स्वाधीनता और साहित्य
डॉ. रंजना अरगडे
(पराधीन मृतवत् होते हौं और उन्हें सपने में भी सुख नसीब नहीं हो सकता।)
स्वाधीनता और साहित्य विषय पर काम करते हुए मुझे सर्वप्रथम पराधीनता संबंधी विवेचन ही मिला। तो मुझे यह लगा कि कहीं आचार्य भरत की तरह तो नहीं, कि जो दोष नहीं वह गुण है, तो जो पराधीन नहीं वह स्वाधीन है! असल में शब्द-प्रयोग के संदर्भ में हम दिन-प्रति-दिन ग़ैर-ज़िम्मेदार होते जा रहे हैं। साहित्य के संदर्भ में स्वाधीनता की चर्चा में सहज ही सबसे पहले स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में लिखी गई रचनाओं का विचार ही आता है। इस आलेख में मैंने स्वाधीनता के मुद्दे को संकल्पनात्मक स्तर पर समझने और देखने की कोशिश की है।
इस संकल्पना पर सोचते हुए मेरे सामने तीन शब्द उजागर हुए। स्वाधीनता, स्वतंत्रता और मुक्ति। [1] स्वतंत्रता में जहाँ निजी तंत्र तथा निजी प्रबंधन का बोध है, वहाँ स्वाधीनता में, तंत्र तथा प्रबंधन से हट कर, अपने अधीन होने का बोध है। मुक्ति बंधन की शर्त पर आधारित है। अगर आप बँधे हैं, तभी मुक्ति संभव है। लेकिन स्वाधीनता और स्वतंत्रता में ऐसी कोई पूर्व-शर्त नहीं है। स्वतंत्र होने पर भी हम स्वाधीन हों, यह ज़रूरी नहीं है। स्वतंत्र शासन में भी हम पराधीन तो हो ही सकते हैं। पर स्वतंत्र शासन में पराधीन होते हुए भी क्या हम मुक्त हो सकते हैं? संभवतः हाँ; क्योंकि स्वतंत्र शासन में पराधीन होते हुए भी सामाजिक और जागतिक संबंधों से/में मुक्ति का बोध एवं स्थिति संभव है। साहित्य अथवा कला की दुनिया एक ऐसी दुनिया है जहाँ शासन चाहे स्व-तंत्र या पर- तंत्र हो, व्यक्ति चाहे पराधीन ही क्यों न हो, वह मुक्ति का बोध तो प्राप्त कर ही सकता है।
सही अर्थों में स्वाधीनता ही साहित्य-सृजन को संभव बनाती है। एक स्वाधीन-मना लेखक के द्वारा लिखा हुआ साहित्य प्रवाह में बहती साहित्यिक गतिविधि से अलग ही दृष्टिगोचर हो जाता है। ऐसा लेखक क्या करता है? – वह अपने चारों तरफ की फ्रेम्स को, तय शुदा ढाँचों को तोड़ता है; सामाजिक रूढ़ियों की, भाषा, स्वरूप और शैली की। उसे अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने के लिए उपेक्षा, अपमान भी सहन करने पड़ते हैं, मरना भी पड़ता है। ऐसा करते हुए जो लेखक एक परतंत्र समाज में रहता है उसका संघर्ष स्वतंत्र समाज में रहने वाले लेखक से अधिक हो सकता है; पर स्वतंत्र समाज में रहने वाले लेखक का, स्वाधीनता के लिए किया गया संघर्ष भी कम नहीं होता। लेखक कई बार जाति-गत दबावों के अधीन हो जाता है तो कई बार विचारधाराओं के अधीन हो जाता है। हम अपने साहित्येतिहास पर दृष्टि डालें तो मध्य-काल की पूर्व-भूमिका के रूप में हमें धार्मिक साहित्य मिलता है। मैं नहीं जानती कि यह कहना कहाँ तक उचित होगा कि इसके अन्तर्गत जिन रचनाकारों ने लिखा वे पराधीन थे। इस पर विचार की आवश्यकता है। जैन या बौद्ध साहित्य की जिस कृति में नायक या नायिका के दीक्षा ले लेने के उपरांत कृति संपन्न हो जाती है, वहाँ यह कहना संभवतः उचित होगा कि लेखक स्वाधीन नहीं है; क्योंकि वह एक तय (धार्मिक) पद्धति में बंधा है। इसमें अपवाद भी हो सकते हैं। कवि जब किसी धर्म को स्वीकार कर लेता है तो उसका फ़्रेम-वर्क भी स्वीकार कर लेता है। हमारे यहाँ धार्मिक कविता और भक्ति कविता के अंतर को इस तरह समझा जा सकता है कि एक( भक्ति)में हमारे चारों तरफ़ दृश्य बना होता है या सतत बन रहा होता है, हम खुद उसका हिस्सा होते हैं; जबकि दूसरे( धार्मिक) में हम किसी चित्र में प्रवेश करते हैं और उसके ढाँचे में अपने को समाहित करते हैं। इस तरह धार्मिक कविता आपको एक तय ढाँचे के भीतर बाँधती है और भक्ति कविता ढाँचे के बाहर भी सोचने देती है, आपको मुक्त रखती है।
मध्य-काल के पूर्वार्ध में भक्ति साहित्य आता है। चाहे सूर का पुष्टि मार्ग हो या तुलसी-जायसी की अपनी दार्शनिक भूमिका- हमें कहीं ऐसा लिखा हुआ नहीं मिलता कि वे इस पथ पर किसी आग्रह के कारण ज़बरन चले थे। वे स्वाधीन थे। अगर कोई फ़्रेम-वर्क था, तो वह भक्ति का था- उसके चारों और बनती-घुलती एक बाह्य-रेखा का। लेकिन इस रेखा के बाहर भी वे स्वाधीन तो थे ही।
