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शनिवार, 26 जनवरी 2013

मिथक की पुनःसर्जना का मनोविज्ञान


[1] गुजराती कवि प्रवीण पंड्या की कविता इस कौरव पाँडव के समय में से प्रेरित

[1] प्रायः भाषा शिल्प शब्द प्रयोग साथ किया जाता है। पर इतना समझना आवश्यक है कि अगर ताना-बाना भाषा है तो पट शिल्प है;  मिट्टी अगर भाषा है तो मूर्ति शिल्प है, रंग अगर भाषा है तो चित्र शिल्प है-  अर्थात् मिथकीय अभिव्यंजना के नए अभिगम किस तरह रंग और चित्र-पट दोनो में है, मिट्टी और मूर्ति में दोनों में हैं। अर्थात् कथा-संदर्भ एवं भाषा। इनको अलग कर के समझना असंभव है। ताने-बाने के अभाव में  पट का निर्माण असंभव है, और पट के अभाव में रंग चित्र का निर्माण नहीं कर सकते। ताने-बाने की गति और विधि अलग अलग पोत निर्माण करते हैं। भाषा के विशिष्ट प्रयोग कृति के शिल्प का निर्माण करते हैं।
संदर्भ पुस्तकें
Alex Preminger. Encyclopedia of Poetry and Poetics. दि.न.
Northrope Frye. Fables of Identity. New York & London: A Harvest/HBJ Book, USA, 1963.
डॉ नगेन्द्र. मिथक और साहित्य. दिल्ली: नेश्नल पब्लिशिंग हाऊस, 1979.
डॉ.भोलाभाई पटेल. “पुराण कल्पनोनो साहित्य मां विनियोग.” भोलाभाई पटेल. पूर्वापर. मुंबई: . शेठ नी कंपनी, 1976.




मिथक की पुनःसर्जना का मनोविज्ञान
महाभारत की असीम संभावनाएं- भाषा शिल्प में मिथकीय अभिव्यंजना के नवीन अभिगम
क्या कौरवों पाँडवों का समय सचमुच  समाप्त हो गया है ?[i]   क्या समुद्र मंथन के समय धोखे से अमृत पीने वाले राहू - केतु तथा असुरों को अमृत न देने की अनीति करने वाले देव, अब, इस हमारे आज के समय में नहीं हैं ? बसों में, बड़े-बड़े आलीशान मक़ानों में अथवा तो फार्म-हाऊसेस में तबदील होती कुरु-सभाओं में द्रौपदियाँ बलात्कृत हो रही हैं.... क्या कौरव पाँडवों का समय सचमुच समाप्त हो गया है !?!  एक साझे-सम्मिलित भारतीय समाज के रूप में  आज से पूर्व  कभी भी, या आज वर्तमान में भी, क्या कोई व्यक्ति महाभारत अथवा रामायण के कथा -संदर्भों से अपने को, अपने जीवन को  पूरी तरह से अलग कर सका है ? ये कथाएं और इनके संदर्भ आज भी प्रीतिकर रूप में अथवा तो भयावह रूप में भी, भारतीय जन-मानस के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। इन कृतियों के रचनाकाल को ले कर विद्वानों  में मतभेद हो सकता है, इन ग्रंथो के चरित्रों को चाहे तो कोई कल्पना-प्रसूत ही कह ले अथवा कपोल-कल्पित ही क्यों न मान लें ; जनमानस की हृदय-चेतना में रामायण तथा महाभारत की कथाएं एवं संदर्भ गहराई से अंकित हैं। यह मान लेने की कतई आवश्यक भी नहीं, कि इन ग्रंथों को जनता ने पढ़ा होगा। यह ज्ञान तो परंपरा से उतर आया है , उतरता चला आ रहा है आज तक। इनके घटित होने के विषय में भारतीय जन-मानस एक प्रतिशत भी संदेह नहीं करता। हमारा रोज़-ब-रोज़ का सामान्य जीवन और व्यवहार महाभारत तथा रामायण के विभिन्न संदर्भों से युक्त ही रहता है। ये दोनों कृतियाँ चालू वर्तमान काल (Present continuous) में जन-मानस के हृदय में विद्यमान रहती हैं।  आज तक भारतीय काव्य- कथाओं में , उपन्यास- नाटकों में,  अथवा तो  फिल्मों की कथाओं में; क्या महाभारत और रामायण के निहितार्थों से उनको अलगा पाना संभव हुआ  हैं?  भारतीय पारिवारक संबंध, नायक नायिका से अपेक्षाएं क्या वास्तव में बदल गयी हैं? आज भी लक्ष्मण रेखा पार करनेवालियों की खैर नहीं  समझी जाती। आज भी, भाषा में सुरक्षित तथा प्रयुक्त यह प्रयोग दहला देता है। मानों हम अचानक एक मिथिकल समय में जीने लगते हैं।
