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सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

कश्मीर

राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी चेतना : सौन्दर्य-चेता धरती का वर्तमान विमर्श
रंजना अरगडे
वर्तमान समय, साहित्य के विविध पक्षों और स्वरूपों के माध्यम से हम तक पहुँच रहा है। केन्द्र का साहित्य और हाशिए का साहित्य- इसकी प्रमुख पहचान बन गया है। साहित्य को देखने के हमारे परंपरागत दृष्टिकोण में इससे बहुत अंतर आया है। अब हम भाषा, संवेदना और विचार के स्तर पर उस तरह नहीं सोचते जैसे दो-एक दशक पूर्व सोचते थे। हाशिए के सारे मुद्दे अब चर्चा के केन्द्र में हैं। यह अलग बात है कि इन मुद्दों पर सोचते हुए हम कितने मानवीय बने रहते हैं और कितने बाज़ार से प्रभावित होते हैं। लगभग हम सभी इस बात को जानते हैं कि बाज़ार वही बेचता है, जो बिकता है। उसी की माँग खड़ी होती है और की भी जाती है। स्त्री, दलित, अ-श्वेत जब तक बाज़ार के लिए उपयोगी होंगे तब तक एक उत्पाद के रूप में वे खूब बिकेंगे ; और वह बिकते रहें इसकी कोशिश भी बाज़ार की ताक़तें करती रहेंगी, इसमें कोई संदेह नहीं।
अभिव्यक्ति के इन सभी पक्षों में एक प्रश्न विस्थापितों का भी है। विस्थापितों का प्रश्न अन्य विमर्शों से भिन्न है, अपनी प्रकृति में और अपने व्याप में। विस्थापित किसी भी सत्ता के लिए उस काँटे की तरह हैं, जो दुखता भी है, दिक भी करता है, पर संभवतः वह कभी नासूर नहीं बन सकता, ऐसा उन्हें भरोसा है। सत्ता का यह विश्वास कितना स्थाई है यह तो समय ही बता सकता है। फिर अभी तक तो वह बाज़ार की आवश्यकता नहीं बना है, क्योंकि राजनैतिक रूप से वह एक न सुलझने वाला गुंजलक भी है।
किसी भी भाषा का समाज जब अपने अस्तित्व(होने) की ज़द्दोज़ेहद एवं संकट से उबरने के लिए लड़ रहा होता है, जूझ रहा होता है, तभी उस भाषा में सर्वोत्तम साहित्य रचा जाता है। इलीयट की यह बात सच ही होनी चाहिए क्योंकि आज के संघर्षशील दौर में विभिन्न देशों में, अपने ज़मीनी अस्तित्व के लिए जी-जान से लड़ने वाले, जब अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर रहे हैं, अपनी ज़मीन को बचाने के लिए उनकी जो आवाज़ें सुनाई पड़ रही हैं, वे इस बात की गवाह हैं कि इसके पहले इस तरह की अभिव्यक्तियां हमने नहीं सुनी थीं। ये सारी अभिव्यक्तियां हमारे अपने समय की महाकाव्यात्मक अभिव्यक्तियां हैं क्यों कि इनमें मानवीय संवेदना और अ-मानवीय सत्ता के बीच की गहरी खाई को रेखांकित किया गया है। अलग-अलग भाषा-वैज्ञानिक कुल-कुनबों मे बंटी ये सारी भाषाएं वास्तव में विस्थापितों की भूमि पर आ कर एक हो जाती हैं, क्योंकि इन सभी में उसी एक अमानवीय-सत्ता और स्थिति के प्रति संघर्ष और संवाद का बिन्दु है। इस उत्तर- आधुनिक समय में, वैश्विकीकरण के इस दौर में इन सभी अभिव्यक्तियों को एक मान कर चलना चाहिए, फिर चाहे इन अभिव्यक्तियों के देश, रंग, धर्म, जाति और नस्ल अलग-अलग ही क्यों न हो।

