विस्थापन का साहित्य
विस्थापन का विस्तार कहाँ से कहाँ तक हो सकता है, तो इस प्रश्न का उत्तर संभवतः यही होगा- अपने घर-गाँव से जबरिया फेंके जाने एवं सांस्कृतिक चौपाल का ई-चौपाल में बदलने (उमा वाजपेयी, 2007) से लेकर बाज़ारवाद के फलस्वरूप अपने भीतर आई बेदख़ली (रामरतन ज्वेल, 2007) तक; लेकिन इस विस्तार तक जाने का खतरा यह है कि विस्थापन का जो वर्तमान प्रसंग है, वह एक तरफ़ रह जाएगा । मुद्दा ठोस न रह कर कुछ वायवीय हो जाएगा। सांस्कृतिक चौपाल का ई-चौपाल में बदलना अथवा बाज़ारवाद के फलस्वरूप अपने भीतर आई बेदख़ली पर व्यक्ति का वश तो नहीं है, पर उसकी हिस्सेदारी अवश्य है और प्रकारांतर से सहमति भी ; पर अपने घर-गाँव से जबरिया फेंके जाने में व्यक्ति की सहमति कदापि नहीं है, हाँ उसका वश चाहे न हो।
जम्मू-कश्मीर का समकालीन सृजन, जो मुख्यतः विस्थापन को लेकर है, पर सोचते हुए, सबसे पहले जो बात विशेष रूप से आश्चर्य में डालती है, वह यह कि वहाँ कश्मीरी भाषा के अलावा डोगरी, हिन्दी,पंजाबी,उर्दू, अंग्रेजी एवं गोजरी भाषा में भी साहित्य-सृजन हो रहा है। एक ही प्रदेश में इतनी सारी भाषाओं में साहित्य रचा जाना एक विलक्षण तुलनात्मक परिस्थिति का निर्माण करता है। किसी एक प्रदेश में अनेक भाषाओं में सृजन होना संभवतः विलक्षण बात नहीं लगेगी ; पर जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक और भौगेलिक स्थिति और उसके वर्तमान विस्थापन के संदर्भ में यह अवश्य ही विलक्षण बन जाती है। राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी चेतना को इन भाषाओं के साहित्य में देखना निश्चय ही रोचक हो सकता है।
इन रचनाओं में विस्थापन की स्थिति के अनुभव कई तरह के हैं। ये अनुभव दहशत, आशंका, पीड़ा, अविश्वास से लेकर आशा, आस्था तथा नव-निर्माण के स्वप्न तक फैले हुए हैं। उनमें एक अनुभव जम्मू कश्मीर की इस अंग्रेज़ी कविता में देखा जा सकता है- "कभी वहाँ मेरा घर था/ ग्यारह बर्फ़-जाडों के बाद / जहाँ मैं लौट आया था / एक सैलानी की तरह"। (संतोष, 2007) वह थोड़ी सी जगह कवि को मासूम बच्चों की मुस्कानों, कुछेक नवयुवकों की आँखों में और उन बूढों में मिली जो अपनी धरती से बे-पनाह प्यार करते हैं। कवि भविष्य के प्रति निराश नहीं है। हाँ, पर पूरी तरह सावधान, क्योंकि कभी भी कोई ज़ेहादी आ कर बंदूक का ट्रिगर दबा सकता है।
विस्थापन की इन कविताओं में दहशत का भाव विद्यमान है। इस दहशत के भाव के कारण हो सकता है कि इन्हीं कविताओं को आतंकवाद से प्रभावित भाव-बोध की कविता भी कहा जाए। पर कश्मीर के संदर्भ में, जैसे अन्य इसी प्रकार की स्थितियों में जी रहे देशों में भी, ये कविताएं अथवा साहित्य विस्थापन की भूमिका वाला साहित्य हो जाता है ; क्योंकि यहाँ, यही दहशत तो विस्थापन के मूल में है। इस संदर्भ में डॉ.मनोज की डोगरी कहानी दस्तकें एवं एम.के वकार की गोजरी कहानी आदमी नहीं उल्लेखनीय हैं। दरवाज़े पर होती ठक-ठक कितनी दहशत पैदा कर सकती है, उसे एक छोटी सी कहानी में एम.के वकार बताते हैं ; उसी को कुछ विस्तार से डॉ मनोज ने वर्णित किया है। यह दहशत आदमी नहीं कहानी के एक खानाबदोश को उतना ही सकते में डालती है, जितना कि दस्तकें कहानी के एक स्थायी निवासी को। (वकार, 2007) इन कहानियों में उन पात्रों का संदर्भ है, जो कम-सेकम अभी तक तो निर्वासित नहीं हुए हैं। लेकिन कब हो जाएँगे इस संदर्भ में कुछ कहा नहीं जा सकता। पर वे जो निर्वासित हो चुके हैं और कहीं और , किसी अन्य भूमि पर बसते हैं उनके लिए तो खुली पीठ पर कोड़े की मार सहने जैसा अनुभव ही है। किन्तु ऐसी स्थिति में भी वे आशावादी हैं- "ज़लावतन होना /अर्थात्/ रेल्वे प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना / किसी ऐसी ट्रेन की /जो तुम्हें अपनी जडों तक ले जाए/ और साथ ही अपने भीतर की यात्रा पर भी/कि नहो तुम्हें विस्मृत/अपना अतीत/अपनी शिनाख़्त /अपने देवता/अपनी जन्म भूमि।" यह आशावाद इन पंक्तियों में भी देखा जा सकता है-"मुझको यकीन है कि वो मंज़िल भी आएगी/ पूछेगा मुझसे मेरा सफ़र , रास्ता कहाँ"। (ज़ाफ़री, 2007)