मीरा बाह्य रेखाओं के तमाम फ़्रेम-वर्क को तोड़ती है। वह सामाजिक बंधन में थी तो उसे तोड़ते हुए मुक्ति की तरफ़ जाती है। राज-तंत्र से स्व-तंत्र होती है। तत्कालीन किसी भी धार्मिक फ़्रेम-वर्क के भीतर रचना करती हुई नहीं दिखती। वह न कविताई के फ़्रेम-वर्क में है, न भक्ति के बाह्य-रेखा वाले फ़्रेम-वर्क में। वह न समाज-सुधार की हिमायत करती है न किसी अन्य धार्मिक मतवाद का विरोध या समर्थन ही। वह केवल अपनी बात अपने ढंग से कहती है। इस तरह पूरे मध्य-काल में वह एक अकेली आवाज़ है – जो सही अर्थों में स्वाधीन है। हम आज द्वारिका में हैं, हमें यह याद है कि मीरा जीवन के अंत-काल में यहाँ आई थीं। पर हमें यह भी समझना चाहिए कि यह स्वाधीन-बुद्धि से लिया गया उसका अपना निर्णय था। वृंदावन में जीव-गोस्वामी वाले प्रसंग के बाद वह वापस अपने घर न जा कर यहाँ आती है। अपनी सामाजिक और राजकीय बंदिशों से मुक्ति पाने के लिए उसने यहाँ आना अधिक श्रेयस्कर समझा। हम कह सकते हैं कि मीरा वह पहली कवयित्री है जो पॉलिटिकल एसायलम(Political Asylum) लेती है; वह भी गुजरात में! इस से एक बात तो रेखांकित होती ही है कि लेखक की स्वाधीनता में बाधा पहुंचाने में राज्य की अर्थात् राजनैतिक सिस्टम की भूमिका भी होती है।
यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगी कि राज्य की अथवा राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए जब रचनाकार लिखता है तब वह व्यापक उद्देश्य के लिए लिख रहा होता है। पर उसकी अपनी स्वाधीनता का संबंध वैचारिक स्वाधीनता के साथ-साथ कला एवं अभिव्यक्ति-पद्धति से भी जुड़ा होता है। जैसे शमशेर जी की कविताओं को अगर आप देखें तो वे एक ही समय में देश-भक्ति एवं निजी संवेदनाओं की कविता लिख रहे थे। [2] कई बार रचनाकार राज्याश्रय से मुक्ति पा लेता है, पर काव्य-रीति से नहीं- जैसे घनानंद। यहाँ यह एक रोचक मुद्दा बनता है कि स्वाधीनता (का भाव) लेखक को साहित्य की नई अभिव्यक्ति एवं नए कला-रूपों की और ले जाती है।
स्वतंत्रता, अर्थात् किसी राजनीतिक तंत्र से मुक्ति के अर्थ में 1947 के पूर्व की रचानाओं को एक तरह से हम पॉलिटिकल रचनाओं का हिस्सा मान सकते हैं। साथ ही उस समय सामाजिक बंधनों की रूढि़यों से मुक्ति की रचनाएँ भी लिखी गईं।
स्वतंत्रता का यही भाव आधुनिकता के संदर्भ में व्यक्ति के साथ जुड़ जाता है।
अज्ञेय की कविताएँ व्यक्ति-स्वातंत्र्य की कविताएँ इस अर्थ में हैं कि भीड़ और समाज के बीच व्यक्ति की अपनी हस्ति को वे रेखांकित करती हैं। अज्ञेय में स्वाधीनता का भाव इतना सघन था कि आगे चल कर वे एक तरह की कलात्मक या रचनात्मक आध्यात्मिकता और फिर भारतीयता की ओर मुड़ते हैं। ठीक यही स्थिति बाद में हमें निर्मल वर्मा में दिखाई पड़ती है। अज्ञेय व्यक्ति-स्वातंत्र्य से लेखकीय स्वाधीनता की तरफ़ जाते हैं और निर्मल विचारधारात्मक बंधन से मुक्ति की तरफ़ जा कर लेखकीय स्वाधीनता में विराम पाते हैं।
असल में विचारधारात्मक स्वतंत्रता के चुनाव पर जब भी राजनीतिक दबाव पड़ता है, तब विचारधारा बंधन में परिणमित हो जाती है। अभी समय इतना नहीं बीता है कि कोई मूल्यांकन किया जा सके, अतः कोई निर्णय देना ठीक नहीं है। पर यह एक गंभीर सोच का मुद्दा है कि विचारधारा अपनी दार्शनिक एवं वैचारिक भूमिका पर जब लेखक को प्रभावित करती है तब वह ऑक्सीजन का काम करती है, पर जब उस पर राजनैतिक पार्टी का दबाव पड़ता है तब स्वाधीन-मना लेखक ठीक दूसरे सिरे पर निकलते हुए दिखाई देते हैं।
उत्तर-आधुनिक समय तक आते-आते विशिष्ट समूहों की स्वतंत्रता और मुक्ति प्रमुख हो जाती है। इसका संबंध विशुद्ध राजनैतिक अधिकार एवं अस्तित्व से जुड़ा है, अतः यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ एक समूह-विशेष का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष-रत होने से जुड़ा हुआ हम देखते हैं। यहाँ तक आते-आते परिधि पर के सारे समूह राजनैतिक अधिकारों को प्राप्त करने की प्रक्रिया में बंधन से मुक्ति की तरफ़ जाते भी दिखाई पड़ते हैं। यहाँ राजनैतिक हथियार से सामाजिक मुक्ति को प्राप्त करने का उपक्रम है। पूर्व-स्वातंत्र्य-काल में साहित्यिक एवं कला तथा विचार-गत हथियार से राजनैतिक स्वतंत्रता का संघर्ष संपन्न हुआ। अतः आधुनिक साहित्य जहाँ भद्र-वर्ग की स्वाधीनता का साहित्य है, वहीं उत्तर-आधुनिक साहित्य जन-समूह की सामाजिक मुक्ति एवं राजनैतिक अधिकार का साहित्य है। यहाँ स्वाधीनता नहीं है, क्योंकि व्यक्ति-स्वातंत्र्य नहीं है। समूह के साथ रहने की अनिवार्यता है। दलित/ नारी-वादी रचनाकार राजनैतिक रूप से स्वतंत्र एवं सामाजिक रूप से मुक्त भी होंगे; पर वे स्वाधीन हों यह ज़रूरी नहीं है।
