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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

समय की नब्ज़ पर नासिरा शर्मा


साहित्य पर बात करना हमेशा ही एक ज़िम्मेदारी भरा काम होता है। आज जो छप रहा है उसमें हमारी रुचि का साहित्य कौन-सा है, इसे हर पाठक तय कर लेता है। हो सकता है, जो आज लोकप्रिय एवं चर्चित नहीं है, वह हमारी रुचि हो। वैसे लोकप्रियता अथवा चर्चित होना, कोई एकमात्र मापदंड नहीं है किसी भी साहित्य को परखने का। लेकिन हमें जिस प्रकार का साहित्य अच्छा लगता है, उसके अपने आधार भी होते ही हैं। आज कथा-साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। अच्छा और बहुत अच्छा से लेकर सामान्य तक। इसमें मुझे हमेशा ही नासिरा शर्मा का साहित्य बड़ा आकर्षित करता रहा है। नासिरा शर्मा के अलावा मुझे और भी अनेक रचनाकार अच्छे लगते हैं। परन्तु आज इस आलेख में नासिरा शर्मा के साहित्य पर चर्चा करने का उपक्रम है।
इस दौर में जब साहित्य, कला,विचार और भावनाएं सभी बाज़ार की चीज़ें बन गई हैं, ऐसे में इस बात की पहचान करना ही बहुत कठिन हो गया है कि जितना सब प्रकाशित हो रहा है उसमें सच्चा साहित्य कौन-सा है। किसे हम सच्चा साहित्य कहें। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि क्या आज सच्चे साहित्य जैसी कोई अवधारणा रखी जा सकती है ? जब मनोरंजन और बाज़ार- आज के युगबोध का वह केन्द्रीय आधार बन गया है जिसके अन्तर्गत नारी, दलित, संस्कृति, धर्म तथा राजनीति और पर्यावरण जैसे विषय-क्षेत्रों का समावेश किया जा सकता है ; इतना ही नहीं विचारधाराएं, संवेदनाएं तथा बौद्धिकता भी इसकी गिरफ्त में आने से अपने आप को बचाने में कई बार विवश अनुभव करती दिखाई पड़ रही हैं। जो चीज़ें हमारी शर्म और चिन्ता का विषय होनी चाहिए उन्हें हमने मनोरंजन बना लिया है। मानवता को शर्मसार करने वाली सभी बातों को हमने भौंडे संगीत और चमकदार पन्नियों में पैक करके बाज़र में रख दिया है और उसे खरीदते हुए हम गौरवान्वित अनुभव करते हैं; गौरव इस बात का है कि इस तेज़ गति बाजार के रोलर-कोस्टर में अब हम ख़रीददार की हैसियत तो पा ही गए हैं। ऐसे में वह साहित्य जो हमें मनुष्यता की ज़मीन से जुड़े रहने का बल देता है, क्रमशः कम होता जा रहा है। सच-झूठ की इस ज़द्दोज़ेहद भरी परिस्थिति में नासिरा शर्मा की रचनाशीलता हमारे लिए बड़ी अहम् हो जाती है।
नासिरा शर्मा का साहित्य उपन्यास और कहानी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उन्होंने हमारे समय के उन ज्वलन्त मुद्दों पर चिन्तन किया है जिससे हमारी सामाजिक संरचना, हमारी लोकतांत्रित सत्ता और हमारी संस्कृति प्रभावित रही है। औरत के लिए औरत तथा राष्ट्र और मुसलमान इसी तरह की उनकी दो पुस्तकें हैं। इधर स्त्री आत्मकथाओं की विपुल चर्चा हमारे यहाँ हो रही है , ऐसे में नासिरा शर्मा का लंबा लेख -जायज़ा तीसरी आँख से सरहद के आर पार का की उपस्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण साबित होती है। इस आत्मकथनात्मक लेखन में एक मुस्लमान बौद्धिक स्त्री के हिन्दु परिवार में विवाह होने के जो अनुभव हैं, वे अपनी अभिव्यक्ति के लिए ईमानदारी और साहस की अपेक्षा रखते हैं, जो नासिरा शर्मा के लेखन में सर्वत्र दिखाई पड़ता है। यह हमारा आज के यथार्थ का कलात्मक एवं वास्तविक अंकन है जो आए दिन अख़बारों के समाचार बनता है (हालांकि गलत कारणों से)। पर यह हमारी आज की ज्वलंत समस्या तो है ही। नासिरा शर्मा का यह विस्तृत आलेख बड़ा ही सकारात्मक है। असल में आज सकरात्मक लेखन की भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी सनसनीखेज़ लेखन की मानी जाती रही है। नासिरा शर्मा का लेखन इस बात की ओर हमारा ध्यान दिलाता है कि हमारा समाज आज़ादी के बाद क्रमशः संकीर्ण होता चला गया है।
इस लेख में एक स्थान पर वे लिखती हैं कि शाल्मली में जो सास का चरित्र आलेखित हुआ है, उसके मूल में उनकी अपनी सास का चरित्र ही है। शाल्मली उपन्यास में नासिरा शर्मा शाल्मली की सास के बहाने उस मुद्दे से भिड़ती हैं जो कि अक्सर नारी संबंधी चर्चाओं में उठता है कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है। नासिरा शर्मा के समग्र लेखन में से उभरता यह एक सकारात्मक नज़रिया उनके लेखन की विशेषता है। नासिरा शर्मा ने इराक़, अफ़ग़ानिस्तान तथा ईरान पर भी जो अध्ययन ग्रंथ लिखे हैं, वे उनके उस मिजाज़ और चिन्ताओं को प्रकट करते हैं जो हमारे समय के अन्तर्राष्ट्रीय बोध का एक अहम् अंश है। असल में नासिरा शर्मा हमारे समय के दर्दनाक़ मुद्दों की जड़ों और उनमें समाप्त होते मानव अधिकारों का अपनी रचनाओं के द्वारा अत्यन्त मार्मिक चित्रण करती हैं। औरत के लिए औरत पुस्तक एक तरह से शाल्मली तथा ठीकरे की मंगनी के सह पाठ के रूप में पढ़ी जा सकती है, उसी तरह ज़िन्दा मुहावरे तथा अक्षयवट- ये दोनों पुस्तकें राष्ट्र और मुसलमान का सहपाठ बनती हैं। सात नदियाँ एक समंदर, तथा इब्ने मरियम (कहानी संग्रह) के कुछ अंश उनके ईरान संबंधी अध्ययन लेखों का सहपाठ बन जाते हैं। संगसार, पत्थर गली आदि कहानी संग्रह मानव अधिकारों के प्रश्नों को बड़ी शिद्दत से उठाते हैं। मानव अधिकारों के प्रश्नों को सीधे-सीधे उठाने वाले साहित्य में नासिरा शर्मा की भूमिका अग्रणी मानी जा सकती है। आज के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृश्यपटल पर मानव अधिकारों का मुद्दा सिर चढ़कर बोलता है। नासिरा शर्मा का अपने साहित्य में इस तरह के मुद्दों का पूरी गंभीरता से उठाना उनके निजि लेखकीय दृष्टिकोण का आलेखन करता है। वे एक तरह से प्रतिबद्धता के साथ लिख रही हैं। एक लेखक अपने आस-पास के समाज में फैली इन समस्याओं तथा मर्यादाओं को सिवा अपने लेखन के जरिए, और किस तरह प्रकट कर सकता है?! लेखक जो कुछ भी ग्रहण करता है अपने समाज से, अतः उसे केवल अगर कुछ लौटाना है तो समाज को ही- अलबत् बेहतर स्वरूप में।
नासिरा शर्मा के उपन्यास स्त्री, आज़ादी, विभाजन, भारतीय संस्कृति तथा पानी जैसे मुद्दों पर केन्द्रित हैं। सात नदियां एक समंदर ईरान के उस संघर्ष पर केन्द्रित है जिसमें आज़ादी को बचा लेने की ज़द्दोज़ेहद में वहाँ के बौद्धिकों को जिन तकलीफों का सामना करना पड़ा था, उसका विवरण है। आज़ादी के लिए दुर्निनिवार कष्ट सहन करती स्त्रियों को लेखिका ने जिस तरह प्रस्तुत किया है, उससे एक बात स्पष्ट होती है कि स्त्रियों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वही उनकी सामाजिक स्वतंत्रता का आधार बन सकती है। इस उपन्यास में कथा उस प्रदेश(देश) से संबंद्ध है जहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता के खतरे में पड़ने की अधिक संभवना बनी रहती है। इसे हम नारीवाद के आरंभिक मुद्दे से जोड़ सकते हैं जिसमें मताधिकार की बात केन्द्र में थी।
