवाद का प्रभाव पड़ा। उनका नारी- दृष्टिकोण उस समय के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के बीच बन रहा था। एक तरफ़ उनके पुरोगामी भारतेन्दु( जिन्होंने स्वयं एक विधवा से विवाह किया था) तथा भारतेन्दु-मंडल के रचनाकार जो समाज-सुधारक की भूमिका में थे, साथ ही नवजागरण कालीन आर्य-समाज, ब्राम्हो समाज के प्रभाव के फलस्वरूप उभरा नारी जागृति का प्रवाह – फिर प्रेमचन्द के समकालीन गाँधी जैसा व्यक्तित्व का होना – साथ ही साथ वैश्विक स्तर पर चल रहे नारीवादी आंदोलन की गरमाहट उनके विचारों को प्रेरित कर रही थी, दिशा भी दे रही थी। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उनके अपने जीवन तथा परिवेश में स्त्री की स्थिति, उपस्थिति तथा भूमिका ही वह वास्तविक मिट्टी है जिसमें उनके स्त्री-चिंतन का बीज रोपा गया। फिर भी यह कहा जा सकता है कि भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास( भारत में) नारी स्वतंत्रता का भी इतिहास है।(3)और यही प्रेमचन्द के नारी-चिंतन की भूमि है।<br /> प्रेमचन्द के नारी-चिन्तन तथा व्यवहार में यदा-कदाचित् दिखाई पड़ने वाली फांक की समीक्षा करने पर मालूम होगा कि उन्होंने अपने लिए छूट बहुत ली है। उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण निर्णय इस संदर्भ में प्रश्न के घेरे में आ जाते हैं। <br /> प्रायः स्त्रियों के सामाजिक प्रश्न विवाह से जुड़े हुए होते हैं। अतः उनके अधिकार भी मुख्यतः इसी से संलग्न माने जा सकते हैं। प्रेंमचन्द का मानना था कि राष्ट्रीयता और सद् बुद्धि की जो लहर इस समय आई हुई है वह स्त्री-पुरुषों के तमाम भेदों को मिटा देगी। भारत की स्त्रियों के प्रति प्रेंमचन्द को पूरा विश्वास था। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रेमचन्द स्त्रियों के निर्णय लेने के अधिकार के हामी थे। स्त्रियों को ख़ुद तय करना चाहिए कि उन्हें क्या चाहिए। अपने व्यापक सामाजिक, पारिवारिक अनुभव के फलस्वरूप, उनका मानना था कि कुछ एक मुद्दों पर स्त्रियों में असंतोष है और इस असंतोष का शमन भी स्त्रियों की इच्छानुसार करना पड़ेगा।<br /> उनके अनुसार विवाह के नियम स्त्री तथा पुरुषों, दोनों पर समान रूप से लागू किए जाएं तथा पुरुष पत्नी के जीवन काल में दूसरा विवाह न कर पाए। पुरुष की संपत्ति पर पत्नी का पूरा अधिकार हो वह या तो उसे( अपने हिस्से की संपत्ति को) रेहन पर रखे या व्यय करे।<br />इसमें जो पहली बात है उसका पालन तो प्रेमचन्द जी नहीं कर पाए। पहली पत्नी के होते उन्होंने शिवरानी देवी से विवाह किया था। इस संदर्भ में शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक में दो स्थानों पर उल्लेख किया है। चूंकि किताब में कोई समय-क्रम नहीं है अतः पहले उल्लेख(पृ 7) को बाद वाला एवं बाद वाले उल्लेख( पृ-25,26) को पहले वाला मानना चाहिए। बस्ती, 1914 में शिवरानी देवी ने उस प्रसंग को का उल्लेख किया है जब प्रेमचन्द की पूर्व-पत्नी के भाई उनसे मिलने आते हैं और अपनी बहन के दुखों का बयान करते हैं। यह संवाद शिवरानी देवी सुन लेती हैं। पूछने पर भी प्रेमचन्द बताते नहीं हैं । शिवरानी देवी के बदन का खून गरम हो रहा था (26)। इस मुद्दे पर दोनों में तीखी बहस हो जाती है। शिवरानी देवी लिखती हैं कि वही पहला दिन था जब मुझे मालूम हुआ कि वे अभी ज़िंदा हैं। मुझे तो धोखा दिया जाता रहा कि वे मर गई हैं(26)। शिवरानी देवी जब प्रेमचन्द से इस संदर्भ में जवाब-तलब करती हैं तब प्रेमचन्द का जवाब चौंकाने वाला और कम-से-कम लेखकोचित तो नहीं ही है, (फिर प्रेमचन्द जैसा लेखक) जिसको इन्सान समझे कि जीवित है, वही जीवित है। जिसे समझे मर गया, मर गया(26)। शिवरानी देवी का आग्रह था कि उन्हें भी साथ रहने बुला लिया जाए। प्रेमचन्द के मना करने पर शिवरानी देवी कहती हैं एक आदमी का जीवन मिट्टी में मिलाने का आपको क्या हक़ है । इस पर प्रेमचन्द का जवाब है-हक़ वगैरह की कोई बात नहीं है ।(4)<br /> इसी संदर्भ में जब दूसरी बार बात होती है तब शिवरानी देवी कहती हैं एक की तो मिट्टी पलीद कर दी जिसकी कुरेदन मुझे हमेशा होती है। जिसको हम बुरा समझते हैं वह हमारे ही यहाँ हो और हमारे ही हाथों हो। मैं स्वयं तकलीफ़ सहने को तैयार हूँ, पर स्त्री जाति की तकलीफ़ मैं नहीं सह सकती। मेरे पिता को मालूम होता तो आपके साथ मेरी शादी हर्गिज न करते। फिर आगे वह कहती हैं कि अगर मेरा बस चलता तो मैं सब जगह ढिंढोरा पिटवाती कि कोई भी तुम्हारे साथ शादी न करे। (5)<br /> इस पूरे किस्से से जो बात उजागर होती है वह यह कि और कोई तो क्या इस बात के लिए प्रेमचन्द को लताड़ते, स्वयं शिवरानी देवी ने उनकी ख़बर ले डाली। (चाहें तो आप इसे एक अत्यन्त भोली-सी चालाकी भी कह सकते है कि किसी और को यह अवसर ही न मिले।) पर जहाँ तक प्रेमचन्द के विचार तथा व्यवहार के बीच की फांक का संबंध, उनके एकदम निजी जीवन के प्रसंग में घटित हुई है, इस बात को स्वीकारना तो पड़ेगा ही।<br /> जहाँ तक दूसरी बात का प्रश्न है- पति के पैसों पर पत्नी के संपूर्ण अधिकार की, प्रेमचन्द उसमें खरे उतरे हैं। प्रेस खरीदने के प्रसंग में, प्रेमचन्द आखिरकार शिवरानी देवी की बात मान लेते हैं और भाई महताब से स्पष्ट कह देते हैं कि धुन्नु( श्रीपतराय) के नाम से प्रेस खरीदा जाएगा। भाइयों के बीच कड़वाहट आ जाने का संकट मोल ले कर भी वह ऐसा निर्णय लेते हैं। इस बात के संदर्भ में बहुत बाद में महताब की पत्नी ने भी अपना पक्ष रखा है पर इसे पारिवारिक राजनीति की खोल में चल रहे वैचारिक विरोध की राजनीति मान कर फिलहाल उसे छोड़ दिया जा सकता है।(6)<br /> पति की आय पर पत्नी का पूरा हक़ होना तो आज भी स्वप्नवत् ही है, क्योंकि आज भी स्थिति तो यही है कि पत्नी का अपनी कमाई पर भी पूरा हक़ नहीं होता। प्रेमचन्द पुत्र और पुत्री दोनों का पिता की संपत्ति पर पूरा अधिकार मानते थे। तलाक के वे पक्षधर थे और विवाह की भांति यह भी स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान हो, ऐसा उनका मानना था। तलाक के समय भी स्त्री का पति की संपत्ति पर आधा हक़ हो तथा मौरूसी जायदाद पर अंशतः हक़ हो।<br />जहाँ तक तलाक के अधिकार का प्रश्न है, 1931 में लिखे इस संपादकीय की बात को वे गोदान की मीनाक्षी में चित्रित करने की कोशिश करते हैं। राय साहब की पुत्री मीनाक्षी अपने पति की ऐयाशी से तंग आ कर तलाक ले लेती है। हिन्दी उपन्यासों में पहली बार तलाक का मसला गोदान में ही आता है। निर्मला की विधवा रुक्षमणि तक अभी वे इस हद तक प्रगतिशील नहीं हो पाए थे, संभवतः, पर यह भी हो सकता है कि उपन्यास की कथावस्तु की वह मांग हो। पर इसमें कोई संदेह नहीं कि वास्तविक यथार्थ जीवन में वे विधवा जीवन की समस्या के प्रति अत्यन्त चिंतित थे। तभी हरि विलास शारदा कानून जब पार्लियामेंट में रखा गया तब का उनका संपादकीय पढ़ने जैसा है।<br />हंस जनवरी 1931 के संपादकीय हरि विलास शारदा का नया कानून शीर्षक से वे लिखते हैं कि विधवा को पति की जायदाद पर अधिकार हो। यह बिल 1933 में असेंबली में पेश किया गया। तब जागरण के संपादकीय में प्रेमचन्द ने लिखा है श्री हरि विलास शारदा ने अपनी सामाजिक सेवा से भारत के इतिहास में अमर पद प्राप्त कर लिया है। उन्हें कट्टर संप्रदाय के महानुभावों के प्रति संदेह था कि शायद वे इसका विरोध करें । प्रेमचन्द का मानना था कि पुरुष अगर संपत्ति का मनमाना उपयोग कर सकते हैं तो स्त्रियां क्यों नहीं। वे लिखते हैं इस समय हमारा सामाजिक धर्म यह है कि शास्त्रों और स्मृतियों की शरण लेकर इस बिल को रद्द करने की चेष्टा न करें । विधवाओं के साथ समाज ने बहुत अन्याय किया है और अन्याय को पाल कर कोई समाज सरसब्ज़ नहीं हो सकता। (7)<br />विधवाओं की दशा से वे इतने परेशान थे कि 17 जुलाई 1933 को जागरण के संपादकीय में वे एक ऐसी बाल-विधवा का हवाला देते हैं जो आत्म-हत्या के लिए प्रवृत्त हो गई थी। वह रेल की पटरी पर सो जाती है, परन्तु ड्राइवर की नज़र पड़ी और वह बचा ली गई। फिर उस विधवा पर आत्महत्या के अपराध में अभियोग चला। यानी विधवा को जीते जी भी सुख-चैन नहीं और न ही मरने की स्वतंत्रता।