विचारधारा और विमर्श का साहित्य अगर मूल दार्शनिक विचार से प्रभावित नहीं है तो प्रश्न हो सकता है कि उसका रचयिता कितना स्वाधीन-मना है। पर स्वाधीन-मना रचनाकार जब विचारधाराओं को आत्मसात करता है, तब वह काल से होड़ लेता हुआ साहित्य रचने की क्षमता रखता है। विभिन्न दार्शनिक प्रभावों से युक्त हमारे भारतीय आचार्य और विचारधारात्मक प्रतिबद्धता से हट कर लिखने वाले पश्चिमी विचारकों के सिद्धांत आज भी इसीलिए महदांश में ग्राह्य हैं क्योंकि वे उन आचार्यों एवं चिंतकों की स्वाधीन बुद्धि की उपज है।
तुलसी दास निश्चय ही वर्णाश्रम धर्म के समर्थक साहित्यकार हैं- पर फिर भी उनके लेखन में लेखकीय स्वाधीनता के उदाहरण मिल जाएंगे। एक मार्मिक उदाहरण उमा-शिव के विवाह के बाद का है। हिमालय और मैना जामाता शिव से वह सब कुछ कहते हैं जो एक लड़की के माता-पिता को कहना चाहिए। मैना यहाँ तक कह देती है कि मेरी बेटी को दासी बना कर रखना और उसके समस्त अपराध क्षमा करना क्योंकि हमने उसे बड़े प्यार से पाला है और वह हमें अत्यन्त प्रिय है। फिर मैना अपनी बेटी उमा से पति को ही सर्वस्व मानने का उपदेश भी देती है। यहाँ तक सब वैसा ही है जैसा कि आम तौर पर होता है। पर फिर तुलसी दास की उक्ति देखिए- का विधि रचि नारी जग माहिं/ पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं । यह उन तमाम सामाजिक रीति-रिवाजों एवं आप्त कर्तव्यों के बीच कही गई उक्ति है जो तुलसीदास की स्वाधीन सोच को दर्शाती है। व्यक्ति पराधीन तभी होता है जब वह अपने जीवन-यापन पर अन्य पर अवलंबित होता है। ऐसे लोगों को हितोपदेश में मृतवत् कहा गया है।
इसका अर्थ यह हुआ कि स्वाधीनता के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति को जीवन-यापन के लिए अपने संसाधन निर्मित करने चाहिए। अगर वह बंधा है तो स्वाधीनता के लिए अपमान उपेक्षा को सहने के लिए उसे तैयार होना चाहिए। सरकारी नौकरी करते हुए जो लिखते हैं- उन्हें इस प्रकार का अनुभव होगा। स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्राण भी देने पड़ते हैं और आप तब न शहीद की सूची में होते हैं न शोषित की- अधिक-से अधिक अ-व्यवहारिक एवं मूर्ख ही कहलाएंगे! इस उपाधि को ग्रहण करने की भी तैयारी रखनी पड़ेगी। विचारधारा या धर्म जब तक दृष्टि देता है, साहित्य स्वाधीन होता है। पर जैसे ही वहाँ दबाव या लोभ का प्रवेश होता है, वह बंधन का साहित्य हो जाता है।
तो इसका अर्थ यह होता है कि जो लेखक जीवन-यापन में स्वाधीन हो, किसी तंत्र पर अवलंबित न हो, किसी विचारधारा के दबाव में न हो वही स्वाधीन साहित्य का रचयिता हो सकता है। ऐसे रचनाकारों की गिनती किसी भी साहित्य में कम ही होती है।
जैसा कि मैंने पहले कहा मीरा का साहित्य स्वाधीनता का दस्तावेज़ है। वह किसी नए बने-बनाए ढाँचे (फ़्रेम-वर्क) को आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ती नहीं है। क्योंकि मीरा गाती भी है और नाचती भी है। यह स्वाधीनता जिसमें न जीवन-यापन का बंधन ह, न धर्म और भक्ति के ढाँचों की परतंत्रता। भीतर की उद्दामता के साथ फूट कर निकला हुआ भाव व्यक्ति का अपना अनुभूत और अर्जित होता है। कबीर में जीवन-यापन की स्वाधीनता है, अतः कहीं से कहीं का दबाव नहीं है। इसको भी डांटा, उसको भी फटकारा। जाति संबंधी हीनता-भाव नहीं है- जो तत्कालीन समय और समाज उन्हें देता है। यह एक ज्ञात तथ्य है कि कबीर तक आते-आते भक्ति भद्र-वर्ग की बपौती नहीं रही थी – चाहे धर्म भद्र-वर्ग के अधिकार में था। लेकिन कबीर के हाथ में स्वाधीनता का दंड था !