ठीकरे की मंगनी स्त्री के अपने स्पेस की बात करता उपन्यास है। स्त्री का अपना एक वजूद होता है और महरूख, जो कि उपन्यास की नायिका है, अपने निर्णय खुद लेती है। वह न अपने मंगेतर के पास जाती है और न ही अपने पिता के पास लौटती है, बल्कि नौकरी कर के अपनी आजीविका स्वयं कमाती है। महरुख के चरित्र को लेखिका ने जिस तरह विकसित किया है और उसका जो अंत भी किया है—उसे पढ़ कर यह कहा जा सकता है कि वह एक सुलझी हुई भारतीय सोच की लेखिका हैं। पश्चिम में अपने स्पेस के लिए संघर्ष करती स्त्री को अगर वर्जिनीया वुल्फ़ के अ रूम फॉर वन्स ओन के द्वारा पहचाना जाता है तो भारतीय संदर्भ में स्त्री किस तरह अपने स्पेस का निर्माण करती है, उसका उदाहरण ठीकरे की मँगनी की महरुख़ है। भारतीय मानस में जब अपनी ज़मीन, अपने स्थान के लिए स्त्री कोई निर्णय लेती है, तो निश्चय ही वह अपने परिवेश के अनुकूल ही होगा- देखा-देखी में किया गया नहीं- यह बात नासिरा शर्मा अपने उपन्यासों में लगातार रखती चलती हैं। जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया उनके उपन्यासों की विशेषता है। शायद पश्चिम की तुलना में भारतीय मानसिकता भी अधिक सकारात्मक है, ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा ।
दाम्पत्य जीवन में अनबन को लेकर कई उपन्यास हिन्दी में लिखे गए हैं । नासिरा शर्मा का शाल्मली इसी श्रेणी में आता है। पर शाल्मली अपनी वैचारिकता में इस विषय के सर्व सामान्य उपन्यासों से भिन्न है। उपन्यास की नायिका ऊँचे पद पर कार्यरत एक अफ़सर है जिसका विवाह उसके अफ़सर होने के पूर्व नरेश से हुआ था, जो उस समय एक क्लर्क था। शाल्मली अफ़सरी की परीक्षा पास करने के बाद लगातार तरक़्क़ी करती चली गई और नरेश जहाँ का तहाँ रह जाता है। यह अलग बात है कि शाल्मली को अफ़सर बनाने में नरेश की भी भूमिका रही थी। परन्तु बाद में नरेश हीनता ग्रंथी से पीड़ित हो जाता है। और उनके दाम्पत्य में एक प्रकार की दूरी आ जाती है। दांपत्य जीवन में आयी दूरी के बावजूद एक पढ़ी-लिखी, अफ़सर औरत, अगर तलाक़ नहीं लेती तो इसका कारण यह नहीं कि वह दब्बू है या कमज़ोर है, पर यह उसका अपना एक समझदारी भरा निर्णय, उसका अपना चुनाव भी हो सकता है। और यह चुनाव इस तर्क पर आधारित है कि अन्यत्र जुड़ जाने के बाद समस्या हल हो ही जाएगी यह ज़रूरी नहीं। फिर शाल्मली को नरेश से घृणा भी नहीं है, वह अपने दिल के किसी कोने में उसके लिए प्रेम भी अनुभव करती है। शाल्मली एक मैच्यौर स्त्री की तरह हमारे सामने आती है। हिन्दी की कई औपन्यासिक कृतियों में दाम्पत्य जीवन की समस्याओं में तलाक़ का मुद्दा आया है। तलाक़ एक तरह से आधुनिकता का प्रतीक बन गया है, अतः कई पाठकों को शाल्मली का यह निर्णय कि तलाक़ नहीं लेना है -बहुत पिछड़ा और दक़ियानूसी लगता है। लेकिन हमारे अपने समय में यह बात भी अब अनुभव का हिस्सा बनती जा रही है कि तलाक़ ले लेने से न तो हमेशा ही लाभ होता है और न ही यह दाम्पत्य जीवन में आयी विसंगतता को दूर करने का कोई कारगर तरीक़ा साबित हुआ है।
नासिरा शर्मा का अक्षयवट हिन्दु-मुस्लिम समस्या को जड़ों में जाकर पड़तालता एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह हमारी अपनी साझा संस्कृति का एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना जाता है। नासिरा शर्मा अक्षयवट के प्रतीक द्वारा एक सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ती हैं। नासिरा शर्मा का दायरा तंत्र के भ्रष्टाचार और उसमें रही भेद नीति तक फैला हुआ है। वह यथार्थ को उसकी व्यापकता में देखता है। सवाल हिन्दू-मुसलमान का ही नहीं है, पर सवाल उस भ्रष्ट-तंत्र का है जो मनुष्य को और क़ौमों को भेद की दिशा में जाने को बाध्य करता है।
यहाँ हमें मंज़ूर ऐहतेशाम के उपन्यास सूखा बरगद का सहज ही स्मरण हो आता है। इस उपन्यास में सघन भावुकता है। यह मूलतः धर्म निरपेक्षता के तथा मार्क्सवादी वैचारिक छलावे के परिणामों की ओर इशारा करता है। लेकिन इसका पट अलग है। भावुकता हमेशा ही जकड़ती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह सूखा बरगद हमें जकड़ता है, वैसे अक्षयवट नहीं। परन्तु साथ ही यह कहना ही होगा कि अक्षयवट हमें सोचने के लिए मज़बूर करता है। इसमें दो क़ौमों को केवल क़ौम की तरह न देख कर एक ही तंत्र में पिसते नागरिकों की तरह देखा गया है। यह सोच हमें अपनी लोकतांत्रिक प्रणाली में पैठ गयी मूलभूत कमज़ोरी तक ले जाने का काम करती है। अक्षयवट का शीर्षक लेखिका के उस नज़रिए को स्पष्ट करता है जो उनके प्रायः सकारात्मक पक्ष को उभारता है।
यह एक अजब बात है कि अपनी संरचना में सूखा बरगद में स्त्री सहज भावुकता है जबकि अक्षयवट में एक तटस्थ, कठोर-सी चिंतनात्मकता है जो निश्चय ही स्त्री-सहज नहीं मानी जा सकती। यह अन्तर रचनाकार की मानसिकता का भी है और शायद उस देश( स्पेस) का भी जिस पर उपन्यास की कथा खड़ी है। एक कथा भोपाल की ज़मीन पर घटती है और एक इलाहाबाद में। अक्षयवट का बाहरी विस्तार बड़ा है तो सूखा बरगद भीतर की गहराइयों में उतरता हुआ दिखता है। पर हमारे आज के इस संदर्भ के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ के रूप में इन उपन्यासों को गिनना चाहिए।
इधर उनका जो उपन्यास चर्चित रहा है उसमें इस दौर की सबसे अहम् समस्या पर उनकी नज़र गयी है। नारी, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार आदि से अधिक महत्वपूर्ण और पहले जो समस्या आने वाली है, जिस पर हमारा वजूद टिका है- हमारा - यानी स्त्री, पुरुष, हिन्दू ,मुस्लमान , अमीर ग़रीब, अनपढ़ विद्वान- वह है पानी की समस्या। कुँइयाजान में जिस पानी की समस्या को उठाया है, उसका संबंध केवल भारत से नहीं है अपितु वह एक वैश्विक समस्या है।
कुँइयाजान की बात करने से पूर्व नासिरा शर्मा के उपन्यासों के एक महत्वपूर्ण पक्ष की बात करना ज़रूरी है। वह पक्ष उनकी भाषा से जुड़ा है। नासिरा शर्मा की औपन्यासिक भाषा में जो आत्मविशवास झलकता है, वह सबसे पहले पाठक को आकर्षित करता है। उपन्यासों में कथा की जटिल बुनावट का प्रबंधन करना सरल नहीं होता। विचार और वर्णन – दोनों के स्वाद के साथ संवेदनशीलता को बनाए रखना, बहुत कठिन होता है। अपने लगभग पिछले उपन्यासों में नासिराजी ने कथा-वर्णन को प्रधानता दी है। हाँ, अक्षयवट में इस नयी बुनावट की शुरुआत दिखाई पड़ती है। ऐसे लगता है कि लेखिका को अब उपन्यास के शिल्प की अपेक्षा उस समस्या में रुचि है जो उपन्यास रचना से अधिक गंभीर है। यों भी इस उत्तर-आधुनिक समय में परम्परागत शिल्प के ढाँचों का कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया है।