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यह बात सर्वविदित है कि आधुनिकता से उत्तर-आधुनिकता तक आते-आते संवेदना-बोध का केन्द्र बदल गया है। पहले व्यक्ति अपने सुख-दुख,पहचान, अस्तित्व, स्वतंत्रता की चाहना के लिए चिंतित था। पहले व्यक्ति केन्द्र में था, समाज हाशिये पर; व्यक्ति अपनी सोच और ऐषणाओं से बद्ध था। उसकी प्राप्ति के लिए कार्यरत । उसकी बौद्धिकता और हार्दिकता के केन्द्र में केवल वह खुद था। उसका कोई वर्ग नहीं था- न कोई जाति, देश , लिंग, धर्म, समूह। जैसे आधुनिकतावादी। या फिर अगर था भी कोई वर्ग, तो उसका आधार भी न तो स्वमान ही था, न ही आत्म-गौरव - बल्कि पूँजी और उसका वितरण। जैसे मार्क्सवाद। मार्क्सवाद जिन शोषितों की बात करता है उनका भी तो, न कोई रंग, देश जाति, नस्ल, धर्म या समूह ही है । पर उनका कोई ऐसा, ज़मीन या धरती के किसी टुकड़े विशेष के लिए संघर्ष का मसला भी तो नहीं , क्यों कि उनके यहाँ तो दुनिया के मज़दूरों को एक करने की बात है। वहाँ स्पेस शासन के लिए, सत्ता के लिए चाहिए था। हाँ, वह सत्ता –व्यक्ति- विशेष की न हो कर प्रोलेतेरियत की हो, ऐसा उनका यूटोपीयन स्वप्न अवश्य था। अतः व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विचारधारा का रिश्ता था, कोई ज़मीनी रिश्ता नहीं था। दूसरी ओर, नाकामियां, दुख-दर्द, पीड़ा, मरने की उत्सुक अभिलाषा, समाज व्यवस्था के प्रति विद्रोह, जीवन के प्रति व्यर्थता का बोध, अलगाव-बोध आदि अस्तित्ववादी चिंतन के केन्द्र में भी व्यक्ति ही रहा ।
व्यक्ति से समूह की ओर आती उत्तर-आधुनिकता की सोच और चिंतन की दिशाओं में भी बदलाव आया। अस्तित्व वादी अनुभूतियों का एक नया विकसित रूप, उत्तर-आधुनिक समय की अपनी प्रकृति के अनुसार, आज समूह-केन्द्री हो गया है। चूंकि उत्तर आधुनिक की ज़मीन अलग है अतः इस अस्तित्ववादी भाव-भूमि का स्वरूप भी अलग दिखाई पड़ता है। इसे हम राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी चेतना कह सकते हैं। यहाँ दुःख – दर्द की इच्छा नहीं है। इच्छा तो सुख की है। उससे भी आगे बढ़ कर शांतिमय अस्तित्व की। पर यह सुख, यह शांति मिलेगी कि नहीं , या कब मिलेगी, कोई नहीं जानता। पर हाँ, अगर दुःख-दर्द नहीं होगा, तो कोई उनकी ओर देखेगा भी नहीं। और दुःख दर्द भी सामान्य नहीं बल्कि मरने-मारने जितना। ये राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी स्वेच्छा से ही दुःख दर्द चाहते हैं, पर इसका आधार एवं कारण जीवन की व्यर्थता न हो कर दूसरी ज़मीन पर रहते हुए महसूस होती वर्तमान जीवन की व्यर्थता का बोध है। अपनी जन्म-भूमि के अलावा अन्य ज़मीन पर ज़बरन रहने को विवश इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए दुःख दर्द ही वह एक रास्ता है जो संभवतः इन्हें अथवा इन की आने वाली पीढियों को उस ज़मीन पर रहने का अवसर बना सकता है, जिसका वे स्वप्न देख रहे हैं और उस स्वप्न को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
पीड़ा का बोध इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए इसलिए आवश्यक है क्योंकि लंबे अंतहीन एवं परिणाम विहीन लगने वाले संघर्ष से कहीं घबरा कर, अगर थोड़ी देर के लिए भी मन हटा-सा, तो सुविधाओं से भरा और अंधा कर देने वाली हार-मालाएँ पहनाता बाज़ार का आकर्षण उन्हें दबोच न ले। एक विचित्र डिक्टॉमी भी है। एक ओर जहाँ बाज़ार का प्रचार करने वाले प्रचार –माध्यम इन आंदोलनकर्ताओं की बात का प्रचार करने के लिए उपयोगी हैं, वहीं इनको पथ से हटाने के लिए भी सक्षम भी हैं। अतः राष्ट्र-धर्मी अस्तित्ववादियों का बाज़ार के साथ एक दोहरा संबंध है। विशेष रूप से आंदोलनों में जब समूह कार्यरत रहता है तो ऐसे अवसर आने की संभावना अधिक रहती है। पीड़ा के इस बोध के लिए आवश्यक है कि अपनी वर्तमान दशा को बार-बार चित्रों, फ़िल्मों ,साहित्य, नाटक, आंदोलन आदि के द्वारा जीवित रखा जाए। मीडिया के द्वारा इसे हर संभव प्रयत्न द्वारा अलग-अलग समूहों तक पहुँचाया जाए।
