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सोमवार, 22 नवंबर 2010


सावन
मैली, हाथ की धुली खादी
सा है
आसमान ।
जो बादल का पर्दा वह मटियाला धुँधला-धुँधला
एक – सार फैला है लगभग :
कहीं - कहीं तो जैसे हलका नील दिया हो ।
उसका हलकी-हलकी नीली झाँइयाँ
मिटती बनती बहती चलती हैं। उस
धूमिल अँगनारे के पीछे, वह
मौन गुलाबी झलक
एकाएक उभर कर ठहरी, फिर मद्धिम हो कर मिट गई :
जैसे घोल गया हो कोई गँदले जल में
अपनी हलकी-मेंहदी वाले हाथ

मैली मटियाली मिट्टी की चाक
भीगी है पूरब में
------ सारे आसमान में


नीली छाया उसकी चमक रही है
जैसे गीली रेत
( यह जोलाई की पंद्रह तारीख है :
बादल का है राज)
या जैसे , उस फ़ाख़्ता के बाज़ू के अंदर का रोआँ
कोमल उजला नीला
(कितना स्वच्छ !)
जिसको उस शाम हमने मारा था !
*
सावन आया है :
ख़ूब समझता हूँ मैं
सावन की यह पलकें
मूँद रही हैं मुझको
(सिंह श. ब., प्रतिनिधि कवताएँ) 


इसका मतलब तो यह हुआ कि हमने मान लिया है कि शमशेर के शब्दों की काया बिम्ब-स्वरूप है। यहाँ दो सवाल हैं- पहला यह, कि शमशेर, यानी कि कवि के शब्दों की काया बिम्ब के अलावा भी कोई है? हो सकती है? अगर है, तो कवि-शब्द की काया के कितने स्वरूप होते हैं? दूसरा सवाल है कि क्या ऐसा कहना यानी शमशेर की कविता पर अपनी सोच को मर्यादित करना है ? क्या यह शमशेर के काव्य की प्रशंसा है अथवा उसकी यथा-तथता? या फिर कहीं हम बिम्बों के माध्यम से उनकी कविता के उस बिन्दु तक तो नहीं पहुँचना चाहते हैं, जहाँ से हम उनकी कविता को समझने की प्रक्रिया मे आते हैं? आज की अपनी बात को मैंने इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द रखने का प्रयत्न किया है।
इन सारे प्रश्नों की पृष्ठभूमि में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का 'कविता क्या है' निबंध का यह कथन तो है ही- "काव्य में मात्र अर्थ-ग्रहण से काम नहीं चलता, बिम्ब ग्रहण अपेक्षित होता है"। (रामचंद्र शुक्ल, 1998) अर्थात् बिम्ब ही कविता का वह तत्व है जो उसको कविता के रूप में पहचान देता है।
1

