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मंगलवार, 12 मई 2009

काव्य मीमांसा के कुछ नए आयाम

काव्य मीमांसा के कुछ नए आयाम
रंजना अरगड़े
यह संभव नहीं है कि राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) की काव्य-मीमांसा के संदर्भ में इस एक बैठक में विस्तार से बात की जा सके, परन्तु उनकी कुछ बातें ऐसी हैं, जो वर्तमान को समझने की एक दिशा देती हैं। राजशेखर महाराष्ट्र देशवासी थे और यायावर वंश में उत्पन्न हुए थे। समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं, जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं। राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं।
लेकिन यह नहीं समझना चाहिए कि राजशेखर लोकप्रिय नहीं है। आज भी अनेक संदर्भों में उनका उल्लेख यत्र-तत्र मिल जाता है। इसका कारण भी यही है कि राजशेखर ने काव्य-संबंधी, न जाने कितने ही प्रकार के विषयों पर वैविध्यपूर्ण विवेचन किया है। वास्तव में ज्ञान के लालित्य का अगर कोई उदाहरण हो सकता है तो वह राजशेखर की काव्यमीमांसा में देखा जा सकता है।
इसमें कोई संदेह या संकोच नहीं होना चाहिए कि किसी आचार्य या विषय के प्रति हमारा रुझान या आकर्षण का कारण हमारी अपनी सोच, स्वभाव या वृत्ति होती है।
बहुत पहले एक बार किसी सभा में एक स्वनामधन्य विद्वान के व्याख्यान में एक चलताउ-सा संदर्भ सुना कि राजशेखर ने अपनी पत्नी अवन्तिसुन्दरी के श्लोक को अपने ग्रंथ में उद्भृत किया है। मेरे कान खड़े हो गए और तभी से राजशेखर के प्रति मेरे मन में रहा एक औपचारिक संदर्भ अचानक आत्मीय हो गया। फिर मुझे याद आया कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने भी अपने निबंध में कहीं इस बात का उल्लेख किया है कि राजशेखर ने राजा का सभा मंडप कैसा होना चाहिए इस का वर्णन किया है। अवन्ति सुन्दरी की खोज में मैंने कई विद्वानों से पूछा पर पता चला कि उस एक उल्लेख के अलावा कहीं कुछ नहीं मिलता। फिर इसी बात को हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास में सुमन राजे ने भी उद्भृत किया है। पर वहाँ भी केवल जानकारी ही मिली। धीरे-धीरे राजशेखर की विशिष्टता के संदर्भ में और बातें भी जानने को मिली।
मूलतः काव्यमीमांसा
[1] नामक ग्रंथ अठारह अधिकरणों में पूर्ण हुआ है। इस ग्रंथ का जो रूप आज उपलब्ध है, वह मूल ग्रंथ का केवल एक अधिकरण मात्र है तथा यह काव्यमीमांसा नामक ग्रंथ का अठारहवाँ भाग है। इसका शीर्षक कविरहस्य है। शेष सत्रह भागों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती। लेकिन जो अधिकरण मिलता है, वह इतना अभिनव विचारों से युक्त है कि शेष संस्कृत ग्रंथों की तुलना में अनन्य बन पड़ा है।
इसमें क्रमशः शास्त्रसंग्रह, काव्य-पुरुष की उत्पत्ति से लेकर काव्य में देश काल के महत्त्व संबंधी अनेक मुद्दों पर रोचक चर्चा है। सत्रहवें अध्याय में राजशेखर ने अपनी एक अन्य पुस्तक भुवनकोश का उल्लेख किया है जिसमें भौगोलिक विषय की चर्चा है। देश संबंधी इस अध्याय में राजशेखर ने काव्य में भौगोलिक संदर्भों के औचित्य पर विचार किया है। कवि-समय की भी बात इसमें है। कविता में भौगोलिक दोषों का परिमार्जन किस प्रकार कवि-समय से हो सकता है, इसका उन्होंने उल्लेख किया है।
काव्यात्मक आनंद से तात्पर्य काव्य-मीमांसा में आए उन स्थानों से हैं, जहाँ राजशेखर ने रोचक कल्पना के द्वारा कोई काल्पनिक कथा गढ़ी हो जिस के द्वारा काव्य-विषयक जानकारी अत्यन्त रमणीय बन गई हो। काव्य-पुरुष की उत्पत्ति इसी प्रकार की एक काल्पनिक कथा है। कथा के माध्यम से राजशेखर ने रीति, वृत्ति आदि की रचना की प्रक्रिया बताई है और सब कुछ निर्मित तथा उनके लोक स्वीकृत हो जाने का उल्लेख किया है। कथा का संक्षेप इस प्रकार है-
