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शुक्रवार, 22 मई 2009

Translation as Knowledge itself

Translation as Knowledge itself
रंजना अरगडे

हम लोग एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ हर चीज़ को देखने का हमारा नज़रिया बदल गया है। ज़ाहिर है इस बदलाव के लिए कई बातें ज़िम्मेदार हैं। मध्यकाल से आधुनिक काल में आना यानी विश्वासों, मान्यताओं एवं अंधविश्वासों से तर्कबद्धता और वैज्ञानिक विश्वासों की ओर जाना। नई खोजों के फलस्वरूप हमने अपने चारों तरफ़ की दुनिया और उसकी तब तक हासिल की गई जानकारी के बारे में कुछ ऐसी तब्दीली पाई, एक ऐसा नया संदर्भ जुड़ते हुए देखा, जो हमें पुराने समय से खींच कर एक नए समय में ले आया। धर्म, राजनीति तथा समाज-व्यवस्था की चली आती मान्यताएं इस कारण बदल गई कि अवकाश, पृथ्वी, जल, जीवन का एक नया सत्य हमारे सामने उजागर हुआ। इसके फलस्वरूप हमारी जीवन-पद्धति को हमने एक नई पीठिका पर खड़ा पाया। आज तक जिसे हम पूर्व जन्म के कर्म और भोग मानते थे वह वास्तव में शोषण की विभिन्न स्थितियां हैं- यह अब हमारी समझ में आ गया। व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार के कारण उसके अवचेतन की गहराई में छिपे होते हैं और पृथ्वी की हलचलों और हरकतों के लिए अवकाश मंडल और उसकी व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है, कारणभूत है – यह तथ्य भी हमारी समझ का हिस्सा बना। दुनिया भर के देशों, उनके लोगों, उनके साहित्य, कला, चिंतन आदि में उन्हीं सब कारणों से परिवर्तन हुआ; लेकिन सामाजिक ढाँचे में, उसकी संरचना में कोई मौलिक परिवर्तन या बदलाव नहीं आया। किन्तु समाज का स्तरीकरण इतना चुस्त हो गया कि नई संरचना तथा नए ढाँचे की खोज अवश्यंभावी हो गई।
सन् 1980 के आसपास विश्व समाज नए ढाँचे में आकार लेने लगा। हालाँकि इसकी भूमिका सन् 1960 से बनना शुरु हो गई थी। अगर 20वीं शती का महदांश विज्ञान और विचारधारा को समर्पित था तो उसके अंतिम दशक तथा नई शताब्दी का आरंभ नए सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के आकारी-कृत होने का माना जा सकता है। विचारधारा के स्थान पर विमर्श आए तथा शुद्ध विज्ञान तथा उद्योग का स्थान सूचना प्रौद्योगिकी ने ले लिया। जो अब तक परिधि में था केन्द्र में आ गया, आ रहा है। स्त्री, दलित, जन-जातियां, जीवनी आत्मकथा, अनुवाद, व्याकरण, भाषा-व्यवहार—आज सभी केन्द्र में है।
आज महत्व 'स्पेस' का है। पहले समय का महत्व था। पहले भूत और भविष्य महत्वपूर्ण था, अब वर्तमान महत्वपूर्ण है। यह वर्तमान अस्तित्ववादियों के 'क्षण' से अलग है। इस वर्तमान का अर्थ है- व्यक्ति का जीवन-काल( Complete Life-Time of a person)। भूतकाल पुस्तकों औ स्मृतियों में रह सकता है , भविष्य उम्मीदों और कल्पना में जगह पा सकता है, पर वर्तमान के लिए तो फ़िज़िकल स्पेस अधिक महत्वपूर्ण है। यह एक तथ्य है कि हमारे पास फिज़िकल स्पेस तो कम ही है। इस फिज़िकल स्पेस में अगर सब को जगह चाहिए तो या तो हम प्रदत्त स्पेस में एक और स्पेस निर्मित करते हैं या आभासित स्पेस बनाते हैं। वर्च्युएल स्पेस। इसका संबंध मायाजाल से है। अर्थात् इंटरनेट।
अनुवाद ने भी रचना के स्पेस में अपना स्पेस बनाया है। पहले अनुवाद रचना-घर का दरबान था, पर अब अनुवाद ख़ुद एक घर बन गया है। पहले अगर वह रचना-घर की केवल खिड़की था तो अब अनुवाद-घर की खिड़की वह ज्ञान है जिससे पूरी दुनिया में विकास की दृष्टि से परिवर्तन संभव हो सकता है। अब अनुवाद माध्यम न रह कर ख़ुद लक्ष्य बन गया है।
लगभग एक दशक पहले नॉलेज-ट्रांस्लेशन की परिकल्पना के बीज केनेड़ा में बोए गए। इसका संबंध मुख्य रूप से उनके स्वास्थ्य संबंधी विभाग से जुड़ा था। यानी हम कह सकते हैं कि अनुवाद के साथ ज्ञान शब्द तब से जुड़ा। लेकिन हम तो यह बात कर रहे हैं कि अनुवाद ख़ुद ज्ञान है। आज ज्ञान शब्द का एक केन्द्री-भूत निश्चित अर्थ है। ज्ञान यानी शक्ति और शक्ति यानी सत्ता। अतः जब हम अनुवाद को स्वयं ज्ञान अर्थात् नॉलेज इटसैल्फ कहते हैं, तब असल में हम अनुवाद को एक सत्ता के रूप में पहचानते हैं। सर्जनात्मक लेखन जैसे एक सत्ता है वैसे ही अनुवाद भी एक सत्ता है। राजकीय सत्ता साहित्य से या कहा जाए कला मात्र से भयभीत रहती हैं, ऐसा भूतकाल में कई बार हुआ है; क्योंकि कलाएं मनुष्य के मन को, उसकी सोच को बदलने की ताक़त रखती है।
पर अनुवाद के साथ स्थिति कुछ दूसरी है। अनुवाद देशों के आर्थिक-राजकीय विकास को बदलने और निर्धारित करने की सत्ता रखता है। वह विचारों को, संकल्पनाओं को एक देश से दूसरे देश में 'ले जाने' की ताक़त रखता है। यहाँ यह देखना रोचक होगा कि क्यों और कैसे अनुवाद एक सत्ता बन गया।
अनुवाद का व्यक्तित्व पहले दबा हुआ, सब्ड्यूड था। वह सर्जनात्मक लेखन की परछाईं था। स्रोत-पाठ के फ़्रेम-वर्क- चाहे वह भाव, भाषा या व्याकरण का हो-(उस) से वह बाहर नहीं जा सकता था। पहले उसका काम या तो धर्म-प्रचार था अथवा साहित्य-प्रसार। लेकिन नॉलेज ट्रांसलेशन की परिकल्पना के बाद वह देशों के आर्थिक तथा व्यावसायिक हित से जुड़ गया। वह धीरे-धीरे पत्रकारिता के आर्थिक हित का अभिन्न हिस्सा बन गया। हे तो यह माना जाता रहा था कि असफल सर्जक या तो समीक्षक बनता है या फिर अनुवादक। भारत जैसे बहु-भाषी देश में वह एक फालतू चीज़ की तरह कार्यालय में पड़ा रहा करता था। कार्यालय की उपयोगिता के कारण ही मुख्यतः धीरे-धीरे अनुवाद एक अलग विद्या-शाखा के रूप में विकसित हुआ। भारत में दक्षिण के लगभग सभी विश्व- विद्यालयों में आज 30 वर्षों से भी अधिक का समय हो गया होगा कि अनुवाद-प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यह राज-भाषा केन्द्रित होने के कारण हिन्दी की इसमें बड़ी भूमिका रही और हिन्दी का महत्व बना रहा। इसका सीधा-सादा मतलब यह हुआ कि यह मान लिया गया कि अनुवाद की तकनीक का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। अनुवाद सीखा जा सकता है। उसके लिए विशेष कुल-गोत्र में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है। पर यह केवल राज-भाषा तक सीमित रहा। शायद इसीलिए आज तक कई लोगों को यह ख़ुश-फहमी है कि बिना प्रशिक्षण के भी अनुवाद किया जा सकता है। साहित्यिक अनुवाद अवश्य किया जा सकता होगा ; क्योंकि यह उन साहित्य-सत्ता-केन्द्री लोगों की मान्यता रही है जो या तो स्वयं सत्ता थे या सत्ता के लिए भय अथवा लोभ का कारण, इसीलिए आदरणीय थे। तभी अनुवाद के अवसर भी कुछ ही लोगों तक सीमित रहे।
तकनीक जब विकसित हो जाती है तो लाभार्थी कोई भी हो सकता है। अनुवाद प्रशिक्षण की विकसित हुई तकनीक का वास्तविक लाभ आज मिल रहा है और वह कोई भी उठा सकता है। यह भी कह सकते हैं कि आज उसका इतना व्यापक महत्व समझ में आ रहा है। प्रशिक्षण के द्वारा अनुवाद तकनीक के सामान्यीकरण के फलस्वरूप आज अनुवाद सीमित हाथों से निकल कर व्यापक लोगों के बीच फैला है।
कुछ और कारण भी इसके लिए ज़िम्मेदार रहे हैं। भाषा-केन्द्री सोच- जो संरचनावादी और उत्तर-संरचनावादी समय की देन है, परिधि के केन्द्र में आने की घटना, आर्थिक उदारीकरण, मीडिया-विस्फोट ने अनुवाद के केन्द्र में ज्ञान को स्थापित किया। परिणामतः अनुवाद खुद ज्ञान यानी सत्ता बन गया। अनुवाद- प्रशिक्षण के कारण यह बात सामने आई कि विभिन्न प्रकार के अनुवादों के लिए विभिन्न प्रकार के कौश की ज़रूरत पड़ती है। यह ज़रूरी नहीं है कि रचनात्मक कृतियों का अच्छा अनुवादक समाज-शास्त्रीय पाठ का भी अच्छा अनुवादक हो; या वह वैज्ञानिक पाठ का अच्छा अनुवाद कर सकता है। इतना ही नहीं, जो प्रकाशन माध्यम का अच्छा अनुवादक होता है वह अनिवार्य रूप से मल्टी-मीडिया के माध्यमों में भी सफलता प्राप्त कर सके। अनुवादक के लिए केवल स्रोत-पाठ के विषय का ही ज्ञान होना ज़रूरी नहीं है उस माध्यम की तकनीक की भी जानकारी आवश्यक है जिसके माध्यम से वह अनुवाद कर रहा है। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण और प्रयत्न आवश्यक है। अब वह ज़माना लद गया कि मोटर तो ख़रीद ली है परन्तु उसका मैकनिज़म नहीं आता। आप देखिए, हर प्रोडक्ट के साथ उसका साहित्य आता है।
अनुवादक मुख्य रूप से पाठ की भाषा और उसकी संरचना से रू-ब-रू होता है। यह अंग बात है कि वह उसका आधार मूल-पाठ ही होता है – पर अनुवाद करने की प्रक्रिया तो सर्जनात्मक ही है। जिस तरह रचना के केन्द्र में संप्रेषणीयता होती है उसी तरह अनुवाद के केन्द्र में भी संप्रेषणीयता होती है। जैसे एक रचनाकार अनिवार्यतः दूसरे तक पहुंचने के लिए लिखता है उसी तरह अनुवादक भी दूसरे तक पाठ को पहुंचाने के लिए अनुवाद कार्य करता है। पाठ के चुनाव में ही उसकी रचनात्मकता का बीज छिपा होता है। तमाम पाठों को छोड़ कर जब वह एक विशेष पाठ को चुनता है- यही इस बात का संकेत है कि अनुवाद एक रचनात्मक कार्य है। वह एक अलग भाषा(लक्ष्य भाषा) की संरचना, व्यवस्था और व्याकरण में प्रवेश करता है। यानी कि ह एक समाज से दूसरे समाज में प्रवेश करता है। उसे अर्थ को स्थानांतरित तो करना है, पर अब जब वह जान गया है कि शब्द अर्थ की दृष्टि से अनेक-अंतीय होते है, जब अनुवाद-कार्य भी एक अलग अस्तित्व प्राप्त कर चुका होता है। पहले सब तय, तर्क-बद्ध, निश्चित था, अब सब वैसा नहीं रहा; अनेक-अंतीय और प्रवहमान हो गया। देखिए न, पहले बाजा अलग था, बाँसुरी अलग थी, वीणा अलग थी; अब सब एक ही सिंथेसाईज़र में मौजूद हैं- एक भी हैं और अलग भी। पहले बैठक और शयन-कक्ष अलग थे, अलमारी और मेज़ अलग थे; पर अब अलमारी का दरवाज़ा मेज़ का काम करता है।
मूल-पाठ में जिस तरह अनेक-पाठीयता संभव है, वैसे ही अनूदित-कृति में भी अनेक-पाठीयता संभव है। पर इस अनेक- पाठीयता का कारण कमज़ोर या गलत अनुवाद न हो कर भाषा की अपनी प्रकृति है जिसे उत्तर-आधुनिक समय में पहचाना गया है। यानी अनुवादक को लगाम हीन स्वतंत्रता नहीं मिलती परन्तु वह मूल-पाठ का जो भी अर्थ करता है, उसके अनुसार अनुवाद करने की स्वतंत्रता अवश्य मिल सकती है। अतः एक ही कृति के अनेक अनुवादों का मूल्यांकन करते समय जब सही और गलत का निर्णय किया जाता है अथवा मूल के सर्वाधिक निकट का आग्रह रखा जाता है तब उत्तर-आधुनिक दृष्टि यह प्रश्न-चिह्न भी लगाती है कि मूल वास्तव में क्या है? इसका कौन निर्णय करेगा? इससे एक केओस (अफ़रातफ़री) भी निर्मित होने की संभावना है। अतः जैसे काव्यार्थ विवेचन के लिए सहृदय तथा तद्विद् की आवश्यकता होती है वैसे ही अनुवाद-मूल्यांकन के लिए भी तद्विद् की आवश्यकता होती है।
उदार अर्थ-नीति के कारण समय की गति भी तेज़ हो गई। स्पर्धा बढ़ गई है। अतः यह ज़रूरी नहीं रह गया है कि अपनी भाषा में ज्ञान का निर्माण किया जाए। उसकी अपेक्षा अनुवाद के द्वारा निर्मित ज्ञान का निर्माण अधिक सरल और तीव्र गति से संभव हुआ है। इस दौर में अनुवादक जितनी अधिक भाषाओं को जानता है वह उतने अधिक समाजों तथा उनके लोगों की जानकारी रखता है। आज जो जितनी अधिक जानकारी रखता है उसके पास उतनी अधिक सत्ता है।
हमारे रीति-कालीन आचार्यों ने जब संस्कृत काव्य-शास्त्र को ब्रज में प्रस्तुत किया तब असल में उन्होने काव्य-शास्त्रीय ज्ञान का निर्माण हिन्दी में किया जैसे भारतेन्दु ने संस्कृत नाट्य-शास्त्र का निर्माण खड़ी-बोली में किया। एक सजग और अच्छा अनुवादक आज यह अच्छी तरह जानता है कि विकसित राष्ट्रों में क्या हो रहा है। उसका यह ज्ञान उसके अपने देश के विकास के लिए केन्द्रीय महत्व का बन जाता है।
तभी राष्ट्रीय ज्ञान योग ने भी अपनी रिपोर्ट में पहले स्थान पर पुस्तकालयों को रखा है और दूसरे स्थान पर अनुवाद को जगह दी है। यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि अनुवाद के लिए आयोग ने 250 करोड़ रुपये आबंटित किए गए हैं। राष्ट्रीय अनुवाद आयोग ने मुख्य चार हेतु निर्दिष्ट किए हैं-
1-अनुवाद प्रशिक्षण, 2- सूचना प्रसारण, 3- अच्छे अनुवादों को प्रोत्साहित कर उसका प्रचार करना तथा 4- मशीनी अनुवाद को बढ़ावा देना।
सूचना-क्रांति और सूचना-प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप आज मशीनी अनुवाद सबसे अधिक संभावना तथा चुनौती वाला क्षेत्र है। हिन्दीतर भाषी क्षेत्र अनुवाद-कार्य के लिए सबसे अधिक उपजाऊ माने गए हौं पर साथ ही उन्हीं क्षेत्रों में हिन्दी भाषा को सही-सही रूप में विद्यार्थियों तक ले जाने की ज़िम्मेदारी भी है। अतः हमें अनुवाद प्रशिक्षण की दिशा में बढ़ने के लिए अपनी(हिन्दी) भाषा, व्याकरण, उसकी संरचना और उसके विभिन्न व्यवहारों के प्रति – यानी कि कुल मिला कर भाषा प्रशिक्षण के प्रति गंभीरता से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

