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गुरुवार, 11 जून 2009

नगाड़ा बजा

गा ड़ा न गा ड़ा...नगाड़ा ब जा
रंजना अरगडे
नगारा..नगारा.....नगारा ........बजा क्योंकि हम अब एक नए मैजिकल वर्ल्ड में जी रहे हैं जहाँ सब कुछ पल भर में घटित हो जाता है। लोक और सामाजिक व्यवहार तो क्या नैतिकता तक हमारे देखते ही देखते, हमारी मानो रज़ामंदी लेते हुए, हमारे ही सामने अ-नैतिकता की सीढ़ियाँ चढ़ जाती है। हमारी ही लोक-परंपरा की दुहाई देते हुए हमें यह समझा दिया जाता है कि समाज और लोक-साहित्य तक में तो ऐसा ही होता है। वरना क्या हम जीजा-साली के रिश्ते का करुण अंजाम बयाँ करने वाले किस्सों से अवगत नहीं हैं क्या ? बहन का जापा कराने आयी छोटी बहन कब उसी की सौत बन कर अपने और बहन के बच्चों को एक ही घर में बड़ा करती , क्या हमारी जानकारी में नहीं है। माता-पिता का बोझ, उनकी कुल मर्यादा, बेटी की मजबूरी और पुरुष के अ-संयम के इस अनिच्छनीय परिणाम को तब भी हम ख़ुशी-ख़ुशी तो स्वीकार नहीं ही करते रहे थे। पर अब एक कामोत्तेजक स्प्रे इस सारे करुण और दुखद परिवेश की ऐसी-तैसी करते हुए सारी के पैर में मोच ला कर वह कर देता है, एक जबरदस्त ग्लैमर के साथ कि हमें यह लगने लगता है कि ‘ अच्छा ! इस हमारी जादुई दुनिया में कितना सरल हो गया है सब कुछ! अब एकाधिक लड़कियों वाले माँ-बाप को चिंता की ज़रूरत ही नहीं है। दहेज में लड़की को ये ऐसे स्प्रे दे दें, तो दूसरी शादी का खर्च भी बच जाएगा।
कष्ट झेलना, श्रम करना और प्रतीक्षा करना ... ये सारे कार्य और मूल्य अब बे-मानी हो गए हैं। सब कुछ चट-पट; फटाफट। अब डॉक्टरों की क्या ज़रूरत है, आपके बालों की रूसी से ले कर दाँतो और चेहरे तक की चमक .. मिनटों में आ जाएगी। अब माता-पिताओं को न चिंता करने की ज़रूरत है न विद्यार्थियों को श्रम... कि मेडिकल में एडमिशन मिलेगा या नहीं। क्यों खून जलाया जाए... इस ग़रीब(?) जनता को आपकी क्या ज़रूरत है!