जलावतनी का गीत गाते ये निर्वासित कहते हैं- "मैं पहनता हूँ/ अपने ही देश के जूते/पर यह कल्पना करता हूँ/अपनी धरती पर चल रहा हूँ/ " इस ख़ूबसूरत ख़याल के बाद वे कहते है- "मैं पहनता हूँ अपने ही देश के जूते/जो मुझे कहीं भी ले जा सकते हैं/ सिर्फ़ वहाँ नहीं/ जहाँ से हमें निकाला गया"। (संतोषी, 2007) जलावतनी का अर्थ होता है- अपनी जड़ों से कट जाना, अपनी अस्मिता खो देना, निरंतर अनिश्चय में जीना, अपने पद, प्रतिष्ठा और इतिहास से वंचित हो जाना, अपने अस्तित्व, आस्था, मूल्य तथा मानवीय गरिमा के खतरे में पड़ जाने का और जीवन की तलछट का अनुभव करना; अथवा तो फिर इन्हीं परिस्थितियों में जिजीविषा के साथ नयी संभावनाओं को तलाशना। जलावतन होने का अर्थ है एक ऐसी ट्रेन प्रतीक्षा करना जो फिर जड़ों तक ले जाए और साथ ही अपने भीतर एक ऐसी यात्रा लगातार करना कि जिससे अपना अतीत, अपनी पहचान, अपने देवता और अपनी जन्मभूमि का विस्मरण न हो जाए। (चौधरी, 2007)
लक्ष्य प्राप्ति के लिए मृत्यु और दुख की आकांक्षा करता कश्मिरी कवि कहता है-"अरे, मेरा करो अपहरण/ले जाओ मुझे अपने यातना शिविर में / कुछ नहीं कहूँगा मैं/करो जो कुछ भी करना है / मेरे शरीर के साथ/ जिन्दा जलाओ, काटो/या दफ़न करो..../ तरस गया हूँ अपनी ज़मीन के स्पर्श के लिए" (अग्निशेखर, तड़प,,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, 1996)। भौतिक सुविधाओं को प्राप्त करना कहीं न कहीं उस दुख को भूल जाना है, जिसका होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि अभावों के अँधेरों में पैदा हुआ यह दुख ही दूसरों की खुशी का अहसास कवि को देता है। इस दुख में जीवन की बंद स्मृतियाँ सँजोई पड़ी हैं, जिसे कवि ने अपने जिगर में पाल रखा है। (अग्निशेखर, साईकल ,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, 1996)
अपनी ज़मीन के लिए संघर्ष करते इन विस्थापितों के लिए निराशा नहीं, अपितु आशावादिता का होना आवश्यक है। यह एक बहुत बड़ा अंतर है आधुनिक काल के अस्तित्ववादियों एवं इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों में। आधुनिक काल में प्रचलित अस्तित्ववादी चिंतन में मृत्यु ही जीवन का परम लक्ष्य माना गया था ; पर राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए मृत्यु तभी स्वीकार्य है अगर लक्ष्य –प्राप्ति के लिए वह अनिवार्य साबित हो; और उनका लक्ष्य है, अपनी मातृभूमि में वापस लौटना। इस हेतु वे किसी भी क़ीमत पर अपने भीतर जग रही आशा को खोना नहीं चाहते हैं। आशा को ही खो देंगे तो कैसे चल सकता है। "मेरी सोयी हुई माँ के चेहरे पर/ किसी छिद्र से पड़ रहा है /थोड़ा –सा प्रकाश/हिल रही हैं उसकी पलकें/कौन कर रहा है इस अँधेरे में / सुबह की बात" (अग्निशेखर, थोडा सा प्रकाश, 1996) यह आशावादिता निर्वासन भोग रहे एक कवि की है तो इसी को एक कहानी में भी देखा जा सकता है, जिसकी नायिका को आतंकवादी उठा कर ले ही नहीं गए थे, बल्कि उस पर इतना अत्याचार किया और उसे गर्भवती भी बनाया। नायिका उनसे बच निकलने के लिए लगातार प्रयत्नशील है। वह अपने इस प्रयास में कामयाब भी हो जाती है ; यह जानते हुए कि अब उसे कोई स्वीकरेगा नही। अपने साथ अन्याय करने वालों को ठिकाने लगा कर जब वह बच निकलती है तो कहानी के अंत में लेखिका ने लिखा है- "गु गू गु.... पूर्वी आकाश में उजास फूटा। चिनार के पत्तों के बीच छिपी गुगी ने कुहुक कर उसका ध्यान खींचा। .....साफ़ तलैया के पास पहुँच कर उसने बच्ची को चौड़ी चट्टान पर लिटा दिया। बच्ची सख़्त स्पर्श पा कर पहले कुनमुनाई, बाद में चीख़ मार कर रोने लगी। विनी को उसके रुदन की आवाज़ अनूठी लगी। जैसे पहली बार सुन रही हो। उसने हथेली भर-भर पानी बच्ची पर उछाला और उसकी ऊँची उठती आवाज़ों के खंड़हर में गूँजते और आसमान को छूते देखती रही। के दिल से सारा डर निकल गया।" (चंद्रकांता, 2007) यहाँ आवाज़ और अभिव्यक्ति का महत्व इसलिए है कि दहशतगर्दों के साथ रहते हुए, पकड़े जाने के भय से उस बच्ची का मुँह कस कर बाँध दिया गया था। यह आवाज़ एक तरह से मुक्ति की आवाज़ थी।