निराला का साहित्य, स्वाधीनता के पीड़ा-दायक मगर ओज-पूर्ण संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है। उसके परिपाक का दस्तावेज-रूप है ‘सरोज-स्मृति’। निराला लगातार अभिव्यक्ति और शैली की नई राहें खोजते रहे। वे परतंत्रता और स्वतंत्रता दोनों ही स्थितियों में स्वाधीन थे, वे सामाजिक रूढ़ियों से भी मुक्त थे- उनका कथा-साहित्य इसका उदाहरण है। महादेवी आत्म-समीक्षा और आत्म-मूल्यांकन करते हुए साहित्य के रंगमंच पर पहली बार रक्त-मज्जा-त्वचा वाले स्व-मानी चरित्रों को उपस्थित करती है। किसी आवरण या वेष में नहीं। यह कहना पड़ेगा कि महादेवी में आकर स्वाधीनता का ज़मीनी विस्तार ठोस आकार ग्रहण करता है, और सांस भी लेता है। साहित्य में विचारधारा का प्रभाव हो, फिर भी स्वाधीनता अ-प्रभावित रहे – यह सरल नहीं है। लेकिन जब ऐसा होता है तब महादेवी का साहित्य मिलता है ; पर जब विचारधारा राजनैतिक दबाव बन जाती है तब श्रीकान्त वर्मा (जैसों) का साहित्य निर्मित होता है।
मुक्तिबोध में भी निराला की तरह ही स्वाधीनता का संघर्ष पीड़ा-दायक है। निराला में उसका परिपाक अगर सरोज-स्मृति है तो मुक्तिबोध में वह ब्रह्मराक्षस में तथा अँधेरे में के रक्त-स्नात पुरुष में देखा जा सकता है। आत्म-चेतस् की खोज में धमनियों तक को उधेड़ कर रख देना – अपने भीतर तक ऐसा द्वंद्व बहुत ही पीड़ा दायक और कष्टकर है।
पर स्वाधीनता यही मूल्य लेती है साहित्य और साहित्यकार से।
अज्ञेय के साहित्य में स्वाधीनता एक भद्र-वर्गीय डिप्लोमैसी के साथ आती है। वे नए ढाँचे बनाते हैं और नया अवकाश निर्मित करते हैं। जबकि शमशेर और निर्मल में वह, विचारधारा के दबाव से मुक्त होती हुई, एक रचनाकार की स्वाधीनता बन कर आती है। शमशेर अपने अंतिम समय में वेदों की तरफ़ मुड़ते दिखते हैं। उनके लिए साहित्य और स्वाधीनता खुद एक मूल्य है। साहित्य अपनी मूल्यवत्ता में सत्ता बनता है, तो अलग बात है। पर ये अज्ञेय की तरह आने वाली पीढ़ी के लिए साहित्य का कोई तय ढाँचा (फ़्रेम-वर्क )या बनाया हुआ अवकाश नहीं छोड़ते।
यहाँ आज अपनी बात मैं शूद्रक के मृच्छकटिकम् को याद कर के समाप्त करूंगी। मार्क्सवाद में डी-क्लास होने की बात आती है। इस नाटक में हम देखते हैं कि शूद्रक अपने शासकत्व से डी-क्लास हो कर अपनी स्वाधीनता का कैसा अद्भुत परिचय देता है। स्वयं राजा होते हुए भी शूद्रक अपने नाटक में यह प्रतिपादित करता है कि अत्याचारी राजा के विरुद्ध वेश्या, जुआरी, चोर, दासी, सामान्य जन- सभी विद्रोह करेंगे। शकार जैसे सत्ता-पक्ष के निंदनीय स्वजनों का कच्चा चिट्ठा खोल कर उसे हँसी का पात्र बताता है। वहीं परिस्थिति-जन्य दरिद्रता अपनी मूल्य-धर्मिता के कारण समाज में आदर पाती है। और प्रेम भी!
साहित्य चाहे राजा लिखे या संत अपनी सुबह को शाम से मिलाता रचनाकार लिखे या संपन्नता से संलग्न फ्री-लांसर, पर जिन में स्वाधीनता के गहरे हल्के रंग दिखाई देते हैं, उन का साहित्य मनुष्य को ऊँचाईयों की ओर ले जाता है। साहित्य में स्वाधीनता सर्जनात्मकता का पर्याय भी है और मूल्यांकन का मापदंड भी।
[1] लगभग साथ ही साथ इसके तीन अंग्रेज़ी पर्याय भी प्रकट हुए- Independence, Freedom and Liberty.
