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रविवार, 29 सितंबर 2013


शमशेर
 हिन्दी के उन थोड़े –से कवियों में हैं जो अपने जीवनकाल में ही एक मिथ बन गये – कुछ इस तरह की बात अपने वक्तव्य में कभी संभवतः, श्री अशोक वाजपेयी ने कही थी। आज मैं जब सोचती हूँ , तो सचमुच , मुझे लगता है कि कई मायनों में यह सही है क्योंकि शमशेर की तरह लिखना, सोचना और जीना लगभग अन-अनुकरणीय है। एक कवि ,शुद्ध कवि ,कैसा हो सकता है- इस बात को अगर हमें जानना हो तो निश्चय ही शमशेरजी उसके उदाहरण हो सकते हैं। अन-अनुकरणीय इसलिये कि शमशेर जैसा कवि होने का मतलब है -
Ø  कला के प्रति हाड़ तक ईमानदार होना
Ø  अभियक्ति  (लिखित और मौखिक दोनों ही) के प्रति सच्चा होना
Ø  अपनी भाषा के स्वरूप को इसलिये निरंतर निखारना कि यह कवि होने के नाते एक अ-लिखित कर्त्तव्य माना गया है।
Ø  मुक्त आकाश में उड़ना, पर दूसरों की स्पेस हथियाकर नहीं,बल्कि दूसरों के लिये इस तरह जगह बनाते हुए कि उनकी परवाज़ का भार और उपस्थिति का दबाव न हो।
Ø  अथाह प्रेम करना और प्रेम के मूल्य में ही सभी मूल्यों का समावेश कर लेना।
असल में शमशेरजी पर कुछ भी लिखने का आरंभ करते ही हमें अपनी ही कही हुई बात इसलिये रहस्यमय लगने लगती है कि हम जो लिख रहे होते हैं वह चूँकि वर्तमान में लगभग नदारद ही है अतः लिखते के तुरंत बाद लगने लगता है कि कहीं यह अतशयोक्ति तो नहीं है। यह बात शमशेरजी की कविताओं पर जितनी लागू होती है उतनी ही उनके गद्य पर भी लागू होती है।


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अगर मैं अंतिम बात से आरंभ करूं तो मुझे उनकी उन कविताओं का स्मरण आता है जिनमें उन्होंने प्रेम की बात की है। शमशेरजी जिस समय में प्रेम की बात करते हैं वह समय ही अब बीते ज़माने की बात हो गया है। आज का नया पाठक , नया कवि प्रेम को इस तरह नहीं देख सकता जहाँ प्रेम करने के क्षण में सात सागर उफ़न उठेंगे। 'चुका भी हूँ नहीं मैं, /कहाँ किया मैंने प्रेम अभी, /जब करूंगा प्रेम , पिघल उठेंगे युगों के भूधर, /उफ़न उट्ठेंगे सात सागर, किन्तु मैं हूँ मौन अभी,/कहाँ किया मैंने प्रेम अभी।  असल में इस कविता में हम प्रेम नामक मूल्य या तत्व या अस्तित्व का एक ऐसा स्वरूप देख सकते हैं जिसके विषय में आज  सोचना भी कठिन हो गया है। शमशेर के लिये प्रेम एक ऐसी उर्जा थी जो सचमुच धरती को आलोड़ित कर दे। आज व्यक्ति के मन में भी भूधर या सात सागर इस तरह जमा ही नहीं  हैं कि कुछ पिघल सके। अब हमारे लिये ऐसा कुछ भी होने देने जितना अवकाश ही शेष नहीं रहा है। कवि के मन में तब यह विशवास था कि अगर कवि प्रेम करे- और कवि का प्रेम निश्चित रूप से व्यापक ही होता है- तो यह संभव हो सकता है। कवि का अपने कवि भर होने के कारण इतना तो विश्वास था ही कि ऐसा होगा। आज कवि क्या अपने कवि होने के कारण एक सींक तक हिला सकेगा इसका भरोसा कर सकता है ? वह क्यों लिखता है और उसके लिखने से क्या वह भरोसा रख सकता है कि कुछ परिवर्तन होगा। कविता से परिवर्तन हो जाये यह संभव नहीं, यह तो ठीक है। परन्तु कवि का अपने शब्द और अपने आप पर इतना भरेसा भी कहाँ रह गया है। इसलिये यह कविता मुझे एक मिथक की तरह लगती है कि कोई कवि यह सोचे कि उसके प्रेम करने से ऐसा-ऐसा हो जायेगा।
आज इस बात की कितनी आवश्यकता है कि मनुष्य के प्रेम करने से इस हमारे पूरे परिवेश में भी कोई हलचल हो। कोई स्पंदन हो। मनुष्य ने नदियों और पर्वतों पर अपनी दृष्टि इस क़दर गाड़ रखी है कि वे अब मनुष्य की भावनाओं या ऊर्जा से अ-प्रभावित ही रहते हैं। आज के भावनाहीन मनुष्य के लिये निश्चय ही ऐसा कह और सोच पाना असंभव है। वह क्या चीज़ है जो आड़े आती है? फिर क्यों महज़ एक बादलों का तार उसे उलझा रहा है? वह कौन-सा तार है जो उसकी लंबी-लंबी घासों को पार करती टांगों के आड़े आ रहा है। यह महज़ वही है – कि अब प्रेम करने जितना सहज भाव ही मनुष्य जीवन से नदारद हो गया है। यह संकट आज क पूरे मानव समाज का संकट है, जिसकी तरफ़ कवि इशारा करता है। शमशेरजी की कविता का यही सौन्दर्य है कि जैसे-जैसे हम अपने मनुष्य होने के अनुभव में प्रौढ़ होते जाते हैं वैसे – वैसे उनकी कविताएं सौन्दर्य का खोल उतारती शब्द की मूल/ज़मीनी अर्थवत्ता को हमारे सामने रखती हैं।
 
मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि शमशेर की कविताएं एक भ्रम रचती हैं। वह हमें ऐसा प्रतीत कराती हैं कि शमशेर एक सौन्दर्यवादी कवि हैं। अतः सौन्दर्यवादी जहाँ एक सशक्त कवि को अपने पक्ष में पाकर प्रसन्न होते हैं वहीं दूसरे पक्ष के कवि और आलोचक उन पर सोचना छोड़ देते हैं। क्यों शमशेर ने अपने आप को इस सीमा तक असंप्रेषणीय रहने दिया है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है जो शमशेर के अध्येताओं के लिये एक पहेली से कम नहीं है। जिसने केवल और केवल ज़िन्दगी भर कविता ही की है, जिसने केवल कला के माध्यम से अपने जीवन को सुविधाजनक बनाने की  कोशिश न की हो- चाहे भैतिक स्तर पर हो  या भावनात्मक स्तर पर, वह अपने आप को इतना असंप्रेष्य क्यों बनाना चाह रहा होगा, यह एक प्रश्न तो है ही। संभवतः उनके लिये कविता या कला एक नितांत पवित्र वस्तु थी और वे उसे अंत तक वैसा ही रहने देना  चाहते थे। इसे आप पवित्रतावादी अभिगम की तरह न लें। बल्कि इस तरह समझें कि कला उनके लिए जीवन की सबसे अमूल्य वस्तु थी कि जिसके साथ कुछ भी अघटित करना गुन्हा हो मानों उनके लिए।  उनकी ऊषा कविता को जब मैंने पहली बार पढ़ा तब सौन्दर्य के एक उदाहरण के रूप में उसे पढ़ा था, समझा था। एक ऐसी कविता जिसमें आकार लेती सुबह अपनी अद्भुत् प्रक्रिया और रंगों के साथ हमारे सामने प्रकट होती है। इस रूप में भी कविता के अर्थ ने मुझे आल्हादित किया था। शमशेर के सौन्दर्य बोध को दर्शाने वाली महत्वपूर्ण कविताओं में ऊषा का समावेश किया जाता है।
लेकिन वर्षों बाद इस कविता को पढ़ते हुए मुझे सहसा यह प्रतीत हुआ कि इस सौन्दर्य बोध के भीतर शमशेरजी की समाज-दृष्टि भी श्लिष्ट है। यह कविता आकाश के रंगों का वर्णन न हो कर धरती के रंगों का चित्रण है। बहुत नीला शंख जैसा भोर का नभ में शंख के कारण जहाँ मंदिर का दृश्य सिरजता है  वहीं राख से लीपे हुए चौके में ग्रामीण घर की बात है। काले सिल पर लाल केसर पूजा आदि का संदर्भ है तो स्कूल में जाते हुए बच्चे बाद के दृश्य में हैं, जहाँ स्लेट खड़िया चाक मल दी हो किसीने – वाली पंक्तियां आती हैं। फिर  काम करती ग्राम-स्त्रियां हैं। आप अगर सौन्दर्यवादी हैं तो आसमान में देखें और जीवन वादी हैं तो धरती पर देखे। कवि  सौन्दर्य के आवेष्टन में जीवन के चित्र उपस्थित करते हैं। इससे रचना कविता भी बनती है और जीवन का चित्र भी उपस्थित करती है। कवि का कौशल इस कविता में यह है कि वे एक साथ धरती और आकाश के दृश्य कविता में रचते हैं। इससे कविता का सौन्दर्य बोध बढ़ता भी है।
  प्रेम के मूल्य का शमशेर के लिए अर्थ यही है कि दोनों पक्ष समान भूमि पर हों। तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ। उनसे लिए प्रेम का एक अर्थ है शांति। यह शांति किसके लिए ? और कैसी  ? उन बच्चों के लिए, जिनके वास्ते युद्ध के औजारों के लोहे को गलाकर खिलौने बनाए जाएं। शमशेरजी की कविताएं  एक ऐसे अनुभव विश्व में हमें ले जाती हैं जो ग़ज़ब का वास्तविक और अविश्वसनीय है। इस संदर्भ में उनकी टूटी हुई बिखरी हुई कविता के आरंभ को देखा जा सकता है।


 

टूटी हुई बिखरी हुई

 चाय की दली हुई पाँव के नीचे

 पत्तियाँ मेरी कविता ।

बाल मैल से रुखे , गरदन से फिर भी

चिपके, कुछ ऐसी मेरी खाल मुझसे अलग-सी,

मिट्टी में मिली –सी।

 दोपहर बाद के धूप-छाँव में खड़ी इंतज़ार में ठेले-गाडियाँ

जैसे मेरी पसलियाँ।

 खाली बोरे सूजों से रफ़ू किये जा रहे हैं,

जो कि मेरी आँखों का सूनापन है।

ठंड भी एक मुस्कुराहट लिए हुए है

जो कि मेरी दोस्त है।

उपरोक्त पंक्तियां अपने आप मे और साथ-ही-साथ कविता के परिप्रेक्ष्य में बड़ी विलक्षण हैं। मुझे कई बार लगता है कि भावों को इस तरह लिखने का क्या कारण हो सकता है। इतना अधिक अपने आप को इन-ह्यूमन बनाने का क्या कारण हो सकता है। उपरोक्त  कविता के विश्व में अगर हम प्रवेश करते हैं तो इन पंक्तियों के ठीक बाद आने वाले बिम्बों के जक्सटापोज़ में ये पंक्तियां कविता में विरुद्ध का सौन्दर्य रचती हैं। हालांकि यह  सौन्दर्य हमारे हृदय को भाव-पक्ष की दृष्टि से आलोड़ित भी करता है।  मेरी कविता और मैं के दो चित्र कवि ने हमारे सामने रखे हैं। पहले अपनी कविता के विषय में- तो कैसी -  दली हुई चाय की पत्तियों की तरह जो टूटी हुई और बिखरी हुई हैं- ऐसी ये चाय की पत्तियां कहाँ हैं तो पाँव के नीचे हैं। यानी पद-दलित हैं। कई-कई बार उबल और निचुड़ जाने पर, सारा सत्व निकल जाने पर जब चाय की पत्तियों को फेंक दिया जाता है और वह पद-दलित हो जाती हैं- कवि अपनी कविता को इस बिम्ब में रखते हैं। जितनी सत्वहीन उनकी कविता हो गई है उतने ही सत्वहीन हैं उनकी खाल और बाल। बाल मैल से रूखे हैं, गरदन से फिर भी (पसीने के कारण) चिपके हुए हैं और खाल , जो कि शरीर से चिपकी हुई होती है, वह मानों अलग-सी है और मिट्टी में मिली-सी है। लक्षणा के स्तर पर इसका अर्थ नष्ट हुई-सी भी लिया जा सकता है। यह मैला-कुचैला पन जब ठेलेगाडियों के बिम्ब के साथ पढते हैं तो एक श्रमिक का चित्र भी उभरता है। पर दोपहर बाद की धूप-छाँव में खड़ी ये ठेलेगाडियाँ हमें सोचने के लिए बाध्य करती हैं कि यह श्रमिक का नहीं बल्कि निष्फल प्रेम में टूटे और बिखरे प्रेमी का चित्र है- वहाँ आखों के सूनेपन का उल्लेख है । क्योंकि  बोरे जिस तरह मैले और रूखे- फटे होते हैं वैसे हो गए इस कवि ने अपने आप का चित्र हमारे सामने रखा है। ये जो इंतज़ार की ठेले गाडियां हैं-उन्हें कवि अपनी पसलियों की तरह कहता है। दोपहर बाद की धूप-छाँव में ठेलेगाडियों की छायाएं ज़मीन पर जो चित्र रचती होंगी वे पसलियों की मानिंद दिखते होंगे। पसलियों के बीच में ही तो होता है हृदय। उसी हृदय में ही तो भाव उठते हैं, उन्हीं भावों से ही तो कविता का निर्माण होता है, वही हृदय तो टूट और बिखर गया है। वातावरण में जो एक ठंड है वही दोस्त बन गई है। कठिनाइयां और कष्ट कवि के इतने क़रीब हैं, जैसे दोस्त होते हैं।

इस पृष्टभूमि में कवि उन सुंदर आकर्षक बिम्बों को रचते चले जाते हैं जो इस कविता में और शमशेरजी की रचनाशीलता में अमर हो गए हैं। कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनाई से लेकर बहुत से तीर बहुत सी नावें तक कवि अद्भुत् बिम्ब सृष्टि करते चलते हैं। जैसा कि इसके पूर्व कहा है इस कविता का विश्व ग़ज़ब का वास्तविक और अविश्वसनीय है। वास्तविकता की पृष्टभूमि में आसमान में गंगा की रेत है, नाव की पतवार बनती बाँसुरी है, ऊषा की खिलखिलाहट पहने हुए फूल हैं और कितना कुछ।

कविता संरचना की दृष्टि से यह निराला की वनबेली कविता की याद दिलाती है। उसमें भी मूल कविता की एक अलग-सी दिखने वाली पृष्ठभूमि है फिर कविता का आरंभ होता है। पर दोनों कविताओं का पोत अलग होने के कारण प्रभाव भी अलग दिखाई पड़ता है।

शमशेर की कविता में और उनके जीवन में अगर प्रेम को निकाल दिया जाए तो कुछ नहीं रहेगा- सिवाय खाली बोरे के(सूजों से रफू किये जाते !)