इतिहास एवं सांस्कृतिक बोध की अनिवार्य उपस्थिति अगर अग्निशेखर की कविता में है तो तन्हा निज़ामी की कविता में भी है। ललद्यद को याद करते हुए तन्हा निज़ामी कहते हैं- "न हो आद्य कवियित्री ललद्यद की पीड़ा का स्मरण किसा को/ ओ मेरे देश/तुम्हें सींचा है मैंने अपने रक्त से/ मेरी आत्मा में रचे बसे सुगंधित वन/ये नदियाँ/ ये पेड़/ ये मौसम हैं तुम्हारा श्रृंगार/जिनकी मैं करता हूँ वंदना" (निज़ामी, 2007) तन्हा निज़ामी ललद्यद की जिस पीड़ा को याद नहीं करना चाहते उसे अग्निशेखर याद करते हैं – "तुमने समय के तंदूर में मारी छलांग/ और उदित हुई तन ढंककर/स्वर्ग के वस्त्रों में/ बिखेरते हुए बर्फ़-सा प्रकाश कहा तुमने/ कौन मरेगा और मारेंगे किसको.......विकल्प की आग में छलांग है हमारा निर्वासन" (अग्निशेखर, ललद्यद के नाम, 1996)। अग्निशेखर ने यह कविता निर्वासन में लिखी है। पीड़ा को जिलाए रखना इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी कविताओं का लक्षण बन जाता है।
कश्मीरी पंडितों की अपने इतिहास में जो यात्रा हुई है उसका एक वर्णन "पनुन कश्मीर" कविता में अयाज़ रसूल नाज़की करते हैं। कविता में शारिका पीठ से हारी दरवाज़े तक आते-आते कश्मीरी पंडित यह भूल जाते हैं कि आज अष्टमी है और मीट नहीं खाना है। (नाज़की, 1997) यह कहना मुश्किल है कि इसमें कवि इन दो विपरीत स्थितियों के माध्यम से क्या कहना चाहता है। पर शारिका पीठ और हारी दरवाज़ा इतिहास के दो काल-खंड हैं, जिनमें से होते हुए आए इन पंडितों के रहन-सहन में भी अब बरसों अंतर आ गया होगा। क्या यह पहचान के धीरे-धीरे बदल जाने का संदर्भ है जिसको पाठकों के समक्ष रख कर पनुन कश्मीर की व्यर्थता बता रहा हो ? या यह केवल एक तथ्यगत संकेत है? यह भी एक प्रश्न है। परन्तु पहले अपनी नदी और अब अंत में अपनी मातृभूमि छीन लिए जाने की आशंका से घिरा कवि उस धीमे और क्रमशः बदलते कश्मीर के चेहरे में कहीं अपने अस्तित्व और भूमिका को नए सिरे से जाँच और तलाश रहा है- संभवतः।
विस्थापन की इन कविताओं में एक बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि क्या घाटी के भीतर के और घाटी के बाहर के कवि – यानी निर्वासित पंडित और घाटी में रह गए मुसलसानों- के बीच क्या रिश्ता है ? यह अत्यन्त संवेदनशील मुद्दा इसलिए भी है कि आज यह संघर्ष कहीं न कहीं धार्मिक भी हो गया है; जबकि कश्मीर अपनी प्रकृति से धर्म-निरपेक्ष रहा है। क्या वर्तमान दहशत उसके इस मूल स्वभाव को बदल देना चाहती है? इस संदर्भ में बशीर अतहर अपनी एक कविता में कैसी मार्मिक संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं, उसे तो पूरा ही देखना आवश्यक है-
मेरा क्या होगा
तुम्हॆं लगता है
तुम्हारे विस्थापन पर ख़ुश हुआ था मैं
तुम्हें यही लगता है
कि हडप कर तुम्हारी घर-गृहस्थी
मालामाल हो जाने की स्वप्न था मेरा
तुम्हारे विरसे का स्वामित्व
पृथ्वी का एकाधिकार पाऊँगा मैं
आकाश को खींचकर कदमों तले
बिछाऊँगा मैं
तुम्हें यही लगता है
कि इसी ताक में था मैं
कि सपनें के महल बनाऊँगा
शमशानों पर
तुम्हारी हर स्मृति
हर चीज़ को मिटाकर
छोडूँगा उन पर छाप अपनी
पर तुम्हें नहीं पता
कि ज़रूर किये मैंने शमशानों पर खड़े
अपने स्वप्न महल
और मेरे अपने ही सपने हुए भस्म
मैंने ओढ़ लिया तुम्हारा फ़िरन
वो बन गया कफ़न मेरा
मैंने बाट ली तुम्हारी शिखा की रस्सियाँ
इस तरह मिटाते हुए तुम्हारे निशान
मिट गई मेरी अपनी अस्मिता
रेत से जैसे पदचिह्न
लील जाते हुए तुमहारा वजूद
जाने कहाँ गया मेरा होना
कल ही बनाई मैंने
एक नयी मोहर
और हर उस चीज़ पर लगा दी
जो तुम्हारी थी
पर सोचा नहीं
इन कब्रिस्तानों का क्या करूँ
जो फैलते जा रहे हैं रोज-रोज
इतनी है लाशें
तुम तो चिता की आग में
एक दिन हो जाओगे लीन
मगर मेरी कब्र...