<br />कलम का सिपाही में अमृत राय लिखते हैं- कितनी ही विधवाएं और समाज की सतायी हुई स्त्रियां कोठे पर पहुँच जाती हैं। समाज यह सब अपनी आंखों के आगे होते हुए देखता है लेकिन तो भी उसके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। अपनी ज़िम्मेदारियों की तरफ से वह कितना बेखबर लेकिन बेकसों को सताने के लिए कितना शेर। करेगा-धरेगा कुछ नहीं लेकिन किसी से कोई गलती हो भर जाए, कच्चा ही चबा जाएगा। विधवाओं पर तो उसका विशेष कृपा है--- उस दुखियारी स्त्री की दूसरी बहनें ही उस पर चौकीदारी करती हैं और ग़रीब औरत अगर कहीं दुर्भाग्य से अपनी लीक से जौ भर भी डिग गयी तो फिर उसकी खैरियत नहीं। पहले तो वह औरतें ही उसे अपने तानों से छेद-छेद कर मार डालेंगी और अगर इतने से वह नहीं मरी तो फिर उसका और कुछ उपाय किया जाएगा। (8)<br />प्रेमचन्द ने 27 मार्च 1933 जागरण के संपादकीय में सर हरि सिंह गौड़ के तलाक कानून का समर्थन यह कह कर किया है ऐसे क़ानूनों का हमें स्वागत करना चाहिए जिनका उद्देश्य सामाजिक अत्याचारों को दूर करना है। क्यों कि उनके मत से सब से बड़ा कानून जन-मत है। (9)<br />यह देखने की बात है कि सन् 33 से ही, (संभवतः उसके कुछ पहले से भी) प्रेमचन्द जैसे रचनाकार जनमत यानी लोकतंत्र के समर्थन में लिखने लगे थे। न्याय- तंत्र की सामाजिक भूमिका को रेखांकित करने लगे थे। इसी संपादकीय में उनका कहना था विधवा विवाह का बिल पास हो जाने से सभी विधवाएं विवाह तो नहीं करने लगी थी। शारदा कानून ने भी तो बाल-विवाह नहीं बन्द कर दिए। हाँ, उन पर रोक अवश्य डाल दी।<br />इन संपादकीयों की भूमिका के रूप में यह बात याद रखनी चाहिए कि प्रेमचन्द ने सन् 1906 में एक बाल-विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया था। शिवरानी देवी ने भी अपनी पुस्तक में जो हवाले दिए हैं, उनसे पता चलता है कि प्रेमचन्द शिवरानी देवी के साथ इन तमाम मुद्दों पर चर्चा किया करते थे और हमेशा शिवरानी देवी उनसे सहमत हों, यह आवश्यक नहीं था। फिर, प्रेमचन्द का ऐसा आग्रह भी नहीं होता था।<br />ये कुछ ऐसे मुद्दे थे, जो, जहाँ उस युग में तो चर्चा के केन्द्र में थे ही, प्रेमचन्द की चिंता के भी केन्द्र में थे। प्रेमचन्द ने बार-बार अपने संपादकीयों में, रचनाओं में इनका उल्लेख किया है। इनके विषय में लिख कर, मध्य वर्ग की मानसिकता को बदलने का प्रयास किया है, ऐसा कहा जा सकता है। दिसंबर 1932 तक तलाक का बिल कानूनी रूप धारण नहीं कर सका था। पर इन सब गतिविधियों से भारतीय महिलाओं में एक नवीन जागृति अवश्य आ गई थी। इसी संदर्भ में हंस, दिसंबर 1932 का संपादकीय उल्लेखनीय है। यहाँ प्रेमचन्द ने इस बात की और इशारा किया है कि महिला विकास के मुद्दों पर दोनों क़ौमों की स्त्रियां एकमत हैं। अर्थात् दोनों विकास चाहती हैं। हिन्दू और मुस्लिम पुरुष भी इन मुद्दों पर एकमत हैं। लेकिन ज़ाहिर है, स्त्रियों और पुरुषों का इसमें एकमत नहीं है। इसमें एक बड़ा सूक्ष्म व्यंग्य भी निहित है- कि जहाँ तक महिला विकास का प्रश्न है पुरुष क़ौम वादी नहीं है।(यानी कि पुरुष-वर्ग स्त्री का विकास न होने में एकमत है) यह संपादकीय इस तरह है-<br />भारतीय महिलाओं ने अपने कार्यक्रम से यह सिद्ध कर दिया है कि वे समाज के क्षेत्र में पुरुषों से कितना आगे निकल गई हैं। विशेष कर जिन बंधनों से पुरुषों ने उन्हें जकड़ रखा था और उन पर शासन करते थे उन बेड़ियों को तोड़ने के लिए वह बहुत विकल रही हैं। शारदा-बिल से मुसलमानों का एक बड़ी संख्या को तो आपत्ति है ही, हिन्दुओं में भी कुछ ऐसे पुरुष हैं, जो उनका विरोध करते हैं। पर स्त्रियों ने, जिन में मुसलमान स्त्रियां भी शामिल हैं , एक स्वर से इस बिल का स्वागत किया है।<br />तलाक का बिल अभी कानून का रूप नहीं धारण कर सकता है और हिन्दू पुरुषों में भी इस समस्या पर मतभेद है, पर हिन्दू महिलाएं उस पर हर महिला-सम्मेलन में जोर देती हैं। राजनीतिक क्षेत्र में भी महिलाओं ने अपने परिष्कृत सद् विचार का परिचय दिया है। वे सार्वजनिक निर्वाचन अधिकार चाहती हैं। जायदाद या शिक्षा की कोई क़ैद उन्हें पसंद नहीं है और राष्ट्रीय एकता का तो जितने ज़ोरों से स्त्रियों ने समर्थन किया है उस पर बहुमत से हिन्दू और मुसलमान पुरुषों को लज्जित होना पड़ेगा। जिन महानुभावों को हमारी देवियों की विचारशीलता पर संदेह था उन्हें अब अपने विचारों में तरमीम करनी पड़ेगी। भारतीय महिलाओं ने घर की चारदीवारी के अन्दर जिस तरह अपनी दक्षता प्रमाणित की है उसी तरह राष्ट्र के विस्तृत क्षेत्र में वे पुरुषों के आगे रहेंगी। (10) यहाँ इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि स्त्रियों की सोच के विषय में जो सामान्यतः परंपरागत संदेह का भाव विद्यमान है, उसे प्रेमचन्द तोड़ने की कोशिश करते हैं। एक तो स्त्रियों की आर्थिक पराधीनता की स्थिति तथा दूसरा उनकी सोच(बुद्धि) पर संदेह करना, ये ही दो मुख्य बिन्दु हैं जिनके कारण उनकी दशा युगों से शोचनीय रही है। इन संपादकीयों में प्रेमचन्द की दृष्टि इस हद तक सजग और पैनी रही है कि वे परंपरागत दृष्टि को भी मानों परिवर्तित करने का प्रयास कर रहे थे। तभी मि. मैकेंज़ी के कुमारी शिक्षा के आदर्श पर उन्होंने तीखी टिप्पणी की है।<br /> मैकेंज़ी कन्या- शिक्षा में वही भेद स्वीकार करते हैं जो समाज में वास्तविक रूप से विद्यमान है। पर इसमें भी प्रेमचन्द का पक्ष तो यही था कि स्त्रियों को ही फैसला करने का हक़ मिलना चाहिए। प्रेमचन्द के अनुसार पुरुषों ने स्त्रियों को इतना सताया है कि वे अब आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनना चाहती हैं। स्त्रियां अध्यापिका बनें या वकालत करें, इसका निर्णय वे ख़ुद करें। स्वार्थी पुरुषों का फ़ैसला उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए।<br />प्रेमचन्द के इस संपादकीय की विशेषता यह है कि उन्होंने बड़ी सफ़ाई से मैकेंज़ी और भारतीय देवियों को आमने-सामने रख दिया है। यह जागरण, 22 जनवरी 1934 का संपादकीय है। 29 जनवरी 1934 के संपादकीय में उन्होंने महिलाओं की शिक्षा पर जवाहरलाल नेहरू के विचार रखे हैं। इसमें उन्होंने फिर मैकेंज़ी को याद करते हुए एक अच्छा जक्सटापोज़(juxtapose) खड़ा किया है। जहाँ मैकेंज़ी लड़कियों को केवल गृहिणी बनाना चाहते थे वहाँ महिला विद्यापीठ के दीक्षांत भाषण में नेहरू कहते हैं कि लड़कियों को केवल विवाह के लिए क्यों तैयार किया जाए. वे लड़कियों की आर्थिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। महत्वपूर्ण बात पुरुषों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की है—इससे ही सारा विवाद मिट जाएगा और पारिवारिक विच्छेद के लज्जास्पद दृश्यों से समाज की रक्षा हो सकेगी।<br />इस जक्सटापोज़िशन से प्रेमचन्द ने यह भी स्पष्ट किया है कि अँग्रेज़ों में भी कुछ लोग, जो ऊंचे ओहदों पर थे, उनकी मानसिकता पिछड़ी हुई थी। हम चाहें पराधीन हों पर हमारे उम्मीद- भरे नेता प्रगतिशील अवश्य हैं। इसका महत्व इस दृष्टि से भी है कि उस समय की जनता ख़ुद ये देखे और निर्णय करे कि हक़ीक़त में कौन अगड़ा है और कौन पिछड़ा है।<br />स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता संबंधी प्रेमचन्द का विचार भारतीय था- कहने का मतलब यह है कि वे स्त्रियों के आर्थिक स्वातंत्र्य के पक्षधर तो थे पर उनके नौकरी करने के पक्ष में नहीं थे। यह विरोधाभासी लग सकता है। पर शिवरानी देवी के साथ की उनकी बातचीत के हवाले से ऐसा कहा सकता है। शिवरानी देवी जब स्त्रियों की नौकरी की बात उठाती हैं, तो प्रेमचन्द का कहना था –स्त्रियां नौकरियां करने लगी हैं, मगर वह अच्छा नहीं है, मैं इसको अच्छा नहीं समझता। अब इसका नतीजा क्या हो रहा है अब पुरुष और स्त्री दोनों नौकरियां करने लगे हैं , तब इसके मानी क्या है. रुपये ज़्यादा आ जाएँगे। उसी का तो यह फल है कि पुरुषों की बेकारी बढ़ रही है। (11)<br />पहले पठन में प्रेमचन्द का यह कथन अत्यन्त प्रतिक्रियावादी लगता है। लेकिन चर्चा की समाप्ति पर उनका यह कथन उनकी वास्तविक मानसिकता पर प्रकाश डालती है- छोटी जातियों और काश्तकारों में देख लो, दोनों बराबर की मेहनत करते हैं, बल्कि स्त्रियां उनसे कुछ अधिक ही काम करती हैं, फिर भी पुरुष जो बदमाश हैं, वह अपनी स्त्रियों से पैसा भी छीन लेते हैं, और उन पर शासन भी करते हैं। अब सोचना यह है कि कैसे दोनों को बराबर भी किया जाए और बदमाशों को कैसे ठीक किया जाए। इसमें ज़रूरत इस बात की है कि स्त्रियां शिक्षित हों, और उसके साथ-साथ स्त्रियों को वह अधिकार मिल जाएं, जो सब पुरुषों को मिले हुए हैं। जब तक स्त्रियां शिक्षित नहीं होंगी, और सब कानून- अधिकार उन को बराबर न मिल जाएंगे, तब तक महज़ बराबर काम करने से ही काम नहीं चलेगा। (12)<br />शिवरानी देवी के साथ का उनका यह संवाद सन् 1935 का है। इस बात पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि प्रेमचन्द आर्थिक स्वतंत्रता को शिक्षा और कानूनी अधिकार से जोड़ते हैं , नौकरी से नहीं। प्रेमचन्द के ये बदमाश पुरुष आज भी, केवल काश्तकारों में ही नहीं, मध्य-वर्ग में भी विद्यमान हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज स्त्री धनोपार्जन का बेहतर साधन हो गई है। <br /> <br />विधवा और तलाक, आर्थिक स्वतंत्रता के साथ ही प्रेमचन्द ने बालिकाओं के शिक्षित होने में विशेष रुचि दिखाई। वे मानते थे कि समाज का एक अंग दुर्बल होने के कारण ही हमारी इतनी हीन दशा है। प्रेमचन्द के इस संपादकीय को, जो हंस, दिसंबर 1932 में छपा है, पढ़कर मुझे यह प्रतीति हुई कि अब भी हमने बहुत विकास नहीं किया है। 