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रविवार, 12 दिसंबर 2010

शमशेरजी को याद करते हुए


मुझे याद आता है कि जिस वर्ष शमशेरजी का देहावसान हुआ, उसी वर्ष मेरेसामने दो प्रस्ताव आए थे। पहला यह कि मैं शमशेरजी के साथ बिताए वर्षों के संस्मरणों पर एक पुस्तक लिखूं। दूसरा यह कि मैं रचनावली का काम तुरन्त आरंभ कर दूँ । मैंने पूछा कि रचनावली की इतनी जल्दी क्या है तो यह कारण सामने रखा गया कि देर होने से फिर लोग शमशेरजी को भूल जाएँगे, बाद में इस बात का इतना महत्व नहीं रहेगा। तब मैंने यह कहा था कि जिस कवि को लोग इतनी जल्दी भूल जाने वाले हों, उनकी रचनावली की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिए। जहाँ तक संस्मरणों का प्रश्न है मुझे इसमें इतनी रूचि इसलिए नहीं रही कि पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी में संस्मरणों का दुरुपयोग भी बहुत हुआ है। उसकी विश्वसनीयता खंडित हुई है ; क्योंकि संस्मरणों के तथ्यात्मक आधार की जाँच हर बार संभव नहीं होती। फिर संस्मरणों की पुस्तकें मुझे कई बार शोक सभा की याद दिलाती हैं जिसमें व्यक्ति, मृतक की कम, अपनी ही बात अधिक करता है। अथवा कई बार यह भी होता है कि हम संस्मरणों के माध्यम से किसी की लकीर को छोटा कर के अपनी लकीर बड़ी करना चाहते हैं। मैं यह मानती हूं कि रचनाकार की रचनाएं ही अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। बहरहाल, आज जब मुझे आपके सामने शमशेरजी के संस्मरण सुनाने हैं, तो मेरी कोशिश यही रहेगी कि इन्हें उस अर्थ में शोक सभा का रूप न मिले अथवा मैं किसी की लकीर को छोटा न करूं।
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मानों हम सहज ही कहीं टहलने निकल गए हों.....मसलन किसी नदी किनारे या किसी ऐसी जगह जहाँ सहसा बहुत कुछ घटित हो जाता है ; जैसे भरे बाज़ार में या मेले में..... 'क्या हो रहा है' का कौतुहल हमें अचानक, हमारे ही अन्जाने उस खेलते, लहर-लहर पानी के एक ऐसे प्रवाह में ढकेल देता है कि हमारे पास 'क्या किया जाए' इस बात पर सोचने का न तो विकल्प होता है न ही वक्त; और हम बस बहते चले जाते हैं प्रवाह के साथ-साथ... और ठीक वहीं और तभी जा कर रुकते हों जब प्रवाह की गति उसकी अनुमति दे।
अथवा मेले में खेल देखने की उत्सुकता से चले हों और हमारे हाथों में एक बेहद प्यारे, पर खो गए बच्चे की ज़िम्मेदारी आ पड़ती है और उस दिलक़श बच्चे को देख कर हमारे मन में भी यही विचार आता है कि 'अच्छा हुआ कि हम वहाँ मौजूद थे।'
अथवा भीड़ भरे बाज़ार में बीच सड़क पर कोई हादसा हुआ है और सभी अपनी-अपनी राह चले गए हों। आप भी उस हादसे के गवाह हों और लुहलुहान घायल को उसकी नियति पर नहीं छोड़ सकते क्यों कि यह वो शख़्स है जिसने मनुष्य जाति की भावनाओं को लहूलुहान होने से बचाया है ; जिसके भीतर के एकांत में मनुष्य, समाज, आत्मीयों की स्मृति, बेचैन हो कर घूम रही है , वह अपने घायल पाँवों पर खड़े रहने की ज़द्दोज़ेहज में जब आपकी ओर देखता है तो आपको सहसा अपनी एक छवि उसके भीतर दिखाई देती है। उसने कभी आपको बताया नहीं था कि आप उसकी बेचैन स्मृतियों का एक हिस्सा हैं, पर आप स्वयं अपने को जब वहाँ देखते हैं तो सिवा उस लहूलुहान अकेले व्यक्ति के साथ होने के, कोई और विचार आप के भीतर नहीं जागता।
इन तीन दृश्यों का मिला-जुला भाव और स्वरूप मेरे सामने थे जब वह निर्णय मेरे भीतर जगा और शमशेरजी ने मेरे साथ आने का चुनाव किया।
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शमशेरजी के साथ मेरी स्मृतियां तब से जुड़ी हैं जब 1978 में मैंने उनपर शोध करने का निर्णय किया और 1979 में मैं उनके समक्ष एक शोध-छात्रा के रूप में उपस्थित हुई थी। उन स्मृतियों में एक ऐसे कवि की छबि अंकित है जिसे अपने पर काम कराने या होने को लेकर कोई विशेष उत्साह तो नहीं ही रहता था, बल्कि, उनकी कोशिश यह रहती थी कि कोई ना ही करे तो अच्छा है। इसका कारण यह था कि उन्होंने अपनी कविताओं को इस तरह कभी नहीं देखा कि उनका कोई मूल्य हो, सिवा उनके लिए या उनकी तरह सोचने वालों के लिए। पर उनके समक्ष जो व्यक्ति उपस्थित है, जो इस प्रकार के या किसी भी प्रकार के कार्य के लिए पहुँचा हो. उसके आतिथ्य के प्रति वे सदैव ही तत्पर रहते थे। उस यात्रा में शमशेरजी को मैं अपनी आँखों से नहीं परन्तु उस व्यक्ति की आँखों से देख रही थी जिनके माध्यम से मैं वहाँ पहुँची। अतः मेरा उनके प्रति भाव पक्षपात से भरा हो, यह स्वाभाविक है। मैंने ख़ुद अपने ढंग से अपने अनुभव से तो शमशेरजी को बाद में जाना।
