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शनिवार, 26 जनवरी 2013

मिथक की पुनःसर्जना का मनोविज्ञान


[1] गुजराती कवि प्रवीण पंड्या की कविता इस कौरव पाँडव के समय में से प्रेरित

[1] प्रायः भाषा शिल्प शब्द प्रयोग साथ किया जाता है। पर इतना समझना आवश्यक है कि अगर ताना-बाना भाषा है तो पट शिल्प है;  मिट्टी अगर भाषा है तो मूर्ति शिल्प है, रंग अगर भाषा है तो चित्र शिल्प है-  अर्थात् मिथकीय अभिव्यंजना के नए अभिगम किस तरह रंग और चित्र-पट दोनो में है, मिट्टी और मूर्ति में दोनों में हैं। अर्थात् कथा-संदर्भ एवं भाषा। इनको अलग कर के समझना असंभव है। ताने-बाने के अभाव में  पट का निर्माण असंभव है, और पट के अभाव में रंग चित्र का निर्माण नहीं कर सकते। ताने-बाने की गति और विधि अलग अलग पोत निर्माण करते हैं। भाषा के विशिष्ट प्रयोग कृति के शिल्प का निर्माण करते हैं।
संदर्भ पुस्तकें
Alex Preminger. Encyclopedia of Poetry and Poetics. दि.न.
Northrope Frye. Fables of Identity. New York & London: A Harvest/HBJ Book, USA, 1963.
डॉ नगेन्द्र. मिथक और साहित्य. दिल्ली: नेश्नल पब्लिशिंग हाऊस, 1979.
डॉ.भोलाभाई पटेल. “पुराण कल्पनोनो साहित्य मां विनियोग.” भोलाभाई पटेल. पूर्वापर. मुंबई: . शेठ नी कंपनी, 1976.



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