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रविवार, 11 मार्च 2012

अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी, इग्नू. दिल्ली में पढ़ा पर्चा--2,3,4 मार्च 2012

अनुवाद के आईने में विचारधारा एवं राजनीति के चेहरे

हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहाँ सब कुछ राजनैतिक अथवा विचारधारात्मक-सा लगता है। जीवन की सर्वाधिक सूक्ष्म संवेदनाओं से लेकर जीवन की कठोर वास्तविकताओं तक --- सब कुछ जैसे राजनैतिक अथवा विचारधारात्मक आवरण में लिपटा हुआ दिखाई पड़ता है। अगर हमारा लेखन (रचना) इस तरह का हो गया है तो क्या अनुवाद इससे कुछ भिन्न होगा। यह बात इस तरह लिखते-लिखते ही मुझे परम आचार्य देरिदा की शैली का स्मरण हो आया कि (कहीं) यह बात असल में, मैं, रोमान्टिक कवि पर्सी बिसी शैली की प्रसिद्ध कविता 'ओड टू दी वैस्ट विंड' की जानी-मानी पंक्ति 'If Winter comes, can spring be far behind- ' की तर्ज़ पर लिख रही हूँ, और यहाँ क्या मेरा उपरोक्त कथन उसका अनुवाद ? रूपांतर ? इस्तेमाल ? उल्लेख ? है। लेकिन मुझे यह कहना होगा कि मेरा यह कथन कि 'अगर लेखन इस तरह का हो गया है तो क्या अनुवाद इससे कुछ भिन्न होगा... 'दूर-दूर तक यह शैली के पंक्ति का अनुवाद नहीं है। न ही उसकी पैरोड़ी। मैं दरिदा की शैली में अपना लेख लिखने की अथवा , अब इस समय, इसकी विस्तृत व्याख्या करने की ज़ुर्रत भी नहीं करूंगी क्योंकि मैं इस रूप में न तो देरिदा की लेखन शैली का अनुकरण करना चाहती हूँ, न ही अनुवाद। न ही मेरी इतनी हैसियत है।

पर इसमें कोई संदेह नहीं कि देरिदा की बदौलत (ही) आज हम अनुवाद को लेकर इस तरह सोचने के लिए प्रवृत्त हुए हैं। अनुवाद पिछले कुछ एक दशकों से लेखन का सम-स्थानीय हो गया है। अनुवाद के संदर्भ में देरिदा ने अपने दो मशहूर लेखों- What is a 'Relevant' Translation तथा Living On Borderlines में कई नए मुद्दे उठाएं हैं। वाल्टर बेंजामिन की संकल्पना का आधार ले कर देरिदा ने अनुवाद को लेखन(रचना) का उत्तर-जीवन कहा है। कई सारे पेंच-कस तथा जटिलताओं के साथ जिस तरह प्रस्तुत किया है उसे मैंने यहाँ लगभग एक सपाट कथन में लिखा दिया है। अनुवाद विषयक देरिदा की इस नितांत भिन्न दृष्टि का अपना एक राजनैतिक संदर्भ भी था। साथ ही उनके अपने (निजि एवं नस्लगत) सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक अनुभव(अप्रिय) भी थे जिसके फलस्वरूप वे एक ही साथ अनुवाद को हिंसात्मक (एनिहिलेट) तथा पुनः जीवन (उत्तर-जीवन) दोनों ही मानते थे। यूं भी देरिदा एक ही साथ दो विरोधी अथवा विपरीत स्थितियों की सह-कल्पना के लिए जाने जाते हैं। जैसा कि वे कहते हैं कि 'ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनूदित नहीं हो सकता और कुछ भी ऐसा नहीं है कि जो अनूदित हो सकता है'। (Derrida, 2001) अगर हमारा आज का संदर्भ देरिदा की संकल्पना को समझने