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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

समय की नब्ज़ पर नासिरा शर्मा


साहित्य पर बात करना हमेशा ही एक ज़िम्मेदारी भरा काम होता है। आज जो छप रहा है उसमें हमारी रुचि का साहित्य कौन-सा है, इसे हर पाठक तय कर लेता है। हो सकता है, जो आज लोकप्रिय एवं चर्चित नहीं है, वह हमारी रुचि हो। वैसे लोकप्रियता अथवा चर्चित होना, कोई एकमात्र मापदंड नहीं है किसी भी साहित्य को परखने का। लेकिन हमें जिस प्रकार का साहित्य अच्छा लगता है, उसके अपने आधार भी होते ही हैं। आज कथा-साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। अच्छा और बहुत अच्छा से लेकर सामान्य तक। इसमें मुझे हमेशा ही नासिरा शर्मा का साहित्य बड़ा आकर्षित करता रहा है। नासिरा शर्मा के अलावा मुझे और भी अनेक रचनाकार अच्छे लगते हैं। परन्तु आज इस आलेख में नासिरा शर्मा के साहित्य पर चर्चा करने का उपक्रम है।
इस दौर में जब साहित्य, कला,विचार और भावनाएं सभी बाज़ार की चीज़ें बन गई हैं, ऐसे में इस बात की पहचान करना ही बहुत कठिन हो गया है कि जितना सब प्रकाशित हो रहा है उसमें सच्चा साहित्य कौन-सा है। किसे हम सच्चा साहित्य कहें। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि क्या आज सच्चे साहित्य जैसी कोई अवधारणा रखी जा सकती है ? जब मनोरंजन और बाज़ार- आज के युगबोध का वह केन्द्रीय आधार बन गया है जिसके अन्तर्गत नारी, दलित, संस्कृति, धर्म तथा राजनीति और पर्यावरण जैसे विषय-क्षेत्रों का समावेश किया जा सकता है ; इतना ही नहीं विचारधाराएं, संवेदनाएं तथा बौद्धिकता भी इसकी गिरफ्त में आने से अपने आप को बचाने में कई बार विवश अनुभव करती दिखाई पड़ रही हैं। जो चीज़ें हमारी शर्म और चिन्ता का विषय होनी चाहिए उन्हें हमने मनोरंजन बना लिया है। मानवता को शर्मसार करने वाली सभी बातों को हमने भौंडे संगीत और चमकदार पन्नियों में पैक करके बाज़र में रख दिया है और उसे खरीदते हुए हम गौरवान्वित अनुभव करते हैं; गौरव इस बात का है कि इस तेज़ गति बाजार के रोलर-कोस्टर में अब हम ख़रीददार की हैसियत तो पा ही गए हैं। ऐसे में वह साहित्य जो हमें मनुष्यता की ज़मीन से जुड़े रहने का बल देता है, क्रमशः कम होता जा रहा है। सच-झूठ की इस ज़द्दोज़ेहद भरी परिस्थिति में नासिरा शर्मा की रचनाशीलता हमारे लिए बड़ी अहम् हो जाती है।
नासिरा शर्मा का साहित्य उपन्यास और कहानी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उन्होंने हमारे समय के उन ज्वलन्त मुद्दों पर चिन्तन किया है जिससे हमारी सामाजिक संरचना, हमारी लोकतांत्रित सत्ता और हमारी संस्कृति प्रभावित रही है। औरत के लिए औरत तथा राष्ट्र और मुसलमान इसी तरह की उनकी दो पुस्तकें हैं। इधर स्त्री आत्मकथाओं की विपुल चर्चा हमारे यहाँ हो रही है , ऐसे में नासिरा शर्मा का लंबा लेख -जायज़ा तीसरी आँख से सरहद के आर पार का की उपस्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण साबित होती है। इस आत्मकथनात्मक लेखन में एक मुस्लमान बौद्धिक स्त्री के हिन्दु परिवार में विवाह होने के जो अनुभव हैं, वे अपनी अभिव्यक्ति के लिए ईमानदारी और साहस की अपेक्षा रखते हैं, जो नासिरा शर्मा के लेखन में सर्वत्र दिखाई पड़ता है। यह हमारा आज के यथार्थ का कलात्मक एवं वास्तविक अंकन है जो आए दिन अख़बारों के समाचार बनता है (हालांकि गलत कारणों से)। पर यह हमारी आज की ज्वलंत समस्या तो है ही। नासिरा शर्मा का यह विस्तृत आलेख बड़ा ही सकारात्मक है। असल में आज सकरात्मक लेखन की भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी सनसनीखेज़ लेखन की मानी जाती रही है। नासिरा शर्मा का लेखन इस बात की ओर हमारा ध्यान दिलाता है कि हमारा समाज आज़ादी के बाद क्रमशः संकीर्ण होता चला गया है।
इस लेख में एक स्थान पर वे लिखती हैं कि शाल्मली में जो सास का चरित्र आलेखित हुआ है, उसके मूल में उनकी अपनी सास का चरित्र ही है। शाल्मली उपन्यास में नासिरा शर्मा शाल्मली की सास के बहाने उस मुद्दे से भिड़ती हैं जो कि अक्सर नारी संबंधी चर्चाओं में उठता है कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है। नासिरा शर्मा के समग्र लेखन में से उभरता यह एक सकारात्मक नज़रिया उनके लेखन की विशेषता है। नासिरा शर्मा ने इराक़, अफ़ग़ानिस्तान तथा ईरान पर भी जो अध्ययन ग्रंथ लिखे हैं, वे उनके उस मिजाज़ और चिन्ताओं को प्रकट करते हैं जो हमारे समय के अन्तर्राष्ट्रीय बोध का एक अहम् अंश है। असल में नासिरा शर्मा हमारे समय के दर्दनाक़ मुद्दों की जड़ों और उनमें समाप्त होते मानव अधिकारों का अपनी रचनाओं के द्वारा अत्यन्त मार्मिक चित्रण करती हैं। औरत के लिए औरत पुस्तक एक तरह से शाल्मली तथा ठीकरे की मंगनी के सह पाठ के रूप में पढ़ी जा सकती है, उसी तरह ज़िन्दा मुहावरे तथा अक्षयवट- ये दोनों पुस्तकें राष्ट्र और मुसलमान का सहपाठ बनती हैं। सात नदियाँ एक समंदर, तथा इब्ने मरियम (कहानी संग्रह) के कुछ अंश उनके ईरान संबंधी अध्ययन लेखों का सहपाठ बन जाते हैं। संगसार, पत्थर गली आदि कहानी संग्रह मानव अधिकारों के प्रश्नों को बड़ी शिद्दत से उठाते हैं। मानव अधिकारों के प्रश्नों को सीधे-सीधे उठाने वाले साहित्य में नासिरा शर्मा की भूमिका अग्रणी मानी जा सकती है। आज के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृश्यपटल पर मानव अधिकारों का मुद्दा सिर चढ़कर बोलता है। नासिरा शर्मा का अपने साहित्य में इस तरह के मुद्दों का पूरी गंभीरता से उठाना उनके निजि लेखकीय दृष्टिकोण का आलेखन करता है। वे एक तरह से प्रतिबद्धता के साथ लिख रही हैं। एक लेखक अपने आस-पास के समाज में फैली इन समस्याओं तथा मर्यादाओं को सिवा अपने लेखन के जरिए, और किस तरह प्रकट कर सकता है?! लेखक जो कुछ भी ग्रहण करता है अपने समाज से, अतः उसे केवल अगर कुछ लौटाना है तो समाज को ही- अलबत् बेहतर स्वरूप में।