विस्थापितों के लिए अपनी ज़मीन की माँग रखना उस फ़ासीवादी मानसिकता से बिल्कुल अलग है जो अपनी ज़मीन पर अपने और अपने-जैसों के अलावा और किसी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं कर सकते। बल्कि वे पीड़ा में इसलिए रहते हैं अथवा रहने की परिस्थिति में पहुँच गए हैं कि उन्हें तो अपनी ज़मीन की दरकार है। वे मग़रूरी से नहीं बल्कि पीड़ा के रास्ते से अपना ध्येय प्राप्त करना चाहते हैं। ज़मीन के अभाव के कारण मग़रूरी का अभाव है, ऐसा नहीं है , परन्तु जहाँ-जहाँ विस्थापन है उन समूहों का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है और एक गरिमामयी संस्कृति भी रही है। उन ऐतिहासिक स्मृतियों के कारण भी इन विस्थापितों की पीड़ा, विवश पीड़ा न रह कर मानवीय पीड़ा के रूप में उभरती है।
यही गरिमामयी पीड़ा उन्हें अपने ध्येय-प्राप्ति के लिए मरने की उत्सुक अभिलाषा तक ले जाती है। शांति भरा जीवन और सुख के कुछ रंग चाहते इन राष्ट्र–धर्मी अस्तित्ववादियों के लिए मृत्यु एक उत्सुकता भरी अभिलाषा बन कर आती है। यही कारण है कि वे यथा संभव अपनी संस्कृति और कला में, जीवन के चित्रों को पैनेपन के साथ उकेरते हैं । अपनी परंपरा एवं इतिहास का सतत स्मरण उनकी पीड़ा, दुःख-दर्द, मृत्यु की अभिलाषा – सभी के लिए आवश्यक है। साथ ही उन के लिए यह अनिवार्य है कि वे वर्तमान का यथार्थ भी सतत अपने ज़ेहन में रखें। अतः राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी, एक साथ तीन बिन्दुओं पर जीते हैं। ये तीन बिन्दु हैं :
1-अतीतगामिता
संघर्ष भावना की लौ की आधार-भूमि यही अतीतगामिता है। ध्येय प्राप्ति के लिए अतीतगामिता अनिवार्य है ।
2-संवाद-धर्मिता
संवाद-धर्मिता की भूमि राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियो के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। विस्थापितों के संघर्ष के मानवीय पक्ष तथा संवेदनशीलता के लिए साहित्य, कला तथा संप्रेषण के आधुनिकतम माध्यमों को बेहतर से बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल करना एवं विभन्न प्रकार के नेट-वर्किंग के द्वारा बहु-संख्यकलोगों तक पहुँचना राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अनिवार्य है।
3-वर्तमान का यथार्थ-बोध
इन रा.ध. अ. के लिए ध्येय-प्राप्ति हेतु सतत वर्तमान में जीना अनिवार्य है । वर्तमान राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं एवं राजनीति के बरक्स रणनीति गढ़ कर अपने मूल उद्देश्य के प्रति सजग रहना। विस्थापितों के भविष्य एवं वर्तमान का निर्णय हमेंशा ही वे लोग नहीं करते जो विस्थापित हैं या जो कार्यकारी एवं सीधे ज़िम्मेदार, सत्ता पर बैठे हैं। वे लोग जो कहीं और बैठे हुए हैं, वे लोग तय करते हैं कि फिलिस्तीनियों का क्या होगा, कश्मिरियों का क्या होगा, बांग्लादेशियों का क्या होगा...... इत्यादि, इत्यादि। इस अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में बाज़ार की केन्द्रीय भूमिका रही है। उत्पाद, वितरण और उपभोक्ता – का निर्णय कोई एक, कहीं बैठे , किसी के लिए कर रहा है। यह उत्पाद- वितरण आदि, ज़ाहिर है, चीज़-वस्तुओं तक सीमित नहीं है- यह सत्ता और शासन-प्रकारांतर से जन-संस्कृति तक फैल गया है। इसीलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कि बाज़ार के माध्यम से अन्य देशों के निर्वासित और विस्थापित कौन होंगे , इस निर्णय को प्रभावित कोई और ताक़त कर रही है।
अर्थात् रा.अ. एक साथ वर्तमान, अतीत एवं कला- लोक में बने रहते हैं। एक साथ तीन बिन्दुओं पर जीना निश्चित ही सरल काम नहीं है ।
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मानवीय संवेदना और अ-मानवीय सत्ता के बीच की गहरी खाई इन रा.ध.अ के लिए सबसे अधिक चुनौति वाली जगह है। क्योकि यह अ-मानवीय सत्ता विदेशी नहीं है। यहाँ किसी उपनिवेशवादी ताक़त के साथ या किसी राजा-महाराजा से लड़ना नहीं है, बल्कि अपनी ही चुनी हुई सरकार से, अपनी ही शर्तों पर, अपनी ही ज़मीन के लिए, अपने ही लोगों से संघर्ष करना है। यानी एक तरह से यह अपनों के साथ अपनों की लड़ाई है। यह तथ्य इस आंदोलन को वैचारिक स्तर पर अपने पूर्व-वर्ती आधुनिक और भावनात्मक स्तर पर, उसके भी पूर्व-वर्ती स्वतंत्रता आंदोलन से अलगाता है।
अलगाव-बोध की भूमि पर इन रा .अ को दूसरी ज़मीन पर अ-लगाव के साथ रहते हुए अपनी भूमि के प्रति लगाव की भावना में देखा जा सकता है।
आधुनिकता के दौर में जो ईश्वर बैक-फुट पर चला गया था वही उत्तर-आधुनिकता में दृश्य फलक पर उपस्थित दिखाई पड़ता हैं । विस्थापित, चूँकि अपनी परंपरा को भूल नहीं सकते, भूलना नहीं चाहते, अतः वे अपने ईश्वर, अपनी पूजा-उपासनाओं को भी नहीं भूल सकते। फिर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि चाहे आधुनितावाद हो या मार्क्सवाद, किसी ने भी ईश्वर की अनुपस्थिति में मनुष्य को बेहतर जीवन तो नहीं ही दिया है। और यह बात शीशे जितनी साफ़ है। जहाँ तक वैज्ञानिक खोजों का प्रश्न है, उसके संपन्न होने में ईश्वर की उपस्थिति कहीं भी बाधा रूप नहीं है।
अपनों के साथ अपनों की लड़ाई हमेशा ही दुःखदायी रही है। विशाल स्तर पर इसे हम कौरवों-पांडवों की लडाई के साथ भी जोड़ सकते हैं , क्योंकि वहाँ भी मसला सुई की नोक के बराबर की ज़मीन का रहा है। इसे यहूदियों के आरंभिक निष्कासन से भी जोड़ सकते हैं। वह घटना आज तक यहूदियों की नियति की नियंता बनी हुई है। बिना उस पीड़ा और अलगाव के दर्द की गहराई को समझे, हम कभी भी यहूदियों को पूरी तरह समझ नहीं सकते।
उसी तरह इस्लामियों के विस्थापन को हम मोहम्मद पैगंबर के मक्का से मदीना जाने और फिर से इस्लाम जैसे नए धर्म के साथ मक्का लौटने से भी जोड़ सकते हैं। पर इस लौटने में उद्देश्य की रचनात्मक सफलता का दर्शन किया जा सकता है।
यह सफलता उन तिब्बतियों को नहीं मिल सकी है जो आज तक ज़िलावतनी(एक्ज़ाईल) में जी रहे हैं।
यहां एडवर्ड सईद के ओरिएंटलिज़म को भी याद किया जा सकता है। सईद अपने को अपनी तरह देखने और समझने की शुरुआत करने के लिए कहता है। जब हम अपने को अपनी तरह देखेंगे तो सबसे पहले अपनी ज़मीन ही दिखेगी जिस पर खड़े रह कर अपने बारे में अपनी तरह सोचा जा सकता है।