शमशेरजी के साथ मेरे अपने अनुभव उज्जैन और बाद में सुरेन्द्रनगर आदि के दिनों... वर्षों के हैं। ये अनुभव कई प्रकार के हैं। जिनमें शमशेरजी के साथ मेरे अपने, मेरे परिवार के साथ के, शमशेरजी के साथ उनके परिवार के, साहित्यकारों के साथ के आदि आदि। शामिल हैं। मैं उन्हीं में से कुछ आपके बीच बाँटना चाहती हूँ।
उज्जैन के दिनों की बातें मैंने इसके पहले भी कहीं-न-कहीं लिखी हैं। मैं यह भी जानती हूँ आज की यह कोई अनंत बैठक नहीं है कि मैं अपनी बातें कहती चली जाऊं। मुझे इस बात का भी एहसास है कि संभवतः बीमारी और उसके बाद के दिनों में शमशेरजी की क्या स्थिति थी और उनका जीवन किस तरह बीतता था यही जानने की उत्सुकता संभवतः लोगों के बीच अधिक है। मैं यह भी जानती हूँ कि एक यह उत्सुकता भी, शायद, हिन्दी प्रेमियों के बीच है कि आखिरकार धुर उत्तराखंड का जीव पश्चिमी खंड में कैसे जा कर बसा। फिर कौन है यह रंजना ? सैकड़ों शोध-छात्रों में यह एक शोध-छात्रा । हमारे समाज की यह भी एक विडंबना है कि इन्सान जब बदहाली से बच जाता है, तो अचानक उसकी ओर हमारा ध्यान जाता है। अरे! ! वरना यह चर्चा तो आम है कि हम अक्सर यह अफ़सोस जताते रहे हैं कि फ़लां कवि/लेखक के अंतिम दिन बड़े कष्ट में बीते। यह हमारी नकारात्मक भावनाओं का पोषण करती है और हमें एक तरह का संतोष भी देती है, कहीं-न-कहीं। हिन्दीतर भाषी परिवार में हिन्दी के इस महत्वपूर्ण कवि के दिन कैसे बीते होंगे, यह उत्सुकता अगर कौतुहल का मुद्दा रहा है, तो इस बात पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं है। मैं इसे स्वाभाविक ही मानती हूँ।
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इस भूमिका के बाद अब मैं अपनी स्मृतियों को टटोलती हूँ तो मुझे दिखाई पड़ते हैं वह शमशेरजी जिनके साथ रहते हुए मुझे हमेशा यह लगा कि I was the chosen one!.
अहमदाबाद से उज्जैन अगर पास नहीं तो दूर भी नहीं था। एक रात का सफ़र। जाने के लिए गाड़ी तो तब एक ही थी, पर बसें दो-चार तो थी हीं। बस की यात्रा बहुत आरामदायक नहीं थी, क्योंकि राज्य परिवहन की सामान्य बसें तो जैसी थीं, वैसी थीं। और यह कोई आजकल की बात तो नहीं है। 1980 में हड्डियां दुखाने वाली सडकों पर चलती ये बसें मुझे कभी कष्टदायक नहीं लगी थीं क्योंकि एक तो उम्र ऐसी थी और दूसरे कोई विकल्प भी नहीं था। शाम होने से पहले यानी 6 बजे से पहले अगर मन में इच्छा हो जाती तो साढ़े सात की बस पकड़ कर उज्जैन के लिए चल देती थी। शमशेरजी के यहाँ सभी के लिए जगह थी। उनकी आवभगत का अनुभव मैं दिल्ली में कर चुकी थी। चाय के लिए मना करने पर दूध का आग्रह रखने वाले शमशेरजी के यहाँ जाने के लिए भला संकोच होने का कोई कारण नहीं था। ऐसी ही अनेक बार की यात्राओं में शमशेरजी से बढ़ता हुआ परिचय एक अधिकार-भरी आत्मीयता में बदलने लगा। शमशेरजी का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि इस तरह का अधिकार-भाव रखने वाले कितने ही लोग उज्जैन में मैंने देखें हैं। शमशेरजी सभी के लिए बाहें खोल कर ऐसे उपस्थित हो जाते कि हर कोई यह मानता कि शमशेरजी उनके विशेष निकट हैं। शमशेरजी से मेरा नाता कविता के माध्यम से जुड़ा था और मैंने यह पाया कि उन्हें कविता की मेरी समझ के प्रति विश्वास एवं आदर था जो वे अक्सर मेरे शोध-निर्देशक आदरणीय डॉ. भोलाभाई पटेल की तारीफ़ करते हुए प्रकट करते थे। इसी का परिणाम यह हुआ कि एक दिन उन्होंने मुझसे यह कहा कि जब यहाँ का ( प्रेमचंद पीठ) कार्यकाल पूरा हो जाएगा तो मैं अपना सारा सामान तुम्हारे यहाँ रखूंगा और मैं स्वतंत्र हो कर जहाँ मेरी इच्छा होगी , घूमूंगा। भविष्य की बात थी, मैंने उसे उतना ही महत्व दिया , जितना उस समय के लिए योग्य था। पर हाँ, मुझे ख़ुशी हुई कि शमशेरजी का मुझ पर भरोसा है। उनकी इस बात के पीछे नियति का क्या खेल था मैं तब नहीं जान पायी थी।
मैंने यह पहले लिखा है पर मुझे कहने का मन होता है कि उज्जैन में शमशेरजी अकेले रहते थे पर उनके यहाँ रोज़ चार लीटर दूध तो कम-से-कम आता था। फिर फल आदि की इफ़्रात। उनके घर के आँगन के पिछवाड़े एक बग़ीचा था जिस में अमरूद के पेड़ थे। उन पर अमरूद लगा करते थे। उस बग़ीचे के अमरूदों, गिलहरियों, चिड़ियों साँपो, मोर ( कभी - कभार आने वाले), अमरूद के पेड़ों से छनती आती धूप-छांही, सभी शमशेरजी की बातचीत का हिस्सा थे। उस आँगन में मैंने उन्हें योगासन करते हुए देखा है। आसन करते हुए बीच-बीच में वे आसनों की प्रक्रिया में होने वाली अनुभूतियों की बात करते और मुझे स्मरण आती उनकी वे कविताएं – सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता....। मुझे प्लॉट का मोर्चा का वह रेखा चित्र भी याद आता और समझ में आता कि इन