के उपक्रम का होता तो अवश्य ही इस पर अधिक विचार किया जा सकता था पर जहाँ तक आज के हमारे विषय का प्रश्न है, मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगी कि अपनी बात कहने के लिए ही मुझे देरिदा के कथनों की बीच-बीच में आवश्यकता पड़ सकती है। मसलन, हम देरिदा की निजि तथा नस्लीय अनुभूति वाली बात पर आएं तो मेरे मन में एक समानांतर रूपक यह जागता है कि जिस तरह एक अच्छी रचना पढ़ कर सहृदय को अपने अनुभवों का अनुरणन उसमें सुनाई पड़ता है, देरिदा की इन अनुभूतियों को पढ़ कर मेरे मन में भी एक भारतीय अनुभव का अनुरणन जागता है। देरिदा की अनुभूतियों के ठीक विपरीत भारतीय अनुभव को देखा जा सकता है। रचना के उत्तर – जीवन के कई उदाहरण राहुल सांकृत्यायन की अनुवाद-प्रवृत्ति में देखे जा सकते हैं। यह बात बहुत जानी-मानी है कि राहुल सांकृत्यायन ने उन अनेक ग्रंथों का चीनी से संस्कृत या हिन्दी में अनुवाद किए। अनुवाद का यह उत्तर-जीवन, पाली से चीनी में. चीनी से फिर संस्कृत/हिन्दी के अनुवाद- पथ पर से आ कर(यात्रा कर के- travel/travail) हमारे पास लौट आए हैं। 'लिविंग ऑन बॉर्डर लाईंन्स' में शुद्धतावादियों पर तन्ज़ कसते हैं देरिदा। अगर भारत में भी हम शुद्धतावादी नज़रिया अपनाएं तो यह बहुत मुश्किल हो सकता है। जिस तरह अपहृत तथा बलात्कृत कन्या को प्रायःहमारे समाज में स्वागत- योग्य नहीं समझा जाता , उसी तरह यह इतनी लंबी भाषायी-यात्रा कर के आई किसी कृति के विषय में भी हम क्या यही समझ रखेंगे? भारत की अपनी सांस्कृतिक स्थितियां पश्चिम से इतनी भिन्न रही हैं कि हमारे लिए यही एक बड़े आनंद का तथा तसल्ली का विषय हो जाता है कि 'चलो इस बहाने वह प्राचीन ज्ञान तो सुरक्षित है'। हमें अपनी धरोहर तथा लुप्त ज्ञान की पुनः प्राप्ति का आनंद अधिक रहा है। यूं भी अशुचि स्थानों पर पड़ी स्वर्ण मुद्राओं ( इसी के आधार पर संपत्ति-प्रतीक) को शुद्ध करके लिये जाने में किसी को भी परहेज़ नहीं हो सकता है, ऐसा मानने वाली मानव प्रजा हैं हम। (हम यानी केवल भारतीय नहीं , बल्कि , समग्र मनुष्य जाति?) उसी तरह यह भी सच है कि इतिहास में क्रमशः भाषा और मनुष्य तभी विकसित हो सके हैं, बचे भी रह सके हैं ,जब वे शुद्धता के प्रति आत्म-दाह की सीमा तक आग्रही नहीं रहे हैं। ग्रंथ अनूदित हुए हैं, उन्हें पुनर्जीवन मिला है। टीकाएं तथा व्याख्याएं भी अगर अनुवाद का ही एक रूप हैं तो निश्चय ही भारतीय प्राचीन ज्ञान का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसी कारण सुरक्षित रहा है। । इसमें एक बात को ध्यान रखें कि हमारे यहाँ मृत्यू तथा जीवन दोनों ही प्रसंगों के साथ ही एक तरह की अशुचिता जुड़ी हुई है। यानी देरिदा का ही विरोधाभास उधार लें तो मांगलिक और अमांगलिक दोनों ही प्रसंगों के साथ अशुचिता जुड़ी हुई है। लेकिन दोनों ही अनिवार्य तथा इच्छनीय हैं। हमारे यहाँ की भाषाई संस्कृति की परंपरा तो शुद्धता के तमाम आग्रहों के मुँह पर एक तमाचा है।