क्या होगा उसका (अतहर, मेरा क्या होगा, 2007)
यह कविता कश्मीरी पंडितों के नाम है। यह एक तरह से अपराध-बोध की सकारात्मक अभिव्यक्ति भी है, जो मन को छूती है।
कश्मीर में रहने वाले मुसलमान बाशिंदों में और दहशतगर्द मुसलमान में जो अंतर है वह भी इस और अन्य कविताओं में साफ़ देखा जा सकता है , क्योंकि धर्म चाहे जो हो, ज़मीन तो दोनों की कश्मीर है। कश्मीर के सौन्दर्य और कश्मीर की संस्कृति के नष्ट हो जाने का सभी को समान अहसास है। (आज़ाद, 2007)
इस कविता के साथ-साथ उन कहानियों को भी देखा जा सकता है जो डोगरी भाषा में लिखी गई हैं, जिनके सारे चरित्र मुसलमान हैं और वे बहुत अच्छे हैं; इस मायने में कि घाटी में जिस तरह की परिस्थिति है उसके लिए आम मुसलमान ज़िम्मेदार नहीं है। ये सारी कहानियाँ गैर-मुसलमानों के द्वारा लिखी गई हैं।
जैसे कि पहले बताया गया है कश्मीरी विस्थापन की कविताओं की विशेषता यह है कि इसमें एक साथ आठ भाषाओं की कविताएँ मिलती हैं। कश्मीरी, हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू. डोगरी तथा गोजरी। विस्थापन के अनेक आयाम इन कविताओं में मिलते हैं । वास्तविक धरातल पर जिसे राजनीति ने पक्ष-प्रतिपक्ष बना दिया है , कविता में भी दोनों ही अलग-अलग भूमिका के साथ मौजूद है पर विस्थापन का भाव दोनों में है। एक दूसरे के प्रति संबंध का भाव दोनों में है। अगर कश्मीर के मुसलमान को हिन्दु की पीड़ा महसूस होती है तो तमाम दूरियों के बाद भी जलावतन हुए कश्मीरी मुसलमान के लिए एक हिन्दु कवि भी उतना ही दुखी है क्योंकि जलावतनी में स्थितियाँ तो सभी के लिए एक जैसी हैं।
लेकिन जो जलावतन नहीं हुआ है, उससे भी कवि पूछना चाहता है कि कैसे हो? क्योंकि भीतर से दोनों ही लहुलुहान हैं। (अग्निशेखर, कश्मीरी मुसलमान 1,2, 1996)
मातृभूमि की ही तरह माताएं भी इन रचनाओं में एक जैसी ही हैं- माताएँ इंतज़ार कर रही हैं, सीमापार गए बच्चों की, माताएँ ,जो बिलख रही हैं, कुचली जा रही हैं और कवि को चिंता है कि क्यों कोई माताओं के मानवाधिकार का प्रश्न नहीं उठा रहा है (अग्निशेखर, माताएँ, 1996) या फिर यह एक और माँ भी है - "वह गरिमामय/हर शाम दरवाज़ा खोले / बाट जोहती अपने छोटे-छोटे राजकुँवरों की/ ----------"वह कुछ लज्जित और आशंकित भी है पर "घुप्प अँधेरे में पड़ोसियों ने एक लंबी दहाड़ सुनी कि मरो नहीं रे/ अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है/ अभी तो तुम्हारे नाख़ूनों पर गीली है मेहँदी।" (शफाई, 2007)
राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अपने मिथकों और अपने इतिहास को बार-बार दोहराना आवश्यक है। ऐतिहासिक ललद्यद की तरह ही सतीसर के मिथक पर लिखी अग्निशेखर की लंबी कविता इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। इसमें नागों के साथ हुई वंचना को लेखक ने बहुत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। नाग पहले राक्षसों से, फिर कश्यप ऋषि से और फिर देवताओं से भी ठगे जाने का अनुभव करते हैं और इसीलिए विरोध को जिलाए रखते हैं- "मेरे विरोध में/छिपा है/ मेर जीवन का स्वप्न" (अग्निशेखर, सतीसर-चैंतीस, 2006) सत्ता किस तरह भोले आम आदमी को ठग लेती है , इस बात को कवि ने विष्णु के मिथक से भली भाँति रेखांकित किया है।
इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अपनी आस्था और संस्कृति, अपने मिथक और अपने देवता अपना इतिहास और अपना वर्तमान इसलिए भी मूल्यवान हो जाता है क्यों कि अपनी ज़मीन के लिए केवल वही संघर्ष नहीं कर रहे बल्कि शरणार्थी शिबिर में रह रही उनकी अगली पीढ़ी भी कर रही है। वह पीढ़ी, जो किसी अस्थाई व्यवस्था की अपेक्षा अपने कर्तृत्व पर अधिक भरोसा रखना सीख गई है-
इस बारिश में
कैंप के पिछवाडे
मुर्दा भैंस के कंकाल में छिपाकर
रख आता है एक बच्चा
उपनी पतंग
तंबू से उठ गया है
उसका विश्वास (अग्निशेखर, शरणार्थी शिविर में-12, 2006)
संदर्भ सूची
1. अग्निशेखर. (2006). कालवृक्ष की छाया में. दिल्ली, भारत: सारांस प्रकासन.
2. अग्निशेखर. (2006). कालवृक्ष की छाया में. दिल्ली: सारांश प्रकाशन.
3. अग्निशेखर. (1996). तड़प,,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली: शारदापीठ प्रकासन.
4. अग्निशेखर. (1996). थोडा सा प्रकाश. अग्निशेखर में, मुझसे छीन ली गयी मेरी नदी (पृ. 10). दिल्ली: शारदा पीठ प्रकाशन.
5. अग्निशेखर. (1996). मुछसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली, दिल्ली, भारत: शागदापीठ प्रकाशन.
6. अग्निशेखर. (1996). मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली, भारत: शारदापीठ प्रकाशन.
7. अग्निशेखर. (1996). ललद्यद के नाम. In अग्निशेखर, मुझसे छीन ली गई मी नदी (pp. 56-58). दिल्ली: शारदापीठ प्रकाशन.
8. अग्निशेखर. (1996). साईकल ,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली: शारदापीठ प्रकाशन.
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10. आज़ाद, न. (2007, जुलई-सितंबर). धेरे में. वसुधा , pp. 279-280.
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15. निज़ामी, त. (2007, जुलाई-सितंबर). ओ मेरे देश. (क. प. अग्निशेखर, Ed.) वसुधा , 2 (2), pp. 76-77.
16. नीरज संतोष. (जुलाई-सितंबर 2007). थोडी सी जगह. (अतिथि संपादक अग्निशेखर, मोहन सिंह कमलाप्रसाद, सं.) वसुधा (2), पृ. 308.
17. बशीर अतहर. (जुलाई-सितंबर 2007). मेरा क्या होगा. वसुधा , पृ. 74.
18. राजेन्द्र शर्मा उमा वाजपेयी. (2007). गतिविधियाँ. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.
19. राजेन्द्र शर्मा. (2007). गतिविधियां. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.
