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गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

सोमवार, 17 अगस्त 2009

हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य

हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य
रंजना अरगडे़


स्वतंत्रता के 60 वर्षों बाद 2008 में जब इस प्रकार का आयोजन हो रहा है, तो निश्चय ही यह एक तरह का स्टॉक-टेकिंग है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक उत्साह वर्द्धक पहल है। आज हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य की बात करना मेरी दृष्टि में तीन कारणों से महत्वपूर्ण है।
पहला हिन्दी का हमेंशा से ही एक भारतीय परिप्रेक्ष्य रहा है, जिसके विषय में हमें पता होते हुए भी हमने विशेष ध्यान नहीं दिया। इस संदर्भ में हमारा भक्तिकालीन साहित्य उदाहरण के रूप में लिया ही जा सकता है। साथ ही भारत का स्वतंत्रता संग्राम तथा स्वातंत्र्योत्तर स्थितियाँ भी समान ही रही हैं, लगभग।
दूसरा
हिन्दी शिक्षण अधिक समर्थ और पुष्ट बनाने के लिए तथा
तीसरा
समग्र वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी अथवा किसी भी एक भारतीय भाषा एवं साहित्य के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक भी हो गया है।
हालाँकि इसका बीज उस कथन में पड़ चुका था जब पिछले कुछ वर्षों से 14 सितंबर को भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाए जाने की बात की जाने लगी है। इस विचार का मूल जनक या जननी कौन है, मैं नहीं जानती किन्तु मैंने तो पहली बार इसे इस सभा के अध्यक्ष श्री अशोक वाजपेयी जी के एक प्रकाशित व्याख्यान में पढ़ा था जो आपने नागरी प्रचारिणी सभा के मंच से कुछ वर्षों पूर्व दिया था।
मैं समझती हूँ कि इस क्षण हमें किसी भी परिभाषा तथा व्याख्या में न पड़कर सीधे बात पर आना चाहिए। परन्तु बिना इस बात को भूले कि इस प्रकार के सम्मेलन के आयोजन के पीछे वे व्यापक विश्वगत तथा गहरे प्रदेशगत दबाव भी हैं, जिनका सामना हिन्दी पढ़ाने वाले उन दोनो प्रकार के अध्यापकों पर पड़ रहा है, जो हिन्दी तथा हिन्दीतर भाषी राज्यों में अध्यापन कर करे हैं। इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि वैश्वीकरण के कारण हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं पर संकट आ रहा है। हालाँकि इसके साथ असहमत होने वाला भी एक वर्ग है। संकट तो आ ही रहा है पर इसके लिए जितना ज़िम्मेदार वैश्वीकरण है, उससे अधिक अब तक बनी हमारी मानसिकता भी कि हिन्दी शिक्षण को हम उतनी गरिमा नहीं दे सके जितनी देनी चाहिए। हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी को लेकर बड़ा उत्साह रहा है फिर चाहे वह दक्षिण हो या गुजरात। जिस संस्थान के परिसर में हम खड़े हैं, वही उसका एक उदाहरण है। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है कि जहाँ गुजराती के साथ हिन्दी को भी राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है। पर आज स्थितियों में जो परिवर्तन आया उसके लिए ज़िम्मेदार हमारी वह लाभ लेने वाली मानसिकता भी है। हमने इस स्थिति से लाभ तो लिए, परन्तु इसकी गरिमा की वृद्धि न कर सके परन्तु उसे बचा कर भी न रख सके।
यह एक अजब स्थिति है कि बदलती परिस्थितियों में भारतीयता और संस्कृति जैसे मुद्दों पर सभी को इसलिए भी बात करनी पड़ रही है क्योंकि वैश्विक स्तर पर जब पहचान की बात आती है तब आपके सामने जो सवाल खड़े होते हैं उनका उत्तर उन्हीं रास्तों पर से हो कर मिलता है। हमने अपने साहित्यकारों को लगभग सूचना के स्तर पर ही पढ़ा-पढ़ाया है। अतः हजारीप्रसाद या महादेवी को पढ़ कर हमने अपने छात्रों में या स्वयं अपने में यह चेतना कितनी जगाई होगी कि आखिरकार जातियों का गठन एक ऐतिहासिक परिस्थिति तथा समय की मांग रहा है और अपनी जड़ों को जान कर ही अपनी गरिमा की पहचान होती है इत्यादि। हमने समावेशी दृष्टि की अपेक्षा भेद-दृष्टि को विकसित किया। यही भेद-दृष्टि आज एक विकराल संकट बन कर देश और विश्व में हमारी पहचान को ले कर एक प्रश्न बन गई है। इस भेद-दृष्टि का प्रभाव इतना रहा है कि अज्ञेय, निर्मल जैसे रचनाकार भी चर्चा के हाशिए में ही रहे हैं। हिन्दी साहित्य की भूमिका वास्तव मे शांतिनिकेतन जैसी संस्था, यानी कि बंगाल में रह कर लिखे गये हिन्दी पहचान के एक अकादमिक प्रयास के रूप में देखा जाता, तो तमाम हिन्दीतर राज्यों में उसे पढ़ाने का उपक्रम होता और निश्चय ही इससे हिन्दी शिक्षण का भला ही होता। पर इसे केवल एक और इतिहास के रूप में देख कर, केवल तभी पाठ्यक्रमों में रखा गया जब एक विशेष साहित्यकार के रूप में हजारीप्रसाद को पढ़ाया जाता रहा। उक्त दृष्टि के अभाव में जहाँ से हजारी प्रसाद ने बात को छोड़ा था, उसके आगे कोई प्रयास नहीं किया गया। यहाँ मुझे उल्लेख करना चाहिए कि गुजरात में भी मध्यकालीन संतों का हिन्दी वाणी, ब्रजभाषा पाठशाला, तथा महामति प्राणनाथ जैसे क्षेत्रों में काम हुआ है पर अगर हम कह सकें तो हिन्दी वर्चस्व का स्वर तथा साहित्य की अपनी विशेष राजनीतिक दृष्टि के कारण उन कामों पर वैसा विचार नहीं हुआ है जिससे हिन्दी शिक्षण की भारतीयता उभर कर आती।
हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य को मोटे तौर पर दो स्तरों पर देखा जा सकता है। विषय के स्तर पर तथा भाषा के स्तर पर। या कहें कि सामग्री के स्तर पर तथा अभिव्यक्ति के स्तर पर। पुनः हिन्दी शिक्षण की सामग्री को आधारगत, सृजनात्मक एवं सूचनात्मक इन तीन विभागों में बाँटा जा जा सकता है। आधारगत सामग्री के अन्तर्गत काव्य-शास्त्र, भाषा-विज्ञान तथा व्याकरण को ले सकते हैं। सृजनात्मक में कहानी कविता इत्यादि में प्रस्तुत भक्ति, नवजागरण, किसान, दलित, नारी आदि मुद्दों को ले सकते हैं। तथा सूचनात्मक में साहित्य के इतिहास को शामिल कर सकते हैं।
अभिव्यक्ति के स्तर पर भाषा-प्रयोग, द्विभाषिकता, अनुवाद तथा काव्य उपकरणों आदि को लिया जा सकता है।
यह आवश्यक है कि हम अपनी आधारगत सामग्री अर्थात् काव्यशास्त्र, व्याकरण एवं भाषा विज्ञान को अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ही तुलनात्मक स्वरूप में पढ़ाएँ। हिन्दी, संस्कृत, पश्चिमी के साथ-साथ प्रादेशिक एवं दक्षिण-भारतीय काव्य-शास्त्र का कुछ अंश हमारे पाठ्यक्रम में होना चाहिए। इस समय संस्कृत तथा पश्चिमी काव्य शास्त्र का जितना अंश पढ़ाते हैं उसे कम करके प्रादेशिक और दक्षिणी-(तोलकप्पियम्) को शामिल करें। जिससे सृजनात्मक सामग्री में जब उन हिस्सों को शामिल करेंगे तो विद्यार्थी परस्पर संबंध जोड़ सकता है
[1]। व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान तो अनिवार्य रूप से प्रादेशिक भाषा के साथ तुलना करके ही पढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि चाहे हिन्दी भाषी प्रदेश हों या हिन्दीतर, सभी पर अपनी भाषा या बोली के संस्कार होते ही हैं, जिसका प्रभाव उनकी भाषा तथा व्याकरण पर देखा जा सकता है।
मैं गुजरात से आ रही हूँ अतः मैं इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी समझती हूँ कि वर्तमान समय में भी हमारे महत्वपूर्ण कवियों की रचना में भाषा तथा शिल्प के स्तर पर भारतीयता का प्रभाव, सामग्री तथा रचना-रीति एवं वाक्य-रचना में भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए राजेन्द्र शाह की कविताओं में बंगाली गीतों की लय है तो राजेन्द्र शुक्ल की कविताओं में सधुक्कडी भाषा का प्रयोग है। उसके अनुवाद की आवश्यकता ही नहीं है। राजेन्द्र शुक्ल लिखते हैं ग़ज़ल पर वृत्त संस्कृत है तथा भाषा न गुजराती है न हिन्दी, बल्कि, जैसे मैंने कहा सधुक्कडी।
हिन्दी के शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य अलग से न हो कर मुख्य पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। जब हम सृजनात्मक सामग्री की बात करते हैं तब मध्यकालीन साहित्य में मीराँ के पदों में कुछ गुजराती के पद शामिल करने चाहिए या कृष्ण भक्ति परंपरा में दयाराम अथवा बंगाल के वैष्णव भक्त (ब्रजबुलि) शामिल करने चाहिए, अथवा भक्ति की अलग-अलग धाराओं के भारतीय कवियों की रचनाओं को अनुवाद में ही सही पर शामिल करना चाहिए। हमें कबीर के साथ ही अखो तथा ज्ञानेश्वर तथा गुरु गोविन्द सिंह को भी पढ़ना चाहिए। यानी हम केवल हिन्दी के मध्यकाल को न पढ़ा कर भारतीय मध्यकाल को पढ़ाएं। उसी तरह भारतीय नवजागरण काल को या भारतीय आधुनिक काल को, भारतीय दलित या भारतीय नारी साहित्य को पढें। हालांकि यह तुलना ठीक न भी लगे परन्तु जिस तरह इंडियन इंग्लिश की अवधारणा है वैसे ही भारतीय हिन्दी की अवधारणा के बारे में सोचना होगा।
इसी को ध्यान में रख कर भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य को नए सिरे से लिखने की आवश्यकता भी होगी।
अनुवाद का महत्व हिन्दी के पाठ्यक्रमों में केवल रोज़गार की दृष्टि से ही नहीं है। पर समूचे भारतीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी पढ़ने वालों की सोच का माध्यम हिन्दी नहीं है। अतः अभिव्यक्ति का वैविध्य देखा जा सकता है। सृजनात्मक साहित्य में इस विचलन को सकारात्मक रूप से देखने की छूट मिल जाती है पर अन्य स्थानों पर ऐसा नहीं हो पाता। संभव भी नहीं है। प्रयोजनमूलकता के क्षेत्रों में तो यह समस्या है ही नहीं क्योंकि वहाँ तो भाषा का स्वरूप ही भिन्न है। प्रश्न केवल पढ़ने-पढ़ाने तथा आलोचना की भाषा का रह जाता है। हिन्दी शिक्षण में जब समावेशी तथा आंतरिक रूप में भारतीय परिप्रेक्ष्य को हम शामिल करेंगे तो यह प्रश्न नहीं रहेगा कि सोच की भाषा हिन्दी ही हो अथवा नहीं। भाषा प्रयोग में चाहे स्वैराचार को स्थान न दें पर अत्यधिक शुद्धतावादी दृष्टिकोण पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए।
इस प्रकार के पुनर्लेखन एवं कार्यों के आरंभिक प्रयास हमारे लेखकों ने किया ही है
[2] और हमारे पास ऐसी संस्थाएं भी हैं जिनके साथ मिल कर हम ऐसा काम कर सकते हैं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान है ही, साहित्य अकादमी है, भारत सरकार का भाषा विभाग है, अनुवाद परिषद् भी है ... अगर इन सबके साथ हमारी इच्छा शक्ति भी जुड़ जाए तो यह काम कठिन नहीं है।


[1] रस, ध्वनि, रीति तथा अरस्तू, कॉलरिज एवं इलियट तथा संरचना एवं उत्तरसंरचनावाद केवल इतने ही मुद्दे संस्कृत एवं पाश्चात्य में से ले कर शेष हिन्दी, प्रादेशिक एवं दक्षिणी काव्य-शास्त्र के लिए जा सकते हैं। दक्षिण के प्रांत अपने अपने साहित्य की काव्य-शास्त्रीय परम्परा को शामिल कर सकते हैं।


[2] नगेन्द्र द्वारा संपादित भारतीय काव्य-शास्त्र का इतिहास

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

प्रेमचन्द का नारी-विमर्श – विचार एवं व्यवहार

प्रेमचन्द का नारी-विमर्श – विचार एवं व्यवहार
डॉ. रंजना अरगड़े

जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया, उसके अनुसार उन्होंने निरंतर आचरण किया. इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य, दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जाँचते की कसौटी भी हैं. प्रेमचन्द पर महादेवी वर्मा
(सहमत मुक्तनाद के 'मुंशी प्रेमचंद प्रकाशन से साभार)

यह संभव ही नहीं कि प्रेमचन्द जैसा लेखक अपनी रचनाओं में तथा अपने चिंतन में स्त्री संबंधी विचार, मंतव्य तथा दृष्टिकोण को उजागर न करे। प्रेमचन्द का जीवन–काल (1880-1936) स्वतंत्रता-प्राप्ति के विभिन्न तबक़ों का वह दौर था जब हर संवेदनशील रचनाकार के लिए हिन्दी, नारी तथा स्वतंत्रता की बात करना अनिवार्य-सा था। ऐसा करना उस युग की मांग थी। यह तथ्य सर्व विदित है कि नवजागरण काल में राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महादेव गोविन्द रानड़े, महर्षि कर्वे, दयानंद सरस्वती आदि के नाम स्त्रियों के अन्दर तथा स्त्रियों के प्रति जागृति लाने तथा फैलाने के क्षेत्र में प्राथमिक माने जाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन सामाजिक विचारकों ने स्त्री-जागृति मुहिम की नींव डाली थी। उपरोक्त प्राथमिक विचारकों के लगभग सौ वर्ष बाद प्रेमचन्द का आगमन एक लेखक के रूप में होता है। प्रेमचन्द और गांधी भारतीय समाज तथा राजनीति में एक बिन्दु पर साथ-साथ सक्रिय होते दिखाई पड़ते है। गांधी जी का कार्य-क्षेत्र मुख्यतः राजनीतिक होने के कारण उनका प्रभाव-क्षेत्र अधिक तात्कालिक एवं व्यापक था। प्रश्न यह है कि स्त्री-संबंधी चिंतन विषयक प्रेमचन्द का क्या नज़रिया था ? साथ ही अपने विचारों को उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में किस हद तक अपनाया, अपना सके, उसे कहाँ तक निभाव कर सके।
प्रेमचन्द के नारी विमर्श पर यह मेरा तीसरा आलेख है। पहले दोनों आलेखों में मैंने उनके उपन्यासों को आधार बना कर, उनमें निहित उनके स्त्री- चिंतन को समझने का प्रयत्न किया था। इस आलेख में मैंने उनके संपादकीयों को केन्द्र में रखा है तथा उनमें व्यक्त विचारों को मुख्यतः शिवरानी देवी की पुस्तक प्रेमचन्द- घर में के साथ पढ़ने की चेष्टा की है। कुछ निष्कर्षों तक भी पहुंचने का प्रयास किया है। अमृत राय की प्रेमचन्द कलम का सिपाही को भी इसी संदर्भ में देखा है। इस प्रकार के पाठ से अनेक प्रश्न उठ सकते हैं- मसलन किसी एक या दो किताबों के आधार पर किसी लेखक के विचार एवं व्यवहार को जाँचना कितना योग्य हो सकता है ? हो सकता है कि अध्ययन से निकले निष्कर्ष पूर्णतः निष्पक्ष न भी हों – परन्तु फिर भी मेरा यह मानना है कि प्रेमचन्द के स्त्री- चिंतन को जांचना हो तो सबसे विश्वसनीय पाठ शिवरानी देवी का ही हो सकता है। अमृत राय की पुस्तक में उन मुद्दों के संदर्भ में भी मन्तव्य मिलते हैं, जहाँ शिवरानी देवी मौन हैं।
हंस तथा जागरण के कई संपादकीयों में प्रेमचन्द ने महिला-आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में नारी के अधिकारों की पैरवी की है। उन दिनों विश्व में तथा भारत में चल रहे महिला-आंदोलन की गतिविधियों पर प्रेमचन्द की बड़ी पैनी नज़र थी। उन दिनों शारदा-ऐक्ट(1929) पर विचार चल रहा था। बाल-विवाह, विधवा- अधिकार , सती-प्रथा आदि से जुड़ा यह कानून हरि विलास शारदा के प्रयत्नों से अस्तित्व में आया। आगे चलकर इसमें कई परिवर्तन आए और फिर वह समाप्त भी हो गया, किन्तु तब वह एक्ट महिलाओं का एकमात्र तारणहार समान था।