कविताओं में जो बिम्बों की जटिलता है वह एक विशिष्ट अनुभूति के कारण है। उस अनूभूति को समझ लेने पर कविता एकदम सरल हो जाती है। फ़्रांसिसी प्रतीकवादी कवियों ने प्रतीकों की जिस निजता की बात की है उसका रहस्य भी तभी समझ में आता है। शमशेरजी का नहाने का तरीक़ा बड़ा विशिष्ट था। अपना पायजामा ऊपर तक, लगभग जांघों तक, चढ़ाए, एक मग्गे में पानी ले कर, छोटा-सा तौलिया गीला कर के उस पर पीयर्स साबुन लगाते थे। पहले वे सूखे तौलिए से अपना बदन रगड़ते थे , फिर साबुन लगे गीले तौलिए से अपना बदन साफ़ करते थे और फिर एक बार साफ़ पानी में तौलिया भिगो कर बदन पर लगा साबुन साफ़ करते और अंत में एकाध मग्गा पूरे शरीर पर डाल लेते। यह उनका किफायती स्नान का प्रत्यक्ष उदाहरण था। (किफायत पानी की, समय की नहीं) यही किफ़ायत सुरेन्द्रनगर जैसे शहर में बड़ा वरदान साबित हुई थी।
शमशेरजी अमरूदों को देखते हुए इलाहाबाद को याद करते और इलाहाबाद को याद करते हुए बहुत कुछ उनकी स्मृति पटल पर खिंच जाता। ऐसे में ही उहोंने मुझे भुवनेश्वर के जीवन की ट्रेजेडी के विषय में बताया था। मैने तो भुवनेश्वर को नहीं देखा , ज़ाहिर है, पर शमशेरजी ने भुवनेश्वर का जो चित्र खींचा था मुझे हमेशा ऐसा लगा है, और आज भी ऐसा लगता है कि मैं भुवनेश्वर से मिल चुकी हूँ। मेरे कहने का अर्थ यही है कि शमशेरजी अपनी बात को जिस गहन आत्मीयता से कहते थे कि चाहे प्रसंग की बारीकियां आपको याद न रहें उसके प्रभाव आपके चित्त पर स्थायी हो जाते थे। इलाहाबाद के सिविल लाईन्स इलाके में रात-बे-रात घूमते(भटकते) भुवनेश्वर का चित्र, मानों , मेरी अपनी स्मृति का हिस्सा बन गया है। 'वग़रना तू भुवनेश्वर...' कविता में शमशेरजी ने अपने समय के इस कलाकार के बारे में कहा ही है। पर इतना तो है कि भुवनेश्वर की कला के प्रति आदर होते हुए भी शमशेरजी भुवनेश्वर के ख़स्ताहाल के लिए ख़ुद भुवनेश्वर को ही एक हद तक ज़िम्मेदार भी मानते थे।
मैं जब शमशेरजी के यहाँ उज्जैन जाया करती थी तब रोज़ उनके साथ सुबह घूमने का अवसर मैं नहीं चूकती थी। इन्हीं प्रातः-चालों में कला और कृति के मर्म को समझने की बारीकियां मैंने सीखी होंगी। सौन्दर्य किसे कहते हैं- यह शमशेरजी की कविताओं से तो जाना ही है पर अपने चारों तरफ़ के परिवेश में उसे कैसे देखना , यह मैंने उन्हीं से सीखा है। किसी पेड़ की जड़ें ज़मीन के नीचे किस दिशा में होंगी जिसके कारण वह ज़मीन के बाहर किसी विशेष दिशा में बढ़ता है, पेड़ों पर लगे पत्तों की संरचनाएँ किस तरह अलग-अलग होती हैं जिनसे पेड़ों को पहचाना जा सकता है, उनकी डालियों के बढ़ने और आकारों आदि की वे अक्सर चर्चा करते थे। मुँड़ेर पर बैठी गिलहरी या आँगन में पड़ते धूप-छाँही के रेखाचित्रों के सौन्दर्य तथा उनके साथ गोया कोई आत्मीय रिश्ता हो कुछ इस तरह उन पर वे जब बोलते थे तो मैंने मानों पहली बार जाना कि 'कवि' किसे कहते हैं। शमशेरजी के पास इस तरह की इतनी बातें थी और उनको इस तरह सुनते हुए मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि धीरे-धीरे मैं सौन्दर्य-शास्त्र में दीक्षित हो रही हूँ। अपने आस-पास के परिवेश को कितनी बारिकी से किस तरह देखना चाहिए यह भी शमशेरजी के साथ की हुई प्रातः-चाल का ही परिणाम है।
लेकिन उज्जैन में चाहे आत्मीय ही सही, पर थी तो मैं एक मेहमान ही।
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शमशेरजी का कार्यकाल जिस अप्रैल( 1985) में पूरा होने वाला था और नरेश मेहता आने वाले थे , मैं उनसे मिलने चली गई। मैंने सोचा था उनसे मिलते हुए फिर मैं कहीं घूमने निकल जाऊंगी , क्योंकि गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ने वाली थीं। मेरा एक स्वप्न था कि नौकरी करूंगी और छुट्टियों में भारत-भ्रमण का कार्यक्रम। पर सब कुछ बदल गया। शमशेरजी उज्जैन में नहीं थे। प्रेमलता वर्मा अपनी बेटी श्रुति के साथ आई हुईं थीं और शमशेरजी उनसे मिलने दिल्ली गए हुए थे। उनके नौकर रणजीत ने बताया कि वे दो-चार दिनों में आ जाएंगे । वह ख़ुद भी बाहर जाने वाला था। मैंने सोचा कि मैं रुक ही जाऊं और उनसे मिल कर फिर चल दूंगी। शमशेरजी आए। पर भयंकर लू लगने से बीमार। फिर तो सारा कार्यक्रम ही उलट-पुलट गया। रणजीत भी चला गया था। मैं वहीं रुकी। इस बीच नरेशजी भी आ गए थे। पीठ का कार्यभार संभालने के लिए। पर शमशेरजी इतने बीमार थे कि उनका जाना संभव नहीं था। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है उनके स्वजनों को मेंने चिट्ठी लिखी कि वे आ कर शमशेरजी को ले जाएं। पर नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था। मैंने भी सोचा कि शमशेरजी ने कहा भी था , सो मैं ही उन्हें ले जाती हूँ। फिर ठीक होने पर जैसी उनकी मर्ज़ी।