2006 में भी गुजरात राज्य कन्या- शिक्षण को बाजे-गाजे के साथ महत्व दे रही है।( इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसकी आवश्यकता इस मायने में है भी कि आज भी अगर कन्या- शिक्षा पर पैसे खर्च करने पड़े तो असंख्य लड़कियां निरक्षर रह जाएंगी।)यानी इस संपादकीय के लिखे जाने के 74 वर्ष बाद भी कन्याओं को शिक्षित करने की मानसिकता समाज में अभी पूरी तरह से बनाना बाकी है। यह काम पूरा नहीं हुआ है। वे कहते हैं –पुराने ज़माने में क्षत्राणियां रण में शत्रु का सामना करती थीं। पर आजकल की लड़कियां अपने स्वास्थ्य की रक्षा नहीं कर सकतीं। आर्य-कन्या व्यायाम मंदिर, बड़ौदा की कन्याएं गदा, लेझिम, फिरकी, तलवार, छुरे, आसन तथा अन्य व्यायाम के प्रदर्शन हेतु, स्थानीय दयानंद हाईस्कूल में आई थीं। सभी बालिकाएं जो आई थीं, अत्यन्त फुर्तीली, चपल, शिक्षित तथा दक्ष थीं। उनका गरबा नाच, संस्कृत में कथोपकथन, दो लड़कियों का व्याख्यान उनकी शिक्षा को व्यक्त करता था। बडौ़दा की कन्याओं का यह ग्रुप कन्या शिक्षा का प्रचार करने अपने प्राचार्य के साथ भारत भ्रमण के लिए निकला था। यह ध्यान देने की बात है कि प्रेमचन्द एक तरह से शिक्षा को अस्त्र मानते थे।<br />लेकिन यह बात सर्वविदित है कि प्रेमचन्द ने अपनी लड़की की पढ़ाई की तरफ़ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया था। इसका कोई खुलासा शिवरानी देवी ने नहीं किया है। परन्तु अमृत राय ने अपनी पुस्तक कलम का सिपाही में लिखा है-<br />मुंशीजी की बेटी के साथ भी यही बात थी। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई का सुयोग उसे नहीं मिला—या नहीं दिया गया। कुछ रोज़ लखनऊ के महिला विद्यालय में गई मगर फिर वहाँ से भी उसे छुड़ा लिया गया।<br />आजकल जहाँ अनपढ़ लड़कियों पर उंगलियाँ उठती हैं, चालीस-पैंतालीस साल पहले पढ़ी-लिखी लड़की पर उठा करती थीं। लड़की को पढ़ाना अपने आप में एक क्रांति थी। मुंशीजी भी शायद इस क्रांति के लिए तैयार नहीं थे।(13)<br />अमृत राय बताते हैं कि प्रेमचन्द की बेटी जब छोटी थी तब वे बस्ती में रहते थे, जो एक छोटी जगह थी। जब बेटी कछ पढ़ने-लिखने लायक हुई तब उनका गोरखपुर का आबदाना छूट गया था। बाद में कहीं भी जमकर उनका रहना नहीं हो सका। फिर लड़की को बाहर भेज कर पढ़ाना संभव न था। (यहाँ इस बात को याद कर लेना चाहिए कि महादेवी जी ने लगभग सत्याग्रह कर के इलाहाबाद जा कर पढ़ने के लिए अपने माता-पिता को राज़ी किया था। ऐसा सब के लिए संभव नहीं होता।) <br />कुछ इत्मीनान उनको लखनऊ में मिला। पर, अमृत राय लिखते है-बेटों की पढ़ाई, जो अपनी बहन से छोटे थे, वहीं शुरु हुई लेकिन बेटी की पढ़ाई शुरु करने के लिए तब तक ज़्यादा देर हो चुकी थी। आधे मन से कुछ कोशिश ज़रूर हुई, पर आधे मन से। क़िस्सा कोताह वह पढ़ नहीं सकी और चूल्हा पकड़े बैठी रही जो कि घर की सयानी लड़की का काम है। (14) अमृत राय तर्क भी देते हैं कि माँ की बीमारी के कारण भी, हो सकता ही कि उसे स्कूल न भेजा गया हो।<br />बहर हाल, जो कारण रहा हो, यह बेहद अफ़सोस जनक ही कहा जाएगा कि स्त्री-शिक्षा के सघन समर्थक प्रेमचन्द स्वयं अपनी बेटी को न पढ़ा सके हों। ज़माने को लानत भेज कर भी यह बात तो बनी ही रहती है कि उनकी बेटी शिक्षा से वंचित रही।<br />लेकिन बड़े भोलेपन से और सहज-भाव से दिया गया अमृत राय का यह कारण हमें सोचने पर मजबूर करता है-<br />इन सब के बाद भी यह मानना कठिन है कि बेटी को ठीक से शिक्षा का सुयोग न देने के पीछे और भी कोई कारण नहीं था । जहाँ तक प्रमाण मिलता है—जिसमें उनकी इसी काल की लिखी हुई शान्ति—जैसी कहानियों का प्रमाण भी है—उसका बड़ा कारण यह था कि पढ़ी-लिखी लड़कियों की तरफ़ से उनके मन में यह चोर था कि लड़कियाँ पढ़-लिख कर गृहस्थी के काम की नहीं रह जातीं, तित्तली बन कर यहाँ-वहाँ घूमते रहने में ही उनका जी लगता है। अगर इससे अलग भी कोई बात उनके मन में थी तो वह कमज़ोर थी और चारों तरफ़ एक पिछड़ा हुआ समाज था जो लड़कियों की पढ़ाई को अच्छी निगाह से नहीं देखता था। लिहाज़ा बेटी घर के भीतर और घर के बाहर समाज के पिछड़ेपन का शिकार हुई और मामूली हिन्दी से ज़्यादा कुछ न पढ़ सकी। (15)<br />क्या इसीलिए गोदान की मालती को भी लेखक के इन विचारों का खामियाजा भुगतना पड़ा है ? या फिर गोदान की मालती औपन्यासिक कथावस्तु की अनिवार्यता है ? यह प्रश्न भी उठता है। किन्तु साथ ही यह तथ्य भी सामने रखना आवश्यक है कि शिवरानी देवी ने जो प्रेमचन्द का चरित्र उकेरा है उससे यह मान लेना ज़रा कठिन प्रतीत होता कि वे स्त्रियों के बारे में ऐसी सोच रखते हों। अमृत राय के ऐसे विश्लेषण के क्या कारण हो सकते हैं, कहा नहीं जा सकता।<br />यहाँ मैं एक और बात भी रखना चाहूंगी। एक ऊर्जा सभर रचनाकार जब रचना करता है तब वह जो भी कुछ कहता है या कहना चाहता है, अपनी रचना में इस तरह डूब कर कहता है कि उसे एक<br />अ-भूतपूर्व रचनात्मक संतोष की प्राप्ति हो जाती है। मानों उसने वह कार्य वास्तव में संपन्न कर लिया हो। क्रिएटिव सैटिसफैक्शन(सर्जनात्मक संतोष) मिल जाने के पश्चात् कई बार यह बात उसके लिए गौण हो जाती है कि उसने अपने वास्तविक जीवन में उसका पालन किया है या नहीं, कर पाया है या नहीं, या उससे हो पाया है या नहीं। इसे हर बार रचनाकार के जीवन तथा कृतित्व के बीच फांक के रूप में देखना आवश्यक नहीं है। यह हक़ीक़त है कि एक रचनाकार अपने विशिष्ट भौतिक परिवेश में जीता है और तदनुसार उसकी सर्जनात्मक चिंताएं आकार ग्रहण करती हैं। वह अपनी रचनाओं के द्वारा मंगलमय जीवन एवं समाज के बेहतर भविष्य का स्वप्न देखता है। अतः उसकी रचनाएँ उसके समय तथा देश के परे और पार जा कर भी मनुष्य जीवन को प्रभावित करती हैं तथा सदैव करती रहेंगी। फलस्वरूप वह जो कुछ भी रचता है केवल अपने देश- काल में बद्ध हो कर नहीं लिखता। एक बिंदु पर उसकी चिंताएं सामयिक लग सकती हैं, होती भी हैं, परंतु एक अन्य बिंदु पर वह सामाजिक, भावनात्मक तथा सौंदर्यात्मक स्तर पर कालातीत भी होती हैं। यह प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि लेखक किस रचना में अनुभव के कौन से बिंदु पर अपने आप को पाता है। किस बिंदु पर खड़े हो कर वह सामयिक बात कर रहा है और कब वह कालातीत स्थिति में है। मुख़्तसर, मुद्दा इतना ही है कि लेखक जो भी लिखता है उसे हर बार एक ही मापदंड से नहीं देखना चाहिए। यहाँ मैं प्रेमचंद के बचाव में यह नहीं कह रही बल्कि मेरा आशय केवल यह रेखांकित करना है कि प्रेमचंद चाहे अपनी बेटी को न पढ़ा पाए हों परन्तु वे एक पराधीन राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक मानते थे कि उसकी नई स्त्री पीढ़ी शिक्षित हो। <br /> इसी तरह एक और स्थान पर, जहाँ अमृत राय ने प्रेस खरीदने के प्रसंग का उल्लेख किया है वे प्रेमचन्द का पत्र उद्भृत करते हैं, जिसमें इन वाक्यों को देखा जा सकता है- एक और बात याद रखो । तुम्हारा दिल, मैं जानता हूँ, बहुत साफ़ है। लेकिन औरतों का दिल अकसर तंग-खयाल होता है। (16) हालांकि स्वयं शिवरानी देवी इस बात से सहमत नहीं थी कि प्रेस में प्रेमचन्द के सौतेले भाई महताब का भी नाम हो, वे अपने बेटे श्रीपत के नाम खरीदना चाहती थीं। परन्तु प्रेमचन्द महताब को लिखते हैं- तुम्हारी बीबी के ग़ालिबन मालूम हो कि तुम रुपया कर्ज़ ले रहे हो महज़ इसलिए कि श्रीपतराय के नाम प्रेस ख़रीदो तो वह इसे हरगिज़ पसंद न करेगी। (17) प्रेमचन्द के इन विचारों को एक घरेलू औरत के विषय में, व्यवहारिक रास्ता निकालने के लिए, रखे गए उनके विचार मानने चाहिए; यह बात एक पारिवारिक मसला सुलझाने की तरकीब से अधिक कुछ नहीं। इसे प्रेमचन्द के नारी- विषयक केन्द्रीय विचार नहीं मानने चाहिए। हाँ, ऐसे प्रसंगों के उल्लेख से प्रेमचन्द की प्रगतिशील, आदर्शवादी तस्वीर कुछ धुँधली अवश्य होती है। ऐसे उदाहरणों से जो फांक जैसी दिखाई पड़ती है, उसे निश्चय ही इस रूप में लेना चाहिए कि वे अपने युग की वैचारिक सीमा को लांघ नहीं सके, संभवतः। <br />बालिकाओं को क्या नहीं पढ़ाना चाहिए तथा क्या उन्हें यौन-शिक्षण देना चाहिए या नहीं , इस मंतव्य का उनका संपादकीय महिला विद्यालय में बिहारी- सतसई (18)में झलकता है। इंग्लैंड में उस समय यौन-शिक्षण की चर्चा चल रही होगी। प्रेमचन्द व्यंग्य करते हैं कि बिहारी जैसे श्रृंगारी कवि को वहाँ स्थान मिलना चाहिए। इससे यही कयास निकाला जा सकता है कि वे इस बात के पक्ष में नहीं थे।