प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में तो नारी के विविध रूपों एवं स्थितियों के अनेक पहलू उजागर हुए हैं। असल में स्त्री की करुण दशा से उसे मुक्ति दिलवाते वैचारिक एवं सामाजिक प्रयासों का आरंभ तो, जैसे कहा जा चुका है, राजा राममोहन राय से हो ही चुका था। वास्तविक सेवा-सदनों तथा विधवा- आश्रमों की स्थापना भी हो चुकी थी। उसके बाद लिखा भारतीय साहित्य कहीं न कहीं उन बातों को अपने साहित्य में स्थान देता रहा था । प्रेमचन्द का प्रयास भी उसी परंपरा की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। संपादकीयों में भी वही नज़रिया इस बात की पुष्टि करता है कि प्रेमचन्द जन-संचार माध्यमों के द्वारा भी वही stand ले रहें हैं जो रचनात्मक साहित्य में लेते रहे हैं । नारी-विषयक उनके सम्पादकीय में प्रकट उनके विचार उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति से मेल खाते दिखते हैं- अर्थात् कहीं कोई फांक नहीं है। अलबत्ता, इस बात की पूरी तरह से पड़ताल करने की भी आवश्यकता है कि उनके वास्तविक जीवन के साथ उनके वैचारिक और सर्जनात्मक चिन्तन कहाँ तक जोड़ कर देखा जाना उचित है और देखने पर क्या परिणाम निकलते हैं।
अपने संपादकीयों में प्रेमचन्द उन स्त्रियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं जो वास्तविक रूप में अभावग्रस्त या शोषित है। जो अनपढ़, शोषित आदि है, उनकी बेहतर स्थिति के लिए वे प्रयत्नशील दिखते हैं, किन्तु जो वहाँ पहुंच चुकी हैं उनके प्रति प्रेमचन्द के पास अतिरिक्त अनुकंपा नहीं है। अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने वाली स्त्रियों के प्रति, या वे, जिनके पास किसी भी तरह की सत्ता है, चाहे वह रचनात्मक क्यों न हो, उनके प्रति प्रेमचन्द बहुत सदय नहीं दिखते।(प्रेमचन्द के इस रवैये को आजकल के आरक्षण मुद्दे के संदर्भ में देखा जाए तो मालूम होगा कि समान या लगभग समान स्तर प्राप्त कर लेने पर शोषित समाज के प्रति समान भूमिका पर ही निर्णय लिया जाना चाहिए, ऐसा आज एक पक्ष का मत उभरता दिखाई पड़ रहा है। प्रेमचन्द कहीं ऐसा मानते होंगे कि बौद्धिक तथा कला के क्षेत्रों में बराबरी की बात होनी चाहिए, वहाँ पक्षपात की बात नहीं होनी चाहिए, वहाँ पक्षपात या विशेषाधिकार के लिए कोई स्थान नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचन्द दलितों के पक्षधर तो थे परन्तु दलितों की राजनीति से उनका कोई मतलब नहीं था। अर्थात दलित-चेतना एवं नारी-चेतना दोनों के वे पक्षधर थे परन्तु दोनों के वादियों के वे पक्षधर नहीं थे।) पश्चिम के नारी–आंदोलन संबंधी दृष्टिकोण के प्रति प्रेमचन्द बहुत सहमत न भी हों, परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों के अधिकारों के लिए उन्होंने बहुत लिखा इसमें दो-राय नहीं हो सकती । जहाँ तक केवल विचार प्रकट करने हों, कड़े से कड़ा और कठोर से कठोर विचार प्रेमचन्द ने बेलौस एवं निर्भीकता से प्रकट किया है किन्तु जहाँ वह विचार उनसे सीधे टकराता दिखता है, वहाँ कई बार प्रेमचन्द ने एक अलग तरह का stand भी लिया है। इस संदर्भ में दो संपादकीयों का उल्लेख करना आवश्यक होगा –
क्या कविता नारियों का ही क्षेत्र है में उन्होंने सुभद्राकुमारी चौहान के इस मन्तव्य का विरोध किया कि महिलाएँ चूँकि अधिक भावना शील होती हैं अतः बेहतर कविताएँ लिखती हैं।(1) विरोध का मुद्दा उठाते हुए प्रेमचन्द यह गिनाने की कोशिश करने लगते हैं कि कितनी कम स्त्रियों ने वास्तव में अब तक(1933 तक) लिखा है। प्रेमचन्द जैसे रचनाकार से यह कतई अपेक्षित नहीं हो सकता। भारतीय समाज से जो रचनाकार इतना परिचित हो वह क्यों सुभद्राकुमारी के इस वक्तव्य पर इस तरह असंतुलित हो उठे ? यहाँ किसी तरह की प्रतिस्पर्धा का तो कोई प्रश्न नहीं था ? फिर ?
उसी तरह दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका रिसाला में एक मुस्लिम महिला के इस मंतव्य पर कि हिन्दुओं की तुलना में मुस्लिम कम संख्या में शिक्षित हैं। और तभी ऊँचे ओहदों पर भी हिन्दू ज़्यादा है , प्रेमचन्द जिस तरह प्रतिक्रियायित होते हैं, आश्चर्य लगता है। इस सम्पादकीय का शीर्षक है सांप्रदायिकता का ज़हर महिलाओं में । जागरण मार्च 1934 में छपे इस संपादकीय में प्रेमचन्द उस महिला का विरोध करते हुए ख़ुद सांप्रदायिक होते दिखाई पड़ते हैं –
देवीजी को यह भ्रम कदाचित् सांप्रदायिक पत्रों के पढ़ने से हो गया। मुसलमान हिन्दुओं से ज़्यादा शिक्षित हैं। ( अगर बाल की खाल निकालना हो तो कहा जा सकता है कि यहाँ इस महिला ने शिक्षित कम- ज़्यादा होने का मुद्दा नहीं उठाया है, बल्कि संख्या के कम- ज़्यादा होने की बात उठाई है- बहरहाल) वे आगे कहते हैं कि सरकारी ओहदों पर भी मुसलमान कसरत से हैं, हिन्दुओं से कहीं ज़्यादा। पुलिस तथा माल में एक तरह से उन्हीं का साम्राज्य है। आमदनी के सारे विभागों पर उन्हीं का कब्जा है। हाँ, डाकख़ाना या क्लर्की जैसे रुखे-सूखे विभागों में हिन्दू ज़्यादा हैं इसीलिए मुसलमानों ने इधर ध्यान न दिया क्योंकि .यहाँ सूखा वेतन था और काम आँख फोड़ और गर्दन तोड़। मगर अब इन विभागों में भी यह कमी पूर्ण होती जा रही है। (2)
ये संपादकीय पढ़कर मुझे भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदी गोपाल शेवड़े का प्रसंग स्मरण हो आया, जिन्हें उनकी घोर अनिच्छा के बावजूद उनके पति ने पढ़ाया- बल्कि अत्याचार-वत् पढ़ाया। पर फिर जब वे डॉक्टर बन गयीं, उनमें अपनी एक सोच विकसित हुई, तो उन्हें तानों से छलनी भी कर दिया।
यह एक टिपिकल पुरुष-वृत्ति है । अनपढ़ स्त्री, जरूरतमंद स्त्री के उत्थान के हिमायती पुरुष प्रायः स्त्रियों की उस स्थिति को, उन मन्तव्यों को नहीं सह सकते जो पुरुषों के बनाए क़ायदे- क़ानूनों, विचारों, आचारों की परिधि को तोड़ते हैं। सारी स्वतंत्रता, सुविधा, प्रगति पुरुषों की इच्छा तथा उनकी बनाई मर्यादा के भीतर हो। भारतीय स्त्री के समक्ष यह तथ्य गहरे से रेखांकित किया जा चुका है कि लक्ष्मण-रेखा को लांघने वालों का अस्तित्व अपहृत कर लिया जाता है(या कर लिया जाएगा)
क्या यह प्रेमचन्द के नारी-चिंतन की मर्यादा कही जाएगी ? या प्रेमचन्द के नारी-चिंतन का वास्तविक रूप सतह के भीतर है, जो ऐसे कुछ संपादकीयों में प्रकट विचारों से काफी भिन्न है, जिसे उनके समय के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए- यह मेरा प्रश्न है।
मोटे तौर पर यह समझा गया है कि प्रेमचन्द के नारी चिंतन पर आर्य-समाज, गांधी जी तथा बाद में चलकर प्रगतिवाद का प्रभाव पड़ा। उनका नारी- दृष्टिकोण उस समय के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के बीच बन रहा था। एक तरफ़ उनके पुरोगामी भारतेन्दु( जिन्होंने स्वयं एक विधवा से विवाह किया था) तथा भारतेन्दु-मंडल के रचनाकार जो समाज-सुधारक की भूमिका में थे, साथ ही नवजागरण कालीन आर्य-समाज, ब्राम्हो समाज के प्रभाव के फलस्वरूप उभरा नारी जागृति का प्रवाह – फिर प्रेमचन्द के समकालीन गाँधी जैसा व्यक्तित्व का होना – साथ ही साथ वैश्विक स्तर पर चल रहे नारीवादी आंदोलन की गरमाहट उनके विचारों को प्रेरित कर रही थी, दिशा भी दे रही थी। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उनके अपने जीवन तथा परिवेश में स्त्री की स्थिति, उपस्थिति तथा भूमिका ही वह वास्तविक मिट्टी है जिसमें उनके स्त्री-चिंतन का बीज रोपा गया। फिर भी यह कहा जा सकता है कि भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास( भारत में) नारी स्वतंत्रता का भी इतिहास है।(3)और यही प्रेमचन्द के नारी-चिंतन की भूमि है।
प्रेमचन्द के नारी-चिन्तन तथा व्यवहार में यदा-कदाचित् दिखाई पड़ने वाली फांक की समीक्षा करने पर मालूम होगा कि उन्होंने अपने लिए छूट बहुत ली है। उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण निर्णय इस संदर्भ में प्रश्न के घेरे में आ जाते हैं।
प्रायः स्त्रियों के सामाजिक प्रश्न विवाह से जुड़े हुए होते हैं। अतः उनके अधिकार भी मुख्यतः इसी से संलग्न माने जा सकते हैं। प्रेंमचन्द का मानना था कि राष्ट्रीयता और सद् बुद्धि की जो लहर इस समय आई हुई है वह स्त्री-पुरुषों के तमाम भेदों को मिटा देगी। भारत की स्त्रियों के प्रति प्रेंमचन्द को पूरा विश्वास था। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रेमचन्द स्त्रियों के निर्णय लेने के अधिकार के हामी थे। स्त्रियों को ख़ुद तय करना चाहिए कि उन्हें क्या चाहिए। अपने व्यापक सामाजिक, पारिवारिक अनुभव के फलस्वरूप, उनका मानना था कि कुछ एक मुद्दों पर स्त्रियों में असंतोष है और इस असंतोष का शमन भी स्त्रियों की इच्छानुसार करना पड़ेगा।
उनके अनुसार विवाह के नियम स्त्री तथा पुरुषों, दोनों पर समान रूप से लागू किए जाएं तथा पुरुष पत्नी के जीवन काल में दूसरा विवाह न कर पाए। पुरुष की संपत्ति पर पत्नी का पूरा अधिकार हो वह या तो उसे( अपने हिस्से की संपत्ति को) रेहन पर रखे या व्यय करे।
इसमें जो पहली बात है उसका पालन तो प्रेमचन्द जी नहीं कर पाए। पहली पत्नी के होते उन्होंने शिवरानी देवी से विवाह किया था। इस संदर्भ में शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक में दो स्थानों पर उल्लेख किया है। चूंकि किताब में कोई समय-क्रम नहीं है अतः पहले उल्लेख(पृ 7) को बाद वाला एवं बाद वाले उल्लेख( पृ-25,26) को पहले वाला मानना चाहिए। बस्ती, 1914 में शिवरानी देवी ने उस प्रसंग को का उल्लेख किया है जब प्रेमचन्द की पूर्व-पत्नी के भाई उनसे मिलने आते हैं और अपनी बहन के दुखों का बयान करते हैं। यह संवाद शिवरानी देवी सुन लेती हैं। पूछने पर भी प्रेमचन्द बताते नहीं हैं । शिवरानी देवी के बदन का खून गरम हो रहा था (26)। इस मुद्दे पर दोनों में तीखी बहस हो जाती है। शिवरानी देवी लिखती हैं कि वही पहला दिन था जब मुझे मालूम हुआ कि वे अभी ज़िंदा हैं। मुझे तो धोखा दिया जाता रहा कि वे मर गई हैं(26)। शिवरानी देवी जब प्रेमचन्द से इस संदर्भ में जवाब-तलब करती हैं तब प्रेमचन्द का जवाब चौंकाने वाला और कम-से-कम लेखकोचित तो नहीं ही है, (फिर प्रेमचन्द जैसा लेखक) जिसको इन्सान समझे कि जीवित है, वही जीवित है। जिसे समझे मर गया, मर गया(26)। शिवरानी देवी का आग्रह था कि उन्हें भी साथ रहने बुला लिया जाए। प्रेमचन्द के मना करने पर शिवरानी देवी कहती हैं एक आदमी का जीवन मिट्टी में मिलाने का आपको क्या हक़ है । इस पर प्रेमचन्द का जवाब है-हक़ वगैरह की कोई बात नहीं है ।(4)
इसी संदर्भ में जब दूसरी बार बात होती है तब शिवरानी देवी कहती हैं एक की तो मिट्टी पलीद कर दी जिसकी कुरेदन मुझे हमेशा होती है। जिसको हम बुरा समझते हैं वह हमारे ही यहाँ हो और हमारे ही हाथों हो। मैं स्वयं तकलीफ़ सहने को तैयार हूँ, पर स्त्री जाति की तकलीफ़ मैं नहीं सह सकती। मेरे पिता को मालूम होता तो आपके साथ मेरी शादी हर्गिज न करते। फिर आगे वह कहती हैं कि अगर मेरा बस चलता तो मैं सब जगह ढिंढोरा पिटवाती कि कोई भी तुम्हारे साथ शादी न करे। (5)
इस पूरे किस्से से जो बात उजागर होती है वह यह कि और कोई तो क्या इस बात के लिए प्रेमचन्द को लताड़ते, स्वयं शिवरानी देवी ने उनकी ख़बर ले डाली। (चाहें तो आप इसे एक अत्यन्त भोली-सी चालाकी भी कह सकते है कि किसी और को यह अवसर ही न मिले।) पर जहाँ तक प्रेमचन्द के विचार तथा व्यवहार के बीच की फांक का संबंध, उनके एकदम निजी जीवन के प्रसंग में घटित हुई है, इस बात को स्वीकारना तो पड़ेगा ही।
जहाँ तक दूसरी बात का प्रश्न है- पति के पैसों पर पत्नी के संपूर्ण अधिकार की, प्रेमचन्द उसमें खरे उतरे हैं। प्रेस खरीदने के प्रसंग में, प्रेमचन्द आखिरकार शिवरानी देवी की बात मान लेते हैं और भाई महताब से स्पष्ट कह देते हैं कि धुन्नु( श्रीपतराय) के नाम से प्रेस खरीदा जाएगा। भाइयों के बीच कड़वाहट आ जाने का संकट मोल ले कर भी वह ऐसा निर्णय लेते हैं। इस बात के संदर्भ में बहुत बाद में महताब की पत्नी ने भी अपना पक्ष रखा है पर इसे पारिवारिक राजनीति की खोल में चल रहे वैचारिक विरोध की राजनीति मान कर फिलहाल उसे छोड़ दिया जा सकता है।(6)
पति की आय पर पत्नी का पूरा हक़ होना तो आज भी स्वप्नवत् ही है, क्योंकि आज भी स्थिति तो यही है कि पत्नी का अपनी कमाई पर भी पूरा हक़ नहीं होता। प्रेमचन्द पुत्र और पुत्री दोनों का पिता की संपत्ति पर पूरा अधिकार मानते थे। तलाक के वे पक्षधर थे और विवाह की भांति यह भी स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान हो, ऐसा उनका मानना था। तलाक के समय भी स्त्री का पति की संपत्ति पर आधा हक़ हो तथा मौरूसी जायदाद पर अंशतः हक़ हो।
जहाँ तक तलाक के अधिकार का प्रश्न है, 1931 में लिखे इस संपादकीय की बात को वे गोदान की मीनाक्षी में चित्रित करने की कोशिश करते हैं। राय साहब की पुत्री मीनाक्षी अपने पति की ऐयाशी से तंग आ कर तलाक ले लेती है। हिन्दी उपन्यासों में पहली बार तलाक का मसला गोदान में ही आता है। निर्मला की विधवा रुक्षमणि तक अभी वे इस हद तक प्रगतिशील नहीं हो पाए थे, संभवतः, पर यह भी हो सकता है कि उपन्यास की कथावस्तु की वह मांग हो। पर इसमें कोई संदेह नहीं कि वास्तविक यथार्थ जीवन में वे विधवा जीवन की समस्या के प्रति अत्यन्त चिंतित थे। तभी हरि विलास शारदा कानून जब पार्लियामेंट में रखा गया तब का उनका संपादकीय पढ़ने जैसा है।
हंस जनवरी 1931 के संपादकीय हरि विलास शारदा का नया कानून शीर्षक से वे लिखते हैं कि विधवा को पति की जायदाद पर अधिकार हो। यह बिल 1933 में असेंबली में पेश किया गया। तब जागरण के संपादकीय में प्रेमचन्द ने लिखा है श्री हरि विलास शारदा ने अपनी सामाजिक सेवा से भारत के इतिहास में अमर पद प्राप्त कर लिया है। उन्हें कट्टर संप्रदाय के महानुभावों के प्रति संदेह था कि शायद वे इसका विरोध करें । प्रेमचन्द का मानना था कि पुरुष अगर संपत्ति का मनमाना उपयोग कर सकते हैं तो स्त्रियां क्यों नहीं। वे लिखते हैं इस समय हमारा सामाजिक धर्म यह है कि शास्त्रों और स्मृतियों की शरण लेकर इस बिल को रद्द करने की चेष्टा न करें । विधवाओं के साथ समाज ने बहुत अन्याय किया है और अन्याय को पाल कर कोई समाज सरसब्ज़ नहीं हो सकता। (7)
विधवाओं की दशा से वे इतने परेशान थे कि 17 जुलाई 1933 को जागरण के संपादकीय में वे एक ऐसी बाल-विधवा का हवाला देते हैं जो आत्म-हत्या के लिए प्रवृत्त हो गई थी। वह रेल की पटरी पर सो जाती है, परन्तु ड्राइवर की नज़र पड़ी और वह बचा ली गई। फिर उस विधवा पर आत्महत्या के अपराध में अभियोग चला। यानी विधवा को जीते जी भी सुख-चैन नहीं और न ही मरने की स्वतंत्रता।
कलम का सिपाही में अमृत राय लिखते हैं- कितनी ही विधवाएं और समाज की सतायी हुई स्त्रियां कोठे पर पहुँच जाती हैं। समाज यह सब अपनी आंखों के आगे होते हुए देखता है लेकिन तो भी उसके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। अपनी ज़िम्मेदारियों की तरफ से वह कितना बेखबर लेकिन बेकसों को सताने के लिए कितना शेर। करेगा-धरेगा कुछ नहीं लेकिन किसी से कोई गलती हो भर जाए, कच्चा ही चबा जाएगा। विधवाओं पर तो उसका विशेष कृपा है--- उस दुखियारी स्त्री की दूसरी बहनें ही उस पर चौकीदारी करती हैं और ग़रीब औरत अगर कहीं दुर्भाग्य से अपनी लीक से जौ भर भी डिग गयी तो फिर उसकी खैरियत नहीं। पहले तो वह औरतें ही उसे अपने तानों से छेद-छेद कर मार डालेंगी और अगर इतने से वह नहीं मरी तो फिर उसका और कुछ उपाय किया जाएगा। (8)
प्रेमचन्द ने 27 मार्च 1933 जागरण के संपादकीय में सर हरि सिंह गौड़ के तलाक कानून का समर्थन यह कह कर किया है ऐसे क़ानूनों का हमें स्वागत करना चाहिए जिनका उद्देश्य सामाजिक अत्याचारों को दूर करना है। क्यों कि उनके मत से सब से बड़ा कानून जन-मत है। (9)
यह देखने की बात है कि सन् 33 से ही, (संभवतः उसके कुछ पहले से भी) प्रेमचन्द जैसे रचनाकार जनमत यानी लोकतंत्र के समर्थन में लिखने लगे थे। न्याय- तंत्र की सामाजिक भूमिका को रेखांकित करने लगे थे। इसी संपादकीय में उनका कहना था विधवा विवाह का बिल पास हो जाने से सभी विधवाएं विवाह तो नहीं करने लगी थी। शारदा कानून ने भी तो बाल-विवाह नहीं बन्द कर दिए। हाँ, उन पर रोक अवश्य डाल दी।
इन संपादकीयों की भूमिका के रूप में यह बात याद रखनी चाहिए कि प्रेमचन्द ने सन् 1906 में एक बाल-विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया था। शिवरानी देवी ने भी अपनी पुस्तक में जो हवाले दिए हैं, उनसे पता चलता है कि प्रेमचन्द शिवरानी देवी के साथ इन तमाम मुद्दों पर चर्चा किया करते थे और हमेशा शिवरानी देवी उनसे सहमत हों, यह आवश्यक नहीं था। फिर, प्रेमचन्द का ऐसा आग्रह भी नहीं होता था।
ये कुछ ऐसे मुद्दे थे, जो, जहाँ उस युग में तो चर्चा के केन्द्र में थे ही, प्रेमचन्द की चिंता के भी केन्द्र में थे। प्रेमचन्द ने बार-बार अपने संपादकीयों में, रचनाओं में इनका उल्लेख किया है। इनके विषय में लिख कर, मध्य वर्ग की मानसिकता को बदलने का प्रयास किया है, ऐसा कहा जा सकता है। दिसंबर 1932 तक तलाक का बिल कानूनी रूप धारण नहीं कर सका था। पर इन सब गतिविधियों से भारतीय महिलाओं में एक नवीन जागृति अवश्य आ गई थी। इसी संदर्भ में हंस, दिसंबर 1932 का संपादकीय उल्लेखनीय है। यहाँ प्रेमचन्द ने इस बात की और इशारा किया है कि महिला विकास के मुद्दों पर दोनों क़ौमों की स्त्रियां एकमत हैं। अर्थात् दोनों विकास चाहती हैं। हिन्दू और मुस्लिम पुरुष भी इन मुद्दों पर एकमत हैं। लेकिन ज़ाहिर है, स्त्रियों और पुरुषों का इसमें एकमत नहीं है। इसमें एक बड़ा सूक्ष्म व्यंग्य भी निहित है- कि जहाँ तक महिला विकास का प्रश्न है पुरुष क़ौम वादी नहीं है।(यानी कि पुरुष-वर्ग स्त्री का विकास न होने में एकमत है) यह संपादकीय इस तरह है-
भारतीय महिलाओं ने अपने कार्यक्रम से यह सिद्ध कर दिया है कि वे समाज के क्षेत्र में पुरुषों से कितना आगे निकल गई हैं। विशेष कर जिन बंधनों से पुरुषों ने उन्हें जकड़ रखा था और उन पर शासन करते थे उन बेड़ियों को तोड़ने के लिए वह बहुत विकल रही हैं। शारदा-बिल से मुसलमानों का एक बड़ी संख्या को तो आपत्ति है ही, हिन्दुओं में भी कुछ ऐसे पुरुष हैं, जो उनका विरोध करते हैं। पर स्त्रियों ने, जिन में मुसलमान स्त्रियां भी शामिल हैं , एक स्वर से इस बिल का स्वागत किया है।
तलाक का बिल अभी कानून का रूप नहीं धारण कर सकता है और हिन्दू पुरुषों में भी इस समस्या पर मतभेद है, पर हिन्दू महिलाएं उस पर हर महिला-सम्मेलन में जोर देती हैं। राजनीतिक क्षेत्र में भी महिलाओं ने अपने परिष्कृत सद् विचार का परिचय दिया है। वे सार्वजनिक निर्वाचन अधिकार चाहती हैं। जायदाद या शिक्षा की कोई क़ैद उन्हें पसंद नहीं है और राष्ट्रीय एकता का तो जितने ज़ोरों से स्त्रियों ने समर्थन किया है उस पर बहुमत से हिन्दू और मुसलमान पुरुषों को लज्जित होना पड़ेगा। जिन महानुभावों को हमारी देवियों की विचारशीलता पर संदेह था उन्हें अब अपने विचारों में तरमीम करनी पड़ेगी। भारतीय महिलाओं ने घर की चारदीवारी के अन्दर जिस तरह अपनी दक्षता प्रमाणित की है उसी तरह राष्ट्र के विस्तृत क्षेत्र में वे पुरुषों के आगे रहेंगी। (10) यहाँ इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि स्त्रियों की सोच के विषय में जो सामान्यतः परंपरागत संदेह का भाव विद्यमान है, उसे प्रेमचन्द तोड़ने की कोशिश करते हैं। एक तो स्त्रियों की आर्थिक पराधीनता की स्थिति तथा दूसरा उनकी सोच(बुद्धि) पर संदेह करना, ये ही दो मुख्य बिन्दु हैं जिनके कारण उनकी दशा युगों से शोचनीय रही है। इन संपादकीयों में प्रेमचन्द की दृष्टि इस हद तक सजग और पैनी रही है कि वे परंपरागत दृष्टि को भी मानों परिवर्तित करने का प्रयास कर रहे थे। तभी मि. मैकेंज़ी के कुमारी शिक्षा के आदर्श पर उन्होंने तीखी टिप्पणी की है।
मैकेंज़ी कन्या- शिक्षा में वही भेद स्वीकार करते हैं जो समाज में वास्तविक रूप से विद्यमान है। पर इसमें भी प्रेमचन्द का पक्ष तो यही था कि स्त्रियों को ही फैसला करने का हक़ मिलना चाहिए। प्रेमचन्द के अनुसार पुरुषों ने स्त्रियों को इतना सताया है कि वे अब आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनना चाहती हैं। स्त्रियां अध्यापिका बनें या वकालत करें, इसका निर्णय वे ख़ुद करें। स्वार्थी पुरुषों का फ़ैसला उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए।
प्रेमचन्द के इस संपादकीय की विशेषता यह है कि उन्होंने बड़ी सफ़ाई से मैकेंज़ी और भारतीय देवियों को आमने-सामने रख दिया है। यह जागरण, 22 जनवरी 1934 का संपादकीय है। 29 जनवरी 1934 के संपादकीय में उन्होंने महिलाओं की शिक्षा पर जवाहरलाल नेहरू के विचार रखे हैं। इसमें उन्होंने फिर मैकेंज़ी को याद करते हुए एक अच्छा जक्सटापोज़(juxtapose) खड़ा किया है। जहाँ मैकेंज़ी लड़कियों को केवल गृहिणी बनाना चाहते थे वहाँ महिला विद्यापीठ के दीक्षांत भाषण में नेहरू कहते हैं कि लड़कियों को केवल विवाह के लिए क्यों तैयार किया जाए. वे लड़कियों की आर्थिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। महत्वपूर्ण बात पुरुषों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की है—इससे ही सारा विवाद मिट जाएगा और पारिवारिक विच्छेद के लज्जास्पद दृश्यों से समाज की रक्षा हो सकेगी।
इस जक्सटापोज़िशन से प्रेमचन्द ने यह भी स्पष्ट किया है कि अँग्रेज़ों में भी कुछ लोग, जो ऊंचे ओहदों पर थे, उनकी मानसिकता पिछड़ी हुई थी। हम चाहें पराधीन हों पर हमारे उम्मीद- भरे नेता प्रगतिशील अवश्य हैं। इसका महत्व इस दृष्टि से भी है कि उस समय की जनता ख़ुद ये देखे और निर्णय करे कि हक़ीक़त में कौन अगड़ा है और कौन पिछड़ा है।
स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता संबंधी प्रेमचन्द का विचार भारतीय था- कहने का मतलब यह है कि वे स्त्रियों के आर्थिक स्वातंत्र्य के पक्षधर तो थे पर उनके नौकरी करने के पक्ष में नहीं थे। यह विरोधाभासी लग सकता है। पर शिवरानी देवी के साथ की उनकी बातचीत के हवाले से ऐसा कहा सकता है। शिवरानी देवी जब स्त्रियों की नौकरी की बात उठाती हैं, तो प्रेमचन्द का कहना था –स्त्रियां नौकरियां करने लगी हैं, मगर वह अच्छा नहीं है, मैं इसको अच्छा नहीं समझता। अब इसका नतीजा क्या हो रहा है अब पुरुष और स्त्री दोनों नौकरियां करने लगे हैं , तब इसके मानी क्या है. रुपये ज़्यादा आ जाएँगे। उसी का तो यह फल है कि पुरुषों की बेकारी बढ़ रही है। (11)
पहले पठन में प्रेमचन्द का यह कथन अत्यन्त प्रतिक्रियावादी लगता है। लेकिन चर्चा की समाप्ति पर उनका यह कथन उनकी वास्तविक मानसिकता पर प्रकाश डालती है- छोटी जातियों और काश्तकारों में देख लो, दोनों बराबर की मेहनत करते हैं, बल्कि स्त्रियां उनसे कुछ अधिक ही काम करती हैं, फिर भी पुरुष जो बदमाश हैं, वह अपनी स्त्रियों से पैसा भी छीन लेते हैं, और उन पर शासन भी करते हैं। अब सोचना यह है कि कैसे दोनों को बराबर भी किया जाए और बदमाशों को कैसे ठीक किया जाए। इसमें ज़रूरत इस बात की है कि स्त्रियां शिक्षित हों, और उसके साथ-साथ स्त्रियों को वह अधिकार मिल जाएं, जो सब पुरुषों को मिले हुए हैं। जब तक स्त्रियां शिक्षित नहीं होंगी, और सब कानून- अधिकार उन को बराबर न मिल जाएंगे, तब तक महज़ बराबर काम करने से ही काम नहीं चलेगा। (12)
शिवरानी देवी के साथ का उनका यह संवाद सन् 1935 का है। इस बात पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि प्रेमचन्द आर्थिक स्वतंत्रता को शिक्षा और कानूनी अधिकार से जोड़ते हैं , नौकरी से नहीं। प्रेमचन्द के ये बदमाश पुरुष आज भी, केवल काश्तकारों में ही नहीं, मध्य-वर्ग में भी विद्यमान हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज स्त्री धनोपार्जन का बेहतर साधन हो गई है।