नासिरा शर्मा के उपन्यास स्त्री, आज़ादी, विभाजन, भारतीय संस्कृति तथा पानी जैसे मुद्दों पर केन्द्रित हैं। सात नदियां एक समंदर ईरान के उस संघर्ष पर केन्द्रित है जिसमें आज़ादी को बचा लेने की ज़द्दोज़ेहद में वहाँ के बौद्धिकों को जिन तकलीफों का सामना करना पड़ा था, उसका विवरण है। आज़ादी के लिए दुर्निनिवार कष्ट सहन करती स्त्रियों को लेखिका ने जिस तरह प्रस्तुत किया है, उससे एक बात स्पष्ट होती है कि स्त्रियों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वही उनकी सामाजिक स्वतंत्रता का आधार बन सकती है। इस उपन्यास में कथा उस प्रदेश(देश) से संबंद्ध है जहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता के खतरे में पड़ने की अधिक संभवना बनी रहती है। इसे हम नारीवाद के आरंभिक मुद्दे से जोड़ सकते हैं जिसमें मताधिकार की बात केन्द्र में थी।
ठीकरे की मंगनी स्त्री के अपने स्पेस की बात करता उपन्यास है। स्त्री का अपना एक वजूद होता है और महरूख, जो कि उपन्यास की नायिका है, अपने निर्णय खुद लेती है। वह न अपने मंगेतर के पास जाती है और न ही अपने पिता के पास लौटती है, बल्कि नौकरी कर के अपनी आजीविका स्वयं कमाती है। महरुख के चरित्र को लेखिका ने जिस तरह विकसित किया है और उसका जो अंत भी किया है—उसे पढ़ कर यह कहा जा सकता है कि वह एक सुलझी हुई भारतीय सोच की लेखिका हैं। पश्चिम में अपने स्पेस के लिए संघर्ष करती स्त्री को अगर वर्जिनीया वुल्फ़ के अ रूम फॉर वन्स ओन के द्वारा पहचाना जाता है तो भारतीय संदर्भ में स्त्री किस तरह अपने स्पेस का निर्माण करती है, उसका उदाहरण ठीकरे की मँगनी की महरुख़ है। भारतीय मानस में जब अपनी ज़मीन, अपने स्थान के लिए स्त्री कोई निर्णय लेती है, तो निश्चय ही वह अपने परिवेश के अनुकूल ही होगा- देखा-देखी में किया गया नहीं- यह बात नासिरा शर्मा अपने उपन्यासों में लगातार रखती चलती हैं। जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया उनके उपन्यासों की विशेषता है। शायद पश्चिम की तुलना में भारतीय मानसिकता भी अधिक सकारात्मक है, ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा ।
दाम्पत्य जीवन में अनबन को लेकर कई उपन्यास हिन्दी में लिखे गए हैं । नासिरा शर्मा का शाल्मली इसी श्रेणी में आता है। पर शाल्मली अपनी वैचारिकता में इस विषय के सर्व सामान्य उपन्यासों से भिन्न है। उपन्यास की नायिका ऊँचे पद पर कार्यरत एक अफ़सर है जिसका विवाह उसके अफ़सर होने के पूर्व नरेश से हुआ था, जो उस समय एक क्लर्क था। शाल्मली अफ़सरी की परीक्षा पास करने के बाद लगातार तरक़्क़ी करती चली गई और नरेश जहाँ का तहाँ रह जाता है। यह अलग बात है कि शाल्मली को अफ़सर बनाने में नरेश की भी भूमिका रही थी। परन्तु बाद में नरेश हीनता ग्रंथी से पीड़ित हो जाता है। और उनके दाम्पत्य में एक प्रकार की दूरी आ जाती है। दांपत्य जीवन में आयी दूरी के बावजूद एक पढ़ी-लिखी, अफ़सर औरत, अगर तलाक़ नहीं लेती तो इसका कारण यह नहीं कि वह दब्बू है या कमज़ोर है, पर यह उसका अपना एक समझदारी