लेकिन उन दिनो उज्जैन में अपनी तीमारदारी के चलते मैंने काफ़ी अ-प्रियता कमा ली थी। डॉक्टर ने उन्हें पूरा आराम करने के लिए कहा था। पर स्वयं शमशेरजी और उनके मिलने वाले( जो उन्हीं की तरह थे) डॉक्टर की सलाह से बहुत वाक्फियत नहीं रखते थे। मुझे एक कड़ी नर्स का रोल करना पड़ा था। उसी समय यह गुनगुनाहट मैंने सुन ली थी कि 'रंजना ने शमशेरजी पर जैसे कब्ज़ा कर लिया है।' पर आप अगर नर्स हैं तो नर्स हैं। शमशेरजी से जब उनके लोग मिलने(समय-अ-समय) आते थे और मेरी रोक का सामना करते थे, तो वे ही नहीं, शमशेरजी स्वयं भी नाराज़ होते थे। पर बाद में कहते थे कि तुम बहुत अच्छा कर रही हो। मेरी रोक पर शमशेरजी की नाराज़गी तो लोगों ने देखी, पर बाद में जो वे कहते वो तो केवल मैं जानती थी। जंगल में मोर नाचा....। लेकिन मेरे लिए तसल्ली की बात यह थी कि डॉक्टर प्रसन्न थे और शमशेरजी ठीक हो रहे थे। लू से परेशान, अपनी स्थिति का बयान शमशेरजी इस तरह करते थे—'जैसे सिर में सैंकड़ो-सैंकडों चूरे हुए काँच के टुकड़े भरे हुए हों और वे चुभ रहे हों, इस तरह पीड़ा हो रही है।' इंतज़ार करने के बाद जब कहीं से कोई न आया, न ख़त ही मिला तो मैंने शमशेरजी के सामने यह प्रस्ताव रखा कि आप अपना सामान तो वैसे भी मेरे यहाँ रखने वाले थे, तो क्यों न आप अभी मेरे साथ चले चलिए, फिर ठीक होने पर जैसा अपको उचित लगे, कीजिए। शमशेरजी को यह बात जँच गई। पर उन्होंने एक शर्त रखी थी। मैं तुम्हारे साथ तभी आऊंगा जब मकान का किराया मैं दूंगा। मुझे पहले तो हँसी आई। मैंने पूछा इससे फ़र्क क्या पड़ता है। उन्होंने इसका कोई कारण तो नहीं बताया पर अपने आग्रह पर वे अटल रहे। मैंने सोचा यह बात बीच में नहीं आनी चाहिए, अतः मैंने उनकी बात मान ली। फिर जब उस पर मैंने सोचा तो मुझे लगा कि इसका संबंध उनके स्वाभिमान और स्वतंत्रता की भावना से है। वे मेरे घर में नहीं रहना चाहते थे पर अपने घर में मुझे रखना चाहते थे। मुझे यह बात अच्छी भी लगी और समझ भी आ गई क्योंकि मेरे अपने घर में शमशेरजी से कम-से-कम 10-12 वर्ष बड़े दादाजी थे। अतः शमशेरजी की बात मुझे स्वाभाविक भी लगी।
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मैं उस दुर्भाग्यपूर्ण शाम को नहीं भूल सकती जब पहली बार शमशेरजी को डिमेन्शिया का दौरा पड़ा। हम सुरेन्द्रनगर में थे और रोज़ की तरह शाम को टहलने निकले थे। शमशेरजी अभी अपने लू के प्रभाव से नाज़ुक हुई तबीयत से पूरी तरह उबरे नहीं थे। चलते-चलते अचानक उन्होंने कहा अब घर चलना चाहिए। मैंने कहा ठीक है। फिर उन्होंने कहा कि देखो घर जल्दी चलो कितने सारे तोते उड़ रहे हैं। मैंने देखा, एक भी नहीं था। फिर मैं समझी कि मज़ाक़ कर रहे हैं। मैंने पूछा कहाँ हैं। तो उन्होंने कहा देखो सब जगह। मैं थोड़ी घबराई। मैंने पूछा कहाँ। तो ऊपर इशारा किया और चलने लगे। मैंने भी कहा चलिए। पर थोड़ी चिंता हुई। पर चिंता बढ़ी तब, जब हम घर पहुँचे। घर पहुँचे तो उन्होंने कहा चलो घर चलें। मैंने कहा घर तो आ गया है। कहने लगे कि नहीं घर चलो। अब तो मेरे ही मानों तोते उड़ गए। मेरी कुछ समझ में नहीं आया पर इतना मैं जान गई कि कुछ गड़बड़ है। मैने सोचा कुछ देर इंतज़ार ही कर लिया जाय। हो सकता है यह स्थिति देर तक न भी रहे। । थोड़ी देर के बाद उन्होंने रंग और कागज़ माँगा, और कुछ बनाने लगे। मैंने देखा कि उनका हाथ अस्थिर था, रेखाएँ ठीक से बन नहीं रहीं। लिखावट अस्पष्ट-सी। जो बन रहा था वह मेरी समझ से परे था। मैंने पूछा कि क्या बना रहे हैं। कहने लगे तोते.... उड़ रहे हैं। वही बना रहा हूँ। हरी स्केच पेन से बनी वे रेखाएं मानों आने वाले विकट समय का मानों संकेत थीं। अब मेरा दिल बैठ गया। डॉक्टर को बुलाया। उन्होंने कंपोज़ दे कर सुलाया। और कहा कि चिंता न करें, सुबह तक ठीक हो जाएगा । कुछ हो, तो बुला लेना। तब फोन की सुविधा नहीं थी। यहाँ शमशेरजी घर में अकेले। और मैं निपट अकेली। सोचा एक पत्र अशोकजी को लिखूँ, लिखा भी पर पोस्ट नहीं कर सकी। अशोकजी से मेरी कोई आत्मीयता या कोई गहरा परिचय तो था नहीं, पर मुझे इतना पता था कि शमशेरजी को उन पर भरोसा था और वे शमशेरजी का बेहद आदर करते थे।