इसी बिन्दु पर आकर यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि मिथकों के संदर्भ में अब तक प्रायः पाश्चात्य नज़रिये से ही सोचा गया है। भारतीय संदर्भ में मिथ संबंधी विचारणा की क्या स्थिति है इस पर डॉ. नगेन्द्र के मंतव्य को ध्यान में लिया जा सकता है।(डॉ. नगेन्द्र की पुस्तक से उद्धरण लेना है।) सीधी सी बात यह है कि भारतीय मानस के लिए मिथक कोई बीती हुई घटना नहीं है। लेकिन क्या मिथक की संकल्पना के संबंध में भरतीय दृष्टिकोण की संभावना पर विचार करना आवश्यक हो गया है? और क्यों? या फिर यह एक निरा वैचारिक पिष्टपेषण ही होगा? एडवर्ड सईद के बाद अब यह एक साहित्यिक प्रचलन तो नहीं हो गया है कि हर मुद्दे पर एक भारतीय(ओरियंटल) सोच का होना अथवा विकसित किया जाना आवश्यक माना जाए?  निश्चय ही इसे एक संकीर्ण राष्ट्रीयतावादी सोच कहा जा सकता है अथवा प्रतिगामी/ प्रतिक्रियावादी कह कर एक तरफ़ डाल दिया जा सकता है, किन्तु ऐसा करने से मिथ संबंधी भारतीय वस्तुस्थिति का जायज़ा नहीं लिया जा सकता । पश्चिम में  मिथक कहने पर एक पुरातन विस्मृत काल का संदर्भ ध्यान में आता है। भारतीय जन मानस तथा समाज का जहाँ तक प्रश्न है, लोगों के नाम, दुकानों के नाम, घरों के नाम तथा जीवन के विविध व्यापारों के संबंध में मिथकीय संदर्भों की भरमार यहाँ पर देखी जा सकती है। यह हमारी आज की वर्तमान प्रयुक्त भाषा का हिस्सा है। इसका एक कारण भारतीय संस्कृति का सातत्य भी हो सकता है। वैदिक काल से आज तक भारतीय संस्कृति की अस्खलित उपस्थिति देखी जा सकती है। इसीलिए यज्ञ जैसा अनुष्ठान भी तब से लेकर आज तक चला आ रहा है। इस अनुष्ठान को पिछड़ा तथा प्रतिगामी बताने के लिए पश्चिमी मानसिकता की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि भारतीय इतिहास में जैन तथा बौद्ध धर्म पहले यह कर चुका है। आधुनिक काल में भी उस पर व्यंग्य करते हुए  भारतेन्दु भी अपनी वैदिकी हिंसा हिंसा न भवती के साथ मौजूद हैं। भारतीय संस्कृति की इतनी दीर्घकालीन सातत्यपूर्ण उपस्थिति ने मिथकों को कभी भी भूतकाल नहीं बनने दिया है। अगर भारतीय भूगोल के किसी भी हिस्से में सीता तथा भीम की रसोई बताई जाएगी तो इसे मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होती है। इसी तरह हाल ही में हुआ राम- सेतु का विवाद इसका बहुत बड़ा उदाहरण है। राम- सेतु के होने अथवा न होने के विवाद के पीछे यही दो मुख्य बिन्दु तो थे- एक वह वर्ग जो हमारी सांस्कृतिक एवं सामाजिक भी, सातत्य पूर्ण उपस्थिति को स्वीकार करता है तथा एक वह वर्ग जो उसका अस्वीकार कर के इस सातत्य को तोड़ने का षड्यंत्र करना चाहता है। "अपने अपने राम" लिख कर भगवान सिंह ने चाहे राम का मिथक तोड़ने का प्रयास किया हो  परन्तु उनके शोध पूर्ण उपन्यास से यह अवश्य ज्ञात होता है कि उस समय लंका तथा अयोध्या के बीच व्यापार संबंध थे। यानी मिथकों का काल इसके पूर्व का है। मिथक असल में हमारी पहचान को और अधिक गहरे रोपने का काम करते हैं। यही बात एशिया की अन्य संस्कृतियों के संदर्भ में भी कही जा सकती है। चीन तथा जापान के देशों की संस्कृति के इसी सातत्य को आज भी उनकी फिल्मों के माध्यम से बड़े गौरव पूर्ण ढंग से प्रदर्शित होता देखा जा सकता है। ऐसी कोई भी फिल्म, जिसका अगर नायक चीनी अथवा जापानी है, तो वह अपने धर्म अथवा किसी परंपरा के चिह्न की रक्षा के लिए अपनी परम्परागत युद्ध पद्धति से प्रयत्नशील दिखाई पड़ता है।
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सेमिनार के इस अंतिम सत्र में मिथक की पुनःसर्जना के मनोविज्ञान पर चर्चा अपेक्षित है।  महाभारत की ज़मीन असीम संभावनाओं से भरी है। अतः युगानुरूप इसमें भाषा शिल्प[ii] की मिथकीय अभिव्यंजना के नवीन अभिगम देखे जा सकते हैं। पर फिर भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर चर्चा करना अनिवार्य है, मसलन

Ø  साहित्य और मिथक का क्या अन्तर्संबंध है? 