<br />औरतों की खरीद-फ़रोख़्त (Women Trafficking) पर लिखा उनका सम्पादकीय वेश्यावृत्ति (19) राजनीतिक दलबन्दी बनाम सामाजिक प्रश्न जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर इशारा करता है। मि. ई अहमद शाह जो सामान्य रूप से प्रजापक्ष के विरोधी थे, उन्होंने वेश्या वृत्ति निवारण तथा स्त्रियों की ख़रीद-बिक्री रोकने का बिल पेश किया। राष्ट्र-परिषद ने भी ट्रैफ़िक इन विमेन संबंधी नियम बनाए थे। मात्र मि. चिंतामणि इस बिल का विरोध कर रहे थे। यह प्रेमचन्द के लिए आश्चर्यजनक बात थी। श्री. चिंतामणि ने मि. शाह की खिल्ली भी उड़ाई। पर प्रेमचन्द इसे दलबंदी की राजनीति का फल मानते थे। इसका मतलब तो यह है कि प्रेमचन्द के समय से ही महिलाओं के मुद्दे दलबंदी की राजनीति में फँसते रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आज भी 33% का बिल भी दलबंदी का शिकार हो रहा है।<br />प्रेमचन्द के लिए स्त्रियों से जुड़े मुद्दे महत्वपूर्ण थे, राजनीतिक दल नहीं। मसला चाहे प्रजापक्ष के समर्थक व्यक्ति का हो, परन्तु अगर उनके द्वारा स्त्रियों के अहित में लिया गया कोई निर्णय हुआ हो , तो प्रेमचन्द इस पर टिप्पणी करने से नहीं चूके।<br /> जन-संचार में महिलाओं को जिस तरह प्रस्तुत किया जाता है, उसकी अपमानजनक स्थिति का जैसा आलेखन होता है, उसको लेकर आज काफी विरोध, आंदोलन, चर्चा आदि होती है। प्रेमचन्द ने भी अपने संपादकीय में नारी की अर्ध नग्न तस्वीरों के प्रदर्शन पर विरोध प्रकट किया है। बेशक इसका कारण वे पुरुषों के मनोभावों के उत्तेजन के साथ जोड़ते हैं, अर्थात् पुरुष उत्तेजित होता है, अतः ऐसा नहीं करना चाहिए। आज के नारीवादी दृष्टिकोण में यह बात फिट न भी बैठे। परन्तु वास्तविकता भी तो यही है।<br /> दक्षिण अफ्रीका में एक काली औरत पर गोरी औरत की नकल में पाजामा पहनने पर अदालती कार्यवाही हुई। इस पर हंस( मई, 1934) के अपने संपादकीय में प्रेमचन्द एक ओर जहाँ भेद-नीति पर टिप्पणी करते हैं, वहीं यह कहने से भी नहीं चूकते कि हमें तो उस काली देवी की कुरुचि पर दया आती है, जो साड़ी ऐसे लोचदार चीज़ को छोड़ कर पाजामा पहनने चली।(20)<br /> यहाँ यह देखा जा सकता है कि महिलाओं के वस्त्र पहनने की स्वतंत्रता के वे पक्षधर नहीं दिखते। यहाँ उनकी मानसिकता कुछ-कुछ संकीर्ण और रूढ़िवादी भी कही जा सकती है। यहाँ प्रेमचन्द तवज्जोह देते हैं अपनी रुचि तथा मान्यता को, जो वस्त्र पहनने के नारी के मूलभूत अधिकारों के विपरीत जा पड़ती है। फिर इस बात का मीज़ान भी नहीं बैठता कि स्त्री को यह अधिकार तो वह देते हैं कि वह अपना भविष्य तय करे- वकालत करे या अध्यापिका बने, पर वह क्या पहने बल्कि क्या न पहने, यह तय करने का अधिकार पुरुष का हो।<br /> मेरा ऐसा ख़्याल है कि प्रेमचन्द में सर्वत्र यह बात देखने को मिलती है कि स्त्रियों के प्राथमिक मुद्दों पर वे जितने प्रगतिशील हैं, व्यावहारिक मुद्दों पर वे टिपिकली परंपरागत नज़र आते हैं।<br /> समान मजदूरी के हिमायती प्रेमचन्द अविवाहित स्त्री के संतानवती होने के भी पक्षधर दिखते हैं। उनका नारियों से नम्र निवेदन है कि अब वे एकांत भोग की बात छोड़ें और अपने बेकार पुरुषों की उसी तरह नाज़ बरदारी करें जैसे पुरुष अब तक अपनी बेकार स्त्रियों की करता आ रहा है। (21)<br /> बदलते हुए समय का अहसास प्रेमचन्द को हमेशा रहा है। नारियां अपने को मिलने वाली रियायतों को शीघ्र ही ठुकरा देने वाली हैं, ऐसा उन्हें विश्वास था। पुरुषों की chivalry(स्त्री-दाक्षिण्य) पर व्यंग्य कसते हुए वे कहते हैं कि पुरुषों द्वारा ठोस बातों तथा मुद्दों पर chivalry नदारद है जैसे- मजदूरी, पर कविताएँ छापना हों तो स्त्रियों की पहले छापेंगे। प्रेमचन्द की दृष्टि में यह स्त्रियों के साथ अन्याय है। स्त्रियों की कविताएँ उनकी गुणवत्ता के कारण नहीं पर, आज की भाषा में कहें तो, आरक्षण के कारण छापी जाएं, जिसके परिणामस्वरूप युवक स्त्रियों के नाम से कविताएँ भेजने को प्रवृत्त होने लगे। भारतीय नारियों के प्रति प्रेमचन्द को इतना तो भरोसा था कि वे शीघ्र ही इस संरक्षण को ठुकरा देंगी। <br /> महिलाओं के द्वारा लिखित रचनाओं की समीक्षा करते समय भी प्रेमचन्द का नारी संबंधी दृष्टिकोण उजागर होता है। वचन का मोल की लेखिका के नाम, 9 जून 1936 में प्रेमचन्द लिखते हैं-आजकल युवक गल्प लेखक स्त्रियों को ख़ुश करने के लिए ख़्वामख़्वाह ऐसे नारी चित्र खींचते हैं जिन में विद्रोह की भावना भरी होती है। ज़रा-ज़रा-सी बात पर नारी अपने पुरुष से लड़ने के लिए तैयार हो जाती है या उसे छोड़ देती है, बदला लेने लगती है। एक स्त्री अपने पुरुष से इसलिए असंतुष्ट थी कि वह बेचारा दिन-भर काम-धंधे में फंसा रहता था और स्त्री के पास बैठ कर उसका मन बहलाने के लिए समय न था। देवीजी को अकेले बैठने में बुरा लगता था। आखिरकार अपने ममेरे देवर के प्रेम में फंस कर मर गई। इस तरह की कहानियों से क्या फायदा होता है यह मेरी समझ में नहीं आता। केवल यही कि स्त्रियां लेखक को स्त्रियों का हिमायती समझें। ईश्वर की दया से देवियां इतनी असहिष्णु नहीं होतीं। (22) अर्थात् प्रेमचन्द दिखावे के या देखा-देखी के नारी-वाद के समर्थक नहीं थे।<br /> प्रेमचन्द ने किन्हीं हज़रत जामी साहब की युसुफ़ – ज़ुलेख़ा के किस्से पर जो टिप्पणी की है वह बड़ी मार्मिक है। पहले तो पूरा किस्सा कह सुनाया। फिर अंत में इतना भर कहा-इससे हज़रत जामी साहब का शायद यह मतलब होगा कि उसकी(ज़ुलेख़ा) कमियां दिखा कर, उसकी निंदा कर के यूसुफ़ की बड़ाइयों की इज़्ज़त बढ़ाएं और इस इरादे में वह ज़रूर कामयाब हुए हैं। (23) इसे प्रेमचन्द का फ़िरक़ापरस्तों के बारे में नज़रिया भी मान सकते हैं। कलम का सिपाही में भी अमृत राय ने भी प्रेमचन्द की उस पीड़ा को, क्रोध को व्यक्त किया है जहाँ वे पंडों तथा महन्तों द्वारा सुंदर रमणियों के साथ की जाती लीलाओं का हवाला देते हैं।(24) <br />कलम का सिपाही तथा प्रेमचन्द घर में इन दोनों किताबों में प्रेमचन्द के व्यक्तित्व के भिन्न-भिन्न पहलू नज़र आते हैं। शिवरानी देवी की किताब पढ़ कर दो बातें ध्यान में आती हैं –पहली - प्रेमचन्द का जीवन अधिकतर आर्थिक एवं शारीरिक संघर्षों में बीता और दूसरी - उनका अपनी पत्नी के साथ सभी मुद्दों पर चर्चा-वार्तालाप रहता था। अमृत राय की पुस्तक में कई बातें हैं परन्तु एक बड़ी महत्वपूर्ण बात जो उन्होंने लिखी है वह यह कि प्रेमचन्द की सर्जनात्मक अनिवार्यता को संभव बनाने के लिए दो ही मुद्दे कारण भूत थे- जाति-प्रथा तथा नारी की स्थिति। पिछले बरसों में उसने न जाने कितना कुछ पढ़ा था लेकिन उसमें ज्यादातर राज-रानी के किस्से थे, तिलिस्म और ऐयारी के किस्से थे। पढ़ने में वह बहुत अच्छे लगते थे मगर वह कुछ और लिखना चाहता था। उस तरह के किस्से फिर से लिख कर क्या होगा। ठीक है उनसे दिल बहलाव होता है मगर सवाल यह है कि हम आखिर कब तक दिलबहलाव करते रहेंगे। इस तरह तो इतिहास के पन्नों से हमारा नाम मिट जाएगा। ज़रा अपने समाज की हालत भी तो देखो--- कैसी मुर्दे की नींद सो रहा है। उसका दिल बहलाने की ज़रूरत है कि झकझोर कर उसे जगाने की। न जाने कब से सो रहा है इसी तरह । क्या क़यामत तक सोता रहेगा। यह तो मौत है सरासर। अगर कुछ लिखना ही है तो ऐसा कुछ लिखो जिससे यह मौत और ग़फ़लत की नींद टूटे, यह मुर्दनी कुछ दूर हो।(25) उनकी दृष्टि में इस मुर्दनी के दो मुख्य कारण थे। पहला- एक आदमी के छू जाने से दूसरे आदमी की जात चली जाती है और दूसरा- कहने को तो कह दिया—जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता वास करते हैं। लेकिन कोई पूछे कि आपने किसी तरह का कोई अधिकार नारियों को दिया है। ......वह एक खेत है जिससे सन्तान की, पुरुष के संपत्ति के उत्तराधिकारी की प्राप्ति होती है।(44) इसीलिए तो कन्या और गौ का स्थान एक है –चाहे जिसके साथ बाँध दो। पाँच साल की लड़की का ब्याह पचास साल के बुड्ढे के साथ हो सकता है।(26)<br /> इस संदर्भ में प्रेमचन्द की एक कहानी याद आती है। 'नरक का मार्ग` जो १९२५ में 'चांद` पत्रिका में छपी थी। प्रेमचन्द ने उसमें कहा है कि 'स्त्री सब कुछ सह सकती है, दारुण से दारुण दुख बड़े से बड़ा संकट, अगर नहीं सह सकती है तो अपने यौवन काल की उमँगों का कुचला जाना।` इस कहानी में स्थिति थोड़ी-सी अलग है। यहां लड़की के माता पिता धन के लोभ में लड़की का बेमेल विवाह कर देते हैं। बूढ़े पति को पाकर भी लड़की सोचती है कि वह पति की सेवा करेगी क्योंकि यह उसका धर्म है। ससुराल में एकदम उलटा माहौल पाकर स्त्री बौखला जाती है। पति उसके स्वाभाविक बनाव शृंगार पर सशंकित और ईर्ष्या दग्ध रहता है। स्त्री जल्दी ही अपनी स्थिति समझ जाती है और कहती है कि 'इन्हें स्त्री के बिना घर सूना लगता होगा, उसी तरह जैसे पिंजरे में चिड़िया को न देख कर पिंजरा सूना लगता है।` महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रेमचन्द की स्त्रियों अपनी स्थिति का विश्लेषण बखूबी करती हैं। गुलाम जिस दिन गुलामी का एहसास कर ले, उसकी लड़ाई उसी दिन शुरू हो जाती है। 'नरक का मार्ग` कहानी में प्रेमचन्द् की स्त्री दो हाथ आगे निकल कर कहती है ''मैं इसे विवाह का पवित्र नाम नहीं देना चाहती... यह कारावास ही है। 'मैं इतनी उदार नहीं हूं कि जिसने मुझे कैद में डाल रखा हो उसकी पूजा करुँ, जो मुझे लात मारे उसके पैरों को चूमूं।... स्त्री किसी के गले बांध दिये जाने से ही उसकी विवाहिता नहीं हो जाती है । विवाह का पद वह पा सकता है जिसमें कम से कम एक बार तो हृदय प्रेम से पुलकित हो जाये।`प्रेमचन्द यहां उस विवाह की बात कर रहे हैं जहां दो लोगों के मन पहले मिलते हैं। (27)<br /> कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द का नारी-विमर्श जब उनकी पत्रकारिता में प्रकट होता है तब भी वह उनकी सर्जनात्मक ऊर्जा एवं चिन्तन-सभरता से स्पर्धा करता हुआ ही दिखाई पड़ता है। उसका अपना एक भारतीय रूप है जो ऊपरी स्वतंत्रता की अपेक्षा मूलभूत एवं प्राथमिक स्वतंत्रता को महत्व देता है। पर जहाँ तक स्त्री-विमर्श का मुद्दा है, अपने व्यक्तिगत जीवन में वह अपने विचारों के पीछे, कई बार दूर बैठे भी दिखाई पड़ते हैं।<br />अंत में महादेवी वर्मा, जो हिन्दी की पहली नारी-विमर्श कार कही जा सकती हैं, उनका यह कथन दृष्टव्य है- <br /> हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो-जो हम में गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है। (28)<br /><br /><br />संदर्भ<br />1- प्रेमचन्द रचनावली -8 1933 का सम्पादकीय<br />2- रचनावली -9 पृ-78<br />3- डॉ. चंद्रेश्वर कर्ण – चिट्ठी- पत्री से झाँकती प्रेमचन्द की आलोचना दृष्टि- चक्रवाक पृ- 196<br />4- प्रेमचन्द घर में पृ-26<br />5- वही पृ- 8<br />6- चक्रवाक पृ-<br />7-रचनावली भाग- 8 पृ-448<br />8- पृ 45<br />9-रचनावली -8 पृ- 273<br />10-रचनावली -8 पृ- 198<br />11-प्रेमचन्द घर में पृ-192<br />12- वही- पृ-192-193<br />13- कलम का सिपाही पृ- 433<br />14-वही- पृ- 434<br />15- वही-पृ 434<br />16-कलम का सिपाही पृ- 242<br />17-प्रेमचन्द- घर में पृ 45-46<br />18-4,सितंबर 1933,जागरण, रचनावली-8 पृ 425<br />19-जागरण 3 जुलाई 1933<br />20-रचनावली-भाग-9 पृ-106<br />21-वही पृ-106 हंस, मई 1934<br />22-वही पृ- 525<br />23-रचनावली भाग-7 पृ-101<br />24-कलम का सिपाही पृ- 44<br />25- कलम का सिपाही पृ43-44<br />26- वही<br />27-http://www.tadbhav.com/2005/priti_chaudhary/ <br />http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2005/07/050729_premchand_mahadevi.shtml<br /></span> </p>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-29703459578989008512009-06-11T03:03:00.000-07:002009-06-11T03:09:04.312-07:00नगाड़ा बजा<span class=""> <span style="color:#cc0000;"> न</span></span><span style="color:#cc0000;"> गा ड़ा न गा ड़ा...नगाड़ा ब जा<br /></span><span class=""> <span style="color:#663366;">रंजना</span></span><span style="color:#663366;"> अरगडे</span><br /><span class=""> <span style="font-size:130%;color:#993300;"><strong>नगारा</strong></span></span><span style="font-size:130%;color:#993300;"><strong>..नगारा.....नगारा ........बजा क्योंकि हम अब एक नए मैजिकल वर्ल्ड में जी रहे हैं जहाँ सब कुछ पल भर में घटित हो जाता है। लोक और सामाजिक व्यवहार तो क्या नैतिकता तक हमारे देखते ही देखते, हमारी मानो रज़ामंदी लेते हुए, हमारे ही सामने अ-नैतिकता की सीढ़ियाँ चढ़ जाती है। हमारी ही लोक-परंपरा की दुहाई देते हुए हमें यह समझा दिया जाता है कि समाज और लोक-साहित्य तक में तो ऐसा ही होता है। वरना क्या हम जीजा-साली के रिश्ते का करुण अंजाम बयाँ करने वाले किस्सों से अवगत नहीं हैं क्या ? बहन का जापा कराने आयी छोटी बहन कब उसी की सौत बन कर अपने और बहन के बच्चों को एक ही घर में बड़ा करती , क्या हमारी जानकारी में नहीं है। माता-पिता का बोझ, उनकी कुल मर्यादा, बेटी की मजबूरी और पुरुष के अ-संयम के इस अनिच्छनीय परिणाम को तब भी हम ख़ुशी-ख़ुशी तो स्वीकार नहीं ही करते रहे थे। पर अब एक कामोत्तेजक स्प्रे इस सारे करुण और दुखद परिवेश की ऐसी-तैसी करते हुए सारी के पैर में मोच ला कर वह कर देता है, एक जबरदस्त ग्लैमर के साथ कि हमें यह लगने लगता है कि ‘ अच्छा ! इस हमारी जादुई दुनिया में कितना सरल हो गया है सब कुछ! अब एकाधिक लड़कियों वाले माँ-बाप को चिंता की ज़रूरत ही नहीं है। दहेज में लड़की को ये ऐसे स्प्रे दे दें, तो दूसरी शादी का खर्च भी बच जाएगा।<br />कष्ट झेलना, श्रम करना और प्रतीक्षा करना ... ये सारे कार्य और मूल्य अब बे-मानी हो गए हैं। सब कुछ चट-पट; फटाफट। अब डॉक्टरों की क्या ज़रूरत है, आपके बालों की रूसी से ले कर दाँतो और चेहरे तक की चमक .. मिनटों में आ जाएगी। अब माता-पिताओं को न चिंता करने की ज़रूरत है न विद्यार्थियों को श्रम... कि मेडिकल में एडमिशन मिलेगा या नहीं। क्यों खून जलाया जाए... इस ग़रीब(?) जनता को आपकी क्या ज़रूरत है!<br /> <br />अच्छा काम और अच्छे परिणामों , नौकरी या परीक्षा में अ-कल्प्य सफ़लता के लिए एकाध पावडर या सेलफोन या किसी अच्छे पेन की ज़रूरत है यह अगर मुझे पता होता तो कितना भला हो जाता मेरा। मुझे अपने उस जले हुए ख़ून के क़तरों पर दया आ रही है जो मैंने अपने बेटे को सु-लेखन करवाने के लिए जलाए थे। उन वस्तुओं के मूल्य को मैंने नहीं पहचाना जो आज का हमारा जादुई विश्व बन चुकी हैं।<br />ग़ुज़र गया वो ज़माना....ऐसा...कैसा..कि जिसके किस्से-कहानियों में रही जादू की छड़ियाँ पल भर में दुनिया बदल देती थीं कहानी के किरदारों की। उड़ती हुई चटाई या जादुई चराग़ भोले ईमानदार किरदारों को मिलता था, मीनारों में बंद सुन्दर राजकुमारियाँ संघर्ष करने वाले, कष्ट झेलने वाले वीर पुरुषों को मिलती थीं। पर अब तो यह सब 10, 20, 50, 100 1000......आदि आदि रुपये. <br />खर्च करने पर कोई भी पा सकता है।<br />हृदय तो अब रहा नहीं, आत्मा की बात ब्रह्म जाने, पर शरीर को स्वस्थ और सुंदर बनाने की ताबड़-तोड़ कोशिश और दौड़ इसके पहले शायद ही देखने को मिली हो। इतने सारे जिम हर शहर में खुल गए हैं कि ले मार की मार भीड़ उसमें जा रही है। बगीचों की उपयोगिता और उद्देश्य बदल गए हैं। छोटे-बड़े शहरों का हर बग़ीचा सुबह-शाम जवानों और बूढों से पटा नज़र आता है। बड़ा अच्छा लगता है कि स्वास्थ्य के प्रति ऐसी अ-भूत पूर्व जागरुकता !!! धन्य हो, मेरा भारत महान ! जय हो !<br /> पर आप जैसे ही दौड़ना शुरु करेंगे आपको पता चलेगा कि वहाँ लोग अपना व्यवसाय बढ़ाने आते हैं। बीमा के शिकार वहीं मिलेंगे, फिर तरह-तरह के क्लासेस हैं- और कितना कुछ । ग्राहक भी बनते हैं और स्वास्थ्य भी। और समय के साथ दौड़ने का अहसास भी। इसीको कहते हैं ‘आम के आम गुठलियों के दाम !’<br />हमारी एक साथिन हैं- चाँद बहन शेख। उन्हें समय के साथ रहना ही नहीं आता । अब यहाँ दौड़ ज़ीरो फिगर की लगी हुई है और वे लड़कियों को सु-पोषित देखना चाहती हैं। आज की जवान होती लड़कियों को भविष्य की पीढ़ी को जन्म <br />देना है और ये ज़ीरो फीगर में खोई लड़कियाँ भूल रही हैं कि इतने कमज़ोर शरीर से वे कैसी संतानों को जन्म देंगी? और वे संतानें हमारे देश की क्या तो रक्षा करेंगी और क्या तो उसका विकास करेंगी। और फिर इस वस्तुओं से भरी जादुई दुनिया की चीज़ें खा-खा कर उनमें कौन-सी ऐसी ताक़त आ जाएगी... ।<br />पहले तो स्त्रियाँ सामाजिक और व्यवस्था-गत कारणों से कु-पोषित थीं। ( पर जच्चा का तो फिर भी ख्याल रखा ही जाता था, अमूमन) पर अब तो भरे-पूरे घरों की लड़कियाँ भी अपनी मर्ज़ी से कु-पोषित/ अ-पोषित रहना चाहती हैं और यह जादुई दुनिया उन्हें अपनी ही बहन की सौत बनाने के लिए प्रेरित कर रहा है।<br />आज का मंत्र तो यही है कि-<br /><br /><em><span style="color:#cc6600;">नैतिकता की खूंटी पर<br />भौतिकता की झोली,<br />मारो ईश्वर को गोली !<br /></span></em><br />पर मेरा पिछड़ापन कहता है कि <em><span style="color:#666666;">बाबा प्लेटो</span></em> कहीं- न-कहीं तो आज भी प्रासंगिक हैं। <br /><br /> <br /> </strong></span>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-58005063993154715462009-06-09T01:51:00.000-07:002009-06-09T02:00:09.974-07:00महादेवी : आधुनिक मीरा ?