20. रामरतन ज्वेल, र. श. (2007). गतिविधियाँ. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.
21. वकार, म. (2007, जुलाई-सितंबर ). वसुधा , pp. 128-136( दस्तकें)312-314(आदमी नहीं).
22. शफाई, न. (2007). बैन-विलाप. वसुधा , 69.
23. संतोषी, म. क. (2007, जुलाई-सितंबर). जलावतनी का गीत. वसुधा , p. 209.
बलकाक और नोनो-वेद राही,दस्तकें –डॉ.मनोज, धूप-तेजाब-डॉ. सुशील, अर्थ वर्क- चमन अरोरा, मिनार, दरिया और राजनाथ-बन्धु शर्मा, उत्तर क्या है- नरसिंह देव जम्वाल, फिरौति- प्रवीश केसर, यह तोता है- अर्चना केसर, माई-देशबन्धु डोगरा, अतीत की फाँस-ओम गोस्वामी
विस्थापन का विस्तार कहाँ से कहाँ तक हो सकता है, तो इस प्रश्न का उत्तर संभवतः यही होगा- अपने घर-गाँव से जबरिया फेंके जाने एवं सांस्कृतिक चौपाल का ई-चौपाल में बदलने (उमा वाजपेयी, 2007) से लेकर बाज़ारवाद के फलस्वरूप अपने भीतर आई बेदख़ली (रामरतन ज्वेल, 2007) तक; लेकिन इस विस्तार तक जाने का खतरा यह है कि विस्थापन का जो वर्तमान प्रसंग है, वह एक तरफ़ रह जाएगा । मुद्दा ठोस न रह कर कुछ वायवीय हो जाएगा। सांस्कृतिक चौपाल का ई-चौपाल में बदलना अथवा बाज़ारवाद के फलस्वरूप अपने भीतर आई बेदख़ली पर व्यक्ति का वश तो नहीं है, पर उसकी हिस्सेदारी अवश्य है और प्रकारांतर से सहमति भी ; पर अपने घर-गाँव से जबरिया फेंके जाने में व्यक्ति की सहमति कदापि नहीं है, हाँ उसका वश चाहे न हो।
जम्मू-कश्मीर का समकालीन सृजन, जो मुख्यतः विस्थापन को लेकर है, पर सोचते हुए, सबसे पहले जो बात विशेष रूप से आश्चर्य में डालती है, वह यह कि वहाँ कश्मीरी भाषा के अलावा डोगरी, हिन्दी,पंजाबी,उर्दू, अंग्रेजी एवं गोजरी भाषा में भी साहित्य-सृजन हो रहा है। एक ही प्रदेश में इतनी सारी भाषाओं में साहित्य रचा जाना एक विलक्षण तुलनात्मक परिस्थिति का निर्माण करता है। किसी एक प्रदेश में अनेक भाषाओं में सृजन होना संभवतः विलक्षण बात नहीं लगेगी ; पर जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक और भौगेलिक स्थिति और उसके वर्तमान विस्थापन के संदर्भ में यह अवश्य ही विलक्षण बन जाती है। राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी चेतना को इन भाषाओं के साहित्य में देखना निश्चय ही रोचक हो सकता है।
इन रचनाओं में विस्थापन की स्थिति के अनुभव कई तरह के हैं। ये अनुभव दहशत, आशंका, पीड़ा, अविश्वास से लेकर आशा, आस्था तथा नव-निर्माण के स्वप्न तक फैले हुए हैं। उनमें एक अनुभव जम्मू कश्मीर की इस अंग्रेज़ी कविता में देखा जा सकता है- "कभी वहाँ मेरा घर था/ ग्यारह बर्फ़-जाडों के बाद / जहाँ मैं लौट आया था / एक सैलानी की तरह"। (संतोष, 2007) वह थोड़ी सी जगह कवि को मासूम बच्चों की मुस्कानों, कुछेक नवयुवकों की आँखों में और उन बूढों में मिली जो अपनी धरती से बे-पनाह प्यार करते हैं। कवि भविष्य के प्रति निराश नहीं है। हाँ, पर पूरी तरह सावधान, क्योंकि कभी भी कोई ज़ेहादी आ कर बंदूक का ट्रिगर दबा सकता है।
विस्थापन की इन कविताओं में दहशत का भाव विद्यमान है। इस दहशत के भाव के कारण हो सकता है कि इन्हीं कविताओं को आतंकवाद से प्रभावित भाव-बोध की कविता भी कहा जाए। पर कश्मीर के संदर्भ में, जैसे अन्य इसी प्रकार की स्थितियों में जी रहे देशों में भी, ये कविताएं अथवा साहित्य विस्थापन की भूमिका वाला साहित्य हो जाता है ; क्योंकि यहाँ, यही दहशत तो विस्थापन के मूल में है। इस संदर्भ में डॉ.मनोज की डोगरी कहानी दस्तकें एवं एम.के वकार की गोजरी कहानी आदमी नहीं उल्लेखनीय हैं। दरवाज़े पर होती ठक-ठक कितनी दहशत पैदा कर सकती है, उसे एक छोटी सी कहानी में एम.के वकार बताते हैं ; उसी को कुछ विस्तार से डॉ मनोज ने वर्णित किया है। यह दहशत आदमी नहीं कहानी के एक खानाबदोश को उतना ही सकते में डालती है, जितना कि दस्तकें कहानी के एक स्थायी निवासी को। (वकार, 2007) इन कहानियों में उन पात्रों का संदर्भ है, जो कम-सेकम अभी तक तो निर्वासित नहीं हुए हैं। लेकिन कब हो जाएँगे इस संदर्भ में कुछ कहा नहीं जा सकता। पर वे जो निर्वासित हो चुके हैं और कहीं और , किसी अन्य भूमि पर बसते हैं उनके लिए तो खुली पीठ पर कोड़े की मार सहने जैसा अनुभव ही है। किन्तु ऐसी स्थिति में भी वे आशावादी हैं- "ज़लावतन होना /अर्थात्/ रेल्वे प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना / किसी ऐसी ट्रेन की /जो तुम्हें अपनी जडों तक ले जाए/ और साथ ही अपने भीतर की यात्रा पर भी/कि नहो तुम्हें विस्मृत/अपना अतीत/अपनी शिनाख़्त /अपने देवता/अपनी जन्म भूमि।" यह आशावाद इन पंक्तियों में भी देखा जा सकता है-"मुझको यकीन है कि वो मंज़िल भी आएगी/ पूछेगा मुझसे मेरा सफ़र , रास्ता कहाँ"। (ज़ाफ़री, 2007)