अच्छा काम और अच्छे परिणामों , नौकरी या परीक्षा में अ-कल्प्य सफ़लता के लिए एकाध पावडर या सेलफोन या किसी अच्छे पेन की ज़रूरत है यह अगर मुझे पता होता तो कितना भला हो जाता मेरा। मुझे अपने उस जले हुए ख़ून के क़तरों पर दया आ रही है जो मैंने अपने बेटे को सु-लेखन करवाने के लिए जलाए थे। उन वस्तुओं के मूल्य को मैंने नहीं पहचाना जो आज का हमारा जादुई विश्व बन चुकी हैं।
ग़ुज़र गया वो ज़माना....ऐसा...कैसा..कि जिसके किस्से-कहानियों में रही जादू की छड़ियाँ पल भर में दुनिया बदल देती थीं कहानी के किरदारों की। उड़ती हुई चटाई या जादुई चराग़ भोले ईमानदार किरदारों को मिलता था, मीनारों में बंद सुन्दर राजकुमारियाँ संघर्ष करने वाले, कष्ट झेलने वाले वीर पुरुषों को मिलती थीं। पर अब तो यह सब 10, 20, 50, 100 1000......आदि आदि रुपये.
खर्च करने पर कोई भी पा सकता है।
हृदय तो अब रहा नहीं, आत्मा की बात ब्रह्म जाने, पर शरीर को स्वस्थ और सुंदर बनाने की ताबड़-तोड़ कोशिश और दौड़ इसके पहले शायद ही देखने को मिली हो। इतने सारे जिम हर शहर में खुल गए हैं कि ले मार की मार भीड़ उसमें जा रही है। बगीचों की उपयोगिता और उद्देश्य बदल गए हैं। छोटे-बड़े शहरों का हर बग़ीचा सुबह-शाम जवानों और बूढों से पटा नज़र आता है। बड़ा अच्छा लगता है कि स्वास्थ्य के प्रति ऐसी अ-भूत पूर्व जागरुकता !!! धन्य हो, मेरा भारत महान ! जय हो !
पर आप जैसे ही दौड़ना शुरु करेंगे आपको पता चलेगा कि वहाँ लोग अपना व्यवसाय बढ़ाने आते हैं। बीमा के शिकार वहीं मिलेंगे, फिर तरह-तरह के क्लासेस हैं- और कितना कुछ । ग्राहक भी बनते हैं और स्वास्थ्य भी। और समय के साथ दौड़ने का अहसास भी। इसीको कहते हैं ‘आम के आम गुठलियों के दाम !’
हमारी एक साथिन हैं- चाँद बहन शेख। उन्हें समय के साथ रहना ही नहीं आता । अब यहाँ दौड़ ज़ीरो फिगर की लगी हुई है और वे लड़कियों को सु-पोषित देखना चाहती हैं। आज की जवान होती लड़कियों को भविष्य की पीढ़ी को जन्म
देना है और ये ज़ीरो फीगर में खोई लड़कियाँ भूल रही हैं कि इतने कमज़ोर शरीर से वे कैसी संतानों को जन्म देंगी? और वे संतानें हमारे देश की क्या तो रक्षा करेंगी और क्या तो उसका विकास करेंगी। और फिर इस वस्तुओं से भरी जादुई दुनिया की चीज़ें खा-खा कर उनमें कौन-सी ऐसी ताक़त आ जाएगी... ।
पहले तो स्त्रियाँ सामाजिक और व्यवस्था-गत कारणों से कु-पोषित थीं। ( पर जच्चा का तो फिर भी ख्याल रखा ही जाता था, अमूमन) पर अब तो भरे-पूरे घरों की लड़कियाँ भी अपनी मर्ज़ी से कु-पोषित/ अ-पोषित रहना चाहती हैं और यह जादुई दुनिया उन्हें अपनी ही बहन की सौत बनाने के लिए प्रेरित कर रहा है।
आज का मंत्र तो यही है कि-

नैतिकता की खूंटी पर
भौतिकता की झोली,
मारो ईश्वर को गोली !

पर मेरा पिछड़ापन कहता है कि बाबा प्लेटो कहीं- न-कहीं तो आज भी प्रासंगिक हैं।


मंगलवार, 9 जून 2009

महादेवी : आधुनिक मीरा ?

महादेवी : आधुनिक मीरा ?