सोमवार, 18 मई 2009

उत्तर-आधुनिक समाज और साहित्य
रंजना अरगड़े

"हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमें अपने जीते-जी इस समय में आना पड़ेगा। जीना पड़ेगा । ऐसा भी कोई समय आ सकता है, इसका हमें अंदाजा भी नहीं था ":शमशेर बहादुर सिंह-( बाबरी ध्वंस के बाद)


मैं अपनी बात का आरंभ एक संभावना युक्त प्रश्न से करना चाहती हूँ। क्या ओबामा के अमरीकी राष्ट्रपति के रूप में चुना जाना उत्तर-आधुनिक समय की समाप्ति का आरंभ माना जा सकता है? संभवतः हाँ! अपने समर्थकों की भारी भीड़ की उपस्थिति में अन्य बातों के साथ-साथ ओबामा अपनी छोटी बेटी से वादा करते हैं कि उसके लिए वे मन-पसंद कुत्ता अवश्य खरीद देंगे और दूसरे दिन अख़बारों में यह सकारात्मक चिंता प्रकट होती है कि ओबामा एक ऐसे कुत्ते की खोज में है कि छोटी बेटी से किया गया वादा भी पूरा हो और बड़ी बेटी को एलर्जी भी न हो। ओबामा की जीत में उनकी पत्नी, नानी और बहनों के योगदान का भी अख़बारों में जि़क्र था।
ऐसा पहली बार हुआ। समग्र उत्तर-आधुनिक दौर अ-श्वेत के अस्मिता-संघर्ष का और अ-श्वेत स्त्री-संघर्ष की गाथाओं से भरा पड़ा है। ओबामा का संघर्ष जहाँ एक ओर अनेक अ-श्वेत पीढ़ियों के संघर्ष की फल-प्राप्ति के रूप में देखा जा सकता है तो दूसरी तरफ़ स्वयं ओबामा के अपने पारिवारिक संघर्ष की अमरीकी समाज द्वारा स-हर्ष स्वीकृति के रूप में भी देखा जा सकता है। अ-श्वेत की बौद्धिक, सामाजिक एवं राजनैतिक स्वीकृति का यह एक ठोस उदाहरण माना जा सकता है। बैल हूक्स( मूल नाम ग्लोरिया जीन वॉटकिन्स, 1952(ज) ) का नाम एफ्रो-अमरीकी बौद्धिक के रूप में सन् 1980 के आसपास उभरा। उसने उत्तर-आधुनिक समय में अ-श्वेत स्थितियों का बौद्धिक आकलन किया। उसकी दृष्टि में उत्तर-आधुनिक अ-श्वेतपन अन्यता (अदरनैस) और अन्तर(डिफरंस) के बोध में देखा जा सकता है। उसका यह अपना अनुभव रहा कि कैसे सभाओं में जहाँ श्वेत लोगों की अधिकांश उपस्थिति होती है, अश्वेत की सोच और चिंतन क्षमता को हास्यास्पद ढंग से देखा जाता है। पर आज सन् 2008 में उसे लगभग समाप्त का आरंभ मानना चाहिए क्योंकि ओबामा के पक्ष में सभी जाति और नस्लो के लोगों ने अपना मत दिया। यह एक जादुई चित्र की तरह है – श्वेत बुश के स्थान पर अ-श्वेत ओबामा और अ-श्वेत राईस के स्थान पर श्वेत हिलैरी स्थानापन्न हो जाती है। लेकिन निश्चय ही यह एक रात का जीदू नहीं है। सन् 1960 से जिस उत्तर-सरंचनावादी दौर में हम आए हैं उसे हम सन् 1980 के बाद मोटे तौर पर उत्तर-आधुनिक समय के रूप में जानते हैं।
लेकिन क्या हमारा समाज उत्तर-आधुनिक है? यह प्रश्न हमें इसलिए होता है कि हमारी अपनी मायावती जब अपने जन्म-दिन पर केक काटती है या हीरे के गहने बनवाती है तो हमारे अख़बार उसे अश्लील (वल्गर) मानते हैं। पश्चिमी समाज जहाँ उत्तर-आधुनिक समाज की समाप्ति के कगार पर खड़ा है वहाँ हम संभवतः उत्तर-आधुनिक संघर्ष के बीच में हैं। अभी परिधि पर के लोगों को अस्मिता संघर्ष के लिए लड़ना आवश्यक है। अतः हमारे यहाँ का महिला या दलित लेखन इसके पहले कि अपनी अस्मिता को पूर्ण रूप से उजागर करें हम उसे हश-हश की मुद्रा में सब चुपचाप समेटना चाहते हैं। अभी तो डॉ. धर्मवीर प्रेमचंद को सामंत का मुंशी कह ही रहे हैं पर तभी दलित अस्मिता का स्त्री अस्मिता के साथ ऐसा ज़बरदस्त टकराव हो गया कि डॉ. धर्मवीर हमारे लिए अछूत हो गए ; हमारे लिए यानी सत्ता एवं विचारधारा-केन्द्री दलितों और सवर्णों के लिए। हम अभी इस उत्तर-आधुनिक स्थिति के आरंभ में ही हैं। हम अभी विचारधारा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
वैश्विक संदर्भ में अवश्य ही मनुष्य समाज उत्तर आधुनिक समाज बन गया है। इसे हम इस रूप में देख सकते हैं कि आज का मानव समाज जितना अधिक संचार क्रांति से जुड़ा है उतना इसके पहले कभी नहीं था। संप्रेषण के इतने अधिक संसाधन और मनुष्य-मनुष्य के बीच इतना अधिक दुराव, झूठ, संशय और अकेलापन इतना अधिक कभी नहीं देखा गया।
मनुष्य मात्र को समान मानने वाले संघर्ष, आंदोलन, कानून आदि इस उत्तर-आधुनिक दौर की विशेषता है। इसका बयान तथा इसके प्रति लोक-मत खड़ा करने की क्षमता जितनी इस युग में देख जा सकती है, इतनी इसके पहले कभी नहीं थी।
धर्म, भाषा, संस्कृति के प्रति नए सिरे से समाजों और देशों में रुचि जागती हुई देखी जा सकती है। लेकिन इनके पीछे रही राजनीतिक एवं बाज़ार-केन्द्री दृष्टि इसके पहले नहीं थी।
मुक्त-बाज़ार और संचार-क्रांति का लगभग हमारे यहाँ एक साथ आगमन हुआ। अतः 1980 के बाद का समय अपने पहले के समयों की तुलना में एक अलग रूप में हमारे सामने प्रकट हुआ। यह अलग बात है कि साहित्य में इन का प्रवेश कुछ बाद में होता है। इस समय के आरंभिक दौर में अवसर एक बड़ी बात थी। सीमित हाथों एवं संस्थाओं से निकल कर अवसर ज़्यादा हाथों में पहुँचे। केवल सेवा-भावी अथवा सरकारी तंत्रों से हट कर अवसर ग़ैर-सरकारी संस्थानों में भी पहुँचे। विदेशी पूंजी कई स्रोतों से बहते हुए भारत की भूमि को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आप्लावित करती रही। एक तरफ़ अपने ढाँचे में सब को समा लेने का अंतर्राष्ट्रीय उपक्रम तो दूसरी तरफ़ अपनी पहचान के लिए संघर्ष की भूमिका बनाते जाति एवं छोटे राष्ट्रों के समूह कार्यरत हुए। अपनी पहचान को अपनी जाति की पहचान से मिलाते अ-श्वेत, दलित एवं नारी वादी और अपनी पहचान को अपनी ज़मीन से जोड़ते उत्तराखंडी, झारखंडी, छत्तीसगढी – यह सब एक ही समय में घट रहा है। जिन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का निर्माण विश्व-शांति एवं विकास पर केन्द्रित था वे संस्थाएं बली राष्ट्रों की राजनीतिक उपयोगिता के लिए व्यापक सहमति बनाते हुए काम करने लगी। परिभाषाओं को अपने ढंग से व्याख्यायित करने का इतना अद्भुत अवसर इसके पहले कभी नहीं आया। शब्दों के अर्थ तो हमेशा ही बदलते रहे हैं, परन्तु इसके पूर्व सच-झूठ को कभी एक ही भूमिका पर परस्पर का वेष बदलते किसी ने नहीं देखा होगा। मानों यह वही दुनिया है , परन्तु यह कोई और ही दुनिया है इसकी प्रतीति इस समय की सबसे बड़ी विशेषता है।
जिन बातों का हमने उल्लेख किया है उनके कारण समाज में क्या परिवर्तन आए और समाज के किन मूल्यों में बदलाव आया यह जानना और हमारे साहित्य में इसका प्रतिबिंबन कैसे हुआ यह जानना रोचक होगा। इसके लिए संभवतः साहित्य में उत्तर-आधुनिक विमर्श की भूमिका को समझना समीचीन होगा। स्वतंत्रता बाद के हमारे सभी वादों और विमर्शों की तरह, उत्तर-आधुनिक विमर्श भी पश्चिम के प्रभाव से हमारे यहाँ आया। उत्तर-आधुनिक विमर्श में जिन नामों का विशेष उल्लेख होता है वे प्रायः 1925-1952 के बीच पैदा हुए हैं –
गिल्स डिल्यूज़ (1925-1995), फेलिक्स ग्वातारी(1930-1992), ज़्याँ बॉद्रिलार्द,(1929) फ्रेडरिक जेम्सन(1934), जेराल्ड विज़नर (1934) बार्बरा क्रिश्चीयन,(1943) डॉन्ना हारावे, (1944), बैल हूक्स,(1952) ज़्याँ फ्रेंकोई ल्योतार्द, आदि।
इन रचनाकारों को पढ़ते हुए उत्तर-आधुनिक समाज का एक मुकम्मल चित्र हमारे सामने स्पष्ट होता है। फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार – आधुनिक का जन्म अगर साम्राज्यवादी पूँजीवाद का परिणाम था तो उत्तर-आधुनिक समकालीन ग्राहक-केन्द्री पूँजीवाद की रूपगत विचारधारा से वि-लक्षित की जा सकती है। अर्थात् हम साम्रज्यवाद से चल कर अब ग्राहक केन्द्री हुए। यूं अब यह नई बात नहीं है कि उत्तर आधुनिक को सर्व प्रथम वास्तुकला के संदर्भों से पहचाना गया। यहाँ महत्व दिए हुए स्पेस में अतिरिक्त स्पेस-निर्मिति का है। सन् 1980 के बाद हमारे यहाँ भी ऐसे मकान बनाने का प्रचलन हुआ जिसमें एक ही मंज़िल में एकाधिक मंज़िलों का आभास उत्पन्न किया गया। उत्तर-आधुनिक समय आभासी स्पेस-निर्मिति के समय के रूप में भी जाना जा सकता है। इस आभासी स्पेस-निर्मिति का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह दौर परिधि पर रहते कई सारे समूहों के लड़ने और अपना स्थान बनाने का है। इन्हीं समूहों को हम स्त्री, दलित, अश्वेत, जन-जातीय, ग्रे, लेस्बीयन आदि के नाम से पहचानते हैं।
ज़्याँ फ़्रेंकोई लियोतार्द उत्तर आधुनिक तथा आधुनिक के बीच अंत को तीन बिन्दुओं के जरिए अलगाते हैं। वे यूक्लीडियन मिथ को तोड़ कर नए आकारों की निर्मिति संभव बनाते हैं। यूक्लीडियन भूमिति में स्पेस को दो अथवा तीन आयामी माना गया है। जबकि फ़्रेंकोई लियोतार्द उत्तर-आधुनिक समाज में अनेक आयामी वास्तविकताओं का स्वीकार है। यहाँ मुझे एक बात जोड़नी चाहिए कि उत्तर-आधुनिक स्थितियों में हम केवल का, समाज-व्यवस्था, फ़िल्म, राजनीति, मीडिया या साहित्य तक ही सीमित न रहें, बल्कि इसमें विज्ञान को भी शामिल करना चाहिए क्योंकि उत्तर-आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि भी इसे स्वीकारती है। भौतिक-शास्त्र की चर्चित स्ट्रिंग-थियोरी भी उत्तर-आधुनिक है और वह भी बहु-अंतीय यथार्थ का समर्थन करती है। इसी String Theory के कारण विज्ञान-जगत में एक हलचल-सी मच गई थी।
