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सोमवार, 17 अगस्त 2009

हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य

हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य
रंजना अरगडे़


स्वतंत्रता के 60 वर्षों बाद 2008 में जब इस प्रकार का आयोजन हो रहा है, तो निश्चय ही यह एक तरह का स्टॉक-टेकिंग है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक उत्साह वर्द्धक पहल है। आज हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य की बात करना मेरी दृष्टि में तीन कारणों से महत्वपूर्ण है।
पहला हिन्दी का हमेंशा से ही एक भारतीय परिप्रेक्ष्य रहा है, जिसके विषय में हमें पता होते हुए भी हमने विशेष ध्यान नहीं दिया। इस संदर्भ में हमारा भक्तिकालीन साहित्य उदाहरण के रूप में लिया ही जा सकता है। साथ ही भारत का स्वतंत्रता संग्राम तथा स्वातंत्र्योत्तर स्थितियाँ भी समान ही रही हैं, लगभग।
दूसरा
हिन्दी शिक्षण अधिक समर्थ और पुष्ट बनाने के लिए तथा
तीसरा
समग्र वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी अथवा किसी भी एक भारतीय भाषा एवं साहित्य के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक भी हो गया है।
हालाँकि इसका बीज उस कथन में पड़ चुका था जब पिछले कुछ वर्षों से 14 सितंबर को भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाए जाने की बात की जाने लगी है। इस विचार का मूल जनक या जननी कौन है, मैं नहीं जानती किन्तु मैंने तो पहली बार इसे इस सभा के अध्यक्ष श्री अशोक वाजपेयी जी के एक प्रकाशित व्याख्यान में पढ़ा था जो आपने नागरी प्रचारिणी सभा के मंच से कुछ वर्षों पूर्व दिया था।
मैं समझती हूँ कि इस क्षण हमें किसी भी परिभाषा तथा व्याख्या में न पड़कर सीधे बात पर आना चाहिए। परन्तु बिना इस बात को भूले कि इस प्रकार के सम्मेलन के आयोजन के पीछे वे व्यापक विश्वगत तथा गहरे प्रदेशगत दबाव भी हैं, जिनका सामना हिन्दी पढ़ाने वाले उन दोनो प्रकार के अध्यापकों पर पड़ रहा है, जो हिन्दी तथा हिन्दीतर भाषी राज्यों में अध्यापन कर करे हैं। इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि वैश्वीकरण के कारण हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं पर संकट आ रहा है। हालाँकि इसके साथ असहमत होने वाला भी एक वर्ग है। संकट तो आ ही रहा है पर इसके लिए जितना ज़िम्मेदार वैश्वीकरण है, उससे अधिक अब तक बनी हमारी मानसिकता भी कि हिन्दी शिक्षण को हम उतनी गरिमा नहीं दे सके जितनी देनी चाहिए। हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी को लेकर बड़ा उत्साह रहा है फिर चाहे वह दक्षिण हो या गुजरात। जिस संस्थान के परिसर में हम खड़े हैं, वही उसका एक उदाहरण है। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है कि जहाँ गुजराती के साथ हिन्दी को भी राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है। पर आज स्थितियों में जो परिवर्तन आया उसके लिए ज़िम्मेदार हमारी वह लाभ लेने वाली मानसिकता भी है। हमने इस स्थिति से लाभ तो लिए, परन्तु इसकी गरिमा की वृद्धि न कर सके परन्तु उसे बचा कर भी न रख सके।