किसी भी कविता में, प्राथमिक स्तर पर, शब्द सुना और देखा जाता है। इसे थोड़ा और विस्तार दें तो शब्द छुआ भी जाता है और समझा भी जाता है। इसके बाद के स्तर पर अगर श्रवणेन्द्रियों से होता हुआ शब्द, मधु-सा टपकता है तो मीठा लगता है और तीखा हो तो कडुआ, तीता। यों कवि के शब्दों की काया दृश्य के अलावा ध्वनि हो सकती है , प्रज्ञा हो सकती है। प्रतीक या मिथक भी हो सकती है, जहाँ पहुँच कर शब्द संस्कृति बनता है। लेकिन शब्दों के खरदुरे या मुलायमियत होने का अनुभव अथवा उसके मीठे-तीते का अनुभव करना और कराना एक विशेष कौशल है । यह कौशल ही उसे छलावा भी बनाता है। जो जैसा नहीं है , उसे वैसा बताना एक ऐसा छलावा है जो मनुष्य न जाने कब से बड़े शौक़ से किये जा रहा है और इस पर किसी को कोई गंभीर आपत्ति भी नहीं है। इस बीच आपत्ति उठाने वाले प्लेटो आदि से ले कर यथार्थवादियों की एक लम्बी परंपरा भी आ गई । परन्तु इससे कोई बहुत फर्क पड़ा हो ऐसा नहीं है। साहित्य भी तो, अधिकांशतः, जो जैसा नहीं है उसे वैसा बताता है। यह छलावा उसके कलात्मक होने भर से नहीं सिद्ध होता; अपने आदर्श और यथार्थ रूप में भी साहित्य छलावा तो है; असल में अनुभव का साहित्य में रूपांतरण होना ही उसे छलावा बनाता है। रूपांतरण यानि जो जैसा है उससे कुछ अलग बताना यानि छलावा। इसीलिये, तमाम तर्कों और हक़ीकतों के बावजूद साहित्य कला है, कला है और कला है। वह कुल जीवन तो नहीं है आपका, न ही कुल समाज, न कभी वह ऐसा था ! साहित्य और जीवन के संदर्भ में कौन किससे बड़ा है या छोटा है – यह प्रश्न नहीं है। किस को किस की तरह होना चाहिये या नहीं होना चाहिये, यह भी प्रश्न नहीं है। प्रश्न तो यह है कि यह जो रचनाकार है , वह जिस शब्द का प्रयोग करता है, वह उसके रचना-तंत्र(क्रिएटिव सिस्टम) में किस रूप को धारण करके कविता आदि के विश्व में अपनी जगह बनाता है। वह प्राथमिक रूप से क्या है और रचना प्रक्रिया से गुज़रते हुये कालांतर में समझ के किस स्तर पर उसके रूप में क्या परिवर्तन होता है। प्रश्न तो ये हैं ।
यह तो सहज है कि आप क्रमशः पहली फिर दूसरी फिर तीसरी....यूं सीढ़ियाँ चढें। ऐसा भी हो सकता है कि आप पहली के बाद पाँचवी फिर आठवीं फिर दसवीं.... यूं कूदते लाँघते चढ़ जाएँ। पर ऐसा सोचना, करना और देखना भी घबराहट भरा हो सकता है कि आप पहली के बाद आठवीं फिर चौथी फिर बारहवीं फिर नौवीं....यूं चढ़ें। अर्थात् – कविता को पहले आप सोचें और फिर देखें और फिर समझें और फिर सुनें और फिर पढ़ें.... । आपको पहले या तो कविता दिखाई पड़ेगी या सुनाई, तभी आप समझ और सोच सकते हैं। पर शमशेरजी की कविता तो....? बादलों की सीढ़ियों के उलझे पुलझे पथों पर चढ़ना उतरना है- ऐसा अगर कहेंगे तो यह शमशेरजी की कवि-शक्ति की निंदा नहीं है बल्कि यह उनकी कविताओं की एक पहचान भी है। कविता का रास्ता राजमार्ग तो नहीं है कि बिना धूल-धक्कड़ के साफ़ सुथरे आप निकल जाएं- जैसे राजधानी के फर्स्ट ए.सी में सफ़र किया हो।
2
शब्दों की काया..... बिम्ब । शब्द तो खुद ही काया है। तो इस काया की कौन-सी काया! काया केवल त्वचा तो नहीं कि छिलका अलग कर के भी फल का आस्वाद ले लिया। काया में त्वचा से लेकर धमनियों के भीतर बहते रक्त-कण, जिनके नीचे अस्थियाँ-सभी कुछ तो है।। शमशेरजी उन अस्थियों के मौन को सुनना और सुनाना चाहते हैं जैसे अरावली के नीचे की गहरी दरारें भी दिखाना चाहते हैं। इन सबका समावेश है- काया में –
मगर
मेरी पसली में हैं- गिन लो
व्यंजन: और उनके बीच में हैं
स्वर........
हाँ मगर
वह
स्व