दूसरी बात यह है कि हमारे यहाँ भाषाओं की सहोपस्थिति साहित्य की रचनात्मकता का ही एक हिस्सा रहा है। चाहे खुसरो हो या रसख़ान – एक ही कविता की दो पंक्तियों में दो विभिन्न भाषाओं का इस्तेमाल करने का रुझान उनमें देखा जा सकता है। इसे उस संस्कृत परंपरा के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है जहाँ संस्कृत के साथ प्रकृतों का प्रयोग कृति की बनावट का हिस्सा रहते थे। इसलिए संभवतः संस्कृतियों की सहोपस्थिति हमारे लिए जितनी सहज है उतनी ही सहज भाषाओं की सहोपस्थिति भी रही है। तभी संस्कृति-अध्ययन तथा एक जाति का संहार कर के (एनिहिलेट) उस पर अपना कब्ज़ा कर लेना हमारे अनुभव का वैसा हिस्सा कभी नहीं बने जैसा पश्चिमी देशों का अनुभव रहा है।(महाभारत में भी वंश को एनिहिलेट करनी की बात है, जाति को नहीं)

पर फिर भी देरिदा के कारण ही पहली बार गोया, अनुवाद-दृष्टि प्रयोजनमूलकता एवं प्रचार की परंपरागत दृश्यात्मकता से आगे बढ़ कर एक स्वतंत्र अस्तित्व धारण कर चुकी है। सैद्धांतिक रूप से आज लेखन तथा अनुवाद दोनों ही समानता की भूमि पर स्थित नज़र आते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अब साहित्य की भाँति अनुवाद का एक स्वतंत्र अस्तित्व है। ठीक उसी तरह जैसे किसी समय तुलनात्मक साहित्य सामान्य साहित्य के अधीन, उसका एक हिस्सा था, पर कालांतर में अलग हो गया और अनुवाद जो तुलनात्मक साहित्य तथा सामान्य साहित्य के अधीन माना जाता था वह अब स्वतंत्र हो गया। किसी के भी अधीनत्व से निकल कर अपनी स्वतंत्र इयत्ता का साथ आज अनुवाद खड़ा है। तभी उसकी विचारधारा और उसकी राजनीति पर चर्चा प्रासंगिक हो जाती है।

यानीकि जिस तरह साहित्य की अपनी एक राजनीति है क्या उसी तरह अनुवाद की भी अपनी एक राजनीति है ?!? अनुवाद की राजनीति तथा साहित्य की राजनीति क्या अलग है? या उनमें कोई समानता है? इस बात को पड़तालना रोचक हो सकता है कि व्यापक स्तर पर अनुवाद के वास्तविक कार्य तथा अनुवाद अध्ययन क्या किसी तरह के विचारधात्मक झुकाव से प्रभावित होते हैं अथवा नहीं। इक्कीसवीं सदी में साहित्य को देखने का नज़रिया बदल गया है। अनुवाद बाजारोन्मुखी हो गए हैं और विचारधारा का स्थान विमर्शों ने ले लिया है। फिर विमर्श भी विभिन्न विचारधारात्मक चौखुंटों में बँट गए हैं। हमारे पास मार्क्सवादी नारी है, गाँधीवादी नारी है, राष्ट्रवादी नारी है उसी तरह विभिन्न प्रकार के दलित और आदिवासी भी हैं। अर्थात् साहित्य के द्वारा इन प्रकारों को हम देखते पहचानते हैं, परन्तु इनके बाहर भी निरे स्त्री-पुरुष रहते हैं, जो शायद ही साहित्य में प्रवेश पा सकते हैं। लेखक के घोल में घुल कर मनुष्य निरा मनुष्य कहाँ रह पाता है। 