[2] होली रंग और दिशाएं तथा समय-साम्यवादी
(पराधीन मृतवत् होते हौं और उन्हें सपने में भी सुख नसीब नहीं हो सकता।)
स्वाधीनता और साहित्य विषय पर काम करते हुए मुझे सर्वप्रथम पराधीनता संबंधी विवेचन ही मिला। तो मुझे यह लगा कि कहीं आचार्य भरत की तरह तो नहीं, कि जो दोष नहीं वह गुण है, तो जो पराधीन नहीं वह स्वाधीन है! असल में शब्द-प्रयोग के संदर्भ में हम दिन-प्रति-दिन ग़ैर-ज़िम्मेदार होते जा रहे हैं। साहित्य के संदर्भ में स्वाधीनता की चर्चा में सहज ही सबसे पहले स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में लिखी गई रचनाओं का विचार ही आता है। इस आलेख में मैंने स्वाधीनता के मुद्दे को संकल्पनात्मक स्तर पर समझने और देखने की कोशिश की है।
इस संकल्पना पर सोचते हुए मेरे सामने तीन शब्द उजागर हुए। स्वाधीनता, स्वतंत्रता और मुक्ति। [1] स्वतंत्रता में जहाँ निजी तंत्र तथा निजी प्रबंधन का बोध है, वहाँ स्वाधीनता में, तंत्र तथा प्रबंधन से हट कर, अपने अधीन होने का बोध है। मुक्ति बंधन की शर्त पर आधारित है। अगर आप बँधे हैं, तभी मुक्ति संभव है। लेकिन स्वाधीनता और स्वतंत्रता में ऐसी कोई पूर्व-शर्त नहीं है। स्वतंत्र होने पर भी हम स्वाधीन हों, यह ज़रूरी नहीं है। स्वतंत्र शासन में भी हम पराधीन तो हो ही सकते हैं। पर स्वतंत्र शासन में पराधीन होते हुए भी क्या हम मुक्त हो सकते हैं? संभवतः हाँ; क्योंकि स्वतंत्र शासन में पराधीन होते हुए भी सामाजिक और जागतिक संबंधों से/में मुक्ति का बोध एवं स्थिति संभव है। साहित्य अथवा कला की दुनिया एक ऐसी दुनिया है जहाँ शासन चाहे स्व-तंत्र या पर- तंत्र हो, व्यक्ति चाहे पराधीन ही क्यों न हो, वह मुक्ति का बोध तो प्राप्त कर ही सकता है।
सही अर्थों में स्वाधीनता ही साहित्य-सृजन को संभव बनाती है। एक स्वाधीन-मना लेखक के द्वारा लिखा हुआ साहित्य प्रवाह में बहती साहित्यिक गतिविधि से अलग ही दृष्टिगोचर हो जाता है। ऐसा लेखक क्या करता है? – वह अपने चारों तरफ की फ्रेम्स को, तय शुदा ढाँचों को तोड़ता है; सामाजिक रूढ़ियों की, भाषा, स्वरूप और शैली की। उसे अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने के लिए उपेक्षा, अपमान भी सहन करने पड़ते हैं, मरना भी पड़ता है। ऐसा करते हुए जो लेखक एक परतंत्र समाज में रहता है उसका संघर्ष स्वतंत्र समाज में रहने वाले लेखक से अधिक हो सकता है; पर स्वतंत्र समाज में रहने वाले लेखक का, स्वाधीनता के लिए किया गया संघर्ष भी कम नहीं होता। लेखक कई बार जाति-गत दबावों के अधीन हो जाता है तो कई बार विचारधाराओं के अधीन हो जाता है। हम अपने साहित्येतिहास पर दृष्टि डालें तो मध्य-काल की पूर्व-भूमिका के रूप में हमें धार्मिक साहित्य मिलता है। मैं नहीं जानती कि यह कहना कहाँ तक उचित होगा कि इसके अन्तर्गत जिन रचनाकारों ने लिखा वे पराधीन थे। इस पर विचार की आवश्यकता है। जैन या बौद्ध साहित्य की जिस कृति में नायक या नायिका के दीक्षा ले लेने के उपरांत कृति संपन्न हो जाती है, वहाँ यह कहना संभवतः उचित होगा कि लेखक स्वाधीन नहीं है; क्योंकि वह एक तय (धार्मिक) पद्धति में बंधा है। इसमें अपवाद भी हो सकते हैं। कवि जब किसी धर्म को स्वीकार कर लेता है तो उसका फ़्रेम-वर्क भी स्वीकार कर लेता है। हमारे यहाँ धार्मिक कविता और भक्ति कविता के अंतर को इस तरह समझा जा सकता है कि एक( भक्ति)में हमारे चारों तरफ़ दृश्य बना होता है या सतत बन रहा होता है, हम खुद उसका हिस्सा होते हैं; जबकि दूसरे( धार्मिक) में हम किसी चित्र में प्रवेश करते हैं और उसके ढाँचे में अपने को समाहित करते हैं। इस तरह धार्मिक कविता आपको एक तय ढाँचे के भीतर बाँधती है और भक्ति कविता ढाँचे के बाहर भी सोचने देती है, आपको मुक्त रखती है।
मध्य-काल के पूर्वार्ध में भक्ति साहित्य आता है। चाहे सूर का पुष्टि मार्ग हो या तुलसी-जायसी की अपनी दार्शनिक भूमिका- हमें कहीं ऐसा लिखा हुआ नहीं मिलता कि वे इस पथ पर किसी आग्रह के कारण ज़बरन चले थे। वे स्वाधीन थे। अगर कोई फ़्रेम-वर्क था, तो वह भक्ति का था- उसके चारों और बनती-घुलती एक बाह्य-रेखा का। लेकिन इस रेखा के बाहर भी वे स्वाधीन तो थे ही।