एक फ़नल
धुँधुवाता
विशाल आकाश में (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं)
अरावली के पुरातन तम पहाड़ों के नीचे, गहरे धरती के अंदर तक दरारें इस तरह एक स्थिर चक्कर में चली गई हैं जैसे कविता की पंक्तियाँ ; और स्वर विशाल आकाश में धुँधुवाते-से हैं; वह स्वर जो उन व्यंजनों के बीच में थे जो कवि की पसलियों में हैं ; और कवि तीनों कालों के बीच- है, भवता, था- के व्याप में उलझे-पुलझे पथों पर भटक रहा है अपनी कविता को मूर्तरूप देने , उसे आकारित करने के लिये। यह जो कवि की , किसी भी कवि की, काव्य रचना के लिये जो उलझन है, उसे शमशेर जिन बिम्बों के द्वारा व्यक्त करते हैं , वह इसलिए हमें विलक्षण लगते हैं क्योंकि काव्य रचना-प्रक्रिया अपने आप में जटिल ही होती है। विलक्षणता उसकी जटिलता में है- और हम प्रभावित होते हैं, कवि की सफलता पर। कवि धरती के भीतर, मनुष्य- देह के भीतर और आकाश में कहीं उलझे-पुलझे पथों में----- विचरता है, अपने साथ कुछ बिम्बों को लेकर, और यह सब टैंजिबल(स्पर्शक्षम) लगता है। कवि कहीं न कहीं यह इंगित करना चाहते हैं कि कविता की रचना-प्रक्रिया भी वैसी ही टैंजिबल है। शमशेर के यहाँ उस प्रतीति और अनुभूति को मूर्त रूप मिलता है ।
या जब कवि कहता है सौन्दर्य त्वचा में नहीं, थिरकते रक्त में नहीं, कहीं इनके पार.... (सिंह श. ब., चुका भी हूँ मैं नहीं) तो पार कहाँ? वहाँ जहाँ आत्मा होती है? या वह जिसे सर्जनात्मकता कहते हैं ? आत्मा के चक्कर में बुद्धिमानों को नहीं पड़ना चाहिये। हाँ, सर्जनात्मकता की बात की जा सकती है।
3
सर्जनात्मकता। कॉलरिज के लिये कल्पना ही सर्जनात्मकता है। कल्पना=सर्जनात्मकता। जो नव-सर्जन के लिये काव्यगत पदार्थों को मिलाती है, बिखराती है, पिघलाती है, अथवा नया प्रत्यय ढूँढ़ती है—वह कल्पना शक्ति है। प्रश्न तो हमारा यही है कि यह सर्जनात्मकता कवि के सृजन-व्यापार में किस रूप में आती है। आचार्य शुक्ल कल्पना को भावना कहते हैं। उनके अनुसार " कल्पना दो प्रकार की होती है- विधायक और ग्राहक। कवि में विधायक कल्पना अपेक्षित होती है और श्रोता या पाठक में अधिकतर ग्राहक। अधिकतर कहने का अभिप्राय यह है कि जहाँ कवि पूर्ण चित्रण नहीं करता, वहाँ पाठक या श्रोता को भी अपनी ओर से कुछ मूर्ति-विधान करना पड़ता है।...किसी प्रसंग के अन्तर्गत कैसा ही विचित्र मूर्ति विधान हो , पर यदि उसमें उपयुक्त भाव संचार की क्षमता न हो तो वह काव्य के अन्तर्गत न होगा।" (शुक्ल) शमशेरजी के यहाँ उपयुक्त भावसंचार की उपस्थिति लगातार देखी जा सकती है, इसीलिये उनकी कविता पर लगे रीतिकालीन प्रभाव के आरोप बेमानी हो जाते हैं। यह भावसंचार प्रभावी बनता है उनकी बिम्बसृष्टि के औचित्य और समृद्धि और फलस्वरूप, इतना तो तय है। शमशेर की लगभग सभी महत्वपूर्ण कविताओं में पाठक को अपनी ओर से कुछ-न-कुछ मूर्तिविधान तो करना ही पड़ता है- जिसे नई कविता की शब्दावली में हम कहते हैं- अन्तरालों को भरना।
शमशेरजी के लिये कविता एक फ्लैश की तरह आती है। उनका कहना था कि अगर उस क्षण उन्होंने उसे लिख लिया तो लिख लिया , वरना वह ग़ायब हो जाती है। शमशेरजी की कविताओं में जो बिम्ब हैं ,वे बहुत ही फोर्सफुल है। ठीक उनके चित्रों की रेखाओं एवं रंगों की तरह।


शमशेरजी की कविताओं में भी आए इस तरह के फोर्सफुल चित्र हमारे मन में धँस कर रह जाते हैं –
तब छन्दों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्यास उँगलियों में विकल थी-
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे-- -- पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे नीलम की गरदनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं। (सिंह श. )
बिजली की चमक, हीरे नीलम की गरदन को विशेषता देती है। कवि कहना तो यही चाहता है कि मोर की हरी-नीली गरदन बिजली की तरह चमक रही थी अर्थात् गरदन की लोच में बिजली का आकार और बिजली की चमक से गरदन के हीरे-नीलम वाले चमकीले रंगों में और चमक आना- चित्र इस तरह निर्मित होता है कि मोर की हरे-नीले रंग की लोचदार और बिजली की तरह चमकती गरदन । उसी तरह छन्दों के तार खिंचे खिंचे थे , राग बँधा-बँधा था , प्यास उँगलियों में विकल थी----- कि मेघ गरजे... रचनात्मकता का वह क्षण है जिसमें रचना का जन्म होने ही वाला है-- (तुलनीय-अब गिरा अब गिरा...वह अटका हुआ आँसू की तरह )--- शमशेर की कविताओं में, उसका ऐसा अनुभूति सभर चित्रण शब्दों की इसी तरह की बिम्ब-काया में प्रत्यक्ष होता है ।