शमशेरजी स्वस्थ रहें यह मेरी ज़िम्मेदारी थी ; पर उन पर मेरा ऐसा कोई सामाजिक या अन्य अधिकार वाला रिश्ता नहीं था कि मैं जो चाहूँ कर सकूँ- साहित्यिक-समाज के प्रति मेरी एक जवाबदेही भी बनती थी। मुझे याद है वह प्रसंग एक दिन जब सुबह की प्रात-चाल में मैं शमशेरजी के साथ थी। रास्ते में एक बुज़ुर्ग मिले जिन्होंने पैनी दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए शमशेर जी से पूछा- ये कौन हैं आपकी। शमशेरजी ने तुरन्त कहा –बान्धवी। बुज़ुर्ग महाशय बान्धवी शब्द के अर्थ की चर्चा देर तक करते रहे। खैर। यही वह संबंध था, जिसे शमशेरजी ने अपने तई तय किया था। पर मैंने तो ऐसा कुछ भी तय नहीं किया था। उनके साथ अपने जुड़ाव को मैं एक ऋणानुबंध मानती रही हूँ जो पूर्व-जन्म के किसी अ-जाने शेष संबंध की पूर्ति था। इसे आप मेरी मान्यता और प्रतीति का सच कह सकते हैं, वैज्ञानिक सच तो यह नहीं ही कहा जा सकता। न ही यह कोई साहित्यिक सच था। पर उस समय इससे कोई फ़र्क तो पड़ता नहीं था क्योंकि तब ज़रूरी यह था कि शमशेरजी को जल्द-से-जल्द स्वस्थ करना है। परन्तु दूसरा दिन तो अधिक चिंता-भरा था शमशेरजी लगभग उसी स्थिति में रहे। वे किसी को पहचान नहीं रहे थे। मेरा नाम भूल गए थे। उन्हें याद नहीं था कि वे कहाँ हैं। न अपने भाई तेजबहादुर का उन्हें कोई स्मरण था, न ही शोभादीदी का। बस अपनी एक भांजी का उन्हें स्मरण था।
क्या करूं क्या न करूं ...सोचने हुए मैं तब पहली बार पोस्ट – आफिस गई और श्री अशोक वाजपेयी जी को फोन किया। अशोकजी तब भोपाल में थे। उन्होंने मध्य-प्रदेश सरकार के माध्यम से गुजरात सरकार से कह कर शमशेरजी के इलाज की उत्तम व्यवस्था करवा दी। तब हमारे यहाँ राज्यपाल डॉ स्वरूप सिंह थे। शमशेरजी की मृत्यु पर राज्यपाल के यहाँ से पुष्पांजलि आई थी, जिससे यहाँ के साहित्यकारों के बड़ा आश्चर्य हुआ था।
यह 1985 की बात है। 1985 से ले कर 1992 तक शमशेरजी की तबीयत ऐसी ही रही- कभी कम कभी ज़ियादा। उन दिनों की बात करना मुझे हमेशा ही कष्टकर लगता है। पर आज भी मुझे सोच कर कई बार हँसी भी आती है कि वे मुझे क्या-क्या नहीं समझते थे। कभी किसी ऐंबेसी में काम करती कोई सेक्रेटरी, कभी नरेन्द्र शर्मा, कभी मिसेस नरवणे ..... वे स्वयं कभी इलाहाबाद, कभी दिल्ली कभी बम्बई होते। उनके साथ जैसी बातचीत होती मैं समझ जाती आज शमशेरजी किस शहर में हैं। कई बार दिनों तक अंग्रेज़ी में बोलते थे, तो कई बार मुझे लगता था कि गोया मैं किसी नाटक के पात्र से बात कर रही हूँ। किसी तीसरे व्यक्ति को इस बात का अहसास तक नहीं हो पाता कि शमशेरजी मानसिक रूप से कब किस शहर में हैं और दूसरे को वे क्या समझ रहे हैं। देश और काल से परे कवि अपने ही वंडर लैंड में मज़े से जी रहे थे। कभी अचानक कहते कि रंजना मैं हिस्ट्री डिपार्टमैंट जा रहा हूँ। मैं पूछती कहाँ है। तो जैसे मैं उनके साथ कोई खेल न कर रही होउँ और उन्होने भाँप लिया हो, इस तरह हँस देते और आगे चल पड़ते। सामने का बंद दरवाजा वे खोल नहीं पाते अतः थोड़ी देर वहीं रुक कर वापस कमरे में चले जाते।
उन दिनों मैं जिस घर में रहती थी वह तीन कमरों का छोटा-सा मक़ान था। उसके चारों ओर बगीचे की खुली जगह थी। मैं घर तो खुला रखती थी पर बगीचे के फाटक पर ताला लगा देती थी। एक दिन दोपहर को कॉलेज से घर आई और बगीचे के दरवाज़े का ताला खोल कर अंदर गई। घर खुला था। अंदर जा कर देखा तो शमशेरजी कहीं नहीं थे । ढूँढते हुए बाहर आई तो देखती हूँ- 'पत्र हीन नग्न गाछ' की मुद्रा में खड़े कुछ सोच रहे थे। मैं हतप्रभ। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ। मैंने पूछा यहाँ क्या कर रहे हैं। तो मेरी ओर देख कर मुस्कराए और कहा कि सोचता हूँ लायब्रेरी चला जाऊँ। मैं कहने को थी कि आप... पर सोचा कि जो अपने वंडरलैंड में जी रहा है उसे इस दुनिया के रीति-रिवाज़ों से क्या लेना देना। मैंने कहा हाँ, चलिए। फिर उन्हें घर के भीतर ले आई। दरवाज़ा बन्द किया। पर मुझे ईमानदारी से कहना चाहिए कि बाहर से अन्दर आते हुए मैंने आस-पास देख लिया था कि लोग अपने मक़ानों के बाहर तो नहीं हैं। उस दिन के बाद से मैं कॉलेज जाती थी तो घर को ताला लगा कर जाती थी। यह मुझे अच्छा नहीं लगता था अतः एक ऐसे मक़ान की खोज करती रही जो बन्द होने पर भी खुलेपन का अहसास दे और सुरक्षित भी हो। ऐसा घर मुझे मिल भी गया जिसके पिछवाड़े बड़ा सा आँगन था और बरामदा जालियों वाला; ताकि ताला बन्द करने पर भी शमशेरजी को यह प्रतीत न हो कि वे बन्द हैं।
इसके बाद वह समय भी आया कि शमशेरजी लगभग पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे। हाँ बुढ़ापा अपने साथ कई तरह की तकलीफ़ें लाया था। फिर डिमेंशिया और पार्किन्सन्स के कारण जो ब्रेन सेल में नुक़सान हो गया था वह तो अपनी जगह था ही। पर मुझे तो याद आता है शमशेरजी का वह बच्चों-का सा हँसना, मज़ाक़ करना और लगातार नई नई भाषाओं को पढ़ने के सपने देखना और योजनाएं बनाना।