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विस्थापन अ-सीम और काल-मुक्त है। वह एक वैश्विक फ़िनोमिनन है। यों भी कहा जा सकता है कि विस्थापन मनुष्य की नियति है। मनुष्य के होने के मूल में ही विस्थापन है। एक अर्थ में जीव मात्र के होने का कारण उसका विस्थापन ही है। दार्शनिक स्तर पर ब्रह्म से विस्थापित होता है, तब जीव, अस्तित्व में आता है। अगर हमें यह बात अच्छी नहीं लगती तो हम कह सकते हैं कि माता के गर्भ से विस्थापित हो कर बच्चा अस्तित्व धारण करता है। यानी कि बिना विस्थापित हुए अस्तित्व संभव नही है। होने के लिए विस्थापन आवश्यक है। लेकिन यह तर्क वैसा ही है जैसे इसाई धर्म मे यह बात आई कि स्वर्ग का राज्य तो ग़रीबों के लिए है तो पृथ्वी पर से उन्हें खत्म करो और स्वर्ग भेजो। ऐसे सिद्धांत उन लोगों के लिए हमेंशा ही लाभदायी रहते हैं, रहे हैं, जो अपने लिए और अपने वंशजों के लिए अमाप सत्ता की कामना अपना एकाधिकार समझते हैं। हम, एक मानव समाज के रूप में उस मायाजाल से तो निकल आए हैं। परन्तु साथ ही यह भी देख रहे हैं कि इससे बचाने वाली सोच ने भी अन्ततः तो ऐसा कुछ किया नहीं कि मनुष्य अपनी बदहाली से बच सके। उत्तर आधुनिक दौर तक आते आते , यह हम लोगों के सामने स्पष्ट हो गया है कि आत्म-गौरव , आत्म-रक्षा तथा अधिकार हर व्यक्ति को अथवा मानव समूह को अपने बूते पर, संघर्ष कर के, लड़ कर अथवा अन्यथा प्राप्त करना होगा। अतः उसे अपने पूर्वानुभवों तथा अब तक प्राप्त समझ के सहारे ही अपना रास्ता तय करना होगा। रा.ध अ भी इसी मार्ग पर चलते हुए अगर ईश्वर पर भरोसा रखते हैं अथवा अपनी परंपराओं को जीवित रखते हैं, तो यह उनका अपना सोचा और चुना हुआ मार्ग है। इससे एक संकेत यह भी मिलता है कि वर्तमान व्यवस्थाओं ने अलग-अलग रूपों में अलग-अलग समूहों को निराश ही किया है।
यह विस्थापन देशों और राष्ट्रों की सीमाओं को पार करने वाला भी है और आंतरिक विस्थापन भी इसमें शामिल है। विभिन्न प्रकार के विस्थापन को समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे विस्थापन के स्वरूप को ठीक तरह समझा जा सकता है। विस्थापन के मुख्यतः दो कारण देखे जा सकते हैं। धर्म-सत्ता और राजनीतिक सत्ता। वर्तमान समय में विकास के कारण भी विस्थापितों की एक नई जमात बनती जी रही है। चाहे जंगलों में बड़े बाँधों के निर्माण की बात हो या शहर के बीचोबीच नदियों को ख़ूबसूरत बनाने की योजना हो – इन योजनाओं के कारण विस्थापित हुए जन-समूहों को विकास के नाम पर अपनी ज़मीन से बेदख़ल होना पड़ रहा है। औद्योगिक विकास आधुनिक काल से यात्रा करते-करते जब उत्तर-आधुनिक काल में आता है , तब तक समूह जागृत हो चुके हैं। अतः आधुनिक काल में इस प्रकार के विस्थापन को ले कर जितना उहा-पोह नहीं हुआ, उत्तर आधुनिक काल में यह अन्तर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करने लगा है।