प्राचीन काल मे पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से सरस्वती ने हिमालय पर्वत पर जा कर तपस्या प्रारंभ की। उसकी तपश्चर्या से प्रसन्न हो कर ब्रह्मा ने वरदान देते हुए कहा कि मैं तेरे लिए पुत्र उत्पन्न करता हूँ। इस घटना के कुछ दिनों पश्चात् सरस्वती ने काव्य-पुरुष को उत्पन्न किया। उस पुत्र ने उत्पन्न होते ही माता के चरणों का स्पर्श करते हुए छन्दोबद्ध भाषा में कहा कि हे माता यह सारा वाङ्मय विश्व, जिसके द्वारा अर्थ-रूप में परिणत हो जाता है, वह काव्य-पुरुष मैं, तुम्हारे चरणों में वन्दन करता हूँ। इस प्रकार की छन्दोबद्ध वाणी अभी तक वेदों में ही देखी गई थी। उसी के समान भाषा- संस्कृत में भी छन्दोबद्ध वाणी को सुन कर सरस्वती अत्यन्त हर्षित हुई और उस नवजात शिशु को अपने अंङ्क में लेकर प्यार करती हुई बोली – पुत्र यद्यपि मैं समूचे वाङ्मय की माता हूँ परन्तु तूने इस प्रकार की छन्दोबद्ध भाषा से आज मुझ पर विजय प्राप्त कर ली। यह अत्यन्त हर्ष की बात है। कहा जाता है कि पुत्र से पराजित होना द्वितीय पुत्र जन्म के समान है। तुमसे पूर्वज विद्वानों ने गद्य की सृष्टि की है, पद्य की नहीं। इस छन्दोबद्ध वाणी के प्रथम आविष्कारक तुम ही हो। अतः तुम सचमुच प्रशंसनीय हो। शब्द और अर्थ तेरे शरीर हैं। संस्कृत भाषा मुख है। प्राकृत भाषाएं तेरी भुजाएँ हैं। अपभ्रंश भाषा जंघा है। पिशाच भाषा चरण हैं। और मिश्र भाषाएं वक्षस्थल हैं।
[2]
कथा बहुत लंबी है। पर इसके द्वारा काव्य रचना के तत्त्वों को साक्षात् और ठोस रूप में प्रस्तुत करने का उपक्रम किया है। रीति, वृत्ति आदि वायवीय-से लगने वाले काव्य पदार्थों को वे इस कथा के द्वारा सामाजिक परिप्रेक्ष्य देते है।
इस आलेख में मैंने अवन्तिसुंदरी, भारतीय काव्य शास्त्र का स्त्री पक्ष, काव्यपाठ, काव्य तथा नैतिकता के संदर्भ में प्लेटो अरस्तू से तुलना आदि की चर्चा की है।
(1)
अवन्तिसुंदरी का उल्लेख केवल राजशेखर में मिलता है। यह उस समय ही नहीं आज भी उतनी ही उल्लेखनीय घटना मानी जा सकती है, कि एक विद्वान आचार्य अपनी विद्वत्-चर्चा में अपनी पत्नी के विचारों को प्रस्तुत करे। यहाँ प्रश्न पत्नी-प्रेम का नहीं, अपितु स्त्री की विद्वत्ता के स्वीकार एवं आदर का है। राजशेखर ने तीन अलग-अलग संदर्भों में उसे उद्धृत किया है।
व्युत्पत्ति तथा काव्यपाक नामक पाँचवे अध्याय में काव्यपाक संबंधी चर्चा के अन्तर्गत जहाँ शब्द पाक की परिपक्वता की बात आती है वहाँ वामन आदि विद्वानों के इस मत के साथ कि जहाँ एक बार प्रयुक्त शब्द पुनः परिवर्तन की अपेक्षा न रखे वहाँ शब्दपाक होता है, वे अवन्तिसुंदरी के मत को भी उद्धृत करते हैं –
अवन्तिसुंदरी का मत है कि यह अशक्ति है, पाक नहीं( अर्थात् अगर पद को पुनः परिवर्तित करने की आवश्यकता पड़े तो) महाकवियों के काव्यों में एक के स्थान पर अनेक पाठ मिलते हैं। वे सभी परिपक्व तथा उपयुक्त भी होते हैं। इसलिए रस के अनुकूल और अनुगुण शब्द, अर्थ एवं सूक्तियों का निबंधन करना पाक है। जैसा कि कहा गया है-
गुण, अलंकार, रीति और उक्ति के अनुसार शब्दों और अर्थों का जो गुम्फन क्रम है, वह सहृदयों, श्रोताओं और भावकों को आकर्षक और स्वादु प्रतीत होता है – यही वाक्यपाक है। इस संबंध में कहा भी गया है-
कवि, शब्द और अर्थ इन सभी के रहने पर भी जिसके बिना वाङ्मधु का परिस्रवण नहीं होता, वही अनिर्वचनीय वस्तु पाक है। जो सहृदय जनों द्वारा आस्वाद्य और काव्य का प्रधान जीवन है। अर्थात् सब कुछ होते हुए भी काव्य रचना में कवि की प्रौढ़ता जीवन डाल देती है। यह प्रौढ़ता ही पाक है।
[3]
हालांकि राजशेखर ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि अवन्ति सुंदरी के किस ग्रंथ से यह उद्धृत है पर इसमें आए अनिर्वचनीय जैसे पद सहसा ध्वनिवादियों के अनिर्वचनीय शब्द की स्मृति दिलाते हैं और यह अनुमान किया जा सकता है कि अवन्तिसुंदरी ने निश्चय ही गंभीर काव्य-शास्त्रीय ग्रंथ लिखा होना चाहिए। प्रौढ़ता कवि का आंतरिक गुण है और यह परिपक्वता ही काव्य को काव्य बनाता है एवं सहृदयों के लिए आस्वाद्यता का कारण बनता है। केवल कवि (निर्माता) तथा काव्य उपकरण(शब्द, अर्थ आदि) से ही काव्य-मधु(रस) का परिस्रवण नहीं होता, वह तो होता है कवि की प्रौढ़ता के फलस्वरूप।
हालाँकि राजशेखर स्वयं कवि की प्रौढ़ता संबंधी अनिर्वचनीयता के साथ सहमत नहीं हैं पर वे असहमत हैं ऐसा भी उल्लेख नहीं है। वे इस संदर्भ में इतना भर कह देते हैं कि जहाँ पदों के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, वह शब्दपाक वाला काव्य है। जहाँ रस, गुण और अलंकारों का सुंदर क्रम है, वह वाक्यपाक है। इसका समुचित निर्णय सहृदय समालोचकों की आलोचना द्वारा ही हो सकता है।