विधवा और तलाक, आर्थिक स्वतंत्रता के साथ ही प्रेमचन्द ने बालिकाओं के शिक्षित होने में विशेष रुचि दिखाई। वे मानते थे कि समाज का एक अंग दुर्बल होने के कारण ही हमारी इतनी हीन दशा है। प्रेमचन्द के इस संपादकीय को, जो हंस, दिसंबर 1932 में छपा है, पढ़कर मुझे यह प्रतीति हुई कि अब भी हमने बहुत विकास नहीं किया है। 2006 में भी गुजरात राज्य कन्या- शिक्षण को बाजे-गाजे के साथ महत्व दे रही है।( इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसकी आवश्यकता इस मायने में है भी कि आज भी अगर कन्या- शिक्षा पर पैसे खर्च करने पड़े तो असंख्य लड़कियां निरक्षर रह जाएंगी।)यानी इस संपादकीय के लिखे जाने के 74 वर्ष बाद भी कन्याओं को शिक्षित करने की मानसिकता समाज में अभी पूरी तरह से बनाना बाकी है। यह काम पूरा नहीं हुआ है। वे कहते हैं –पुराने ज़माने में क्षत्राणियां रण में शत्रु का सामना करती थीं। पर आजकल की लड़कियां अपने स्वास्थ्य की रक्षा नहीं कर सकतीं। आर्य-कन्या व्यायाम मंदिर, बड़ौदा की कन्याएं गदा, लेझिम, फिरकी, तलवार, छुरे, आसन तथा अन्य व्यायाम के प्रदर्शन हेतु, स्थानीय दयानंद हाईस्कूल में आई थीं। सभी बालिकाएं जो आई थीं, अत्यन्त फुर्तीली, चपल, शिक्षित तथा दक्ष थीं। उनका गरबा नाच, संस्कृत में कथोपकथन, दो लड़कियों का व्याख्यान उनकी शिक्षा को व्यक्त करता था। बडौ़दा की कन्याओं का यह ग्रुप कन्या शिक्षा का प्रचार करने अपने प्राचार्य के साथ भारत भ्रमण के लिए निकला था। यह ध्यान देने की बात है कि प्रेमचन्द एक तरह से शिक्षा को अस्त्र मानते थे।
लेकिन यह बात सर्वविदित है कि प्रेमचन्द ने अपनी लड़की की पढ़ाई की तरफ़ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया था। इसका कोई खुलासा शिवरानी देवी ने नहीं किया है। परन्तु अमृत राय ने अपनी पुस्तक कलम का सिपाही में लिखा है-
मुंशीजी की बेटी के साथ भी यही बात थी। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई का सुयोग उसे नहीं मिला—या नहीं दिया गया। कुछ रोज़ लखनऊ के महिला विद्यालय में गई मगर फिर वहाँ से भी उसे छुड़ा लिया गया।
आजकल जहाँ अनपढ़ लड़कियों पर उंगलियाँ उठती हैं, चालीस-पैंतालीस साल पहले पढ़ी-लिखी लड़की पर उठा करती थीं। लड़की को पढ़ाना अपने आप में एक क्रांति थी। मुंशीजी भी शायद इस क्रांति के लिए तैयार नहीं थे।(13)
अमृत राय बताते हैं कि प्रेमचन्द की बेटी जब छोटी थी तब वे बस्ती में रहते थे, जो एक छोटी जगह थी। जब बेटी कछ पढ़ने-लिखने लायक हुई तब उनका गोरखपुर का आबदाना छूट गया था। बाद में कहीं भी जमकर उनका रहना नहीं हो सका। फिर लड़की को बाहर भेज कर पढ़ाना संभव न था। (यहाँ इस बात को याद कर लेना चाहिए कि महादेवी जी ने लगभग सत्याग्रह कर के इलाहाबाद जा कर पढ़ने के लिए अपने माता-पिता को राज़ी किया था। ऐसा सब के लिए संभव नहीं होता।)
कुछ इत्मीनान उनको लखनऊ में मिला। पर, अमृत राय लिखते है-बेटों की पढ़ाई, जो अपनी बहन से छोटे थे, वहीं शुरु हुई लेकिन बेटी की पढ़ाई शुरु करने के लिए तब तक ज़्यादा देर हो चुकी थी। आधे मन से कुछ कोशिश ज़रूर हुई, पर आधे मन से। क़िस्सा कोताह वह पढ़ नहीं सकी और चूल्हा पकड़े बैठी रही जो कि घर की सयानी लड़की का काम है। (14) अमृत राय तर्क भी देते हैं कि माँ की बीमारी के कारण भी, हो सकता ही कि उसे स्कूल न भेजा गया हो।
बहर हाल, जो कारण रहा हो, यह बेहद अफ़सोस जनक ही कहा जाएगा कि स्त्री-शिक्षा के सघन समर्थक प्रेमचन्द स्वयं अपनी बेटी को न पढ़ा सके हों। ज़माने को लानत भेज कर भी यह बात तो बनी ही रहती है कि उनकी बेटी शिक्षा से वंचित रही।
लेकिन बड़े भोलेपन से और सहज-भाव से दिया गया अमृत राय का यह कारण हमें सोचने पर मजबूर करता है-
इन सब के बाद भी यह मानना कठिन है कि बेटी को ठीक से शिक्षा का सुयोग न देने के पीछे और भी कोई कारण नहीं था । जहाँ तक प्रमाण मिलता है—जिसमें उनकी इसी काल की लिखी हुई शान्ति—जैसी कहानियों का प्रमाण भी है—उसका बड़ा कारण यह था कि पढ़ी-लिखी लड़कियों की तरफ़ से उनके मन में यह चोर था कि लड़कियाँ पढ़-लिख कर गृहस्थी के काम की नहीं रह जातीं, तित्तली बन कर यहाँ-वहाँ घूमते रहने में ही उनका जी लगता है। अगर इससे अलग भी कोई बात उनके मन में थी तो वह कमज़ोर थी और चारों तरफ़ एक पिछड़ा हुआ समाज था जो लड़कियों की पढ़ाई को अच्छी निगाह से नहीं देखता था। लिहाज़ा बेटी घर के भीतर और घर के बाहर समाज के पिछड़ेपन का शिकार हुई और मामूली हिन्दी से ज़्यादा कुछ न पढ़ सकी। (15)
क्या इसीलिए गोदान की मालती को भी लेखक के इन विचारों का खामियाजा भुगतना पड़ा है ? या फिर गोदान की मालती औपन्यासिक कथावस्तु की अनिवार्यता है ? यह प्रश्न भी उठता है। किन्तु साथ ही यह तथ्य भी सामने रखना आवश्यक है कि शिवरानी देवी ने जो प्रेमचन्द का चरित्र उकेरा है उससे यह मान लेना ज़रा कठिन प्रतीत होता कि वे स्त्रियों के बारे में ऐसी सोच रखते हों। अमृत राय के ऐसे विश्लेषण के क्या कारण हो सकते हैं, कहा नहीं जा सकता।
यहाँ मैं एक और बात भी रखना चाहूंगी। एक ऊर्जा सभर रचनाकार जब रचना करता है तब वह जो भी कुछ कहता है या कहना चाहता है, अपनी रचना में इस तरह डूब कर कहता है कि उसे एक
अ-भूतपूर्व रचनात्मक संतोष की प्राप्ति हो जाती है। मानों उसने वह कार्य वास्तव में संपन्न कर लिया हो। क्रिएटिव सैटिसफैक्शन(सर्जनात्मक संतोष) मिल जाने के पश्चात् कई बार यह बात उसके लिए गौण हो जाती है कि उसने अपने वास्तविक जीवन में उसका पालन किया है या नहीं, कर पाया है या नहीं, या उससे हो पाया है या नहीं। इसे हर बार रचनाकार के जीवन तथा कृतित्व के बीच फांक के रूप में देखना आवश्यक नहीं है। यह हक़ीक़त है कि एक रचनाकार अपने विशिष्ट भौतिक परिवेश में जीता है और तदनुसार उसकी सर्जनात्मक चिंताएं आकार ग्रहण करती हैं। वह अपनी रचनाओं के द्वारा मंगलमय जीवन एवं समाज के बेहतर भविष्य का स्वप्न देखता है। अतः उसकी रचनाएँ उसके समय तथा देश के परे और पार जा कर भी मनुष्य जीवन को प्रभावित करती हैं तथा सदैव करती रहेंगी। फलस्वरूप वह जो कुछ भी रचता है केवल अपने देश- काल में बद्ध हो कर नहीं लिखता। एक बिंदु पर उसकी चिंताएं सामयिक लग सकती हैं, होती भी हैं, परंतु एक अन्य बिंदु पर वह सामाजिक, भावनात्मक तथा सौंदर्यात्मक स्तर पर कालातीत भी होती हैं। यह प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि लेखक किस रचना में अनुभव के कौन से बिंदु पर अपने आप को पाता है। किस बिंदु पर खड़े हो कर वह सामयिक बात कर रहा है और कब वह कालातीत स्थिति में है। मुख़्तसर, मुद्दा इतना ही है कि लेखक जो भी लिखता है उसे हर बार एक ही मापदंड से नहीं देखना चाहिए। यहाँ मैं प्रेमचंद के बचाव में यह नहीं कह रही बल्कि मेरा आशय केवल यह रेखांकित करना है कि प्रेमचंद चाहे अपनी बेटी को न पढ़ा पाए हों परन्तु वे एक पराधीन राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक मानते थे कि उसकी नई स्त्री पीढ़ी शिक्षित हो।
इसी तरह एक और स्थान पर, जहाँ अमृत राय ने प्रेस खरीदने के प्रसंग का उल्लेख किया है वे प्रेमचन्द का पत्र उद्भृत करते हैं, जिसमें इन वाक्यों को देखा जा सकता है- एक और बात याद रखो । तुम्हारा दिल, मैं जानता हूँ, बहुत साफ़ है। लेकिन औरतों का दिल अकसर तंग-खयाल होता है। (16) हालांकि स्वयं शिवरानी देवी इस बात से सहमत नहीं थी कि प्रेस में प्रेमचन्द के सौतेले भाई महताब का भी नाम हो, वे अपने बेटे श्रीपत के नाम खरीदना चाहती थीं। परन्तु प्रेमचन्द महताब को लिखते हैं- तुम्हारी बीबी के ग़ालिबन मालूम हो कि तुम रुपया कर्ज़ ले रहे हो महज़ इसलिए कि श्रीपतराय के नाम प्रेस ख़रीदो तो वह इसे हरगिज़ पसंद न करेगी। (17) प्रेमचन्द के इन विचारों को एक घरेलू औरत के विषय में, व्यवहारिक रास्ता निकालने के लिए, रखे गए उनके विचार मानने चाहिए; यह बात एक पारिवारिक मसला सुलझाने की तरकीब से अधिक कुछ नहीं। इसे प्रेमचन्द के नारी- विषयक केन्द्रीय विचार नहीं मानने चाहिए। हाँ, ऐसे प्रसंगों के उल्लेख से प्रेमचन्द की प्रगतिशील, आदर्शवादी तस्वीर कुछ धुँधली अवश्य होती है। ऐसे उदाहरणों से जो फांक जैसी दिखाई पड़ती है, उसे निश्चय ही इस रूप में लेना चाहिए कि वे अपने युग की वैचारिक सीमा को लांघ नहीं सके, संभवतः।
बालिकाओं को क्या नहीं पढ़ाना चाहिए तथा क्या उन्हें यौन-शिक्षण देना चाहिए या नहीं , इस मंतव्य का उनका संपादकीय महिला विद्यालय में बिहारी- सतसई (18)में झलकता है। इंग्लैंड में उस समय यौन-शिक्षण की चर्चा चल रही होगी। प्रेमचन्द व्यंग्य करते हैं कि बिहारी जैसे श्रृंगारी कवि को वहाँ स्थान मिलना चाहिए। इससे यही कयास निकाला जा सकता है कि वे इस बात के पक्ष में नहीं थे।
औरतों की खरीद-फ़रोख़्त (Women Trafficking) पर लिखा उनका सम्पादकीय वेश्यावृत्ति (19) राजनीतिक दलबन्दी बनाम सामाजिक प्रश्न जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर इशारा करता है। मि. ई अहमद शाह जो सामान्य रूप से प्रजापक्ष के विरोधी थे, उन्होंने वेश्या वृत्ति निवारण तथा स्त्रियों की ख़रीद-बिक्री रोकने का बिल पेश किया। राष्ट्र-परिषद ने भी ट्रैफ़िक इन विमेन संबंधी नियम बनाए थे। मात्र मि. चिंतामणि इस बिल का विरोध कर रहे थे। यह प्रेमचन्द के लिए आश्चर्यजनक बात थी। श्री. चिंतामणि ने मि. शाह की खिल्ली भी उड़ाई। पर प्रेमचन्द इसे दलबंदी की राजनीति का फल मानते थे। इसका मतलब तो यह है कि प्रेमचन्द के समय से ही महिलाओं के मुद्दे दलबंदी की राजनीति में फँसते रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आज भी 33% का बिल भी दलबंदी का शिकार हो रहा है।
प्रेमचन्द के लिए स्त्रियों से जुड़े मुद्दे महत्वपूर्ण थे, राजनीतिक दल नहीं। मसला चाहे प्रजापक्ष के समर्थक व्यक्ति का हो, परन्तु अगर उनके द्वारा स्त्रियों के अहित में लिया गया कोई निर्णय हुआ हो , तो प्रेमचन्द इस पर टिप्पणी करने से नहीं चूके।
जन-संचार में महिलाओं को जिस तरह प्रस्तुत किया जाता है, उसकी अपमानजनक स्थिति का जैसा आलेखन होता है, उसको लेकर आज काफी विरोध, आंदोलन, चर्चा आदि होती है। प्रेमचन्द ने भी अपने संपादकीय में नारी की अर्ध नग्न तस्वीरों के प्रदर्शन पर विरोध प्रकट किया है। बेशक इसका कारण वे पुरुषों के मनोभावों के उत्तेजन के साथ जोड़ते हैं, अर्थात् पुरुष उत्तेजित होता है, अतः ऐसा नहीं करना चाहिए। आज के नारीवादी दृष्टिकोण में यह बात फिट न भी बैठे। परन्तु वास्तविकता भी तो यही है।
दक्षिण अफ्रीका में एक काली औरत पर गोरी औरत की नकल में पाजामा पहनने पर अदालती कार्यवाही हुई। इस पर हंस( मई, 1934) के अपने संपादकीय में प्रेमचन्द एक ओर जहाँ भेद-नीति पर टिप्पणी करते हैं, वहीं यह कहने से भी नहीं चूकते कि हमें तो उस काली देवी की कुरुचि पर दया आती है, जो साड़ी ऐसे लोचदार चीज़ को छोड़ कर पाजामा पहनने चली।(20)
यहाँ यह देखा जा सकता है कि महिलाओं के वस्त्र पहनने की स्वतंत्रता के वे पक्षधर नहीं दिखते। यहाँ उनकी मानसिकता कुछ-कुछ संकीर्ण और रूढ़िवादी भी कही जा सकती है। यहाँ प्रेमचन्द तवज्जोह देते हैं अपनी रुचि तथा मान्यता को, जो वस्त्र पहनने के नारी के मूलभूत अधिकारों के विपरीत जा पड़ती है। फिर इस बात का मीज़ान भी नहीं बैठता कि स्त्री को यह अधिकार तो वह देते हैं कि वह अपना भविष्य तय करे- वकालत करे या अध्यापिका बने, पर वह क्या पहने बल्कि क्या न पहने, यह तय करने का अधिकार पुरुष का हो।
मेरा ऐसा ख़्याल है कि प्रेमचन्द में सर्वत्र यह बात देखने को मिलती है कि स्त्रियों के प्राथमिक मुद्दों पर वे जितने प्रगतिशील हैं, व्यावहारिक मुद्दों पर वे टिपिकली परंपरागत नज़र आते हैं।
समान मजदूरी के हिमायती प्रेमचन्द अविवाहित स्त्री के संतानवती होने के भी पक्षधर दिखते हैं। उनका नारियों से नम्र निवेदन है कि अब वे एकांत भोग की बात छोड़ें और अपने बेकार पुरुषों की उसी तरह नाज़ बरदारी करें जैसे पुरुष अब तक अपनी बेकार स्त्रियों की करता आ रहा है। (21)
बदलते हुए समय का अहसास प्रेमचन्द को हमेशा रहा है। नारियां अपने को मिलने वाली रियायतों को शीघ्र ही ठुकरा देने वाली हैं, ऐसा उन्हें विश्वास था। पुरुषों की chivalry(स्त्री-दाक्षिण्य) पर व्यंग्य कसते हुए वे कहते हैं कि पुरुषों द्वारा ठोस बातों तथा मुद्दों पर chivalry नदारद है जैसे- मजदूरी, पर कविताएँ छापना हों तो स्त्रियों की पहले छापेंगे। प्रेमचन्द की दृष्टि में यह स्त्रियों के साथ अन्याय है। स्त्रियों की कविताएँ उनकी गुणवत्ता के कारण नहीं पर, आज की भाषा में कहें तो, आरक्षण के कारण छापी जाएं, जिसके परिणामस्वरूप युवक स्त्रियों के नाम से कविताएँ भेजने को प्रवृत्त होने लगे। भारतीय नारियों के प्रति प्रेमचन्द को इतना तो भरोसा था कि वे शीघ्र ही इस संरक्षण को ठुकरा देंगी।
महिलाओं के द्वारा लिखित रचनाओं की समीक्षा करते समय भी प्रेमचन्द का नारी संबंधी दृष्टिकोण उजागर होता है। वचन का मोल की लेखिका के नाम, 9 जून 1936 में प्रेमचन्द लिखते हैं-आजकल युवक गल्प लेखक स्त्रियों को ख़ुश करने के लिए ख़्वामख़्वाह ऐसे नारी चित्र खींचते हैं जिन में विद्रोह की भावना भरी होती है। ज़रा-ज़रा-सी बात पर नारी अपने पुरुष से लड़ने के लिए तैयार हो जाती है या उसे छोड़ देती है, बदला लेने लगती है। एक स्त्री अपने पुरुष से इसलिए असंतुष्ट थी कि वह बेचारा दिन-भर काम-धंधे में फंसा रहता था और स्त्री के पास बैठ कर उसका मन बहलाने के लिए समय न था। देवीजी को अकेले बैठने में बुरा लगता था। आखिरकार अपने ममेरे देवर के प्रेम में फंस कर मर गई। इस तरह की कहानियों से क्या फायदा होता है यह मेरी समझ में नहीं आता। केवल यही कि स्त्रियां लेखक को स्त्रियों का हिमायती समझें। ईश्वर की दया से देवियां इतनी असहिष्णु नहीं होतीं। (22) अर्थात् प्रेमचन्द दिखावे के या देखा-देखी के नारी-वाद के समर्थक नहीं थे।
प्रेमचन्द ने किन्हीं हज़रत जामी साहब की युसुफ़ – ज़ुलेख़ा के किस्से पर जो टिप्पणी की है वह बड़ी मार्मिक है। पहले तो पूरा किस्सा कह सुनाया। फिर अंत में इतना भर कहा-इससे हज़रत जामी साहब का शायद यह मतलब होगा कि उसकी(ज़ुलेख़ा) कमियां दिखा कर, उसकी निंदा कर के यूसुफ़ की बड़ाइयों की इज़्ज़त बढ़ाएं और इस इरादे में वह ज़रूर कामयाब हुए हैं। (23) इसे प्रेमचन्द का फ़िरक़ापरस्तों के बारे में नज़रिया भी मान सकते हैं। कलम का सिपाही में भी अमृत राय ने भी प्रेमचन्द की उस पीड़ा को, क्रोध को व्यक्त किया है जहाँ वे पंडों तथा महन्तों द्वारा सुंदर रमणियों के साथ की जाती लीलाओं का हवाला देते हैं।(24)
कलम का सिपाही तथा प्रेमचन्द घर में इन दोनों किताबों में प्रेमचन्द के व्यक्तित्व के भिन्न-भिन्न पहलू नज़र आते हैं। शिवरानी देवी की किताब पढ़ कर दो बातें ध्यान में आती हैं –पहली - प्रेमचन्द का जीवन अधिकतर आर्थिक एवं शारीरिक संघर्षों में बीता और दूसरी - उनका अपनी पत्नी के साथ सभी मुद्दों पर चर्चा-वार्तालाप रहता था। अमृत राय की पुस्तक में कई बातें हैं परन्तु एक बड़ी महत्वपूर्ण बात जो उन्होंने लिखी है वह यह कि प्रेमचन्द की सर्जनात्मक अनिवार्यता को संभव बनाने के लिए दो ही मुद्दे कारण भूत थे- जाति-प्रथा तथा नारी की स्थिति। पिछले बरसों में उसने न जाने कितना कुछ पढ़ा था लेकिन उसमें ज्यादातर राज-रानी के किस्से थे, तिलिस्म और ऐयारी के किस्से थे। पढ़ने में वह बहुत अच्छे लगते थे मगर वह कुछ और लिखना चाहता था। उस तरह के किस्से फिर से लिख कर क्या होगा। ठीक है उनसे दिल बहलाव होता है मगर सवाल यह है कि हम आखिर कब तक दिलबहलाव करते रहेंगे। इस तरह तो इतिहास के पन्नों से हमारा नाम मिट जाएगा। ज़रा अपने समाज की हालत भी तो देखो--- कैसी मुर्दे की नींद सो रहा है। उसका दिल बहलाने की ज़रूरत है कि झकझोर कर उसे जगाने की। न जाने कब से सो रहा है इसी तरह । क्या क़यामत तक सोता रहेगा। यह तो मौत है सरासर। अगर कुछ लिखना ही है तो ऐसा कुछ लिखो जिससे यह मौत और ग़फ़लत की नींद टूटे, यह मुर्दनी कुछ दूर हो।(25) उनकी दृष्टि में इस मुर्दनी के दो मुख्य कारण थे। पहला- एक आदमी के छू जाने से दूसरे आदमी की जात चली जाती है और दूसरा- कहने को तो कह दिया—जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता वास करते हैं। लेकिन कोई पूछे कि आपने किसी तरह का कोई अधिकार नारियों को दिया है। ......वह एक खेत है जिससे सन्तान की, पुरुष के संपत्ति के उत्तराधिकारी की प्राप्ति होती है।(44) इसीलिए तो कन्या और गौ का स्थान एक है –चाहे जिसके साथ बाँध दो। पाँच साल की लड़की का ब्याह पचास साल के बुड्ढे के साथ हो सकता है।(26)
इस संदर्भ में प्रेमचन्द की एक कहानी याद आती है। 'नरक का मार्ग` जो १९२५ में 'चांद` पत्रिका में छपी थी। प्रेमचन्द ने उसमें कहा है कि 'स्त्री सब कुछ सह सकती है, दारुण से दारुण दुख बड़े से बड़ा संकट, अगर नहीं सह सकती है तो अपने यौवन काल की उमँगों का कुचला जाना।` इस कहानी में स्थिति थोड़ी-सी अलग है। यहां लड़की के माता पिता धन के लोभ में लड़की का बेमेल विवाह कर देते हैं। बूढ़े पति को पाकर भी लड़की सोचती है कि वह पति की सेवा करेगी क्योंकि यह उसका धर्म है। ससुराल में एकदम उलटा माहौल पाकर स्त्री बौखला जाती है। पति उसके स्वाभाविक बनाव शृंगार पर सशंकित और ईर्ष्या दग्ध रहता है। स्त्री जल्दी ही अपनी स्थिति समझ जाती है और कहती है कि 'इन्हें स्त्री के बिना घर सूना लगता होगा, उसी तरह जैसे पिंजरे में चिड़िया को न देख कर पिंजरा सूना लगता है।` महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रेमचन्द की स्त्रियों अपनी स्थिति का विश्लेषण बखूबी करती हैं। गुलाम जिस दिन गुलामी का एहसास कर ले, उसकी लड़ाई उसी दिन शुरू हो जाती है। 'नरक का मार्ग` कहानी में प्रेमचन्द् की स्त्री दो हाथ आगे निकल कर कहती है ''मैं इसे विवाह का पवित्र नाम नहीं देना चाहती... यह कारावास ही है। 'मैं इतनी उदार नहीं हूं कि जिसने मुझे कैद में डाल रखा हो उसकी पूजा करुँ, जो मुझे लात मारे उसके पैरों को चूमूं।... स्त्री किसी के गले बांध दिये जाने से ही उसकी विवाहिता नहीं हो जाती है । विवाह का पद वह पा सकता है जिसमें कम से कम एक बार तो हृदय प्रेम से पुलकित हो जाये।`प्रेमचन्द यहां उस विवाह की बात कर रहे हैं जहां दो लोगों के मन पहले मिलते हैं। (27)
कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द का नारी-विमर्श जब उनकी पत्रकारिता में प्रकट होता है तब भी वह उनकी सर्जनात्मक ऊर्जा एवं चिन्तन-सभरता से स्पर्धा करता हुआ ही दिखाई पड़ता है। उसका अपना एक भारतीय रूप है जो ऊपरी स्वतंत्रता की अपेक्षा मूलभूत एवं प्राथमिक स्वतंत्रता को महत्व देता है। पर जहाँ तक स्त्री-विमर्श का मुद्दा है, अपने व्यक्तिगत जीवन में वह अपने विचारों के पीछे, कई बार दूर बैठे भी दिखाई पड़ते हैं।
अंत में महादेवी वर्मा, जो हिन्दी की पहली नारी-विमर्श कार कही जा सकती हैं, उनका यह कथन दृष्टव्य है-
हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो-जो हम में गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है। (28)