<p><span class=""> <strong><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;"> </span><span style="font-size:180%;">महादेवी</span></span></strong></span><strong><span style="font-size:180%;color:#990000;"> : आधुनिक मीरा ?<br /></span></strong><span class=""></span></p><p align="justify"><span class=""> <strong><span style="font-size:130%;color:#6600cc;">उपाधि</span></strong></span><strong><span style="font-size:130%;color:#6600cc;">-प्रिय इस समाज में यह कोई आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए कि महादेवी जैसी अत्यन्त जागृत और ऊर्जा-संपन्न रचनाकार को मध्य काल की क्रांतिकारिणी भक्त कवयित्री का बिरुद दे दिया गया हो। फिर वैसे भी यह मानव-सहज ही माना जाना चाहिए कि हम अपने वर्तमान की पहचान अपने भूतकाल के संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में करें ।<br /><span class=""> सन्</span> 2007 महादेवी का जन्म-शताब्दी वर्ष है। यह एक अच्छी बात है कि समय का प्रवाह अपने नियम से चलता है और पीढ़ियां भी बदलती रहती हैं, अतः आज 100 वर्षों बाद हम नए सिरे से उन रचनाकारों पर सोच सकते हैं जिनका मूल्यांकन या तो सीमाबद्ध हुआ हो, या अधूरा हुआ हो अथवा जिनकी सिरे से उपेक्षा हुई हो। यह सही कहा गया है कि समय की छलनी तय करती है कि कौन-सा कवि , कलाकार अथवा चिंतक समय के प्रवाह में बचा रह सकेगा।<br />निश्चित रूप से महादेवी की उपेक्षा तो नहीं ही हुई है और महादेवी को पसंद करने वालों की संख्या भी कम नहीं है, परन्तु महादेवी का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है। महादेवी को आधुनिक मीरा कहने वाले उनका सम्मान ही करना चाहते होंगे ऐसा मान लेना चाहिए। फिर आम जनता में भी तो मीरा की छबि बड़ी सम्मानीय है।<br /><span class=""> ऐसा</span> कहना सतह पर गलत भी नहीं लगता क्योंकि मीरा की तरह महादेवी ने भी घर-संसार के प्रति विरक्ति दिखाई, किसी रहस्यमय प्रीतम, जो तम के पार रहता है, जिसे तम के पर्दे में आना भाता है, जिससे प्रेम भी किया जा सकता है और प्रेम-भरा झगड़ा किया जा सकता है इत्यादि, के प्रति अपनी भावना व्यक्त की है। मीरा का प्रियतम रहस्यमय तो नहीं था पर अ-लौकिक अवश्य था। और यह भी तो हो सकता है कि महादेवी को मीरा के समान बता कर ऐसे, न समझ में आने वाले प्रेम को एक फ़्रेम में आलोचक मढ़ देना चाहते हों और अपने कर्तव्य की इति-श्री कर देना चाहते हों कि भई लीजिए, हमने तो न्याय कर दिया है।<br /> पर यह कैसा न्याय ? न्याय तो व्यक्ति की सही पहचान करके ही किया जा सकता है। आप देखिए, कि इस आधुनिक मीरां वाले बिरुद को अब आधी शताब्दी से ऊपर हो गया और उस पर पुनर्विचार करने की प्रक्रिया अब जा कर आरंभ हुई है। घर-संसार की विरक्ति मीरा को कृष्ण तक ले जाती है और महादेवी को ले जाती है उस दिशा में जहाँ उनके समय की आम स्त्रियां अज्ञान तथा रुढ़ियों के झूठे बंधनों में बँधी एक दुःखमय, विषाक्त तथा विषण्ण जीवन जी रहीं थी। उनको जगाने तथा उनके लिए रास्ता बनाना तथा अपने समय की स्त्रियों को बेहतर जीवन मिले इस हेतु ठोस प्रयत्न करने का काम महादेवी ने किया। इसलिए ही ऐसा लगता है कि उनके व्यक्तित्व पर अलौकिकता तथा रहस्यमयता के परदे को जबरन डाला गया ताकि यह जो अधिक व्यापक प्रभाव वाली उनकी यह विशेषता दब जाए। वह बात, जो सामान्य स्त्री को उसके हक़ के प्रति जागृत करे वह अंततः तो समाज के लिए एक ख़तरा ही माना जाना चाहिए।<br /> पर अब सौ वर्षों के बाद जब हम आकलन करने बैठते हैं, तो उन मुद्दों की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक हो जाता है जिनसे महादेवी के रचना-व्यक्तित्व की पहचान संभव हो सकती है। महादेवी ने कविताएं लिखीं, निबंध लिखे, रेखाचित्र लिखे, चिंतन किया और अपनी सोच को कार्यान्वित भी किया। यानी कि मन, बुद्धि तथा कर्म तीनों को सक्रीय रखा। प्रकृति ने प्राणी को मनुष्य के रूप में जिन महत्वपूर्ण अंशों से परिभाषित किया है उनका, उन सभी का उपयोग महादेवी ने किया है। मुझे नहीं लगता कि यह श्रेय उनके समकालीनों को तो क्या, पर बाद के दौर के रचनाकारों में भी किसी को दिया जा सकता है। यह वास्तव में मन, कर्म वचन की एकता के भारतीय मूल्य है का ही थोड़ा परिवर्तित रूप माना जा सकता है।<br /> महादेवी वर्मा भारतीय परिदृश्य की प्रथम स्त्रीवादी चिंतक हैं ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। श्रृंखला की कडियां नामक पुस्तक में प्रकाशित उनके निबंध 1942 के पहले लिखे गए थे। वे आधुनिक भारत की प्रथम विमेन एक्टिविस्ट थीं इस बात में भी कोई संदेह नहीं है। लड़कियों के लिए खोला गया बालिका विद्यालय बाद में चलकर स्नातक कक्षा तक विकसित हुआ, इसी का उदाहरण है। स्वतंत्रता संग्राम की वे एक वीर सिपाही थीं, इसका प्रमाण उनके वे गीत हैं जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रभात-फेरियों के रूप में गाए जाते थे और जन-जन की ज़ुबान पर थे। जिस दलित विमर्श की बात करते-करते हम नहीं अघाते उसके उत्कृष्ट नमूने उनके रेखा-चित्रों में हमें देखने को मिलते हैं। भारतीय समाज, संस्कृति, शिक्षा- व्यवस्था, स्वतंत्र भारत में शासन का कर्तव्य आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनको महादेवी ने अपने चिंतनात्मक निबंधों में बहुत ही ओज-पूर्ण अभिव्यक्ति दी है। मीरा ने तो कृष्ण के अलावा किसी शब्द का उच्चारण भी नहीं किया पर महादेवी ने भारत माता की मुक्ति के लिए गीत रचे, बेहतर समाज रचना के संदर्भ में गहन चिंतन तथा कार्य किया। तब बिचारे आलोचकों द्वारा थोप दिए गए इस रहस्यमय प्रीतम का क्या हुआ होगा, यह सोचने की बात है। समझने की भी यही बात है कि महादेवी पर किसी रहस्यमय प्रीतम को मढ़ देना एक आसान तरीका था, उन को एक ओर रख कर भूल जाने का। क्या इसे हम पुरुष-सत्तात्मकता का षड्यंत्र कहें या उसका स्वभाव कहें या उसकी नादानी कहें या उसका घमंड़।<br /> महादेवी के समकालीनों में सुभद्राकुमारी चौहान तथा निराला दोनों का उल्लेख करना आवश्यक है क्योंकि इन दोनों से उनका नैकट्य था। सुभद्रा जी तथा महादेवी में तो कुछ ही वर्षों का फ़ासला था। पर दोनों का काव्य-स्वभाव भिन्न था। निराला उनसे बड़े थे। दोनों के अंतर को एक वाक्य में इस तरह कहा जा सकता है कि निराला की काव्य-यात्रा ओज अर्थात् वीरता से करुणा की ओर गई है तथा महादेवी की करुण से ओज की ओर। <br /> जिस दौर में महादेवी लिख रहीं थीं उस पूरे युग में महादेवी का स्वर सबसे अलग था। फिर चाहें वे सुभद्राकुमारी इत्यादि स्त्री-रचनाकार हों या निराला आदि छायावादी कवि हों। जितनी सीधी-स्पष्ट तथा अभिधा मूलक अभिव्यक्ति सुभद्राकुमारी समेत सभी स्त्री कवयित्रियों की थी उतनी ही व्यंजना सभर तथा रहस्यमय अभिव्यक्ति महादेवी की रही।<br />इस बात को कई तरह से समझा जा सकता है। मध्यकाल में ज्ञानमार्गी कवि रहस्यमय पदावली लिखते थे। उस समय स्त्री रचनाकार प्रेम के माध्यम से भक्ति के पथ पर चल रही थीं। रहस्यात्मकता ज्ञान का विषय है और स्त्री के लिए ज्ञान वर्जित था। महादेवी ने अपने समय में इस परंपरा को तोड़ा और जो अभिव्यक्ति अब तक पुरुष केन्द्री मानी गयी थी उसे महादेवी ने स्त्री-केन्द्र की तरफ मोड़ने का उपक्रम किया।<br /> हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महादेवी अपने समय की सबसे अधिक पढ़ी-लिखी कवयित्री थीं। उन्होंने वैदिक तथा संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा इनमें रहे विचारों को काव्यानुभूति में ढालने का सफल प्रयास किया। जैसे-<br /> न थे जब परिवर्तन दिन-रात<br /> नहीं आलोक तिमिर थे ज्ञात।<br /> व्याप्त क्या सूने में सब ओर<br /> एक कंपन थी एक हिलोर।<br /> बुद्धिगत विचारों को भावनात्मक अभिव्यक्ति देना भी एक तरह का उनका नारी विमर्श ही है, क्योंकि इस तरह वे स्त्रियों को सोचने के लिए ऐसे-ऐसे दरवाज़े खोल रहीं थीं जो बरसों पहले, यानी गार्गी, मैत्रेयी आदि के बाद से, लगभग बंद ही हो गए थे। महादेवी अपनी कविताओं के द्वारा पुरुष वर्ग को वशीभूत नहीं करना चाहती थी, बल्कि यह जता देना चाहती थी कि जिस ज्ञान तथा बुद्धि पर पुरुष गर्व करता है, उसे पाना स्त्रियों के लिए भी संभव है। इतना ही नहीं महादेवी द्वारा किए गए वैदिक ऋचाओं, थेर गाथाओं, कालीदास आदि के जो अनुवाद हैं, वे भी इस बात का संकेत देते हैं कि स्त्री अगर ज्ञान प्राप्त करेगी तो पुरुष की प्रतिस्पर्धी ही नहीं बल्कि उससे श्रेष्ठ साबित हो सकती है।