 

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अगर कविता कला है तो कला का क्या अर्थ हो सकता है?  शब्द विभिन्न माध्यमों के जरिए अपने अनुभवों और अपने परिवेश को शब्दों द्वारा नया रूप देना। और ऐसा करते हुए अनंत कष्ट भी अगर सहना हुआ तो उसकी तैयारी रखना। शमशेरजी ऐसा मानते थे कि जब तक भाषा सही नहीं होगी भाव सही नहीं हो सकते। कवि आखिरकार भाषा से ही तो काम करता है। कवि चाहे चौबीसों घंटे कवि नहीं हो पर अगर वह कलाकार है, तो उसे चौबीसों घंटे कलाकार ही रहना पड़ता है। पर कलाकारी इन्सानियत की क़ीमत पर तो नहीं ही – मुझको मिलते हैं कवि और कलाकार बहुत, पर इन्सान के दर्शन हैं मोहाल। इन्सान होना ही कलाकार होने की पहली शर्त है- यह शमशेर की कविताओं में दिखाई पड़ता है।

शमशेरजी की एक कविता है- जिसमें उन्होंने काले और सफ़ेद पत्थर के बहाने नस्लीय भावना को प्रस्तुत किया है। एक बार उनसे बातचीत में एक चौंकाने वाली बात का अनुभव हुआ। उन्होंने कही कि ये जो ब्नैक हैं उनके प्रति मुझे घिन है। मेरे लिए यह अत्यन्त आघात जनक बात थी। मैंने कहा कि आप तो मार्क्सवादी हैं और यह आपका विधान तो इसके विरोध में जाता  और इतना ही नहीं इससे तो आप नस्लवादी भी हैं। अपनी शमशेरीय अदा में उन्होंने कहा कि हो सकता है पर यही सच है। फिर अपने दिल्ली के अनुभवों के आधार पर उन्होंने अपनी बात को जस्टीफाय किया। पर मेरा आलोचक उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। उन्होंने कहा तुम को जो मानना है तुम मान सकती हो, पर मेरी सच तो यही है। मैंने कहा इसका मतलब आपकी अभिव्यक्ति और अनभूति में फाँक है। उन्होंने कहा कि तुम इसका जो अर्थ लगाना चाहो। मैंने तर्क किया कि इसका मतलब यह हुआ कि आप को कालों पर गोरों के अत्याचार के प्रति जो सहानुभूति है , कविता में , वह झूठी है। उन्होंने कहा कि नहीं, वह सच्ची है। व्यापक मानवीय संदर्भ में बात को देखना और नितांत निजि स्तर पर उसे स्वीकारना- दोनों मेरे लिए अलग अनुभव है। जिस अनुभव के कारण इस घिन का उन्होंने उल्लेख किया था वह दिल्ली की बसों में सफ़र करते हुए जो भीमकाय अफ़्रीकी स्त्रियों तथा पुरुषों से भीड़ के कारण जो नैकट्य निर्मित होता था- वह उस भाव के लिए ज़िम्मेदार था। मेरे भीतर के नए-नए आलोचक और अन-अनुभवी प्रगतिशील चेतना को यह गवारा नहीं हुआ और मैंने कहा कि इस बात को तो मुझे लिकना पड़ेगा। उन्होंने कह कि तुम जो चाहे कर सकती है- पर जो हैं, वह तो है ही।

आज जब मैं इस बात को कह रही हूँ तो मुझे लगता है कि इस तरह कौन कह सकने की हिम्मत कर सकता है जब तक कि वह सही अर्थों में सच्चा न हो। भीतर तक ईमानदार। कविता का बाहर व्यक्ति को जो महसूस होता है उसमें और कविता के भीतर कवि को जो कहना होता है या कविता के भीतर कवि जिस संवेदना को रखना चाहता है उसके आशय भी अलग होते हैं। कविता में आई संवेदना अक्षर रूप में होती है जो कवि के वास्तविक भौतिक जीवन के समाप्त हो जाने पर भी बनी रहती है ; जो वास्तव में युगों तक मनुष्य का दिशा निर्देशन करती है।महत्वपूर्ण तो वही अक्षर संसार है। मुझे यह भी सोच कर स्चर्य होता है कि शमशेरजी ने यह कन्फेशन क्यों किया। अगर न किया होता तो क्या फर्क पड़ता। और इस बात का उल्लेख करने की आवश्यकता इस समय मुझे क्या आन पडी। मुझे हमेशा ही यह लगा है कि शमशेर का कवि और व्यक्ति झूठ, फ़रेब और बेईमानी से कोसों दूर थे। यह निश्चय ही एक सामान्य सत्य है कि आज भी बौद्धिक या कलाकार अपनी रचनाओं में जो लिखते हैं उसे व्यक्तिगत जीवन में अगर नहीं मानते तो भी एक दंभ-सा बनाए रखते हैं कि वो ऐसा ही मानते हैं। वे औरों से तो क्या अपने आप से भी इस फांक को छिपाए रखना चाहते हैं। दूसरी बात मेरी समझ में यह आई कि व्यक्ति के रूप में कवि का अनुभव और कलाकार के रूप में उसकी अनुभूति में एक बारीक फ़र्क होता है। शमशेरजी ने मुझे अपने रचनाकार के वर्कशॉप में ले जा कर वह सब दिखाया जो एक शोधार्थी और काव्य को समझने की प्रक्रिया में तन्मय एक संवेदनशील पाठक के लिए आवश्यक होता है। ऐसे कन्फेशन्स जब आज अपने आप-से कोई नहीं करता तो अन्य के सामने सारे खतरे उठाते हुए करना- कोई साधारण वीरता का काम नहीं है। शमसेर अपने भीतर किसी तरह का दंभ नहीं रखते थे। उन्हें नुकसान फ़ायदे की अपेक्षा सच-झूठ में अधिक रुचि थी।

जिस कविता का यहाँ उल्लेख है उसे आप पढ़ेंगे तो पाएंगे कि यह इलीयट की भाषा में थर्ड वॉइस में लिखी हुई रचना है। अतः कविता की पहली अथवा दूसरी आवाज़ मे कवि ने ऐसा कुछ भी स्वीकारा नहीं है जिसके लिए उनकी कलागत ईमानदारी पर कोई संदेह हो। मेरे कठोर, पाषाणवत् वचनों के आगे उनका सच्चा और कोमल कवि-हृदय धरा हुआ था-  सब कुछ झेलने के लिए तैयार।