Ø  उत्तर-आधुनिक समय में  मिथ का क्या महत्व है ?
Ø  मिथ साहित्य स्वप्न तथा भाषा काल एवं समय के संदर्भ में किस तरह भिन्न हैं, संरचना की दृष्टि से इनमें क्या समानता है ।
Ø  नयी टेक्नोलॉजी ने मिथकों की अभिव्यक्ति में ऐसा क्या कर दिया है कि मिथक अर्थ एवं अभिव्यंजना-दोनों ही स्तर पर नयापन ला देते हैं।
मिथक तथा साहित्य का संबंध सबसे पहले उसकी स्वरूपगत संरचना की समानता में देखा जा सकता है। मिथक का संबंध केवल और केवल साहित्य से नहीं है। उसका संबंध धर्म, कर्मकांड, दर्शन से भी है।  किन्तु साहित्य के विद्यार्थियों को, वह,  यानी मिथक, साहित्य से अभिन्न लगता है।  महाभारत मुख्यतः साहित्य-कृति है।  परन्तु अगर यह कहा जाए कि महाभारत अपने आप में एक मिथक है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  मिथक और महाभारत  - दोनों की संरचना में समानता है। मिथक का स्वरूप कथात्मक अथवा कथा-संकुल (Preminger) के रूप में होता है, उसमें अतियथार्थ का तत्व होता है,, वह कहीं न कहीं अनुष्ठानों से संबंधित है, वह असंभव को कल्पित करता है, उसमें जन्म मरण से जुड़े विचित्र तत्व होते हैं। (डॉ.नगेन्द्र) 
महाभारत क्या है? वह एक महा-कथा है और उसमें कितनी सारी अन्य कथाएं तथा उप-कथआएं हैं । अनेक कथा संकुल हैं - जिसमें- पुरुररवा की कथा, शकुन्तला की कथा, सावित्रि की कथा ...हैं।  प्रकृति और मनुष्य के परस्पर संबंध हैं- जैसे गंगा और भीष्म के जन्म-मरण के अविश्वसनीय, अतिलौकिक संदर्भ इसमें हैं- जैसे याज्ञसेनी और पाँडवों कौरवों के जन्म संदर्भ। पर एक ही अन्तर है जो महाभारत को साहित्य बनाता है- और वह है महर्षि वेदव्यास द्वारा उसका रचा जाना। मिथकों के रचयिता अनाम होते हैं। इसका अर्थ यह है कि इन रचनाओं के रचे जाने के पूर्व इनमें निहत मिथक रचे जा चुके थे जिन्हें महाभारत में वेदव्यास पुनर्निर्मित करते हैं। मिथक की पुनः सर्जना होती है। मिथक तो प्रायः मानव संस्कृति के ऊषः काल से उद्भवित माने गए हैं (पटेल) और यह अतीत हमारे समय-बोध की पकड़ से बाहर होता है। (पटेल) मिथक कालातीत होते हैं और इसलिए प्रत्येक युग के साहित्य को आकर्षित करते हैं। मिथक में नूतन दृष्टिकोण की अनेक संभावनाएं होती हैं। प्रत्येक युग का जाग्रत दृष्टा कवि उसमें युगानुरूप संभावनाएं देखता है। यहीं आकर यह बात स्पष्ट होती है कि साहित्य और मिथक परस्पर संबद्ध है।
मनुष्य का विश्व अत्यन्त जटिल है। उसके चारों ओर रहे जगत की तुलना में उसका विश्व जटिल इसलिए है क्योंकि उसने अभिव्यक्ति एवं जीवन-यापन के लिए (प्राणियों की तुलना में) नयी तकनीकों का इजाद किया है। एक क्षण के लिए अगर मान लिया जाए कि ईश्वर है तो यह संसार उसी का प्राकट्य(manifestation) है- ऐसा माना जा सकता है। यानी ईश्वर की कल्पना करना ही एक प्रकार से मिथक की सर्जना करना है। जब तक ईश्वर की कल्पना नहीं थी, नदी, पर्वत, पेड़ आदि अपने अभिधात्मक रूप में ही पहचाने जाते थे; जैसे ही ईश्वर की कल्पना की गयी, ये प्राकृतिक तत्व अभिधात्मक न रह कर लक्षणा एवं व्यंजना प्रधान हो जाते हैं।  