संदर्भ
1- प्रेमचन्द रचनावली -8 1933 का सम्पादकीय
2- रचनावली -9 पृ-78
3- डॉ. चंद्रेश्वर कर्ण – चिट्ठी- पत्री से झाँकती प्रेमचन्द की आलोचना दृष्टि- चक्रवाक पृ- 196
4- प्रेमचन्द घर में पृ-26
5- वही पृ- 8
6- चक्रवाक पृ-
7-रचनावली भाग- 8 पृ-448
8- पृ 45
9-रचनावली -8 पृ- 273
10-रचनावली -8 पृ- 198
11-प्रेमचन्द घर में पृ-192
12- वही- पृ-192-193
13- कलम का सिपाही पृ- 433
14-वही- पृ- 434
15- वही-पृ 434
16-कलम का सिपाही पृ- 242
17-प्रेमचन्द- घर में पृ 45-46
18-4,सितंबर 1933,जागरण, रचनावली-8 पृ 425
19-जागरण 3 जुलाई 1933
20-रचनावली-भाग-9 पृ-106
21-वही पृ-106 हंस, मई 1934
22-वही पृ- 525
23-रचनावली भाग-7 पृ-101
24-कलम का सिपाही पृ- 44
25- कलम का सिपाही पृ43-44
26- वही
27-http://www.tadbhav.com/2005/priti_chaudhary/
http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2005/07/050729_premchand_mahadevi.shtml

गुरुवार, 11 जून 2009

नगाड़ा बजा

गा ड़ा न गा ड़ा...नगाड़ा ब जा
रंजना अरगडे
नगारा..नगारा.....नगारा ........बजा क्योंकि हम अब एक नए मैजिकल वर्ल्ड में जी रहे हैं जहाँ सब कुछ पल भर में घटित हो जाता है। लोक और सामाजिक व्यवहार तो क्या नैतिकता तक हमारे देखते ही देखते, हमारी मानो रज़ामंदी लेते हुए, हमारे ही सामने अ-नैतिकता की सीढ़ियाँ चढ़ जाती है। हमारी ही लोक-परंपरा की दुहाई देते हुए हमें यह समझा दिया जाता है कि समाज और लोक-साहित्य तक में तो ऐसा ही होता है। वरना क्या हम जीजा-साली के रिश्ते का करुण अंजाम बयाँ करने वाले किस्सों से अवगत नहीं हैं क्या ? बहन का जापा कराने आयी छोटी बहन कब उसी की सौत बन कर अपने और बहन के बच्चों को एक ही घर में बड़ा करती , क्या हमारी जानकारी में नहीं है। माता-पिता का बोझ, उनकी कुल मर्यादा, बेटी की मजबूरी और पुरुष के अ-संयम के इस अनिच्छनीय परिणाम को तब भी हम ख़ुशी-ख़ुशी तो स्वीकार नहीं ही करते रहे थे। पर अब एक कामोत्तेजक स्प्रे इस सारे करुण और दुखद परिवेश की ऐसी-तैसी करते हुए सारी के पैर में मोच ला कर वह कर देता है, एक जबरदस्त ग्लैमर के साथ कि हमें यह लगने लगता है कि ‘ अच्छा ! इस हमारी जादुई दुनिया में कितना सरल हो गया है सब कुछ! अब एकाधिक लड़कियों वाले माँ-बाप को चिंता की ज़रूरत ही नहीं है। दहेज में लड़की को ये ऐसे स्प्रे दे दें, तो दूसरी शादी का खर्च भी बच जाएगा।
कष्ट झेलना, श्रम करना और प्रतीक्षा करना ... ये सारे कार्य और मूल्य अब बे-मानी हो गए हैं। सब कुछ चट-पट; फटाफट। अब डॉक्टरों की क्या ज़रूरत है, आपके बालों की रूसी से ले कर दाँतो और चेहरे तक की चमक .. मिनटों में आ जाएगी। अब माता-पिताओं को न चिंता करने की ज़रूरत है न विद्यार्थियों को श्रम... कि मेडिकल में एडमिशन मिलेगा या नहीं। क्यों खून जलाया जाए... इस ग़रीब(?) जनता को आपकी क्या ज़रूरत है!

अच्छा काम और अच्छे परिणामों , नौकरी या परीक्षा में अ-कल्प्य सफ़लता के लिए एकाध पावडर या सेलफोन या किसी अच्छे पेन की ज़रूरत है यह अगर मुझे पता होता तो कितना भला हो जाता मेरा। मुझे अपने उस जले हुए ख़ून के क़तरों पर दया आ रही है जो मैंने अपने बेटे को सु-लेखन करवाने के लिए जलाए थे। उन वस्तुओं के मूल्य को मैंने नहीं पहचाना जो आज का हमारा जादुई विश्व बन चुकी हैं।
ग़ुज़र गया वो ज़माना....ऐसा...कैसा..कि जिसके किस्से-कहानियों में रही जादू की छड़ियाँ पल भर में दुनिया बदल देती थीं कहानी के किरदारों की। उड़ती हुई चटाई या जादुई चराग़ भोले ईमानदार किरदारों को मिलता था, मीनारों में बंद सुन्दर राजकुमारियाँ संघर्ष करने वाले, कष्ट झेलने वाले वीर पुरुषों को मिलती थीं। पर अब तो यह सब 10, 20, 50, 100 1000......आदि आदि रुपये.
खर्च करने पर कोई भी पा सकता है।
हृदय तो अब रहा नहीं, आत्मा की बात ब्रह्म जाने, पर शरीर को स्वस्थ और सुंदर बनाने की ताबड़-तोड़ कोशिश और दौड़ इसके पहले शायद ही देखने को मिली हो। इतने सारे जिम हर शहर में खुल गए हैं कि ले मार की मार भीड़ उसमें जा रही है। बगीचों की उपयोगिता और उद्देश्य बदल गए हैं। छोटे-बड़े शहरों का हर बग़ीचा सुबह-शाम जवानों और बूढों से पटा नज़र आता है। बड़ा अच्छा लगता है कि स्वास्थ्य के प्रति ऐसी अ-भूत पूर्व जागरुकता !!! धन्य हो, मेरा भारत महान ! जय हो !
पर आप जैसे ही दौड़ना शुरु करेंगे आपको पता चलेगा कि वहाँ लोग अपना व्यवसाय बढ़ाने आते हैं। बीमा के शिकार वहीं मिलेंगे, फिर तरह-तरह के क्लासेस हैं- और कितना कुछ । ग्राहक भी बनते हैं और स्वास्थ्य भी। और समय के साथ दौड़ने का अहसास भी। इसीको कहते हैं ‘आम के आम गुठलियों के दाम !’
हमारी एक साथिन हैं- चाँद बहन शेख। उन्हें समय के साथ रहना ही नहीं आता । अब यहाँ दौड़ ज़ीरो फिगर की लगी हुई है और वे लड़कियों को सु-पोषित देखना चाहती हैं। आज की जवान होती लड़कियों को भविष्य की पीढ़ी को जन्म
देना है और ये ज़ीरो फीगर में खोई लड़कियाँ भूल रही हैं कि इतने कमज़ोर शरीर से वे कैसी संतानों को जन्म देंगी? और वे संतानें हमारे देश की क्या तो रक्षा करेंगी और क्या तो उसका विकास करेंगी। और फिर इस वस्तुओं से भरी जादुई दुनिया की चीज़ें खा-खा कर उनमें कौन-सी ऐसी ताक़त आ जाएगी... ।
पहले तो स्त्रियाँ सामाजिक और व्यवस्था-गत कारणों से कु-पोषित थीं। ( पर जच्चा का तो फिर भी ख्याल रखा ही जाता था, अमूमन) पर अब तो भरे-पूरे घरों की लड़कियाँ भी अपनी मर्ज़ी से कु-पोषित/ अ-पोषित रहना चाहती हैं और यह जादुई दुनिया उन्हें अपनी ही बहन की सौत बनाने के लिए प्रेरित कर रहा है।
आज का मंत्र तो यही है कि-

नैतिकता की खूंटी पर
भौतिकता की झोली,
मारो ईश्वर को गोली !

