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मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

पुस्तक समीक्षा(समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित)


क्या जामक लौटाए जा सकते हैं?
श्री विद्यासागर नौटियालजी का गद्य पढ़ना हमेशा ही एक प्रीतिकर अनुभव होता है। अतः जब उनका सद्य प्रकाशित (2012) उपन्यास पढ़ा तो जैसे उस अनुभव को दृढ होते हुए पाया। मेरा जामक वापस दो अपने शीर्षक में अबूझ-सा लगता है क्योंकि जामक का अर्थ-संदर्भ हमारे पास नहीं है। " जामक पचास घरों का एक छोटा-सा गाँव। पिछले कुछ बरसों से इस गाँव के एक छोर पर काली रहता है , दूसरे छोर पर हरि। काली ऊँचाई पर रहता है। जहाँ हरि रहता है, वह गाँव में सबसे निचले स्तर पर, भागिरथी के तट के पास है। हरि के मकान के बाद पुल को पार करते ही वह बटिया शुरु होती है जो मनेरा बाँध की ओर जाती है। गांव की सीमा के बाहर नदी को पार कर लेने के बाद वह बटिया गंगोत्री-उत्तरकाशी मोटर मार्ग से जुड़ जाती है। पहाड़ों और उनकी चोटियों-घाटियों से निकलकर दुनिया से संपर्क करा देने वाली एक मात्र बटिया।"
उत्तर काशी में बसा यह छोटा-सा गाँव लेखकीय चिंताओं के केन्द्र में है। उपन्यास को पढ़ लेने के बाद जामक का भौगोलिक परिचय हमें मिलता है और यह भी पता चलता है कि लेखक जामक को किस से और क्यों वापस माँग रहा है। गुमनामी के अँधेरे में रहे इस गाँव को पहले वहाँ हो रहे विकास कार्यों के परिणाम स्वरूप मानव-सर्जित भूकंपों का सामना करना पड़ा और फिर (संभवतः) उसी के परिणाम स्वरूप प्राकृतिक आपदा रूप भूकंप का सामना करना पड़ा। यहाँ सायमन को भगा कर (गो बैक सायमन वाले सायमन को) हिन्दुस्तान लेने की बात नहीं है फिर भी सायमन के स्वातंत्र्योत्तर काले वंशजों ने तत्कालीन देशवासियों के वर्तमान वंशजों से जो छीना है, और छीन रहे हैं आज भी लगातार, उसको वापस लेने की आवाज़ जामक वासियों को किस तरह क्रमशः मिलती है, इसे लेखक ने अपने इस उपन्यास में दिखाने की कोशिश की है।  आज़ादी के बाद सामान्य जन के शोषण का ठेका जिन व्यवसायियों तथा सरकारी कारिंदों ने लिया है उसका बड़ा सच्चा चित्र इस उपन्यास में प्रस्तुत हुआ है।  
उत्तरकाशी में आए विनाशकारी भूकंप की घटना को केन्द्र बनाकर लिखा गया यह उपन्यास, आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी आम जनता और अंतराल के गाँवों में रहते लोगों की बदहाली का खरा चित्र हमारे सामने प्रस्तुत करने में सफल हुआ है। राजनीतिक पार्टियाँ तथा व्यापारियों की मिलि-भगत को, जिसमें पत्रकारिता की भी एक सहयोगात्मक भूमिका रहती है, बड़े ही विस्तार के साथ इस उपन्यास में चित्रित किया है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे अधिक किसे भुगतना पड़ता है, लेखक ने इसका सटीक चित्र हमारे सामने रखा है। इसका एक मुख्य कारण है गाँव में शिक्षा का अभाव। शिक्षा के प्रचार में विचारधाराएं तथा विचारधाराओं को चलाने वाली राजनैतिक पार्टियाँ किस प्रकार अपने हाथ सेंकती हैं इसे इस उपन्यास की कथा-वस्तु का विषय बनाया गया है।
            प्रकृति विरुद्ध विकास, प्रकृति बनाम अंधविश्वास, मिथ, (प्राकृतिक) संकट विरुद्ध सरकारी नीतियाँ, समय के साथ बदलते पारिवारिक संबंध, स्त्री-शिक्षा और वास्तविक विकास के बिंदु इस उपन्यास का कलेवर रचते हैं। लेखक ने भूकंप का अनुभवजन्य वास्तविक चित्रण किया है-