'गोदान' का होरी और गोदान के बाहर का 'होरी' एक ही नहीं है। वह भिन्न हैं। असल में यह प्रश्न सर्जनात्मक विश्व का भी है। वास्तविक विश्व जब सर्जनात्मकता के क्षेत्र में प्रवेश करता है, तब वह बदल जाता है। वह वास्तविक विश्व नहीं रहता। तभी हम देखते हैं कि महाश्वेता देवी के आदिवासियों, ध्रुव भट्ट तथा मनुभाई पंचोली 'दर्शक' के आदिवासियों में अंतर है। इन आदिवासियों को उन लेखकों ने जिस तरह देखा है, वे वैसे हैं। 'दर्शक' के उपन्यास 'कुरुक्षेत्र' (हिन्दी अनुवाद- वाणी प्रकाशन, दिल्ली) के आदिवासी स्वार्थी, हिंसक तथा अज्ञानी हैं। उन्हें अपना हित समझ में नहीं आता। सत्ता द्वारा, सत्ता के स्वार्थ द्वारा प्रेरित विकास करते हैं और सत्ता के पक्ष में निर्णय बदलने वाले इन आदिवासियों का तभी महत्व है जब वे सत्ता को अनुकूल रहें। तत्वमसि(राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) में ध्रुव भट्ट के आदिवासी अस्मिता से भरे , जुझारू, अपनी परंपराओं पर गर्व करने वाले हैं, जिनका अंत में भला तभी हो सकता है, अगर वे व्यापक भरातीय परंपरा का अनुसरण करते हुए, अपने को उसका हिस्सा मानते हुए , अपनी अस्मिता पर गर्व करें। जबकि महाश्वेता का आदिवासी(चोट्टीमुंडा और उसका तीर, जंगल के दावेदार, राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली)) अपने पाँवो पर ,अपनी ज़मीन पर खड़ा, सत्ता को चुनौति देता है। यानी जो आदिवासी सर्वाधिक अनूदित हो रहा है वह तो तीसरा आदिवासी है। जो अधिकरों के लिए लड़ता है। जो राजनैतिक सत्ता अथवा परंपरा की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, जो अपने जंगलों पर अपनी दावेदारी अपने बलबूते पर करता है। जो तुलना में सर्वाधिक लोकतांत्रिक है। उत्तर-आधुनिक दौर में जब यह आदिवासी विमर्श हो रहा है तब इस बात को ध्यान में लेना होगा कि महाश्वेता का आदिवासी 1980 के पहले का है जो( मार्क्सवादी) विचारधारा का पक्व समय था और दर्शक तथा ध्रुवभट्ट का आदिवासी (क्रमशः 1991 तथा 2001) विमर्श के दौर का । अर्थात् वह कन्स्ट्रकटेड है। विमर्शों के फलस्वरूप अपनी विचारधारा अथवा सत्ता की विचारधारा के अनुरूप 'डिजाईंड' है। अपनी मूल प्रकृति के अनुसार , जब तक सत्ता नहीं बन जाता, मार्क्सवादी विचार, हमेशा ही प्रतिरोध की विचारधारा रही है। अतः वह सत्ता की विचारधारा नहीं है। तभी महाश्वेता के आदिवासी इन बाद के आदिवासियों से अधिक सच्चे लगते हैं।

पर यह कहना सचमुच बहुत कठिन है कि वास्तविक आदिवासी किस तरह होंगे? किस की तरह होंगे? सवाल इतना ही है कि हमारी वर्तमान राजनीति किस तरह के आदिवासियों को महत्वपूर्ण मानती है । क्या उसी तरह के आदिवासी अनूदित होकर दूसरी भाषा में जाते हैं? यह हमारे सामने बहुत स्पष्ट है कि सबसे अधिक बिकने वाले आदिवासी महाश्वेता के हैं। क्या इसका एक कारण यह है कि ये आदिवासी विमर्शों के दौर के पहले के हैं ? अतः चाहे चोट्टी के तीर पर रहने वाले मुंडा आदिवासी हों या जंगल के दावेदार हों, जितनी उनकी चर्चा हुई है, उतनी