जलावतनी का गीत गाते ये निर्वासित कहते हैं- "मैं पहनता हूँ/ अपने ही देश के जूते/पर यह कल्पना करता हूँ/अपनी धरती पर चल रहा हूँ/ " इस ख़ूबसूरत ख़याल के बाद वे कहते है- "मैं पहनता हूँ अपने ही देश के जूते/जो मुझे कहीं भी ले जा सकते हैं/ सिर्फ़ वहाँ नहीं/ जहाँ से हमें निकाला गया"। (संतोषी, 2007) जलावतनी का अर्थ होता है- अपनी जड़ों से कट जाना, अपनी अस्मिता खो देना, निरंतर अनिश्चय में जीना, अपने पद, प्रतिष्ठा और इतिहास से वंचित हो जाना, अपने अस्तित्व, आस्था, मूल्य तथा मानवीय गरिमा के खतरे में पड़ जाने का और जीवन की तलछट का अनुभव करना; अथवा तो फिर इन्हीं परिस्थितियों में जिजीविषा के साथ नयी संभावनाओं को तलाशना। जलावतन होने का अर्थ है एक ऐसी ट्रेन प्रतीक्षा करना जो फिर जड़ों तक ले जाए और साथ ही अपने भीतर एक ऐसी यात्रा लगातार करना कि जिससे अपना अतीत, अपनी पहचान, अपने देवता और अपनी जन्मभूमि का विस्मरण न हो जाए। (चौधरी, 2007)
लक्ष्य प्राप्ति के लिए मृत्यु और दुख की आकांक्षा करता कश्मिरी कवि कहता है-"अरे, मेरा करो अपहरण/ले जाओ मुझे अपने यातना शिविर में / कुछ नहीं कहूँगा मैं/करो जो कुछ भी करना है / मेरे शरीर के साथ/ जिन्दा जलाओ, काटो/या दफ़न करो..../ तरस गया हूँ अपनी ज़मीन के स्पर्श के लिए" (अग्निशेखर, तड़प,,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, 1996)। भौतिक सुविधाओं को प्राप्त करना कहीं न कहीं उस दुख को भूल जाना है, जिसका होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि अभावों के अँधेरों में पैदा हुआ यह दुख ही दूसरों की खुशी का अहसास कवि को देता है। इस दुख में जीवन की बंद स्मृतियाँ सँजोई पड़ी हैं, जिसे कवि ने अपने जिगर में पाल रखा है। (अग्निशेखर, साईकल ,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, 1996)
अपनी ज़मीन के लिए संघर्ष करते इन विस्थापितों के लिए निराशा नहीं, अपितु आशावादिता का होना आवश्यक है। यह एक बहुत बड़ा अंतर है आधुनिक काल के अस्तित्ववादियों एवं इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों में। आधुनिक काल में प्रचलित अस्तित्ववादी चिंतन में मृत्यु ही जीवन का परम लक्ष्य माना गया था ; पर राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए मृत्यु तभी स्वीकार्य है अगर लक्ष्य –प्राप्ति के लिए वह अनिवार्य साबित हो; और उनका लक्ष्य है, अपनी मातृभूमि में वापस लौटना। इस हेतु वे किसी भी क़ीमत पर अपने भीतर जग रही आशा को खोना नहीं चाहते हैं। आशा को ही खो देंगे तो कैसे चल सकता है। "मेरी सोयी हुई माँ के चेहरे पर/ किसी छिद्र से पड़ रहा है /थोड़ा –सा प्रकाश/हिल रही हैं उसकी पलकें/कौन कर रहा है इस अँधेरे में / सुबह की बात" (अग्निशेखर, थोडा सा प्रकाश, 1996) यह आशावादिता निर्वासन भोग रहे एक कवि की है तो इसी को एक कहानी में भी देखा जा सकता है, जिसकी नायिका को आतंकवादी उठा कर ले ही नहीं गए थे, बल्कि उस पर इतना अत्याचार किया और उसे गर्भवती भी बनाया। नायिका उनसे बच निकलने के लिए लगातार प्रयत्नशील है। वह अपने इस प्रयास में कामयाब भी हो जाती है ; यह जानते हुए कि अब उसे कोई स्वीकरेगा नही। अपने साथ अन्याय करने वालों को ठिकाने लगा कर जब वह बच निकलती है तो कहानी के अंत में लेखिका ने लिखा है- "गु गू गु.... पूर्वी आकाश में उजास फूटा। चिनार के पत्तों के बीच छिपी गुगी ने कुहुक कर उसका ध्यान खींचा। .....साफ़ तलैया के पास पहुँच कर उसने बच्ची को चौड़ी चट्टान पर लिटा दिया। बच्ची सख़्त स्पर्श पा कर पहले कुनमुनाई, बाद में चीख़ मार कर रोने लगी। विनी को उसके रुदन की आवाज़ अनूठी लगी। जैसे पहली बार सुन रही हो। उसने हथेली भर-भर पानी बच्ची पर उछाला और उसकी ऊँची उठती आवाज़ों के खंड़हर में गूँजते और आसमान को छूते देखती रही। के दिल से सारा डर निकल गया।" (चंद्रकांता, 2007) यहाँ आवाज़ और अभिव्यक्ति का महत्व इसलिए है कि दहशतगर्दों के साथ रहते हुए, पकड़े जाने के भय से उस बच्ची का मुँह कस कर बाँध दिया गया था। यह आवाज़ एक तरह से मुक्ति की आवाज़ थी।