[4]इससे यह भी पता चलता है कि पत्नी से सर्वथा बौद्धिक सहमति न होने पर भी जहाँ सहमति है उसका वे सादर उल्लेख करते हैं।
एक अन्य स्थान पर भी राजशेखर अवन्तिसुंदरी का उल्लेख करते हैं जहाँ वे काव्य की सरसता एवं नीरसता की चर्चा करते हैं। उन्होंने पाल्यकीर्ति नामक जैन आचार्य के मत के साथ अवन्तिसुंदरी की चर्चा की है और अंत में कहा है कि इन दोनों के मत ठीक हैं। अवन्ति सुंदरी का मत इस प्रकार है-
यायावरीय राजशेखर की गृहिणी अवन्तिसुंदरी का मत है कि किसी वस्तु का स्वभाव नियत नहीं है, प्रत्येक वस्तु अनियत स्वभाववाली है, अतः न गुणवाली है न दोषयुक्त। कुशल कवि की उक्ति-विशेष से वह सगुण या निर्गुण हो जाती है। जैसे-
काव्य-जगत् में किसी वस्तु का स्वभाव नियत नहीं है। कवि की उक्ति के कारण उसमें गुण या दोष आ जाते हैं। जो चंद्रमा की स्तुति करना चाहता है, वह उसे अमृतांशु कहता है और जो धूर्त्त कवि उसकी निंदा करना चाहता है, वह उसे दोषाकर कहता है।
[5]
यहाँ राजशेखर ने यायावरीय राजशेखर की गृहिणी अवन्तिसुंदरी कह कर अवन्तिसुन्दरी की पहचान बताई है। आज जब इसे पढ़ते हैं तो सामान्य रूप से यह विधेयात्मक प्रतीत होता है। क्योंकि इसी के कारण यह पता चलता है कि अवन्तिसुंदरी राजशेखर की पत्नी थी। साथ ही राजशेखर ने अपनी पत्नी की विद्वत्ता को स्वीकार किया, यह भी सिद्ध होता है। पर अतिवादी मत का आग्रह रखें तो यह भी कहा जा सकता है कि क्या इस रूप में उसका आइडेंटिफिकेशन योग्य है। क्या यह पर्याप्त नहीं कि वह एक विदुषी थी। बहरहाल।
तीसरे स्थान पर जहाँ राजशेखर ने अवन्तिसुंदरी का उल्लेख किया है वह ग्याहरवें अध्याय में शब्दहरणम् वाले प्रसंग में है। प्रश्न यह है कि अगर हरण एक प्रकार की चोरी है तो काव्य-ग्रंथ में इसका निर्देश होना चाहिए अथवा नहीं। यहाँ किसी अन्य आचार्यों के साथ उसके मत को न रख कर मात्र इस (चोरी) संदर्भ में उठने वाली संभवित शंकाओं के परिप्रेक्ष्य में अवन्तिसुंदरी का कथन उद्धृत किया गया है-
इस शंका का समाधान अवन्तिसुंदरी ने इस प्रकार किया है- अपनी काव्य-रचना का सौन्दर्य एवं अपनी प्रतिष्ठा आदि की वृद्धि के लिए शब्दहरण और अर्थहरण करना उचित है। अतः, यह विषय उपदेश देने योग्य है। यदि किसी अप्रसिद्ध कवि के काव्य में हरण करने योग्य पद, पाद आदि हैं तो, प्रसिद्ध कवि यह सोच कर उसका हरण करेगा कि उसके सामने अप्रसिद्ध कवि की बात पर लोग विश्वास न करेंगे। दूसरे, प्रसिद्ध कवि, साधन-हीन अप्रसिद्ध कवि के काव्य से हरण करके अपने प्रभाव से उसका प्रचार करेगा, तो अप्रसिद्ध कवि की बातें कौन मानेगा। इसी प्रकार, हरण करने वाला कवि यह सोचकर हरण करे कि इसका काव्य प्रचलित नहीं है, मेरा काव्य प्रचलित है, इसका काव्य गुङचा-पाक है और मेरा द्राक्षा-पाक है, यह दूसरी भाषा का कवि है, मैं दूसरी भाषा का कवि हूँ, इस काव्य को जानने वाले प्रायः मर गए हैं, यह दूसरे देश के निवासी कवि की रचना है, इसे इस देश में कौन जानेगा, इसके निबंधन का मूल ही समाप्त हो गया है, मेरा काव्य म्लेच्छ भाषा के काव्य पर आधारित है, अतः मेरे काव्य की किसी प्रकार निंदा न होगी- इत्यादि।
[6]
यहाँ यह द्रष्टव्य है कि इस संदर्भ में राजशेखर ने तात्कालिक कोई भी टिप्पणी नहीं की है। अनेक उदाहरणों के बाद श्लिष्ट पदों के अपहरण के संदर्भ में कुछ विद्वान कहते हैं – ऐसा कह कर एक मत प्रस्तुत किया है। अतः हमारे मन में उपरोक्त कथन से यह संदेह होता है कि क्या अवन्तिसुंदरी हरण के पक्ष में है। अध्याय के अंत में राजशेखर कहते हैं-
जो लोग पहले से कहे हुए अप्रसिद्ध आदि कारणों में से किसी एक कारणवश दूसरे के काव्य को अपना बनाने का अनर्थक प्रलाप करते हैं, वे केवल हरण ही नहीं करते प्रत्युत अपनी दुर्बलता, असमर्थता, अकुलीनता, आदि दोषों को भी प्रकट करते हैं। वे सब दूषण, मुक्तक-काव्यों और प्रबंध-काव्यों के विषय में समान रूप से लागू होते हैं।
[7]