चर्चा उन स्रोत भाषा-पाठों के बाहर न तो ध्रुव भट्ट के नर्मदा तीर पर रहने वाले साठसाली आदिवासियों की हुई, न ही दर्शक के महाभारत कालीन नाग आदिवासियों की। अगर सर्जनात्मक प्रक्रिया की बात करें तो ध्रुव भट्ट ने भी महाश्वेता की ही तरह क्षेत्र पर जा कर ही , आदिवासियों के बीच रहकर ही, यह उपन्यास लिखा है। बाद में भी वे उस क्षेत्र में जा कर काम करते रहे हैं। पर संघर्ष और अस्मिता का जो आदर्श महाश्वेता के आदिवासियों में, व्यवस्था से लड़ते हुए हम देखते हैं वह ध्रुव भट्ट में उस तरह नहीं है। वहाँ व्यवस्था ( मारवाड़ी) या सरकार उतनी बुरी नहीं है, बल्कि वह आदिवासियों की मदद करती दिखाई पड़ती है। विरोध की हिंसा वहाँ नहीं है अतः हमें संभवतः उतना आकृष्ट नहीं करती, अथवा जकड़ती नहीं है। वहाँ फोकस संभवतः विदेश में रह रहे भारतीय नायक के भीतर सोयी हुई भारतीयता की रक्षा करने का उपक्रम भी है। फिर प्रगतिशील विचारधारा का कालगत तथा भौगोलिक व्याप भी बड़ा है। सो अनूदित होते हैं प्रगतिशील आदिवासी। यों भी दक्षिणपंथी विचारधारा तो हमेशा ही संदेह के दायरे में रही है। अतः अनुवाद कैसा हुआ है, यह बात इस मुद्दे पर निर्भर है कि अनुवाद किस चीज़ का हुआ है। अनुवाद की गुणात्मकता इस बात पर तय नहीं की जाती कि वह मूल से कितना वफ़ादार है, इत्यादि। अथवा वह 'रेलेवेंट' है या नहीं। बल्कि, कौन-सी विचारधारा उसे रैलेवेंट बनाएगी, इस बात पर ध्यान दिया जाता है। आज की हमारी गणतांत्रिक लोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था किसी भी रूप में धार्मिक अथवा दक्षिणपंथी विचारधारा को बढ़ावा नहीं देती। यहाँ मैं इस संदर्भ में ध्रुव भट्ट के' तत्वमसि 'का इसलिए भी उल्लेख करना चाहती हूँ क्यों उसके अनुवादक की हैसियत से इस कृति का अनुवाद करने की प्रक्रिया से गुज़रते हुए, अनुवाद कर लेने के बाद तथा पुस्तक के प्रकाशित होने के बाद के अपने अनुभवों का आकलन जब करती हूँ तो मुझे यह साफ़ दिखलाई पड़ता है कि अगर अनुवादक के रूप में मैंने पुस्तक के आरंभ में कृति के हिन्दुवादी झुकाव संबंधी मंतव्य नहीं दिए होते अथवा निर्मल वर्मा के 'अंतिम अरण्य' के साथ उसकी तुलना न की होती तो संभवतः कृति को अधिक पाठक मिलते। एक अनुवादक के रूप में मेरे लिए महत्वपूर्ण यह बात थी कि अनुवाद ऐसा हो कि मूल का स्वाद दे। मुझे इस बात की प्रसन्नता भी है कि अनुवाद को पढ़ने पर स्वयं लेखक का कहना यह था कि ऐसे लगता है जैसे मैंने यह कृति हिन्दी में लिखी है। अथवा विभिन्न कार्य क्षेत्रों से जुड़े कुछ लोगों के मंतव्य को ध्यान में लूं तो उन्हें यह कभी नहीं लगा कि वे एक अनूदित कृति को पढ़ रहे हैं। पर उसकी पाठकीय स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि राजनीतिक विचारधारा का बल अनुवाद के रेलेवेंट होने में अधिक काम करता है। तब मैं अनुवाद और राजनीति तथा विचारधारा के पारस्परिक मुद्दों