उपन्यास में कथ्य यों ही नहीं आता । वह हमारे अपने वर्तमान जीवन से संबद्ध होता है। एक अजब इंटर-डिसीप्लीनरी जीवन हो गया है आज हमारा । इस आज के हमारे समय में एक दूसरे के क्षेत्र में इंटरसेप्ट करता हुआ यथार्थ दिखाई पड़ता है जो अब उपन्यास के शिल्प का भी हिस्सा बन गया है। यह अत्तर अधुनिक समय की अंतरपाठीयता के उदाहरण हैं। कुँइयाजान में इस तरह की अंतरपाठीयता में इंटरसेप्शन मीडिया और सेमीनार प्रोसीडिंग्स का है। सवाल यह उठता है कि इस तरह के प्रयोग या रचना विधान उपन्यास में किस हद तक उपयोगी और कारगर साबित होता है। अख़बार की कतरनें और जल समस्या पर हुए एक सेमीनार के प्रोसीडिंग्स हमारे इस समय की उस सचाई को भी प्रस्तुत करती हैं कि मानव – अस्तित्व के इन अहम् मुद्दों पर आज चर्चा जितनी हो रही है, संभवतः काम उतना नहीं हो रहा। इस एक ध्वन्यार्थ के उपरान्त यह उपन्यास के भावुक क्षणों को संतुलित करने का काम भी करता है।
उपन्यास में कई कथाएं, उप-कथाएं और प्रसंग हैं। और है एक गाथा – जल की, जीवन की- जिसे लेखिका हमारे सामने रखना चाहती हैं। शकरआरा और ख़ुर्शीदआरा की कथा , समीना और कमाल की कथा, राबिया और मख़फ़ूरुल रहमान( मग्गा) की कथा बदलू और बुआ का कथा-प्रसंग, रमेश-रत्ना-शमीमा का प्रसंग, पन्नालाल सुनार का प्रसंग..... अनेक कथा-गुच्छों से भरे इस उपन्यास का नायक तो पानी ही है। सावन के झूलों से लेकर कुँइयों के पानी को जान मानते ये सभी चरित्र अपने जीवन के सुख-दुखों में पानी की महत्ता को महसूस करते हैं। मौत हो या जन्म ... पानी के बिना कुछ भी संभव नहीं है।
कुँइयाजान में वर्णित जल समस्या और पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधो में आए आर्द्रता के संकट की हक़ीकत को जिस तरह लेखिका ने अपने कथा-विन्यास में गूँथा है, उससे यह पता चलता है कि लेखिका के लिए मनुष्य की भावना और संबंध का वही स्थान है जो स्थान पानी का मनुष्य के जीवन के होने के लिए ज़रूरी माना जाता है। पहले पाठ में ऐसा लगता है कि कथा में थोड़ी जटिलता आ गई है, अतः थोड़ी उलझन-सी होने की संभावना है। इस अर्थ में कि दोनों मुख्य कथाएं बन जाती हैं। उप-कथा नहीं बनती । ऐसा नहीं लगता कि कमाल-समीना अथवा शकरआरा और ख़ुर्शीदआरा की कथा कम महत्वपूर्ण है। अतः एकबारगी यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि लेखिका संबंधों के सूखेपन को धरती के सूखेपन से जोड़ रही हैं या इसके विपरीत। परन्तु संभवतः इन दोनों को ही लेखिका उभारना चाहती हैं। नासिरा शर्मा के संदर्भ में यह कहना इसलिए ज़रूरी हो जाता है क्यों कि नासिरा शर्मा की औपन्यासिक कला बहुत सीधी रही है। वे कथ्य के सीधे संप्रेषण में ही कला की सार्थकता मानती हैं। संभवतः इसीलिए मुझे नासिरा शर्मा का कथा –साहित्य अधिक रुचता है। फिर वे जिन समस्याओं को उठाती हैं, उनके प्रति वे केवल उत्सवी-भाव से जुड़ी नहीं होती। अतः समस्याओं की जड़ तक ही नहीं जातीं बल्कि उनके विषय में, अपना एक दृढ मत भी रखती हैं। उनके मत से असहमत हुआ जा सकता है , परन्तु अपने मत को रखने के उनके आधार और तरीक़े इतने नायाब और ठोस होते हैं कि उनकी बातों को नज़रंदाज़ तो नहीं ही किया जा सकता है।
कुँइयाजान में लेखिका ने सपनों का ज़बरदस्त उपयोग किया है। भारतीय विश्वास यह है कि स्वप्न आने वाली घटना का संकेत देते हैं और वैज्ञानिक दृष्टि यह है कि स्वप्न हमारे मन के अपराध-बोध को प्रकट करते हैं। शकरआरा का स्वप्न इसी प्रकार का है और समीना तथा ख़ुर्शीदआरा का स्वप्न आने वाली घटना के विषय में है। लेखिका ने पात्रों के स्वभाव के अनुसार स्वप्नों का उपयोग किया है। शकरआरा के प्रति पाठकों की तथा अन्य पात्रों की सहानुभूति जग सके इस हेतु लेखिका ने स्वप्न के डिवाइस का अच्छा उपयोग किया है। शकरआरा के चरित्र को बदला तो नहीं जा सकता था, परन्तु स्वप्न के माध्यम से जिस तरह लेखिका ने उसके अपराध-भाव को हमारे सामने रखा है, एक क्षण भर में ही, हमारे मन में उसके प्रति सहानुभूति जाग उठती है।
अपनी औपन्यासिक यात्रा में नासिरा शर्मा क्रमशः जीवन-सत्यों के निकट आती हुई लगती हैं। कुँइयाजान में एक और बात रेखांकित करने वाली है – अपने उपन्यासों में नासिरा ने स्त्री पात्रों के परस्पर के संबंधों को बड़ी ज़िम्मेदारी से निभाया है। शायद इस तरह और किसी के उपन्यासों में हमें देखने को नहीं मिलता। केवन शाल्मली का अपनी सास से ही अच्छा संबंध नहीं है, क्योंकि शाल्मली पढ़ी लिखी थी और उसकी सास अत्यन्त संवेदनशील थी। पर राबिया, जो एक ग़रीब घर की लड़की थी, उसका संबंध अपनी कर्कशा सास से जिस तरह का लेखिका ने चित्रित किया है, हमें हैरत में डालता है। राबिया का व्यवहार अपनी इस कर्कशा सास के प्रति देख कर लगता है कि यह किसी दूसरी दुनिया की बात है। उसी तरह शमीमा और अनवरी का संबंध भी सास-बहू का ही है। उसी तरह शकरआरा के अखरने वाले व्यवहार को देख कर भी उसकी बहन ख़ुर्शीदआरा के उसके प्रति व्यवहार का जो रूप पाठकों के समक्ष लेखिका ने उभारा है, ऐसा लगता है कि परिवार-विमर्श की शुरुआत लेखिका ने की है। घर है , संबंध हैं तो हद दर्ज़े की कडुआहट आने पर भी रिश्तों को बनाए रखना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। अक्षयवट के बाद इस उपन्यास में लेखिका ने बहुत साफ़-साफ़ भारतीय पारिवारिक संस्कृति और संबंधों की महिमा को ऐसे उपन्यास में उजागर किया है, जिसमें किसी तरह की सांस्कृतिक विचारधारा या राजनीति का प्रभाव दिखायी नहीं पड़ता । ख़ुर्शीदआरा और शकरआरा के माध्यम से लेखिका ने बहनापे का एक विमर्श भी रखा है। नारी-विमर्श में इधर सिस्टर-हुड(बहनापे) की जो संकल्पना उभर कर आयी है , उसे लेखिका ने अपने अन्य उपन्यासों के माध्यम से तो प्रकट किया ही है, पर इस उपन्यास में उसका खिला और खुला एवं निखरा रूप दिखायी पड़ता है। समीना ख़ुर्शीदआरा की बेटी है और शकरआरा की बहू। शकरआरा का अपनी बहन ख़ुर्शीदआरा के प्रति भाव जानते हुए भी उसके मन में अपनी सास के प्रति कोई दुर्भाव नहीं है। यह जो समझदारी इन स्त्री चरित्रों में लेखिका ने डाली है , एक ऐसा दृष्टिकोण रखा है जो समाज में प्रचलित और चित्रित किए जाने वाले दृष्टिकोण पर सिरे से प्रश्न-चिह्न तो लगाता ही है, साथ ही वह पुरुष समाज की स्त्री के प्रति गढ़ी हुई परंपरागत मान्यता को ठेंगा भी दिखाती है।