यायावरीय का मत है कि दूसरे कवियों की अलौकिक कल्पनाओं को लेकर यदि विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त किए जाएं, तो वे हरण के रूप में पहचानी तो नहीं जा सकती, अपितु अत्यन्त सरस और आकर्षक भी हो जाती है। परन्तु हरण की गई उक्तियों का हरण तो हरण से भी गर्हित हो जाता है। वह चुराए हुए को चुराना है।[8]
यहाँ इस बात को रेखांकित करना होगा कि हरण के संदर्भ में राजशेखर अवन्ति सुंदरी से बिल्कुल ही सहमत नहीं थे। अतः उनके कथन को अनर्थक प्रलाप भी कहा है। फिर दुर्बलता अकुलीनता आदि के सरोपे भी पहनाएं हैं। परन्तु राजशेखर की कुशलता इस बात में है कि एक तो वे नाम नहीं लेते और दूसरे अवन्तिसुंदरी तथा अपने मत के बीच में एक लंबा अंतराल भी देते हैं जिसमें अनेक उदाहरण आते हैं। इन तीनों उदाहरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि काव्य-संबंधी विचारों में इन दोनों के बीच सर्वदा एक तरह का मत नहीं रहा होगा। पर राजशेखर ने अवन्तिसुंदरी का अपने ग्रंथ में उल्लेख कर के नितांत नए पथ का अनुसरण किया है। इसी से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय भी स्त्रियां विदुषी रही होंगी।
राजशेखर के इस अवदान को हम संस्कृत काव्य-शास्त्र का स्त्री-पक्ष तो कह ही सकते हैं।
(2)
यह एक विचित्र योगानुयोग है कि काव्य मीमांसा को पढ़ते हुए प्लेटो-अरस्तु का स्मरण हो आता है। चुराए हुए को चुराना सुनते ही अनुकरण का अनुकरण याद आ जाता है। पर प्लेटो जिस तरह कला पर आरोप लगाता है कि कला असत्य है ठीक इसी तरह राजशेखर के समय में भी कला पर असत्य होने के आरोप विद्वानों द्वारा लगाए जाते थे। काव्य की असत्यता संबंधी आरोप अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग दृष्टिकोणों से लगाए गए थे। कहीं सौन्दर्य, तो कहीं अश्लीलता तो कहीं काव्य द्वारा असत् मार्ग का उपदेश किए जाने के कारण। पदवाक्यविवेक नामक छठे अध्याय में राजशेखर ने इन पर प्रकाश डाला है।
राजशेखर वामन, उद्भट आदि आचार्यों के मतानुसार ही मानते थे कि गुण और अलंकार युक्त वाक्य ही काव्य है। परन्तु राजशेखर के अनुसार कुछ लोगों का मत यह था कि काव्य में असत्य आलंकारिक बातों का उल्लेख रहता है अतः, यह उपदेश करने योग्य नहीं है। अतिशयोक्ति काव्य को असत्य बनाती है। राजशेखर अनेक उदाहरण देते हुए ऐसी अतिशयोक्तियों के संदर्भ में दो तर्क देते हैं। एक तो, उनका मानना है कि अगर किसी आशय विशेष के कारण अतिश्योक्ति का प्रयोग किया गया है तो वह त्याज्य नहीं है और दूसरे, वेदों में तथा पुराणों में भी ऐसा किया गया है, अतः यह स्वीकार्य माना जाना चाहिए।
काव्य में अश्लीलता के होने न होने के विषय में भी चर्चा की है। कुछ लोगों का मानना है कि काव्य में अश्लील अर्थ रहता है, वह असभ्य बातों को बतलाता है। अतः, उसका ग्रहण नहीं करना चाहिए। राजशेखर का मानना है कि प्रसंग आने पर ऐसे वर्णन करने की आवश्यकता पड़ती है और यह उचित भी है। फिर अपनी बात की पुष्टि के लिए वह वेदों तथा शास्त्रों का हवाला भी देते हैं।
[9]
कुछ लोगों का मत है कि काव्य असत् मार्ग का उपदेश करते हैं। लोक में सन्मार्ग का उपदेश उचित है। अतः काव्य अग्राह्य और त्याज्य है। उनका उपदेश न करना चाहिए। इसका उदाहरण इस प्रकार दिया है-
पातिव्रत्य से जीवन-निर्वाह करने वाली पुत्री के प्रति वेश्या माता उपदेश करती है- पुत्रि, हम वेश्याओं की विवाह विधि यह है कि लड़कपन में लड़कों को, यौवनावस्था में युवकों को और इस वृद्धावस्था में भी वृद्धों को चाहती हैं- यह वेश्या-धर्म है। तुमने यह क्या अमार्ग से जीवन व्यतीत करने की सोच ली। हमारे कुल में पातिव्रत्य का कलंक कभी नहीं लगा, जिसे तुम आज लगाने जा रही हो।
यहाँ पवित्र परिणय-विधि या पातिव्रत्य की जो दुर्दशा की गई है, वह संस्कृति विरुद्ध होने के कारण त्याज्य है। काव्य ऐसी अमर्यादित शिक्षा देता है अतः सर्वथा हेय है।
[10]
जिस तरह प्लेटो के आरोपों का उत्तर अरस्तू ने दिया था उसी तरह अपने समय में प्रचलित इस प्रकार के आरोपों का उत्तर राजशेखर ने अपने ग्रंथ में दिया है। यायावरीय राजशेखर कहते हैं-
यह उपदेश है किन्तु निषेध रूप से, विधि रूप से नहीं। वेश्यागामियों को वेश्याओं के ऐसे कुत्सित चरित्र का ज्ञान हो, वे उन्हें पतिव्रता समझने की भूल न करें। दूसरे, ऐसे चरित्रों से स्त्रियों