इसी तरह का एक और उदाहरण है-
एक नीला आईना
बेठोस –सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में। (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं, 1990,1994)
चाँदनी में चलने का भौतिक अनुभव कविता में 'बेठोस' शब्द के प्रयोग से इसलिए विशिष्ठ बन जाता है, क्योंकि आसमान को' नीला आईना' कहा है। आईना ठोस है, और पारदर्शी है; चाँदनी अठोस है, पारदर्शी है और आसमान में है; और आईने से प्रतिबिंबित हो कर जब धरा पर उतरती है तो वह पारदर्शी चाँदनी, जो ठोस नहीं है, कवि उसे अठोस कहता है । अठोस शब्द का प्रयोग कहीं न कहीं ठोसत्व का 'बोध' देता है, अर्थ नहीं। अर्थ तो उसका अठोस ही है , पर काव्यगत बोध में ठोसत्व का अर्थ शामिल हो जाता है, जैसे झूठ को असत्य कहने से सत्यत्व का बोध होने लगता है। नकारवाची शब्द प्रयोग में स्वीकारवाची अर्थबोध, बिम्बों के कारण अधिक प्रतीतिजनक लगने लगता है।
4
शमशेरजी की कविताओं में बिम्ब की उपस्थिति उस सर्जनात्मक बिन्दु की आवश्यकता है जो काव्य-रचना के लिये ज़रूरी है। कभी बिम्ब ही सीधे-सीधे कविता को आकार देते हैं, जैसे ऊषा, संध्या, योग आदि कविताओं में, तो कभी कविता के भाव तक पहुँचने के लिये कवि घुमावदार रास्तों से होता हुआ वहाँ पहुँचता है। अलबत् उन घुमावदार रास्तों में भी मिलते तो बिम्ब(शायद मेरे ही अनेक बिम्ब मात्र) ही हैं। इस संदर्भ में उनकी 'टूटी हुई बिखरी हुई' कविता का उदाहरण लिया जा सकता है।
यह कविता प्रेम की असफलता में भी अपने मनुष्य होने की गरिमा को सुरक्षित रखने के प्रयास की कविता है। प्रेम की असफलता की पीड़ा से कविता का आरंभ होता है- अतः पाठक को कवि जिन रास्तों से ले जाता है, वे निहायत कष्टकर हैं ।कवि डाउन टू अर्थ, ज़मीनी बात करता है। उनमें है चाय की दली हुई कुचली हुई पत्तियां हैं, ठंड है, ठेलेगाडियां हैं, खाली बोरे हैं- जिन्हें सूजों से रफू किया जा रहा है.....प्रेम की अनुभूति जहाँ व्यक्ति को सातवें आसमान पर चढ़ा देती है, वहीं उसकी असफलता उसे डाउन टू अर्थ पर भी ले आती है। इन रास्तों से होते हुए वह प्रेम की उन अनुभूतियों में हमें ले जाते हैं जो बेहद रंगीन और आकर्षण से भरपूर हैं। कबूतरों की ग़ज़ल, इत्रपाश, आसमान में आईने की तरह हिलती और चमकती गंगा की रेत, जंगली फूलों की दबी हुई ख़ुशबू, प्यास के पहाड़ों पर झरने की तड़प, नाव की पतवार बनती बाँसुरियाँ, ऊषा की खिलखिलाहटें, शाम के पानी में डूबते ग़मगीन पहाड़ , पलकों के इशारे में बसी हुई ख़ुशबुएँ ......बिम्बों का यह ऐसा मनोहारी मायावी संसार है जिसका यथार्थ है वह दली हुई कुचली हुई चाय की पत्तियाँ वगैरह। लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकती। शमशेर की शब्द-काया अपनी विशिष्ट अभिव्यक्तियों के द्वारा ऐसे भाव- प्रवाह में ले जाती है कि वहाँ याददाश्त गुनहगार बनी हुई है, रंगों के लपेट खुलते ही नहीं हैं और उन्हें जला देने के सिवा कोई चारा नहीं रहता। किसी पिकनिक में दाँतों में चिपकी रह गई दूब की नोक जो बरसों बाद भी गड़ने की प्रतीति कराती है.... पूरी कविता में मणि-समुद्र की मानिंद बिम्ब बिखरे पड़े हैं..... अपनी निजि पीड़ा को प्रस्तुत करने का ऐसा सुंदर तरीक़ा कि लोग कहें, शमशेर के ही शब्दों में- 'हो चुकी जब ख़त्म अपनी ज़िन्दगी की दास्ताँ, उनकी फ़रमाइश हुई है इसको दोबारा कहें।'
5
शमशेर की कविता में शब्दों की बिम्ब-काया के रूप और तरीके भिन्न हैं। इस बात को उनकी तीन कविताओं के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगे। 'एक पीली शाम', 'रोम सागर के बीचोबीच' तथा 'घनीभूत पीड़ा'।
'एक पीली शाम' कविता अत्यन्त सुगठित-सी कविता है जिसका आरंभ ही एक बिम्ब से होता है। 'एक पीली शाम/पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता/शान्त।' कविता पढ़ लेने के बाद हमें यह प्रतीति होती है कि कविता में रहे भाव-विश्व को बिम्बों के माध्यम से अत्यन्त सुचारु रूप से प्रस्तुत किया गया है। अतः इस कविता का सौन्दर्य हमारे सामने मानों बड़े ही गाणितिक रूप से उभरता है। यथा- अटका हुआ आँसू= अटका हुआ पत्ता, सांध्य-तारक=आँसू, ज़रा अटका हुआ पत्ता=अटका हुआ आँसू इत्यादि हमारी समझ में आता है। कविता निश्चय ही संवेदना से भरपूर है पर इसमें निहित कलात्मकता उसे क्लासिक बनाती है। निश्चय ही यह शमशेरजी की उत्तम कविताओं में से एक है। क्लासिक कविता की तरह इसमें भावनाओं को इस तरह प्रस्तुत किया है कि लगे ही नहीं कि भावनाएँ हैं। हमारा ध्यान कविता में व्यक्त भावनाओं से पहले कविता के सौन्दर्य-विधान की ओर जाता है। कविता की कलात्मकता की शब्द-काया बिम्बों का रूप धर कर आती है।