इस उपन्यास में नासिरा शर्मा ने स्त्री का गौरव केवल उपन्यास में चित्रित स्त्री चरित्रों के द्वारा ही व्यक्त नहीं किया है, परन्तु जो जल की कथा इसका मुख्य नैरेटिव्ह है, उसमें भी इसको गूंथा है। " कुआं पुलिंग है, कुईं स्त्रीलिंग। कुईं केवल अपने व्यास में छोटी होती है, गहराई में नहीं। कुईं एक अर्थ में कुएं से बिल्कुल अलग है। कुआं भूजल तक पहुँचने या पाने के लिए बनता है, पर कुईं भूजल से ठीक वैसे नहीं जुड़ती जैसे कुआं, बल्कि कुईं वर्षा के जल को बड़े विचित्र ढंग से समेटती और सँजोती है। तब भी जब वर्षा नहीं होती। यानी कुईं में न तो सतह पर बहने वाला पानी है, न भूजल है। यह तो नेति-नेति जैसा कुछ पेचीदा मामला है।"(पृ-314) लेखिका ने इसमें पानी से निर्मित राजस्थान की सामाजिकता, यहाँ की मान्यताएं, पानी का शास्त्र, कुईं बनाने की विधि, इसके पौराणिक संदर्भ, पानी से होने वाले रोग, लोगों की बेहाली का जो चित्र खींचा है वह यथार्थ का ऐसा चिट्ठा है जिसका न तो इन्कार किया जा सकता है और नही उससे मुँह चुराया जा सकता है। लेखिका ने डॉ कमाल को पानी की समस्या के प्रति जिस शिद्दत से जोड़ा है वह इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि कमाल तो एक ऐसे शहर का बाशिंदा है जहाँ गंगा बहती है। पर अब वहाँ भी पानी का संकट तो है ही। जब तक बेहतर स्थिति वाले, संकटमय स्थिति की पहचान नहीं कर पाएंगे, तब तक हमारी समस्याओं का अंत नहीं हो सकता । फिर अपनी तरक्की के लिए यह सब करना उसके लिए क़तई आवश्यक नहीं था। पर जब तक हैव्स (जिनके पास है) हैव नॉट्स( जिनके पास नहीं है) के लिए काम नहीं करेंगे तब तक इस देश की तरक्की संभव नहीं है।
कुँइयाजान में एक तरफ़ पानी का खरा सच और दूसरी तरफ़ संबंधों का सच है। उपन्यास के अंत में जब समीना भी मर जाती है, अपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म देने के बाद, तो डॉ. कमाल दुखी तो होते हैं पर निराश और हताश नहीं। क्योंकि उन्होंने जीवन के उस सत्य को पा लिया था, तमाम रुकावटों के बाद , बरसों बीत जाने के बाद भी अगर नदियाँ अपना रास्ता नहीं भूलतीं , फिर लौट आती हैं, तो मनुष्य को निराश होने का कोई कारण नहीं है। डॉ. कमाल भी अपने पुराने रास्ते- समाज के लिए कुछ करना- पर लौट जाता है। उपन्यास का अंत इस सकारात्मक बिंदु पर होता है।
इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका नासिरा शर्मा ने स्त्री की जो गाथा लिखी है वह इसलिए भी विलक्षण है कि चाहे जल के रूप में कुँइया या मनुष्य के रूप मे स्त्री- वही इस समाज को जीवित रखने का मूल भूत आधार है। जब कुछ नहीं होता तब भी स्त्री तो होती ही है- अपने आप को समाप्त कर के भी समाज को जीवित रखने की ज़द्दोज़ेहद करती हुई...। शायद इसीलिए स्त्री-संबंधों के सकारात्मक पक्ष को भी लेखिका ने बड़े एहतियात से उभारा है।
नासिरा शर्मा अपनी पूरी लेखकीय ईमानदारी से हमारे समय के उस पक्ष को अपने उपन्यासों तथा अन्य लेखों का विषय बना रही हैं जिनका मूल्य आने वाले समय में आँका जाएगा, अगर इस समय की समीक्षा उसे नहीं देख पा रही है तो। किसी भी लेखक के पास आखिर क्या होना चाहिए- भाषा, दृष्टि, बोध, संवेदनाएं...यह सब कुछ नासिरा शर्मा के पास है। उत्तर आधुनिक दौर में परम्परागत स्वरूपों के विखंडन में रचा कुइयाँजान का कलेवर कहीं न कहीं हमारे विखंडित होते समाज का भी चित्र है, जिसे लेखिका अपने अर्जित सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वासों के आधार पर संभवतः बचा लेना चाहती है।
हमारे समय में इतने अधिक नैरैटिव्हज़् लिखे जा रहे हैं कि प्रायः समीक्षक की तो यही इच्छा होती है कि किसी भी तरह का लेखन या तो इस पक्ष में हो या उस पक्ष में, लेकिन एक ईमानदार लेखन हमेशा ही मनुष्य के पक्ष में होना चाहिए। मनुष्य के पक्ष में लिखा जाता साहित्य इस बात की माँग करता है कि रचनाकार सक्षम हो और अपने समय में अपने ही दृढ पाँवों पर खड़ा रह सकने की उसकी क्षमता हो। विचारधारा की बैसाखियों की अपेक्षा अपनी वैचारिकता पर उसे अधिक विश्वास हो, जो अपने समय की नब्ज़ को पहचानता हो। निश्चय ही इस रूप में नासिरा शर्मा एक सफल लेखिका हैं।


शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

आग के आईने में माटीगंधी कविता के असमाप्त बिरवे

2011 का वर्ष आया और अब समाप्त भी हो जाएगा। पूरे वर्ष देश-भर में शताब्दी समारोहों के आयोजन होते रहे और दिसंबर अंत तक कुछ और स्थानों पर भी होंगे। लेकिन इस शताब्दी वर्ष में जो दबी-खुली शिकायत प्रायः लोगों की रही वह यह भी कि चारों पर एक साथ कां ही जगहों पर आयोजन हुए। या तो चारों पर अलग-अलग या कभी दो, कभी तीन। या कभी केवल एक। इस अर्थ में हैद्राबाद विश्वविद्यालय को बधायी देनी चाहिए कि उन्होंने चारों कवियों पर एक साथ चर्चा करना मुनासिब समझा। अगर केवल हिन्दी की ही बात करें तब भी 2011 केवल शमशेर, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल तथा नागार्जुन का ही शताब्दी वर्ष नहीं है परन्तु यह गोपालसिंह नेपाली तथा उपेन्द्रनाथ अश्क का भी शताब्दी वर्ष है। इस वर्ष कितनी ही पत्रिकाओं ने, लगभग सारी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने, शताब्दी कवियों पर अंक निकाले जिनमें से कुछ में नेपाली और अश्क का भी समावेश किया गया है। 1911 से 2011.... यह 1911 इतना महत्वपूर्ण क्यों है। इस की इस विशेषता पर बहुत पहले प्रभाकर माचवे ने लोकप्रिय सीरीज़ में नागार्जुन पर कविताएं संपादित करते समय इशारा किया था। लेकिन वह 1977 की बात है और इन कवियों की शताब्दी आने में तब बहुत समय शेष था । संभवतः 2011 के पूर्व इस प्रश्न पर हमने गंभीरता से विचार ही नहीं किया कि 1911 का इतना महत्व होगा। क्योंकि यह बात हमें पता है कि 2000 के बाद हर वर्ष किसी न किसी रचनाकार की जन्मजयंति आने ही वाली है।
लेकिन भारतीय साहित्य के अध्येता के रूप में 2011 के आते ही धीरे धीरे क्रमशः हमारे सामने यह संयोग और आश्चर्य खुलता गया कि यह फैज़ अहमद फैज़ तथा मजाज़ का भी शताब्दी वर्ष है। यह तेलगु कवि श्री श्री का भी शताब्दी वर्ष है । यह गुजराती कवि उमाशंकर जोशी, श्रीधराणी तथा प्रह्लाद पारेख का भी शताब्दी वर्ष है। भारतीय साहित्य में ऐसे और भी कई नाम होंगे जिनका मुझे पता नहीं है, उनके नाम हम इस सूची में जोड़े जा सकते हैं। ऐसे इस समय आज जब हम, अपनी भाषा के केवल इन चार कवियों को याद कर रहे हैं तो असल में, हम अपने काव्यात्मक चुनाव तथा अपनी मर्यादा में रहते हुए उस वर्ष 1911 के इस चमत्कारिक संयोग पर ही सोच रहे हैं।