इसी संदर्भ में यहाँ डॉन हारावे का विशेष उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि वह मूलतः विज्ञान की विद्यार्थिनी थीं; फिर उन्होंने भाषा और साहित्य का अध्ययन किया एवं जीव-विज्ञान तथा साहित्य का अन्तर्विद्याकीय विमर्श प्रस्तुत करने की कोशिश की। यों उत्तर-आधुनिक विमर्श अन्तर्विद्याकीय विमर्श बन जाता है। इस बात को आप इधर पाठ्यक्रमों की पहल में भी देख सकते हैं।
उत्तर-आधुनिक विमर्श को वास्तुकला के साथ-साथ समाज की विकास संबंधी अवधारणा के साथ भी देखने का प्रयत्न किया है। पिछली दो शताब्दियों से प्रचलित विकास की यह अवधारणा – कि- कला, तकनीक, ज्ञान और मुक्ति समग्र मानवता का विकास करेगी- का क्षरण हुआ। यह आधुनिकता की परियोजना थी। देखा यह गया कि विश्व-युद्ध, आर्थिक एवं राजनीतिक मुक्ति-गाथाएँ, विभिन्न प्रकार के मार्क्सवादी विचार- किसी के भी द्वारा समग्र मानवता का विकास नहीं हुआ। असल में आधुनिकता ने समग्र मानव-जाति को दो भागों में बाँट दिया। एक मानव-समाज वह था जो जटिलताओं की चुनौती से टकराता रहा और दूसरा वह जो जीवित रहने की आदिम स्थिति से जूझता रहा।
आधुनिकता में आँवागार्द की बड़ी महिमा थी। आँवागार्द- जो परंपरा, प्रचलन और स्वीकृति को नकारता हुआ-सा एकदम अलग नेतृत्व करता दिखाई पड़ता था। लियोतार्द ने इसी को तीसरा बिन्दु बताते हुए कहा है कि अब आँवागार्द मज़ाक़ और ठिठोली का विषय है। अब कोई आँवागार्द नहीं बनना चाहता। यह भूतकाल है। अब उत्तर-आधुनिक दौर में समूह का नेतृत्व है। फिर चाहे वे अ-श्वेत के हों, दलित के हों, ग्रे-लेस्बीयन के हों या स्त्रियों के हों। इसी बात को हम अपने यहाँ भी देख सकते हैं। हमारी ही मिली-जुली सरकार 1979 में आई थी। उसके बाद संभवतः एकाध अपवाद को छोड़ कर, एक पार्टी सरकार हमें आज तक नहीं मिली है।
उत्तर-आधुनिक समाज मुख्यतः अनुपस्थिति को दर्ज करता समाज है। जो अब तक अनुपस्थित था वह इस दौर में उपस्थित होने की प्रक्रिया में है। यह अंग बात है कि इस उपस्थित होने की प्रक्रिया में वह कई बार अपनी मुक्ति/स्वतंत्रता और व्यक्तिगत पहचान को खो देता है। पर जैसा हमने देखा कि कहीं-न-कहीं उत्तर-आधुनिक व्यक्तिगत पहचान को महत्वपूर्ण इस अर्थ में नहीं मानता कि यह विभिन्न समूहों के अधिकारों की, पहचान की लड़ाई एवं संघर्ष का समय है। बहरहाल। जेराल्ड विज़नर ने अपनी पुस्तक मैनीफैस्ट मैनर में सभ्य समाज में ज-जातीय अनुपस्थिति को प्रभावी ढंग से रेखांकित किया है। राष्ट्रीयता के नाम पर तमाम संस्कृतियां होम हों गई। इस उत्तर-आधुनिक दौर में इतिहास को देखने की दृष्टि भी परिवर्तित हो गई है। अब इतिहास को आधिपत्य की आभासी प्रतीतियों के रूप में देखा जा सकता है। इन आभासी प्रतीतियों में से एक है- जन-जातीय की उपस्थिति। अर्थात् अब हम इतिहास को एस तरह देखते हैं अथवा देख सकते हैं कि किस के कारण कौन अनुपस्थित हुआ। यानी कि हम कह सकते हैं कि अँग्रेज़ आधिपत्य के कारण भारतीय अनुपस्थित हुआ; पुरुष-वर्चस्व के कारण स्त्री अनुपस्थित रही; सवर्ण के वर्चस्व के कारण दलित अनुपस्थित रहा; राजनीतिक आधिपत्य के कारण जनता अनुपस्थित रही आदि आदि। इसी अनुपस्थिति से लड़ने के लिए उत्तर-आधुनिक समाज में छोटे-छोटे समान सामाजिक अथवा राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक अथवा बॉयोलॉजिकल समूह सक्रिय हुए हैं। इन्हें हम परिधि के लोग कहते हैं। उत्तर-आधुनिक समय इन्हीं की अभिव्यक्तियों का समय है।
यहाँ एक बात की और ध्यान दिलाना आवश्यक है कि उत्तर-आधुनिक समय अगर राजनैतिक एवं सामाजिक लघुमतियों की अभिव्यक्तियों का दौर है तो उसे समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि इस दौर की ये अभिव्यक्तियां अपने पूर्ववर्ती दौर से कैसे अलग थीं? डिल्यूज़ और ग्वात्तारी का कहना है कि काफ़्का ने सत्ता की भाषा में अपनी यहूदी लघुमति संस्कृति को चाहे अपनी कृतियों में प्रकट किया; पर इतना काफ़ी नहीं है। क्योंकि वह असल में सत्ता की ही भाषा में सत्ता की ही सोच को लघुमति संस्कृति से मिला कर लघुमति का साहित्य निर्मित करता है। डिल्यूज़ और ग्वात्तारी के अनुसार यहूदी होना ही काफ़ी नहीं है; यहूदी बना और बने रहना ज़रूरी है। इस परिप्रेक्ष्य में म हिन्दी समीक्षा की इस पहेली को संभवतः सुलझा सकते हैं कि दलित साहित्य और नारी साहित्य की परिभाषा में कौन-सा साहित्य शामिल किया जा सकता है। दलित या स्त्री होना काफ़ी नहीं है; वैसा होना, बनना और बने रहना ज़रूरी है। अगर हम दलित हैं, बनते हैं और बने रहते हैं तब हमारी संवेदना उत्तर-आधुनिक संवेदना मानी जा सकती है। प्रेमचंद के कथा-साहित्य के दलित और मनोहर श्याम जोशी के 'क्याप' का दलित इस मायने में अलग है। अमृत लाल नागर की निर्गुण को इस संदर्भ में देख सकते हैं। वह थी नहीं, पर बनी और बने रहने की उसने कोशिश भी की। पर यहाँ प्रश्न यह भी है कि प्रेमचंद या मनोहर श्याम जोशी या अमृत लाल नागर का दलित या जगदीश चंद्र का धरती धन न अपना का काली, ओम्प्रकाश वाल्मीक के दलित से क्या भिन्न नहीं होगा? उसी तरह डॉ हजारीप्रसाद का कबीर क्या डॉ. धर्मवीर के कबीर से अलग होगा?
अगर हम कुछ देर के लिए लौट कर ओबामा पर आएं, तो अब साहित्य के क्षेत्र में भी यह समझने का वक़्त आ गया है कि डॉ. धर्मवीर का कबीर जब तक सर्व-स्वीकृत कबीर नहीं बनता तब तक यहाँ उत्तर आधुनिक संघर्ष का आरंभिक काल ही बना रहेगा। यहाँ अभी उत्तर-आधुनिक की समाप्ति के आरंभ में देर है। हम असल में आज भी कई सारी शताब्दियों में एक साथ जीने वाले देश के लोग हैं।
काम के विषय में तथा काम-जन्य संबंधों के संदर्भों में डिल्यूज़ और ग्वात्तारी का कहना है कि लोगों की दृष्टि में हम काम के विजातीय वर्ग में चाहे आते हों, पर संभव है कि निजी तौर पर हम सजातीय हों और हो सकता है कि अंत में हम ट्रांस् -सैक्श्युलिटी की दिशा में जाएं। मनुष्य के अस्तित्व को लेकर रही इस मूल भावना के संबंध में उत्तर-आधुनिक समाज अपने पूर्ववर्ती समाज से काफी भिन्न है। यह वही समय है जब विश्व-भर में गे, लैस्बीयन एवं ट्रांस्सैक्श्युअल समाजों ने अपनी स्वीकृति तथा सामाजिक एवं राजनैतिक अधिकारों को ले कर संघर्ष किया था।
[i] भारत में भी इसका प्रभाव देखा गया। हिन्दी साहित्य में भी इसके कुछ उदाहरण मिल जाएंगे। राजकमल चौधरी का ‘मछली मरी हुई’ इसके आरंभिक उदाहरणों में गिना जा सकता है। आज अनेक फिल्मों में इस कथ्य को आ देख सकते हैं। इसकी संवेदना पूर्ण शुरुआत आप कुँवारा बाप में देख सकते हैं। आज फिल्मों में पुरुष चरित्रों द्वारा स्त्री वेष धारण करना आम बात हो गई है। पहले स्त्री की अनुपस्थिति के कारण नाटकों, लोक-नाट्यों में पुरुष, स्त्री किरदार निभाते थे। आज कहानी या प्लॉट के एक भाग के रूप में चाची 420 जैसी फिल्मों में यह बात एक नए अर्थ में देखी जा सकती है। डिल्यूज़ और ग्वात्तारी पश्चिमी समाज की वंश-वृक्ष की परिकल्पना को सिरे से नकारते हैं, क्योंकि उसमें स्त्री की उपस्थिति नहीं है। इसके स्थान पर वे ‘रिझोमेटिक चिंतन’ की दिशा में जाते है, जहाँ स्त्री का भी समावेश होता है - चाहे वह नैतिक/वैध संबंधों के कारण अथवा अनैतिक संबंधों के कारण परिवार से जुड़ती है। रिझोमेटिक –एक ऐसी वानस्पतिक परिकल्पना है, जिसका कोई निश्चित केन्द्र नहीं है और जिसके अनेक सिरे हो सकते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि आज इसी समाज में वेश्या, कॉल-गर्ल, रखेल से अलग लिव-इन संबंधों की स्त्री भी मौजूद है; जो न पत्नी है, न ही प्रियतमा। आज उसके भी वैध अधिकारों की बात उठ रही है। ‘रिझोमेटिक चिंतन’ यानी है की अपेक्षा ‘होना’ और ‘होते जाना’।
उत्तर-आधुनिक साहित्य में अर्थ को महत्व नहीं देते अपितु रचनाकारों को पढ़ते हुए वे उन बिंदुओं को खोजने की कोशिश करते हैं जहाँ रचनाकार सत्ता की संस्कृति से अपने को अलगाते हैं। यहीं से संभवतः एक अन्तर-पाठीयता का प्रवेश होता है। एक पाठ में दूसरा पाठ पढ़ना। परंपरागत पुरुष-पाठीय साहित्य में स्त्री-पाठीय शोषण और अधिकारों के बिंदु देखना। यही उत्तर-आधुनिक साहित्य दृष्टि है।
आज साहित्य के पाठ में मीडिया का अपना पाठ है। एक और जहाँ प्रेमचंद की ईदगाह कहानी में विज्ञापन का पाठ एक सकारात्मक पक्ष है वहीं महाभारत की द्रौपदी के अपमान प्रसंग को ऊनी कपड़ों के विज्ञापन में इस्तेमाल करना, साहित्य का विकृत मीडिया पाठ है। बहरहाल, हिन्दी में उस दीवार में एक खिड़की रहती थी (विनोद कुमार शुक्ल), कसप, क्याप (मनोहर श्याम जोशी), एक ब्रेक के बाद (अलका सरावगी का) हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक उदाहरण हैं। उत्तर-आधुनिक तक आते-आते हम यथार्थ की नई भूमि पर आ गए हैं। आदर्शवादी यथार्थ से चलते हुए प्राकृत यथार्थवाद, ऐतिहासिक यथार्थवाद, भौतिक यथार्थवाद, अति-यथार्थवाद और अब वर्च्युएल यथार्थवाद। आभासी यथार्थवाद का यह उत्तर-आधुनिक समाज, जीवन का वास्तव बन चुका है। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है और कोई चुनाव भी नहीं है; क्योंकि हम इस उत्तर-आधुनक समय में हैं, और हैं ही।