एक बार बातचीत को दौरान उन्होंने कहा था कि मेरी ऊषा कविता पर बालकृष्ण राव की एक कविता का गहरा प्रभाव है। मैंने कहा आपने इस बात को कभी कहा नहीं। तो उन्होंने कहा कि हाँ, मुझे यह कहना चाहिए था। पर अब मैं कहीं इस बात को अवश्य लिखूंगा। इस बात को वे कह/लिख तो नहीं पाए परन्तु उनके मन में यह बात थी कि जिस कविता को उनकी महत्वपूर्ण कविता के रूप में माना जात है उस पर एक और कवि का प्रभाव है। बालकृष्ण राव की कविताओं और जीवन से भी वे काफ़ी प्रभावित थे। उन्होंने मुझे बताया था कि उनके घर में जो सबसे अधिक आकर्षक लगता था वह उनके घर में बिछी सफ़ेद झक्क चादरें जिन्हे मिसेस राव बड़ा क़रीने से बिछाती थीं। यह जो सुरुचि है, उसने शमशेरजी को सदैव आकर्षित किया था। इस सुरुचि को वे अपने जीवन में संभवतः उस हद तक नहीं ला सके थे जैसा बालकृष्ण राव या अज्ञेय के जीवन में उन्होंने देकी थी- अतः एक कविता में वे कहते भी हैं- जो नहीं है, जैसे कि सुरुचि, वह नहीं है, उसका ग़म क्या। यह कविता अज्ञेय को समर्पित है। वास्तविक जीवन में वह नफ़ासत भौतिक अभावों के होते हुए भी जितनी संभव थी वे पाने की कोशिश करते थे । (नहाने के लिए उनका पसंदीदा साबुन हमेशा ही पीयर्स रहा, और खाने में रबड़ी, दूध , मिठाई ,हलवा और आम) पर यह सब भी पाने के लिए अर्थागमोपाय में किसी तरह की गड़बड़ियाँ नहीं। अच्छी स्तरीय चीज़ों को पसंद करना एक बात है परन्तु उन्हें पाने के लिए अन्यान्य मार्ग अपनाना – यह उनकी फितरत संभवतः नहीं थी।

पर इस नफ़ासत को कला में उन्होंने पूरी तरह से अपनाया। कला में इस नफ़ासत को लाने के लिए उन्होंने बहुत श्रम किया है। वे यूँ ही कवि नहीं बने हैं। कवि बनने के लिए जिस व्युत्पत्ति की जिस तैयारी की आवश्यकता हो सकती है उसे उनकी डायरियों में देखा जा सकता है। उनके कुछ वर्षों के सान्निध्य एवं उनकी डायरियाँ आदि देख कर उनके लगभग पाँच दशकों बाद पैदा हुई मैं यह अंदाजा लगा सकती हूँ कि शमशेरजी ने हर क्षण केवल और केवल अपने कला माध्यमों को पैना करने में, बेहतर बनाने में जीवन के हर क्षण को बिताया होगा। हाँ, आदमी, कोई भी आदमी, फिर वह कवि क्यों न हो- खाता-पीता भी है, प्रेम भी करता है, नौकरी करता है---राजनीति – समाज-संस्कृति आदि मामलों में पड़ता भी है- पर यह सब करते हुए भी शमशेरजी ने लगातार अपने भीतर के कलाकार को बेहतर बनाया है। मानों यह सब भी इसलिए कि उस भीतर के कलाकार को पोषण मिले। इस अर्थ में यह कहना अतिश्योक्ति नही होगा कि जिस तरह एक भक्त कवि प्रति क्षण अपने आराध्य को समर्पित होता है उसी तीव्रता से एवं निष्ठा से शमशेरजी अपनी कला के प्रति समर्पित थे।

 

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      मैं ईमानदारी से कह सकती हूँ कि मैंने आज तक किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा है जिसे निंदा रस में रुचि न हो- सिवाय शमशेरजी के। नौ वर्ष का समय कम नहीं होता। इतना लंबा समय और उसके पहले थोड़ा-थोड़ा करके साथ रहे समय को गिन लें तो एकाध-डेढ़ साल और जोड़ दें ; तो इस पूरे समय में मुझे याद है कि केवल दो प्रसंग ऐसे हैं जिनमें उन्होंने दो लोगों को ले कर कुछ नकारात्मक कहा था- आप इसे निंदा कहें या हक़ीक़त का बयान- मैं कह नहीं सकती। इसका उल्लेख संभवतः अपने किसी लेख में मैंने किया है अतः दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। मैं हमेंशा सोचती कि यह कितनी अजब बात है कि सामान्य तौर पर किसी भी व्यक्ति को जो सर्वाधिक पसंद है वह निंदी ही है- फिर वह चाहे वह  गलियों में रहती स्त्रियों की मानिंद उसे कहें या बौद्धिकों की तरह मंच पर से कहें या कवियों की तरह मय-प्यालों के बीच कहें( और भूल जाएं) –पर इतना लंबा समय चौबीस घंटों तक साथ रहते हुए मैंने उन्हें ऐसा करते हुए कभी नहीं सुना।

मेरे लिए यह एक आदर्श स्थिति है। मैंने सोचा कि मैं भी ऐसा करूँ। पर मैं उस मिट्टी की नहीं बनी जिससे कलाकार शमशेर का पिंड बना था। कलाकार ऐसा ही आदर्श हो सकता है। उनकी बाढ़ कविता अपने साथी और वरिष्ठ कवियों, साहित्यकारों आदि पर वे जो मीठी फ़ब्तियाँ कसते हैं, वे असल में उनका रचना विश्व है। ये टिप्पणियाँ कविता बन कर जब आती हैं तो अज्ञेय या जैनेन्द्र, महादेवी, मिसेज़ अश्क आदि प्रतीक बन जाते हैं , व्यक्ति के साथ-सात उस तरह जीवन को देखने और समझने वालों का।

शमशेरजी के साथ रहते हुए मैंने देखा कि उनके मन में नए कवियों को ले कर एक ग़ज़ब का भरोसा था। तब तक स्थापित मंगलेश डबराल, अरुण कमल, असद ज़ैदी, उदयप्रकाश, राजेश जोशी  आदि की कविताओं के साथ-साथ बाद में लिखने वाले निलय उपाध्याय जैसे कवियों की कविताओं के प्रति वे आश्वस्त थे। इतने कि कहते थे अब लगता है कि मुझे कविता लिखने की ज़रूरत नहीं है क्यों कि ये सभी लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। मैं जो भी कुछ  कहना चाहता हूँ , ये नए कवि बहुत बेहतर तरीक़े से उसे लिख रहे हैं। संभवतः मुझसे भी बेहतर ................। एक इतने बड़े कवि का अपने समय के नए कवियों के प्रति यह मानना एक दम साहित्य-संसार के परिलोक जैसी घटना है।

शमशेरजी की कविता सहजता से बहुत सारे लोगों के बीच नहीं पहुँचती, इसमें कोई संदेह नही। पर शमशेरजी की कविताएं उन सभी स्थानों को लगभग शब्दांकित करती हैं जो उनके पहले किसी के द्वारा शायद ही संभव हुआ है। इस संदर्भ में मुझे उनकी ये पंक्तियाँ याद आती हैं- तीन तरफ़ों  सपाट कोना...। अपने कमरे के किसी भी कोने को आप देखिए- छत की तरफ़- तो आपको समझ में आ जाएगा कि तीन तरफ़ों का सपाट कोना क्या होता है। इसमें निरि भौतिक तथ्यात्मकता है। क्योंकि जो कोना है उसकी तीन तरफ़े हैं- दो दीवारों की और एक छत की.... कमरे के उस हिस्से को कभी इसके पहले कविता में स्थान नहीं मिला था। यह एक अभिव्यक्ति हौ जो कवि अपनी भाषा को देता है। उसी तरह शब्द बिम्बों के माध्यम से अत्यन्त सामासिक शैली में वे कहते हैं- आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है। इस बात को समझाने के लिए कई पंक्तियाँ खर्च हो जाएँगी, पर शमशेर खड़ीबोली हिंदुस्तानी में सामासिकता संभव बनाते हैं और इसके लिए बिम्बों का सहारा लेते हैं। कविता में शब्द विधान, कथन, बिम्ब, प्रतीक, ध्वनि, अलंकार. वक्रोक्ति ....कितने ही प्रकारों से अर्थ खोलते हैं। शमशेर कविता की इस नई भाषा को इस दृष्टि से लगातार समृद्ध बनाते चलते हैं। इसलिए अगर उन्हें अज्ञेय कवियों का कवि कहते हैं तो यह उनकी निंदा नहीं है। न ही उन पर व्यंग्य। यह शमशेर के कवि की पहचान भी है।