भारतीय लोकजागरण और भारतीय नवजागरण के बीच हमने एक लंबी नींद का आनंद उठाया। जागे तो देखा कि हमारी स्वतंत्रता बाधित हुई है। और इसे प्राप्त करने का संकल्प भी हमारे मन में बन चुका था। 1911 की प्रसिद्ध चीनी क्रांति के मार्गदर्शक सुन-यात्स-सुन की प्रेरणा से एम.एन रॉय, रासबिहारी वोज़ तथा लाला लाजपतराय जैसे भारतीय स्वतंत्रता के राष्टवादी नेताओं को साम्राज्यवादी ताक़त का सामना करने की तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने की प्रेरणा मिली। इसी चीनी क्रांति द्वारा 267 वर्ष पुराने साम्राज्यवादी शासन का अंत हुआ था। यह अलग बात है कि फिर 1949 में इन राष्ट्रवादियों तथा कम्युनिस्टों के बीच खूनी संघर्ष हुआ तथा राष्ट्रवादियों की हार हुई। इस समय इसकी विस्तृत चर्चा का कोई अवकाश नहीं है, परन्तु चीन की 1911 की क्रांति के जो तीन सिद्धांत थे- लोकतंत्र, राष्ट्रीयता एवं जनकल्याण- वह हमारे लिए अब भी मौजूं हैं, वर्तमान कम्यूनिस्ट चीन के लिए हो न हो। देश की तत्कालीन शासकीय व्यवस्था के परिवर्तन की कामना के बीच काल के गर्भ में गोया इन रचनाकारों ने आकार ग्रहण किया। 1911 का महत्व हमें तब समझ में आएगा कि जब हम इसे भारतीय साहित्य की उस दैदिप्यमान स्वातंत्र्योत्तर पीढ़ी के साथ जोड़ कर देखेंगे जिसने साहित्य रचना के नए मूल्य-मापों को तय किया था। 2011 तक आते आते यह सोचना भी रोचक हो सकता है कि सौ वर्षों की यह यात्रा असल में कितनी वैविध्य पूर्ण रही है। 1910, 1911, 1912, 1913 में जन्मे हमारे इन्हीं कवियों ने हिन्दी की प्रगतिशील और प्रयोगवादी काव्यधारा का स्वरूप तय किया। स्वतंत्रता, लोकतंत्र, राष्ट्रीयता तथा प्रगतिशीलता हमारे स्वतंत्रता संघर्ष तथा स्वातंत्र्योत्तर काल के मूल्य बने रहे। छायावाद के बाद हिन्दी कविता का स्वरूप और आगे की कविता की दिशा को तय करने वाले ये हमारी भाषा के महत्वपूर्ण कवि हैं –इसमें तो संदेह नहीं ही हो सकता है। भारतीय इतिहास के नए अध्याय के रचे जाने की प्रक्रिया में जन्में इन रचनाकारों को पढ़ते पढ़ते साहित्य के पाठक के रूप में हमारी चिंतन एवं पठन-यात्रा विचारधाराओं से होते हुए विमर्शों के स्टेशन पर रुकते हुए अब सायबर स्पेस के अननोन ज़ोन में प्रवेश कर चुकी है। ये रचनाकार स्वयं भी अपनी रचना-यात्रा में इतिहास तथा विचारधारा के विभिन्न पड़ावों से गुज़रे हैं। लेकिन मुश्किल तो यह है कि रचनाकार अपनी सृजनशीलता में हमेशा खुला होता है पर आलोचक उसके एक हिस्से में, जो उसे सर्वथा प्रिय होता है , अपनी एक जगह बना लेता है जहाँ बैठ कर वह उसे परखता रहता है। उसका मूल्यांकन करता है। वह असल में रचनाकार को भी अपनी आलोचकीय कम-निगाही (तंग-नज़री) में बाँध लेना चाहता है ; पर रचनाकार के तो इरादे कुछ और ही होते हैं। क्या कहता है वह -
बहुत से तीर बहुत सी नावें बहुत से पर इधर
उड़ते हुए आए, घूमते हुए गुज़र गए
मुझको लिए सबके सब। तुमने समझा
कि उनमें तुम थे। नहीं नहीं नहीं ।
उनमें कोई न था। सिर्फ़ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं । फ़क़त।
रचनाकार तो अपनी रचनाओं में अपने समय को अंकित करता चलता है। अपने समय की छबियाँ, जो उसकी नज़र से गुज़री हैं, उसकी कविता में प्रतिबिंबित होती हैं। हर कवि एक ही समय की उन्हीं छबियों को अलग कोणों से अथवा दृष्टि से देखता है। दृष्टि- स्थान के बदल जाने से छवि ही बदल जाती है कई बार। ये हमारा समय कैसा है- जिसमें विद्वान अँधेरा है और ढपोरशंखी सूर्य हैं, जिनके सहारे हैं हम और हमारा यथार्थ भेड़िये-सा भयंकर हो गया है /यथार्थ/जिससे बचाव नहीं है। (केदारनाथ अग्रवाल,आग का आईना पृ-27) हमारा समय असल में चर्चा का समय है। हम मीटिंग, सेमीनार तथा वर्कशॉप के दौर के लोग हैं। समस्याओं को बातों में सुलझाते हैं – आग जल रही है / किताबों में लपालप/ कागज़ नही जलता/ हाथ में उठाए किताब सूरज की / आदमी अँधेरे में बैठा है। (केदारनाथ अग्रवाल,आग का आईना लेकिन कवि का काम तो इस विद्वान अँधेरे में भी उस आदमी को खोजना है जो आदमी है,और अब भी आदमी है/ तबाह हो कर भी आदमी है, चरित्र पर खड़ा है देवदार की तरह बड़ा(है)( केदारनाथ अग्रवाल, वही )
कविता ऐसा क्या करती है कि उसकी हमें ज़रूरत हो; हम जो आज इतने अकेले पड़े हुए लोग हैं कि कई बार अपने घरों में ही अकेले पड़ जाने की स्थिति में आ गए हैं। गाँव अब वैसे गाँव नहीं रह गए हैं और शहर अधिक निर्दय और कठोर हो गए हैं। कोई भी ऐसा नहीं मिलता जिसे अपना कहें ( शमशेर बहादुर सिंह, सुकून की तलाश वाणी प्रकाशन 1998) राजनीति का कुलिश बढ़ गया है- कैसा सियासत का तूफ़ान कि आग की लपटों में इन्सान/ अपनों पर अपनों की ही बेदादगरी क्यों बाक़ी है।( शमशेर बहादुर सिंह, काल, तुझसे होड़ है मेरी, वाणी प्रकाशन,1988) तब इन कवियों का यह रचनाभाव हमें अपने को अपने में और समाज में अधिक गहरे रोपने में कितना काम आता है। कविता अँधेरा फाड़ कर रात को तिरोहित कर देने का काम नहीं वरन् सृष्टि की समग्रता को धूप के पारदर्शी आइने में उजागर कर देने का काम भी सृजन करता है/ और ऐसे समर्थ और साहसी सूरज को –उसके ताप-दाप और प्रकाश के साथ शब्दों में बिम्बित करने का काम कविता करती है। ( केदारनाथअग्रवाल, रास्ता इधर से है, पीपल्स पब्लिशिंग हाउस,1978)
हमारे इन शताब्दी कवियों ने कविता के अलावा निबंध, उपन्यास, आलोचना आदि गद्य विधाओं में भी बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। कथा-साहित्य में अज्ञेय और नागार्जुन अपने समकालीन गद्यकारों से इस मायने में आगे हैं कि जो प्रमुखतः गद्यकार हैं उन्होंने इतनी सशक्त कविता नहीं लिखी है। समकालीन रचनाकारों का मूल्यांकन हो, या साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन हो अथवा नारीवादी आलोचना हो- शमशेर अपने कई समकालीन आलोचकों के पीछे तो नहीं ही हैं। लेकिन अगर हम कविता की बात करें तो भाव तथा विचार और भाषा-शिल्प तथा संरचना (एकदम सस्यूर की समझ में नहीं तो केवल रूपाकार की तरह से ही) की बात तो करेंगे ही। आज जब भाव तथा विचार का स्वरूप और उसके प्रति हमारी समझ में ख़ासा परिवर्तन आ चुका है , अब हम पुरानी खोल में नए लोग हो गए हैं , तब इन कवियों – चार या बारह, या और अधिक- के काव्य विश्व के विषय में किस तरह सोच सकते हैं। अब जब न प्रकृति–मनुष्य-ईश्वर, भाषा-अभिव्यक्ति-संदर्भ, देश-काल-सापेक्षता- सभी के विषय में हम ठीक वैसा नहीं सोचते , तो ये हमारे कवि ( शमशेर-जनवरी, अज्ञेय-मार्च, केदारनाथ अग्रवाल–जुलाई तथा नागार्जुन-जून) क्यों हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। अब जब कभी-कभी यह चर्चा भी होने लगी है कि क्या सचमुच साहित्य की आवश्यकता है भी, सिवाय कि मेरे आपके तरह के लोगों के लिए एक आजीविका के साधन के रूप में....!?!