[i] यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है कि समाज के इन लोगों के वर्ग पहचाने गए। आधुनिक काल तक ये सब अकेले, अलग-थलग पड़े रहते थे। आधुनिक काल में जहाँ स्थापित समाज के सदस्य आँवागार्द बन कर अलग दिखने का प्रयत्न कर रहे थे, वहीं उत्तर-आधुनिक समय में उपेक्षित अ-पहचाने ये अलग-थलग पड़े लोग समूह बना कर अपनी पहचान स्थापित करने में लगे थे।

शुक्रवार, 15 मई 2009

स्वाधीनता और साहित्य

स्वाधीनता और साहित्य
डॉ. रंजना अरगडे
(पराधीन मृतवत् होते हौं और उन्हें सपने में भी सुख नसीब नहीं हो सकता।)
स्वाधीनता और साहित्य विषय पर काम करते हुए मुझे सर्वप्रथम पराधीनता संबंधी विवेचन ही मिला। तो मुझे यह लगा कि कहीं आचार्य भरत की तरह तो नहीं, कि जो दोष नहीं वह गुण है, तो जो पराधीन नहीं वह स्वाधीन है! असल में शब्द-प्रयोग के संदर्भ में हम दिन-प्रति-दिन ग़ैर-ज़िम्मेदार होते जा रहे हैं। साहित्य के संदर्भ में स्वाधीनता की चर्चा में सहज ही सबसे पहले स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में लिखी गई रचनाओं का विचार ही आता है। इस आलेख में मैंने स्वाधीनता के मुद्दे को संकल्पनात्मक स्तर पर समझने और देखने की कोशिश की है।
इस संकल्पना पर सोचते हुए मेरे सामने तीन शब्द उजागर हुए। स्वाधीनता, स्वतंत्रता और मुक्ति।
[1] स्वतंत्रता में जहाँ निजी तंत्र तथा निजी प्रबंधन का बोध है, वहाँ स्वाधीनता में, तंत्र तथा प्रबंधन से हट कर, अपने अधीन होने का बोध है। मुक्ति बंधन की शर्त पर आधारित है। अगर आप बँधे हैं, तभी मुक्ति संभव है। लेकिन स्वाधीनता और स्वतंत्रता में ऐसी कोई पूर्व-शर्त नहीं है। स्वतंत्र होने पर भी हम स्वाधीन हों, यह ज़रूरी नहीं है। स्वतंत्र शासन में भी हम पराधीन तो हो ही सकते हैं। पर स्वतंत्र शासन में पराधीन होते हुए भी क्या हम मुक्त हो सकते हैं? संभवतः हाँ; क्योंकि स्वतंत्र शासन में पराधीन होते हुए भी सामाजिक और जागतिक संबंधों से/में मुक्ति का बोध एवं स्थिति संभव है। साहित्य अथवा कला की दुनिया एक ऐसी दुनिया है जहाँ शासन चाहे स्व-तंत्र या पर- तंत्र हो, व्यक्ति चाहे पराधीन ही क्यों न हो, वह मुक्ति का बोध तो प्राप्त कर ही सकता है।
सही अर्थों में स्वाधीनता ही साहित्य-सृजन को संभव बनाती है। एक स्वाधीन-मना लेखक के द्वारा लिखा हुआ साहित्य प्रवाह में बहती साहित्यिक गतिविधि से अलग ही दृष्टिगोचर हो जाता है। ऐसा लेखक क्या करता है? – वह अपने चारों तरफ की फ्रेम्स को, तय शुदा ढाँचों को तोड़ता है; सामाजिक रूढ़ियों की, भाषा, स्वरूप और शैली की। उसे अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने के लिए उपेक्षा, अपमान भी सहन करने पड़ते हैं, मरना भी पड़ता है। ऐसा करते हुए जो लेखक एक परतंत्र समाज में रहता है उसका संघर्ष स्वतंत्र समाज में रहने वाले लेखक से अधिक हो सकता है; पर स्वतंत्र समाज में रहने वाले लेखक का, स्वाधीनता के लिए किया गया संघर्ष भी कम नहीं होता। लेखक कई बार जाति-गत दबावों के अधीन हो जाता है तो कई बार विचारधाराओं के अधीन हो जाता है। हम अपने साहित्येतिहास पर दृष्टि डालें तो मध्य-काल की पूर्व-भूमिका के रूप में हमें धार्मिक साहित्य मिलता है। मैं नहीं जानती कि यह कहना कहाँ तक उचित होगा कि इसके अन्तर्गत जिन रचनाकारों ने लिखा वे पराधीन थे। इस पर विचार की आवश्यकता है। जैन या बौद्ध साहित्य की जिस कृति में नायक या नायिका के दीक्षा ले लेने के उपरांत कृति संपन्न हो जाती है, वहाँ यह कहना संभवतः उचित होगा कि लेखक स्वाधीन नहीं है; क्योंकि वह एक तय (धार्मिक) पद्धति में बंधा है। इसमें अपवाद भी हो सकते हैं। कवि जब किसी धर्म को स्वीकार कर लेता है तो उसका फ़्रेम-वर्क भी स्वीकार कर लेता है। हमारे यहाँ धार्मिक कविता और भक्ति कविता के अंतर को इस तरह समझा जा सकता है कि एक( भक्ति)में हमारे चारों तरफ़ दृश्य बना होता है या सतत बन रहा होता है, हम खुद उसका हिस्सा होते हैं; जबकि दूसरे( धार्मिक) में हम किसी चित्र में प्रवेश करते हैं और उसके ढाँचे में अपने को समाहित करते हैं। इस तरह धार्मिक कविता आपको एक तय ढाँचे के भीतर बाँधती है और भक्ति कविता ढाँचे के बाहर भी सोचने देती है, आपको मुक्त रखती है।
मध्य-काल के पूर्वार्ध में भक्ति साहित्य आता है। चाहे सूर का पुष्टि मार्ग हो या तुलसी-जायसी की अपनी दार्शनिक भूमिका- हमें कहीं ऐसा लिखा हुआ नहीं मिलता कि वे इस पथ पर किसी आग्रह के कारण ज़बरन चले थे। वे स्वाधीन थे। अगर कोई फ़्रेम-वर्क था, तो वह भक्ति का था- उसके चारों और बनती-घुलती एक बाह्य-रेखा का। लेकिन इस रेखा के बाहर भी वे स्वाधीन तो थे ही।
मीरा बाह्य रेखाओं के तमाम फ़्रेम-वर्क को तोड़ती है। वह सामाजिक बंधन में थी तो उसे तोड़ते हुए मुक्ति की तरफ़ जाती है। राज-तंत्र से स्व-तंत्र होती है। तत्कालीन किसी भी धार्मिक फ़्रेम-वर्क के भीतर रचना करती हुई नहीं दिखती। वह न कविताई के फ़्रेम-वर्क में है, न भक्ति के बाह्य-रेखा वाले फ़्रेम-वर्क में। वह न समाज-सुधार की हिमायत करती है न किसी अन्य धार्मिक मतवाद का विरोध या समर्थन ही। वह केवल अपनी बात अपने ढंग से कहती है। इस तरह पूरे मध्य-काल में वह एक अकेली आवाज़ है – जो सही अर्थों में स्वाधीन है। हम आज द्वारिका में हैं, हमें यह याद है कि मीरा जीवन के अंत-काल में यहाँ आई थीं। पर हमें यह भी समझना चाहिए कि यह स्वाधीन-बुद्धि से लिया गया उसका अपना निर्णय था। वृंदावन में जीव-गोस्वामी वाले प्रसंग के बाद वह वापस अपने घर न जा कर यहाँ आती है। अपनी सामाजिक और राजकीय बंदिशों से मुक्ति पाने के लिए उसने यहाँ आना अधिक श्रेयस्कर समझा। हम कह सकते हैं कि मीरा वह पहली कवयित्री है जो पॉलिटिकल एसायलम(Political Asylum) लेती है; वह भी गुजरात में! इस से एक बात तो रेखांकित होती ही है कि लेखक की स्वाधीनता में बाधा पहुंचाने में राज्य की अर्थात् राजनैतिक सिस्टम की भूमिका भी होती है।
यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगी कि राज्य की अथवा राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए जब रचनाकार लिखता है तब वह व्यापक उद्देश्य के लिए लिख रहा होता है। पर उसकी अपनी स्वाधीनता का संबंध वैचारिक स्वाधीनता के साथ-साथ कला एवं अभिव्यक्ति-पद्धति से भी जुड़ा होता है। जैसे शमशेर जी की कविताओं को अगर आप देखें तो वे एक ही समय में देश-भक्ति एवं निजी संवेदनाओं की कविता लिख रहे थे।
[2] कई बार रचनाकार राज्याश्रय से मुक्ति पा लेता है, पर काव्य-रीति से नहीं- जैसे घनानंद। यहाँ यह एक रोचक मुद्दा बनता है कि स्वाधीनता (का भाव) लेखक को साहित्य की नई अभिव्यक्ति एवं नए कला-रूपों की और ले जाती है।
स्वतंत्रता, अर्थात् किसी राजनीतिक तंत्र से मुक्ति के अर्थ में 1947 के पूर्व की रचानाओं को एक तरह से हम पॉलिटिकल रचनाओं का हिस्सा मान सकते हैं। साथ ही उस समय सामाजिक बंधनों की रूढि़यों से मुक्ति की रचनाएँ भी लिखी गईं।
स्वतंत्रता का यही भाव आधुनिकता के संदर्भ में व्यक्ति के साथ जुड़ जाता है।
अज्ञेय की कविताएँ व्यक्ति-स्वातंत्र्य की कविताएँ इस अर्थ में हैं कि भीड़ और समाज के बीच व्यक्ति की अपनी हस्ति को वे रेखांकित करती हैं। अज्ञेय में स्वाधीनता का भाव इतना सघन था कि आगे चल कर वे एक तरह की कलात्मक या रचनात्मक आध्यात्मिकता और फिर भारतीयता की ओर मुड़ते हैं। ठीक यही स्थिति बाद में हमें निर्मल वर्मा में दिखाई पड़ती है। अज्ञेय व्यक्ति-स्वातंत्र्य से लेखकीय स्वाधीनता की तरफ़ जाते हैं और निर्मल विचारधारात्मक बंधन से मुक्ति की तरफ़ जा कर लेखकीय स्वाधीनता में विराम पाते हैं।
असल में विचारधारात्मक स्वतंत्रता के चुनाव पर जब भी राजनीतिक दबाव पड़ता है, तब विचारधारा बंधन में परिणमित हो जाती है। अभी समय इतना नहीं बीता है कि कोई मूल्यांकन किया जा सके, अतः कोई निर्णय देना ठीक नहीं है। पर यह एक गंभीर सोच का मुद्दा है कि विचारधारा अपनी दार्शनिक एवं वैचारिक भूमिका पर जब लेखक को प्रभावित करती है तब वह ऑक्सीजन का काम करती है, पर जब उस पर राजनैतिक पार्टी का दबाव पड़ता है तब स्वाधीन-मना लेखक ठीक दूसरे सिरे पर निकलते हुए दिखाई देते हैं।