पर मेरा पिछड़ापन कहता है कि बाबा प्लेटो कहीं- न-कहीं तो आज भी प्रासंगिक हैं।


मंगलवार, 9 जून 2009

महादेवी : आधुनिक मीरा ?

महादेवी : आधुनिक मीरा ?

उपाधि-प्रिय इस समाज में यह कोई आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए कि महादेवी जैसी अत्यन्त जागृत और ऊर्जा-संपन्न रचनाकार को मध्य काल की क्रांतिकारिणी भक्त कवयित्री का बिरुद दे दिया गया हो। फिर वैसे भी यह मानव-सहज ही माना जाना चाहिए कि हम अपने वर्तमान की पहचान अपने भूतकाल के संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में करें ।
सन् 2007 महादेवी का जन्म-शताब्दी वर्ष है। यह एक अच्छी बात है कि समय का प्रवाह अपने नियम से चलता है और पीढ़ियां भी बदलती रहती हैं, अतः आज 100 वर्षों बाद हम नए सिरे से उन रचनाकारों पर सोच सकते हैं जिनका मूल्यांकन या तो सीमाबद्ध हुआ हो, या अधूरा हुआ हो अथवा जिनकी सिरे से उपेक्षा हुई हो। यह सही कहा गया है कि समय की छलनी तय करती है कि कौन-सा कवि , कलाकार अथवा चिंतक समय के प्रवाह में बचा रह सकेगा।
निश्चित रूप से महादेवी की उपेक्षा तो नहीं ही हुई है और महादेवी को पसंद करने वालों की संख्या भी कम नहीं है, परन्तु महादेवी का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है। महादेवी को आधुनिक मीरा कहने वाले उनका सम्मान ही करना चाहते होंगे ऐसा मान लेना चाहिए। फिर आम जनता में भी तो मीरा की छबि बड़ी सम्मानीय है।
ऐसा कहना सतह पर गलत भी नहीं लगता क्योंकि मीरा की तरह महादेवी ने भी घर-संसार के प्रति विरक्ति दिखाई, किसी रहस्यमय प्रीतम, जो तम के पार रहता है, जिसे तम के पर्दे में आना भाता है, जिससे प्रेम भी किया जा सकता है और प्रेम-भरा झगड़ा किया जा सकता है इत्यादि, के प्रति अपनी भावना व्यक्त की है। मीरा का प्रियतम रहस्यमय तो नहीं था पर अ-लौकिक अवश्य था। और यह भी तो हो सकता है कि महादेवी को मीरा के समान बता कर ऐसे, न समझ में आने वाले प्रेम को एक फ़्रेम में आलोचक मढ़ देना चाहते हों और अपने कर्तव्य की इति-श्री कर देना चाहते हों कि भई लीजिए, हमने तो न्याय कर दिया है।
पर यह कैसा न्याय ? न्याय तो व्यक्ति की सही पहचान करके ही किया जा सकता है। आप देखिए, कि इस आधुनिक मीरां वाले बिरुद को अब आधी शताब्दी से ऊपर हो गया और उस पर पुनर्विचार करने की प्रक्रिया अब जा कर आरंभ हुई है। घर-संसार की विरक्ति मीरा को कृष्ण तक ले जाती है और महादेवी को ले जाती है उस दिशा में जहाँ उनके समय की आम स्त्रियां अज्ञान तथा रुढ़ियों के झूठे बंधनों में बँधी एक दुःखमय, विषाक्त तथा विषण्ण जीवन जी रहीं थी। उनको जगाने तथा उनके लिए रास्ता बनाना तथा अपने समय की स्त्रियों को बेहतर जीवन मिले इस हेतु ठोस प्रयत्न करने का काम महादेवी ने किया। इसलिए ही ऐसा लगता है कि उनके व्यक्तित्व पर अलौकिकता तथा रहस्यमयता के परदे को जबरन डाला गया ताकि यह जो अधिक व्यापक प्रभाव वाली उनकी यह विशेषता दब जाए। वह बात, जो सामान्य स्त्री को उसके हक़ के प्रति जागृत करे वह अंततः तो समाज के लिए एक ख़तरा ही माना जाना चाहिए।
पर अब सौ वर्षों के बाद जब हम आकलन करने बैठते हैं, तो उन मुद्दों की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक हो जाता है जिनसे महादेवी के रचना-व्यक्तित्व की पहचान संभव हो सकती है। महादेवी ने कविताएं लिखीं, निबंध लिखे, रेखाचित्र लिखे, चिंतन किया और अपनी सोच को कार्यान्वित भी किया। यानी कि मन, बुद्धि तथा कर्म तीनों को सक्रीय रखा। प्रकृति ने प्राणी को मनुष्य के रूप में जिन महत्वपूर्ण अंशों से परिभाषित किया है उनका, उन सभी का उपयोग महादेवी ने किया है। मुझे नहीं लगता कि यह श्रेय उनके समकालीनों को तो क्या, पर बाद के दौर के रचनाकारों में भी किसी को दिया जा सकता है। यह वास्तव में मन, कर्म वचन की एकता के भारतीय मूल्य है का ही थोड़ा परिवर्तित रूप माना जा सकता है।
महादेवी वर्मा भारतीय परिदृश्य की प्रथम स्त्रीवादी चिंतक हैं ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। श्रृंखला की कडियां नामक पुस्तक में प्रकाशित उनके निबंध 1942 के पहले लिखे गए थे। वे आधुनिक भारत की प्रथम विमेन एक्टिविस्ट थीं इस बात में भी कोई संदेह नहीं है। लड़कियों के लिए खोला गया बालिका विद्यालय बाद में चलकर स्नातक कक्षा तक विकसित हुआ, इसी का उदाहरण है। स्वतंत्रता संग्राम की वे एक वीर सिपाही थीं, इसका प्रमाण उनके वे गीत हैं जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रभात-फेरियों के रूप में गाए जाते थे और जन-जन की ज़ुबान पर थे। जिस दलित विमर्श की बात करते-करते हम नहीं अघाते उसके उत्कृष्ट नमूने उनके रेखा-चित्रों में हमें देखने को मिलते हैं। भारतीय समाज, संस्कृति, शिक्षा- व्यवस्था, स्वतंत्र भारत में शासन का कर्तव्य आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनको महादेवी ने अपने चिंतनात्मक निबंधों में बहुत ही ओज-पूर्ण अभिव्यक्ति दी है। मीरा ने तो कृष्ण के अलावा किसी शब्द का उच्चारण भी नहीं किया पर महादेवी ने भारत माता की मुक्ति के लिए गीत रचे, बेहतर समाज रचना के संदर्भ में गहन चिंतन तथा कार्य किया। तब बिचारे आलोचकों द्वारा थोप दिए गए इस रहस्यमय प्रीतम का क्या हुआ होगा, यह सोचने की बात है। समझने की भी यही बात है कि महादेवी पर किसी रहस्यमय प्रीतम को मढ़ देना एक आसान तरीका था, उन को एक ओर रख कर भूल जाने का। क्या इसे हम पुरुष-सत्तात्मकता का षड्यंत्र कहें या उसका स्वभाव कहें या उसकी नादानी कहें या उसका घमंड़।
महादेवी के समकालीनों में सुभद्राकुमारी चौहान तथा निराला दोनों का उल्लेख करना आवश्यक है क्योंकि इन दोनों से उनका नैकट्य था। सुभद्रा जी तथा महादेवी में तो कुछ ही वर्षों का फ़ासला था। पर दोनों का काव्य-स्वभाव भिन्न था। निराला उनसे बड़े थे। दोनों के अंतर को एक वाक्य में इस तरह कहा जा सकता है कि निराला की काव्य-यात्रा ओज अर्थात् वीरता से करुणा की ओर गई है तथा महादेवी की करुण से ओज की ओर।
जिस दौर में महादेवी लिख रहीं थीं उस पूरे युग में महादेवी का स्वर सबसे अलग था। फिर चाहें वे सुभद्राकुमारी इत्यादि स्त्री-रचनाकार हों या निराला आदि छायावादी कवि हों। जितनी सीधी-स्पष्ट तथा अभिधा मूलक अभिव्यक्ति सुभद्राकुमारी समेत सभी स्त्री कवयित्रियों की थी उतनी ही व्यंजना सभर तथा रहस्यमय अभिव्यक्ति महादेवी की रही।
इस बात को कई तरह से समझा जा सकता है। मध्यकाल में ज्ञानमार्गी कवि रहस्यमय पदावली लिखते थे। उस समय स्त्री रचनाकार प्रेम के माध्यम से भक्ति के पथ पर चल रही थीं। रहस्यात्मकता ज्ञान का विषय है और स्त्री के लिए ज्ञान वर्जित था। महादेवी ने अपने समय में इस परंपरा को तोड़ा और जो अभिव्यक्ति अब तक पुरुष केन्द्री मानी गयी थी उसे महादेवी ने स्त्री-केन्द्र की तरफ मोड़ने का उपक्रम किया।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महादेवी अपने समय की सबसे अधिक पढ़ी-लिखी कवयित्री थीं। उन्होंने वैदिक तथा संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा इनमें रहे विचारों को काव्यानुभूति में ढालने का सफल प्रयास किया। जैसे-
न थे जब परिवर्तन दिन-रात
नहीं आलोक तिमिर थे ज्ञात।
व्याप्त क्या सूने में सब ओर
एक कंपन थी एक हिलोर।
बुद्धिगत विचारों को भावनात्मक अभिव्यक्ति देना भी एक तरह का उनका नारी विमर्श ही है, क्योंकि इस तरह वे स्त्रियों को सोचने के लिए ऐसे-ऐसे दरवाज़े खोल रहीं थीं जो बरसों पहले, यानी गार्गी, मैत्रेयी आदि के बाद से, लगभग बंद ही हो गए थे। महादेवी अपनी कविताओं के द्वारा पुरुष वर्ग को वशीभूत नहीं करना चाहती थी, बल्कि यह जता देना चाहती थी कि जिस ज्ञान तथा बुद्धि पर पुरुष गर्व करता है, उसे पाना स्त्रियों के लिए भी संभव है। इतना ही नहीं महादेवी द्वारा किए गए वैदिक ऋचाओं, थेर गाथाओं, कालीदास आदि के जो अनुवाद हैं, वे भी इस बात का संकेत देते हैं कि स्त्री अगर ज्ञान प्राप्त करेगी तो पुरुष की प्रतिस्पर्धी ही नहीं बल्कि उससे श्रेष्ठ साबित हो सकती है।
महादेवी की कविताओं में आए रुपक उनकी एक विशिष्ट पहचान बन गए हैं। स्त्री होने के नाते वे वात्सल्य के रूपकों द्वारा गहन दार्शनित बातों को समझाती हैं। जैसे-
तू धूल भरा ही आया
ओ चंचल जीवन बाल , मृत्यु जननी ने अंक लगाया।
निराला अगर तुम तुंग हिमालय श्रृंग लिखकर अपना समर्पण भाव व्यक्त करते हैं तो इसी तरह की कविता रच कर महादेवी कुछ भिन्न भाव व्यक्त करती हैं। वे असीम के द्वारा बाँधा जाना स्वीकार तो नहीं ही करती हैं पर साथ ही यह भी जता देती हैं कि वे असीम से भिन्न भी हैं। एक उदाहरण देखिए -
मैं तुम से हूँ एक, एक हैं जैसे रश्मि प्रकाश
मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न हैं जैसे रश्मि प्रकाश
मुझे बाँधने आते हो लघु सीमा में चुपचाप,
भिन्न कर पाओगे क्या कभी ज्वाला से उत्ताप।

महादेवी की सभी कविताओं की विशेषता यह रही है कि छंद-वैविध्य द्वारा उन्होंने अपनी रचनाओं को अनेक विध आयाम दिए हैं। यह वैविध्य भी कैसा, जो एक-सी लगने वाली करुणा को एक-सा होने से बचाती है। भाव की सूक्ष्म भंगिमाएं छन्द के इस वैविध्य के कारण प्रकट होती है।
उन्होंने एक ही प्रकार के काव्य-रूपक अलग-अलग भाव-बोध की कविताओं में प्रयुक्त किए हैं। इसीलिए रहस्यवादी कविताओं में दीप का काव्य-प्रतीक करुण का भाव जगाता है तो देश-भक्ति की कविताओं में वही काव्य-प्रतीक वीर का भाव जगाता है। उसी तरह अश्रु और वीणा के काव्य-प्रतीक उनकी प्रचलित कविताओं में जहाँ मधुर वेदना तथा करुणा की अभिव्यक्ति देते हैं, वहीं देश-भक्ति की कविताओं में ये प्रतीक अस्वीकार और संघर्ष का भाव प्रकट करते हैं। महादेवी का यह काव्य-कौशल इस बात को रेखांकित करता है कि काव्य में उपमान संदर्भों से ही नए अर्थ पाते हैं, उनका कोई स्थाई काव्यार्थ नहीं होता।
महादेवी के कुल पाँच काव्य-संग्रह हमें प्राप्त होते हैं - नीहार, रश्मि, नीरजा सांध्यगीत और अग्निरेखा। उनकी कुल काव्य रचनाएं पढ़ कर मन में कई प्रश्न जगते हैं। इसका कुछ श्रेय तो आलोचकों को जाता है, जिन्होंने महादेवी को केवल प्रेम, करुणा और रुदन की कवियित्री माना है। इस बात का इतना अधिक प्रभाव रहा है कि नयी दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन करने में भी कठिनाई पड़ती है। क्योंकि पुराने आलोचकों की धारणा तथा मान्यता सतह पर तो महादेवी की प्रशंसा ही प्रतीत होती है।
महादेवी के जीवन-प्रसंगों को देखें तो पता चलता है कि जिस स्त्री ने ज़िद करके आगे पढ़ने की इच्छा को कार्यान्वित किया हो, जो वैवाहिक जीवन को तिलांजलि दे कर दीवार फांद कर अपने घर लौट आई हो, तमाम विरोधों का सामना कर के जिसने संस्कृत का अध्ययन किया हो, जिसने नारी के कष्टों को महसूस कर उस पर लिखा ही नहीं बल्कि ठोस कार्य भी किया हो, वह अपनी कविता में किसी अनजान प्रियतम की प्रतीक्षा में रो-रो कर घुल कैसे सकती है? जो दीक्षा के क्षण को लांघ कर जीवन में लौट आई हो, वह निश्चय ही प्रभु की प्रेमाभक्ति में लीन हो कर कविता नहीं रच सकती! मेरा ऐसा मानना है कि प्रेम और करुण को वह भाव जो नारी सहज होता हैं उसको अभिव्यक्ति दे कर उन्होंने एक पूरे नारी वर्ग की भावनाओं को वाचा दी है। इसे महादेवी के निजि प्रेम की अभिव्यक्ति के उदाहरण मान लेने की भी आवश्यकता नहीं हैं, बल्कि इसे नारी वर्ग की आंतरिक भावनात्मक आवश्यकता के रूप में पहचाना जा सकता है जो महादेवी की कविता के द्वारा प्रकट होती है।
महादेवी समाज द्वारा स्वीकृत चौखटे में अँटने वाली स्त्री मेधा नहीं थी और यही कारण है कि उनके चिंतनात्मक पक्ष की वर्षों तक अवहेलना तथा उपेक्षा हुई। स्त्री-मेधा के प्रति हमारे पुरुष सत्तात्मक समाज द्वारा लिया गया यह एक मौन निर्णय है।
आज भी अपनी बात अपने ढंग से कहने वाली स्त्री समाज को नहीं सुहाती तो उस समय कैसे सुहाती भला।