लेकिन 'रोम सागर के बीचोबीच' कविता का आरंभ तो एक सामान्य कथन से ही होता है। सहज रूप से कही गई अपनी बात की पुष्टि के लिये कवि तुरंत ही अलंकारों का सहारा लेता है ; एकदम नए किस्म के । कवि की कल्पना है कि रोम सागर के अंदर हमारे किसी प्राचीन पूर्वी देश की भूखी आत्मा इधर-उधर भटक रही है, जैसे घोर वर्षा में डाल से विच्छिन्न घोंसलें का तिनका टूटकर गिरा हो। आत्मा को तो भटकते हुए हमने अपनी मान्यताओं में सुना है, संस्कारों में ग्रहण किया है। पर आत्मा किसी प्राचीन पूर्वी देश की हो और भूखी हो, यह बात हमें चौंकाती है। और वह भटक कैसे रही है, कवि कहता है - घोर वर्षा में डाल से विच्छिन्न घोंसले के तिनके-सी, जो ज़रा सी हवा में भटक सकते हैं। सैद्धांतिक रूप से 'सा' का प्रयोग अलंकार का बोध देता है। पर यह अंश पढ़ कर जितने फोर्सफुल तरीक़े से घोंसले का बिम्ब हमें प्रभावित करता है, उतना ही प्राचीन देश की पूर्वी आत्मा का बिम्ब भी हमें एक कौतुहल में डालता है। यह कविता डॉ. इरीना ज़ेहरा के लिये है। इरीना ज़ेहरा का जाना, कवि के लिये हमारी संस्कृति के एक अंश का जाना है, जैसे और भी कवि-कलाकारों का जाना होता है, दाहरण के लिये आर.एन.देव, बन्नेभाई, मुक्तिबोध आदि। कवि के भीतर भी कुछ मर जाता है। कविता में इस मृत्यु-बोध का एक अद्भुत् बिम्ब रचा गया है। इस बिम्ब में जटिलता है, पर यह जटिलता जीते-जी मर जाने के बोध को दर्शाने के लिये है। कवि को लगता है कि वे एकाएक किसी सुलगते हुए घर में एक बहुमूल्य कलम की तरह गुम हो गये हैं। वे एक साथ लपटों और ख़ामोश रिमझिम का अनुभव करते हैं। चारों तरफ़ पहाड़ के झरनों का शोर है और वे स्वयं किसी प्राचीन गूँज में डूब गये हों, ऐसा उन्हें लगता है। कविता में साथी के छूट जाने का बोध, जो डाल से टूटे घोंसले के तिनके जैसा है, उसके कारण, जो एक शून्यता की प्रतीति होती है, वह इतनी तीव्र है, कि सगे भाई का , छः सौ मील दूर से आना और बहनों-बेटियों की पत्र के लिये प्रतीक्षा भी उन्हें विचलित नहीं करती। कवि मानों सुन्न हो गया है। इस अनुभव को साक्षात्कृत कराने के लिये इस तरह के बिम्ब के अलावा कवि के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
वहीं, 'घनीभूत पीड़ा' कविता एकदम ही अलग है। शमशेर का चित्रकार शमशेर के कवि की मदद के लिये आगे आता है। कवि की चेतना रचनात्मक क्षण से लबालब है, पर कवि को शब्द नहीं मिल रहे .... तो अपनी भावानुभूति को उन्होंने रेखाओं से उकेरना आरंभ कर दिया। कुछ टूटे-अधूरे चित्र से बनते हैं। कुछ शब्द प्रकट होते हैं। कुछ देर में फिर शब्द गायब और चित्र उपस्थित ..... यह प्रक्रिया पूरी कविता में चलती रहती है। कविता रेखांकन से आरंभ हो कर रेखांकन पर समाप्त होती है। असल में एक गहन व्यथा का भाव कवि के हृदय में भरा हुआ है जिसका कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है। पर यह सघनता कवि को बेचैन भी करती है। कविता में रेखाएं हैं और रेखाओं को व्याख्यायित करते शब्द । कवि को जो कहना है वह कविता के अंत में इस तरह आता है-' देखा था वह प्रभात/तुम्हें साथ, पुनः रात/ पुलकित ..... फिर शिथिल गात,/तप्त माथ, स्वेद, स्नात/मौन म्लान , पीत पात/पुनः अश्रु बिम्ब लीन/शनैः स्वप्न-कंप वात/हे अगोरती विभा/जोहती विभावरी/ हे अमा उमामयी/भावलीन बावरी/ मौन-मौन मानसी/मानवी व्यथा भरी।' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं)
इन तीनों कविताओं में विरह जनित पीड़ा मुख्य है। कोई था, जो अब नहीं है। और जो नहीं है, वह कवि के बहुत निकट था।( इसी क्रम में 'आओ' कविता भी शामिल की जा सकती है।) पर जहाँ 'एक पीली शाम' के बिम्ब ग़ज़ब के क्लासिक हैं, उसमें विरह-जनित अभाव की अभिव्यक्ति में अद्भुत संयम है, वहीं' रोम सागर के बीचोबीच ' में एक शॉक, एक शून्यता, एक तरह के सांस्कृतिक अभाव की प्रतीति है और 'घनीभूत पीड़ा' में एक रूमानियत है- अपने निजि अभाव को व्यष्टि के अभाव में बदलते हुए भी उसमें अपनेपन की मुद्रा बनी रहती है ,जो कविता के आरंभ और अंत में आए अशआरों में व्यक्त होती है- 'लजाओ मत अभाव की परेख ले, समाज आँख भर तुम्हें न देख ले' तथा ' ज़बाँदराज़ियाँ ख़ुदी की रह गईं, तेरी निगाहें जो कहना था सो कह गईं ।'