उत्तर-आधुनिक समय तक आते-आते विशिष्ट समूहों की स्वतंत्रता और मुक्ति प्रमुख हो जाती है। इसका संबंध विशुद्ध राजनैतिक अधिकार एवं अस्तित्व से जुड़ा है, अतः यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ एक समूह-विशेष का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष-रत होने से जुड़ा हुआ हम देखते हैं। यहाँ तक आते-आते परिधि पर के सारे समूह राजनैतिक अधिकारों को प्राप्त करने की प्रक्रिया में बंधन से मुक्ति की तरफ़ जाते भी दिखाई पड़ते हैं। यहाँ राजनैतिक हथियार से सामाजिक मुक्ति को प्राप्त करने का उपक्रम है। पूर्व-स्वातंत्र्य-काल में साहित्यिक एवं कला तथा विचार-गत हथियार से राजनैतिक स्वतंत्रता का संघर्ष संपन्न हुआ। अतः आधुनिक साहित्य जहाँ भद्र-वर्ग की स्वाधीनता का साहित्य है, वहीं उत्तर-आधुनिक साहित्य जन-समूह की सामाजिक मुक्ति एवं राजनैतिक अधिकार का साहित्य है। यहाँ स्वाधीनता नहीं है, क्योंकि व्यक्ति-स्वातंत्र्य नहीं है। समूह के साथ रहने की अनिवार्यता है। दलित/ नारी-वादी रचनाकार राजनैतिक रूप से स्वतंत्र एवं सामाजिक रूप से मुक्त भी होंगे; पर वे स्वाधीन हों यह ज़रूरी नहीं है।
विचारधारा और विमर्श का साहित्य अगर मूल दार्शनिक विचार से प्रभावित नहीं है तो प्रश्न हो सकता है कि उसका रचयिता कितना स्वाधीन-मना है। पर स्वाधीन-मना रचनाकार जब विचारधाराओं को आत्मसात करता है, तब वह काल से होड़ लेता हुआ साहित्य रचने की क्षमता रखता है। विभिन्न दार्शनिक प्रभावों से युक्त हमारे भारतीय आचार्य और विचारधारात्मक प्रतिबद्धता से हट कर लिखने वाले पश्चिमी विचारकों के सिद्धांत आज भी इसीलिए महदांश में ग्राह्य हैं क्योंकि वे उन आचार्यों एवं चिंतकों की स्वाधीन बुद्धि की उपज है।
तुलसी दास निश्चय ही वर्णाश्रम धर्म के समर्थक साहित्यकार हैं- पर फिर भी उनके लेखन में लेखकीय स्वाधीनता के उदाहरण मिल जाएंगे। एक मार्मिक उदाहरण उमा-शिव के विवाह के बाद का है। हिमालय और मैना जामाता शिव से वह सब कुछ कहते हैं जो एक लड़की के माता-पिता को कहना चाहिए। मैना यहाँ तक कह देती है कि मेरी बेटी को दासी बना कर रखना और उसके समस्त अपराध क्षमा करना क्योंकि हमने उसे बड़े प्यार से पाला है और वह हमें अत्यन्त प्रिय है। फिर मैना अपनी बेटी उमा से पति को ही सर्वस्व मानने का उपदेश भी देती है। यहाँ तक सब वैसा ही है जैसा कि आम तौर पर होता है। पर फिर तुलसी दास की उक्ति देखिए- का विधि रचि नारी जग माहिं/ पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं । यह उन तमाम सामाजिक रीति-रिवाजों एवं आप्त कर्तव्यों के बीच कही गई उक्ति है जो तुलसीदास की स्वाधीन सोच को दर्शाती है। व्यक्ति पराधीन तभी होता है जब वह अपने जीवन-यापन पर अन्य पर अवलंबित होता है। ऐसे लोगों को हितोपदेश में मृतवत् कहा गया है।
इसका अर्थ यह हुआ कि स्वाधीनता के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति को जीवन-यापन के लिए अपने संसाधन निर्मित करने चाहिए। अगर वह बंधा है तो स्वाधीनता के लिए अपमान उपेक्षा को सहने के लिए उसे तैयार होना चाहिए। सरकारी नौकरी करते हुए जो लिखते हैं- उन्हें इस प्रकार का अनुभव होगा। स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्राण भी देने पड़ते हैं और आप तब न शहीद की सूची में होते हैं न शोषित की- अधिक-से अधिक अ-व्यवहारिक एवं मूर्ख ही कहलाएंगे! इस उपाधि को ग्रहण करने की भी तैयारी रखनी पड़ेगी। विचारधारा या धर्म जब तक दृष्टि देता है, साहित्य स्वाधीन होता है। पर जैसे ही वहाँ दबाव या लोभ का प्रवेश होता है, वह बंधन का साहित्य हो जाता है।
तो इसका अर्थ यह होता है कि जो लेखक जीवन-यापन में स्वाधीन हो, किसी तंत्र पर अवलंबित न हो, किसी विचारधारा के दबाव में न हो वही स्वाधीन साहित्य का रचयिता हो सकता है। ऐसे रचनाकारों की गिनती किसी भी साहित्य में कम ही होती है।
जैसा कि मैंने पहले कहा मीरा का साहित्य स्वाधीनता का दस्तावेज़ है। वह किसी नए बने-बनाए ढाँचे (फ़्रेम-वर्क) को आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ती नहीं है। क्योंकि मीरा गाती भी है और नाचती भी है। यह स्वाधीनता जिसमें न जीवन-यापन का बंधन ह, न धर्म और भक्ति के ढाँचों की परतंत्रता। भीतर की उद्दामता के साथ फूट कर निकला हुआ भाव व्यक्ति का अपना अनुभूत और अर्जित होता है। कबीर में जीवन-यापन की स्वाधीनता है, अतः कहीं से कहीं का दबाव नहीं है। इसको भी डांटा, उसको भी फटकारा। जाति संबंधी हीनता-भाव नहीं है- जो तत्कालीन समय और समाज उन्हें देता है। यह एक ज्ञात तथ्य है कि कबीर तक आते-आते भक्ति भद्र-वर्ग की बपौती नहीं रही थी – चाहे धर्म भद्र-वर्ग के अधिकार में था। लेकिन कबीर के हाथ में स्वाधीनता का दंड था !
निराला का साहित्य, स्वाधीनता के पीड़ा-दायक मगर ओज-पूर्ण संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है। उसके परिपाक का दस्तावेज-रूप है ‘सरोज-स्मृति’। निराला लगातार अभिव्यक्ति और शैली की नई राहें खोजते रहे। वे परतंत्रता और स्वतंत्रता दोनों ही स्थितियों में स्वाधीन थे, वे सामाजिक रूढ़ियों से भी मुक्त थे- उनका कथा-साहित्य इसका उदाहरण है। महादेवी आत्म-समीक्षा और आत्म-मूल्यांकन करते हुए साहित्य के रंगमंच पर पहली बार रक्त-मज्जा-त्वचा वाले स्व-मानी चरित्रों को उपस्थित करती है। किसी आवरण या वेष में नहीं। यह कहना पड़ेगा कि महादेवी में आकर स्वाधीनता का ज़मीनी विस्तार ठोस आकार ग्रहण करता है, और सांस भी लेता है। साहित्य में विचारधारा का प्रभाव हो, फिर भी स्वाधीनता अ-प्रभावित रहे – यह सरल नहीं है। लेकिन जब ऐसा होता है तब महादेवी का साहित्य मिलता है ; पर जब विचारधारा राजनैतिक दबाव बन जाती है तब श्रीकान्त वर्मा (जैसों) का साहित्य निर्मित होता है।
मुक्तिबोध में भी निराला की तरह ही स्वाधीनता का संघर्ष पीड़ा-दायक है। निराला में उसका परिपाक अगर सरोज-स्मृति है तो मुक्तिबोध में वह ब्रह्मराक्षस में तथा अँधेरे में के रक्त-स्नात पुरुष में देखा जा सकता है। आत्म-चेतस् की खोज में धमनियों तक को उधेड़ कर रख देना – अपने भीतर तक ऐसा द्वंद्व बहुत ही पीड़ा दायक और कष्टकर है।
पर स्वाधीनता यही मूल्य लेती है साहित्य और साहित्यकार से।
अज्ञेय के साहित्य में स्वाधीनता एक भद्र-वर्गीय डिप्लोमैसी के साथ आती है। वे नए ढाँचे बनाते हैं और नया अवकाश निर्मित करते हैं। जबकि शमशेर और निर्मल में वह, विचारधारा के दबाव से मुक्त होती हुई, एक रचनाकार की स्वाधीनता बन कर आती है। शमशेर अपने अंतिम समय में वेदों की तरफ़ मुड़ते दिखते हैं। उनके लिए साहित्य और स्वाधीनता खुद एक मूल्य है। साहित्य अपनी मूल्यवत्ता में सत्ता बनता है, तो अलग बात है। पर ये अज्ञेय की तरह आने वाली पीढ़ी के लिए साहित्य का कोई तय ढाँचा (फ़्रेम-वर्क )या बनाया हुआ अवकाश नहीं छोड़ते।
यहाँ आज अपनी बात मैं शूद्रक के मृच्छकटिकम् को याद कर के समाप्त करूंगी। मार्क्सवाद में डी-क्लास होने की बात आती है। इस नाटक में हम देखते हैं कि शूद्रक अपने शासकत्व से डी-क्लास हो कर अपनी स्वाधीनता का कैसा अद्भुत परिचय देता है। स्वयं राजा होते हुए भी शूद्रक अपने नाटक में यह प्रतिपादित करता है कि अत्याचारी राजा के विरुद्ध वेश्या, जुआरी, चोर, दासी, सामान्य जन- सभी विद्रोह करेंगे। शकार जैसे सत्ता-पक्ष के निंदनीय स्वजनों का कच्चा चिट्ठा खोल कर उसे हँसी का पात्र बताता है। वहीं परिस्थिति-जन्य दरिद्रता अपनी मूल्य-धर्मिता के कारण समाज में आदर पाती है। और प्रेम भी!
साहित्य चाहे राजा लिखे या संत अपनी सुबह को शाम से मिलाता रचनाकार लिखे या संपन्नता से संलग्न फ्री-लांसर, पर जिन में स्वाधीनता के गहरे हल्के रंग दिखाई देते हैं, उन का साहित्य मनुष्य को ऊँचाईयों की ओर ले जाता है। साहित्य में स्वाधीनता सर्जनात्मकता का पर्याय भी है और मूल्यांकन का मापदंड भी।