इतना ही नहीं ये प्राकृतिक तत्व, मिथकीय प्रतीकात्मकता से युक्त भी हो जाते हैं। मिथकीय प्रतीक एक प्रकार की भाषा होते हैं, क्योंकि ये किसी-न-किसी अर्थ को संप्रेषित करते हैं। भाषा का काम भी मुख्यतः संप्रेषण करना ही है और मिथकीय प्रतीक भी किसी न किसी प्रकार का संप्रषण ही करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संप्रेषण के स्तर पर मिथक और भाषा एक ही प्रकार का काम करते हैं। मिथक मनुष्य जाति के स्वप्नों, उम्मीदों एवं आकांक्षाओं का संप्रेषण करते हैं। उनकी अभिव्यक्ति प्रतीकों अथवा कथाओं- कथा-संकुलों द्वारा होती है। जैसे नवरात्रि के जवारे प्रजनन का प्रतीक हैं (धार्मिक अनुष्ठान)   संपाति असंभव उड़ानों का प्रतीक है (प्रकृति), उर्वशी असीम सौन्दर्य का प्रतीक है (मनुष्य की तीव्र लालासा)। विचार एवं भाव का संप्रेषण साहित्य में भाषा के माध्यम से होता है। मिथक की रचना आदिम समय में इतिहास-पूर्व के किसी समय में  होती है , उसका टाईम-स्पेस (देश-काल) अनिश्चित होता है और वह किसी भी समय में अपना रूप और तात्पर्य बदल कर अर्थ देने की क्षमता रखते  हैं। साहित्य की रचना का काल निश्चित होता है और वह ऐतिहासिक अथवा चैतसिक काल एवं भौगोलिक देश में घटित होता है।  किस तरह बदलते समय के साथ मिथक कथाओं की अभिव्यक्ति बदली है, यह चर्चा का विषय हो सकता है।
असल में मिथक और साहित्य का संबंध बड़ा गहरा है। साहित्य में मिथक कथाएं या तो पुनर्निर्मित होती हैं अथवा मिथक अलंकार रूप आते हैं, या फिर युगबोध को प्रकट करते हैं अथवा  तो कभी भाव के प्रतीक रूप में आते हैं।  जिस तरह मिथ में आकार और अर्थ दोनों होते हैं उसी तरह साहित्य में आकार और अर्थ दोनों होते हैं। नवरात्रि में उगाए जाते जवारे में आकार तो है ही पर उसमें प्रजनन का अर्थ निहित है। स्त्री शक्ति का अर्थ निहित है। डॉ नगेन्द्र (नगेन्द्र) ने साहित्य के स्वरूप की संरचना को यज्ञ के साथ जोड़ा है। नाटक के आकार को यज्ञ प्रक्रिया के अनुरूप बता कर साहित्य स्वरूप को मिथक के समकक्ष बताया है। पश्चिम में ट्रेजेडी(साहित्य स्वरूप) को भी धार्मिक अनुष्ठान के साथ जोड़ कर देखा गया है। अर्थात् सिथक एवं साहित्य स्वरूपों की संरचना में समानता को देखना साहित्य को मिथक तथा मिथक को साहित्य के समकक्ष रखता है।

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ऊधो मन रे नहीं दस-बीस
एक हुतो सो गयो स्याम संग, को आराधै ईस
गोपियाँ उद्धव से जब उक्त निवेदन करती हैं तो उनका वास्तविक इरादा संभवतः कुछ और रहा होगा, पर उसका मुख्य अर्थ यह निकाला जा सकता है कि मन एक ही है और वह कृष्ण के प्रति समर्पित है। पर यह कहना कि मन रे नहीं दस –बीस  इस संभावना को भी प्रस्तुत करता है कि मन एक से अधिक यानी दस –बीस होने की संभावना बनी हुई है। और मन इसलिए दस बीस हो सकते हैं क्योंकि हमारे यहाँ चतुरानन, दशानन, चतुर्भुज, अष्टभुज अथवा त्रिनेत्र की भी परिकल्पना है। सामान्य बातचीत में यह कहते सुना गया है कि आखिर दो