शुक्रवार, 22 मई 2009

Translation as Knowledge itself

Translation as Knowledge itself
रंजना अरगडे

हम लोग एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ हर चीज़ को देखने का हमारा नज़रिया बदल गया है। ज़ाहिर है इस बदलाव के लिए कई बातें ज़िम्मेदार हैं। मध्यकाल से आधुनिक काल में आना यानी विश्वासों, मान्यताओं एवं अंधविश्वासों से तर्कबद्धता और वैज्ञानिक विश्वासों की ओर जाना। नई खोजों के फलस्वरूप हमने अपने चारों तरफ़ की दुनिया और उसकी तब तक हासिल की गई जानकारी के बारे में कुछ ऐसी तब्दीली पाई, एक ऐसा नया संदर्भ जुड़ते हुए देखा, जो हमें पुराने समय से खींच कर एक नए समय में ले आया। धर्म, राजनीति तथा समाज-व्यवस्था की चली आती मान्यताएं इस कारण बदल गई कि अवकाश, पृथ्वी, जल, जीवन का एक नया सत्य हमारे सामने उजागर हुआ। इसके फलस्वरूप हमारी जीवन-पद्धति को हमने एक नई पीठिका पर खड़ा पाया। आज तक जिसे हम पूर्व जन्म के कर्म और भोग मानते थे वह वास्तव में शोषण की विभिन्न स्थितियां हैं- यह अब हमारी समझ में आ गया। व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार के कारण उसके अवचेतन की गहराई में छिपे होते हैं और पृथ्वी की हलचलों और हरकतों के लिए अवकाश मंडल और उसकी व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है, कारणभूत है – यह तथ्य भी हमारी समझ का हिस्सा बना। दुनिया भर के देशों, उनके लोगों, उनके साहित्य, कला, चिंतन आदि में उन्हीं सब कारणों से परिवर्तन हुआ; लेकिन सामाजिक ढाँचे में, उसकी संरचना में कोई मौलिक परिवर्तन या बदलाव नहीं आया। किन्तु समाज का स्तरीकरण इतना चुस्त हो गया कि नई संरचना तथा नए ढाँचे की खोज अवश्यंभावी हो गई।
सन् 1980 के आसपास विश्व समाज नए ढाँचे में आकार लेने लगा। हालाँकि इसकी भूमिका सन् 1960 से बनना शुरु हो गई थी। अगर 20वीं शती का महदांश विज्ञान और विचारधारा को समर्पित था तो उसके अंतिम दशक तथा नई शताब्दी का आरंभ नए सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के आकारी-कृत होने का माना जा सकता है। विचारधारा के स्थान पर विमर्श आए तथा शुद्ध विज्ञान तथा उद्योग का स्थान सूचना प्रौद्योगिकी ने ले लिया। जो अब तक परिधि में था केन्द्र में आ गया, आ रहा है। स्त्री, दलित, जन-जातियां, जीवनी आत्मकथा, अनुवाद, व्याकरण, भाषा-व्यवहार—आज सभी केन्द्र में है।
आज महत्व 'स्पेस' का है। पहले समय का महत्व था। पहले भूत और भविष्य महत्वपूर्ण था, अब वर्तमान महत्वपूर्ण है। यह वर्तमान अस्तित्ववादियों के 'क्षण' से अलग है। इस वर्तमान का अर्थ है- व्यक्ति का जीवन-काल( Complete Life-Time of a person)। भूतकाल पुस्तकों औ स्मृतियों में रह सकता है , भविष्य उम्मीदों और कल्पना में जगह पा सकता है, पर वर्तमान के लिए तो फ़िज़िकल स्पेस अधिक महत्वपूर्ण है। यह एक तथ्य है कि हमारे पास फिज़िकल स्पेस तो कम ही है। इस फिज़िकल स्पेस में अगर सब को जगह चाहिए तो या तो हम प्रदत्त स्पेस में एक और स्पेस निर्मित करते हैं या आभासित स्पेस बनाते हैं। वर्च्युएल स्पेस। इसका संबंध मायाजाल से है। अर्थात् इंटरनेट।
अनुवाद ने भी रचना के स्पेस में अपना स्पेस बनाया है। पहले अनुवाद रचना-घर का दरबान था, पर अब अनुवाद ख़ुद एक घर बन गया है। पहले अगर वह रचना-घर की केवल खिड़की था तो अब अनुवाद-घर की खिड़की वह ज्ञान है जिससे पूरी दुनिया में विकास की दृष्टि से परिवर्तन संभव हो सकता है। अब अनुवाद माध्यम न रह कर ख़ुद लक्ष्य बन गया है।
लगभग एक दशक पहले नॉलेज-ट्रांस्लेशन की परिकल्पना के बीज केनेड़ा में बोए गए। इसका संबंध मुख्य रूप से उनके स्वास्थ्य संबंधी विभाग से जुड़ा था। यानी हम कह सकते हैं कि अनुवाद के साथ ज्ञान शब्द तब से जुड़ा। लेकिन हम तो यह बात कर रहे हैं कि अनुवाद ख़ुद ज्ञान है। आज ज्ञान शब्द का एक केन्द्री-भूत निश्चित अर्थ है। ज्ञान यानी शक्ति और शक्ति यानी सत्ता। अतः जब हम अनुवाद को स्वयं ज्ञान अर्थात् नॉलेज इटसैल्फ कहते हैं, तब असल में हम अनुवाद को एक सत्ता के रूप में पहचानते हैं। सर्जनात्मक लेखन जैसे एक सत्ता है वैसे ही अनुवाद भी एक सत्ता है। राजकीय सत्ता साहित्य से या कहा जाए कला मात्र से भयभीत रहती हैं, ऐसा भूतकाल में कई बार हुआ है; क्योंकि कलाएं मनुष्य के मन को, उसकी सोच को बदलने की ताक़त रखती है।
पर अनुवाद के साथ स्थिति कुछ दूसरी है। अनुवाद देशों के आर्थिक-राजकीय विकास को बदलने और निर्धारित करने की सत्ता रखता है। वह विचारों को, संकल्पनाओं को एक देश से दूसरे देश में 'ले जाने' की ताक़त रखता है। यहाँ यह देखना रोचक होगा कि क्यों और कैसे अनुवाद एक सत्ता बन गया।
अनुवाद का व्यक्तित्व पहले दबा हुआ, सब्ड्यूड था। वह सर्जनात्मक लेखन की परछाईं था। स्रोत-पाठ के फ़्रेम-वर्क- चाहे वह भाव, भाषा या व्याकरण का हो-(उस) से वह बाहर नहीं जा सकता था। पहले उसका काम या तो धर्म-प्रचार था अथवा साहित्य-प्रसार। लेकिन नॉलेज ट्रांसलेशन की परिकल्पना के बाद वह देशों के आर्थिक तथा व्यावसायिक हित से जुड़ गया। वह धीरे-धीरे पत्रकारिता के आर्थिक हित का अभिन्न हिस्सा बन गया। हे तो यह माना जाता रहा था कि असफल सर्जक या तो समीक्षक बनता है या फिर अनुवादक। भारत जैसे बहु-भाषी देश में वह एक फालतू चीज़ की तरह कार्यालय में पड़ा रहा करता था। कार्यालय की उपयोगिता के कारण ही मुख्यतः धीरे-धीरे अनुवाद एक अलग विद्या-शाखा के रूप में विकसित हुआ। भारत में दक्षिण के लगभग सभी विश्व- विद्यालयों में आज 30 वर्षों से भी अधिक का समय हो गया होगा कि अनुवाद-प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यह राज-भाषा केन्द्रित होने के कारण हिन्दी की इसमें बड़ी भूमिका रही और हिन्दी का महत्व बना रहा। इसका सीधा-सादा मतलब यह हुआ कि यह मान लिया गया कि अनुवाद की तकनीक का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। अनुवाद सीखा जा सकता है। उसके लिए विशेष कुल-गोत्र में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है। पर यह केवल राज-भाषा तक सीमित रहा। शायद इसीलिए आज तक कई लोगों को यह ख़ुश-फहमी है कि बिना प्रशिक्षण के भी अनुवाद किया जा सकता है। साहित्यिक अनुवाद अवश्य किया जा सकता होगा ; क्योंकि यह उन साहित्य-सत्ता-केन्द्री लोगों की मान्यता रही है जो या तो स्वयं सत्ता थे या सत्ता के लिए भय अथवा लोभ का कारण, इसीलिए आदरणीय थे। तभी अनुवाद के अवसर भी कुछ ही लोगों तक सीमित रहे।
तकनीक जब विकसित हो जाती है तो लाभार्थी कोई भी हो सकता है। अनुवाद प्रशिक्षण की विकसित हुई तकनीक का वास्तविक लाभ आज मिल रहा है और वह कोई भी उठा सकता है। यह भी कह सकते हैं कि आज उसका इतना व्यापक महत्व समझ में आ रहा है। प्रशिक्षण के द्वारा अनुवाद तकनीक के सामान्यीकरण के फलस्वरूप आज अनुवाद सीमित हाथों से निकल कर व्यापक लोगों के बीच फैला है।
कुछ और कारण भी इसके लिए ज़िम्मेदार रहे हैं। भाषा-केन्द्री सोच- जो संरचनावादी और उत्तर-संरचनावादी समय की देन है, परिधि के केन्द्र में आने की घटना, आर्थिक उदारीकरण, मीडिया-विस्फोट ने अनुवाद के केन्द्र में ज्ञान को स्थापित किया। परिणामतः अनुवाद खुद ज्ञान यानी सत्ता बन गया। अनुवाद- प्रशिक्षण के कारण यह बात सामने आई कि विभिन्न प्रकार के अनुवादों के लिए विभिन्न प्रकार के कौश की ज़रूरत पड़ती है। यह ज़रूरी नहीं है कि रचनात्मक कृतियों का अच्छा अनुवादक समाज-शास्त्रीय पाठ का भी अच्छा अनुवादक हो; या वह वैज्ञानिक पाठ का अच्छा अनुवाद कर सकता है। इतना ही नहीं, जो प्रकाशन माध्यम का अच्छा अनुवादक होता है वह अनिवार्य रूप से मल्टी-मीडिया के माध्यमों में भी सफलता प्राप्त कर सके। अनुवादक के लिए केवल स्रोत-पाठ के विषय का ही ज्ञान होना ज़रूरी नहीं है उस माध्यम की तकनीक की भी जानकारी आवश्यक है जिसके माध्यम से वह अनुवाद कर रहा है। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण और प्रयत्न आवश्यक है। अब वह ज़माना लद गया कि मोटर तो ख़रीद ली है परन्तु उसका मैकनिज़म नहीं आता। आप देखिए, हर प्रोडक्ट के साथ उसका साहित्य आता है।
अनुवादक मुख्य रूप से पाठ की भाषा और उसकी संरचना से रू-ब-रू होता है। यह अंग बात है कि वह उसका आधार मूल-पाठ ही होता है – पर अनुवाद करने की प्रक्रिया तो सर्जनात्मक ही है। जिस तरह रचना के केन्द्र में संप्रेषणीयता होती है उसी तरह अनुवाद के केन्द्र में भी संप्रेषणीयता होती है। जैसे एक रचनाकार अनिवार्यतः दूसरे तक पहुंचने के लिए लिखता है उसी तरह अनुवादक भी दूसरे तक पाठ को पहुंचाने के लिए अनुवाद कार्य करता है। पाठ के चुनाव में ही उसकी रचनात्मकता का बीज छिपा होता है। तमाम पाठों को छोड़ कर जब वह एक विशेष पाठ को चुनता है- यही इस बात का संकेत है कि अनुवाद एक रचनात्मक कार्य है। वह एक अलग भाषा(लक्ष्य भाषा) की संरचना, व्यवस्था और व्याकरण में प्रवेश करता है। यानी कि ह एक समाज से दूसरे समाज में प्रवेश करता है। उसे अर्थ को स्थानांतरित तो करना है, पर अब जब वह जान गया है कि शब्द अर्थ की दृष्टि से अनेक-अंतीय होते है, जब अनुवाद-कार्य भी एक अलग अस्तित्व प्राप्त कर चुका होता है। पहले सब तय, तर्क-बद्ध, निश्चित था, अब सब वैसा नहीं रहा; अनेक-अंतीय और प्रवहमान हो गया। देखिए न, पहले बाजा अलग था, बाँसुरी अलग थी, वीणा अलग थी; अब सब एक ही सिंथेसाईज़र में मौजूद हैं- एक भी हैं और अलग भी। पहले बैठक और शयन-कक्ष अलग थे, अलमारी और मेज़ अलग थे; पर अब अलमारी का दरवाज़ा मेज़ का काम करता है।
मूल-पाठ में जिस तरह अनेक-पाठीयता संभव है, वैसे ही अनूदित-कृति में भी अनेक-पाठीयता संभव है। पर इस अनेक- पाठीयता का कारण कमज़ोर या गलत अनुवाद न हो कर भाषा की अपनी प्रकृति है जिसे उत्तर-आधुनिक समय में पहचाना गया है। यानी अनुवादक को लगाम हीन स्वतंत्रता नहीं मिलती परन्तु वह मूल-पाठ का जो भी अर्थ करता है, उसके अनुसार अनुवाद करने की स्वतंत्रता अवश्य मिल सकती है। अतः एक ही कृति के अनेक अनुवादों का मूल्यांकन करते समय जब सही और गलत का निर्णय किया जाता है अथवा मूल के सर्वाधिक निकट का आग्रह रखा जाता है तब उत्तर-आधुनिक दृष्टि यह प्रश्न-चिह्न भी लगाती है कि मूल वास्तव में क्या है? इसका कौन निर्णय करेगा? इससे एक केओस (अफ़रातफ़री) भी निर्मित होने की संभावना है। अतः जैसे काव्यार्थ विवेचन के लिए सहृदय तथा तद्विद् की आवश्यकता होती है वैसे ही अनुवाद-मूल्यांकन के लिए भी तद्विद् की आवश्यकता होती है।
उदार अर्थ-नीति के कारण समय की गति भी तेज़ हो गई। स्पर्धा बढ़ गई है। अतः यह ज़रूरी नहीं रह गया है कि अपनी भाषा में ज्ञान का निर्माण किया जाए। उसकी अपेक्षा अनुवाद के द्वारा निर्मित ज्ञान का निर्माण अधिक सरल और तीव्र गति से संभव हुआ है। इस दौर में अनुवादक जितनी अधिक भाषाओं को जानता है वह उतने अधिक समाजों तथा उनके लोगों की जानकारी रखता है। आज जो जितनी अधिक जानकारी रखता है उसके पास उतनी अधिक सत्ता है।
हमारे रीति-कालीन आचार्यों ने जब संस्कृत काव्य-शास्त्र को ब्रज में प्रस्तुत किया तब असल में उन्होने काव्य-शास्त्रीय ज्ञान का निर्माण हिन्दी में किया जैसे भारतेन्दु ने संस्कृत नाट्य-शास्त्र का निर्माण खड़ी-बोली में किया। एक सजग और अच्छा अनुवादक आज यह अच्छी तरह जानता है कि विकसित राष्ट्रों में क्या हो रहा है। उसका यह ज्ञान उसके अपने देश के विकास के लिए केन्द्रीय महत्व का बन जाता है।
तभी राष्ट्रीय ज्ञान योग ने भी अपनी रिपोर्ट में पहले स्थान पर पुस्तकालयों को रखा है और दूसरे स्थान पर अनुवाद को जगह दी है। यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि अनुवाद के लिए आयोग ने 250 करोड़ रुपये आबंटित किए गए हैं। राष्ट्रीय अनुवाद आयोग ने मुख्य चार हेतु निर्दिष्ट किए हैं-
1-अनुवाद प्रशिक्षण, 2- सूचना प्रसारण, 3- अच्छे अनुवादों को प्रोत्साहित कर उसका प्रचार करना तथा 4- मशीनी अनुवाद को बढ़ावा देना।
सूचना-क्रांति और सूचना-प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप आज मशीनी अनुवाद सबसे अधिक संभावना तथा चुनौती वाला क्षेत्र है। हिन्दीतर भाषी क्षेत्र अनुवाद-कार्य के लिए सबसे अधिक उपजाऊ माने गए हौं पर साथ ही उन्हीं क्षेत्रों में हिन्दी भाषा को सही-सही रूप में विद्यार्थियों तक ले जाने की ज़िम्मेदारी भी है। अतः हमें अनुवाद प्रशिक्षण की दिशा में बढ़ने के लिए अपनी(हिन्दी) भाषा, व्याकरण, उसकी संरचना और उसके विभिन्न व्यवहारों के प्रति – यानी कि कुल मिला कर भाषा प्रशिक्षण के प्रति गंभीरता से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

सोमवार, 18 मई 2009

उत्तर-आधुनिक समाज और साहित्य
रंजना अरगड़े

"हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमें अपने जीते-जी इस समय में आना पड़ेगा। जीना पड़ेगा । ऐसा भी कोई समय आ सकता है, इसका हमें अंदाजा भी नहीं था ":शमशेर बहादुर सिंह-( बाबरी ध्वंस के बाद)