मीरा बाह्य रेखाओं के तमाम फ़्रेम-वर्क को तोड़ती है। वह सामाजिक बंधन में थी तो उसे तोड़ते हुए मुक्ति की तरफ़ जाती है। राज-तंत्र से स्व-तंत्र होती है। तत्कालीन किसी भी धार्मिक फ़्रेम-वर्क के भीतर रचना करती हुई नहीं दिखती। वह न कविताई के फ़्रेम-वर्क में है, न भक्ति के बाह्य-रेखा वाले फ़्रेम-वर्क में। वह न समाज-सुधार की हिमायत करती है न किसी अन्य धार्मिक मतवाद का विरोध या समर्थन ही। वह केवल अपनी बात अपने ढंग से कहती है। इस तरह पूरे मध्य-काल में वह एक अकेली आवाज़ है – जो सही अर्थों में स्वाधीन है। हम आज द्वारिका में हैं, हमें यह याद है कि मीरा जीवन के अंत-काल में यहाँ आई थीं। पर हमें यह भी समझना चाहिए कि यह स्वाधीन-बुद्धि से लिया गया उसका अपना निर्णय था। वृंदावन में जीव-गोस्वामी वाले प्रसंग के बाद वह वापस अपने घर न जा कर यहाँ आती है। अपनी सामाजिक और राजकीय बंदिशों से मुक्ति पाने के लिए उसने यहाँ आना अधिक श्रेयस्कर समझा। हम कह सकते हैं कि मीरा वह पहली कवयित्री है जो पॉलिटिकल एसायलम(Political Asylum) लेती है; वह भी गुजरात में! इस से एक बात तो रेखांकित होती ही है कि लेखक की स्वाधीनता में बाधा पहुंचाने में राज्य की अर्थात् राजनैतिक सिस्टम की भूमिका भी होती है।
यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगी कि राज्य की अथवा राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए जब रचनाकार लिखता है तब वह व्यापक उद्देश्य के लिए लिख रहा होता है। पर उसकी अपनी स्वाधीनता का संबंध वैचारिक स्वाधीनता के साथ-साथ कला एवं अभिव्यक्ति-पद्धति से भी जुड़ा होता है। जैसे शमशेर जी की कविताओं को अगर आप देखें तो वे एक ही समय में देश-भक्ति एवं निजी संवेदनाओं की कविता लिख रहे थे। [2] कई बार रचनाकार राज्याश्रय से मुक्ति पा लेता है, पर काव्य-रीति से नहीं- जैसे घनानंद। यहाँ यह एक रोचक मुद्दा बनता है कि स्वाधीनता (का भाव) लेखक को साहित्य की नई अभिव्यक्ति एवं नए कला-रूपों की और ले जाती है।
स्वतंत्रता, अर्थात् किसी राजनीतिक तंत्र से मुक्ति के अर्थ में 1947 के पूर्व की रचानाओं को एक तरह से हम पॉलिटिकल रचनाओं का हिस्सा मान सकते हैं। साथ ही उस समय सामाजिक बंधनों की रूढि़यों से मुक्ति की रचनाएँ भी लिखी गईं।
स्वतंत्रता का यही भाव आधुनिकता के संदर्भ में व्यक्ति के साथ जुड़ जाता है।
अज्ञेय की कविताएँ व्यक्ति-स्वातंत्र्य की कविताएँ इस अर्थ में हैं कि भीड़ और समाज के बीच व्यक्ति की अपनी हस्ति को वे रेखांकित करती हैं। अज्ञेय में स्वाधीनता का भाव इतना सघन था कि आगे चल कर वे एक तरह की कलात्मक या रचनात्मक आध्यात्मिकता और फिर भारतीयता की ओर मुड़ते हैं। ठीक यही स्थिति बाद में हमें निर्मल वर्मा में दिखाई पड़ती है। अज्ञेय व्यक्ति-स्वातंत्र्य से लेखकीय स्वाधीनता की तरफ़ जाते हैं और निर्मल विचारधारात्मक बंधन से मुक्ति की तरफ़ जा कर लेखकीय स्वाधीनता में विराम पाते हैं।
असल में विचारधारात्मक स्वतंत्रता के चुनाव पर जब भी राजनीतिक दबाव पड़ता है, तब विचारधारा बंधन में परिणमित हो जाती है। अभी समय इतना नहीं बीता है कि कोई मूल्यांकन किया जा सके, अतः कोई निर्णय देना ठीक नहीं है। पर यह एक गंभीर सोच का मुद्दा है कि विचारधारा अपनी दार्शनिक एवं वैचारिक भूमिका पर जब लेखक को प्रभावित करती है तब वह ऑक्सीजन का काम करती है, पर जब उस पर राजनैतिक पार्टी का दबाव पड़ता है तब स्वाधीन-मना लेखक ठीक दूसरे सिरे पर निकलते हुए दिखाई देते हैं।
उत्तर-आधुनिक समय तक आते-आते विशिष्ट समूहों की स्वतंत्रता और मुक्ति प्रमुख हो जाती है। इसका संबंध विशुद्ध राजनैतिक अधिकार एवं अस्तित्व से जुड़ा है, अतः यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ एक समूह-विशेष का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष-रत होने से जुड़ा हुआ हम देखते हैं। यहाँ तक आते-आते परिधि पर के सारे समूह राजनैतिक अधिकारों को प्राप्त करने की प्रक्रिया में बंधन से मुक्ति की तरफ़ जाते भी दिखाई पड़ते हैं। यहाँ राजनैतिक हथियार से सामाजिक मुक्ति को प्राप्त करने का उपक्रम है। पूर्व-स्वातंत्र्य-काल में साहित्यिक एवं कला तथा विचार-गत हथियार से राजनैतिक स्वतंत्रता का संघर्ष संपन्न हुआ। अतः आधुनिक साहित्य जहाँ भद्र-वर्ग की स्वाधीनता का साहित्य है, वहीं उत्तर-आधुनिक साहित्य जन-समूह की सामाजिक मुक्ति एवं राजनैतिक अधिकार का साहित्य है। यहाँ स्वाधीनता नहीं है, क्योंकि व्यक्ति-स्वातंत्र्य नहीं है। समूह के साथ रहने की अनिवार्यता है। दलित/ नारी-वादी रचनाकार राजनैतिक रूप से स्वतंत्र एवं सामाजिक रूप से मुक्त भी होंगे; पर वे स्वाधीन हों यह ज़रूरी नहीं है।