[1] लगभग साथ ही साथ इसके तीन अंग्रेज़ी पर्याय भी प्रकट हुए- Independence, Freedom and Liberty.
[2] होली रंग और दिशाएं तथा समय-साम्यवादी

मंगलवार, 12 मई 2009

काव्य मीमांसा के कुछ नए आयाम

काव्य मीमांसा के कुछ नए आयाम
रंजना अरगड़े
यह संभव नहीं है कि राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) की काव्य-मीमांसा के संदर्भ में इस एक बैठक में विस्तार से बात की जा सके, परन्तु उनकी कुछ बातें ऐसी हैं, जो वर्तमान को समझने की एक दिशा देती हैं। राजशेखर महाराष्ट्र देशवासी थे और यायावर वंश में उत्पन्न हुए थे। समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं, जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं। राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं।
लेकिन यह नहीं समझना चाहिए कि राजशेखर लोकप्रिय नहीं है। आज भी अनेक संदर्भों में उनका उल्लेख यत्र-तत्र मिल जाता है। इसका कारण भी यही है कि राजशेखर ने काव्य-संबंधी, न जाने कितने ही प्रकार के विषयों पर वैविध्यपूर्ण विवेचन किया है। वास्तव में ज्ञान के लालित्य का अगर कोई उदाहरण हो सकता है तो वह राजशेखर की काव्यमीमांसा में देखा जा सकता है।
इसमें कोई संदेह या संकोच नहीं होना चाहिए कि किसी आचार्य या विषय के प्रति हमारा रुझान या आकर्षण का कारण हमारी अपनी सोच, स्वभाव या वृत्ति होती है।
बहुत पहले एक बार किसी सभा में एक स्वनामधन्य विद्वान के व्याख्यान में एक चलताउ-सा संदर्भ सुना कि राजशेखर ने अपनी पत्नी अवन्तिसुन्दरी के श्लोक को अपने ग्रंथ में उद्भृत किया है। मेरे कान खड़े हो गए और तभी से राजशेखर के प्रति मेरे मन में रहा एक औपचारिक संदर्भ अचानक आत्मीय हो गया। फिर मुझे याद आया कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने भी अपने निबंध में कहीं इस बात का उल्लेख किया है कि राजशेखर ने राजा का सभा मंडप कैसा होना चाहिए इस का वर्णन किया है। अवन्ति सुन्दरी की खोज में मैंने कई विद्वानों से पूछा पर पता चला कि उस एक उल्लेख के अलावा कहीं कुछ नहीं मिलता। फिर इसी बात को हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास में सुमन राजे ने भी उद्भृत किया है। पर वहाँ भी केवल जानकारी ही मिली। धीरे-धीरे राजशेखर की विशिष्टता के संदर्भ में और बातें भी जानने को मिली।
मूलतः काव्यमीमांसा
[1] नामक ग्रंथ अठारह अधिकरणों में पूर्ण हुआ है। इस ग्रंथ का जो रूप आज उपलब्ध है, वह मूल ग्रंथ का केवल एक अधिकरण मात्र है तथा यह काव्यमीमांसा नामक ग्रंथ का अठारहवाँ भाग है। इसका शीर्षक कविरहस्य है। शेष सत्रह भागों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती। लेकिन जो अधिकरण मिलता है, वह इतना अभिनव विचारों से युक्त है कि शेष संस्कृत ग्रंथों की तुलना में अनन्य बन पड़ा है।
इसमें क्रमशः शास्त्रसंग्रह, काव्य-पुरुष की उत्पत्ति से लेकर काव्य में देश काल के महत्त्व संबंधी अनेक मुद्दों पर रोचक चर्चा है। सत्रहवें अध्याय में राजशेखर ने अपनी एक अन्य पुस्तक भुवनकोश का उल्लेख किया है जिसमें भौगोलिक विषय की चर्चा है। देश संबंधी इस अध्याय में राजशेखर ने काव्य में भौगोलिक संदर्भों के औचित्य पर विचार किया है। कवि-समय की भी बात इसमें है। कविता में भौगोलिक दोषों का परिमार्जन किस प्रकार कवि-समय से हो सकता है, इसका उन्होंने उल्लेख किया है।
काव्यात्मक आनंद से तात्पर्य काव्य-मीमांसा में आए उन स्थानों से हैं, जहाँ राजशेखर ने रोचक कल्पना के द्वारा कोई काल्पनिक कथा गढ़ी हो जिस के द्वारा काव्य-विषयक जानकारी अत्यन्त रमणीय बन गई हो। काव्य-पुरुष की उत्पत्ति इसी प्रकार की एक काल्पनिक कथा है। कथा के माध्यम से राजशेखर ने रीति, वृत्ति आदि की रचना की प्रक्रिया बताई है और सब कुछ निर्मित तथा उनके लोक स्वीकृत हो जाने का उल्लेख किया है। कथा का संक्षेप इस प्रकार है-
प्राचीन काल मे पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से सरस्वती ने हिमालय पर्वत पर जा कर तपस्या प्रारंभ की। उसकी तपश्चर्या से प्रसन्न हो कर ब्रह्मा ने वरदान देते हुए कहा कि मैं तेरे लिए पुत्र उत्पन्न करता हूँ। इस घटना के कुछ दिनों पश्चात् सरस्वती ने काव्य-पुरुष को उत्पन्न किया। उस पुत्र ने उत्पन्न होते ही माता के चरणों का स्पर्श करते हुए छन्दोबद्ध भाषा में कहा कि हे माता यह सारा वाङ्मय विश्व, जिसके द्वारा अर्थ-रूप में परिणत हो जाता है, वह काव्य-पुरुष मैं, तुम्हारे चरणों में वन्दन करता हूँ। इस प्रकार की छन्दोबद्ध वाणी अभी तक वेदों में ही देखी गई थी। उसी के समान भाषा- संस्कृत में भी छन्दोबद्ध वाणी को सुन कर सरस्वती अत्यन्त हर्षित हुई और उस नवजात शिशु को अपने अंङ्क में लेकर प्यार करती हुई बोली – पुत्र यद्यपि मैं समूचे वाङ्मय की माता हूँ परन्तु तूने इस प्रकार की छन्दोबद्ध भाषा से आज मुझ पर विजय प्राप्त कर ली। यह अत्यन्त हर्ष की बात है। कहा जाता है कि पुत्र से पराजित होना द्वितीय पुत्र जन्म के समान है। तुमसे पूर्वज विद्वानों ने गद्य की सृष्टि की है, पद्य की नहीं। इस छन्दोबद्ध वाणी के प्रथम आविष्कारक तुम ही हो। अतः तुम सचमुच प्रशंसनीय हो। शब्द और अर्थ तेरे शरीर हैं। संस्कृत भाषा मुख है। प्राकृत भाषाएं तेरी भुजाएँ हैं। अपभ्रंश भाषा जंघा है। पिशाच भाषा चरण हैं। और मिश्र भाषाएं वक्षस्थल हैं।
[2]
कथा बहुत लंबी है। पर इसके द्वारा काव्य रचना के तत्त्वों को साक्षात् और ठोस रूप में प्रस्तुत करने का उपक्रम किया है। रीति, वृत्ति आदि वायवीय-से लगने वाले काव्य पदार्थों को वे इस कथा के द्वारा सामाजिक परिप्रेक्ष्य देते है।
इस आलेख में मैंने अवन्तिसुंदरी, भारतीय काव्य शास्त्र का स्त्री पक्ष, काव्यपाठ, काव्य तथा नैतिकता के संदर्भ में प्लेटो अरस्तू से तुलना आदि की चर्चा की है।
(1)
अवन्तिसुंदरी का उल्लेख केवल राजशेखर में मिलता है। यह उस समय ही नहीं आज भी उतनी ही उल्लेखनीय घटना मानी जा सकती है, कि एक विद्वान आचार्य अपनी विद्वत्-चर्चा में अपनी पत्नी के विचारों को प्रस्तुत करे। यहाँ प्रश्न पत्नी-प्रेम का नहीं, अपितु स्त्री की विद्वत्ता के स्वीकार एवं आदर का है। राजशेखर ने तीन अलग-अलग संदर्भों में उसे उद्धृत किया है।
व्युत्पत्ति तथा काव्यपाक नामक पाँचवे अध्याय में काव्यपाक संबंधी चर्चा के अन्तर्गत जहाँ शब्द पाक की परिपक्वता की बात आती है वहाँ वामन आदि विद्वानों के इस मत के साथ कि जहाँ एक बार प्रयुक्त शब्द पुनः परिवर्तन की अपेक्षा न रखे वहाँ शब्दपाक होता है, वे अवन्तिसुंदरी के मत को भी उद्धृत करते हैं –
अवन्तिसुंदरी का मत है कि यह अशक्ति है, पाक नहीं( अर्थात् अगर पद को पुनः परिवर्तित करने की आवश्यकता पड़े तो) महाकवियों के काव्यों में एक के स्थान पर अनेक पाठ मिलते हैं। वे सभी परिपक्व तथा उपयुक्त भी होते हैं। इसलिए रस के अनुकूल और अनुगुण शब्द, अर्थ एवं सूक्तियों का निबंधन करना पाक है। जैसा कि कहा गया है-
गुण, अलंकार, रीति और उक्ति के अनुसार शब्दों और अर्थों का जो गुम्फन क्रम है, वह सहृदयों, श्रोताओं और भावकों को आकर्षक और स्वादु प्रतीत होता है – यही वाक्यपाक है। इस संबंध में कहा भी गया है-
कवि, शब्द और अर्थ इन सभी के रहने पर भी जिसके बिना वाङ्मधु का परिस्रवण नहीं होता, वही अनिर्वचनीय वस्तु पाक है। जो सहृदय जनों द्वारा आस्वाद्य और काव्य का प्रधान जीवन है। अर्थात् सब कुछ होते हुए भी काव्य रचना में कवि की प्रौढ़ता जीवन डाल देती है। यह प्रौढ़ता ही पाक है।
[3]
हालांकि राजशेखर ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि अवन्ति सुंदरी के किस ग्रंथ से यह उद्धृत है पर इसमें आए अनिर्वचनीय जैसे पद सहसा ध्वनिवादियों के अनिर्वचनीय शब्द की स्मृति दिलाते हैं और यह अनुमान किया जा सकता है कि अवन्तिसुंदरी ने निश्चय ही गंभीर काव्य-शास्त्रीय ग्रंथ लिखा होना चाहिए। प्रौढ़ता कवि का आंतरिक गुण है और यह परिपक्वता ही काव्य को काव्य बनाता है एवं सहृदयों के लिए आस्वाद्यता का कारण बनता है। केवल कवि (निर्माता) तथा काव्य उपकरण(शब्द, अर्थ आदि) से ही काव्य-मधु(रस) का परिस्रवण नहीं होता, वह तो होता है कवि की प्रौढ़ता के फलस्वरूप।
हालाँकि राजशेखर स्वयं कवि की प्रौढ़ता संबंधी अनिर्वचनीयता के साथ सहमत नहीं हैं पर वे असहमत हैं ऐसा भी उल्लेख नहीं है। वे इस संदर्भ में इतना भर कह देते हैं कि जहाँ पदों के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, वह शब्दपाक वाला काव्य है। जहाँ रस, गुण और अलंकारों का सुंदर क्रम है, वह वाक्यपाक है। इसका समुचित निर्णय सहृदय समालोचकों की आलोचना द्वारा ही हो सकता है।
[4]इससे यह भी पता चलता है कि पत्नी से सर्वथा बौद्धिक सहमति न होने पर भी जहाँ सहमति है उसका वे सादर उल्लेख करते हैं।
एक अन्य स्थान पर भी राजशेखर अवन्तिसुंदरी का उल्लेख करते हैं जहाँ वे काव्य की सरसता एवं नीरसता की चर्चा करते हैं। उन्होंने पाल्यकीर्ति नामक जैन आचार्य के मत के साथ अवन्तिसुंदरी की चर्चा की है और अंत में कहा है कि इन दोनों के मत ठीक हैं। अवन्ति सुंदरी का मत इस प्रकार है-
यायावरीय राजशेखर की गृहिणी अवन्तिसुंदरी का मत है कि किसी वस्तु का स्वभाव नियत नहीं है, प्रत्येक वस्तु अनियत स्वभाववाली है, अतः न गुणवाली है न दोषयुक्त। कुशल कवि की उक्ति-विशेष से वह सगुण या निर्गुण हो जाती है। जैसे-
काव्य-जगत् में किसी वस्तु का स्वभाव नियत नहीं है। कवि की उक्ति के कारण उसमें गुण या दोष आ जाते हैं। जो चंद्रमा की स्तुति करना चाहता है, वह उसे अमृतांशु कहता है और जो धूर्त्त कवि उसकी निंदा करना चाहता है, वह उसे दोषाकर कहता है।
[5]
यहाँ राजशेखर ने यायावरीय राजशेखर की गृहिणी अवन्तिसुंदरी कह कर अवन्तिसुन्दरी की पहचान बताई है। आज जब इसे पढ़ते हैं तो सामान्य रूप से यह विधेयात्मक प्रतीत होता है। क्योंकि इसी के कारण यह पता चलता है कि अवन्तिसुंदरी राजशेखर की पत्नी थी। साथ ही राजशेखर ने अपनी पत्नी की विद्वत्ता को स्वीकार किया, यह भी सिद्ध होता है। पर अतिवादी मत का आग्रह रखें तो यह भी कहा जा सकता है कि क्या इस रूप में उसका आइडेंटिफिकेशन योग्य है। क्या यह पर्याप्त नहीं कि वह एक विदुषी थी। बहरहाल।
तीसरे स्थान पर जहाँ राजशेखर ने अवन्तिसुंदरी का उल्लेख किया है वह ग्याहरवें अध्याय में शब्दहरणम् वाले प्रसंग में है। प्रश्न यह है कि अगर हरण एक प्रकार की चोरी है तो काव्य-ग्रंथ में इसका निर्देश होना चाहिए अथवा नहीं। यहाँ किसी अन्य आचार्यों के साथ उसके मत को न रख कर मात्र इस (चोरी) संदर्भ में उठने वाली संभवित शंकाओं के परिप्रेक्ष्य में अवन्तिसुंदरी का कथन उद्धृत किया गया है-