[11] की रक्षा की जाए- यह कवि का भाव है। इसी प्रकार सांसारिक व्यवहार कवियों के वचनों पर आधृत है। कवियों के आदेशानुसार किए गए लोक-व्यवहार मानव के लिए कल्याणकारी होते हैं।
प्राचीन राजाओं के प्रभावशाली चरित्र, देवताओं की प्रभुत्व-लीला और ऋषियों एवं तपस्वियों के अलौकिक प्रभाव – ये सभी कुछ कवियों की वेद-वाणी से प्रसूत और प्रसिद्ध हुए हैं।
इसमें किसी प्रकार का भ्रम नहीं रखना चाहिए कि प्लेटो एवं राजशेखर की तुलना केवल तुलना के लिए कर के हम कुछ नवीन ढूँढने का आनन्द लें। परन्तु यहाँ निर्देश मात्र इतना ही है कि काव्य को झूठा, असत्य, अनैतिक आदि कहना भारतीय परंपरा में भी माना जाता था इसका खुलासा हमें काव्य-मीमांसा में मिलता है। अन्यथा सामान्य रूप से काव्य संबंधी इन चर्चाओं को गौण ही माना गया है अथवा कहा जा सकता है कि, अन-उल्लेखनीय ही माना गया है। राजशेखर के इस प्रकार के उदाहरणों से ज्ञात होता है कि काव्य के सामाजिक पक्ष की भी भारतीय आचार्यों में चर्चा होती थी।
(3)
भाषा पर चिन्तन काव्य-शास्त्र में कोई नई बात नहीं है। परन्तु राजशेखर का भाषा-चिन्तन विशिष्ट इस मायने में है कि वे जहाँ काव्य रचना के अन्तर्गत उसकी चर्चा करते हैं, वहाँ उसके व्यावहारिक पक्षों की भी बात करते हैं। जब संस्कृत की महिमा चारों तरफ फैली हुई थी, तब राजशेखर ही अपने समय में ऐसे पहले आचार्य थे, जिन्होंने अपभ्रंश, प्राकृत तथा पैशाची भाषा( भूत भाषा) के महत्त्व को काव्य-रचना में स्थापित किया। महाकवि तथा कविराज की व्याख्या तथा उनमें श्रेष्ठत्व की चर्चा के अन्तर्गत उन्होंने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि केवल संस्कृत में रचना करने वाले महाकवि होते हैं तथा संस्कृत के साथ-साथ अपभ्रंश, प्राकृत तथा भूतभाषा में रचना करने वाले कविराज कहलाते हैं। वे महाकवि की तुलना में कविराज को श्रेष्ठ बतलाते हैं। फिर यह भी जोड़ते हैं कि ऐसे कविराज तो दो-चार ही हैं जिन में वे अपने आप को रखते हैं। संस्कृत के प्रभुत्व को नकारे बिना भाषाओं के श्रेष्ठत्व की स्थापना निश्चय ही अभूतपूर्व है। मैं समझती हूँ कि यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसी के अनुसार आज अंग्रेजी के श्रेष्ठत्व को नकारे बिना भाषाओं के गौरव की स्थापना का समय है। भाषाओं को लेकर ऐसे प्रसंग इतिहास में आते ही रहते हैं और प्रत्येक समय की राजनीति उस समय के लिए तो भीषण ही होती है। सारस्वतों की चिंता का विषय भी यह हर युग में रहता ही है।
राजशेखर के समय में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत, अपभ्रंश और भूतभाषाओं का प्रचार भी अधिक मात्रा में था। ब्रजभाषा की मूल भाषा शौरसेनी का भी प्रचार था। ये सभी भाषाएँ, काव्य-भाषाएँ थी। राजशेखर स्वयं अनेक भाषाओं के विद्वान थे। उन्हें इस बात का गर्व भी था। एक अनुमान ऐसा है कि उन्होंने अपभ्रंश और पैशाची आदि में भी मुक्तक रचनाएँ की होंगी। प्राकृत में तो उनकी रचना कर्पूरमंजरी प्राप्त है ही।
[12] राजशेखर प्राकृत भाषा के गहरे समर्थक थे। राजशेखर के अनुसार संस्कृत भाषा कठोर तथा प्राकृत अत्यन्त कोमल भाषा है। संस्कृत भाषा तथा प्राकृत भाषा में उतना ही अंतर है जितना स्त्री और पुरुष में है।[13] इस तुलना से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि भाषा के संदर्भ में उनका विचार स्त्रीवादी था। उन्होंने इन भाषाओं को एक क्रम भी दिया है। प्रथम स्थान पर प्राकृत, फिर अपभ्रंश, तीसरे क्रम पर पैशाची। संस्कृत सबसे अंत में आती है।
प्राकृत तथा संस्कृत में कौन पहले तथा कौन बाद में इस संदर्भ में दो मत प्रवर्तित थे। कुछ का मानना था कि पहले संस्कृत, तो कुछ पहले प्राकृत के पक्ष में थे। राजशेखर प्राकृत के पक्ष में थे।
[14] मुख्य धारा की भाषा के स्थान पर अन्य भाषाओं को महत्त्व देना उनके वैचारिक साहस तथा स्वतंत्र सोच की परिचायक है।
राजशेखर की विशेषता इस बात में भी है कि उनकी काव्य-मीमांसा से इस बात का पता चलता है कि उनके समय कहाँ कौन-सी भाषा बोली जाती थी। भुवनकोश नामक ग्रंथ के उल्लेख से यह तो पता चल ही जाता है कि उन्होंने भारत-भ्रमण किया था।
(4)