के संदर्भ में 'इनोसेंट' थी तथा अनुवाद की गुणात्मकता के पक्ष में विचारधारा तथा राजनीति की हिंसा से भिड़ लेने की तैयारी रखती थी। तब मुझे इस बात का पूरा अंदाज़ा नहीं था कि बाज़ार भी विचारधाराओं में आ चुके हैं और विचारधाराएं बाज़ारोन्मुखी हो गयी हैं। प्रकाशन संस्थाएं साहित्य की गुणवत्ता से अधिक विचारधाराओं के बाज़ार तथा बाज़ार में खड़ी विचारधाराओं को अधिक महत्वपूर्ण मानती हैं। ख़ैर। शायद तब अनुभव के स्तर पर पहली बार अनुवाद के आईने में मैंने विचारधाराओं एवं राजनीति के चेहरे दिखाई पड़े थे।

रचना की तरह ही अनुवाद भी अपनी एक सामाजिकता रखते हैं। मसलन आपने महाश्वेता को नहीं पढ़ा है तो आप साहित्यिक सामाजिकता में पिछड़े माने जा सकते हैं। हम जो अन्य भाषा-भाषी हैं, किसी भी कृति को उसके अनुवाद में ही पढ़कर जानते हैं। महाश्वेता के उपन्यास को हम उसकी विचारधारा के कारण ही अनुवाद में भी उत्तम मानते हैं। क्योंकि अनुवाद में तो कृति के सौन्दर्य पक्ष की चिंता हमें करनी ही नहीं होती, क्योंकि उसे पढ़ने की शुरुआत में ही हम जानते हैं कि अनुवाद में मूल का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाता है। अतः अनुवाद में उत्तम सर्जनात्मक / सौन्दर्यात्मक मूल्य वाली कृति का महत्व उतना नहीं है जितना प्रचलित तथा प्रतिष्ठित विचारधारा का रहता है। यह अनुवाद की राजनीति है। अपनी काव्यातमकता में तथा गुजराती साहित्य के इतिहास में राजेन्द्र शाह कितने भी बड़े कवि क्यों न हो, ज्ञानपीठ विवाद के बाद, गुजरात के बाहर अब इस बात को स्वीकार करना कि आप उन्हें महत्वपूर्ण मानते हैं, अपने आप को अस्पृश्य कर लेने के बराबर है।

यहाँ अनुवाद की एक और राजनीति काम करती है, जो बड़ी सूक्ष्म किन्तु ख़तरनाक़ भी है। । अगर राजेन्द्र शाह के प्रति फैले इस तिरस्कार या घृणाभाव को हमें बढ़ाना हो तो हम उनके बदतर अनुवाद कर के उस राजनीति को पुष्ट कर सकते हैं। इतना ही नहीं, कविताओं के चुनाव से ले कर अनुवाद की गुणात्मकता तक इस राजनीति को फैलाया जा सकता है। अतः यह कहा जा सकता है कि मूल लेखन में जहाँ केवल विचारधारा ही प्रश्न के घेरे में है वहाँ अनुवाद में यह बढ़कर वर्तमान राजनीतिक सरोकारों एवं बाज़ार तक तक फैल जाती है। राजेन्द्र शाह के अनुवाद इसके उदाहरण हैं। यहाँ फिर महर्षि देरिदा को याद किया जा सकता है। आप पाठ को किस तरह पढ़ते हैं और पाठ के किस अंश को अपनी समझ का आधार बनाते हैं- सहत्वपूर्ण यह है। (सूरदास के) ऊधो की खेप (ज्ञान) को बाजार के परिप्रेक्ष्य में समझें अथवा धर्म के परिप्रेक्ष्य में- यही तय करता है उसके अनूदित होने को, उसके पाठ को। उसी तरह 'ईदगाह' में बाज़ार के नकार को देखना अथवा पारिवारिक संवेदनाओं की सघन व्यापकता को ही देखना है, यह बात तय करेगी कि आप आज उसका अनुवाद करना चाहते हैं अथवा नहीं। पाठ को देखने का आपका तरीक़ा क्या है। गुजराती की पहली कहानी(?)