इस शंका का समाधान अवन्तिसुंदरी ने इस प्रकार किया है- अपनी काव्य-रचना का सौन्दर्य एवं अपनी प्रतिष्ठा आदि की वृद्धि के लिए शब्दहरण और अर्थहरण करना उचित है। अतः, यह विषय उपदेश देने योग्य है। यदि किसी अप्रसिद्ध कवि के काव्य में हरण करने योग्य पद, पाद आदि हैं तो, प्रसिद्ध कवि यह सोच कर उसका हरण करेगा कि उसके सामने अप्रसिद्ध कवि की बात पर लोग विश्वास न करेंगे। दूसरे, प्रसिद्ध कवि, साधन-हीन अप्रसिद्ध कवि के काव्य से हरण करके अपने प्रभाव से उसका प्रचार करेगा, तो अप्रसिद्ध कवि की बातें कौन मानेगा। इसी प्रकार, हरण करने वाला कवि यह सोचकर हरण करे कि इसका काव्य प्रचलित नहीं है, मेरा काव्य प्रचलित है, इसका काव्य गुङचा-पाक है और मेरा द्राक्षा-पाक है, यह दूसरी भाषा का कवि है, मैं दूसरी भाषा का कवि हूँ, इस काव्य को जानने वाले प्रायः मर गए हैं, यह दूसरे देश के निवासी कवि की रचना है, इसे इस देश में कौन जानेगा, इसके निबंधन का मूल ही समाप्त हो गया है, मेरा काव्य म्लेच्छ भाषा के काव्य पर आधारित है, अतः मेरे काव्य की किसी प्रकार निंदा न होगी- इत्यादि।
[6]
यहाँ यह द्रष्टव्य है कि इस संदर्भ में राजशेखर ने तात्कालिक कोई भी टिप्पणी नहीं की है। अनेक उदाहरणों के बाद श्लिष्ट पदों के अपहरण के संदर्भ में कुछ विद्वान कहते हैं – ऐसा कह कर एक मत प्रस्तुत किया है। अतः हमारे मन में उपरोक्त कथन से यह संदेह होता है कि क्या अवन्तिसुंदरी हरण के पक्ष में है। अध्याय के अंत में राजशेखर कहते हैं-
जो लोग पहले से कहे हुए अप्रसिद्ध आदि कारणों में से किसी एक कारणवश दूसरे के काव्य को अपना बनाने का अनर्थक प्रलाप करते हैं, वे केवल हरण ही नहीं करते प्रत्युत अपनी दुर्बलता, असमर्थता, अकुलीनता, आदि दोषों को भी प्रकट करते हैं। वे सब दूषण, मुक्तक-काव्यों और प्रबंध-काव्यों के विषय में समान रूप से लागू होते हैं।
[7]
यायावरीय का मत है कि दूसरे कवियों की अलौकिक कल्पनाओं को लेकर यदि विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त किए जाएं, तो वे हरण के रूप में पहचानी तो नहीं जा सकती, अपितु अत्यन्त सरस और आकर्षक भी हो जाती है। परन्तु हरण की गई उक्तियों का हरण तो हरण से भी गर्हित हो जाता है। वह चुराए हुए को चुराना है।[8]
यहाँ इस बात को रेखांकित करना होगा कि हरण के संदर्भ में राजशेखर अवन्ति सुंदरी से बिल्कुल ही सहमत नहीं थे। अतः उनके कथन को अनर्थक प्रलाप भी कहा है। फिर दुर्बलता अकुलीनता आदि के सरोपे भी पहनाएं हैं। परन्तु राजशेखर की कुशलता इस बात में है कि एक तो वे नाम नहीं लेते और दूसरे अवन्तिसुंदरी तथा अपने मत के बीच में एक लंबा अंतराल भी देते हैं जिसमें अनेक उदाहरण आते हैं। इन तीनों उदाहरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि काव्य-संबंधी विचारों में इन दोनों के बीच सर्वदा एक तरह का मत नहीं रहा होगा। पर राजशेखर ने अवन्तिसुंदरी का अपने ग्रंथ में उल्लेख कर के नितांत नए पथ का अनुसरण किया है। इसी से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय भी स्त्रियां विदुषी रही होंगी।
राजशेखर के इस अवदान को हम संस्कृत काव्य-शास्त्र का स्त्री-पक्ष तो कह ही सकते हैं।
(2)
यह एक विचित्र योगानुयोग है कि काव्य मीमांसा को पढ़ते हुए प्लेटो-अरस्तु का स्मरण हो आता है। चुराए हुए को चुराना सुनते ही अनुकरण का अनुकरण याद आ जाता है। पर प्लेटो जिस तरह कला पर आरोप लगाता है कि कला असत्य है ठीक इसी तरह राजशेखर के समय में भी कला पर असत्य होने के आरोप विद्वानों द्वारा लगाए जाते थे। काव्य की असत्यता संबंधी आरोप अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग दृष्टिकोणों से लगाए गए थे। कहीं सौन्दर्य, तो कहीं अश्लीलता तो कहीं काव्य द्वारा असत् मार्ग का उपदेश किए जाने के कारण। पदवाक्यविवेक नामक छठे अध्याय में राजशेखर ने इन पर प्रकाश डाला है।
राजशेखर वामन, उद्भट आदि आचार्यों के मतानुसार ही मानते थे कि गुण और अलंकार युक्त वाक्य ही काव्य है। परन्तु राजशेखर के अनुसार कुछ लोगों का मत यह था कि काव्य में असत्य आलंकारिक बातों का उल्लेख रहता है अतः, यह उपदेश करने योग्य नहीं है। अतिशयोक्ति काव्य को असत्य बनाती है। राजशेखर अनेक उदाहरण देते हुए ऐसी अतिशयोक्तियों के संदर्भ में दो तर्क देते हैं। एक तो, उनका मानना है कि अगर किसी आशय विशेष के कारण अतिश्योक्ति का प्रयोग किया गया है तो वह त्याज्य नहीं है और दूसरे, वेदों में तथा पुराणों में भी ऐसा किया गया है, अतः यह स्वीकार्य माना जाना चाहिए।
काव्य में अश्लीलता के होने न होने के विषय में भी चर्चा की है। कुछ लोगों का मानना है कि काव्य में अश्लील अर्थ रहता है, वह असभ्य बातों को बतलाता है। अतः, उसका ग्रहण नहीं करना चाहिए। राजशेखर का मानना है कि प्रसंग आने पर ऐसे वर्णन करने की आवश्यकता पड़ती है और यह उचित भी है। फिर अपनी बात की पुष्टि के लिए वह वेदों तथा शास्त्रों का हवाला भी देते हैं।
[9]
कुछ लोगों का मत है कि काव्य असत् मार्ग का उपदेश करते हैं। लोक में सन्मार्ग का उपदेश उचित है। अतः काव्य अग्राह्य और त्याज्य है। उनका उपदेश न करना चाहिए। इसका उदाहरण इस प्रकार दिया है-
पातिव्रत्य से जीवन-निर्वाह करने वाली पुत्री के प्रति वेश्या माता उपदेश करती है- पुत्रि, हम वेश्याओं की विवाह विधि यह है कि लड़कपन में लड़कों को, यौवनावस्था में युवकों को और इस वृद्धावस्था में भी वृद्धों को चाहती हैं- यह वेश्या-धर्म है। तुमने यह क्या अमार्ग से जीवन व्यतीत करने की सोच ली। हमारे कुल में पातिव्रत्य का कलंक कभी नहीं लगा, जिसे तुम आज लगाने जा रही हो।
यहाँ पवित्र परिणय-विधि या पातिव्रत्य की जो दुर्दशा की गई है, वह संस्कृति विरुद्ध होने के कारण त्याज्य है। काव्य ऐसी अमर्यादित शिक्षा देता है अतः सर्वथा हेय है।
[10]
जिस तरह प्लेटो के आरोपों का उत्तर अरस्तू ने दिया था उसी तरह अपने समय में प्रचलित इस प्रकार के आरोपों का उत्तर राजशेखर ने अपने ग्रंथ में दिया है। यायावरीय राजशेखर कहते हैं-
यह उपदेश है किन्तु निषेध रूप से, विधि रूप से नहीं। वेश्यागामियों को वेश्याओं के ऐसे कुत्सित चरित्र का ज्ञान हो, वे उन्हें पतिव्रता समझने की भूल न करें। दूसरे, ऐसे चरित्रों से स्त्रियों
[11] की रक्षा की जाए- यह कवि का भाव है। इसी प्रकार सांसारिक व्यवहार कवियों के वचनों पर आधृत है। कवियों के आदेशानुसार किए गए लोक-व्यवहार मानव के लिए कल्याणकारी होते हैं।
प्राचीन राजाओं के प्रभावशाली चरित्र, देवताओं की प्रभुत्व-लीला और ऋषियों एवं तपस्वियों के अलौकिक प्रभाव – ये सभी कुछ कवियों की वेद-वाणी से प्रसूत और प्रसिद्ध हुए हैं।
इसमें किसी प्रकार का भ्रम नहीं रखना चाहिए कि प्लेटो एवं राजशेखर की तुलना केवल तुलना के लिए कर के हम कुछ नवीन ढूँढने का आनन्द लें। परन्तु यहाँ निर्देश मात्र इतना ही है कि काव्य को झूठा, असत्य, अनैतिक आदि कहना भारतीय परंपरा में भी माना जाता था इसका खुलासा हमें काव्य-मीमांसा में मिलता है। अन्यथा सामान्य रूप से काव्य संबंधी इन चर्चाओं को गौण ही माना गया है अथवा कहा जा सकता है कि, अन-उल्लेखनीय ही माना गया है। राजशेखर के इस प्रकार के उदाहरणों से ज्ञात होता है कि काव्य के सामाजिक पक्ष की भी भारतीय आचार्यों में चर्चा होती थी।
(3)
भाषा पर चिन्तन काव्य-शास्त्र में कोई नई बात नहीं है। परन्तु राजशेखर का भाषा-चिन्तन विशिष्ट इस मायने में है कि वे जहाँ काव्य रचना के अन्तर्गत उसकी चर्चा करते हैं, वहाँ उसके व्यावहारिक पक्षों की भी बात करते हैं। जब संस्कृत की महिमा चारों तरफ फैली हुई थी, तब राजशेखर ही अपने समय में ऐसे पहले आचार्य थे, जिन्होंने अपभ्रंश, प्राकृत तथा पैशाची भाषा( भूत भाषा) के महत्त्व को काव्य-रचना में स्थापित किया। महाकवि तथा कविराज की व्याख्या तथा उनमें श्रेष्ठत्व की चर्चा के अन्तर्गत उन्होंने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि केवल संस्कृत में रचना करने वाले महाकवि होते हैं तथा संस्कृत के साथ-साथ अपभ्रंश, प्राकृत तथा भूतभाषा में रचना करने वाले कविराज कहलाते हैं। वे महाकवि की तुलना में कविराज को श्रेष्ठ बतलाते हैं। फिर यह भी जोड़ते हैं कि ऐसे कविराज तो दो-चार ही हैं जिन में वे अपने आप को रखते हैं। संस्कृत के प्रभुत्व को नकारे बिना भाषाओं के श्रेष्ठत्व की स्थापना निश्चय ही अभूतपूर्व है। मैं समझती हूँ कि यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसी के अनुसार आज अंग्रेजी के श्रेष्ठत्व को नकारे बिना भाषाओं के गौरव की स्थापना का समय है। भाषाओं को लेकर ऐसे प्रसंग इतिहास में आते ही रहते हैं और प्रत्येक समय की राजनीति उस समय के लिए तो भीषण ही होती है। सारस्वतों की चिंता का विषय भी यह हर युग में रहता ही है।
राजशेखर के समय में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत, अपभ्रंश और भूतभाषाओं का प्रचार भी अधिक मात्रा में था। ब्रजभाषा की मूल भाषा शौरसेनी का भी प्रचार था। ये सभी भाषाएँ, काव्य-भाषाएँ थी। राजशेखर स्वयं अनेक भाषाओं के विद्वान थे। उन्हें इस बात का गर्व भी था। एक अनुमान ऐसा है कि उन्होंने अपभ्रंश और पैशाची आदि में भी मुक्तक रचनाएँ की होंगी। प्राकृत में तो उनकी रचना कर्पूरमंजरी प्राप्त है ही।
[12] राजशेखर प्राकृत भाषा के गहरे समर्थक थे। राजशेखर के अनुसार संस्कृत भाषा कठोर तथा प्राकृत अत्यन्त कोमल भाषा है। संस्कृत भाषा तथा प्राकृत भाषा में उतना ही अंतर है जितना स्त्री और पुरुष में है।[13] इस तुलना से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि भाषा के संदर्भ में उनका विचार स्त्रीवादी था। उन्होंने इन भाषाओं को एक क्रम भी दिया है। प्रथम स्थान पर प्राकृत, फिर अपभ्रंश, तीसरे क्रम पर पैशाची। संस्कृत सबसे अंत में आती है।
प्राकृत तथा संस्कृत में कौन पहले तथा कौन बाद में इस संदर्भ में दो मत प्रवर्तित थे। कुछ का मानना था कि पहले संस्कृत, तो कुछ पहले प्राकृत के पक्ष में थे। राजशेखर प्राकृत के पक्ष में थे।
[14] मुख्य धारा की भाषा के स्थान पर अन्य भाषाओं को महत्त्व देना उनके वैचारिक साहस तथा स्वतंत्र सोच की परिचायक है।
राजशेखर की विशेषता इस बात में भी है कि उनकी काव्य-मीमांसा से इस बात का पता चलता है कि उनके समय कहाँ कौन-सी भाषा बोली जाती थी। भुवनकोश नामक ग्रंथ के उल्लेख से यह तो पता चल ही जाता है कि उन्होंने भारत-भ्रमण किया था।
(4)