ही हाथ हैं मेरे..। अर्थात् शारीरिक मर्यादा इंगित है। मन अगर अधिक होते तो और क्या किया जा सकता था? इसीलिए अपने देवी देवताओं में चतुर्भुज और चतुर्मुख की कल्पना करते हैं। मनुष्य जीवन के अभावों के परिप्रेक्ष्य में जो कल्पना करता है,- अभावों की वही पूर्ति  मिथक कथाओं तथा कल्पनाओं के रूप में जन्म लेती हैं। यह सोचने की बात है कि मनुष्य अगर अपने  सामान्य शरीर की तुलना में अधिक अंगों-उपांगों से जन्म ले- मसलन वह चतुर्मुखी या त्रिनेत्र हो तो वह कौतुहल का विषय होता है। उसे असामान्य माना जाएगा, उसके प्रति न सम्मान का भाव होगा न ही प्रेम का, पर एक प्रकार की एपेथी या निचले स्तर की कुतुहल-वृत्ति का भी भाव रहेगा। मनुष्य के जिस स्वरूप को उसकी मिथकीय उपस्थिति में खुले दिल से स्वीकारा जाता है, उसे वास्तविक जीवन में आशंका भय अथवा अविश्वास के साथ ही देखा जाता है। चार हाथों वाला शिशु अथवा मनुष्येतर मुख से जन्मा शिशु क्या गजानन अथवा अष्टभुजा की तरह स्वीकार्य होगा? उसके सामाजिक जीवन का भविष्य उसकी स्वरूपगत असामान्यता में बाधक बनता है। उसकी न शादी होगी न ही उसे कोई नौकरी देगा। इसका एक अर्थ यह होता है कि एक तरफ़ मिथकों का मनुष्य के वास्तविक जीवन में कोई सीधा स्वीकार नहीं है पर फिर भी वह नित्य प्रति मनुष्य के वास्तविक जीवन का एक हिस्सा भी हैं। चतुर्भुज अथवा चतुरानन ईश्वरों को वास्तविक मानने में एक प्रतिशत भी संदेह नहीं होता। संभाव्यता के कारण और लौकिक वास्तविकता से भिन्न होने के कारण उसे सत्य मानने में कोई आपत्ति नहीं होती। इसी संभाव्यता को अरस्तू ट्रेजेडी के केन्द्र में देखता है। यही संभाव्यता साहित्य भी रचती है और यही संभाव्यता मिथक भी रचती है। अर्थात् है  और था  के बीच है संभाव्यता- ऐसा हो सकता है- और इसी संभाव्यता का ही दूसरा नाम साहित्य है और मिथक भी इसी संभाव्यता से जन्म लेता है। इसका अर्थ हुआ कि यथार्थ अथवा वास्तविक न होते हुए भी यथार्थ होने की प्रतीति का नाम साहित्य है, मिथक है।
साहित्य के क्षेत्र में मिथक-चर्चा का प्रवेश '60 के दशक में हुआ। नॉर्थरोप फ्राय की पुस्तक फेबल्स ऑफ आइडेंटिटि (Frye)- जो इस संदर्भ में अत्यंत प्राथमिक ग्रंथ माना गया है, सन् 63 में प्रकाशित हुआ। यानी उत्तर-आधुनिकता का आरंभ तथा आधुनिकता के अन्तिम चरण पर मिथकीय काव्य-दृष्टि एवं आलोचना का उद्भव होता है। आधुनिकता की निश्चितता, व्यक्ति-अस्मिता एवं शाश्वतता से ठीक विपरीत उत्तर-आधुनिकता अनिश्चितता, (अनेकान्तता) समूह की पहचान एवं परिवर्तनशीलता की बात करता है। आधुनिकता जहाँ कला आंदोलनों की उर्वरा भूमि रही है वहाँ उत्तर आधुनिक समय में साहित्य तमाम ज्ञान के क्षेत्र एवं विषयों से घिरा, अन्तर्विद्याकीय प्रमुखता का रहा है। मिथक आधुनिकता एवं उत्तर-आधुनिकता के बीच इस तरह अवस्थित है कि उसके पाँव आधुनिकता की ज़मीन पर पंजों के बल पर टिके हैं और नज़र भविष्य पर टिकी है। इस उत्तर-आधुनिकता के दौर में मिथक का यही महत्व है कि वह स्त्री मिथकों के नए संदर्भों को उजागर करता है।  