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शमशेरजी के काव्य की और उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनके पास सबके लिए जगह थी। हिन्दी में अपने समकालीनों, अग्रजों पर कविताएं लिखने की जो परंपरा मानों शमशेर से आकार पाती है। उनकी कविताओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा दूसरों पर लिखी कविताओं का है। उसमें कवि साहित्यकार तो हैं ही, पर कलाकार, संगीतकार, चित्रकार, कम्यून के साथी सभी उनकी कविताओं में झलकते हैं। शमशेर जी के पास हर एक के लिए स्पेस था । पर उन्होंने कभी किसी का स्पेस हथिया कर अपने लिए स्पेस नहीं बनाया। उनकी अपनी स्पेस में कई लोगों के लिए भी हमेशा स्पेस रहा है। आज जब सारी लड़ाई  स्पेस की है तब शमशेरजी जैसे कवि का न हो ना इस अर्थ में अखरता है कि धीरे-धीरे कुछ मूल्य ही दृश्य-फलक से अदृश्य हो रहे हैं हमारे इस तरह के कवियों के जाने के बाद। । उनकी कविता की संरचना में भी स्पेस का अपना महत्व है। जितना महत्व शब्दों का है उतना ही महत्व स्पेस का भी है। अपनी कविताओं के प्रकाशन को ले कर शमशेरजी बहुत सजग थे। जिस कविता में पंक्तियाँ जिस तरह से जितना स्पेस दे कर उन्होंने लिखी होती थी , प्रकाशित रूप में भी वे उन्हें उसी तरह देखना चाहते थे। कविता में शब्दों के बीच भावों की उपस्थिति उसी तरह बनी होती है जैसे नाटक में संवादों के बीच के मौन में अभिनय का महत्व होता है। अतः होली : रंग और दिशाएँ  जैसी कविताएँ  शब्दों को जिस तरह नियोजित कर के लिखा है उसमें भी अर्थपूण बनती हैं। शमशेरजी के यहाँ कई बार एक शब्द भी वाक्य का काम करता है। वाक्य में जितने स्पेस की आवश्यकता पड़ती है, उसके स्थान पर अगर शब्द से काम चल जाता है तो शमशेरजी शब्द से काम चला लेते हैंपिकासोई कला अथवा घनीभूत पीड़ा जैसी कविताओं में इसके उदाहरण मिल सकते हैं। घनीभूत पीड़ा की इन पंक्तियों को देखें-

 

मौह-सत्य भौंह बंक

लौह सत्य प्रेम पंक

-अन्यथा व्यथा व्यथा वृथा

 

इन पंक्तियों में यों तो प्रेम और मोह के संदर्भों को पिरोया गया है पर सहसा ये पंक्तियाँ भी याद आ जाती हैं

 

वाम वाम वाम दिशा

समय साम्यवादी

पृष्ठभूमि का विरोध अंधकार लीन

व्यक्ति कुहा स्पष्ट हृदय भाव आज हीन.....

 

उसी तरह पिकासोई कला की इन पंक्तियों को देखें-

 

रेखाएँ तनों का तनावों का            लिबास

लिबास              रंग        प्रतिबिंब                        आत्यंतिक

तालमेल             निरपेक्ष              नाटकीय

स्थिरतरीय                     रेखाएँ               और                  रंग

इस कविता में चित्रकला के कारण इस प्रकार शब्दों का प्रयोग हुआ है, ऐसा कह सकते हैं। पर वाम दिशा अथवा घनीभूत पीड़ा में ऐसे नहीं है।             

शमशेरजी की कविताएँ जितनी कठिन हैं उनका व्यक्तित्व उतना ही सरल था। शमशेरजी के परिचय में आने वालों के पास इस सरलता की अनेक कहानियाँ होंगी। व्यक्ति- शमशेर एक सामाजिक उपस्थिति है  तो कवि शमशेर एक विशिष्ट कलाकार- उपस्थिति है  :  दोनों को जैसा होना चाहिए वैसा ही हम उनको पाते हैं। परन्तु दोनों का ही अनुकरण करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि न निष्काम भाव से कला की ऐसी साधना करना सरल है और न ही सहज भाव से दूसरों के लिए जगह बनाना हर किसी के लिए संभव नहीं है। उसका संभवतः वह चुनाव है । आदर्शों को हम अपने घरों में क़ीमती फ़्रेम में ही मढ़ कर रखते है , उसका हमारे जीवन से- रोज-बरोज़ के जीवन से क्या वास्ता ! ?  !

 