बिम्ब, शमशेर के शब्दों की काया ही नहीं बल्कि आत्मा भी हैं – बिम्ब स्वयं ही कविता बन जाते हैं उनकी रचनात्मकता में। 'अम्न का राग' कविता में भी, जैसा कि शमशेर की कविताओं के पाठकों को पता है, अनेकानेक बिम्ब हैं। पर उनकी इस कविता में कुछ ऐसे बिम्ब हैं, जिनकी व्यंजनाएं दूर तक जाती हैं। जैसे- 'आज न्यूयोर्क के स्कायस्क्रेपरों पर/ शांति के डवों और उसके राजहंसों ने/ एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा /और शोर पैदा कर दिया है।' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं, 1990,1994) शांति के डव और उनके राजहँस- में एक व्यंजना तो छिपी हुई है ही। पर उन डवों ने क्या किया है- उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा और शोर पैदा कर दिया है- आप देखिये, उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा – शब्दों से जो बिम्ब निर्मित होता है- हाँ, बिम्ब , क्योंकि यह हल्का-सा उजला अँधेरा बहुत सारे कबूतरों के एक साथ आसमान में उड़ने का परिणाम है, और शोर उन डवों के पंखों की फड़फड़ाहट है। इस अभिधा- मूला व्यंजना को साकार करता है आसमान में उड़ता यह डव-समूह । राजहंस एक भिन्न संस्कृति है और डव एक अलग संस्कृति है..... कवि दोनों को साथ देख रहे हैं। उस समय कवि ने संभव है कुछ और सोच कर लिखा हो; आज हम उस उजले सुख के हल्के अँधेरे को गहरा होते हुए देख रहे हैं और उसे गहरा बनाने में डवों और राजहंसों की समान भूमिका भी हमें दिखाई दे रही है। शमशेर अपनी कविता में इस तरह दूर तक जाती व्यंजनाओं के अद्भूत् बिम्ब निर्मित करते हैं, जिससे जीवन-गत यथार्थ काव्य-गत सच में परिणमित हो जाता है।
शमशेरजी ने अपनी कविताओं में हमारे वर्तमान समय के जो बिम्ब खड़े किए हैं, वे हमें अंदर तक हिला देते हैं। 'बाढ़-1948' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं) इस संदर्भ में उनकी मार्मिक रचना है। इस जनतंत्र में वर्ग-विभक्त समाज में कितने कल्चर्स एक साथ हैं- उसका बयान और कवि की उन पर टिप्पणी- हमें सोचने पर बाध्य करती है। महादेवी साहित्य के पृष्ठों से निकल कर बाढ़-पीडितों में चने बाँट रही जो न जैनेन्द्र कर रहे हैं न अज्ञेय, न कृष्नचंद्र, न नेमिचंद्र। हमारा बौद्धिक वर्ग आज भी ऐसे समय राजनीति और चिंतन करता है। पर एक वर्ग, बहुत बड़ा वर्ग, जो जनता का है वह संकट समय में केवल स्वजनों के साथ होना चाहता है- जो अक्सर संभव नहीं हो पाता, आज भी। मगर इसकी चिंता न लेखकों को है न राजनेताओं को और न ही बौद्धिकों को, न ही कभी थी। कवि ने, एक बन रही , निर्मित हो रही संस्कृति को, बाढ़ के ज़िन्दा दृश्यों से बने जिस बिम्ब द्वारा हमारे सामने रखा है – वह दिल दहलाने वाला है। उसमें हम साफ़-साफ़ बौद्धिकों का दंभ, स्वार्थ और संवेदनहीनता देख सकते हैं - जो आज हमारा सामान्य जीवन बन गया है- और जैसा कि शुक्लजी कहते हैं –मूर्त और गोचर रूप में।
असल में बहुत कुछ कहा जा सकता है और भी। कितनी ही कविताएं जैसे होलीःरंग और दिशाएं, न पलटना उधर, सौन्दर्य, , शिला का खून, सींग और नाखून..हैं ; इन सभी कविताओं की चर्चा के माध्यम से शमशेर के शब्दों की बिम्ब-काया के स्वरूपों पर बात हो सकती है- पर बात को एक जगह पर आ कर रोक देना ज़रूरी है- अतः मैं अपनी बात को इस समय के लिये यहीं रोक देना उचित समझती हूँ। धन्यवाद।
संदर्भ-
रामचंद्र शुक्ल. (1988, वर्तमान संस्करण2009). रामचंद्र शुक्ल संचयन. (नामवर सिंह, सं.) दिल्ली: साहित्य अकादेमी.
शमशेर बहादुर सिंह. (1975). चुका भी हूँ मैं नहीं. दिल्ली: राधा कृष्ण प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990, पुनर्मुद्रण 1994). प्रतिनिधि कवताएँ. राजकसन प्रकाशन, दिल्ली.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990, पुनर्मुद्रित 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिन्नी: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेरबहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
संपादक नामवर सिंह रामचंद्र शुक्ल. (1998). रामचंद्र शुक्ल संचयन. (नामवर सिंह, सं.) दिल्ली: साहित्य अकादेमी , दिल्ली.