यह एक अजब स्थिति है कि बदलती परिस्थितियों में भारतीयता और संस्कृति जैसे मुद्दों पर सभी को इसलिए भी बात करनी पड़ रही है क्योंकि वैश्विक स्तर पर जब पहचान की बात आती है तब आपके सामने जो सवाल खड़े होते हैं उनका उत्तर उन्हीं रास्तों पर से हो कर मिलता है। हमने अपने साहित्यकारों को लगभग सूचना के स्तर पर ही पढ़ा-पढ़ाया है। अतः हजारीप्रसाद या महादेवी को पढ़ कर हमने अपने छात्रों में या स्वयं अपने में यह चेतना कितनी जगाई होगी कि आखिरकार जातियों का गठन एक ऐतिहासिक परिस्थिति तथा समय की मांग रहा है और अपनी जड़ों को जान कर ही अपनी गरिमा की पहचान होती है इत्यादि। हमने समावेशी दृष्टि की अपेक्षा भेद-दृष्टि को विकसित किया। यही भेद-दृष्टि आज एक विकराल संकट बन कर देश और विश्व में हमारी पहचान को ले कर एक प्रश्न बन गई है। इस भेद-दृष्टि का प्रभाव इतना रहा है कि अज्ञेय, निर्मल जैसे रचनाकार भी चर्चा के हाशिए में ही रहे हैं। हिन्दी साहित्य की भूमिका वास्तव मे शांतिनिकेतन जैसी संस्था, यानी कि बंगाल में रह कर लिखे गये हिन्दी पहचान के एक अकादमिक प्रयास के रूप में देखा जाता, तो तमाम हिन्दीतर राज्यों में उसे पढ़ाने का उपक्रम होता और निश्चय ही इससे हिन्दी शिक्षण का भला ही होता। पर इसे केवल एक और इतिहास के रूप में देख कर, केवल तभी पाठ्यक्रमों में रखा गया जब एक विशेष साहित्यकार के रूप में हजारीप्रसाद को पढ़ाया जाता रहा। उक्त दृष्टि के अभाव में जहाँ से हजारी प्रसाद ने बात को छोड़ा था, उसके आगे कोई प्रयास नहीं किया गया। यहाँ मुझे उल्लेख करना चाहिए कि गुजरात में भी मध्यकालीन संतों का हिन्दी वाणी, ब्रजभाषा पाठशाला, तथा महामति प्राणनाथ जैसे क्षेत्रों में काम हुआ है पर अगर हम कह सकें तो हिन्दी वर्चस्व का स्वर तथा साहित्य की अपनी विशेष राजनीतिक दृष्टि के कारण उन कामों पर वैसा विचार नहीं हुआ है जिससे हिन्दी शिक्षण की भारतीयता उभर कर आती।
हिन्दी शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य को मोटे तौर पर दो स्तरों पर देखा जा सकता है। विषय के स्तर पर तथा भाषा के स्तर पर। या कहें कि सामग्री के स्तर पर तथा अभिव्यक्ति के स्तर पर। पुनः हिन्दी शिक्षण की सामग्री को आधारगत, सृजनात्मक एवं सूचनात्मक इन तीन विभागों में बाँटा जा जा सकता है। आधारगत सामग्री के अन्तर्गत काव्य-शास्त्र, भाषा-विज्ञान तथा व्याकरण को ले सकते हैं। सृजनात्मक में कहानी कविता इत्यादि में प्रस्तुत भक्ति, नवजागरण, किसान, दलित, नारी आदि मुद्दों को ले सकते हैं। तथा सूचनात्मक में साहित्य के इतिहास को शामिल कर सकते हैं।
अभिव्यक्ति के स्तर पर भाषा-प्रयोग, द्विभाषिकता, अनुवाद तथा काव्य उपकरणों आदि को लिया जा सकता है।
यह आवश्यक है कि हम अपनी आधारगत सामग्री अर्थात् काव्यशास्त्र, व्याकरण एवं भाषा विज्ञान को अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ही तुलनात्मक स्वरूप में पढ़ाएँ। हिन्दी, संस्कृत, पश्चिमी के साथ-साथ प्रादेशिक एवं दक्षिण-भारतीय काव्य-शास्त्र का कुछ अंश हमारे पाठ्यक्रम में होना चाहिए। इस समय संस्कृत तथा पश्चिमी काव्य शास्त्र का जितना अंश पढ़ाते हैं उसे कम करके प्रादेशिक और दक्षिणी-(तोलकप्पियम्) को शामिल करें। जिससे सृजनात्मक सामग्री में जब उन हिस्सों को शामिल करेंगे तो विद्यार्थी परस्पर संबंध जोड़ सकता है
[1]। व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान तो अनिवार्य रूप से प्रादेशिक भाषा के साथ तुलना करके ही पढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि चाहे हिन्दी भाषी प्रदेश हों या हिन्दीतर, सभी पर अपनी भाषा या बोली के संस्कार होते ही हैं, जिसका प्रभाव उनकी भाषा तथा व्याकरण पर देखा जा सकता है।