                                                                                                      रंजना अरगडे

बुधवार, 29 मई 2013

गुजराती और हिन्दी अन्तःसंबंध के चौराहे पर



भाषाओं की नस-नस एक दूसरे से गुथी हुई है
(मगर उलझी हुई नहीं)
हमारी साँस-साँस में उनका सौन्दर्य है
(मॉ ड र्निस्  टिक्) कहो मत
अभी हमें लड़ने दो।[1]
गुजरात और हिन्दी के अन्तःसंबंध पर बात करते हुए अनायास ही  शमशेरजी की इस कविता का स्मरण हो आता है। विशेष रूप से इसलिए कि आज हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के परस्पर संबंध की जो भूमिका बन रही है उसे हमारे मनीषी कवि शमशेर बहादुर सिंह ने किस तरह देखा है-
यह स्टेज महान
मूर्खों के लिए है
आह  यह आधुनिक स्टेज
परिस्थितियाँ हीरो हैं
और यांत्रिक राजनीति हिरोइनें
जितने ही भाषा प्रदेश और देश उतने ही अंक हैं
इस नाटक के ![2]
मेरा आशय इस  पूरी कविता का विश्लेषण करने का नहीं है अपितु इस कविता के द्वारा कवि ने भाषाओं की राजनीति और उसके करुण परिणामों की ओर संकेत किया है, उसका निर्देश करना है। [i]  आज अपने ही भूमि पर गुजराती और हिन्दी की अन्तःसंबंधता पर  अपनी बात का आरंभ  करते हुए मैं कुछ उदासी-का –सा अनुभव  भी कर कर रही हूँ।  उदासी के कारणों की चर्चा फिर करेंगे  पहले तो मैं इस मंच की आभारी हूँ कि अन्तःसंबंधता की चर्चा के बहाने मैं पुनः गुजरात में हिन्दी की स्थिति के मुद्दे को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर ला पा रही हूँ।  आज मेरी ही तरह गुजरात के अन्य अनेक हिन्दी के अध्यापकों को यह भूल जाना पड़ रहा है कि हमारे राज्य की दूसरी राजभाषा हिन्दी है।  इस समय गुजरात में हिन्दी अध्यापन अध्ययन घोर संकटपूर्ण स्थितियों में है तथा राजकीय नीतियों के अनेक स्तर- प्रस्तरों के नीचे दब गया है। इतना कि उससे उबरने की कोई तात्कालिक उम्मीद नज़र नहीं आती।  इस बात का समर्थन यहाँ बैठे गुजरात में हिन्दी पढ़ा रहे  सभी अध्यापक करेंगे। मुझे इस बात का भी उल्लेख करना चाहिए कि दक्षिण गुजरात के हिन्दी प्राध्यापकों ने राज्य सत्ता की हिन्दी - नीति का विरोध करते हुए संगठित रूप से सबसे पहले  मशाल उठाई थी, जिसके प्रकाश -बिंब अब भी देखे जा सकते हैं ; यह आयोजन इसका उदाहरण है। सूरत से छप रहे ताप्तीलोक ने इस संकट को वाचा दी थी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि  व्यक्तिगत स्तर पर, सामाजिक स्तर पर अथवा  सांस्कृतिक स्तर पर जब भी चोट लगती है  उस पर कविता या साहित्य ही मलहम लगाता है। शमशेरजी  भी ज़माने की चोट खाए हुए थे संभवतः, तभी  भाषा-संबंधी, अभिव्यक्ति संबंधी विवादित तथा आहत मन की पीड़ाएं  वे जानते थे। उन्हीं की भाषा में कहूँ तो गुजरात में हिन्दी का अक्स बहुत गहरे तक उतर गया है। उसकी जड़ें गुजरात की धरती में गहरे तक उतर चुकी हैं। एक तरह से हिन्दी भाषा, गुजरात प्रदेश की पसलियों में उसी तरह समाहित है जिस तरह मनुष्य की पसलियों में व्यंजन तथा उनके बीच में स्वर होते हैं।
मगर मेरी पसली में हैं
व्यंजन
और उन्हीं के बीच में हैं स्वर[3]
(उसे मेरा ही कहो फिलहाल)
गुजराती और हिंदी के अंतः संबंध को समय के कुछ चौराहों में बाँट दें तो उन पर रुकते हुए चलने का एक आनंद तो मिलेगा ही।
 पहला चौराहा भाषा का है। भाषा और लिपि के संदर्भ में गुजराती और हिन्दी का नैकट्य बड़ा स्पष्ट एवं दृष्टव्य है। लिपियाँ भाषा का कउंटेनंस होती हैं। वे भाषा का वह चेहरा होती हैं जिससे भाषाएं अपनी एक पहचान भी स्थापित करती हैं।  उस दृष्टि से हिन्दी तथा गुजराती की लिपियों में केवल कुछ-एक स्वर व्यंजनों की लिखावट में भेद है। इस बात को तो भूला ही नहीं जा सकता है कि मध्यकाल में गुजराती देवनागरी में लिखी जाती थी । अर्थात्  मध्यकाल तक गुजराती ध्वनियाँ देवनागरी लिपि में पहचान पाती रही हैं। इन दो भाषाओं के बीच जो आपस में गहरा संबंध है उसकी जड़ है- शौरसेनी अपभ्रंश जिसमें से दोनों विकसित हुई हैं। शौरसेनी अपभ्रंश का क्षेत्र मथुरा के आस-पास का रहा है जहाँ की केन्द्रीय बोली ब्रज है। ब्रज का महत्व भक्ति तथा संगीत के कारण इतना अधिक रहा कि उसे भाषा का दर्ज़ा मिला। [4] गुजराती तथा हिन्दी का यह संबंध इन भाषाओं के  परस्पर स्रोत, उच्चारण, लेखन,  साहित्यिक स्वरूपों तक ही सामित नहीं है अपितु व्याकरणगत भी अनेक समानता लिए हुए है। यही कारण है कि गुजरात में हिन्दी कभी भी एक अजनबी अथवा परायी भाषा नहीं रही। 
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ
क ख ग घ , च छ ज झ, ट ठ ड ढ. प फ ब भ म, य र ल व , श, ष स ह, क्ष त्र ज्ञ
અ, આ ઇ ઈ ઉ ઊ એ ઐ ઓ ઔ
ક ખ ગ ઘ, ચ છ જ ઝ, ટ ઠ ડ ઢ પ ફ બ ભ મ, ય ર લ વ, શ ષ સ હ, ક્ષ ત્ર જ્ઞ
उपरोक्त दृष्टांत से यह स्पष्ट है स्वरों की पहचान, शिरोरेखा की अनुपस्थिति एवं कुछेक व्यंजनों की पहचान में फ़र्क है जैसे झ, ज, फ ख, आदि। यूं गुजराती हिन्दी ध्वनियों के पहचान पत्र भी मिलते जुलते हैं। यही वह द्वार है जिसमें से होकर हिन्दी गुजराती का परस्पर जुड़ाव सघन होता गया। मध्यकाल में तो जो गुजराती लिखी जाती थी उस पर शिरोरेखा भी लगती थी।
भाषा के संदर्भ में गुजराती तथा हिन्दी की अंतः संबंधता की स्थिति को समझने के लिए एक समानांतर उदाहरण लिया जा सकता है। हिन्दी प्रदेशों में जब उर्दू हिन्दी की बात होती है तब एक मत यह भी होता  है कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं । इसी तरह यह कहा जा सकता है कि गुजराती भाषा में उर्दू की जड़ें भी उतनी ही गहरी हैं। गुजराती के साथ उर्दू इस कदर घुल मिल गई है कि यह सोचना असंभव लगता है  कि  अगर गुजराती भाषा में से उर्दू  (फारसी) के शब्द निकाल दिए जाएं तो उसकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य कितनी कम हो जाएगी।  गुजराती भाषा एक तरह  से श्रीहीन भी हो जाएगी,ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं माना जाए । अगर यह कहा जाए कि हिन्दी में उर्दू शब्दों के प्रमाण का जितना प्रतिशत है, गुजराती में यह प्रतिशत उससे अधिक ही होगा,  कम तो बिल्कुल भी नहीं होगा ।  इतिहास में इसके कारण मौजूद हैं ही। अतः इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है।
इमसें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि रचना के स्तर पर आज गुजराती में सबसे अधिक लोकप्रिय अगर कोई काव्य विधा है तो वह ग़ज़ल ही है। उसकी जडें भी कितनी दूर तक गयी हैं  ।  वली को आप चाहे दकनी कहें या गुजराती बात एक ही है। तभी  मज़ार टूटी थी तो अन्तः संबंध के इतने पुराने और गहरे संबंध को राजनीति के हथियार से आघात पहुँचाया गया था। पर ग़ज़ल का कोई क्या कर सकता है। गुजरात में ग़ज़ल लाने का श्रेय ही वली को जाता है।  संभवतः इसी के फलस्वरूप  गुजराती भाषा और संवेदना में इस क़दर उर्दू समाविष्ट है, घुली-मिली है कि जो लोग कहते हैं कि गुजरात की रक्तवाहिनी में मुसलमानों के लिए  घृणा बहती है  उन्हें समय के इन चकित चौराहों पर स्थित प्रेम की वाणी को पढ़ लेना चाहिए।[ii] ग़ज़ल प्रेम की ही तो बात करने के लिए पैदा हुई है।   गुजरात में हिन्दी का संबंध सत्ता के कारण नहीं बना है। वह सामान्य जन के , लोक के द्वारा जाँचा तथा परखा गया है। इस लोकतांत्रिक समय में यह सोचना भी  लगभग असंभव-सा लगता  है कि लोक की साख,  सत्ता के कारण गिरे।  अर्थात् सत्ता की भाषा नीति जो भी हो, पर अगर लोक ने किसी बात को मान्य रख लिया है तो सत्ता कुछ नहीं कर सकती। भाषा की सत्ता जब-जब  लोक  की  रही है, वह पराजित नहीं हुई है।  ख़ुसरो से वली तक की हिन्दवी, गूजरी  और दकनी भाषा- परंपरा  वह मूल उत्स है जिससे आगे चलकर हिन्दी और उर्दू दोनों का विकास हुआ है। अतः हिन्दवी भाषा और उसके साहित्य को उर्दू मान बैठना उचित नहीं है।  उसका जितना संबंध उर्दू से है  उससे कहीं अधिक संबंध हिन्दी से है। दकनी हिन्दी के अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है। गूजरी- हिन्दी, हिन्दवी, और दकनी के बीच की कड़ी और दकनी का पूर्व रूप है। [5]  जैसा कि अभी उल्लेख किया कि हिन्दी उर्दू में जो सगापन है वही गुजराती उर्दू में भी है, इस नाते भी गुजराती और हिन्दी में एक अन्तर्संबंध स्थापित होता है।
आज समय के चौराहे पर यहाँ, गुजरात में, और देश में भी, भाषा विवाद, माध्यम विवाद की राजनीतिक तथा लालफीताशाही दुकानें खुली हुई हैं और किंकर्तव्यविमूढ-से  हम मानों अपनी ज़मीन   खो चुके हैं, इस मुद्रा में अपने आप को पाते हैं। । राजनीतिक दाँव-पेंच की  उलझाव भरी सीढियों पर  चढ रहे हैं, उतर रहे हैं। किंतु फिर भी  हमें विश्वास है कि समय के इसी  चौराहे पर हम जो गुजरात में रह रहे हैं अपनी हिन्दी अस्मिता को प्राप्त कर सकेंगे क्योंकि हमें पता है कि गुजरात की धरती तथा रचनात्मकता में हिन्दी की जड़ें बहुत गहरे तक उतर गयी हैं।