भरा निर्णय, उसका अपना चुनाव भी हो सकता है। और यह चुनाव इस तर्क पर आधारित है कि अन्यत्र जुड़ जाने के बाद समस्या हल हो ही जाएगी यह ज़रूरी नहीं। फिर शाल्मली को नरेश से घृणा भी नहीं है, वह अपने दिल के किसी कोने में उसके लिए प्रेम भी अनुभव करती है। शाल्मली एक मैच्यौर स्त्री की तरह हमारे सामने आती है। हिन्दी की कई औपन्यासिक कृतियों में दाम्पत्य जीवन की समस्याओं में तलाक़ का मुद्दा आया है। तलाक़ एक तरह से आधुनिकता का प्रतीक बन गया है, अतः कई पाठकों को शाल्मली का यह निर्णय कि तलाक़ नहीं लेना है -बहुत पिछड़ा और दक़ियानूसी लगता है। लेकिन हमारे अपने समय में यह बात भी अब अनुभव का हिस्सा बनती जा रही है कि तलाक़ ले लेने से न तो हमेशा ही लाभ होता है और न ही यह दाम्पत्य जीवन में आयी विसंगतता को दूर करने का कोई कारगर तरीक़ा साबित हुआ है।
नासिरा शर्मा का अक्षयवट हिन्दु-मुस्लिम समस्या को जड़ों में जाकर पड़तालता एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह हमारी अपनी साझा संस्कृति का एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना जाता है। नासिरा शर्मा अक्षयवट के प्रतीक द्वारा एक सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ती हैं। नासिरा शर्मा का दायरा तंत्र के भ्रष्टाचार और उसमें रही भेद नीति तक फैला हुआ है। वह यथार्थ को उसकी व्यापकता में देखता है। सवाल हिन्दू-मुसलमान का ही नहीं है, पर सवाल उस भ्रष्ट-तंत्र का है जो मनुष्य को और क़ौमों को भेद की दिशा में जाने को बाध्य करता है।
यहाँ हमें मंज़ूर ऐहतेशाम के उपन्यास सूखा बरगद का सहज ही स्मरण हो आता है। इस उपन्यास में सघन भावुकता है। यह मूलतः धर्म निरपेक्षता के तथा मार्क्सवादी वैचारिक छलावे के परिणामों की ओर इशारा करता है। लेकिन इसका पट अलग है। भावुकता हमेशा ही जकड़ती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह सूखा बरगद हमें जकड़ता है, वैसे अक्षयवट नहीं। परन्तु साथ ही यह कहना ही होगा कि अक्षयवट हमें सोचने के लिए मज़बूर करता है। इसमें दो क़ौमों को केवल क़ौम की तरह न देख कर एक ही तंत्र में पिसते नागरिकों की तरह देखा गया है। यह सोच हमें अपनी लोकतांत्रिक प्रणाली में पैठ गयी मूलभूत कमज़ोरी तक ले जाने का काम करती है। अक्षयवट का शीर्षक लेखिका के उस नज़रिए को स्पष्ट करता है जो उनके प्रायः सकारात्मक पक्ष को उभारता है।
यह एक अजब बात है कि अपनी संरचना में सूखा बरगद में स्त्री सहज भावुकता है जबकि अक्षयवट में एक तटस्थ, कठोर-सी चिंतनात्मकता है जो निश्चय ही स्त्री-सहज नहीं मानी जा सकती। यह अन्तर रचनाकार की मानसिकता का भी है और शायद उस देश( स्पेस) का भी जिस पर उपन्यास की कथा खड़ी है। एक कथा भोपाल की ज़मीन पर घटती है और एक इलाहाबाद में। अक्षयवट का बाहरी विस्तार बड़ा है तो सूखा बरगद भीतर की गहराइयों में उतरता हुआ दिखता है। पर हमारे आज के इस संदर्भ के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ के रूप में इन उपन्यासों को गिनना चाहिए।
