शमशेरजी को याद करना यानी अपनी भाषा के सामर्थ्य तथा अपनी भावनाओं, संवेदनाओं की सूक्ष्मताओं को पहचानना है। जिस समय में हम सांस ले रहे हैं और अपने को ज़िन्दा समझ कर जीने का दंभ भर रहे हैं उस समय मेंएक ऐसे कवि को याद करना सचमुच बहुत मूल्यवान होता है जिसने जीवन को आखिरी दम तक जिया है। शमशेरजी को जहाँ तक मैं जानती हूँ , उन्होंने नितांत विपरीत जीवन-स्थितियों में अपने को जीवन से जोड़े रखा । यही जीवन का वह माद्दा था जिसे देख अनुभव कर लगता है कि जैसे वे किसी अन्य लोक के जीव थे। जीवन में कितना ही बार अपने प्रेम को उन्होंने अपने पास से सरकते हुए कहीं और जाते देखा होगा, कौन कह सकता है। पर द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास फिर भी मैं करता हूँ प्यार ..... जैसी कविता क्योंकर लिखी होगी, यह प्रश्न मन में उठे बिना नहीं रहता। प्रेम में धन का क्या मूल्य है यह तो कहना मुश्किल है पर मैली हाथ की धुली खादी जैसी उपमा aur टूटी हुई बिखरी हुई के आरंभिक बिम्ब निश्चय ही इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यह भौतिक अर्थ में मुफ्लिसी में जीता कवि अपने शब्द एवं भाव वैभव में किसी राजा-महाराजा से कम नहीं रहा होगा। शमशेर शब्द के कलाकार हैं। शब्दों को वे अपनी कविता में इस तरह प्युक्त करते हैं जैसे कोई जादूगर झूठ-मूठ की दुनिया बनाते-बनाते सचमुच की दुनिया गढ़ लेते ।
इस शताब्दी वर्ष में उनको याद करना हिन्दी के उन तमाम पाठकों को याद रना जिसके लिए कवि ने कहा है- उसे मरे ही कहो, फिलहाल।