राजशेखर ने ज्ञान को लालित्य के साथ प्रस्तुत किया है, ऐसा पहले कहा गया है। राजशेखर ने काव्य-मीमांसा के सातवें अध्याय, वाक्यभेद के अन्तर्गत काकु की चर्चा करते हुए काव्य के पाठ के संदर्भ जो कुछ कहा है उसे पढ़ कर आश्चर्य होता है कि राजशेखर जितना काव्य रचना की बारीकियों के प्रति सजग थे उतना ही काव्य की प्रस्तुति को लेकर आग्रही। उनका कहना है कि जैसे-तैसे कर के कोई कविता तो लिख सकता है पर अगर वह उसका पाठ नहीं जानता तो समझना चाहिए कि सरस्वती उस पर प्रसन्न नहीं है। सरस्वती उन्हीं पर प्रसन्न होती है जो अच्छा काव्य-पाठ करना जानते हैं। संभवतः इसीलिए उन्होंने शुद्ध उच्चारण पर भी बल दिया है। इस संदर्भ में वे व्याघ्री का उदाहरण देते हैं कि वह अपने बच्चे को अपने दाँतों से इस तरह उठाती है कि न तो बच्चे नीचे गिरते हैं न ही वे आहत होते हैं।
[15] यह उदाहरण पाणिनीय शिक्षा में भी मिलता है।[16] राजशेखर ने काव्य पाठ के अन्तर्गत जहाँ संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत आदि भाषाओं के पाठ का भेद बताया है, वहीं गुण आधारित काव्य पाठ को भी विस्तार से समझाया है। अर्थात् ओज-गुण की रचना और प्रसाद गुण की रचना के पाठ में क्या अंतर किया जाना चाहिए।
राजशेखर ने इसी सातवें अध्याय में काव्य-पाठ और भूगोल का संबंध भी बताया है। फिर यह भी बताया है कि किस प्रदेश के वासी किस भाषा का कैसा उच्चारण करते हैं। सरस्वती अशुद्ध उच्चारण करने वालों से किस तरह आजिज़ आ जाती है। इस संदर्भ में वे एक रोचक उदाहरण देते है-
कहा जाता है कि सरस्वती ने अपने अधिकार छोड़ने के लिए ब्रह्मा से निवेदन किया कि महाराज या तो गौड़ देशवासी प्राकृत-भाषा पढ़ना छोड़ दें, या मेरे स्थान पर दूसरी सरस्वती को नियुक्त किया जाए। तात्पर्य यह है कि गौड़-देशवासी प्राकृत भाषा की कविता पढ़ना नहीं जानते या उनका पाठ विस्वर और कर्णकटु होता है।
[17]
राजशेखर ने प्रदेश विशेष के उच्चारण का जो वर्णन किया है वह मुदित करने वाला तो है ही, साथ ही इसमें आज भी कोई विशेष परिवर्तन आया हो ऐसा लगता नहीं है। अंत में उन्होंने पांचाल देशवासियों के उच्चारण को ऐसा बताया है कि- उनका पाठ कानों में मधु बरसाता है। वे नियमानुसार समुचित ध्वनि से संपूर्ण वर्णों का स्पष्ट उच्चारण करते हैं।[18]
यहाँ एक और बात ध्यान में आती है। राजशेखर ने काव्य-पुरुष की उत्पत्ति का जो वर्णन किया है उसमें संस्कृत को मुख, प्राकृत को भुजाएँ, अपभ्रंश को जंघा तथा पैशाची भाषा को चरण कहा है। यह सहज ही वर्णाश्रम धर्म के विभाजन का स्मरण दिलाता है। पर वाक्भेद में संस्कृत के स्थान की ही जब चर्चा नहीं करते और प्राकृत को प्रथम स्थान पर रखते हैं तो इसका अर्थ यह हो सकता है कि काव्य-पुरुष वाला विवेचन परंपरागत है, परन्तु स्वयं राजशेखर का मंतव्य के अनुसार तो क्रम वही है जहाँ प्राकृत पहले है। यह उनका अपने समय से नितांत भिन्न तथा प्रगतिशील विचार कहा जा सकता है।
राजशेखर ने इसके अलावा भी कई मुद्दों की चर्चा की है जिनमें उनके द्वारा किया गया आलोचक विवरण तो प्रसिद्ध है ही। किस प्रकार के कवि की चर्या कैसी होनी चाहिए, उसकी वेष-भूषा कैसी होनी चाहिए, उसका स्वभाव कैसा होना चाहिए आदि पर भी विचार किया है। साथ ही काव्य की प्रतिलिपि करने वाले कैसे होने चाहिए, स्याही कैसी हो तथा भुर्जपत्र आदि लेखन सामग्री के संबंध में बड़ी विस्तृत चर्चा की है। यह सारी बातें लेखन-कला से संबंध रखती हैं। राजचर्या में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि अगर राजा कवि हो तो उसकी चर्या कैसी होनी चाहिए। राजचर्या के अन्तर्गत उनके द्वारा किया गया सभामंडप का वर्णन तो अद्वितीय है ही।
आज जब कॉम्युनिकेशन का इतना बोलबाला है तब यह प्रस्तुति की कला की आधारभूत शिक्षा भी राजशेखर से प्राप्त हो सकती है, यह बात हमारे लिए उत्साह देने वाली है। राजशेखर को आज भी पढ़ना इसलिए रुचिकर एवं महत्त्वपूर्ण लगता है कि वे उन सब मुद्दों को भी छूते हैं, जिन से आज हमें सरोकार है।