उपाधि-प्रिय इस समाज में यह कोई आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए कि महादेवी जैसी अत्यन्त जागृत और ऊर्जा-संपन्न रचनाकार को मध्य काल की क्रांतिकारिणी भक्त कवयित्री का बिरुद दे दिया गया हो। फिर वैसे भी यह मानव-सहज ही माना जाना चाहिए कि हम अपने वर्तमान की पहचान अपने भूतकाल के संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में करें ।
सन् 2007 महादेवी का जन्म-शताब्दी वर्ष है। यह एक अच्छी बात है कि समय का प्रवाह अपने नियम से चलता है और पीढ़ियां भी बदलती रहती हैं, अतः आज 100 वर्षों बाद हम नए सिरे से उन रचनाकारों पर सोच सकते हैं जिनका मूल्यांकन या तो सीमाबद्ध हुआ हो, या अधूरा हुआ हो अथवा जिनकी सिरे से उपेक्षा हुई हो। यह सही कहा गया है कि समय की छलनी तय करती है कि कौन-सा कवि , कलाकार अथवा चिंतक समय के प्रवाह में बचा रह सकेगा।
निश्चित रूप से महादेवी की उपेक्षा तो नहीं ही हुई है और महादेवी को पसंद करने वालों की संख्या भी कम नहीं है, परन्तु महादेवी का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है। महादेवी को आधुनिक मीरा कहने वाले उनका सम्मान ही करना चाहते होंगे ऐसा मान लेना चाहिए। फिर आम जनता में भी तो मीरा की छबि बड़ी सम्मानीय है।
ऐसा कहना सतह पर गलत भी नहीं लगता क्योंकि मीरा की तरह महादेवी ने भी घर-संसार के प्रति विरक्ति दिखाई, किसी रहस्यमय प्रीतम, जो तम के पार रहता है, जिसे तम के पर्दे में आना भाता है, जिससे प्रेम भी किया जा सकता है और प्रेम-भरा झगड़ा किया जा सकता है इत्यादि, के प्रति अपनी भावना व्यक्त की है। मीरा का प्रियतम रहस्यमय तो नहीं था पर अ-लौकिक अवश्य था। और यह भी तो हो सकता है कि महादेवी को मीरा के समान बता कर ऐसे, न समझ में आने वाले प्रेम को एक फ़्रेम में आलोचक मढ़ देना चाहते हों और अपने कर्तव्य की इति-श्री कर देना चाहते हों कि भई लीजिए, हमने तो न्याय कर दिया है।
पर यह कैसा न्याय ? न्याय तो व्यक्ति की सही पहचान करके ही किया जा सकता है। आप देखिए, कि इस आधुनिक मीरां वाले बिरुद को अब आधी शताब्दी से ऊपर हो गया और उस पर पुनर्विचार करने की प्रक्रिया अब जा कर आरंभ हुई है। घर-संसार की विरक्ति मीरा को कृष्ण तक ले जाती है और महादेवी को ले जाती है उस दिशा में जहाँ उनके समय की आम स्त्रियां अज्ञान तथा रुढ़ियों के झूठे बंधनों में बँधी एक दुःखमय, विषाक्त तथा विषण्ण जीवन जी रहीं थी। उनको जगाने तथा उनके लिए रास्ता बनाना तथा अपने समय की स्त्रियों को बेहतर जीवन मिले इस हेतु ठोस प्रयत्न करने का काम महादेवी ने किया। इसलिए ही ऐसा लगता है कि उनके व्यक्तित्व पर अलौकिकता तथा रहस्यमयता के परदे को जबरन डाला गया ताकि यह जो अधिक व्यापक प्रभाव वाली उनकी यह विशेषता दब जाए। वह बात, जो सामान्य स्त्री को उसके हक़ के प्रति जागृत करे वह अंततः तो समाज के लिए एक ख़तरा ही माना जाना चाहिए।
पर अब सौ वर्षों के बाद जब हम आकलन करने बैठते हैं, तो उन मुद्दों की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक हो जाता है जिनसे महादेवी के रचना-व्यक्तित्व की पहचान संभव हो सकती है। महादेवी ने कविताएं लिखीं, निबंध लिखे, रेखाचित्र लिखे, चिंतन किया और अपनी सोच को कार्यान्वित भी किया। यानी कि मन, बुद्धि तथा कर्म तीनों को सक्रीय रखा। प्रकृति ने प्राणी को मनुष्य के रूप में जिन महत्वपूर्ण अंशों से परिभाषित किया है उनका, उन सभी का उपयोग महादेवी ने किया है। मुझे नहीं लगता कि यह श्रेय उनके समकालीनों को तो क्या, पर बाद के दौर के रचनाकारों में भी किसी को दिया जा सकता है। यह वास्तव में मन, कर्म वचन की एकता के भारतीय मूल्य है का ही थोड़ा परिवर्तित रूप माना जा सकता है।