मैं अपनी बात का आरंभ एक संभावना युक्त प्रश्न से करना चाहती हूँ। क्या ओबामा के अमरीकी राष्ट्रपति के रूप में चुना जाना उत्तर-आधुनिक समय की समाप्ति का आरंभ माना जा सकता है? संभवतः हाँ! अपने समर्थकों की भारी भीड़ की उपस्थिति में अन्य बातों के साथ-साथ ओबामा अपनी छोटी बेटी से वादा करते हैं कि उसके लिए वे मन-पसंद कुत्ता अवश्य खरीद देंगे और दूसरे दिन अख़बारों में यह सकारात्मक चिंता प्रकट होती है कि ओबामा एक ऐसे कुत्ते की खोज में है कि छोटी बेटी से किया गया वादा भी पूरा हो और बड़ी बेटी को एलर्जी भी न हो। ओबामा की जीत में उनकी पत्नी, नानी और बहनों के योगदान का भी अख़बारों में जि़क्र था।
ऐसा पहली बार हुआ। समग्र उत्तर-आधुनिक दौर अ-श्वेत के अस्मिता-संघर्ष का और अ-श्वेत स्त्री-संघर्ष की गाथाओं से भरा पड़ा है। ओबामा का संघर्ष जहाँ एक ओर अनेक अ-श्वेत पीढ़ियों के संघर्ष की फल-प्राप्ति के रूप में देखा जा सकता है तो दूसरी तरफ़ स्वयं ओबामा के अपने पारिवारिक संघर्ष की अमरीकी समाज द्वारा स-हर्ष स्वीकृति के रूप में भी देखा जा सकता है। अ-श्वेत की बौद्धिक, सामाजिक एवं राजनैतिक स्वीकृति का यह एक ठोस उदाहरण माना जा सकता है। बैल हूक्स( मूल नाम ग्लोरिया जीन वॉटकिन्स, 1952(ज) ) का नाम एफ्रो-अमरीकी बौद्धिक के रूप में सन् 1980 के आसपास उभरा। उसने उत्तर-आधुनिक समय में अ-श्वेत स्थितियों का बौद्धिक आकलन किया। उसकी दृष्टि में उत्तर-आधुनिक अ-श्वेतपन अन्यता (अदरनैस) और अन्तर(डिफरंस) के बोध में देखा जा सकता है। उसका यह अपना अनुभव रहा कि कैसे सभाओं में जहाँ श्वेत लोगों की अधिकांश उपस्थिति होती है, अश्वेत की सोच और चिंतन क्षमता को हास्यास्पद ढंग से देखा जाता है। पर आज सन् 2008 में उसे लगभग समाप्त का आरंभ मानना चाहिए क्योंकि ओबामा के पक्ष में सभी जाति और नस्लो के लोगों ने अपना मत दिया। यह एक जादुई चित्र की तरह है – श्वेत बुश के स्थान पर अ-श्वेत ओबामा और अ-श्वेत राईस के स्थान पर श्वेत हिलैरी स्थानापन्न हो जाती है। लेकिन निश्चय ही यह एक रात का जीदू नहीं है। सन् 1960 से जिस उत्तर-सरंचनावादी दौर में हम आए हैं उसे हम सन् 1980 के बाद मोटे तौर पर उत्तर-आधुनिक समय के रूप में जानते हैं।
लेकिन क्या हमारा समाज उत्तर-आधुनिक है? यह प्रश्न हमें इसलिए होता है कि हमारी अपनी मायावती जब अपने जन्म-दिन पर केक काटती है या हीरे के गहने बनवाती है तो हमारे अख़बार उसे अश्लील (वल्गर) मानते हैं। पश्चिमी समाज जहाँ उत्तर-आधुनिक समाज की समाप्ति के कगार पर खड़ा है वहाँ हम संभवतः उत्तर-आधुनिक संघर्ष के बीच में हैं। अभी परिधि पर के लोगों को अस्मिता संघर्ष के लिए लड़ना आवश्यक है। अतः हमारे यहाँ का महिला या दलित लेखन इसके पहले कि अपनी अस्मिता को पूर्ण रूप से उजागर करें हम उसे हश-हश की मुद्रा में सब चुपचाप समेटना चाहते हैं। अभी तो डॉ. धर्मवीर प्रेमचंद को सामंत का मुंशी कह ही रहे हैं पर तभी दलित अस्मिता का स्त्री अस्मिता के साथ ऐसा ज़बरदस्त टकराव हो गया कि डॉ. धर्मवीर हमारे लिए अछूत हो गए ; हमारे लिए यानी सत्ता एवं विचारधारा-केन्द्री दलितों और सवर्णों के लिए। हम अभी इस उत्तर-आधुनिक स्थिति के आरंभ में ही हैं। हम अभी विचारधारा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
वैश्विक संदर्भ में अवश्य ही मनुष्य समाज उत्तर आधुनिक समाज बन गया है। इसे हम इस रूप में देख सकते हैं कि आज का मानव समाज जितना अधिक संचार क्रांति से जुड़ा है उतना इसके पहले कभी नहीं था। संप्रेषण के इतने अधिक संसाधन और मनुष्य-मनुष्य के बीच इतना अधिक दुराव, झूठ, संशय और अकेलापन इतना अधिक कभी नहीं देखा गया।
मनुष्य मात्र को समान मानने वाले संघर्ष, आंदोलन, कानून आदि इस उत्तर-आधुनिक दौर की विशेषता है। इसका बयान तथा इसके प्रति लोक-मत खड़ा करने की क्षमता जितनी इस युग में देख जा सकती है, इतनी इसके पहले कभी नहीं थी।
धर्म, भाषा, संस्कृति के प्रति नए सिरे से समाजों और देशों में रुचि जागती हुई देखी जा सकती है। लेकिन इनके पीछे रही राजनीतिक एवं बाज़ार-केन्द्री दृष्टि इसके पहले नहीं थी।
मुक्त-बाज़ार और संचार-क्रांति का लगभग हमारे यहाँ एक साथ आगमन हुआ। अतः 1980 के बाद का समय अपने पहले के समयों की तुलना में एक अलग रूप में हमारे सामने प्रकट हुआ। यह अलग बात है कि साहित्य में इन का प्रवेश कुछ बाद में होता है। इस समय के आरंभिक दौर में अवसर एक बड़ी बात थी। सीमित हाथों एवं संस्थाओं से निकल कर अवसर ज़्यादा हाथों में पहुँचे। केवल सेवा-भावी अथवा सरकारी तंत्रों से हट कर अवसर ग़ैर-सरकारी संस्थानों में भी पहुँचे। विदेशी पूंजी कई स्रोतों से बहते हुए भारत की भूमि को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आप्लावित करती रही। एक तरफ़ अपने ढाँचे में सब को समा लेने का अंतर्राष्ट्रीय उपक्रम तो दूसरी तरफ़ अपनी पहचान के लिए संघर्ष की भूमिका बनाते जाति एवं छोटे राष्ट्रों के समूह कार्यरत हुए। अपनी पहचान को अपनी जाति की पहचान से मिलाते अ-श्वेत, दलित एवं नारी वादी और अपनी पहचान को अपनी ज़मीन से जोड़ते उत्तराखंडी, झारखंडी, छत्तीसगढी – यह सब एक ही समय में घट रहा है। जिन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का निर्माण विश्व-शांति एवं विकास पर केन्द्रित था वे संस्थाएं बली राष्ट्रों की राजनीतिक उपयोगिता के लिए व्यापक सहमति बनाते हुए काम करने लगी। परिभाषाओं को अपने ढंग से व्याख्यायित करने का इतना अद्भुत अवसर इसके पहले कभी नहीं आया। शब्दों के अर्थ तो हमेशा ही बदलते रहे हैं, परन्तु इसके पूर्व सच-झूठ को कभी एक ही भूमिका पर परस्पर का वेष बदलते किसी ने नहीं देखा होगा। मानों यह वही दुनिया है , परन्तु यह कोई और ही दुनिया है इसकी प्रतीति इस समय की सबसे बड़ी विशेषता है।
जिन बातों का हमने उल्लेख किया है उनके कारण समाज में क्या परिवर्तन आए और समाज के किन मूल्यों में बदलाव आया यह जानना और हमारे साहित्य में इसका प्रतिबिंबन कैसे हुआ यह जानना रोचक होगा। इसके लिए संभवतः साहित्य में उत्तर-आधुनिक विमर्श की भूमिका को समझना समीचीन होगा। स्वतंत्रता बाद के हमारे सभी वादों और विमर्शों की तरह, उत्तर-आधुनिक विमर्श भी पश्चिम के प्रभाव से हमारे यहाँ आया। उत्तर-आधुनिक विमर्श में जिन नामों का विशेष उल्लेख होता है वे प्रायः 1925-1952 के बीच पैदा हुए हैं –
गिल्स डिल्यूज़ (1925-1995), फेलिक्स ग्वातारी(1930-1992), ज़्याँ बॉद्रिलार्द,(1929) फ्रेडरिक जेम्सन(1934), जेराल्ड विज़नर (1934) बार्बरा क्रिश्चीयन,(1943) डॉन्ना हारावे, (1944), बैल हूक्स,(1952) ज़्याँ फ्रेंकोई ल्योतार्द, आदि।
इन रचनाकारों को पढ़ते हुए उत्तर-आधुनिक समाज का एक मुकम्मल चित्र हमारे सामने स्पष्ट होता है। फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार – आधुनिक का जन्म अगर साम्राज्यवादी पूँजीवाद का परिणाम था तो उत्तर-आधुनिक समकालीन ग्राहक-केन्द्री पूँजीवाद की रूपगत विचारधारा से वि-लक्षित की जा सकती है। अर्थात् हम साम्रज्यवाद से चल कर अब ग्राहक केन्द्री हुए। यूं अब यह नई बात नहीं है कि उत्तर आधुनिक को सर्व प्रथम वास्तुकला के संदर्भों से पहचाना गया। यहाँ महत्व दिए हुए स्पेस में अतिरिक्त स्पेस-निर्मिति का है। सन् 1980 के बाद हमारे यहाँ भी ऐसे मकान बनाने का प्रचलन हुआ जिसमें एक ही मंज़िल में एकाधिक मंज़िलों का आभास उत्पन्न किया गया। उत्तर-आधुनिक समय आभासी स्पेस-निर्मिति के समय के रूप में भी जाना जा सकता है। इस आभासी स्पेस-निर्मिति का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह दौर परिधि पर रहते कई सारे समूहों के लड़ने और अपना स्थान बनाने का है। इन्हीं समूहों को हम स्त्री, दलित, अश्वेत, जन-जातीय, ग्रे, लेस्बीयन आदि के नाम से पहचानते हैं।
ज़्याँ फ़्रेंकोई लियोतार्द उत्तर आधुनिक तथा आधुनिक के बीच अंत को तीन बिन्दुओं के जरिए अलगाते हैं। वे यूक्लीडियन मिथ को तोड़ कर नए आकारों की निर्मिति संभव बनाते हैं। यूक्लीडियन भूमिति में स्पेस को दो अथवा तीन आयामी माना गया है। जबकि फ़्रेंकोई लियोतार्द उत्तर-आधुनिक समाज में अनेक आयामी वास्तविकताओं का स्वीकार है। यहाँ मुझे एक बात जोड़नी चाहिए कि उत्तर-आधुनिक स्थितियों में हम केवल का, समाज-व्यवस्था, फ़िल्म, राजनीति, मीडिया या साहित्य तक ही सीमित न रहें, बल्कि इसमें विज्ञान को भी शामिल करना चाहिए क्योंकि उत्तर-आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि भी इसे स्वीकारती है। भौतिक-शास्त्र की चर्चित स्ट्रिंग-थियोरी भी उत्तर-आधुनिक है और वह भी बहु-अंतीय यथार्थ का समर्थन करती है। इसी String Theory के कारण विज्ञान-जगत में एक हलचल-सी मच गई थी।
इसी संदर्भ में यहाँ डॉन हारावे का विशेष उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि वह मूलतः विज्ञान की विद्यार्थिनी थीं; फिर उन्होंने भाषा और साहित्य का अध्ययन किया एवं जीव-विज्ञान तथा साहित्य का अन्तर्विद्याकीय विमर्श प्रस्तुत करने की कोशिश की। यों उत्तर-आधुनिक विमर्श अन्तर्विद्याकीय विमर्श बन जाता है। इस बात को आप इधर पाठ्यक्रमों की पहल में भी देख सकते हैं।
उत्तर-आधुनिक विमर्श को वास्तुकला के साथ-साथ समाज की विकास संबंधी अवधारणा के साथ भी देखने का प्रयत्न किया है। पिछली दो शताब्दियों से प्रचलित विकास की यह अवधारणा – कि- कला, तकनीक, ज्ञान और मुक्ति समग्र मानवता का विकास करेगी- का क्षरण हुआ। यह आधुनिकता की परियोजना थी। देखा यह गया कि विश्व-युद्ध, आर्थिक एवं राजनीतिक मुक्ति-गाथाएँ, विभिन्न प्रकार के मार्क्सवादी विचार- किसी के भी द्वारा समग्र मानवता का विकास नहीं हुआ। असल में आधुनिकता ने समग्र मानव-जाति को दो भागों में बाँट दिया। एक मानव-समाज वह था जो जटिलताओं की चुनौती से टकराता रहा और दूसरा वह जो जीवित रहने की आदिम स्थिति से जूझता रहा।
आधुनिकता में आँवागार्द की बड़ी महिमा थी। आँवागार्द- जो परंपरा, प्रचलन और स्वीकृति को नकारता हुआ-सा एकदम अलग नेतृत्व करता दिखाई पड़ता था। लियोतार्द ने इसी को तीसरा बिन्दु बताते हुए कहा है कि अब आँवागार्द मज़ाक़ और ठिठोली का विषय है। अब कोई आँवागार्द नहीं बनना चाहता। यह भूतकाल है। अब उत्तर-आधुनिक दौर में समूह का नेतृत्व है। फिर चाहे वे अ-श्वेत के हों, दलित के हों, ग्रे-लेस्बीयन के हों या स्त्रियों के हों। इसी बात को हम अपने यहाँ भी देख सकते हैं। हमारी ही मिली-जुली सरकार 1979 में आई थी। उसके बाद संभवतः एकाध अपवाद को छोड़ कर, एक पार्टी सरकार हमें आज तक नहीं मिली है।
उत्तर-आधुनिक समाज मुख्यतः अनुपस्थिति को दर्ज करता समाज है। जो अब तक अनुपस्थित था वह इस दौर में उपस्थित होने की प्रक्रिया में है। यह अंग बात है कि इस उपस्थित होने की प्रक्रिया में वह कई बार अपनी मुक्ति/स्वतंत्रता और व्यक्तिगत पहचान को खो देता है। पर जैसा हमने देखा कि कहीं-न-कहीं उत्तर-आधुनिक व्यक्तिगत पहचान को महत्वपूर्ण इस अर्थ में नहीं मानता कि यह विभिन्न समूहों के अधिकारों की, पहचान की लड़ाई एवं संघर्ष का समय है। बहरहाल। जेराल्ड विज़नर ने अपनी पुस्तक मैनीफैस्ट मैनर में सभ्य समाज में ज-जातीय अनुपस्थिति को प्रभावी ढंग से रेखांकित किया है। राष्ट्रीयता के नाम पर तमाम संस्कृतियां होम हों गई। इस उत्तर-आधुनिक दौर में इतिहास को देखने की दृष्टि भी परिवर्तित हो गई है। अब इतिहास को आधिपत्य की आभासी प्रतीतियों के रूप में देखा जा सकता है। इन आभासी प्रतीतियों में से एक है- जन-जातीय की उपस्थिति। अर्थात् अब हम इतिहास को एस तरह देखते हैं अथवा देख सकते हैं कि किस के कारण कौन अनुपस्थित हुआ। यानी कि हम कह सकते हैं कि अँग्रेज़ आधिपत्य के कारण भारतीय अनुपस्थित हुआ; पुरुष-वर्चस्व के कारण स्त्री अनुपस्थित रही; सवर्ण के वर्चस्व के कारण दलित अनुपस्थित रहा; राजनीतिक आधिपत्य के कारण जनता अनुपस्थित रही आदि आदि। इसी अनुपस्थिति से लड़ने के लिए उत्तर-आधुनिक समाज में छोटे-छोटे समान सामाजिक अथवा राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक अथवा बॉयोलॉजिकल समूह सक्रिय हुए हैं। इन्हें हम परिधि के लोग कहते हैं। उत्तर-आधुनिक समय इन्हीं की अभिव्यक्तियों का समय है।
यहाँ एक बात की और ध्यान दिलाना आवश्यक है कि उत्तर-आधुनिक समय अगर राजनैतिक एवं सामाजिक लघुमतियों की अभिव्यक्तियों का दौर है तो उसे समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि इस दौर की ये अभिव्यक्तियां अपने पूर्ववर्ती दौर से कैसे अलग थीं? डिल्यूज़ और ग्वात्तारी का कहना है कि काफ़्का ने सत्ता की भाषा में अपनी यहूदी लघुमति संस्कृति को चाहे अपनी कृतियों में प्रकट किया; पर इतना काफ़ी नहीं है। क्योंकि वह असल में सत्ता की ही भाषा में सत्ता की ही सोच को लघुमति संस्कृति से मिला कर लघुमति का साहित्य निर्मित करता है। डिल्यूज़ और ग्वात्तारी के अनुसार यहूदी होना ही काफ़ी नहीं है; यहूदी बना और बने रहना ज़रूरी है। इस परिप्रेक्ष्य में म हिन्दी समीक्षा की इस पहेली को संभवतः सुलझा सकते हैं कि दलित साहित्य और नारी साहित्य की परिभाषा में कौन-सा साहित्य शामिल किया जा सकता है। दलित या स्त्री होना काफ़ी नहीं है; वैसा होना, बनना और बने रहना ज़रूरी है। अगर हम दलित हैं, बनते हैं और बने रहते हैं तब हमारी संवेदना उत्तर-आधुनिक संवेदना मानी जा सकती है। प्रेमचंद के कथा-साहित्य के दलित और मनोहर श्याम जोशी के 'क्याप' का दलित इस मायने में अलग है। अमृत लाल नागर की निर्गुण को इस संदर्भ में देख सकते हैं। वह थी नहीं, पर बनी और बने रहने की उसने कोशिश भी की। पर यहाँ प्रश्न यह भी है कि प्रेमचंद या मनोहर श्याम जोशी या अमृत लाल नागर का दलित या जगदीश चंद्र का धरती धन न अपना का काली, ओम्प्रकाश वाल्मीक के दलित से क्या भिन्न नहीं होगा? उसी तरह डॉ हजारीप्रसाद का कबीर क्या डॉ. धर्मवीर के कबीर से अलग होगा?
अगर हम कुछ देर के लिए लौट कर ओबामा पर आएं, तो अब साहित्य के क्षेत्र में भी यह समझने का वक़्त आ गया है कि डॉ. धर्मवीर का कबीर जब तक सर्व-स्वीकृत कबीर नहीं बनता तब तक यहाँ उत्तर आधुनिक संघर्ष का आरंभिक काल ही बना रहेगा। यहाँ अभी उत्तर-आधुनिक की समाप्ति के आरंभ में देर है। हम असल में आज भी कई सारी शताब्दियों में एक साथ जीने वाले देश के लोग हैं।
काम के विषय में तथा काम-जन्य संबंधों के संदर्भों में डिल्यूज़ और ग्वात्तारी का कहना है कि लोगों की दृष्टि में हम काम के विजातीय वर्ग में चाहे आते हों, पर संभव है कि निजी तौर पर हम सजातीय हों और हो सकता है कि अंत में हम ट्रांस् -सैक्श्युलिटी की दिशा में जाएं। मनुष्य के अस्तित्व को लेकर रही इस मूल भावना के संबंध में उत्तर-आधुनिक समाज अपने पूर्ववर्ती समाज से काफी भिन्न है। यह वही समय है जब विश्व-भर में गे, लैस्बीयन एवं ट्रांस्सैक्श्युअल समाजों ने अपनी स्वीकृति तथा सामाजिक एवं राजनैतिक अधिकारों को ले कर संघर्ष किया था।
[i] भारत में भी इसका प्रभाव देखा गया। हिन्दी साहित्य में भी इसके कुछ उदाहरण मिल जाएंगे। राजकमल चौधरी का ‘मछली मरी हुई’ इसके आरंभिक उदाहरणों में गिना जा सकता है। आज अनेक फिल्मों में इस कथ्य को आ देख सकते हैं। इसकी संवेदना पूर्ण शुरुआत आप कुँवारा बाप में देख सकते हैं। आज फिल्मों में पुरुष चरित्रों द्वारा स्त्री वेष धारण करना आम बात हो गई है। पहले स्त्री की अनुपस्थिति के कारण नाटकों, लोक-नाट्यों में पुरुष, स्त्री किरदार निभाते थे। आज कहानी या प्लॉट के एक भाग के रूप में चाची 420 जैसी फिल्मों में यह बात एक नए अर्थ में देखी जा सकती है। डिल्यूज़ और ग्वात्तारी पश्चिमी समाज की वंश-वृक्ष की परिकल्पना को सिरे से नकारते हैं, क्योंकि उसमें स्त्री की उपस्थिति नहीं है। इसके स्थान पर वे ‘रिझोमेटिक चिंतन’ की दिशा में जाते है, जहाँ स्त्री का भी समावेश होता है - चाहे वह नैतिक/वैध संबंधों के कारण अथवा अनैतिक संबंधों के कारण परिवार से जुड़ती है। रिझोमेटिक –एक ऐसी वानस्पतिक परिकल्पना है, जिसका कोई निश्चित केन्द्र नहीं है और जिसके अनेक सिरे हो सकते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि आज इसी समाज में वेश्या, कॉल-गर्ल, रखेल से अलग लिव-इन संबंधों की स्त्री भी मौजूद है; जो न पत्नी है, न ही प्रियतमा। आज उसके भी वैध अधिकारों की बात उठ रही है। ‘रिझोमेटिक चिंतन’ यानी है की अपेक्षा ‘होना’ और ‘होते जाना’।
उत्तर-आधुनिक साहित्य में अर्थ को महत्व नहीं देते अपितु रचनाकारों को पढ़ते हुए वे उन बिंदुओं को खोजने की कोशिश करते हैं जहाँ रचनाकार सत्ता की संस्कृति से अपने को अलगाते हैं। यहीं से संभवतः एक अन्तर-पाठीयता का प्रवेश होता है। एक पाठ में दूसरा पाठ पढ़ना। परंपरागत पुरुष-पाठीय साहित्य में स्त्री-पाठीय शोषण और अधिकारों के बिंदु देखना। यही उत्तर-आधुनिक साहित्य दृष्टि है।
आज साहित्य के पाठ में मीडिया का अपना पाठ है। एक और जहाँ प्रेमचंद की ईदगाह कहानी में विज्ञापन का पाठ एक सकारात्मक पक्ष है वहीं महाभारत की द्रौपदी के अपमान प्रसंग को ऊनी कपड़ों के विज्ञापन में इस्तेमाल करना, साहित्य का विकृत मीडिया पाठ है। बहरहाल, हिन्दी में उस दीवार में एक खिड़की रहती थी (विनोद कुमार शुक्ल), कसप, क्याप (मनोहर श्याम जोशी), एक ब्रेक के बाद (अलका सरावगी का) हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक उदाहरण हैं। उत्तर-आधुनिक तक आते-आते हम यथार्थ की नई भूमि पर आ गए हैं। आदर्शवादी यथार्थ से चलते हुए प्राकृत यथार्थवाद, ऐतिहासिक यथार्थवाद, भौतिक यथार्थवाद, अति-यथार्थवाद और अब वर्च्युएल यथार्थवाद। आभासी यथार्थवाद का यह उत्तर-आधुनिक समाज, जीवन का वास्तव बन चुका है। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है और कोई चुनाव भी नहीं है; क्योंकि हम इस उत्तर-आधुनक समय में हैं, और हैं ही।

[i] यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है कि समाज के इन लोगों के वर्ग पहचाने गए। आधुनिक काल तक ये सब अकेले, अलग-थलग पड़े रहते थे। आधुनिक काल में जहाँ स्थापित समाज के सदस्य आँवागार्द बन कर अलग दिखने का प्रयत्न कर रहे थे, वहीं उत्तर-आधुनिक समय में उपेक्षित अ-पहचाने ये अलग-थलग पड़े लोग समूह बना कर अपनी पहचान स्थापित करने में लगे थे।