"मक़ान काँपा, थरथराया और फिर यों हिलने-डोलने लगा कि जैसे किसी बच्चे का पालना हिल रहा हो बांए से दाहिने और फिर दाहिने से बांए, या कोई हंडोला झूल रहा हो आगे से पीछे। भयानक और विचित्र आवाज़ें करते हुए उस घर की इमारत के जोड़-जोड़ टूटने उखड़ने लगे।"
            पर्यावरण अध्ययन की दृष्टि से यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है। आज के बहु-विध विमर्शों में पारिस्थितिक पद्धति तथा पर्यावरण विमर्श केवल विज्ञान तक सीमित न रह कर साहित्य एवं मानविकी तथा विधि जैसे विषयों में भी अपनी पैठ रखने लगे हैं। विकास के नाम पर मनुष्य पर्यावरण संकट को किस तरह बढ़ावा दे रहा है , सरकार किस तरह से संकट को गहरा बनाने की नीतियाँ गढ़ रही है, इन सब का चित्र इस उपन्यास में बख़ूबी मिलता है। हमें लेखक की प्रगतिशील दृष्टि का भी परिचय भली भाँति मिलता है। कोंग्रेस, दक्षिणपंथी तथा वामपंथी पार्टियाँ जनता को किस तरह खुवा देने वाले चक्राकार में घुमा रही हैं, कभी विकास के नाम पर तो कभी सुशासन के नाम पर तो कभी राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर, इसे लेखक ने इस उपन्यास में संप्रेषित करने का उपक्रम किया है। बदलते हुए समय के साथ पहाड़ का भोला-भाला आदमी भी कितना चालाक होता जा रहा है, इसकी ओर भी लेखक ने इशारा किया है।
लेखक को विश्वास है कि आदमी कुदरत से जीत नहीं सकता क्योंकि-
"लेकिन कुदरत भी जिसका कुछ न बिगाड़ सके ऐसा कोई भवन कौन बना सका है आज तक ? कुदरत की बात अलग है। उसकी हरकतें किसी को पूछ कर नहीं होतीं। वह एक झटके में इन्सानी बस्तियों को नेस्तनाबूद कर दे। पहाड़ों को झकझोरते हुए वहाँ जमा मिट्टी-पत्थरों को घटियों में बिछा दे और उनकी सूरतशकल को ही बदल डाले। ........कुदरत से कौन जीत सकता है। आदमी, पालतू पशु और बनैले जानवर, वनस्पति ? इनमें से कुदरत जिसे चाहे घायल कर दे, अशक्त बना दे, वह जिसकी चाहे जान ही ले ले। "
इस भयावह भूकंप में अगर कोई चीज़ ऐसी है जिसके सहारे टिका जा सकता है तो वह है केवल प्रेम और दूसरे के प्रति  सह- सम-वेदना। यही वे दो प्रमुख तत्व हैं जिसके बल पर आम आदमी ज़िंदा है और उसी के बल पर यह पर्यावरण भी बना रह सकता है। पर साथ ही लेखक को भय इस बात का भी है कि अगर परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया तो वह दिन दूर नहीं कि पहाड़ का यह भोला जीव अपनी मूल प्रकृति ही खो देगा।
यह कृति अपनी भाषा, अनुभव की सच्चाई और यथार्थ को देखने तथा दिखाने की लेखक की पैनी और औचित्यपूर्ण संतुलित दृष्टि के कारण अवश्य ही पढ़ा जाना चाहिए। हिन्दी में अब इस तरह के उपन्यास लिखे जा रहे हैं यह हिन्दी पाठक के लिए भी आश्वस्ति का विषय है। भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा से जन-जीवन तथा लोगों के परस्पर के व्यवहार में अंतर आ सकता है, प्रदेशवार उसमें भिन्नता भी हो सकती है, परन्तु तंत्र की जड़ता एवं लूट तो स्थाई भाव की तरह सर्वत्र व्याप्त है- फिर भूकंप चाहे उत्तरकाशी में आया हो या गुजरात में।


मेरा जामक वापस दो- विद्यासागर नौटियाल (उपन्यास)
किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
प्र. सं-2012
मूल्य 350-00
डॉ. रंजना अरगडे,
प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
गुजरात युनिवर्सिटी, नवरंगपुरा अहमदाबाद