सुरेन्द्रनगर के दिनों में कुछ युवा लोगों का एक ग्रुप बन गया था। हम लोग हर गुरुवार को मिल कर शमशेरजी की कविताओं को गाते थे। हमारे एक मित्र मुकेश पंचोली का स्वर बहुत अच्छा था । यों मुकेश चित्रकार थे। इसके पहले वे दुष्यन्त की ग़ज़लें और गुजराती के कवियों की कविताओं को स्वर-बद्ध कर चुके थे। शमशेरजी की भाषा और उर्दू के उच्चारणों की चुनौति स्वीकार करते हुए छोटे से शहर में रहने वाले गुजराती भाषी मुकेश ने कई ग़ज़लें और कविताएं अलग-अलग अंदाज़ मे स्वर-बद्ध की हैं। उस हमारे पूरे मजमें में कई ऐसे लोग भी थे जिन्हें न हिन्दी साहित्य का परिचय था न ही इस बात का पता था कि शमशेरजी का हिन्दी साहित्य में क्या स्थान था और वे यहाँ क्यों हैं आदि। वे तो यही मानते थे कि बापाजी की ग़ज़ल बहुत अच्छी है। उनमें एक टेलीफोन ऑफ़िस का कर्मचारी था जो तंदुरुस्त कद-काठी का था और एक कपास का सामान्य व्यापारी जो बिहारी की नायिका की तरह न दिखने वाला। कपास के इस व्यापारी को बीड़ी पीने का शौक़ था और गाने सुनते हुए तो विशेष। बीड़ी का धुआँ तो दिखता था पर पीने वाला नहीं क्योंकि वह तंदुरस्त कद-काठी के पीछे छिप कर धूम्रपान का आनंद लेते थे। शमशेरजी के लिए यह बड़ी हैरानी की बात थी कि धुँआ तो दिख रहा है, बू भी आ रही है पर उसका स्रोत कहीं दिखाई नहीं दे रहा। वे परेशान हो कर यहाँ-वहाँ देखते पर समझ नहीं पाते। बाक़ी सब शमशेरजी की परेशानी समझते थे और मुस्कुराते भी थे । पर शमशेरजी ने इस बारे में कभी कुछ नहीं पूछा। न उस समय न बाद में कभी मुझे। उनकी समस्या यह नहीं थी कि बीड़ी क्यों पी जा रही है या कौन पी रहा है। पर जो हो रहा है वह उन्हें दिख नहीं रहा है। इन सभी सामान्य लोगों से शमशेरजी बड़ी आत्मीयता और आदर से मिलते थे। एक अर्थ-शास्त्र का विद्यार्थी भी था, मेरी एक सहेली और प्रवीण जो उस समय गुजराती कविता और नाटक के क्षेत्र में सक्रीय थे। नियमित रूप से कई वर्षों तक यह हमारी संगीत-मजलिस चला करती जिसमें शमशेरजी अपनी कविता-गान के प्रथम श्रोता थे क्योंकि बाक़ी सब गाते थे। उन्हें निश्चय ही अच्छा लगता था और इसीलिए वे मुकेश के प्रति उनका विशेष स्नेह था। उस पूरे दौर में मेरी भूमिका यह रहती थी कि मैं इन मजलिसों का सातत्य बनाए रखूं क्योंकि इन क्षणों में शमशेरजी को बड़ा आनंद मिलता था। शमशेरजी की मृत्यु के बाद भी कई वर्षों तक उनकी स्मृति में हर 13 जनवरी को हम मिल कर उन्हे गाते रहे। इन्हीं में मेरी माँ भी शामिल रहती, जब कभी वे मुझसे मिलने सुरेन्द्रनगर आतीं। शमशेरजी इस पूरी प्रकिया में हर व्यक्ति की विशेषताएं भी पहचान लेते थे। और हर व्यक्ति से उसी तरह बात भी करते। मुकेश से बात करने का उनका भाव जहाँ सम्मान से भरपूर था वहीं प्रवीण से बात करते थे तो लगातार उनके भीतर के नाटककार को चुनौति देते हुए और हवा से ज़मीन पर लाने की कोशिश करते हुए। असल में आने वाले संभवित ख़तरों से बचाने की कोशिश करते हुए, जिसको प्रवीण उस समय शायद न पहचान पाए हों पर बाद में उसकी व्यंजना और महत्व समझ गए।
मैं उस शहर में थी तब अविवाहित थी। अतः ऐसे कई लोग मुझसे मिलने आते थे जो बड़ी शराफ़त से टाईम-पास करने की कोशिश करते थे। मैं परेशान भी रहती थी। एक बार मैंने शमशेरजी से इस विषय में कहा। शमशेरजी चाहे बीमार और अस्वस्थ थे पर जैसे मेरी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी हो इस तरह वे उन लोगों से निपटते भी थे। एक बार देर रात को दो सज्जन मेरे घर आए। वे बैठे ही थे कि शमशेरजी अपने कमरे से बाहर आए और कहा- बहुत देर हो गई है , अब सोने का वक्त हो गया है। आप फिर कभी आएँ। उसके बाद इस संकट का मुझे सामना नहीं करना पड़ा।
शाम के समय अकेलेपन का अहसास शायद सबसे तीव्र होता होगा, इस बात को मैं शमशेरजी के साथ रहते हुए समझ सकी थी। उनका किसी बात का कोई आग्रह नहीं रहता था पर जैसे निवेदन के स्वर में वे कहते थे कि रंजना तुम शाम को कहीं जाया मत करो। एक बार मैंने कारण पूछा तो बड़े अनमने स्वर में कहा एक अजब किस्म की घबराहट होती है।
दिवाली और गर्मियों की छुट्टियों में हम प्रायः बडौदा चले जाते थे। अतः पूरे घर को व्यवस्थित कर के, बन्द करना एक बड़ा काम होता था। उस घर में बहुत खिडकियां थीं और एकाध भी खुली रह जाती तो कबूतरों की वंश-परम्परा का आरंभ हो जाता था। अतः एक बार मैंने यह आग्रह किया कि कबूतरों को उड़ा कर खिड़कियां पूरी तरह बंद कर दूं। शमशेरजी ने ठीक है..... पर अभी इस घोसलें में बच्चे हैं। उन्हें बड़ा हो कर उड जाने दो। मैंने कहा कि इनके उड़ने से पहले तो दूसरे अंडे तैयार होंगे। हाँ, यह तो है। पर खिड़कियां बन्द करने पर इन्हें दाना कौन डालेगा। मैंने तर्क तो किया पर अचानक मुझे ध्यान आया कि मैं एक कवि के साथ हूँ। कई बार ऐसा होता है कि आप व्यवस्था में इतने मुस्तैद हो जाते हैं कि जिन बातों का महत्व है उन्हीं का विस्मरण हो जाता है। मेरी चिंता घर गंदा होने की थी और उनकी चिंता कबूतरों के बच्चों की जान को ले कर थी। शमशेरजी के साथ होने का मतलब केवल धूप चिड़िया की बात करना नहीं पर उनकी संवेदना को व्यावहारिक स्तर पर खरा भी होते हुए देखना था, इस बात को मुझे समझना बाक़ी था। उसके बाद मैंने ऐसी कोशिश नहीं की।