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

बेदखली

वह मुझसे बेइन्तिहा प्यार करता है

मेरे वर्तमान, भूत और भविष्य की भी,
सुख-सुविधाओं और दुख-दर्दों की चिंता करता हुआ...
नहीं करता वह बिल्कुल भी चिन्ता अपने
बढ़ते हुए रक्त-चाप और ख़ून में पड़ी अ-पची शकर की मात्रा की।

वह मेरी इज्जत करता है,
मेरी आबरू के लिए अच्छों-अच्छों को धूल चटा देता है,
मेरे लिए लौकी की सब्ज़ी तक खा लेता है।
वह मुझसे बेइन्तिहा प्यार करता है।

मेरी तरक्क़ी के लिए वह
अत्यन्त चिंतित रहता है, हमेशा ही।
मैं लिखूं और पढ़ूं और अपना काम करूं- इसी कारण अपने दिन और अपनी रातें भी बरबाद करता है।
वह स्वीकार करता है – मेरी बुद्धिमत्ता,
अपने से अधिक, मुझे अकलमन्द मानता है।
जबकि
हर संकट से उबरने का रास्ता वही सुझाता है।
ज़रूरत पड़ने पर, दुनिया से दो-दो हाथ करने की तैयारी के साथ...।

मेरी इच्छा के विपरीत
वह न मुझे छूता है, न कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती ही करता है।
मेरी भावनाओं की कद्र करता है।
औरत होने के मेरे अधिकारों को स्वीकारता है।
अपने रक्त-चाप की ऊँचाई पर बैठ कर !

ऐसा नहीं कि उसे मुझसे कोई शिकायत नहीं है।
मुझसे उसे जो-जो हैं, उन
बहुत सारी शिकायतों को
गाहे-बगाहे व्यक्त भी करता है।
पर इसमें कोई शक़ नहीं कि वह मुझसे भरपूर प्यार करता है।

मेरे भूतकाल में
मेरी मर्जी के विरुद्ध
वह कभी नहीं झांकता ।
मुझे दुख पहुँचे, इस तरह मेरे घावों को कुरेदता भी नहीं है।
तमाम नुकीले प्रश्नों की बाण-शैया पर ता-उम्र लेट कर
अनखोली और उपेक्षित, अपमानित भावनाओं की गठरी
अपने हदय के सिरहाने रख
मेरा हौंसला बढ़ाता रहता है.......

वह, मेरा जीवन साथी

कभी नहीं समझता कि मेरी
वह जगह अब नहीं रही मेरे पास
जिस पर पाँव जमाकर कभी मैं साँस लेती थी।
वह जगह -
उसके प्रेम, चिंताओं और मेरी सुरक्षा में बिछे उसके पलक-पाँवडों
में कहीं दब गई है।
• * * * * * * * * * * * * * * *

मैं उस जगह का क्या करूंगी ?
यह सवाल मैं पूछती हूँ अपने आप से

ऐसा क्या है जो शेष रहता है करने के लिए
किसी के इतना सब कुछ कर लेने के बाद !

करने के लिए कुछ रहना चाहिए या नहीं
यह भी एक सवाल मेरे भीतर उठता है ?
क्योंकि मुझ जैसी आलसी, नहीं आलसिन, के लिए यह संतोष का विषय होना चाहिए-
कि कोई है उसके पास जो उस से बेइन्तिहा प्रेम करता है-
सब कुछ के बावजूद।

मैं उस खो गई जगह का क्या करना चाहती हूँ ?
कुछ भी तो नहीं !
फिर क्यों उस छिन गई जगह के लिए मेरे मन में कचोट है, अब भी।
क्या अपनी स्मृतियों के कब्रिस्तान के लिए मुझे चाहिए वह जगह ?
ताकि हर वर्ष चढ़ा सकूं फूल, जला सकूं मोमबत्ती, अगरबत्ती....?
मैं सोचती हूँ क्या करूंगी, उन स्मृतियाँ का भी
जिनसे सिवा दुख, पराजय और धोखे के, कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
वह जगह
जहाँ मैं केवल रपट कर गिरी ही हूँ।
बार-बार.... कितनी ही बार।
वह जगह
जिसने मुझे यही बोध दिया है
कि कितनी बेवकूफ़ थी मैं
कि भरोसा करती थी जिस किसी पर, तो बस करती ही चली जाती थी।
धोखा खा कर भी अविश्वास करने में, बरसों निकाल देती थी।

यूँ ज़िन्दगी के बहुत वर्ष ज़ाया किए।

आत्महत्या के दरवाज़े तक पहुँच कर लौट आई ज़िन्दगी के लिए इससे बेहतर वर्तमान क्या हो सकता है ?