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इस बिन्दु पर आ कर विस्थापन और अप्रवासी के बीच का अन्तर और एक बिन्दु पर उनके बीच के संबंध-सूत्र को भी समझना चाहिए। जब अपनी इच्छा से अपने विकास के लिए पराई भूमि में कोई बसता है, तो वह अप्रवासी के अन्तर्गत गिना जा सकता है। हम जहाँ अपने लाभ, अपने विकास के लिए जाते हैं, तो हमें उस भूमि की शर्तों पर रहना होता है। अपनी इच्छा से , अपने विकास के लिए किया हुआ स्थलांतर भी कालांतर में हमें ऐसा बोध दे सकता है कि हमारे साथ परायेपन का व्यवहार हो रहा है। यह भी दुःखद और एक हद तक कभी-कभी अ-मानवीय हो सकता है। पर यह चूँकि हमारा चुनाव है, अतः इनसे लड़ने का हमारा तरीका अलग हो सकता है। भारत जैसे बहु- प्रांतीय राष्ट्र में यह आंतरिक प्रवासी कहाए जा सकते हैं , जैसे विदेशों में अपनी आजीविका तथा बेहतर भविष्य की तलाश में रह रहे भारतीय समूह के लोगों को हम अप्रवासी के रूप में पहचानते हैं। निश्चित ही उनकी अपनी समस्याएं होंगी और हो सकती हैं, पर फिर भी वे विस्थापित नहीं हैं, बल्कि अपनी इच्छा से किसी और ज़मीन पर स्थापित होने के पूर्ण प्रयास में रत। अतः महाराष्ट्र में रहते उत्तर-वासियों का संघर्ष, या श्रीलंका में रहते तमिळों का संघर्ष, पाकिस्तान में रहते अफ़ग़ानी या मुहाजिर अथवा उत्तराखंड(वर्तमान) में रहते तराई के लोगों की समस्याएं इन विस्थापितों की समस्याओं से और स्थिति से बिल्कुल ही अलग हैं। उसी तरह बिहार में से झारखंड की माँग, उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड की मांग, मध्य-प्रदेश से छत्तीसगढ़ का बनना या अब तेलंगाना- इनमें और विस्थापितों में जो अंतर है वह एक ज़मीन को दो में बाँटने की अनिवार्यता- क्योंकि हक़ और अधिकार और सुविधाओं का सही वितरण नहीं हो रहा था- ऐसी भावना घर कर गई थी। इसके राजनीतिक पहलू भी हैं जिनकी चर्चा यहाँ अनिवार्य नहीं है। इन सबका संबंध तत्कालीन राजनीतिक हवाओं एवं ऐषणाओं से ही जुड़ा है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा।
हाँ, लेकिन इन अप्रवासियों में तथा विस्थापितों के बीच एक विचित्र संबंध-सूत्र है। अपनी इच्छा से विदेश गए समूह अ-प्रवासी कहाते है। वहाँ वे और उनकी पीढ़ियां रहती हैं और वे वहीं के नागरिक भी हो जाते हैं। पर किसी राजनीतिक अथवा अन्य कारण से अगर उन्हें लौटना पड़े तो अपने ही मूल देश में वे विस्थापित हो जाते हैं।
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विस्थापन के मुद्दे को हम सांप्रदायिक मसले के साथ नहीं जोड़ सकते क्योंकि वहाँ ज़मीन से अधिक, राजनीतिक सत्ता में लिपटे धार्मिक मत-भेद की लड़ाई है। धार्मिक मत-भेद भारत में कोई नया मसला नहीं है। इसमें राजनीति का हस्तक्षेप भी नया नहीं है। परन्तु अन्तर तब आता है जब,अब राजनीति का ढाँचा बदल गया है, शासन किसी शाही परिवार अथवा किसी विदेशी सत्ता का नहीं है। अब तो लोगों द्वारा चुनी , लोकतांत्रिक सत्ता है, तब , धर्म और राजनीति के मायने सैद्धंतिक रूप से न मध्य-कालीन रहते हैं, न ही उपनिवेशवादी। संभवतः इसीलिए यह संघर्ष अधिक पीड़ा दायक कहा जा सकता है। इसीलिए इस रा.अ का रास्ता भी पीड़ा से हो कर गुज़रता है। जिन समुदायों ने संघर्ष के स्थान पर मुख्य धारा में अपने को शामिल कर लिया अब उनके विस्थापन को लोग भूल भी चुके हैं। सिंधी बोलने वाला समूह हमारे देश का एक मात्र ऐसा समूह है जिसका कोई प्रांत नहीं है। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए बंगाली, पंजाबी, सिखों की तुलना में सिंधियों की स्थिति इसलिए भिन्न रही क्यों कि शेष सभी अपने-अपने भाषा-प्रांत के साथ अपनी पहचान को सरलता से जोड़ कर एक हो गए। सिंधियों का कोई भाषा-प्रांत यहाँ था नहीं और विभाजन की विभीषिका से गुज़रने के बाद स्वतंत्र भारत की ज़मीन पर आ कर अपने लिए अलग प्रांत माँगने की कोई भूमिका बनने का तब प्रश्न भी खड़ा नहीं हुआ। भारत की अपनी सांस्कृतिक प्रकृति ही ऐसी रही है कि यहाँ जो भी आया उसका हमेंशा स्वीकार ही हुआ है। धीरे-धीरे सिंधियों ने अपने आप को पूरे भारत में फैला लिया। यह उनका अपना चुनाव रहा है। इस चुनाव से उनको कोई शिकायत भी नहीं है। उन्होंने धर्म को तरजीह दी और भारत में आने का चुनाव किया। उसके बरक्स भारत में रहने वाले इस्लाम को मानने वालों ने ज़मीन के टुकड़े के साथ भारत से अलग अपना अस्तित्व चाहा और प्राप्त किया। हो सकता है कि कहीं न कहीं इसके साथ मध्य-काल की अपने शासन की स्मृतियों की भूमिका हो।
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कश्मिरी विस्थापितों का प्रश्न धर्म से नहीं जुड़ा है बल्कि, ज़मीन से जुड़ा है। उस ज़मीन से जो उनकी थी और जहाँ से उन्हें ज़बरन हट जाना पड़ा है। चूँकि आज 1947 नहीं है, समय और स्थितियां भी बदल गई हैं। फिर, कश्मीर भारत की वैचारिक, कलात्मक एवं दार्शनिक परंपराओं का एक सशक्त उत्स भी रहा है। जिस भूमि पर प्रत्यभिज्ञा दर्शन का अवतरण करने वाली अभिनवगुप्त जैसी प्रतिभा ने जन्म लिया हो ; कश्मीर वह धरती है जहाँ गए बिना शंकराचार्य, 'शंकराचार्य' नहीं होते - कम लोग जानते होंगे कि मूल कश्मिरी अपना प्रकृति से ही धर्म-निरपेक्ष रहे हैं; उस भूमि के बाशिंदे अगर अपनी ज़मीन के मूलभूत सौंन्दर्य को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो यह सहज और स्वाभाविक ही कहा जा सकता है। उनमें वह ताक़त है ; उनकी अस्मिता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वर्तमान अवसरवादी राजनीति सर पटक कर रह जाएगी, पर इन रा.ध.अ को अपने लक्ष्य में सफलता तो मिलेगी ही। जिस तरह इज़राईल में दुनिया भर के यहूदी लौटे और जिस तरह पैगंबर साहब मदीने से मक्का सफ़ल हो कर लौटे , उसी तरह कश्मिरियों को अपने कश्मीर में लौटने का अवसर मिलेगा। इस बात को ये रा.ध.अ. जानते हैं, इसीलिए वे भूतकाल का विस्मरण नहीं करते। वे मानव-धर्मी पीड़ा के जरिए अपनी अस्तित्व की लडाई लड़ रहे हैं। जिस तरह इंतज़ार हुसैन मानते हैं कि स्मृतियों में जीते रहना इसलिए आवश्यक है कि इससे भविष्य- निर्माण की संभावनाएं सर्जनात्मक स्तर पर बनी रहती हैं। जब कोई समूह अपने अस्तित्व के लिए इस तरह लड़ रहा होता है तब अपनी इस लड़ाई में वह अकेला ही होता है। इस अकेलेपन के साथ लड़ने के लिए आस्था का होना, आशावादिता का होना निहायत अनिवार्य है ; यह आस्था और आशावादिता वर्तमान राजनीति से नदारद है अतः ये रा.ध.अ जिन बिन्दुओ पर एक साथ जीते हैं उनकी आधार-भूमि ये तीन बिन्दु बनते है-
1-वर्तमान की रक्षा तथा भविष्य- निर्माण के लिए इतिहास-बोध की अनिवार्य उपस्थिति।
2-मानवीय-गरिमा की रक्षा के लिए संस्कृति-चेतना को लोक कला-साहित्य वैचारिक संपन्नता के दीप द्वारा जलाए रखने का आकंक्षा।
3- कठोर-संवेदनहीन एवं बहरी राजनीतिक ताक़तों के स्वार्थ एवं षड्यंत्रों के विरुद्ध ईश्वर में दृढ आस्था बरक़रार रखना।

1 टिप्पणी:

  1. कश्मीरी विस्थापित हिन्दू हैं, इसलिये उनके बारे में सोचना भी व्यर्थ है.

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