साथ ही एक प्रश्न भी खड़ा करती है कि अगर मिथ का संबंध कहीं- न- कहीं हमारी पहचान से जुड़ा है तो दलित, आदिवासियों के मिथ की खोज इस समय का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए; क्यों कि मिथ के मूल में जो कुछ भी है- धर्म, अनुष्ठान, अतिकल्पना सभी कुछ दलित जीवन में भी होनी चाहिए। आदिवासी जीवन की तो भूमि ही प्रकृति है अतः ऋतु-चक्र, ऊषा रात्रि जन्म-मरण के अनुष्ठान वहाँ भी मौजूद हैं। राजनीतिक आधार विमर्शों को अस्थायी आधार दे सकते हैं, परन्तु मिथक पहचान देते हैं, सामूहिक आकांक्षाओं को रूप देते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक संदर्भ(अधिकार) अथवा दबाव अथवा समय की माँग दलित एवं नारी साहित्य अथवा अन्य प्रकार के हाशिए के साहित्य के अस्तित्व के लिए जितने कालजयी साबित नहीं होंगे, उतने इनके मिथक होंगे।
मिथक तथा टेक्नॉलॉजी के संबंध की चर्चा इसलिए रोचक हो सकती है क्योंकि हमारे सामने एक तरफ़ मैट्रिक्स, एवेटार, कोई मिल गया एवं कृष जैसी फिल्में हैं तो दूसरी  तरफ़  काफ्का के मेटामॉरफोसिस की ट्रेजेडी को टेक्नॉलॉजी के कारण मक्खी जैसी रोमैंटिक कॉमेडी मे बदलते हुए देखा जा सकता है। रूप परिवर्तन करना भी मनुष्य की अदम्य इच्छा का एक उदाहरण है।  सिनेमा का माध्यम और सिनेमा की भाषा में यह रूप परिवर्तन का काम जब संभव होता है तो इसके कई तरह के परिणाम आ सकते हैं। इसके मूल में भावातिरेक, (प्रेम अथवा क्रोध), राजनीति अथवा असुरक्षा आदि को देखा जा सकता है। महाभारत में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं। वृक्ष में बदलते यक्ष या पत्थर में बदलते पाँडवों के मिथक इसी तरह के उदाहरण हैं।  संभवतः शाप तथा उःशाप वह तकनीक है जो  रूप परिवर्तन की कांक्षा का मिथक निर्माण करती है। अतः संरचना के स्तर पर संस्कृत का महत्वपूर्ण साहित्य, मिथक के पुनर्निर्माण के लिए शाप तथा उःशाप का प्रयोग करता है। यानी यह कहा जा सकता है कि मूल में महाभारत की मिथक कथाओं में रूप परिवर्तन संस्कृत काल एवं मध्य काल में  श्राप की तकनीक काम में ली जाती है। नवजागरण काल में राजनीति रूप परिवर्तन का आधार बनती है, (ऐयारी प्रधान उपन्यास)  आधुनिक काल में ट्रेजेडी, तो उत्तर-आधुनिक काल में फार्स इसके लिए ज़िम्मेदार है।  टेक्नॉलॉजी और मिथक एक ऐसा नया क्षेत्र है जिस पर भविष्य में अधिक काम किया जा सकता है।
मिथक, साहित्य, स्वप्न तथा भाषा देश एवं काल के संदर्भ में किस तरह भिन्न हैं, संरचना की दृष्टि से इनमें क्या समानता है इस पर विचार करना महत्वपूर्ण होगा। मिथ का काल इतिहास-पूर्व का होता है, साहित्य का काल ऐतिहासिक तथा चैतसिक (मनोवैज्ञानिक) होता है,  स्वप्न का काल अचेतन में स्थित है तथा भाषा का काल प्राण में अवस्थित है। मिथक तथा कुछ अंश तक स्वप्न को छोड़ दें , तो भाषा और साहित्य का देश ऐतिहासिक है। मिथक का देश सांस्कृतिक तथा सामूहिक अचेतन है, वह कहीं अन्य घटित हुआ होता है; स्वप्न का देश व्यक्ति का अचेतन है। यूँ मिथ और स्वप्न अचेतन की