इसमें कोई संदेह नहीं कि कवि का शिल्प और शैली कविता की ज़िन्दगी की दीर्घता तय करते हैं। इस संदर्भ में मुझे लगता है कि नागार्जुन की कविताएं हमारे समय की और आने वाले समय की बड़ी मूल्यवान कविताएं बनी रहेंगी। उनकी वे कविताएं जो अत्यन्त सामयिक हैं , वे भी अपनी शैली के कारण आकर्षण बनाए रखेंगी। नागार्जुन और शमशेर के यहाँ गीति काव्य-रूपों का तथा छन्दों का ग़ज़ब का वैविध्य है। इस पर बात हुई है। इसे सभी स्वीकारते हैं। नागार्जुन चूँकि संस्कृत, पालि , प्राकृत, मैथिली बंग्ला आदि के प्रकांड ज्ञाता थे अतः उनकी कविताओं में काव्य-रूपों एवं छन्दों का वैविध्य दिखाई पड़ता है। मुझे कई बार लगता है कि ये चारों कवि हिन्दी कविता के चार विलक्षण स्वभावों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये स्वभाव उनकी काव्य-शैलियों के निर्माण में सहायक साबित हुआ है। इन शैलियों को कवियों ने अपने जीवन से, अपने विभिन्न संस्कारों से ग्रहण किया हैं। इन चारों के काव्य-विश्व में एक विलक्षण बात सामने आती है। इनमें प्रकृति के प्रति जो अथाह प्रेम है वह जब इनकी कविता में प्रकट होता है तो कवि-स्वभावानुकूल ही। अज्ञेय की प्रकृति बड़ी अनुशासनबद्ध लगभग औपचारिक-सी खिलती खुलती है तो नागार्जुन के यहाँ प्रकृति एकदम उन्मुक्त खुला जंगल। शमशेरजी की कविताओं में प्रकृति ऐन्द्रीयता से भरपूर, निजत्व भावों से सभर तो केदारनाथ अग्रवाल की लोकरंग में रंगी प्रकृति दिखाई सर्वत्र पड़ती है। यह प्रकृति केवल बाहर की नहीं है परन्तु भीतर की भी है। जैसे कवि की श्रेष्ठता को मापने का एक मापदंड उसका स्त्री के प्रति दृष्टिकोण माना गया है उसी तरह काव्य-वस्तु के प्रति कवि के रुख की पहचान करने का एक मापदंड उसका प्रकृति-चित्रण हो सकता है। प्रकृति-चित्रण हिन्दी में अपने पूरे जोम पर छायावाद में देखा गया है। परन्तु छायावादियों का प्रकृति के प्रति नज़रिया एक जैसा तो नहीं था। प्रकृति मनुष्य की निकटतम सहचर है- गोत्र की दृष्टि से। (प्राणियों का तो वह सगोत्र ही माना जाएगा) प्रकृति के प्रति कवि का व्यवहार उसके इतर सामाजिक व्यवहारों को पहचानने में निश्चय ही सहायक हो सकता है। तभी इन चारों की कविताओं में अभिव्यक्त प्रेम भी ऐसा ही है और थोडा और गहरे जाओ तो इन चारों में आता समाज भी ऐसा ही है। ये चार हिन्दी-कविता की रचनागत-शैलियों को रेखांकित करती हैं। यानी कि उन्मुक्तता, ऐन्द्रियता, शालीनता (औपचारिकता) तथा लोकरंगिता- इन चार स्वभावों की कविता का प्रतिनिधित्व ये कवि करते हैं। केदारनाथ प्रकृति से मनुष्य-हृदय तक जाते हैं- अब भी है कोई चिड़िया जो सिसक रही है , नील गगन के पँखों में, नील सिंधु के पानी में , मैं उस चिडिया की सिसकन से सिहर रहा हूँ, वह चिड़िया मानव का आकुल हृदय है। (आग और बर्फ की वसीयत, फूल नहीं रंग बोलते हैं) इसलिए उनकी चिंता हमेशा समाज के आखिरी मनुष्य के सुख-दुख के साथ जुड़ी हुई थी। इसीलिए उनकी प्रकृति में वह औपचारिकता नहीं थी जो हमारे संभ्रांत समाज का लक्षण है, जिसमें हम और आप रहते हैं। मैंने धूप से कहा कि थोड़ी गर्मायी दोगी उधार - कविता के कवि की हम आलोचना चाहे करें पर हमारा विश्व भी यही है... एक बड़ी औपचारिकता और शालीनता इस कविता में दिखाई पड़ती है। एक संभ्रांत कल्चर। एक ऐसा कल्चर जो जाने अन्जाने हमने स्वीकार कर लिया है। संभवतः इसीलिए हमें केदारनाथ और नागार्जुन की प्रकृति का उन्मुक्तपन अच्छा लगता है। प्रेयसी को कलगी बाजरे की कह देने की स्पष्टता की अपेक्षा कठोर प्रेमिका से कन्फ्रंट करने वाले शमशेर की प्रेमिका और प्रकृति हमें भाती है कि अपनी तरफ़ से हम युद्ध-विराम यह कह कर घोषित कर देते हैं--- कि अगले जनम में....। हम सब ऐसे हैं।
निराला के बाद उनकी परंपरा में प्रायः नागार्जुन को रखा जाता है। इसका कारण है कि इन दोनों में ही ओजत्व है। नागार्जुन की कविता को आप पढ़ना शुरु करें तो प्रत्येक शब्द में से नागार्जुन ज़िंदा होते दिखाई पड़ते हैं। अक्षर-देह से वास्तविक नागार्जुन बाहर आते दिखाई पड़ते हैं। नागार्जुन में साहस है, रणनीति है, निश्छलता है और कवि होने के शौक़ से अधिक कवि होने की ज़िम्मेदारी दिखाई पड़ती है। यह ज़िम्मेदारी कविता के प्रति उन्मुख न हो कर काव्य-वस्तु के प्रति अधिक है। इसीलिए नागार्जुन के शब्द जहाँ काटो तो खून नहीं कि मुद्रा में अगर होते हैं तो ग़ज़ब के खिलंदड़ेपन को प्रकट करते हुए भी दिखाई देते हैं। नागार्जुन की कविता बोलती है। खड़ीबोली कविता के इस गुण का विकास नागार्जुन के यहाँ ख़ूब इफ़रात से हुआ है। उनकी कविता जहाँ राजनेताओं की ऐसी-तैसी कर सकती है वहीं किशोरों को भी लुभा सकती है। जो जीवन को पूरा का पूरा जिएगा वह हर तरह की कविता इफ़रात में लिखेगा। यह तो अच्छा ही है कि कवियों का जीवन आलोचकों के हाथ में नहीं होता, न ही विचारकों के, वरना कितने ही कवियों की कविताएं रचना की सुबह नहीं देख पातीं।
इस संदर्भ में यहाँ मुझे नागार्जुन के संदर्भ में दो प्रसंगों का उल्लेख करने का मन होता है। पहला प्रसंग है खंडवा में श्रीकान्त जोशीजी के घर किसी प्रसंग में मैं शमशेरजी के साथ गयी थी। वहाँ बाबा भी आए थे। जोशी जी का घर सरकारी क्वार्टर की तरह था, बहुत बड़ा नहीं था। बरामदा, बैठक, रसोई, ग़ुसलख़ाना, फिर एक और कमरा और दूसरी तरफ़ एक और कमरा(शायद)। शमशेरजी, जोशीजी और अन्य लोग बैठक में बैठे बातें कर रहे थे। उस दिन पानी की क़िल्लत थी , मैं ग़ुसलखाने से होते हुए उस कमरे में आई तो बाबा वहाँ थे किसी से बात करते हुए। मेरे पहुँचने के बाद वे मुझसे बात करने लगे। फिर थोड़ी देर में मैंने देखा कि हम दोनों ही उस कमरे में हैं। बात विचारधाराओं के आग्रह या दुराग्रह तथा कविता पर एवं आलोचना पर पड़ते असर की थी। अचानक बाबा ने कहा कि इनका(प्रगतिशीलों) का बस चलता तो वे मुझे मार-डालते( यहाँ इसे लक्षणा में लिया जाए) पर मैं टिका रहा। उनकी आँखें भर आईं थीं। उस समय आज की तुलना में मेरी उम्र काफी कम ही थी( यह 82-83 की बात है) और समझ भी कम ही थी। अतः मैं अपने मंतव्यों को रखते समय भविष्य की सोच नहीं रखती थी। फिर विचारधारा और विचारधारा का वहन एवं प्रचार-प्रसार करने वालों के बीच की फाँक कई बार देख चुकी थी अतः अनुभव को बिना पकाए रखने में भय महसूस नहीं करती थी। ऐसी ही मेरी किसी बात की प्रतिक्रिया में बाबा ने वह बात कही थी। दूसरा प्रसंग दिल्ली का है जो मैं भूल नहीं सकती। एक बार कनाट प्लेस में मैं बाबा के साथ कहीं जा रही थी। हम लोग पैदल चल रहे थे और दुनिया भर की बातें हो रही थीं। बाबा सीधे सामने देख कर चल रहे थे और बात कर रहे थे मुझसे और मैं उन्हें सुनने के लिए उनके चेहरे की ओर देख रही थी। उस समय वहाँ जो दफ्तर थे उनमें लंच-ब्रेक था और लोग दफ्तरों से बाहर आए हुए थे। बाबा ने सहसा कहा कि तुम को पता है कि ये लोग तुम्हें मेरे साथ देख कर क्या सोच रहे होंगे। कह रहे होंगे कि यह बुड्ढा बड़ा रंगीन है..... एक जवान लड़की के साथ घूम रहाहै। यहाँ इस हमारे समाज में लोग स्त्री-पुरुष को जब एक साथ देखते हैं तो केवल यही सोचते हैं। यह हमारा समाज है। अचानक हुए इस सवाल –जवाब के लिए मैं तैयार तो नहीं थी। पर एक संवेदनशील कवि का भीतरी और बाहरी संघर्ष अवश्य ही आज इसमें मैं देख सकती हूँ। एक विचारशील ज़िम्मेदार कवि को जब ऐसा कहना पड़ता होगा तो वह उसे हल्केपन-से कभी नहीं कहता। पर बाबा में यह साहस था , जीवन में और कविता में कि वह ऐसा कह सकते थे। कवि जिस समाज में रहता है उससे उसका संवाद किस तरह का हो सकता है, यह भी उसकी कविता के द्वारा प्रकट होता है।
कहने का अर्थ मेरा इतना ही है कि कवि स्वयं विचारधारा के बाहरी दबाव को स्वीकार नहीं कर सकता है, क्योंकि वह प्रकृति से स्वतंत्र होता है। स्वतंत्रता के संदर्भ में अज्ञेय और शमशेर का नाम तो हमें लेना ही होगा। परन्तु इस बात को ध्यान में रखते हुए कि स्वतंत्रता की संकल्पना भी कवि-प्रकृति के अनुसार ही होगी। शमशेर प्रेम में ऐसी स्वतंत्रता की कामना करते हैं- तुम मुझसे प्रेम करो , जैसे मैं तुमसे करता हूँ। व्यक्तिगत प्रसंग में स्वतंत्रता अगर समानता के लिए है तो जनता की एकता जनता की स्वतंत्रता को बचाने के लिए ज़रूरी है यह बात वे वाम वाम वाम दिशा कविता में कह चुके हैं। अज्ञेय प्रेम को अधिक प्रगाढ़ बनाने के लिए प्रेम में मुक्ति और स्वतंत्रता की बात करते हैं। उनके लिए प्यार अकेले हो जाने का एक नाम है / यह तो सब जानते हैं/ पर प्यार अकेले छोड़ना भी होता है /इसे /जो वह कभी नहीं भूली /उसे ,जिसे मैं कभी नहीं भूला..