महादेवी वर्मा भारतीय परिदृश्य की प्रथम स्त्रीवादी चिंतक हैं ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। श्रृंखला की कडियां नामक पुस्तक में प्रकाशित उनके निबंध 1942 के पहले लिखे गए थे। वे आधुनिक भारत की प्रथम विमेन एक्टिविस्ट थीं इस बात में भी कोई संदेह नहीं है। लड़कियों के लिए खोला गया बालिका विद्यालय बाद में चलकर स्नातक कक्षा तक विकसित हुआ, इसी का उदाहरण है। स्वतंत्रता संग्राम की वे एक वीर सिपाही थीं, इसका प्रमाण उनके वे गीत हैं जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रभात-फेरियों के रूप में गाए जाते थे और जन-जन की ज़ुबान पर थे। जिस दलित विमर्श की बात करते-करते हम नहीं अघाते उसके उत्कृष्ट नमूने उनके रेखा-चित्रों में हमें देखने को मिलते हैं। भारतीय समाज, संस्कृति, शिक्षा- व्यवस्था, स्वतंत्र भारत में शासन का कर्तव्य आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनको महादेवी ने अपने चिंतनात्मक निबंधों में बहुत ही ओज-पूर्ण अभिव्यक्ति दी है। मीरा ने तो कृष्ण के अलावा किसी शब्द का उच्चारण भी नहीं किया पर महादेवी ने भारत माता की मुक्ति के लिए गीत रचे, बेहतर समाज रचना के संदर्भ में गहन चिंतन तथा कार्य किया। तब बिचारे आलोचकों द्वारा थोप दिए गए इस रहस्यमय प्रीतम का क्या हुआ होगा, यह सोचने की बात है। समझने की भी यही बात है कि महादेवी पर किसी रहस्यमय प्रीतम को मढ़ देना एक आसान तरीका था, उन को एक ओर रख कर भूल जाने का। क्या इसे हम पुरुष-सत्तात्मकता का षड्यंत्र कहें या उसका स्वभाव कहें या उसकी नादानी कहें या उसका घमंड़।
महादेवी के समकालीनों में सुभद्राकुमारी चौहान तथा निराला दोनों का उल्लेख करना आवश्यक है क्योंकि इन दोनों से उनका नैकट्य था। सुभद्रा जी तथा महादेवी में तो कुछ ही वर्षों का फ़ासला था। पर दोनों का काव्य-स्वभाव भिन्न था। निराला उनसे बड़े थे। दोनों के अंतर को एक वाक्य में इस तरह कहा जा सकता है कि निराला की काव्य-यात्रा ओज अर्थात् वीरता से करुणा की ओर गई है तथा महादेवी की करुण से ओज की ओर।
जिस दौर में महादेवी लिख रहीं थीं उस पूरे युग में महादेवी का स्वर सबसे अलग था। फिर चाहें वे सुभद्राकुमारी इत्यादि स्त्री-रचनाकार हों या निराला आदि छायावादी कवि हों। जितनी सीधी-स्पष्ट तथा अभिधा मूलक अभिव्यक्ति सुभद्राकुमारी समेत सभी स्त्री कवयित्रियों की थी उतनी ही व्यंजना सभर तथा रहस्यमय अभिव्यक्ति महादेवी की रही।
इस बात को कई तरह से समझा जा सकता है। मध्यकाल में ज्ञानमार्गी कवि रहस्यमय पदावली लिखते थे। उस समय स्त्री रचनाकार प्रेम के माध्यम से भक्ति के पथ पर चल रही थीं। रहस्यात्मकता ज्ञान का विषय है और स्त्री के लिए ज्ञान वर्जित था। महादेवी ने अपने समय में इस परंपरा को तोड़ा और जो अभिव्यक्ति अब तक पुरुष केन्द्री मानी गयी थी उसे महादेवी ने स्त्री-केन्द्र की तरफ मोड़ने का उपक्रम किया।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महादेवी अपने समय की सबसे अधिक पढ़ी-लिखी कवयित्री थीं। उन्होंने वैदिक तथा संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा इनमें रहे विचारों को काव्यानुभूति में ढालने का सफल प्रयास किया। जैसे-
न थे जब परिवर्तन दिन-रात
नहीं आलोक तिमिर थे ज्ञात।
व्याप्त क्या सूने में सब ओर
एक कंपन थी एक हिलोर।
बुद्धिगत विचारों को भावनात्मक अभिव्यक्ति देना भी एक तरह का उनका नारी विमर्श ही है, क्योंकि इस तरह वे स्त्रियों को सोचने के लिए ऐसे-ऐसे दरवाज़े खोल रहीं थीं जो बरसों पहले, यानी गार्गी, मैत्रेयी आदि के बाद से, लगभग बंद ही हो गए थे। महादेवी अपनी कविताओं के द्वारा पुरुष वर्ग को वशीभूत नहीं करना चाहती थी, बल्कि यह जता देना चाहती थी कि जिस ज्ञान तथा बुद्धि पर पुरुष गर्व करता है, उसे पाना स्त्रियों के लिए भी संभव है। इतना ही नहीं महादेवी द्वारा किए गए वैदिक ऋचाओं, थेर गाथाओं, कालीदास आदि के जो अनुवाद हैं, वे भी इस बात का संकेत देते हैं कि स्त्री अगर ज्ञान प्राप्त करेगी तो पुरुष की प्रतिस्पर्धी ही नहीं बल्कि उससे श्रेष्ठ साबित हो सकती है।
महादेवी की कविताओं में आए रुपक उनकी एक विशिष्ट पहचान बन गए हैं। स्त्री होने के नाते वे वात्सल्य के रूपकों द्वारा गहन दार्शनित बातों को समझाती हैं। जैसे-
तू धूल भरा ही आया
ओ चंचल जीवन बाल , मृत्यु जननी ने अंक लगाया।
निराला अगर तुम तुंग हिमालय श्रृंग लिखकर अपना समर्पण भाव व्यक्त करते हैं तो इसी तरह की कविता रच कर महादेवी कुछ भिन्न भाव व्यक्त करती हैं। वे असीम के द्वारा बाँधा जाना स्वीकार तो नहीं ही करती हैं पर साथ ही यह भी जता देती हैं कि वे असीम से भिन्न भी हैं। एक उदाहरण देखिए -
मैं तुम से हूँ एक, एक हैं जैसे रश्मि प्रकाश
मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न हैं जैसे रश्मि प्रकाश
मुझे बाँधने आते हो लघु सीमा में चुपचाप,
भिन्न कर पाओगे क्या कभी ज्वाला से उत्ताप।