आचार्य एवं अध्यक्ष- हिन्दी विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद
फरवरी 08




















[1] इसमें क्रमशः शास्त्रसंग्रह, शास्त्रनिर्देश, काव्यपुरुषोत्पत्ति, शिष्यप्रतिभे, व्युत्पत्ति-काव्यपाक, पदवाक्यविवेक, वाक्यभेद, काव्यार्थयोनयः, अर्थव्याप्ति, , कविचर्या राजचर्या, शब्दहरणम्, अर्थहरणम्, अर्थहरणेष्वालेख्यप्रख्यादिभेदः, कविसमयस्थापना, गुणसमयस्थापना, स्वर्ग्यपातालीयकविरहस्यस्थापना, देशभाग, कालविभाग नामक अठारह अध्याय हैं।

[2] काव्य मीमांसा , तृतीय अध्याय, पृ- 14-15(पूरी कथा 24 पृष्ठों तक चलती है।)
[3] काव्य-मीमांसा- पृ-50,अनु. पं केदारनाथ शर्मा सारस्वत, बिहार राष्ट्भाषा परिषद् पटना
[4] वही, पृ-50-51
[5] काव्य-मीमांसा –पृ- 116
[6] काव्यमीमांसा-पृ- 142
[7] वही- पृ-152
[8] वही पृ- 153
[9] योनिरुदूलूखलं शिश्नं मृशलं मिथुनेमे तत् प्रजनन क्रियते- षष्ठोध्यायः,पदवाक्यविवेकः, काव्यमीमांसा –पृ 70
[10] काव्यमीमांसा , पृ-67
[11] वही- पृ- 68