दूसरा चौराहा है माध्यम। यह बात भी नई नहीं है कि मध्यकाल में  (लगभग रीतिकाल में )कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला प्रसिद्ध थी।  इस पाठशाला की विधिवत् स्थापना सन् 1747 ईस्वी में आचार्य कनक कुशल एवं उनके शिष्य कुँवर कुशल के संचालन में की गई। ये दोनों राजस्थान के निवासी एवं पिंगल शास्त्र में पारंगत जैनाचार्य थे।  महाराव लखपतसिहजी ने उनकी विद्वत्ता से प्रभावित हो कर उन्हें ससम्मान कच्छ में आमंत्रित किया व उन्हें  रेहा  नामक जागीर एवं भट्टारक की पदवी से समलंकृत करके ब्रजभाषा काव्य-शाला के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।[6]  यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि इस पाठशाला के विकास एवं संवर्द्धन में  जैनाचार्य एवं कच्छ की राज्य सत्ता ने सक्रीय भूमिका निभाई। विद्यार्थियों के पढ़ने एवं रहने का खर्च राज्य उठाता था। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात उसके पाठ्यक्रमों की है। यदि पाठ्यक्रमों के आधार पर किसी शैक्षणिक संस्था की महत्ता निर्धारित की जा सकती है तो ब्रज-पाठशाला एक उच्च कोटि की शिक्षा संस्था थी।[7] यानी आज के नैक ग्रेडिंग में ए प्लस तो मिल ही जाता! पर हमें यह याद रखना होगा कि यह राज्याश्रयी थी, राज्याधीन नहीं। राज्याश्रयी होने के कारण उसका समुचित विकास हो सका ,अगर राज्याधीन होती तो आज इतिहास में इसका कहीं उल्लेख भी नही होता।  अभी 21  फरवरी  को सर्वत्र मातृभाषा दिवस मनाया गया। पर हमारा अनुभव यह बताता है कि जब जब कोई मुद्दा किसी दिन में सीमित और समर्पित हो गया , समझिए उस मुद्दे का अंत हो गया। अपनी समग्र चेतना और शक्ति से अंग्रेज़ी माध्यमों का समर्थन करते हुए हम किस तरह से मातृभाषा के महत्व को स्थापित कर सकेंगे , यह भी एक प्रश्न है।
            तीसरा  चौराहा है साहित्य । केवल अपभ्रंश के कारण यानी मूल की समानता के कारण ही नही, भाषा की एक सांस्कृतिक साझी विरासत भी होती है । गुजराती हिन्दी की यह सांस्कृतिक  विरासत  धर्म, आस्था तथा सामाजिक रहन सहन के रूप में समाज में उजगर हुए हैं। साहित्य के माध्यम से यह सभी प्रकट होता रहा है।  गुजरात में मध्याकाल में ब्रज तथा राजस्थानी में बहुत कुछ लिखा गया। अतः इसके संदर्भ में जितना कहा जाए कम ही है। इसके पूर्व डॉ. अम्बाशंकर नागर, डॉ. गोवर्द्धन शर्मा, दयाशंकर शुक्ल, डॉ रामकुमार गुप्त, महावीरसिंह चौहान, ओमानंद सारस्वत आदि ने इस क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण काम किए हैं, जिनको दोहराने अथवा उसकी फेहरिस्त देने का इस समय कोई औचित्य नहीं है।  लेकिन इस संदर्भ में एक संकेत अवश्य करना चाहूँगी कि मध्यकाल में प्रचलित ब्रज, पुरानी गुजराती तथा राजस्थानी एवं संतों की सधुक्कडी कुछ इस तरह प्रवर्तमान थीं कि जैसे एक ही व्यंजन, विभिन्न  सम्मिलित स्वाद  से युक्त  हो।
       मोटे तौर पर समाज में भाषा के दो मुख्य उपयोग निश्चित हैं। एक तो जब मनुष्य उसे अपने  नित्य-प्रति के व्यवहार तथा संबंध प्रस्थापन में उपयोग में लाता है। अपनी छोटी-छोटी लौकिक इच्छाओं तथा सपनों को अभिव्यक्त करता है। दूसरा उपयोग यह कि मनुष्य अपनी संवेदनाओं एवं विचारों की गहराई तथा व्याप को आकारित करने के लिए सृजन-धर्मी हो जाता है। वह जो कुछ लिखता है, सृजन करता है उसे वह अपनी ज़मीन की भाषा से जोड़ता है अथवा अपनी परम्परा तथा संस्कृति की ज़मीन से जोड़ता है।(स्व) डॉ. अंबाशंकर नागर  तथा डॉ महावीर सिंह चौहान ने गुजरात के हिन्दी में लिख रहे रचनाकारों को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा है-एक वे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है एक वे जिनकी मातृभाषा हिन्दी है और जो उत्तर प्रदेश बिहार, राजस्थान मध्यप्रदेश आदि हिन्दी भाषा-भाषी राज्यों से हिन्दीतर प्रदेशों में आकर बसे हैं। [8] गुजरात की समकालीन हिन्दी कविता- युग संपृक्ति[9] में डॉ महावीर सिंह चौहान ने एक बहुत मार्मिक प्रश्न उठाया है कि क्या गुजरात की समकालीन हिन्दी काव्य परंपरा गुजरात की मध्यकालीन हिन्दी रचनाशीलता का ही सहज परिणाम है ? इस प्रश्न में एक और नुक़्ता जोड़ना अर्थपूर्ण होगा कि रचनात्मकता के स्तर पर आज लिखा जाने वाला हिन्दी साहित्य अपनी स्तरीयता में मध्यकाल में लिखे जाने वाले हिन्दी साहित्य के समकक्ष है ? इस संदर्भ में डॉ शिवमंगल सिंह सुमन का यह  कथन अर्थपूर्ण है - हिन्दी भाषी प्रांतों में रहने वाले हिन्दी के कवि और लेखक इस तथ्य का अनुमान भी नहीं कर सकते हैं हिन्दीतर प्रांतों में रहने वाले  कवियों और लेखकों के क्या अभाव –सभाव हो सकते हैं। इसमें अड़चनें और सुविधाएं दोनों साथ-साथ होती हैं। अड़चन तो यह है दैनंदिन व्यवहार में न आने के कारण ऐसी रचनाओं में हिन्दी मुहावरों की पकड़ प्रयत्न साध्य हो जाती है और सुविधा यह है कि अन्य प्रांतीय भाषाओं का भाव सौकार्य और समृद्धि उसे अनायास ही प्राप्त हो जाती है  जिससे हिन्दी का मानस प्रसार और अधिक व्यापक हो कर भारत की विभिन्न साधनाओं की समन्वय भूमि  बनने का आधार प्राप्त करता है। [10][11]
       नागरजी ने जो विभाजन किया है उसे वर्तमान समय में थोड़ा इस तरह से विस्तृत किया जा सकता है।
लेखक की स्थानीयता की दृष्टि से-
1-      गुजरात में जन्में हिन्दीतर भाषी रचनाकार
2-      गुजरात में प्रवासी की हैसियत से आए हिन्दी भाषा-भाषी रचनाकार
3-      गुजरात में आकर स्थायी रूप से बस जाने वाले पर प्रांतीय रचनाकार
4-      गुजरात में जन्में हिन्दी भाषी रचनाकार
व्यवसाय की दृष्टि से
5-      अध्यापक
6-      व्यवसायी
7-      व्यापारी
8-      मुक्त लेखक
हिन्दी गुजराती के बीच आज भी भाषा तथा संस्कृति गत अन्तर्संबंध, राजनीतिक तथा सामाजिक अन्तर्संबंध बना हुआ है।
मध्यकाल में मीराबाई एक ऐसा नाम है जो हिन्दी तथा गुजराती दोनों ही साहित्यों के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान को प्राप्तपर प्रतिष्ठित हैं। प्रणामी संप्रदाय के जामनगर निवासी, स्वामी प्राणनाथ ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में पहली बार पहचाना था। वे भी गुजराती थे।  गद्य के उन्नायकों में से एक लल्लूलाल, गुजराती थे। स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी- ये सभी गुजराती थे, हिन्दीकी राष्ट्रीय अस्मिता तथा  विकास के लिए प्रतिबद्ध थे। ये सभी राष्ट्रीय स्तर पर जाने  जाते थे। आज गुजरात में रहने वाले और हिन्दी में लिखने वाले, हिन्दी  के लिए  काम करने वाले  लोगों की राष्ट्रीय पहचान क्या है?  मीरा की पहचान कृष्ण भक्ति थी, भाषा माध्यम थी, प्राणनाथ की पहचान उनकी अपनी धार्मिक – सांस्कृतिक भूमि थी, भाषा माध्यम थी।  फोर्ट विलियम कॉलेज ने लल्लूलाल को पहचान दी, राजनीति ने गांधीजी को पहचान दी तथा स्वामी दयानंद सरस्वती को राष्ट्रीय नवजागरण ने पहचान दी।  
             आज समकालीन हिन्दी साहित्य के पास ऐसी क्या आधार भूमि है, जो उसे पहचान गे सकता है? आज राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्य में गुजरात का प्रतिनिधित्व क्या है ? गुजरात में लिखी जाने वाली कविताएं, कहानियाँ तथा उपन्यास, समीक्षा आदि मुख्यधारा का एक हिस्सा बन सके हैं ?  स्वतंत्रता के पूर्व गुजरात में जो कुछ भी हिन्दी संबंधित हुआ वह मुख्यधारा के समानांतर था। आजादी के बाद भारत में विभिन्न प्रदेश बने अतः एक विभाजन तो अपने आप हो ही गया।  विश्वविद्यालयों में हिन्दी अध्यापन का आरंभ हुआ अतः हिन्दी-सेवी की संख्या में वृद्धि हो गयी। हिन्दी में पढ़ना लाभदायी है- तो हिन्दी में और हिन्दी का  अध्ययन किया गया। स्वतंत्रता मिल गई अतः राष्ट्र भक्ति मसला नहीं रहा, आधुनिकता के कारण भक्ति मसला नहीं रहा, अतः अन्तः संबंध के आधार प्रश्नचिह्न के घेरे में आ गए। फिर हिन्दीतर प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के अनुदान एवं  हिन्दीतर होने की सत्ता ने हिन्दी के विकास में बाधा पहुँचायी। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हिन्दी के साथ किसी-न-किसी रूप से संबंधित लोगों का संख्या पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है, परन्तु इन सभी में हिन्दी भाषा की अस्मिता के लिए  समर्पित लोगों की संख्या कितनी ? पूरी ज़िन्दगी हिन्दी का लाभ और हिन्दी से रोटी कमाने वाले हिन्दी के लोग आज अपनी मातृ-भाषा के संवर्द्धन में लगे हैं, अवसर मिलने पर अंग्रेज़ी के समर्थक भी हो जाते हैं.....पर इन सब में  हिन्दी तो रघुवीर सहाय के शब्दों में 'दुहाजू की बीबी' ही बनी रहती है। यह स्थिति बहुत चिंताजनक है।
             आज गुजराती और हिन्दी का अन्तःसंबंध सबसे सशक्त रूप से अगर स्थापित हो सकता है तो वह अनुवाद के माध्यम से। गुजरात में रहने वाले , जो हिन्दी पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं उन्हें एक आंदोलन के स्तर पर अनुवाद का कार्य करना चाहिए। गुजराती और हिन्दी के परस्पर अनुवादों से संवेदना के तार नई भूमिका पर  जुड़ सकते हैं। हिन्दी के माध्यम से भारत में गुजराती की अस्मिता को प्रतिष्ठित कर सकते हैं और गुजराती के माध्यम से मुख्य धारा की संवेदना को समझ कर, ग्रहण कर के अपनी संवेदना का विस्तार कर सकते हैं।
            