इधर उनका जो उपन्यास चर्चित रहा है उसमें इस दौर की सबसे अहम् समस्या पर उनकी नज़र गयी है। नारी, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार आदि से अधिक महत्वपूर्ण और पहले जो समस्या आने वाली है, जिस पर हमारा वजूद टिका है- हमारा - यानी स्त्री, पुरुष, हिन्दू ,मुस्लमान , अमीर ग़रीब, अनपढ़ विद्वान- वह है पानी की समस्या। कुँइयाजान में जिस पानी की समस्या को उठाया है, उसका संबंध केवल भारत से नहीं है अपितु वह एक वैश्विक समस्या है।
कुँइयाजान की बात करने से पूर्व नासिरा शर्मा के उपन्यासों के एक महत्वपूर्ण पक्ष की बात करना ज़रूरी है। वह पक्ष उनकी भाषा से जुड़ा है। नासिरा शर्मा की औपन्यासिक भाषा में जो आत्मविशवास झलकता है, वह सबसे पहले पाठक को आकर्षित करता है। उपन्यासों में कथा की जटिल बुनावट का प्रबंधन करना सरल नहीं होता। विचार और वर्णन – दोनों के स्वाद के साथ संवेदनशीलता को बनाए रखना, बहुत कठिन होता है। अपने लगभग पिछले उपन्यासों में नासिराजी ने कथा-वर्णन को प्रधानता दी है। हाँ, अक्षयवट में इस नयी बुनावट की शुरुआत दिखाई पड़ती है। ऐसे लगता है कि लेखिका को अब उपन्यास के शिल्प की अपेक्षा उस समस्या में रुचि है जो उपन्यास रचना से अधिक गंभीर है। यों भी इस उत्तर-आधुनिक समय में परम्परागत शिल्प के ढाँचों का कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया है।
उपन्यास में कथ्य यों ही नहीं आता । वह हमारे अपने वर्तमान जीवन से संबद्ध होता है। एक अजब इंटर-डिसीप्लीनरी जीवन हो गया है आज हमारा । इस आज के हमारे समय में एक दूसरे के क्षेत्र में इंटरसेप्ट करता हुआ यथार्थ दिखाई पड़ता है जो अब उपन्यास के शिल्प का भी हिस्सा बन गया है। यह अत्तर अधुनिक समय की अंतरपाठीयता के उदाहरण हैं। कुँइयाजान में इस तरह की अंतरपाठीयता में इंटरसेप्शन मीडिया और सेमीनार प्रोसीडिंग्स का है। सवाल यह उठता है कि इस तरह के प्रयोग या रचना विधान उपन्यास में किस हद तक उपयोगी और कारगर साबित होता है। अख़बार की कतरनें और जल समस्या पर हुए एक सेमीनार के प्रोसीडिंग्स हमारे इस समय की उस सचाई को भी प्रस्तुत करती हैं कि मानव – अस्तित्व के इन अहम् मुद्दों पर आज चर्चा जितनी हो रही है, संभवतः काम उतना नहीं हो रहा। इस एक ध्वन्यार्थ के उपरान्त यह उपन्यास के भावुक क्षणों को संतुलित करने का काम भी करता है।
उपन्यास में कई कथाएं, उप-कथाएं और प्रसंग हैं। और है एक गाथा – जल की, जीवन की- जिसे लेखिका हमारे सामने रखना चाहती हैं। शकरआरा और ख़ुर्शीदआरा की कथा , समीना और कमाल की कथा, राबिया और मख़फ़ूरुल रहमान( मग्गा) की कथा बदलू और बुआ का कथा-प्रसंग, रमेश-रत्ना-शमीमा का प्रसंग, पन्नालाल सुनार का प्रसंग..... अनेक कथा-गुच्छों से भरे इस उपन्यास का नायक तो पानी ही है। सावन के झूलों से लेकर कुँइयों के पानी को जान मानते ये सभी चरित्र अपने जीवन के सुख-दुखों में पानी की महत्ता को महसूस करते हैं। मौत हो या जन्म ... पानी के बिना कुछ भी संभव नहीं है।