जैसे नागार्जुन की कविताओं में से एक ज़िंदा होता चेहरा दिखाई देता है उसी तरह अज्ञेय की तथा शमशेर की घुलती हुई तस्वीर उनकी कविताओं के शब्दों में प्रकट होती है। नागार्जुन का चेहरा उभरता–सा है और इन दोनों का चेहरा घुलता–सा है। जबकि केदारनाथ अग्रवाल अपने शब्दों के सहचर हैं- जैसे वे अपनी कविताओं में प्रकृति के सहचर हैं, जैसे मज़दूरों-किसानों के सहचर हैं, जैसे अपनी पत्नी के सहचर हैं...। कविता को समझने की यह प्रक्रिया, यह भाव-संबंध शब्दों का, कवि की रचनात्मकता से हम जोड़ सकते हैं।
ये चारों कवि सही अर्थों में साहित्य-जीवी थे। यानी अगर वे लिख नही रहे होते , तो होते भी क्या, यह प्रश्न हमें होता है। आजीविका के लिए चाहे आप सम्पादकत्व करें या वक़ालत, पर जीने के लिए तो कविता उनके लिए साँस के समान ही थी। जो सूरज को आईने कहता हो(के.ना) और जिसकी पुतलियों में सूरज डूबता हो(श.ब.) ऐसे कवि हमारे लिए हर समय ज़रूरी रहेंगे क्योंकि ज़मीन का ज़मान नही बदला है (के.ना) ज़मीनी यथार्थ का पैकेज़ बदलता है, उसके भीतर के कंटेंट में कुछ परिवर्तन आता भी है परन्तु मूलभूत तत्व तो एक ही रहते हैं।
आज की आलोचनात्मक भाषा में बात करें तो नागार्जुन और रवीन्द्रनाथ के बादल के घिरने की रूमानियत जहाँ हमें कालीदास की हायपरटेक्स्ट में ले जाती है, वहीं फिर भी क्यों मुझको तुम अपने बादल में घेरे लेती हो ... आज नई पीढ़ी के पाठकों को शमशेर की यह ऐंद्रीय रूमानियत किसी तेल या शैंपू के कारण बने घने बालों के संदर्भ दृश्य की ओर ले जा सकती है। दे देने की उदार और मानवीय गरिमा के सर्वोत्तम भाव का जब लगभग तिरोधान हो चुका है और विज्ञापनों की मायावी और अ-वास्तविक दुनिया में बैठे हम लोग क्या केवल एक सेमीनार के लिए ही इन कवियों को याद कर रहे हैं या मुट्ठियों से फिसल रही अपनी संवेदनाओं को बचाने के लिए उन्हें बार-बार याद करना चाहते हैं।
हमारे इस समय में एक और भी बात है जो हमारे पारिवारिक भाव को चुनौति देती रहती है। हमारे समाज में जनता का नेतृत्व करने वाले लोगों के पारिवारिक भाव को जनता ध्यान से देखती है। इस पारिवारिक भाव में अन्य संबंधों की अपेक्षा पत्नी के प्रति भाव का एक ख़ासा मूल्य है। समाज का भावनात्मक नेतृत्व कवि-साहित्यकार करता है। केदारनाथ अग्रवाल पत्नी के लिए लिखी कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं। वे स्वयं इस बात को स्वीकारते हैं कि जैसा मैंने अपनी पत्नी पर लिखा और किसी ने नहीं लिखा होगा।(रामशंकर द्विवेदी के साथ की बातचीत साहित्य-अमृत, जनमशती अंक फरवरी 2011) केदारनाथ ने अपनी पत्नी के प्रति भाव को प्रकृति में मिला लिया। क्योंकि प्रकृति ही रहने वाली है। मैंने पहले उसको अपने शरीर में लिया फिर अपनी चेतना का अंश बना लिया, तो वह मेरे आत्मप्रसार की रमणी बन गयी।(वही)। कोई द्वंद्व नहीं है उनके भीतर। तुम मुझे प्रेम करो मैं तुम्हें प्रेम करूँ- इतना काफी है। फिर चाहे तुम राम से करो कृष्ण से करो जैसे मैं प्रकृति से करता हूँ। कोई जैलेसी नहीं। नागार्जुन अपनी सिंदूर तिलकित भाल कविता में भी पत्नी को याद करते हैं तो पूरे ग्रामीण परिवेश के साथ याद करते हैं। अज्ञेय के लिए पत्नी उनका घर है, बल्कि घर की एकमात्र खिड़की जिससे वे दुनिया को देखते समझते हैं। घर और पत्नी इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें यह याद भी नहीं रहता वैसे ही जैसे सांस लेते हुए हमें याद नहीं रहता कि हम सांस ले रहे हैं। शमशेर अपनी मृत पत्नी याद करते हुए कहते हैं कि-
तुम आओ तो ख़ुद घर मेरा आ जाएगा, इस कोनों-मकाँ में तुम जिसकी जिसकी हया हो, लय हो, तुम मुझे इस अंदाज़ से अपनाओ जिसे दर्द बेगानारवी कहें, बादल की हँसी कहें, जिसे कोयल की तूफ़ान-भरी सदियों की चीखें, कि जिसे हम-तुम कहें। (आओ- 1949)
यहाँ दो भाव हैं- पत्नी के स्मरण को घर से बाहर के गाँव-जीवन और प्रकृति में मिला देना और प्रकृति –समाज को पत्नी के होने या स्मरण में मिला देना। क्योंकि समाज में इसी तरह की मानसिकता के लोग विद्यमान हैं अतः हर प्रकार के व्यक्ति के लिए ये कवि अपने कवि-स्वभाव के साथ महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
शताब्दी स्मरण के इस मुहूर्त पर एक बात जो मुझे बहुत आकर्षित करती है वह यह है कि ये कवि उस पीढ़ी के हैं जब एक दूसरे के प्रति परस्पर सौहार्द्र का भाव बहुत घना था। यह एक जाना हुआ तथ्य है कि आलोचकों की विचारधारात्मक खींचतान या पूर्वाग्रह भी इन कवियों के परस्पर स्नेह संबंध को कम नहीं कर पाये थे। शमशेरजी को चाहे आलोचकों के एक वर्ग ने नयी कविता का प्रथम नागरिक कह कर अज्ञेय के विरोध में इस्तेमाल करने का प्रयत्न किया हो परन्तु उस समय तो उन्होंने इस बात को हवा नहीं ही दी बल्कि अंत तक वे अज्ञेय की प्रतिभा को स्वीकारते भी थे तथा उनके प्रति एक आदरभाव भी रखते थे। इस संदर्भ में हम मुक्तिबोध के प्रसंग को भी उदाहरण के रूप में याद कर सकते हैं जिसका खुलासेवार ब्यौरा रचनावली के पत्रों वाले भाग में उपलब्ध है। कवियों के लिए कविता की समझ अधिक महत्वपूर्ण होती है, विचारधारा नहीं। स्वयं शमशेर ने जब प्लॉट का मोर्चा लिखा तब उसे पहले अज्ञेय को दिखा कर ठीक कराना चाहते थे। विशेषकर भाषा की दृष्टि से। यह भी एक संयोग है कि इन दोनों कवियों की बीमारी में (हालाँकि वर्षों का अंतराल बहुत बड़ा है) अपनी तरफ़ से ठोस मदद के लिए चुपचाप कोई समकालीन कवि सामने आया , तो वह अज्ञेय ही थे। शमशेर जी की अज्ञेय पर लिखी कविता तो प्रसिद्ध है ही। बल्कि उन्होंने अज्ञेय पर दो कविताएं लिखी हैं। शमशेर ने नागार्जुन पर भी कविता लिखी है। नागार्जुन ने केदारनाथ अग्रवाल पर लिखी है। केदारनाथ ने नागार्जुन पर लिखी है और शमशेर पर भी लिखी है। शमशेर पर उनके बाद की पीढ़ियों के लेखकों ने लिखा है। यहाँ सवाल परस्पर के सौहार्द्र का है जो अब धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है। एक दूसरे के प्रति स्पर्द्धा का भाव किसी भी युग के रचनाकारों में होना सहज स्वाभाविक है। इस तरह की खोज हमारे यहाँ कम हो पायी है। एक बार नाट्यदर्पण की भूमिका पढ़ते हुए मैंने पाया कि यह बात रामचंद्र-गुणचंद्र के समय में भी थी। निराल-पंत के संदर्भों से हम परिचित हैं । परन्तु एक दूसरे के प्रति सौहार्द्र भाव की खोज कर के उदाहरण सामने रखना हमारे आज के समय की आवश्यकता है। अपने समकालीनों का आदर करने की जो संस्कारिता इन कवियों से हमें दाय में मिली है, हमें उस परंपरा का वहन करना चाहिए। क्योंकि आज हमें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता है। शमशेरजी की तो विशेषता ही रही है कि उन्होंने अपने समकालीनों, अग्रजों और अपनी पार्टी के लोगों पर , इतना ही नहीं घर के बसंता के नाम भी प्रेम की पाती लिखी है। उनके इस प्रकार की कविताओं का तो एक संग्रह भी हो सकता है। नागार्जुन ने भी इस प्रकार की कविताएं लिखी हैं। वे शैलेन्द्र पर भी लिखते हैं और सबसे आकर्षित मुझे इस बात ने किया कि उन्होंने राजकमल चौधरी पर भी कविता लिखी है। हमारी समकालीन आलोचना की परिधि में जो अनेक कवि नहीं आते उनमें एक राजकमल चौधरी भी हैं। भाव की दृष्टि से मुझे हमेशा ऐसा लगा है कि रील धुली तो गजानन माधव मुक्तिबोध दिखे और रील नहीं धुली तो राजकमल चौधरी दिखे। तस्वीर का नेगेटिव्ह राजकमल चौधरी है और पॉज़िटिव्ह गजानन माधव मुक्तिबोध। भाव के उदात्तीकरण की आवश्यकता कवि को कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है उसके ये दोनों कवि उदाहरण हैं।