विचारधारा और विमर्श का साहित्य अगर मूल दार्शनिक विचार से प्रभावित नहीं है तो प्रश्न हो सकता है कि उसका रचयिता कितना स्वाधीन-मना है। पर स्वाधीन-मना रचनाकार जब विचारधाराओं को आत्मसात करता है, तब वह काल से होड़ लेता हुआ साहित्य रचने की क्षमता रखता है। विभिन्न दार्शनिक प्रभावों से युक्त हमारे भारतीय आचार्य और विचारधारात्मक प्रतिबद्धता से हट कर लिखने वाले पश्चिमी विचारकों के सिद्धांत आज भी इसीलिए महदांश में ग्राह्य हैं क्योंकि वे उन आचार्यों एवं चिंतकों की स्वाधीन बुद्धि की उपज है।
तुलसी दास निश्चय ही वर्णाश्रम धर्म के समर्थक साहित्यकार हैं- पर फिर भी उनके लेखन में लेखकीय स्वाधीनता के उदाहरण मिल जाएंगे। एक मार्मिक उदाहरण उमा-शिव के विवाह के बाद का है। हिमालय और मैना जामाता शिव से वह सब कुछ कहते हैं जो एक लड़की के माता-पिता को कहना चाहिए। मैना यहाँ तक कह देती है कि मेरी बेटी को दासी बना कर रखना और उसके समस्त अपराध क्षमा करना क्योंकि हमने उसे बड़े प्यार से पाला है और वह हमें अत्यन्त प्रिय है। फिर मैना अपनी बेटी उमा से पति को ही सर्वस्व मानने का उपदेश भी देती है। यहाँ तक सब वैसा ही है जैसा कि आम तौर पर होता है। पर फिर तुलसी दास की उक्ति देखिए- का विधि रचि नारी जग माहिं/ पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं । यह उन तमाम सामाजिक रीति-रिवाजों एवं आप्त कर्तव्यों के बीच कही गई उक्ति है जो तुलसीदास की स्वाधीन सोच को दर्शाती है। व्यक्ति पराधीन तभी होता है जब वह अपने जीवन-यापन पर अन्य पर अवलंबित होता है। ऐसे लोगों को हितोपदेश में मृतवत् कहा गया है।
इसका अर्थ यह हुआ कि स्वाधीनता के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति को जीवन-यापन के लिए अपने संसाधन निर्मित करने चाहिए। अगर वह बंधा है तो स्वाधीनता के लिए अपमान उपेक्षा को सहने के लिए उसे तैयार होना चाहिए। सरकारी नौकरी करते हुए जो लिखते हैं- उन्हें इस प्रकार का अनुभव होगा। स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्राण भी देने पड़ते हैं और आप तब न शहीद की सूची में होते हैं न शोषित की- अधिक-से अधिक अ-व्यवहारिक एवं मूर्ख ही कहलाएंगे! इस उपाधि को ग्रहण करने की भी तैयारी रखनी पड़ेगी। विचारधारा या धर्म जब तक दृष्टि देता है, साहित्य स्वाधीन होता है। पर जैसे ही वहाँ दबाव या लोभ का प्रवेश होता है, वह बंधन का साहित्य हो जाता है।
तो इसका अर्थ यह होता है कि जो लेखक जीवन-यापन में स्वाधीन हो, किसी तंत्र पर अवलंबित न हो, किसी विचारधारा के दबाव में न हो वही स्वाधीन साहित्य का रचयिता हो सकता है। ऐसे रचनाकारों की गिनती किसी भी साहित्य में कम ही होती है।
जैसा कि मैंने पहले कहा मीरा का साहित्य स्वाधीनता का दस्तावेज़ है। वह किसी नए बने-बनाए ढाँचे (फ़्रेम-वर्क) को आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ती नहीं है। क्योंकि मीरा गाती भी है और नाचती भी है। यह स्वाधीनता जिसमें न जीवन-यापन का बंधन ह, न धर्म और भक्ति के ढाँचों की परतंत्रता। भीतर की उद्दामता के साथ फूट कर निकला हुआ भाव व्यक्ति का अपना अनुभूत और अर्जित होता है। कबीर में जीवन-यापन की स्वाधीनता है, अतः कहीं से कहीं का दबाव नहीं है। इसको भी डांटा, उसको भी फटकारा। जाति संबंधी हीनता-भाव नहीं है- जो तत्कालीन समय और समाज उन्हें देता है। यह एक ज्ञात तथ्य है कि कबीर तक आते-आते भक्ति भद्र-वर्ग की बपौती नहीं रही थी – चाहे धर्म भद्र-वर्ग के अधिकार में था। लेकिन कबीर के हाथ में स्वाधीनता का दंड था !