एक हल्का-फुल्का जीवन
जिसमें न बिल भरने की चिंता, न आटे-दाल की फिक्र,
न बच्चे को बड़ा करने का भार
न रीति-रिवाज़ों की बंदिशें
जिसमें चर्चा करने की छूट, असहमत होने की भी अनुमति...

फिर क्यों चाहिए मुझे वह जगह
जो मैंने खुद कभी छोड़ दी थी।
धीरे-धीरे खुद ही अपने को समझाया है मैंने,
कि वह एक बेहद मूर्खता भरी ज़िन्दगी थी
जो मैंने जी थी कभी।
इन्सानी ज़िन्दगी के वे उम्र के, सबसे बेहतरीन वर्ष, अर्थहीन हो गए थे।
मेरा यौवन, मेरा वसंत, मेरी बहारें
अन्तहीन रेगिस्तान में बने रेत के महल की मानिंद हो गए थे।
जिस पर
मुँह बिराता, मृगजल – सा मेरा विश्वास
मेरे भरोसे को बड़ी सफाई से तोड़ दिया गया है।
मैंने जाना था कि
अमृत का वह स्वाद एक स्वप्न था जो आँख खुलते ही अफसोस बन कर रह गया।
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जीवन के उस उजाड़ किनारे पर
मिला था वह, जो मुझे बेइन्तिहा प्रेम करता था...
बरसों से , मेरे ही अन्जाने।
उस उजाड, ध्वस्त और परती भूमि के साथ
मैं ही तो गई थी उसके पास....'पथ नहीं मुड़ गया था...'।

फिर अब क्यों मुझे चाहिए अपनी वह जगह !

मृत स्मृतियों में अँखुएँ नहीं फूटते
बीते जलों से सींचन नहीं होता
परती ज़मीनों पर कुछ भी उगाना नामुमकिन है।
तो क्यों चाहिए मुझे अपनी वह परती ज़मीन
जबकि किलकारियों से लहलहा रहा है मेरा आँचल।

संसार भर के संघर्ष ज़मीन के लिए ही तो होते है।
मैं क्यों तब चाहती हूँ वह शापित ज़मीन
जिसने हर लिया था मेरा सब कुछ ?
मेरी आर्द्रता, मेरी कोमलता, मेरी चंचलता,
मेरी दृढता, मेरा ज़मीर, मेरे आत्मज....

मेरा वह अजन्मा भविष्य,
जो आज भी
मेरे सफल एवं उज्जवल वर्तमान की तरफ़
अपनी पराजित पर अजिंक्य मुस्कान के साथ, मेरी ओर देखता-सा है..
मुझे एक ऐसे अफ़सोस में भिगोते हुए
(जो कि मुझे मालूम है कि कितना व्यर्थ है)
सचमुच, कितना अच्छा हुआ कि वह भविष्य,
अजन्मा ही रहा...
क्या पता मैं सम्हाल भी पाती उसे, अगर वह होता.....
और यह नहीं होता
जो है.........
वही मेरी वर्तमान,
जो मुझे बेइन्तिहा प्यार करता है।

पर
मुझे मालूम है
जब भी मरूंगी मैं,
मेरे प्राणहीन रोमों में
उस जगह के न होने की टीस बराबर बनी रहेगी
जिससे सर्वथा अन्जान
वह,
जो मुझे करता है बेइन्तिहा प्यार
संभवतः
सोच रहा होगा कि अपने तई,
(अपनी कला भर की जगह छोड़ कर,)
अपनी जान से भी अधिक उसने मुझसे किया प्रेम।

क्या उसे कभी याद आएगी, वह जगह, जो मेरी थी और
उसके पास महफूज़ रखी थी।

वह इस पूरे समय मानता रहा,
संभवतः,
उस जगह से छिलेगा हमारा वर्तमान
लगेगी चोट, होगी पीड़ा...अतः रखी रह गई महफूज़ ... यों इन सारे वर्षों तक...
अँधेरे में पंख फड़फड़ाती,
विस्मृत-सी वह जगह, उसी के पास
जिसे पूरा जीवन, भूलने की कोशिश में, अपने भीतर
समय की कब्रगाह में गाड़ती.... मैं -
यह सोचती रही,
कि चाहे हुए क्षणों की, खिलखिलाते कणों की
अनचाही और व्यर्थ सी जगह का, आखिर क्या करती मैं
गर मान लो, मिल जाती मुझे !
वह जगह जो मेरी है, पर मेरे पास नहीं है ...... महफूज़ ।
रंजना अरगडे
9/8/2010