सृष्टि है तथा साहित्य एवं भाषा चेतन की; इसीलिए जब भाषा में मिथकीय अभिव्यक्ति होती है तो वह चेतन तथा अचेतन के द्वन्द्व का परिणाम है। ( यहाँ इस बात की चर्चा नहीं की जा रही है कि भाषा भी एक मनोवैज्ञानिक पक्ष होता है) ऐतिहासिक देश काल में जब मिथक यात्रा करते हैं तो युगबोध निर्धारित करता है कि मिथक का स्वरूप क्या होगा। मिथक का संबंध जन्म मरण की घटनाओं के साथ होता है। मिथ अपने  निर्माण के बाद समय में बदलता है। जन्म-मरण, भय संत्रास आदि मिथक निर्माण के कारण हैं। पुत्र-प्राप्ति के प्रसंग में, नियोग दरम्यान भय से माता (अंबालिका) आँख बंद कर लेती है तो धृतराष्ट्र का जन्म होता है। महाभारत में वह एक अन्ध राजा के रूप में चित्रित है। महाभारत जब समय में आगे बढ़ता है तो यह शारीरिक अंधत्व प्रतीकात्मक हो जाता है, रवीन्द्रनाथ में गांधारी के निवेदन में पुत्र मोह का प्रतीक तथा भारती के अंधा-युग में सत्ता मोह का प्रतीक बन जाता है। भाषा और साहित्य का देश-काल एक ही है- ऐतिहासिक-भौगोलिक-चैतसिक । अतः जब साहित्य तथा भाषा में मिथक आता है तब ऐतिहासिक एवं अचेतन का संयोग होता है और एक सर्वथा नए अर्थ का उदय होता है। इस संदर्भ में द्रौपदी  का चरित्र महाभारत का बड़ा विलक्षण मिथ है। उस पर बहुत लिखा गया। नरेन्द्र शर्मा से लेकर महाश्वेता तक ने अपने तरीके से इस मिथक को व्याख्यायित किया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि मिथक कथा-रूप होते हैं, अतः उनकी अनंत व्याख्याएं संभव हैं। यही मिथक की सार्थकता भी है। उसमें अर्थ की अनंत संभवनाएं बनी हुई हैं। समाज, संस्कृति, राजनीति, विचारधारा --- सभी इनमें नए और अनुकूल अर्थ देखते हैं। पर अपने मूल रूप में मिथक बड़े कॉम्पैक्ट(संपुटित) होते हैं। द्रौपदी का जन्म अग्नि में हुआ तथा मृत्यु हिम में। जन्म ऊर्जा का तथा मृत्यु शीत का प्रतीक है। फिर दृश्यात्मक रूप से यह अत्यन्त सुंदर है। इसमें रंग का(केसरी तथा श्वेत) तथा स्पर्श (शीत तथा ताप का विपरीत सौन्दर्य भी है। द्रौपदी कितने सारे अर्थ देती है। ताप तथा शीत के बीच की उसकी जीवन-कथाएं कितने सारे संदर्भों एवं अर्थों से भरी हैं।
देह की उपस्थिति, जीवन की उपस्थिति का संकेत है। इसी तरह देह-विलय जीवन की अनुपस्थिति का संकेत है। अतः मिथक की रचना में देह की उपस्थिति/अनुपस्थिति का बड़ा मूल्य है। इसके आधार पर कई मिथक बने होंगे। ये मिथक या तो प्रतीकों के रूप में अथवा कथाओं के रूप में या फिर कथन-पद्धतियों में विभक्त हो कर विभिन्न रूप धारण करते हैं। दीये का जलना अथवा बुझना, मिट्टी के घड़े का फूटना अथवा फोड़ना --- इसी प्रसंग में एक मिथक की चर्चा की जा सकती है। मृत-प्रियजन के लौटने की कामना संभवतः मनुष्य की आदिम इच्छा रही होगी। तो मिथ है – मृतक का लौटना । सावित्री की कथा का मिथ इसी प्रकार का है। महाभारत इस मिथ की पहली अभिव्यक्ति कही जा सकती है। फिर महर्षि अरविंद सावित्री महाकाव्य की रचना करते हैं। फिर समय में मिथ आगे बढ़ता है। आधुनिक काल के मशाल-पुरुष मोहन राकेश सावित्री के मिथ का विरूपीकरण करते हैं।  