[12] राजशेखर कृत काव्य मीमांसा , भूमिका से 15-16
[13] कर्पूरमंजरी 1,8 राजशेखर कृत काव्य मीमांसा , भूमिका से 16(उद्भृत)
[14] बालरामायण, अंक-1 श्लोक-4(उद्भृत) काव्य-मीमांसा भूमिका से
[15] काव्य-मीमांसा पृ- 83
[16] व्याघ्री यथा हरेत् पुत्रान् दंष्ट्राभ्यां न च पीडयेत् गूभीता पतनभेदाभ्यां तद्वद् वर्णान् प्रयोजयेत,
पाणिनीय शिक्षा,( श्लोक 25)
[17] काव्य मीमांसा- पृ- 84
[18] वही- पृ-85

12 टिप्‍पणियां:

  1. रंजना जी आपका ब्लॉग देखकर बहुत अच्छा लगा . आपको शंभुनाथ जी का नम्बर एसएमएस किया था बात हुई ?

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  2. Very authentic and valuable information produced,my thanks to u.
    Pl.keep writing.
    with regards
    Dr.Bhoopendra

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  3. रंजना जी,
    बहुत ज्ञानवर्द्धक आलेख। राजशेखर का नाम भर सुना था परन्तु आप के द्वारा उनके अवदानो के बारे में जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होने अपने समय का अतिक्रमण करते हुये प्रगतिशीलता का परिचय दिया है।
    आप से इसी प्रकार के शोधपरक और ज्ञानवर्द्धक लेखों की अपेक्षा रहेगी।
    सादर
    अमित

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  4. राजशेखर की काव्यमीमांसा को गंभीर ऐतिहासिक साक्ष्य का दर्जा प्राप्त है ,आप ने बहुत ही सुंदर निरूपण किया है ,आपको बधाई .

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  5. आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
    चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है

    गार्गी

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  6. raajshekhar k sandarbh me is sarthak aur vistrit alekh k liye hardik badhai
    BAHUT BAHUT SWAGAT HAI AAPKA

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  7. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  8. आप सब की चिप्पणियाँ पढ़ कर मन प्रसन्न हुआ। यह मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि मेरे इस लेख को पढ़ कर इतने लोगों ने प्रतिक्रिया भेजी । ब्लॉग की दुनिया में नयी हूँ और अभी व्यक्तिगत रूप से डिप्पणी भेजने की कला नहीं आती तो यह आप सभी-प्रयंकरजी, भूपेन्द्र सिंहजी,अमितजी मनोज गार्गीजी,खत्रीजी,संगीताजी,यामिनीजी, अवस्थीजी, वन्दनाजी---सभी को धन्यवाद।
    रंजना अरगडे

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