इस हमारे समय में जहाँ रचनाएं पाठ बन गयी हैं, पाठ अन्तर्पाठ बन गए हैं और अन्तर्पाठ हायपर टेक्स्ट और मैटा टेक्स्ट बन गए हैं। यानी कि अब हम एक सर्वथा नई दुनिया में सांस ले रहे लोग हैं। ( कई बार अपने से ही सवाल करने जी होता है- क्या सचमुच) हमारी दुनिया सर्वथा भिन्न हो गयी है। अब हम एक डिजिटल दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं। पिछली शताब्दी के आरंभ से ले कर उसी शताब्दी के अंत अंत में इन कवियों ने अपना जीवन जी लिया था। मुझे याद है बाबरी मस्जिद वाली घटना के बाद भीतर तक हिल जाने वाले शमशेरजी ने बहुत पीड़ा के साथ यह वाक्य कहा था- मुझे नहीं मालूम था कि जीते जी अपने ही जीवनकाल में यह सब भी देखना पड़ जाएगा। यह सर्वथा अनपेक्षित तथा उनकी कल्पना के बाहर की बात थी। गोया अपने सामने समय को करवट लेते उन्होंने देखा । समय ने एक करवट ली ही थी कि वे मंच पर आए और समय की दूसरी करवट में तो हृदय-मन-सोच सब आलोडित हो कर जैसे कुचला गये हो।
हमारे ये विद्यार्थी जो हमारे सामने बैठे हैं उनकी और हमारी दुनिया में एक फर्क आ गया है। यह फर्क यथार्थ के परसेप्शन का फर्क है। हमारे उनके पठन में फर्क आ गया है। ज़रूरी नहीं है कि हम उन्हें साहित्य में प्रकट यथार्थ को अपनी कक्षाओं में जिस तरह पढ़ाते हैं, ठीक उसी तरह वे उसे परसीव करते हों। वे विचारधाराओं की उत्कटता से परिचित नहीं हैं, वे विमर्शों को ले कर ठीक वैसा नहीं सोचते , जैसा हम सोचते हैं। परीक्षा में तैयारी कर के हमारे पढ़ाए अनुसार लिखना एक बात है, पर जीवन-संदर्भों में उस पर विश्वास करना दूसरी बात है। यहाँ मैं उस प्रश्न को नहीं छेड़ना चाहती कि उनके लिए साहित्य के मायने क्या रह गए हैं। अगर वे साहित्य में एम.ए इत्यादि नहीं कर रहे होते तो क्या शताब्दी कवियों – इस वर्ष के नहीं बल्कि हर वर्ष किसी न किसी शताब्दी कवि को कितना पढ़ते और समझते। पसंद करने की बात यहाँ नहीं है।
तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि शताब्दी कवियों को याद करना हम साहित्य के प्रोफेशनल्स का ही काम है। जैसे किसी भी क्षेत्र में विषय से जुड़ी किसी नई खोज पर सिंपोज़ियम होते हैं, वे चाहें मैनेजर्स हों या हैर-ड्रेसर्स हों, उसमें रुचि ले कर काम करते हैं। शताब्दी कवियों को याद करना क्या इस तरह की कोई बात है, या नहीं। तो, साहित्य आखिर हमारे सामाजिक जीवन में कौन-सी उपयोगिता छोड़ जाते हैं.. यह सवाल तो बना ही रहता है। अगर इन शताब्दी कवियों/रचनाकारों के साहित्य को हम प्रोफेशनल्स सचमुच मूल्यावान मानते हैं , तो ऐसा क्या हमें करना चाहिए कि हमारे अकादमिक और प्रोफेशनल क्षेत्र के बाहर जा कर हम व्यापक समाज के लोगों तक उसे पहुँचाने का काम करें। हमें अपनी परिक्षाओं और डिग्रियों से आगे जा कर क्यों इन रचनाकारों पर अलग से सोचना चाहिए। वे कौन-सी बातें इन रचनाकारों में हैं जो आज भी समाज को बेहतर बनाने में कामयाब हो सकती हैं। लेकिन सबसे पहले तो हमें अपने आप से एक सवाल पूछना चाहिए कि ऐसा करना क्या हम अपना काम मानते हैं। हम साहित्य के अध्यापकों के लिए यह बहुत आवश्यक हो गया है कि हम नए सिरे से चीज़ों पर सोचें। नहीं तो इतिहास से ले कर हायपर टेक्स्ट तक की जो गाड़ी हमारे सामने से गुज़र रही है वह और आगे चली जाएगी और हम वहीं अपने स्टेशन पर खड़े के खड़े रह जाएंगे – क्या हम यह एफोर्ड कर सकते हैं। जिन रचनाकारों का मूल्य हमने समझा है और वाक़ई में वे मूल्यवान हैं, उन्हें हम किस तरह आने वाली पीढ़ी तक ले जाएं, यह भी हमारा काम है।
हर पीढ़ी अपनी समझ और रुचि के अनुकूल रचनाकारों को स्वीकार करती ही है। प्रश्न इतना ही है कि हम इन रचनाकारों को आज उस माध्यम के द्वारा नई पीढ़ी तक ले जाएं। इसलिए सायबर स्पेस में जहाँ हर कोई सरलता से पहुँच सकता है, वहाँ तक इन्हें ले जाने का काम हमारा है। सायबर स्पेस में कविता के नए ठिकानों तक जा कर, उपलब्ध स्पेस में बेहतर सामग्री को शामिल करना हमारा काम होना चाहिए। विचारधारा और विमर्श इसमें आड़े नही आने चाहिएं। इस शताब्दी वर्ष में हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हम प्रस्तुति और प्रकाशन के नए माध्यमों में अपने साथ-साथ इन अपने प्रिय और मूल्यवान रचनाकारों को भी शामिल करते चले जाएं, क्या मालूम कौन-सा नया पाठक वर्ग उनको पढ़ने के लिए उत्सुक तैयार बैठा है। इसके लिए हमें सबसे पहले तो अपने पूर्वग्रहों से निकल कर इन रचनाकारों की कविताओं की व्यापक भूमि को पहचानने की कोशिश करनी होगी। यह शिकायत भी लोगों को है कि कविता कोई नहीं पढ़ता। पर मेरे साथ आपका भी यह अनुभव होगा कि साहित्येतर क्षेत्रों के कई लोग अपने वक्तव्यों को पुष्ट अथवा अलंकृत करने के लिए भी कविताओं को तो खोजते ही रहते हैं। आम जन भी कविताएं पढ़ना पसंद करते हैं, सवाल यह है कि उनके पास कितनी ऐसी कविताएं उपलब्ध हैं और इस बढ़ती हुई मँहगाई में किस दाम पर वह ख़रीद सकता है। सायबर स्पेस में यह सुविधा है कि वह कम दामों(या मुफ्त) में उनको प्राप्त कर सकता है। मैं कोई विज्ञापन नहीं कर रही , पर आने वाले समय में अगर हम इस दिशा में नहीं जाएंगे , तो हम अपना ही नुक्सान करेंगे। अंत में नागार्जुन के स्वर को ध्यान से सुनें कि वह क्या कहते हैं-
दिन है/ शताब्दी समारोह के समापन का/ दिन है-पंडों की धूमधाम का/ दिन है धान रोपने का सावन का/ दिन है/ स्मृति की सरिता में प्लावन का..
नहीं, केवल स्मृति की सरिता में प्लावित होने के लिए ही यह शताब्दी स्मरण हम नही कर रहे परन्तु इन कवियों को पढ़ने का अर्थ है अपनी छूटती हुई साँसों को अधिक से अधिक जी लेने की कोशिश करना।
रंजना अरगडे