भारतीय समाज में सावित्री सम्मान का प्रतीक है। वट-सावित्री का धार्मिक अनुष्ठान आज भी संपन्न होता है। कुंती, द्रौपदी, सावित्री सतियाँ है। महाभारत की सावित्री जिसका विशेषण 'सती', अब  संज्ञा हो चुका है, वह आधे अधूरे में एक विरूपित चरित्र के साथ दृष्टिगोचर होती है। वह अपने पति महेन्द्रनाथ से असंतुष्ट है। अतः उसका संबंध चार पुरुषों से दिखाया गया है। फिर भी वह द्विधा में है। 'आधे- अधूरे'  की सावित्री का पति आत्महत्या करना चाहता है। एकदम विपरीत गति। महाभारत की सावित्री अपने पति को मौत के मुँह से बचा लायी है, राकेश की सावित्री पति को मौत के मुँह में धकेलने के लिए तत्पर। ऐश्वर्य भोगने वाला इन्द्र राकेश में आ कर बनता है महेन्द्र पर है वह कंगाल एवं नपुंसक। चार पुरुषों से संबंध बनाने वाली सावित्री की खोज पूर्णता  की ही है।  इस नाटक में वह पूर्ण पुरुष की खोज कर रही है। पूर्णपुरुष तो केवल कृष्ण ही हैं। आधे अधूरे में काले सूट वाला आदमी – सूत्रधार है। कृष्ण काले और यह काले सूट वाला आदमी। एक गज़ब की समानता है। सतीत्व एवं पूर्ण पुरुषोत्तम का मिथ आधुनिक काल में आ कर इस हद तक विरूपित हो जाता है।
देश और काल मिथकों में नया अर्थ भरते हैं। देश और काल की ही कसौटी पर साहित्य तथा भाषा भी अर्थ पाते हैं। स्वप्न, मिथ, साहित्य तथा भाषा की संरचना में समानता है। स्वप्न के अर्थ स्वप्न के दृश्यों में छिपे हैं। मिथ के अर्थ उसके प्रतीकों एवं आकारों में समाहित हैं, साहित्य का अर्थ उसकी रचना और संभाव्यता में है, उसके अलंकारों और बिम्बों मे है और उच्चरित तथा लिखित ध्वनि एवं शब्द में उसके अर्थ छिपे हैं। यह जो प्रतीक तथा तात्पर्य का युग्म है, वह देश और काल में यात्रा करते हुए  मिथकीय अभिव्यंजना के नए अभिगम प्रस्तुत करते हैं।    


[i] गुजराती कवि प्रवीण पंड्या की कविता इस कौरव पाँडव के समय में से प्रेरित

[ii] प्रायः भाषा शिल्प शब्द प्रयोग साथ किया जाता है। पर इतना समझना आवश्यक है कि अगर ताना-बाना भाषा है तो पट शिल्प है;  मिट्टी अगर भाषा है तो मूर्ति शिल्प है, रंग अगर भाषा है तो चित्र शिल्प है-  अर्थात् मिथकीय अभिव्यंजना के नए अभिगम किस तरह रंग और चित्र-पट दोनो में है, मिट्टी और मूर्ति में दोनों में हैं। अर्थात् कथा-संदर्भ एवं भाषा। इनको अलग कर के समझना असंभव है। ताने-बाने के अभाव में  पट का निर्माण असंभव है, और पट के अभाव में रंग चित्र का निर्माण नहीं कर सकते। ताने-बाने की गति और विधि अलग अलग पोत निर्माण करते हैं। भाषा के विशिष्ट प्रयोग कृति के शिल्प का निर्माण करते हैं।
संदर्भ पुस्तकें
Alex Preminger. Encyclopedia of Poetry and Poetics. दि.न.
Northrope Frye. Fables of Identity. New York & London: A Harvest/HBJ Book, USA, 1963.
डॉ नगेन्द्र. मिथक और साहित्य. दिल्ली: नेश्नल पब्लिशिंग हाऊस, 1979.
डॉ.भोलाभाई पटेल. “पुराण कल्पनोनो साहित्य मां विनियोग.” भोलाभाई पटेल. पूर्वापर. मुंबई: . शेठ नी कंपनी, 1976.