कुँइयाजान में वर्णित जल समस्या और पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधो में आए आर्द्रता के संकट की हक़ीकत को जिस तरह लेखिका ने अपने कथा-विन्यास में गूँथा है, उससे यह पता चलता है कि लेखिका के लिए मनुष्य की भावना और संबंध का वही स्थान है जो स्थान पानी का मनुष्य के जीवन के होने के लिए ज़रूरी माना जाता है। पहले पाठ में ऐसा लगता है कि कथा में थोड़ी जटिलता आ गई है, अतः थोड़ी उलझन-सी होने की संभावना है। इस अर्थ में कि दोनों मुख्य कथाएं बन जाती हैं। उप-कथा नहीं बनती । ऐसा नहीं लगता कि कमाल-समीना अथवा शकरआरा और ख़ुर्शीदआरा की कथा कम महत्वपूर्ण है। अतः एकबारगी यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि लेखिका संबंधों के सूखेपन को धरती के सूखेपन से जोड़ रही हैं या इसके विपरीत। परन्तु संभवतः इन दोनों को ही लेखिका उभारना चाहती हैं। नासिरा शर्मा के संदर्भ में यह कहना इसलिए ज़रूरी हो जाता है क्यों कि नासिरा शर्मा की औपन्यासिक कला बहुत सीधी रही है। वे कथ्य के सीधे संप्रेषण में ही कला की सार्थकता मानती हैं। संभवतः इसीलिए मुझे नासिरा शर्मा का कथा –साहित्य अधिक रुचता है। फिर वे जिन समस्याओं को उठाती हैं, उनके प्रति वे केवल उत्सवी-भाव से जुड़ी नहीं होती। अतः समस्याओं की जड़ तक ही नहीं जातीं बल्कि उनके विषय में, अपना एक दृढ मत भी रखती हैं। उनके मत से असहमत हुआ जा सकता है , परन्तु अपने मत को रखने के उनके आधार और तरीक़े इतने नायाब और ठोस होते हैं कि उनकी बातों को नज़रंदाज़ तो नहीं ही किया जा सकता है।
कुँइयाजान में लेखिका ने सपनों का ज़बरदस्त उपयोग किया है। भारतीय विश्वास यह है कि स्वप्न आने वाली घटना का संकेत देते हैं और वैज्ञानिक दृष्टि यह है कि स्वप्न हमारे मन के अपराध-बोध को प्रकट करते हैं। शकरआरा का स्वप्न इसी प्रकार का है और समीना तथा ख़ुर्शीदआरा का स्वप्न आने वाली घटना के विषय में है। लेखिका ने पात्रों के स्वभाव के अनुसार स्वप्नों का उपयोग किया है। शकरआरा के प्रति पाठकों की तथा अन्य पात्रों की सहानुभूति जग सके इस हेतु लेखिका ने स्वप्न के डिवाइस का अच्छा उपयोग किया है। शकरआरा के चरित्र को बदला तो नहीं जा सकता था, परन्तु स्वप्न के माध्यम से जिस तरह लेखिका ने उसके अपराध-भाव को हमारे सामने रखा है, एक क्षण भर में ही, हमारे मन में उसके प्रति सहानुभूति जाग उठती है।
अपनी औपन्यासिक यात्रा में नासिरा शर्मा क्रमशः जीवन-सत्यों के निकट आती हुई लगती हैं। कुँइयाजान में एक और बात रेखांकित करने वाली है – अपने उपन्यासों में नासिरा ने स्त्री पात्रों के परस्पर के संबंधों को बड़ी ज़िम्मेदारी से निभाया है। शायद इस तरह और किसी के उपन्यासों में हमें देखने को नहीं मिलता। केवन शाल्मली का अपनी सास से ही अच्छा संबंध नहीं है, क्योंकि शाल्मली पढ़ी लिखी थी और उसकी सास अत्यन्त संवेदनशील थी। पर राबिया, जो एक ग़रीब घर की लड़की थी, उसका