<br /> महादेवी की कविताओं में आए रुपक उनकी एक विशिष्ट पहचान बन गए हैं। स्त्री होने के नाते वे वात्सल्य के रूपकों द्वारा गहन दार्शनित बातों को समझाती हैं। जैसे-<br /> तू धूल भरा ही आया<br /> ओ चंचल जीवन बाल , मृत्यु जननी ने अंक लगाया।<br /> निराला अगर तुम तुंग हिमालय श्रृंग लिखकर अपना समर्पण भाव व्यक्त करते हैं तो इसी तरह की कविता रच कर महादेवी कुछ भिन्न भाव व्यक्त करती हैं। वे असीम के द्वारा बाँधा जाना स्वीकार तो नहीं ही करती हैं पर साथ ही यह भी जता देती हैं कि वे असीम से भिन्न भी हैं। एक उदाहरण देखिए -<br /> मैं तुम से हूँ एक, एक हैं जैसे रश्मि प्रकाश<br /> मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न हैं जैसे रश्मि प्रकाश<br /> मुझे बाँधने आते हो लघु सीमा में चुपचाप,<br /> भिन्न कर पाओगे क्या कभी ज्वाला से उत्ताप।<br /> <br /><span class=""> महादेवी</span> की सभी कविताओं की विशेषता यह रही है कि छंद-वैविध्य द्वारा उन्होंने अपनी रचनाओं को अनेक विध आयाम दिए हैं। यह वैविध्य भी कैसा, जो एक-सी लगने वाली करुणा को एक-सा होने से बचाती है। भाव की सूक्ष्म भंगिमाएं छन्द के इस वैविध्य के कारण प्रकट होती है।<br /> उन्होंने एक ही प्रकार के काव्य-रूपक अलग-अलग भाव-बोध की कविताओं में प्रयुक्त किए हैं। इसीलिए रहस्यवादी कविताओं में दीप का काव्य-प्रतीक करुण का भाव जगाता है तो देश-भक्ति की कविताओं में वही काव्य-प्रतीक वीर का भाव जगाता है। उसी तरह अश्रु और वीणा के काव्य-प्रतीक उनकी प्रचलित कविताओं में जहाँ मधुर वेदना तथा करुणा की अभिव्यक्ति देते हैं, वहीं देश-भक्ति की कविताओं में ये प्रतीक अस्वीकार और संघर्ष का भाव प्रकट करते हैं। महादेवी का यह काव्य-कौशल इस बात को रेखांकित करता है कि काव्य में उपमान संदर्भों से ही नए अर्थ पाते हैं, उनका कोई स्थाई काव्यार्थ नहीं होता।<br /> महादेवी के कुल पाँच काव्य-संग्रह हमें प्राप्त होते हैं - नीहार, रश्मि, नीरजा सांध्यगीत और अग्निरेखा। उनकी कुल काव्य रचनाएं पढ़ कर मन में कई प्रश्न जगते हैं। इसका कुछ श्रेय तो आलोचकों को जाता है, जिन्होंने महादेवी को केवल प्रेम, करुणा और रुदन की कवियित्री माना है। इस बात का इतना अधिक प्रभाव रहा है कि नयी दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन करने में भी कठिनाई पड़ती है। क्योंकि पुराने आलोचकों की धारणा तथा मान्यता सतह पर तो महादेवी की प्रशंसा ही प्रतीत होती है।<br /> महादेवी के जीवन-प्रसंगों को देखें तो पता चलता है कि जिस स्त्री ने ज़िद करके आगे पढ़ने की इच्छा को कार्यान्वित किया हो, जो वैवाहिक जीवन को तिलांजलि दे कर दीवार फांद कर अपने घर लौट आई हो, तमाम विरोधों का सामना कर के जिसने संस्कृत का अध्ययन किया हो, जिसने नारी के कष्टों को महसूस कर उस पर लिखा ही नहीं बल्कि ठोस कार्य भी किया हो, वह अपनी कविता में किसी अनजान प्रियतम की प्रतीक्षा में रो-रो कर घुल कैसे सकती है? जो दीक्षा के क्षण को लांघ कर जीवन में लौट आई हो, वह निश्चय ही प्रभु की प्रेमाभक्ति में लीन हो कर कविता नहीं रच सकती! मेरा ऐसा मानना है कि प्रेम और करुण को वह भाव जो नारी सहज होता हैं उसको अभिव्यक्ति दे कर उन्होंने एक पूरे नारी वर्ग की भावनाओं को वाचा दी है। इसे महादेवी के निजि प्रेम की अभिव्यक्ति के उदाहरण मान लेने की भी आवश्यकता नहीं हैं, बल्कि इसे नारी वर्ग की आंतरिक भावनात्मक आवश्यकता के रूप में पहचाना जा सकता है जो महादेवी की कविता के द्वारा प्रकट होती है।<br /> महादेवी समाज द्वारा स्वीकृत चौखटे में अँटने वाली स्त्री मेधा नहीं थी और यही कारण है कि उनके चिंतनात्मक पक्ष की वर्षों तक अवहेलना तथा उपेक्षा हुई। स्त्री-मेधा के प्रति हमारे पुरुष सत्तात्मक समाज द्वारा लिया गया यह एक मौन निर्णय है।<br />आज भी अपनी बात अपने ढंग से कहने वाली स्त्री समाज को नहीं सुहाती तो उस समय कैसे सुहाती भला।<br /><br /> </span></strong></p>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-629345758127814069.post-71384142914591150192009-05-22T02:39:00.000-07:002009-05-22T02:44:09.321-07:00Translation as Knowledge itself<p align="justify"><span style="font-size:180%;color:#663366;"><strong> Translation as Knowledge itself<br /></strong></span><span style="color:#cc0000;"><em><strong><span class=""> रंजना</span> अरगडे<br /></strong></em></span> <br /><span class=""> <strong><span style="font-size:130%;color:#cc9933;">हम</span></strong></span><strong><span style="font-size:130%;color:#cc9933;"> लोग एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ हर चीज़ को देखने का हमारा नज़रिया बदल गया है। ज़ाहिर है इस बदलाव के लिए कई बातें ज़िम्मेदार हैं। मध्यकाल से आधुनिक काल में आना यानी विश्वासों, मान्यताओं एवं अंधविश्वासों से तर्कबद्धता और वैज्ञानिक विश्वासों की ओर जाना। नई खोजों के फलस्वरूप हमने अपने चारों तरफ़ की दुनिया और उसकी तब तक हासिल की गई जानकारी के बारे में कुछ ऐसी तब्दीली पाई, एक ऐसा नया संदर्भ जुड़ते हुए देखा, जो हमें पुराने समय से खींच कर एक नए समय में ले आया। धर्म, राजनीति तथा समाज-व्यवस्था की चली आती मान्यताएं इस कारण बदल गई कि अवकाश, पृथ्वी, जल, जीवन का एक नया सत्य हमारे सामने उजागर हुआ। इसके फलस्वरूप हमारी जीवन-पद्धति को हमने एक नई पीठिका पर खड़ा पाया। आज तक जिसे हम पूर्व जन्म के कर्म और भोग मानते थे वह वास्तव में शोषण की विभिन्न स्थितियां हैं- यह अब हमारी समझ में आ गया। व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार के कारण उसके अवचेतन की गहराई में छिपे होते हैं और पृथ्वी की हलचलों और हरकतों के लिए अवकाश मंडल और उसकी व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है, कारणभूत है – यह तथ्य भी हमारी समझ का हिस्सा बना। दुनिया भर के देशों, उनके लोगों, उनके साहित्य, कला, चिंतन आदि में उन्हीं सब कारणों से परिवर्तन हुआ; लेकिन सामाजिक ढाँचे में, उसकी संरचना में कोई मौलिक परिवर्तन या बदलाव नहीं आया। किन्तु समाज का स्तरीकरण इतना चुस्त हो गया कि नई संरचना तथा नए ढाँचे की खोज अवश्यंभावी हो गई।<br /> सन् 1980 के आसपास विश्व समाज नए ढाँचे में आकार लेने लगा। हालाँकि इसकी भूमिका सन् 1960 से बनना शुरु हो गई थी। अगर 20वीं शती का महदांश विज्ञान और विचारधारा को समर्पित था तो उसके अंतिम दशक तथा नई शताब्दी का आरंभ नए सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के आकारी-कृत होने का माना जा सकता है। विचारधारा के स्थान पर विमर्श आए तथा शुद्ध विज्ञान तथा उद्योग का स्थान सूचना प्रौद्योगिकी ने ले लिया। जो अब तक परिधि में था केन्द्र में आ गया, आ रहा है। स्त्री, दलित, जन-जातियां, जीवनी आत्मकथा, अनुवाद, व्याकरण, भाषा-व्यवहार—आज सभी केन्द्र में है।<br /> आज महत्व 'स्पेस' का है। पहले समय का महत्व था। पहले भूत और भविष्य महत्वपूर्ण था, अब वर्तमान महत्वपूर्ण है। यह वर्तमान अस्तित्ववादियों के 'क्षण' से अलग है। इस वर्तमान का अर्थ है- व्यक्ति का जीवन-काल( Complete Life-Time of a person)। भूतकाल पुस्तकों औ स्मृतियों में रह सकता है , भविष्य उम्मीदों और कल्पना में जगह पा सकता है, पर वर्तमान के लिए तो फ़िज़िकल स्पेस अधिक महत्वपूर्ण है। यह एक तथ्य है कि हमारे पास फिज़िकल स्पेस तो कम ही है। इस फिज़िकल स्पेस में अगर सब को जगह चाहिए तो या तो हम प्रदत्त स्पेस में एक और स्पेस निर्मित करते हैं या आभासित स्पेस बनाते हैं। वर्च्युएल स्पेस। इसका संबंध मायाजाल से है। अर्थात् इंटरनेट।<br /> अनुवाद ने भी रचना के स्पेस में अपना स्पेस बनाया है। पहले अनुवाद रचना-घर का दरबान था, पर अब अनुवाद ख़ुद एक घर बन गया है। पहले अगर वह रचना-घर की केवल खिड़की था तो अब अनुवाद-घर की खिड़की वह ज्ञान है जिससे पूरी दुनिया में विकास की दृष्टि से परिवर्तन संभव हो सकता है। अब अनुवाद माध्यम न रह कर ख़ुद लक्ष्य बन गया है।<br /> लगभग एक दशक पहले नॉलेज-ट्रांस्लेशन की परिकल्पना के बीज केनेड़ा में बोए गए। इसका संबंध मुख्य रूप से उनके स्वास्थ्य संबंधी विभाग से जुड़ा था। यानी हम कह सकते हैं कि अनुवाद के साथ ज्ञान शब्द तब से जुड़ा। लेकिन हम तो यह बात कर रहे हैं कि अनुवाद ख़ुद ज्ञान है। आज ज्ञान शब्द का एक केन्द्री-भूत निश्चित अर्थ है। ज्ञान यानी शक्ति और शक्ति यानी सत्ता। अतः जब हम अनुवाद को स्वयं ज्ञान अर्थात् नॉलेज इटसैल्फ कहते हैं, तब असल में हम अनुवाद को एक सत्ता के रूप में पहचानते हैं। सर्जनात्मक लेखन जैसे एक सत्ता है वैसे ही अनुवाद भी एक सत्ता है। राजकीय सत्ता साहित्य से या कहा जाए कला मात्र से भयभीत रहती हैं, ऐसा भूतकाल में कई बार हुआ है; क्योंकि कलाएं मनुष्य के मन को, उसकी सोच को बदलने की ताक़त रखती है।