निराला का साहित्य, स्वाधीनता के पीड़ा-दायक मगर ओज-पूर्ण संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है। उसके परिपाक का दस्तावेज-रूप है ‘सरोज-स्मृति’। निराला लगातार अभिव्यक्ति और शैली की नई राहें खोजते रहे। वे परतंत्रता और स्वतंत्रता दोनों ही स्थितियों में स्वाधीन थे, वे सामाजिक रूढ़ियों से भी मुक्त थे- उनका कथा-साहित्य इसका उदाहरण है। महादेवी आत्म-समीक्षा और आत्म-मूल्यांकन करते हुए साहित्य के रंगमंच पर पहली बार रक्त-मज्जा-त्वचा वाले स्व-मानी चरित्रों को उपस्थित करती है। किसी आवरण या वेष में नहीं। यह कहना पड़ेगा कि महादेवी में आकर स्वाधीनता का ज़मीनी विस्तार ठोस आकार ग्रहण करता है, और सांस भी लेता है। साहित्य में विचारधारा का प्रभाव हो, फिर भी स्वाधीनता अ-प्रभावित रहे – यह सरल नहीं है। लेकिन जब ऐसा होता है तब महादेवी का साहित्य मिलता है ; पर जब विचारधारा राजनैतिक दबाव बन जाती है तब श्रीकान्त वर्मा (जैसों) का साहित्य निर्मित होता है।
मुक्तिबोध में भी निराला की तरह ही स्वाधीनता का संघर्ष पीड़ा-दायक है। निराला में उसका परिपाक अगर सरोज-स्मृति है तो मुक्तिबोध में वह ब्रह्मराक्षस में तथा अँधेरे में के रक्त-स्नात पुरुष में देखा जा सकता है। आत्म-चेतस् की खोज में धमनियों तक को उधेड़ कर रख देना – अपने भीतर तक ऐसा द्वंद्व बहुत ही पीड़ा दायक और कष्टकर है।
पर स्वाधीनता यही मूल्य लेती है साहित्य और साहित्यकार से।
अज्ञेय के साहित्य में स्वाधीनता एक भद्र-वर्गीय डिप्लोमैसी के साथ आती है। वे नए ढाँचे बनाते हैं और नया अवकाश निर्मित करते हैं। जबकि शमशेर और निर्मल में वह, विचारधारा के दबाव से मुक्त होती हुई, एक रचनाकार की स्वाधीनता बन कर आती है। शमशेर अपने अंतिम समय में वेदों की तरफ़ मुड़ते दिखते हैं। उनके लिए साहित्य और स्वाधीनता खुद एक मूल्य है। साहित्य अपनी मूल्यवत्ता में सत्ता बनता है, तो अलग बात है। पर ये अज्ञेय की तरह आने वाली पीढ़ी के लिए साहित्य का कोई तय ढाँचा (फ़्रेम-वर्क )या बनाया हुआ अवकाश नहीं छोड़ते।
यहाँ आज अपनी बात मैं शूद्रक के मृच्छकटिकम् को याद कर के समाप्त करूंगी। मार्क्सवाद में डी-क्लास होने की बात आती है। इस नाटक में हम देखते हैं कि शूद्रक अपने शासकत्व से डी-क्लास हो कर अपनी स्वाधीनता का कैसा अद्भुत परिचय देता है। स्वयं राजा होते हुए भी शूद्रक अपने नाटक में यह प्रतिपादित करता है कि अत्याचारी राजा के विरुद्ध वेश्या, जुआरी, चोर, दासी, सामान्य जन- सभी विद्रोह करेंगे। शकार जैसे सत्ता-पक्ष के निंदनीय स्वजनों का कच्चा चिट्ठा खोल कर उसे हँसी का पात्र बताता है। वहीं परिस्थिति-जन्य दरिद्रता अपनी मूल्य-धर्मिता के कारण समाज में आदर पाती है। और प्रेम भी!
साहित्य चाहे राजा लिखे या संत अपनी सुबह को शाम से मिलाता रचनाकार लिखे या संपन्नता से संलग्न फ्री-लांसर, पर जिन में स्वाधीनता के गहरे हल्के रंग दिखाई देते हैं, उन का साहित्य मनुष्य को ऊँचाईयों की ओर ले जाता है। साहित्य में स्वाधीनता सर्जनात्मकता का पर्याय भी है और मूल्यांकन का मापदंड भी।
[1] लगभग साथ ही साथ इसके तीन अंग्रेज़ी पर्याय भी प्रकट हुए- Independence, Freedom and Liberty.
[2] होली रंग और दिशाएं तथा समय-साम्यवादी
bahut hi gyan vardhak alekh hai shubhkamnayen va abhar
जवाब देंहटाएंएक अच्छी प्रस्तुति। किंतु अपने लेखन को कुछ पैराग्राफ में बांट कर लिखें तो मुझ जैसे पाठक की रूचि बने रहेगी
जवाब देंहटाएंअत्यन्त महान् विषय का सम्यक विवेचन ! अच्छा लगा। हिन्दी चिट्ठाकारी को ऐसे ही बौद्धिक लेख मिलने चाहिये।
जवाब देंहटाएंनिर्मलाजी, पाबलाजी और अनुनादजी,
जवाब देंहटाएंआप तीनों का धन्यवाद। बलाजी मैं आपक बात को याद रखूंगी और अगला लेख उसी तरह दूंगी। असल में ब्लॉग की टेकनीक सीख रही हूँ।
रंजना अरगडे