शमशेरजी से मिलने हिन्दी के कई अनाम और नामी गिरामी लोग सुरेन्द्रनगर आए। ख़त आता और मैं कहती शमशेरजी फलाँ आ रहे हैं। ऐसे ही एक बार एक ख़त आया और शमशेरजी ने कहा रंजना किताबें ताले में रख दो और ज़रा देख लेना कि मेरी पांडुलिपियाँ कहीं बाहर तो नहीं हैं। मैं चौंकी। फिर उन्होने मुझे एक क़िस्सा सुनाया कि कैसे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार उनके घर आए थे। वे ग़ुसलख़ाने में थे। उनके बाहर आने तक तो वे सज्जन जाने की तैयारी कर चुके थे। ग़ुसलख़ाने से निकलने के बाद उन्होंने देखा कि उक्त सज्जन अपने कुर्ते के भीतर कुछ छिपा कर ले जा रहे हैं। वे इस मुग़ालते में थे कि शमशेरजी की नज़रें तो कमज़ोर हैं, उन्हें पता नहीं चलेगा। फिर शमशेरजी ने पड़ताल की तो पता चला कि किसी उर्दू कवि की पांडुलिपि जो शमशेरजी को देखने के लिए दी गई थी वह नदारद थी। बड़े नामों के छोटे कामों से मेरा परिचय यूं हो रहा था।
एक बार अज्ञेयजी का पत्र मेरे नाम आया । वत्सल निधि की ओर से उन्हें वे कुछ आर्थिक मदद करना चाहते थे। शमशेरजी की रुचि अज्ञेयजी से मिलने की थी। पर अफ़सोस, वह दिन नहीं आ सका क्योंकि जिस दिन अज्ञेयजी आने वाले थे, उसके कुछ दो-चार दिन पहले ही उनका अवसान हो गया। बाद में इलाजी आईं थीं। अज्ञेयजी के प्रति शमशेरजी के मन में बड़ा आदर था। इस बात को वे लिख भी चुके हैं। मुझे तो इन तमाम वर्षों में एक बात बड़ी विलक्षण लगी कि ताले वाले प्रसंग और एकाध कोई और प्रसंग होगा कि शमशेरजी ने ऐसी बात कही होगी । पर मैंने उन्हें किसी की भी निंदा करते हुए नहीं सुना। यह आश्चर्य की ही बात है क्योंकि चौबीस घंटो कोई साथ हो और निंदा रस का अभाव हो- यह अविश्वसनीय बात ही है।
उन्होंने अपने शेष जीवन का प्रोग्राम बना रखा था कि कौन-कौन सी किताबें पढ़नी हैं। हम लोगों ने सूरसागर, रामचरित मानस आदि का संयुक्त वाचन किया था। शेक्सपीयर–समग्र का जो एडिशन मेरे पास था वह दूसरी बार बाईंड किया हुआ था। एक दिन देखती हूँ शमशेरजी पन्ने अलग कर कर के पढ़ रहे हैं। मुझे देखते ही कहने लगे ऐसे पढ़ने में बड़ी सुविधा है। किताबों में ऐसी ज़िल्द होनी चाहिए कि आप मोड़ कर भी बड़े आराम से पढ़ सकें। ऐसी एक किताब उनके पास थी भी। पकड़े जाने पर शैतानी करता हुआ बच्चा जिस तरह की सफ़ाई देता है कुछ वैसी मुद्रा शमशेरजी की अक्सर हो जाती। एक बार जब वे उज्जैन में थे और मैं मिलने गई थी तो कहने लगे कि तुम्हें पता है यह मेरा संस्कृत हिन्दी शब्द कोश पुकार पुकार कर कह रहा था कि मुझे रंजना के यहाँ जाना है। अच्छा हुआ तुम आ गईं। तुम ले जाना। एक बहुमूल्य पुस्तक की प्राप्ति की अपेक्षा उसे मुझे देने का उनका अंदाज़ इतना विलक्षण और अमूल्य लगता है कि मेरे पास कोई शब्द नहीं कि मैं बयान कर सकूं। ग़ालिब की ग़ज़लें और ऋग्वेद की ऋचाएं उनके नियमित पाठ का हिस्सा थे। अंत तक इन दो पुस्तकों को तो वे पढ़ते ही थे। ऋग्वेद पढ़ना आस्था का आदर करना, मार्क्सवाद के नियमों में आता है या नहीं , मैं नहीं जानती पर जो सच है वह तो यही कि शमशेरजी ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में केवल और केवल गायत्री मंत्र सुनना और बुदबुदाते हुए उसका पाठ करना चुना था। उनकी डायरियों में भी इन मंत्रों को समझने की कोशिशें दिखाई देती हैं। असल में शमशेरजी ऋग्वेद को भी एक कलाकार की दृष्टि से ही समझना और पढ़ना चाहते थे, पढ़ते भी थे।
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शमशेरजी को खिलाने का शौक़ तो था ही पर अच्छी चीज़ें खाने का भी शौक़ था। मिठाई, हलुआ, रबड़ी, जलेबी फल (ख़ास तौर पर आम और फिर पपीता और केले) दूध, शहद, हल्दी... इन सब का सेवन वे बड़े मज़े से करते। शहद वे इस तरह खाते कि शहद की बोतल को मुँह से लगा लेते। अपनी प्रिय वस्तुओं के सेवन के बाद उनके चेहरे पर जो आनंद और संतोष मैंने देखा है , इन भावों का इतना निर्मल स्वरूप मैंने कम लोगों में देखा है। हलुआ तो उन्हें इतना प्रिय था कि अगर वे सो रहे होते तो हलुए की ख़ुशबू जैसे उनकी नींद में चली जाती और वे उठ जाते। एक बार इसी तरह हम सहेलियाँ जाग कर काम कर रही थीं । रात को भूख लगी सो सोचा हलुआ बनाएँ। शमशेरजी तो सो रहे थे, हम यह सोच रही थीं कि अगर जागते होते तो अवश्य ही ख़ुश होते। थोड़ी देर में देखते हैं कि शमशेरजी कमरे के दरवाज़े पर खड़े हैं और बड़े भोलेपन से कह रहे हैं कि मुझे सपने में हलुए की खुशबू आई और मैं जाग गया। हम जी भर कर हँसे।