मैं गुजरात से आ रही हूँ अतः मैं इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी समझती हूँ कि वर्तमान समय में भी हमारे महत्वपूर्ण कवियों की रचना में भाषा तथा शिल्प के स्तर पर भारतीयता का प्रभाव, सामग्री तथा रचना-रीति एवं वाक्य-रचना में भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए राजेन्द्र शाह की कविताओं में बंगाली गीतों की लय है तो राजेन्द्र शुक्ल की कविताओं में सधुक्कडी भाषा का प्रयोग है। उसके अनुवाद की आवश्यकता ही नहीं है। राजेन्द्र शुक्ल लिखते हैं ग़ज़ल पर वृत्त संस्कृत है तथा भाषा न गुजराती है न हिन्दी, बल्कि, जैसे मैंने कहा सधुक्कडी।
हिन्दी के शिक्षण में भारतीय परिप्रेक्ष्य अलग से न हो कर मुख्य पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। जब हम सृजनात्मक सामग्री की बात करते हैं तब मध्यकालीन साहित्य में मीराँ के पदों में कुछ गुजराती के पद शामिल करने चाहिए या कृष्ण भक्ति परंपरा में दयाराम अथवा बंगाल के वैष्णव भक्त (ब्रजबुलि) शामिल करने चाहिए, अथवा भक्ति की अलग-अलग धाराओं के भारतीय कवियों की रचनाओं को अनुवाद में ही सही पर शामिल करना चाहिए। हमें कबीर के साथ ही अखो तथा ज्ञानेश्वर तथा गुरु गोविन्द सिंह को भी पढ़ना चाहिए। यानी हम केवल हिन्दी के मध्यकाल को न पढ़ा कर भारतीय मध्यकाल को पढ़ाएं। उसी तरह भारतीय नवजागरण काल को या भारतीय आधुनिक काल को, भारतीय दलित या भारतीय नारी साहित्य को पढें। हालांकि यह तुलना ठीक न भी लगे परन्तु जिस तरह इंडियन इंग्लिश की अवधारणा है वैसे ही भारतीय हिन्दी की अवधारणा के बारे में सोचना होगा।
इसी को ध्यान में रख कर भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य को नए सिरे से लिखने की आवश्यकता भी होगी।
अनुवाद का महत्व हिन्दी के पाठ्यक्रमों में केवल रोज़गार की दृष्टि से ही नहीं है। पर समूचे भारतीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी पढ़ने वालों की सोच का माध्यम हिन्दी नहीं है। अतः अभिव्यक्ति का वैविध्य देखा जा सकता है। सृजनात्मक साहित्य में इस विचलन को सकारात्मक रूप से देखने की छूट मिल जाती है पर अन्य स्थानों पर ऐसा नहीं हो पाता। संभव भी नहीं है। प्रयोजनमूलकता के क्षेत्रों में तो यह समस्या है ही नहीं क्योंकि वहाँ तो भाषा का स्वरूप ही भिन्न है। प्रश्न केवल पढ़ने-पढ़ाने तथा आलोचना की भाषा का रह जाता है। हिन्दी शिक्षण में जब समावेशी तथा आंतरिक रूप में भारतीय परिप्रेक्ष्य को हम शामिल करेंगे तो यह प्रश्न नहीं रहेगा कि सोच की भाषा हिन्दी ही हो अथवा नहीं। भाषा प्रयोग में चाहे स्वैराचार को स्थान न दें पर अत्यधिक शुद्धतावादी दृष्टिकोण पर पुनर्विचार कर लेना चाहिए।
इस प्रकार के पुनर्लेखन एवं कार्यों के आरंभिक प्रयास हमारे लेखकों ने किया ही है
[2] और हमारे पास ऐसी संस्थाएं भी हैं जिनके साथ मिल कर हम ऐसा काम कर सकते हैं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान है ही, साहित्य अकादमी है, भारत सरकार का भाषा विभाग है, अनुवाद परिषद् भी है ... अगर इन सबके साथ हमारी इच्छा शक्ति भी जुड़ जाए तो यह काम कठिन नहीं है।


[1] रस, ध्वनि, रीति तथा अरस्तू, कॉलरिज एवं इलियट तथा संरचना एवं उत्तरसंरचनावाद केवल इतने ही मुद्दे संस्कृत एवं पाश्चात्य में से ले कर शेष हिन्दी, प्रादेशिक एवं दक्षिणी काव्य-शास्त्र के लिए जा सकते हैं। दक्षिण के प्रांत अपने अपने साहित्य की काव्य-शास्त्रीय परम्परा को शामिल कर सकते हैं।


[2] नगेन्द्र द्वारा संपादित भारतीय काव्य-शास्त्र का इतिहास

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