राजशेखर ने ज्ञान को लालित्य के साथ प्रस्तुत किया है, ऐसा पहले कहा गया है। राजशेखर ने काव्य-मीमांसा के सातवें अध्याय, वाक्यभेद के अन्तर्गत काकु की चर्चा करते हुए काव्य के पाठ के संदर्भ जो कुछ कहा है उसे पढ़ कर आश्चर्य होता है कि राजशेखर जितना काव्य रचना की बारीकियों के प्रति सजग थे उतना ही काव्य की प्रस्तुति को लेकर आग्रही। उनका कहना है कि जैसे-तैसे कर के कोई कविता तो लिख सकता है पर अगर वह उसका पाठ नहीं जानता तो समझना चाहिए कि सरस्वती उस पर प्रसन्न नहीं है। सरस्वती उन्हीं पर प्रसन्न होती है जो अच्छा काव्य-पाठ करना जानते हैं। संभवतः इसीलिए उन्होंने शुद्ध उच्चारण पर भी बल दिया है। इस संदर्भ में वे व्याघ्री का उदाहरण देते हैं कि वह अपने बच्चे को अपने दाँतों से इस तरह उठाती है कि न तो बच्चे नीचे गिरते हैं न ही वे आहत होते हैं।
[15] यह उदाहरण पाणिनीय शिक्षा में भी मिलता है।[16] राजशेखर ने काव्य पाठ के अन्तर्गत जहाँ संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत आदि भाषाओं के पाठ का भेद बताया है, वहीं गुण आधारित काव्य पाठ को भी विस्तार से समझाया है। अर्थात् ओज-गुण की रचना और प्रसाद गुण की रचना के पाठ में क्या अंतर किया जाना चाहिए।
राजशेखर ने इसी सातवें अध्याय में काव्य-पाठ और भूगोल का संबंध भी बताया है। फिर यह भी बताया है कि किस प्रदेश के वासी किस भाषा का कैसा उच्चारण करते हैं। सरस्वती अशुद्ध उच्चारण करने वालों से किस तरह आजिज़ आ जाती है। इस संदर्भ में वे एक रोचक उदाहरण देते है-
कहा जाता है कि सरस्वती ने अपने अधिकार छोड़ने के लिए ब्रह्मा से निवेदन किया कि महाराज या तो गौड़ देशवासी प्राकृत-भाषा पढ़ना छोड़ दें, या मेरे स्थान पर दूसरी सरस्वती को नियुक्त किया जाए। तात्पर्य यह है कि गौड़-देशवासी प्राकृत भाषा की कविता पढ़ना नहीं जानते या उनका पाठ विस्वर और कर्णकटु होता है।
[17]
राजशेखर ने प्रदेश विशेष के उच्चारण का जो वर्णन किया है वह मुदित करने वाला तो है ही, साथ ही इसमें आज भी कोई विशेष परिवर्तन आया हो ऐसा लगता नहीं है। अंत में उन्होंने पांचाल देशवासियों के उच्चारण को ऐसा बताया है कि- उनका पाठ कानों में मधु बरसाता है। वे नियमानुसार समुचित ध्वनि से संपूर्ण वर्णों का स्पष्ट उच्चारण करते हैं।[18]
यहाँ एक और बात ध्यान में आती है। राजशेखर ने काव्य-पुरुष की उत्पत्ति का जो वर्णन किया है उसमें संस्कृत को मुख, प्राकृत को भुजाएँ, अपभ्रंश को जंघा तथा पैशाची भाषा को चरण कहा है। यह सहज ही वर्णाश्रम धर्म के विभाजन का स्मरण दिलाता है। पर वाक्भेद में संस्कृत के स्थान की ही जब चर्चा नहीं करते और प्राकृत को प्रथम स्थान पर रखते हैं तो इसका अर्थ यह हो सकता है कि काव्य-पुरुष वाला विवेचन परंपरागत है, परन्तु स्वयं राजशेखर का मंतव्य के अनुसार तो क्रम वही है जहाँ प्राकृत पहले है। यह उनका अपने समय से नितांत भिन्न तथा प्रगतिशील विचार कहा जा सकता है।
राजशेखर ने इसके अलावा भी कई मुद्दों की चर्चा की है जिनमें उनके द्वारा किया गया आलोचक विवरण तो प्रसिद्ध है ही। किस प्रकार के कवि की चर्या कैसी होनी चाहिए, उसकी वेष-भूषा कैसी होनी चाहिए, उसका स्वभाव कैसा होना चाहिए आदि पर भी विचार किया है। साथ ही काव्य की प्रतिलिपि करने वाले कैसे होने चाहिए, स्याही कैसी हो तथा भुर्जपत्र आदि लेखन सामग्री के संबंध में बड़ी विस्तृत चर्चा की है। यह सारी बातें लेखन-कला से संबंध रखती हैं। राजचर्या में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि अगर राजा कवि हो तो उसकी चर्या कैसी होनी चाहिए। राजचर्या के अन्तर्गत उनके द्वारा किया गया सभामंडप का वर्णन तो अद्वितीय है ही।
आज जब कॉम्युनिकेशन का इतना बोलबाला है तब यह प्रस्तुति की कला की आधारभूत शिक्षा भी राजशेखर से प्राप्त हो सकती है, यह बात हमारे लिए उत्साह देने वाली है। राजशेखर को आज भी पढ़ना इसलिए रुचिकर एवं महत्त्वपूर्ण लगता है कि वे उन सब मुद्दों को भी छूते हैं, जिन से आज हमें सरोकार है।



आचार्य एवं अध्यक्ष- हिन्दी विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद
फरवरी 08




















[1] इसमें क्रमशः शास्त्रसंग्रह, शास्त्रनिर्देश, काव्यपुरुषोत्पत्ति, शिष्यप्रतिभे, व्युत्पत्ति-काव्यपाक, पदवाक्यविवेक, वाक्यभेद, काव्यार्थयोनयः, अर्थव्याप्ति, , कविचर्या राजचर्या, शब्दहरणम्, अर्थहरणम्, अर्थहरणेष्वालेख्यप्रख्यादिभेदः, कविसमयस्थापना, गुणसमयस्थापना, स्वर्ग्यपातालीयकविरहस्यस्थापना, देशभाग, कालविभाग नामक अठारह अध्याय हैं।

[2] काव्य मीमांसा , तृतीय अध्याय, पृ- 14-15(पूरी कथा 24 पृष्ठों तक चलती है।)
[3] काव्य-मीमांसा- पृ-50,अनु. पं केदारनाथ शर्मा सारस्वत, बिहार राष्ट्भाषा परिषद् पटना
[4] वही, पृ-50-51
[5] काव्य-मीमांसा –पृ- 116
[6] काव्यमीमांसा-पृ- 142
[7] वही- पृ-152
[8] वही पृ- 153
[9] योनिरुदूलूखलं शिश्नं मृशलं मिथुनेमे तत् प्रजनन क्रियते- षष्ठोध्यायः,पदवाक्यविवेकः, काव्यमीमांसा –पृ 70
[10] काव्यमीमांसा , पृ-67
[11] वही- पृ- 68

[12] राजशेखर कृत काव्य मीमांसा , भूमिका से 15-16
[13] कर्पूरमंजरी 1,8 राजशेखर कृत काव्य मीमांसा , भूमिका से 16(उद्भृत)
[14] बालरामायण, अंक-1 श्लोक-4(उद्भृत) काव्य-मीमांसा भूमिका से
[15] काव्य-मीमांसा पृ- 83
[16] व्याघ्री यथा हरेत् पुत्रान् दंष्ट्राभ्यां न च पीडयेत् गूभीता पतनभेदाभ्यां तद्वद् वर्णान् प्रयोजयेत,
पाणिनीय शिक्षा,( श्लोक 25)
[17] काव्य मीमांसा- पृ- 84
[18] वही- पृ-85