महादेवी की सभी कविताओं की विशेषता यह रही है कि छंद-वैविध्य द्वारा उन्होंने अपनी रचनाओं को अनेक विध आयाम दिए हैं। यह वैविध्य भी कैसा, जो एक-सी लगने वाली करुणा को एक-सा होने से बचाती है। भाव की सूक्ष्म भंगिमाएं छन्द के इस वैविध्य के कारण प्रकट होती है।
उन्होंने एक ही प्रकार के काव्य-रूपक अलग-अलग भाव-बोध की कविताओं में प्रयुक्त किए हैं। इसीलिए रहस्यवादी कविताओं में दीप का काव्य-प्रतीक करुण का भाव जगाता है तो देश-भक्ति की कविताओं में वही काव्य-प्रतीक वीर का भाव जगाता है। उसी तरह अश्रु और वीणा के काव्य-प्रतीक उनकी प्रचलित कविताओं में जहाँ मधुर वेदना तथा करुणा की अभिव्यक्ति देते हैं, वहीं देश-भक्ति की कविताओं में ये प्रतीक अस्वीकार और संघर्ष का भाव प्रकट करते हैं। महादेवी का यह काव्य-कौशल इस बात को रेखांकित करता है कि काव्य में उपमान संदर्भों से ही नए अर्थ पाते हैं, उनका कोई स्थाई काव्यार्थ नहीं होता।
महादेवी के कुल पाँच काव्य-संग्रह हमें प्राप्त होते हैं - नीहार, रश्मि, नीरजा सांध्यगीत और अग्निरेखा। उनकी कुल काव्य रचनाएं पढ़ कर मन में कई प्रश्न जगते हैं। इसका कुछ श्रेय तो आलोचकों को जाता है, जिन्होंने महादेवी को केवल प्रेम, करुणा और रुदन की कवियित्री माना है। इस बात का इतना अधिक प्रभाव रहा है कि नयी दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन करने में भी कठिनाई पड़ती है। क्योंकि पुराने आलोचकों की धारणा तथा मान्यता सतह पर तो महादेवी की प्रशंसा ही प्रतीत होती है।
महादेवी के जीवन-प्रसंगों को देखें तो पता चलता है कि जिस स्त्री ने ज़िद करके आगे पढ़ने की इच्छा को कार्यान्वित किया हो, जो वैवाहिक जीवन को तिलांजलि दे कर दीवार फांद कर अपने घर लौट आई हो, तमाम विरोधों का सामना कर के जिसने संस्कृत का अध्ययन किया हो, जिसने नारी के कष्टों को महसूस कर उस पर लिखा ही नहीं बल्कि ठोस कार्य भी किया हो, वह अपनी कविता में किसी अनजान प्रियतम की प्रतीक्षा में रो-रो कर घुल कैसे सकती है? जो दीक्षा के क्षण को लांघ कर जीवन में लौट आई हो, वह निश्चय ही प्रभु की प्रेमाभक्ति में लीन हो कर कविता नहीं रच सकती! मेरा ऐसा मानना है कि प्रेम और करुण को वह भाव जो नारी सहज होता हैं उसको अभिव्यक्ति दे कर उन्होंने एक पूरे नारी वर्ग की भावनाओं को वाचा दी है। इसे महादेवी के निजि प्रेम की अभिव्यक्ति के उदाहरण मान लेने की भी आवश्यकता नहीं हैं, बल्कि इसे नारी वर्ग की आंतरिक भावनात्मक आवश्यकता के रूप में पहचाना जा सकता है जो महादेवी की कविता के द्वारा प्रकट होती है।
महादेवी समाज द्वारा स्वीकृत चौखटे में अँटने वाली स्त्री मेधा नहीं थी और यही कारण है कि उनके चिंतनात्मक पक्ष की वर्षों तक अवहेलना तथा उपेक्षा हुई। स्त्री-मेधा के प्रति हमारे पुरुष सत्तात्मक समाज द्वारा लिया गया यह एक मौन निर्णय है।
आज भी अपनी बात अपने ढंग से कहने वाली स्त्री समाज को नहीं सुहाती तो उस समय कैसे सुहाती भला।