- शांतिदास(1900, लेखक अंबालाल साकरलाल देसाई) जिसे गुजराती कहानी के विकास में पहली केवल उल्लेख भर के लिए माना गया है, वह आज के बाज़ारवाद के विरुद्ध भी एक ज़बरदस्त टिप्पणी के रूप में पढ़ी जा सकती है। पर आज तक किसी भी गुजराती समीक्षक ने उसे इस तरह देख कर इस बात की भूमिका नहीं बनाई कि उसका गुजराती से हिन्दी में अनुवाद करने का उपक्रम हो। उत्तर गुजरात के छोटे से गाँव का एक युवक मुंबई पढ़ने जाता है और वहाँ से किस तरह विदेसी(मुंबई तब विदेश ही था, गाँव वालों के लिए) जूते लाता है और धीरे धीरे गाँव के जूते बनाने वालों का व्यवसाय संकट में पड़ता है, सामाजिक संबंध खतरे में पड़ते हैं, पर गाँव वाले मिल कर उसका प्रतिरोध करते हैं------ तब उसमें लेखक स्वदेशी की बात करना चाहते थे और आज उसमें बाज़ारवाद का पाठ भी झलकता है। पर चूंकि, वह कहानी- कला की दृष्टि से कमज़ोर है अतः उसको आरंभिक कहानी का नमूना मान कर भुला दिया गया है। स्वयं लेखक उसे 'लेख' कहता है। खैर । कहने का मतलब यह है कि गुजरात की अपनी विचारधाराओं के कारण एक अच्छी रचना अभी बंद पड़ी हुई है। सवाल यह है कि हम अपनी पहचान किस तरह स्थापित करना चाहते हैं। यह एक राज्य की अपनी राजनीति का एक हिस्सा है। अथवा तो किस की राजनैतिक पहचान स्थापित करने का उपक्रम किया जाना है , यह भी तो इस राजनीति का हिस्सा हो सकता है ! यहाँ यह उल्लेख काम का हो सकता है कि —गांधीजी भारतीय राजनीति में 1900 में नहीं थे। स्वदेशी की संकल्पना गांधीजी के पहले इतने प्रभावक रूप से प्रकट हो चुकी थी, यह तथ्य गांधीजी द्वारा स्वदेशी आंदोलन की बात को क्या कमजोर करती है ? क्या यह अनुवाद की गांधीवादी राजनीति का एक हिस्सा है ?

अनुवाद की राजनीति , सत्ता की राजनीति है। अनुवाद को 'नॉलेज इटसेल्फ' कहना भी एक तरह की राजनीति है, जिसे राजनीतिक सत्ता अपनी तरह से इस्तेमाल करना चाहती है। फिर अनुवाद को राजनीति अपने मतलब के लिए साहित्य की तुलना में अधिक बेहतरी से इसलिए इस्तेमाल कर सकती है क्योंकि अनुवाद को वह अब भी इस्तेमाल करने की चीज़ मानती है। क्योंकि अनुवाद ' अनाथ' है- अगर उसे हम लेखन का उत्तर-जीवन मान लें। वह केन्द्र में नहीं है, परिधि पर है। उसे जब चाहे केन्द्र से परिधि और पुनः केन्द्र में लाया जा सकता है। फिर अनुवाद का वैसा कोई रचनात्मक कॉपीराईट नहीं है- कि एक कृति के लिए एक अनुवाद। एक ही कृति के कई अनुवाद होते रहे हैं और होते रहेंगे। पौधा एक है पर उस पर अनेक फूल लग सकते हैं। कौन-से पाठ अनूदित होंगे, किन अनुवादों को सम्मानित स्वीकृति मिलेगी किन को कभी नहीं, यह सत्ता की राजनीति तथा विचारधारा ने अपना विशेषाधिकार मान लिया है।

अपनी स्वतंत्र इयत्ता के साथ खड़े अनुवाद को देरिदा तक आते आते अगर स्पेस मिला है तो उसे इस स्पेस में जीवित रहने के लिए रचना से अधिक संघर्ष करना होगा इसमें कोई संदेह नहीं।