शुक्रवार, 15 मई 2009

स्वाधीनता और साहित्य

स्वाधीनता और साहित्य
डॉ. रंजना अरगडे
(पराधीन मृतवत् होते हौं और उन्हें सपने में भी सुख नसीब नहीं हो सकता।)
स्वाधीनता और साहित्य विषय पर काम करते हुए मुझे सर्वप्रथम पराधीनता संबंधी विवेचन ही मिला। तो मुझे यह लगा कि कहीं आचार्य भरत की तरह तो नहीं, कि जो दोष नहीं वह गुण है, तो जो पराधीन नहीं वह स्वाधीन है! असल में शब्द-प्रयोग के संदर्भ में हम दिन-प्रति-दिन ग़ैर-ज़िम्मेदार होते जा रहे हैं। साहित्य के संदर्भ में स्वाधीनता की चर्चा में सहज ही सबसे पहले स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में लिखी गई रचनाओं का विचार ही आता है। इस आलेख में मैंने स्वाधीनता के मुद्दे को संकल्पनात्मक स्तर पर समझने और देखने की कोशिश की है।
इस संकल्पना पर सोचते हुए मेरे सामने तीन शब्द उजागर हुए। स्वाधीनता, स्वतंत्रता और मुक्ति।
[1] स्वतंत्रता में जहाँ निजी तंत्र तथा निजी प्रबंधन का बोध है, वहाँ स्वाधीनता में, तंत्र तथा प्रबंधन से हट कर, अपने अधीन होने का बोध है। मुक्ति बंधन की शर्त पर आधारित है। अगर आप बँधे हैं, तभी मुक्ति संभव है। लेकिन स्वाधीनता और स्वतंत्रता में ऐसी कोई पूर्व-शर्त नहीं है। स्वतंत्र होने पर भी हम स्वाधीन हों, यह ज़रूरी नहीं है। स्वतंत्र शासन में भी हम पराधीन तो हो ही सकते हैं। पर स्वतंत्र शासन में पराधीन होते हुए भी क्या हम मुक्त हो सकते हैं? संभवतः हाँ; क्योंकि स्वतंत्र शासन में पराधीन होते हुए भी सामाजिक और जागतिक संबंधों से/में मुक्ति का बोध एवं स्थिति संभव है। साहित्य अथवा कला की दुनिया एक ऐसी दुनिया है जहाँ शासन चाहे स्व-तंत्र या पर- तंत्र हो, व्यक्ति चाहे पराधीन ही क्यों न हो, वह मुक्ति का बोध तो प्राप्त कर ही सकता है।
सही अर्थों में स्वाधीनता ही साहित्य-सृजन को संभव बनाती है। एक स्वाधीन-मना लेखक के द्वारा लिखा हुआ साहित्य प्रवाह में बहती साहित्यिक गतिविधि से अलग ही दृष्टिगोचर हो जाता है। ऐसा लेखक क्या करता है? – वह अपने चारों तरफ की फ्रेम्स को, तय शुदा ढाँचों को तोड़ता है; सामाजिक रूढ़ियों की, भाषा, स्वरूप और शैली की। उसे अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने के लिए उपेक्षा, अपमान भी सहन करने पड़ते हैं, मरना भी पड़ता है। ऐसा करते हुए जो लेखक एक परतंत्र समाज में रहता है उसका संघर्ष स्वतंत्र समाज में रहने वाले लेखक से अधिक हो सकता है; पर स्वतंत्र समाज में रहने वाले लेखक का, स्वाधीनता के लिए किया गया संघर्ष भी कम नहीं होता। लेखक कई बार जाति-गत दबावों के अधीन हो जाता है तो कई बार विचारधाराओं के अधीन हो जाता है। हम अपने साहित्येतिहास पर दृष्टि डालें तो मध्य-काल की पूर्व-भूमिका के रूप में हमें धार्मिक साहित्य मिलता है। मैं नहीं जानती कि यह कहना कहाँ तक उचित होगा कि इसके अन्तर्गत जिन रचनाकारों ने लिखा वे पराधीन थे। इस पर विचार की आवश्यकता है। जैन या बौद्ध साहित्य की जिस कृति में नायक या नायिका के दीक्षा ले लेने के उपरांत कृति संपन्न हो जाती है, वहाँ यह कहना संभवतः उचित होगा कि लेखक स्वाधीन नहीं है; क्योंकि वह एक तय (धार्मिक) पद्धति में बंधा है। इसमें अपवाद भी हो सकते हैं। कवि जब किसी धर्म को स्वीकार कर लेता है तो उसका फ़्रेम-वर्क भी स्वीकार कर लेता है। हमारे यहाँ धार्मिक कविता और भक्ति कविता के अंतर को इस तरह समझा जा सकता है कि एक( भक्ति)में हमारे चारों तरफ़ दृश्य बना होता है या सतत बन रहा होता है, हम खुद उसका हिस्सा होते हैं; जबकि दूसरे( धार्मिक) में हम किसी चित्र में प्रवेश करते हैं और उसके ढाँचे में अपने को समाहित करते हैं। इस तरह धार्मिक कविता आपको एक तय ढाँचे के भीतर बाँधती है और भक्ति कविता ढाँचे के बाहर भी सोचने देती है, आपको मुक्त रखती है।
मध्य-काल के पूर्वार्ध में भक्ति साहित्य आता है। चाहे सूर का पुष्टि मार्ग हो या तुलसी-जायसी की अपनी दार्शनिक भूमिका- हमें कहीं ऐसा लिखा हुआ नहीं मिलता कि वे इस पथ पर किसी आग्रह के कारण ज़बरन चले थे। वे स्वाधीन थे। अगर कोई फ़्रेम-वर्क था, तो वह भक्ति का था- उसके चारों और बनती-घुलती एक बाह्य-रेखा का। लेकिन इस रेखा के बाहर भी वे स्वाधीन तो थे ही।
मीरा बाह्य रेखाओं के तमाम फ़्रेम-वर्क को तोड़ती है। वह सामाजिक बंधन में थी तो उसे तोड़ते हुए मुक्ति की तरफ़ जाती है। राज-तंत्र से स्व-तंत्र होती है। तत्कालीन किसी भी धार्मिक फ़्रेम-वर्क के भीतर रचना करती हुई नहीं दिखती। वह न कविताई के फ़्रेम-वर्क में है, न भक्ति के बाह्य-रेखा वाले फ़्रेम-वर्क में। वह न समाज-सुधार की हिमायत करती है न किसी अन्य धार्मिक मतवाद का विरोध या समर्थन ही। वह केवल अपनी बात अपने ढंग से कहती है। इस तरह पूरे मध्य-काल में वह एक अकेली आवाज़ है – जो सही अर्थों में स्वाधीन है। हम आज द्वारिका में हैं, हमें यह याद है कि मीरा जीवन के अंत-काल में यहाँ आई थीं। पर हमें यह भी समझना चाहिए कि यह स्वाधीन-बुद्धि से लिया गया उसका अपना निर्णय था। वृंदावन में जीव-गोस्वामी वाले प्रसंग के बाद वह वापस अपने घर न जा कर यहाँ आती है। अपनी सामाजिक और राजकीय बंदिशों से मुक्ति पाने के लिए उसने यहाँ आना अधिक श्रेयस्कर समझा। हम कह सकते हैं कि मीरा वह पहली कवयित्री है जो पॉलिटिकल एसायलम(Political Asylum) लेती है; वह भी गुजरात में! इस से एक बात तो रेखांकित होती ही है कि लेखक की स्वाधीनता में बाधा पहुंचाने में राज्य की अर्थात् राजनैतिक सिस्टम की भूमिका भी होती है।
यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगी कि राज्य की अथवा राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए जब रचनाकार लिखता है तब वह व्यापक उद्देश्य के लिए लिख रहा होता है। पर उसकी अपनी स्वाधीनता का संबंध वैचारिक स्वाधीनता के साथ-साथ कला एवं अभिव्यक्ति-पद्धति से भी जुड़ा होता है। जैसे शमशेर जी की कविताओं को अगर आप देखें तो वे एक ही समय में देश-भक्ति एवं निजी संवेदनाओं की कविता लिख रहे थे।
[2] कई बार रचनाकार राज्याश्रय से मुक्ति पा लेता है, पर काव्य-रीति से नहीं- जैसे घनानंद। यहाँ यह एक रोचक मुद्दा बनता है कि स्वाधीनता (का भाव) लेखक को साहित्य की नई अभिव्यक्ति एवं नए कला-रूपों की और ले जाती है।
स्वतंत्रता, अर्थात् किसी राजनीतिक तंत्र से मुक्ति के अर्थ में 1947 के पूर्व की रचानाओं को एक तरह से हम पॉलिटिकल रचनाओं का हिस्सा मान सकते हैं। साथ ही उस समय सामाजिक बंधनों की रूढि़यों से मुक्ति की रचनाएँ भी लिखी गईं।
स्वतंत्रता का यही भाव आधुनिकता के संदर्भ में व्यक्ति के साथ जुड़ जाता है।
अज्ञेय की कविताएँ व्यक्ति-स्वातंत्र्य की कविताएँ इस अर्थ में हैं कि भीड़ और समाज के बीच व्यक्ति की अपनी हस्ति को वे रेखांकित करती हैं। अज्ञेय में स्वाधीनता का भाव इतना सघन था कि आगे चल कर वे एक तरह की कलात्मक या रचनात्मक आध्यात्मिकता और फिर भारतीयता की ओर मुड़ते हैं। ठीक यही स्थिति बाद में हमें निर्मल वर्मा में दिखाई पड़ती है। अज्ञेय व्यक्ति-स्वातंत्र्य से लेखकीय स्वाधीनता की तरफ़ जाते हैं और निर्मल विचारधारात्मक बंधन से मुक्ति की तरफ़ जा कर लेखकीय स्वाधीनता में विराम पाते हैं।
असल में विचारधारात्मक स्वतंत्रता के चुनाव पर जब भी राजनीतिक दबाव पड़ता है, तब विचारधारा बंधन में परिणमित हो जाती है। अभी समय इतना नहीं बीता है कि कोई मूल्यांकन किया जा सके, अतः कोई निर्णय देना ठीक नहीं है। पर यह एक गंभीर सोच का मुद्दा है कि विचारधारा अपनी दार्शनिक एवं वैचारिक भूमिका पर जब लेखक को प्रभावित करती है तब वह ऑक्सीजन का काम करती है, पर जब उस पर राजनैतिक पार्टी का दबाव पड़ता है तब स्वाधीन-मना लेखक ठीक दूसरे सिरे पर निकलते हुए दिखाई देते हैं।
उत्तर-आधुनिक समय तक आते-आते विशिष्ट समूहों की स्वतंत्रता और मुक्ति प्रमुख हो जाती है। इसका संबंध विशुद्ध राजनैतिक अधिकार एवं अस्तित्व से जुड़ा है, अतः यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ एक समूह-विशेष का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष-रत होने से जुड़ा हुआ हम देखते हैं। यहाँ तक आते-आते परिधि पर के सारे समूह राजनैतिक अधिकारों को प्राप्त करने की प्रक्रिया में बंधन से मुक्ति की तरफ़ जाते भी दिखाई पड़ते हैं। यहाँ राजनैतिक हथियार से सामाजिक मुक्ति को प्राप्त करने का उपक्रम है। पूर्व-स्वातंत्र्य-काल में साहित्यिक एवं कला तथा विचार-गत हथियार से राजनैतिक स्वतंत्रता का संघर्ष संपन्न हुआ। अतः आधुनिक साहित्य जहाँ भद्र-वर्ग की स्वाधीनता का साहित्य है, वहीं उत्तर-आधुनिक साहित्य जन-समूह की सामाजिक मुक्ति एवं राजनैतिक अधिकार का साहित्य है। यहाँ स्वाधीनता नहीं है, क्योंकि व्यक्ति-स्वातंत्र्य नहीं है। समूह के साथ रहने की अनिवार्यता है। दलित/ नारी-वादी रचनाकार राजनैतिक रूप से स्वतंत्र एवं सामाजिक रूप से मुक्त भी होंगे; पर वे स्वाधीन हों यह ज़रूरी नहीं है।
विचारधारा और विमर्श का साहित्य अगर मूल दार्शनिक विचार से प्रभावित नहीं है तो प्रश्न हो सकता है कि उसका रचयिता कितना स्वाधीन-मना है। पर स्वाधीन-मना रचनाकार जब विचारधाराओं को आत्मसात करता है, तब वह काल से होड़ लेता हुआ साहित्य रचने की क्षमता रखता है। विभिन्न दार्शनिक प्रभावों से युक्त हमारे भारतीय आचार्य और विचारधारात्मक प्रतिबद्धता से हट कर लिखने वाले पश्चिमी विचारकों के सिद्धांत आज भी इसीलिए महदांश में ग्राह्य हैं क्योंकि वे उन आचार्यों एवं चिंतकों की स्वाधीन बुद्धि की उपज है।
तुलसी दास निश्चय ही वर्णाश्रम धर्म के समर्थक साहित्यकार हैं- पर फिर भी उनके लेखन में लेखकीय स्वाधीनता के उदाहरण मिल जाएंगे। एक मार्मिक उदाहरण उमा-शिव के विवाह के बाद का है। हिमालय और मैना जामाता शिव से वह सब कुछ कहते हैं जो एक लड़की के माता-पिता को कहना चाहिए। मैना यहाँ तक कह देती है कि मेरी बेटी को दासी बना कर रखना और उसके समस्त अपराध क्षमा करना क्योंकि हमने उसे बड़े प्यार से पाला है और वह हमें अत्यन्त प्रिय है। फिर मैना अपनी बेटी उमा से पति को ही सर्वस्व मानने का उपदेश भी देती है। यहाँ तक सब वैसा ही है जैसा कि आम तौर पर होता है। पर फिर तुलसी दास की उक्ति देखिए- का विधि रचि नारी जग माहिं/ पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं । यह उन तमाम सामाजिक रीति-रिवाजों एवं आप्त कर्तव्यों के बीच कही गई उक्ति है जो तुलसीदास की स्वाधीन सोच को दर्शाती है। व्यक्ति पराधीन तभी होता है जब वह अपने जीवन-यापन पर अन्य पर अवलंबित होता है। ऐसे लोगों को हितोपदेश में मृतवत् कहा गया है।
इसका अर्थ यह हुआ कि स्वाधीनता के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति को जीवन-यापन के लिए अपने संसाधन निर्मित करने चाहिए। अगर वह बंधा है तो स्वाधीनता के लिए अपमान उपेक्षा को सहने के लिए उसे तैयार होना चाहिए। सरकारी नौकरी करते हुए जो लिखते हैं- उन्हें इस प्रकार का अनुभव होगा। स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्राण भी देने पड़ते हैं और आप तब न शहीद की सूची में होते हैं न शोषित की- अधिक-से अधिक अ-व्यवहारिक एवं मूर्ख ही कहलाएंगे! इस उपाधि को ग्रहण करने की भी तैयारी रखनी पड़ेगी। विचारधारा या धर्म जब तक दृष्टि देता है, साहित्य स्वाधीन होता है। पर जैसे ही वहाँ दबाव या लोभ का प्रवेश होता है, वह बंधन का साहित्य हो जाता है।
तो इसका अर्थ यह होता है कि जो लेखक जीवन-यापन में स्वाधीन हो, किसी तंत्र पर अवलंबित न हो, किसी विचारधारा के दबाव में न हो वही स्वाधीन साहित्य का रचयिता हो सकता है। ऐसे रचनाकारों की गिनती किसी भी साहित्य में कम ही होती है।
जैसा कि मैंने पहले कहा मीरा का साहित्य स्वाधीनता का दस्तावेज़ है। वह किसी नए बने-बनाए ढाँचे (फ़्रेम-वर्क) को आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ती नहीं है। क्योंकि मीरा गाती भी है और नाचती भी है। यह स्वाधीनता जिसमें न जीवन-यापन का बंधन ह, न धर्म और भक्ति के ढाँचों की परतंत्रता। भीतर की उद्दामता के साथ फूट कर निकला हुआ भाव व्यक्ति का अपना अनुभूत और अर्जित होता है। कबीर में जीवन-यापन की स्वाधीनता है, अतः कहीं से कहीं का दबाव नहीं है। इसको भी डांटा, उसको भी फटकारा। जाति संबंधी हीनता-भाव नहीं है- जो तत्कालीन समय और समाज उन्हें देता है। यह एक ज्ञात तथ्य है कि कबीर तक आते-आते भक्ति भद्र-वर्ग की बपौती नहीं रही थी – चाहे धर्म भद्र-वर्ग के अधिकार में था। लेकिन कबीर के हाथ में स्वाधीनता का दंड था !
निराला का साहित्य, स्वाधीनता के पीड़ा-दायक मगर ओज-पूर्ण संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है। उसके परिपाक का दस्तावेज-रूप है ‘सरोज-स्मृति’। निराला लगातार अभिव्यक्ति और शैली की नई राहें खोजते रहे। वे परतंत्रता और स्वतंत्रता दोनों ही स्थितियों में स्वाधीन थे, वे सामाजिक रूढ़ियों से भी मुक्त थे- उनका कथा-साहित्य इसका उदाहरण है। महादेवी आत्म-समीक्षा और आत्म-मूल्यांकन करते हुए साहित्य के रंगमंच पर पहली बार रक्त-मज्जा-त्वचा वाले स्व-मानी चरित्रों को उपस्थित करती है। किसी आवरण या वेष में नहीं। यह कहना पड़ेगा कि महादेवी में आकर स्वाधीनता का ज़मीनी विस्तार ठोस आकार ग्रहण करता है, और सांस भी लेता है। साहित्य में विचारधारा का प्रभाव हो, फिर भी स्वाधीनता अ-प्रभावित रहे – यह सरल नहीं है। लेकिन जब ऐसा होता है तब महादेवी का साहित्य मिलता है ; पर जब विचारधारा राजनैतिक दबाव बन जाती है तब श्रीकान्त वर्मा (जैसों) का साहित्य निर्मित होता है।
मुक्तिबोध में भी निराला की तरह ही स्वाधीनता का संघर्ष पीड़ा-दायक है। निराला में उसका परिपाक अगर सरोज-स्मृति है तो मुक्तिबोध में वह ब्रह्मराक्षस में तथा अँधेरे में के रक्त-स्नात पुरुष में देखा जा सकता है। आत्म-चेतस् की खोज में धमनियों तक को उधेड़ कर रख देना – अपने भीतर तक ऐसा द्वंद्व बहुत ही पीड़ा दायक और कष्टकर है।
पर स्वाधीनता यही मूल्य लेती है साहित्य और साहित्यकार से।
अज्ञेय के साहित्य में स्वाधीनता एक भद्र-वर्गीय डिप्लोमैसी के साथ आती है। वे नए ढाँचे बनाते हैं और नया अवकाश निर्मित करते हैं। जबकि शमशेर और निर्मल में वह, विचारधारा के दबाव से मुक्त होती हुई, एक रचनाकार की स्वाधीनता बन कर आती है। शमशेर अपने अंतिम समय में वेदों की तरफ़ मुड़ते दिखते हैं। उनके लिए साहित्य और स्वाधीनता खुद एक मूल्य है। साहित्य अपनी मूल्यवत्ता में सत्ता बनता है, तो अलग बात है। पर ये अज्ञेय की तरह आने वाली पीढ़ी के लिए साहित्य का कोई तय ढाँचा (फ़्रेम-वर्क )या बनाया हुआ अवकाश नहीं छोड़ते।
यहाँ आज अपनी बात मैं शूद्रक के मृच्छकटिकम् को याद कर के समाप्त करूंगी। मार्क्सवाद में डी-क्लास होने की बात आती है। इस नाटक में हम देखते हैं कि शूद्रक अपने शासकत्व से डी-क्लास हो कर अपनी स्वाधीनता का कैसा अद्भुत परिचय देता है। स्वयं राजा होते हुए भी शूद्रक अपने नाटक में यह प्रतिपादित करता है कि अत्याचारी राजा के विरुद्ध वेश्या, जुआरी, चोर, दासी, सामान्य जन- सभी विद्रोह करेंगे। शकार जैसे सत्ता-पक्ष के निंदनीय स्वजनों का कच्चा चिट्ठा खोल कर उसे हँसी का पात्र बताता है। वहीं परिस्थिति-जन्य दरिद्रता अपनी मूल्य-धर्मिता के कारण समाज में आदर पाती है। और प्रेम भी!
साहित्य चाहे राजा लिखे या संत अपनी सुबह को शाम से मिलाता रचनाकार लिखे या संपन्नता से संलग्न फ्री-लांसर, पर जिन में स्वाधीनता के गहरे हल्के रंग दिखाई देते हैं, उन का साहित्य मनुष्य को ऊँचाईयों की ओर ले जाता है। साहित्य में स्वाधीनता सर्जनात्मकता का पर्याय भी है और मूल्यांकन का मापदंड भी।

[1] लगभग साथ ही साथ इसके तीन अंग्रेज़ी पर्याय भी प्रकट हुए- Independence, Freedom and Liberty.
[2] होली रंग और दिशाएं तथा समय-साम्यवादी