शमशेरजी की आम-प्रीति तो आज भी हमारे घर में याद की जाती है। प्रत्येक गर्मियों में शमशेरजी को याद करते हुए आम खाना हमारे घर की आदत में शामिल हो गया है। अच्छे भोजन की तरह उत्सवों और ऋतुओं के प्रति शमशेरजी के मन में हमेशा उत्साह रहता था। उनके चेहरे पर उत्सव का आनंद दिखाई पड़ता था। चाहे होली हो, दिवाली हो या ईद। होली पर रंगों में रंग जाना उन्हें प्रिय था। वे टेसू के फूलों के रंग से अपने को और दूसरों को बड़े प्यार से रँगते थे। दिवाली पर रँगोली बनाना और दिए के शीतल प्रकाश में आत्मस्थ होने के दृश्य मुझे भूलते नहीं। हम लोगों में दिवाली उस तरह नहीं मनती जैसे उत्तर प्रदेश में। पड़वे के दिन घर के पुरुषों को सुबह तेल की मालिश करना फिर उबटन से नहलाना...यह हमारे घर की परंपरा है। शमशेरजी जिन वर्षों में साथ थे और जिस दिवाली पर हम सब साथ होते तो माँ, बहन, भाभी और मैं.... हम सभी उन्हें तेल की मालिश करते। वे इस रिवाज़ में भी उतना ही आनंद लेते और कहते यह तो बहुत अच्छा रिवाज़ है। सभी जगह ऐसा ही रिवाज़ होना चाहिए। संभवतः इसका कारण यह होगा कि वे स्वयं मालिश प्रेमी थे। उनकी बनाई रंगोली मेरी स्मृति के साथ-साथ एक तस्वीर में भी क़ैद कर रखी है मैंने। वर्षा और वसंत शमशेरजी की प्रिय ऋतुएं थीं। मुझे लगता है वसंत ऋतु में पीले कपड़े खरीद कर पहनने की आदत मुझे शमशेरजी के साथ रहते हुए ही पड़ी है। मुझे ही क्यों, आज भी मेरी माँ और बहन मुझे पूछती हैं हर वसंत पंचमी पर कि इस बार क्या खरीदा।
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दस वर्ष कम नहीं होते किसी के साथ रहते हुए, विशेष कर जो वर्ष आपके जीवन के सबसे अहम् वर्ष हों। मझे ख़ुशी इस बात की है कि इन वर्षों में मैंने जीवन और जगत के विभिन्न रूप देखे और उन्हें समझने का तरीक़ा भी सीखा। इन वर्षों में शमशेरजी के साथ रहते हुए मेरे भीतर का स्पेस उनकी उपस्थिति से कितनी दूर तक भर गया था उसका अहसास मुझे तब हुआ जब 12 मई 1993 की शाम को शमशेरजी इस दुनिया से विदा ले कर दूसरी दुनिया की राह पर चल पड़े थे और हम शेष लोग घर लौट आए थे। आज मई की शाम अकेली.... मेरे भीतर के उस खालीपन और अकेलेपन को अपने अलावा मेरे दादाजी की आँखों में झांकता हुआ भी मैंने देखा था। इन वर्षों में अगर शमशेरजी अपना जीवन सुख से बिता पाये थे तो उसके लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार थे। उनकी ज़िन्दादिली और जीवट ही उन्हें सुख से जिला रहे थे, जिसको बनाए रखने में मुझे मेरे परिवार का सहयोग मिला और उनकी अगर तीमारदारी मुझसे हो सकी तो इसके लिए अपने परिवार के अलावा मित्रों का साथ मुझे हमेशा याद रहेगा। शमशेरजी ने एक बार मुझसे कहा था कि माँ की मृत्यु के बाद परिवार का सुख मुझे यहीं तुम्हारे परिवार में मिला है। उनके इस भाव के लिए हमारा परिवार हमेशा ही अपने को सौभाग्यशाली मानता है।
शमशेरजी की कई तरह की यादें मेरे भीतर सोई पड़ी हैं...पर आज के लिए बस इतना ही।
धन्यवाद।

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेशकीमती.... जाने क्‍यों ऑंखें भींग गई... सादर नमन् ...आभार !

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  2. बहुत खूबसूरत और आत्मीय...संतुलित भी.. आपकी नज़र से शमशेर जी के साथ के पलों को यूँ जानना अच्छा लगा. उम्मीद करता हूँ इस विषय पर कुछ और लिखें..और इत्मीनान से, विस्तार से.. वाकई अच्छा लगा, शमशेर जी के साथ के आत्मीय क्षण हम सब के साथ बांटने का शुक्रिया.

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  3. बहुत कठिन है लिखना । मैं कोशिश करूंगी।आपको अच्छा लगा , जानकर अच्छा लगा।

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  4. बहुत अच्छा लगा। ’जिस कवि को लोग इतनी जल्दी भूल जाने वाले हों उनकी रचनावली की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिए। आपके यह विचार अन्तर्मन को झकझोर देने वाले हैं। आज की साहित्यिक व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य भी है जहां लोगों का ध्यान लिखने से अधिक नाम के विज्ञापन पर अधिक बना रहता है। सचमुच शमशेर जैसे कवि किसी विज्ञापन के मोहताज नहीं हैं। अपने संस्मरण को हम लोगों के बीच बांटने हेतु धन्यवाद।

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