इतिहास एवं सांस्कृतिक बोध की अनिवार्य उपस्थिति अगर अग्निशेखर की कविता में है तो तन्हा निज़ामी की कविता में भी है। ललद्यद को याद करते हुए तन्हा निज़ामी कहते हैं- "न हो आद्य कवियित्री ललद्यद की पीड़ा का स्मरण किसा को/ ओ मेरे देश/तुम्हें सींचा है मैंने अपने रक्त से/ मेरी आत्मा में रचे बसे सुगंधित वन/ये नदियाँ/ ये पेड़/ ये मौसम हैं तुम्हारा श्रृंगार/जिनकी मैं करता हूँ वंदना" (निज़ामी, 2007) तन्हा निज़ामी ललद्यद की जिस पीड़ा को याद नहीं करना चाहते उसे अग्निशेखर याद करते हैं – "तुमने समय के तंदूर में मारी छलांग/ और उदित हुई तन ढंककर/स्वर्ग के वस्त्रों में/ बिखेरते हुए बर्फ़-सा प्रकाश कहा तुमने/ कौन मरेगा और मारेंगे किसको.......विकल्प की आग में छलांग है हमारा निर्वासन" (अग्निशेखर, ललद्यद के नाम, 1996)। अग्निशेखर ने यह कविता निर्वासन में लिखी है। पीड़ा को जिलाए रखना इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी कविताओं का लक्षण बन जाता है।
कश्मीरी पंडितों की अपने इतिहास में जो यात्रा हुई है उसका एक वर्णन "पनुन कश्मीर" कविता में अयाज़ रसूल नाज़की करते हैं। कविता में शारिका पीठ से हारी दरवाज़े तक आते-आते कश्मीरी पंडित यह भूल जाते हैं कि आज अष्टमी है और मीट नहीं खाना है। (नाज़की, 1997) यह कहना मुश्किल है कि इसमें कवि इन दो विपरीत स्थितियों के माध्यम से क्या कहना चाहता है। पर शारिका पीठ और हारी दरवाज़ा इतिहास के दो काल-खंड हैं, जिनमें से होते हुए आए इन पंडितों के रहन-सहन में भी अब बरसों अंतर आ गया होगा। क्या यह पहचान के धीरे-धीरे बदल जाने का संदर्भ है जिसको पाठकों के समक्ष रख कर पनुन कश्मीर की व्यर्थता बता रहा हो ? या यह केवल एक तथ्यगत संकेत है? यह भी एक प्रश्न है। परन्तु पहले अपनी नदी और अब अंत में अपनी मातृभूमि छीन लिए जाने की आशंका से घिरा कवि उस धीमे और क्रमशः बदलते कश्मीर के चेहरे में कहीं अपने अस्तित्व और भूमिका को नए सिरे से जाँच और तलाश रहा है- संभवतः।
विस्थापन की इन कविताओं में एक बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि क्या घाटी के भीतर के और घाटी के बाहर के कवि – यानी निर्वासित पंडित और घाटी में रह गए मुसलसानों- के बीच क्या रिश्ता है ? यह अत्यन्त संवेदनशील मुद्दा इसलिए भी है कि आज यह संघर्ष कहीं न कहीं धार्मिक भी हो गया है; जबकि कश्मीर अपनी प्रकृति से धर्म-निरपेक्ष रहा है। क्या वर्तमान दहशत उसके इस मूल स्वभाव को बदल देना चाहती है? इस संदर्भ में बशीर अतहर अपनी एक कविता में कैसी मार्मिक संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं, उसे तो पूरा ही देखना आवश्यक है-
मेरा क्या होगा
तुम्हॆं लगता है
तुम्हारे विस्थापन पर ख़ुश हुआ था मैं
तुम्हें यही लगता है
कि हडप कर तुम्हारी घर-गृहस्थी
मालामाल हो जाने की स्वप्न था मेरा
तुम्हारे विरसे का स्वामित्व
पृथ्वी का एकाधिकार पाऊँगा मैं
आकाश को खींचकर कदमों तले
बिछाऊँगा मैं
तुम्हें यही लगता है
कि इसी ताक में था मैं
कि सपनें के महल बनाऊँगा
शमशानों पर
तुम्हारी हर स्मृति
हर चीज़ को मिटाकर
छोडूँगा उन पर छाप अपनी
पर तुम्हें नहीं पता
कि ज़रूर किये मैंने शमशानों पर खड़े
अपने स्वप्न महल
और मेरे अपने ही सपने हुए भस्म
मैंने ओढ़ लिया तुम्हारा फ़िरन
वो बन गया कफ़न मेरा
मैंने बाट ली तुम्हारी शिखा की रस्सियाँ
इस तरह मिटाते हुए तुम्हारे निशान
मिट गई मेरी अपनी अस्मिता
रेत से जैसे पदचिह्न
लील जाते हुए तुमहारा वजूद
जाने कहाँ गया मेरा होना
कल ही बनाई मैंने
एक नयी मोहर
और हर उस चीज़ पर लगा दी
जो तुम्हारी थी
पर सोचा नहीं
इन कब्रिस्तानों का क्या करूँ
जो फैलते जा रहे हैं रोज-रोज
इतनी है लाशें
तुम तो चिता की आग में
एक दिन हो जाओगे लीन
मगर मेरी कब्र...