<br /> पर अनुवाद के साथ स्थिति कुछ दूसरी है। अनुवाद देशों के आर्थिक-राजकीय विकास को बदलने और निर्धारित करने की सत्ता रखता है। वह विचारों को, संकल्पनाओं को एक देश से दूसरे देश में 'ले जाने' की ताक़त रखता है। यहाँ यह देखना रोचक होगा कि क्यों और कैसे अनुवाद एक सत्ता बन गया।<br /> अनुवाद का व्यक्तित्व पहले दबा हुआ, सब्ड्यूड था। वह सर्जनात्मक लेखन की परछाईं था। स्रोत-पाठ के फ़्रेम-वर्क- चाहे वह भाव, भाषा या व्याकरण का हो-(उस) से वह बाहर नहीं जा सकता था। पहले उसका काम या तो धर्म-प्रचार था अथवा साहित्य-प्रसार। लेकिन नॉलेज ट्रांसलेशन की परिकल्पना के बाद वह देशों के आर्थिक तथा व्यावसायिक हित से जुड़ गया। वह धीरे-धीरे पत्रकारिता के आर्थिक हित का अभिन्न हिस्सा बन गया। हे तो यह माना जाता रहा था कि असफल सर्जक या तो समीक्षक बनता है या फिर अनुवादक। भारत जैसे बहु-भाषी देश में वह एक फालतू चीज़ की तरह कार्यालय में पड़ा रहा करता था। कार्यालय की उपयोगिता के कारण ही मुख्यतः धीरे-धीरे अनुवाद एक अलग विद्या-शाखा के रूप में विकसित हुआ। भारत में दक्षिण के लगभग सभी विश्व- विद्यालयों में आज 30 वर्षों से भी अधिक का समय हो गया होगा कि अनुवाद-प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यह राज-भाषा केन्द्रित होने के कारण हिन्दी की इसमें बड़ी भूमिका रही और हिन्दी का महत्व बना रहा। इसका सीधा-सादा मतलब यह हुआ कि यह मान लिया गया कि अनुवाद की तकनीक का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। अनुवाद सीखा जा सकता है। उसके लिए विशेष कुल-गोत्र में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है। पर यह केवल राज-भाषा तक सीमित रहा। शायद इसीलिए आज तक कई लोगों को यह ख़ुश-फहमी है कि बिना प्रशिक्षण के भी अनुवाद किया जा सकता है। साहित्यिक अनुवाद अवश्य किया जा सकता होगा ; क्योंकि यह उन साहित्य-सत्ता-केन्द्री लोगों की मान्यता रही है जो या तो स्वयं सत्ता थे या सत्ता के लिए भय अथवा लोभ का कारण, इसीलिए आदरणीय थे। तभी अनुवाद के अवसर भी कुछ ही लोगों तक सीमित रहे।<br /> तकनीक जब विकसित हो जाती है तो लाभार्थी कोई भी हो सकता है। अनुवाद प्रशिक्षण की विकसित हुई तकनीक का वास्तविक लाभ आज मिल रहा है और वह कोई भी उठा सकता है। यह भी कह सकते हैं कि आज उसका इतना व्यापक महत्व समझ में आ रहा है। प्रशिक्षण के द्वारा अनुवाद तकनीक के सामान्यीकरण के फलस्वरूप आज अनुवाद सीमित हाथों से निकल कर व्यापक लोगों के बीच फैला है।<br /> कुछ और कारण भी इसके लिए ज़िम्मेदार रहे हैं। भाषा-केन्द्री सोच- जो संरचनावादी और उत्तर-संरचनावादी समय की देन है, परिधि के केन्द्र में आने की घटना, आर्थिक उदारीकरण, मीडिया-विस्फोट ने अनुवाद के केन्द्र में ज्ञान को स्थापित किया। परिणामतः अनुवाद खुद ज्ञान यानी सत्ता बन गया। अनुवाद- प्रशिक्षण के कारण यह बात सामने आई कि विभिन्न प्रकार के अनुवादों के लिए विभिन्न प्रकार के कौश की ज़रूरत पड़ती है। यह ज़रूरी नहीं है कि रचनात्मक कृतियों का अच्छा अनुवादक समाज-शास्त्रीय पाठ का भी अच्छा अनुवादक हो; या वह वैज्ञानिक पाठ का अच्छा अनुवाद कर सकता है। इतना ही नहीं, जो प्रकाशन माध्यम का अच्छा अनुवादक होता है वह अनिवार्य रूप से मल्टी-मीडिया के माध्यमों में भी सफलता प्राप्त कर सके। अनुवादक के लिए केवल स्रोत-पाठ के विषय का ही ज्ञान होना ज़रूरी नहीं है उस माध्यम की तकनीक की भी जानकारी आवश्यक है जिसके माध्यम से वह अनुवाद कर रहा है। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण और प्रयत्न आवश्यक है। अब वह ज़माना लद गया कि मोटर तो ख़रीद ली है परन्तु उसका मैकनिज़म नहीं आता। आप देखिए, हर प्रोडक्ट के साथ उसका साहित्य आता है।<br /> अनुवादक मुख्य रूप से पाठ की भाषा और उसकी संरचना से रू-ब-रू होता है। यह अंग बात है कि वह उसका आधार मूल-पाठ ही होता है – पर अनुवाद करने की प्रक्रिया तो सर्जनात्मक ही है। जिस तरह रचना के केन्द्र में संप्रेषणीयता होती है उसी तरह अनुवाद के केन्द्र में भी संप्रेषणीयता होती है। जैसे एक रचनाकार अनिवार्यतः दूसरे तक पहुंचने के लिए लिखता है उसी तरह अनुवादक भी दूसरे तक पाठ को पहुंचाने के लिए अनुवाद कार्य करता है। पाठ के चुनाव में ही उसकी रचनात्मकता का बीज छिपा होता है। तमाम पाठों को छोड़ कर जब वह एक विशेष पाठ को चुनता है- यही इस बात का संकेत है कि अनुवाद एक रचनात्मक कार्य है। वह एक अलग भाषा(लक्ष्य भाषा) की संरचना, व्यवस्था और व्याकरण में प्रवेश करता है। यानी कि ह एक समाज से दूसरे समाज में प्रवेश करता है। उसे अर्थ को स्थानांतरित तो करना है, पर अब जब वह जान गया है कि शब्द अर्थ की दृष्टि से अनेक-अंतीय होते है, जब अनुवाद-कार्य भी एक अलग अस्तित्व प्राप्त कर चुका होता है। पहले सब तय, तर्क-बद्ध, निश्चित था, अब सब वैसा नहीं रहा; अनेक-अंतीय और प्रवहमान हो गया। देखिए न, पहले बाजा अलग था, बाँसुरी अलग थी, वीणा अलग थी; अब सब एक ही सिंथेसाईज़र में मौजूद हैं- एक भी हैं और अलग भी। पहले बैठक और शयन-कक्ष अलग थे, अलमारी और मेज़ अलग थे; पर अब अलमारी का दरवाज़ा मेज़ का काम करता है। <br />मूल-पाठ में जिस तरह अनेक-पाठीयता संभव है, वैसे ही अनूदित-कृति में भी अनेक-पाठीयता संभव है। पर इस अनेक- पाठीयता का कारण कमज़ोर या गलत अनुवाद न हो कर भाषा की अपनी प्रकृति है जिसे उत्तर-आधुनिक समय में पहचाना गया है। यानी अनुवादक को लगाम हीन स्वतंत्रता नहीं मिलती परन्तु वह मूल-पाठ का जो भी अर्थ करता है, उसके अनुसार अनुवाद करने की स्वतंत्रता अवश्य मिल सकती है। अतः एक ही कृति के अनेक अनुवादों का मूल्यांकन करते समय जब सही और गलत का निर्णय किया जाता है अथवा मूल के सर्वाधिक निकट का आग्रह रखा जाता है तब उत्तर-आधुनिक दृष्टि यह प्रश्न-चिह्न भी लगाती है कि मूल वास्तव में क्या है? इसका कौन निर्णय करेगा? इससे एक केओस (अफ़रातफ़री) भी निर्मित होने की संभावना है। अतः जैसे काव्यार्थ विवेचन के लिए सहृदय तथा तद्विद् की आवश्यकता होती है वैसे ही अनुवाद-मूल्यांकन के लिए भी तद्विद् की आवश्यकता होती है।<br /> उदार अर्थ-नीति के कारण समय की गति भी तेज़ हो गई। स्पर्धा बढ़ गई है। अतः यह ज़रूरी नहीं रह गया है कि अपनी भाषा में ज्ञान का निर्माण किया जाए। उसकी अपेक्षा अनुवाद के द्वारा निर्मित ज्ञान का निर्माण अधिक सरल और तीव्र गति से संभव हुआ है। इस दौर में अनुवादक जितनी अधिक भाषाओं को जानता है वह उतने अधिक समाजों तथा उनके लोगों की जानकारी रखता है। आज जो जितनी अधिक जानकारी रखता है उसके पास उतनी अधिक सत्ता है।<br />हमारे रीति-कालीन आचार्यों ने जब संस्कृत काव्य-शास्त्र को ब्रज में प्रस्तुत किया तब असल में उन्होने काव्य-शास्त्रीय ज्ञान का निर्माण हिन्दी में किया जैसे भारतेन्दु ने संस्कृत नाट्य-शास्त्र का निर्माण खड़ी-बोली में किया। एक सजग और अच्छा अनुवादक आज यह अच्छी तरह जानता है कि विकसित राष्ट्रों में क्या हो रहा है। उसका यह ज्ञान उसके अपने देश के विकास के लिए केन्द्रीय महत्व का बन जाता है।<br />तभी राष्ट्रीय ज्ञान योग ने भी अपनी रिपोर्ट में पहले स्थान पर पुस्तकालयों को रखा है और दूसरे स्थान पर अनुवाद को जगह दी है। यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि अनुवाद के लिए आयोग ने 250 करोड़ रुपये आबंटित किए गए हैं। राष्ट्रीय अनुवाद आयोग ने मुख्य चार हेतु निर्दिष्ट किए हैं-<br />1-अनुवाद प्रशिक्षण, 2- सूचना प्रसारण, 3- अच्छे अनुवादों को प्रोत्साहित कर उसका प्रचार करना तथा 4- मशीनी अनुवाद को बढ़ावा देना।<br /> सूचना-क्रांति और सूचना-प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप आज मशीनी अनुवाद सबसे अधिक संभावना तथा चुनौती वाला क्षेत्र है। हिन्दीतर भाषी क्षेत्र अनुवाद-कार्य के लिए सबसे अधिक उपजाऊ माने गए हौं पर साथ ही उन्हीं क्षेत्रों में हिन्दी भाषा को सही-सही रूप में विद्यार्थियों तक ले जाने की ज़िम्मेदारी भी है। अतः हमें अनुवाद प्रशिक्षण की दिशा में बढ़ने के लिए अपनी(हिन्दी) भाषा, व्याकरण, उसकी संरचना और उसके विभिन्न व्यवहारों के प्रति – यानी कि कुल मिला कर भाषा प्रशिक्षण के प्रति गंभीरता से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। <br /> <br /></span></strong> </p>rajanaargadehttp://www.blogger.com/profile/13433321371626724858noreply@blogger.com0