संबंध अपनी कर्कशा सास से जिस तरह का लेखिका ने चित्रित किया है, हमें हैरत में डालता है। राबिया का व्यवहार अपनी इस कर्कशा सास के प्रति देख कर लगता है कि यह किसी दूसरी दुनिया की बात है। उसी तरह शमीमा और अनवरी का संबंध भी सास-बहू का ही है। उसी तरह शकरआरा के अखरने वाले व्यवहार को देख कर भी उसकी बहन ख़ुर्शीदआरा के उसके प्रति व्यवहार का जो रूप पाठकों के समक्ष लेखिका ने उभारा है, ऐसा लगता है कि परिवार-विमर्श की शुरुआत लेखिका ने की है। घर है , संबंध हैं तो हद दर्ज़े की कडुआहट आने पर भी रिश्तों को बनाए रखना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। अक्षयवट के बाद इस उपन्यास में लेखिका ने बहुत साफ़-साफ़ भारतीय पारिवारिक संस्कृति और संबंधों की महिमा को ऐसे उपन्यास में उजागर किया है, जिसमें किसी तरह की सांस्कृतिक विचारधारा या राजनीति का प्रभाव दिखायी नहीं पड़ता । ख़ुर्शीदआरा और शकरआरा के माध्यम से लेखिका ने बहनापे का एक विमर्श भी रखा है। नारी-विमर्श में इधर सिस्टर-हुड(बहनापे) की जो संकल्पना उभर कर आयी है , उसे लेखिका ने अपने अन्य उपन्यासों के माध्यम से तो प्रकट किया ही है, पर इस उपन्यास में उसका खिला और खुला एवं निखरा रूप दिखायी पड़ता है। समीना ख़ुर्शीदआरा की बेटी है और शकरआरा की बहू। शकरआरा का अपनी बहन ख़ुर्शीदआरा के प्रति भाव जानते हुए भी उसके मन में अपनी सास के प्रति कोई दुर्भाव नहीं है। यह जो समझदारी इन स्त्री चरित्रों में लेखिका ने डाली है , एक ऐसा दृष्टिकोण रखा है जो समाज में प्रचलित और चित्रित किए जाने वाले दृष्टिकोण पर सिरे से प्रश्न-चिह्न तो लगाता ही है, साथ ही वह पुरुष समाज की स्त्री के प्रति गढ़ी हुई परंपरागत मान्यता को ठेंगा भी दिखाती है।
इस उपन्यास में नासिरा शर्मा ने स्त्री का गौरव केवल उपन्यास में चित्रित स्त्री चरित्रों के द्वारा ही व्यक्त नहीं किया है, परन्तु जो जल की कथा इसका मुख्य नैरेटिव्ह है, उसमें भी इसको गूंथा है। " कुआं पुलिंग है, कुईं स्त्रीलिंग। कुईं केवल अपने व्यास में छोटी होती है, गहराई में नहीं। कुईं एक अर्थ में कुएं से बिल्कुल अलग है। कुआं भूजल तक पहुँचने या पाने के लिए बनता है, पर कुईं भूजल से ठीक वैसे नहीं जुड़ती जैसे कुआं, बल्कि कुईं वर्षा के जल को बड़े विचित्र ढंग से समेटती और सँजोती है। तब भी जब वर्षा नहीं होती। यानी कुईं में न तो सतह पर बहने वाला पानी है, न भूजल है। यह तो नेति-नेति जैसा कुछ पेचीदा मामला है।"(पृ-314) लेखिका ने इसमें पानी से निर्मित राजस्थान की सामाजिकता, यहाँ की मान्यताएं, पानी का शास्त्र, कुईं बनाने की विधि, इसके पौराणिक संदर्भ, पानी से होने वाले रोग, लोगों की बेहाली का जो चित्र खींचा है वह यथार्थ का ऐसा चिट्ठा है जिसका न तो इन्कार किया जा सकता है और नही उससे मुँह चुराया जा सकता है। लेखिका ने डॉ कमाल को पानी की समस्या के प्रति जिस शिद्दत से जोड़ा है वह इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि कमाल तो एक ऐसे शहर का बाशिंदा है जहाँ गंगा बहती है। पर अब वहाँ भी पानी का संकट तो है ही। जब तक बेहतर स्थिति वाले, संकटमय स्थिति की पहचान नहीं कर पाएंगे, तब तक हमारी समस्याओं का अंत नहीं हो सकता । फिर अपनी तरक्की के लिए यह सब करना उसके लिए क़तई आवश्यक नहीं था। पर जब तक हैव्स (जिनके पास है) हैव नॉट्स( जिनके पास नहीं है) के लिए काम नहीं करेंगे तब तक इस देश की तरक्की संभव नहीं है।
कुँइयाजान में एक तरफ़ पानी का खरा सच और दूसरी तरफ़ संबंधों का सच है। उपन्यास के अंत में जब समीना भी मर जाती है, अपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म देने के बाद, तो डॉ. कमाल दुखी तो होते हैं पर निराश और हताश नहीं। क्योंकि उन्होंने जीवन के उस सत्य को पा लिया था, तमाम रुकावटों के बाद , बरसों बीत जाने के बाद भी अगर नदियाँ अपना रास्ता नहीं भूलतीं , फिर लौट आती हैं, तो मनुष्य को निराश होने का कोई कारण नहीं है। डॉ. कमाल भी अपने पुराने रास्ते- समाज के लिए कुछ करना- पर लौट जाता है। उपन्यास का अंत इस सकारात्मक बिंदु पर होता है।
इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका नासिरा शर्मा ने स्त्री की जो गाथा लिखी है वह इसलिए भी विलक्षण है कि चाहे जल के रूप में कुँइया या मनुष्य के रूप मे स्त्री- वही इस समाज को जीवित रखने का मूल भूत आधार है। जब कुछ नहीं होता तब भी स्त्री तो होती ही है- अपने आप को समाप्त कर के भी समाज को जीवित रखने की ज़द्दोज़ेहद करती हुई...। शायद इसीलिए स्त्री-संबंधों के सकारात्मक पक्ष को भी लेखिका ने बड़े एहतियात से उभारा है।
नासिरा शर्मा अपनी पूरी लेखकीय ईमानदारी से हमारे समय के उस पक्ष को अपने उपन्यासों तथा अन्य लेखों का विषय बना रही हैं जिनका मूल्य आने वाले समय में आँका जाएगा, अगर इस समय की समीक्षा उसे नहीं देख पा रही है तो। किसी भी लेखक के पास आखिर क्या होना चाहिए- भाषा, दृष्टि, बोध, संवेदनाएं...यह सब कुछ नासिरा शर्मा के पास है। उत्तर आधुनिक दौर में परम्परागत स्वरूपों के विखंडन में रचा कुइयाँजान का कलेवर कहीं न कहीं हमारे विखंडित होते समाज का भी चित्र है, जिसे लेखिका अपने अर्जित सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वासों के आधार पर संभवतः बचा लेना चाहती है।
हमारे समय में इतने अधिक नैरैटिव्हज़् लिखे जा रहे हैं कि प्रायः समीक्षक की तो यही इच्छा होती है कि किसी भी तरह का लेखन या तो इस पक्ष में हो या उस पक्ष में, लेकिन एक ईमानदार लेखन हमेशा ही मनुष्य के पक्ष में होना चाहिए। मनुष्य के पक्ष में लिखा जाता साहित्य इस बात की माँग करता है कि रचनाकार सक्षम हो और अपने समय में अपने ही दृढ पाँवों पर खड़ा रह सकने की उसकी क्षमता हो। विचारधारा की बैसाखियों की अपेक्षा अपनी वैचारिकता पर उसे अधिक विश्वास हो, जो अपने समय की नब्ज़ को पहचानता हो। निश्चय ही इस रूप में नासिरा शर्मा एक सफल लेखिका हैं।


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