क्या होगा उसका (अतहर, मेरा क्या होगा, 2007)
यह कविता कश्मीरी पंडितों के नाम है। यह एक तरह से अपराध-बोध की सकारात्मक अभिव्यक्ति भी है, जो मन को छूती है।
कश्मीर में रहने वाले मुसलमान बाशिंदों में और दहशतगर्द मुसलमान में जो अंतर है वह भी इस और अन्य कविताओं में साफ़ देखा जा सकता है , क्योंकि धर्म चाहे जो हो, ज़मीन तो दोनों की कश्मीर है। कश्मीर के सौन्दर्य और कश्मीर की संस्कृति के नष्ट हो जाने का सभी को समान अहसास है। (आज़ाद, 2007)
इस कविता के साथ-साथ उन कहानियों को भी देखा जा सकता है जो डोगरी भाषा में लिखी गई हैं, जिनके सारे चरित्र मुसलमान हैं और वे बहुत अच्छे हैं; इस मायने में कि घाटी में जिस तरह की परिस्थिति है उसके लिए आम मुसलमान ज़िम्मेदार नहीं है। ये सारी कहानियाँ गैर-मुसलमानों के द्वारा लिखी गई हैं।
जैसे कि पहले बताया गया है कश्मीरी विस्थापन की कविताओं की विशेषता यह है कि इसमें एक साथ आठ भाषाओं की कविताएँ मिलती हैं। कश्मीरी, हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू. डोगरी तथा गोजरी। विस्थापन के अनेक आयाम इन कविताओं में मिलते हैं । वास्तविक धरातल पर जिसे राजनीति ने पक्ष-प्रतिपक्ष बना दिया है , कविता में भी दोनों ही अलग-अलग भूमिका के साथ मौजूद है पर विस्थापन का भाव दोनों में है। एक दूसरे के प्रति संबंध का भाव दोनों में है। अगर कश्मीर के मुसलमान को हिन्दु की पीड़ा महसूस होती है तो तमाम दूरियों के बाद भी जलावतन हुए कश्मीरी मुसलमान के लिए एक हिन्दु कवि भी उतना ही दुखी है क्योंकि जलावतनी में स्थितियाँ तो सभी के लिए एक जैसी हैं।
लेकिन जो जलावतन नहीं हुआ है, उससे भी कवि पूछना चाहता है कि कैसे हो? क्योंकि भीतर से दोनों ही लहुलुहान हैं। (अग्निशेखर, कश्मीरी मुसलमान 1,2, 1996)
मातृभूमि की ही तरह माताएं भी इन रचनाओं में एक जैसी ही हैं- माताएँ इंतज़ार कर रही हैं, सीमापार गए बच्चों की, माताएँ ,जो बिलख रही हैं, कुचली जा रही हैं और कवि को चिंता है कि क्यों कोई माताओं के मानवाधिकार का प्रश्न नहीं उठा रहा है (अग्निशेखर, माताएँ, 1996) या फिर यह एक और माँ भी है - "वह गरिमामय/हर शाम दरवाज़ा खोले / बाट जोहती अपने छोटे-छोटे राजकुँवरों की/ ----------"वह कुछ लज्जित और आशंकित भी है पर "घुप्प अँधेरे में पड़ोसियों ने एक लंबी दहाड़ सुनी कि मरो नहीं रे/ अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है/ अभी तो तुम्हारे नाख़ूनों पर गीली है मेहँदी।" (शफाई, 2007)
राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अपने मिथकों और अपने इतिहास को बार-बार दोहराना आवश्यक है। ऐतिहासिक ललद्यद की तरह ही सतीसर के मिथक पर लिखी अग्निशेखर की लंबी कविता इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। इसमें नागों के साथ हुई वंचना को लेखक ने बहुत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। नाग पहले राक्षसों से, फिर कश्यप ऋषि से और फिर देवताओं से भी ठगे जाने का अनुभव करते हैं और इसीलिए विरोध को जिलाए रखते हैं- "मेरे विरोध में/छिपा है/ मेर जीवन का स्वप्न" (अग्निशेखर, सतीसर-चैंतीस, 2006) सत्ता किस तरह भोले आम आदमी को ठग लेती है , इस बात को कवि ने विष्णु के मिथक से भली भाँति रेखांकित किया है।
इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अपनी आस्था और संस्कृति, अपने मिथक और अपने देवता अपना इतिहास और अपना वर्तमान इसलिए भी मूल्यवान हो जाता है क्यों कि अपनी ज़मीन के लिए केवल वही संघर्ष नहीं कर रहे बल्कि शरणार्थी शिबिर में रह रही उनकी अगली पीढ़ी भी कर रही है। वह पीढ़ी, जो किसी अस्थाई व्यवस्था की अपेक्षा अपने कर्तृत्व पर अधिक भरोसा रखना सीख गई है-
इस बारिश में
कैंप के पिछवाडे
मुर्दा भैंस के कंकाल में छिपाकर
रख आता है एक बच्चा
उपनी पतंग
तंबू से उठ गया है
उसका विश्वास (अग्निशेखर, शरणार्थी शिविर में-12, 2006)
संदर्भ सूची
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23. संतोषी, म. क. (2007, जुलाई-सितंबर). जलावतनी का गीत. वसुधा , p. 209.
बलकाक और नोनो-वेद राही,दस्तकें –डॉ.मनोज, धूप-तेजाब-डॉ. सुशील, अर्थ वर्क- चमन अरोरा, मिनार, दरिया और राजनाथ-बन्धु शर्मा, उत्तर क्या है- नरसिंह देव जम्वाल, फिरौति- प्रवीश केसर, यह तोता है- अर्चना केसर, माई-देशबन्धु डोगरा, अतीत की फाँस-ओम गोस्वामी
दैनिक जनसत्ता दिनांक 6 अप्रैल 2010 के संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में विस्थापन का साहित्य शीर्षक से आपकी यह पोस्ट प्रकाशित हुई है, बधाई।
जवाब देंहटाएंआपको जनसत्ता का स्कैनबिम्ब भेजना चाहता हूं। अपना ई मेल आई डी avinashvachaspati@gmail.co पर सूचित कीजिएगा।
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