  



[1] भाषा, शमशेर बहादुर सिंह, चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ 65
[2] वही
[3] एक नीला दरिया बरस रहा है, शमशेर बहादुर सिंह, चुका भी हूँ मैं नहीं
[4] गुजराती की समकालीन कविता में हास्य व्यंग्य, माणिक मृगेश, अभिनंदन ग्रंथ पृ- 115
[5] हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान, डॉ अंबाशंकर नागर,अभिनंदन ग्रंथ,हिन्दी साहित्य हिन्दी साहित्य का परिषद् अहमदाबाद, 1985
[6] हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान, डॉ. अंबाशंकर नागर अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ-316
[7] वही, पृष्ठ 317
[8] गुजरात का समकालीन हिन्दी साहित्य, आचार्य रघुनाथ भट्ट अभिनंदन ग्रंथ
[9] आचर्य गघुनाथ भट्ट अभिनंदन ग्रंथ पृ-270

[10] आचर्य गघुनाथ भट्ट अभिनंदन ग्रंथ पृ-270
[11] चंद्रमा मनसो जातः, डॉ शिवमंगलसिंह सुमन,हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान पृ 54


[i] शमशेरजी ने जिन रक्त-रंजित (लहु लुहान) ज़ख़्मों को खोल कर दिखाया है वह आश्चर्यजनक रूप से सईद के ओरिएंटलिज़्म  की संकल्पना के समानांतर है। असल में भाषाओं को ले कर एक उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण कवि का दिखाई पड़ता है- सैद्धांतिक स्तर पर।  अपनी भाषाओं तथा संस्कृति को ले कर हमें अपनी परंपरा के अनुसार देखना चाहिए , पश्चिमी दृष्टि से नहीं- इस बात को एक गहरे व्यंग्य के साथ कवि ने यहाँ प्रस्तुत किया है.

[ii] प्रसिद्ध भाषा-विद् गणेश देवी ने गुजरात दंगों के बाद एक साक्षात्कार में यह कहा था कि गुजरात के लोगों के खून में घृणा है। इस बात पर बहुत विवाद हुआ था।