लोकप्रिय पोस्ट

रविवार, 12 दिसंबर 2010

शमशेरजी को याद करते हुए


मुझे याद आता है कि जिस वर्ष शमशेरजी का देहावसान हुआ, उसी वर्ष मेरेसामने दो प्रस्ताव आए थे। पहला यह कि मैं शमशेरजी के साथ बिताए वर्षों के संस्मरणों पर एक पुस्तक लिखूं। दूसरा यह कि मैं रचनावली का काम तुरन्त आरंभ कर दूँ । मैंने पूछा कि रचनावली की इतनी जल्दी क्या है तो यह कारण सामने रखा गया कि देर होने से फिर लोग शमशेरजी को भूल जाएँगे, बाद में इस बात का इतना महत्व नहीं रहेगा। तब मैंने यह कहा था कि जिस कवि को लोग इतनी जल्दी भूल जाने वाले हों, उनकी रचनावली की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिए। जहाँ तक संस्मरणों का प्रश्न है मुझे इसमें इतनी रूचि इसलिए नहीं रही कि पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी में संस्मरणों का दुरुपयोग भी बहुत हुआ है। उसकी विश्वसनीयता खंडित हुई है ; क्योंकि संस्मरणों के तथ्यात्मक आधार की जाँच हर बार संभव नहीं होती। फिर संस्मरणों की पुस्तकें मुझे कई बार शोक सभा की याद दिलाती हैं जिसमें व्यक्ति, मृतक की कम, अपनी ही बात अधिक करता है। अथवा कई बार यह भी होता है कि हम संस्मरणों के माध्यम से किसी की लकीर को छोटा कर के अपनी लकीर बड़ी करना चाहते हैं। मैं यह मानती हूं कि रचनाकार की रचनाएं ही अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। बहरहाल, आज जब मुझे आपके सामने शमशेरजी के संस्मरण सुनाने हैं, तो मेरी कोशिश यही रहेगी कि इन्हें उस अर्थ में शोक सभा का रूप न मिले अथवा मैं किसी की लकीर को छोटा न करूं।
1
मानों हम सहज ही कहीं टहलने निकल गए हों.....मसलन किसी नदी किनारे या किसी ऐसी जगह जहाँ सहसा बहुत कुछ घटित हो जाता है ; जैसे भरे बाज़ार में या मेले में..... 'क्या हो रहा है' का कौतुहल हमें अचानक, हमारे ही अन्जाने उस खेलते, लहर-लहर पानी के एक ऐसे प्रवाह में ढकेल देता है कि हमारे पास 'क्या किया जाए' इस बात पर सोचने का न तो विकल्प होता है न ही वक्त; और हम बस बहते चले जाते हैं प्रवाह के साथ-साथ... और ठीक वहीं और तभी जा कर रुकते हों जब प्रवाह की गति उसकी अनुमति दे।
अथवा मेले में खेल देखने की उत्सुकता से चले हों और हमारे हाथों में एक बेहद प्यारे, पर खो गए बच्चे की ज़िम्मेदारी आ पड़ती है और उस दिलक़श बच्चे को देख कर हमारे मन में भी यही विचार आता है कि 'अच्छा हुआ कि हम वहाँ मौजूद थे।'
अथवा भीड़ भरे बाज़ार में बीच सड़क पर कोई हादसा हुआ है और सभी अपनी-अपनी राह चले गए हों। आप भी उस हादसे के गवाह हों और लुहलुहान घायल को उसकी नियति पर नहीं छोड़ सकते क्यों कि यह वो शख़्स है जिसने मनुष्य जाति की भावनाओं को लहूलुहान होने से बचाया है ; जिसके भीतर के एकांत में मनुष्य, समाज, आत्मीयों की स्मृति, बेचैन हो कर घूम रही है , वह अपने घायल पाँवों पर खड़े रहने की ज़द्दोज़ेहज में जब आपकी ओर देखता है तो आपको सहसा अपनी एक छवि उसके भीतर दिखाई देती है। उसने कभी आपको बताया नहीं था कि आप उसकी बेचैन स्मृतियों का एक हिस्सा हैं, पर आप स्वयं अपने को जब वहाँ देखते हैं तो सिवा उस लहूलुहान अकेले व्यक्ति के साथ होने के, कोई और विचार आप के भीतर नहीं जागता।
इन तीन दृश्यों का मिला-जुला भाव और स्वरूप मेरे सामने थे जब वह निर्णय मेरे भीतर जगा और शमशेरजी ने मेरे साथ आने का चुनाव किया।
2
शमशेरजी के साथ मेरी स्मृतियां तब से जुड़ी हैं जब 1978 में मैंने उनपर शोध करने का निर्णय किया और 1979 में मैं उनके समक्ष एक शोध-छात्रा के रूप में उपस्थित हुई थी। उन स्मृतियों में एक ऐसे कवि की छबि अंकित है जिसे अपने पर काम कराने या होने को लेकर कोई विशेष उत्साह तो नहीं ही रहता था, बल्कि, उनकी कोशिश यह रहती थी कि कोई ना ही करे तो अच्छा है। इसका कारण यह था कि उन्होंने अपनी कविताओं को इस तरह कभी नहीं देखा कि उनका कोई मूल्य हो, सिवा उनके लिए या उनकी तरह सोचने वालों के लिए। पर उनके समक्ष जो व्यक्ति उपस्थित है, जो इस प्रकार के या किसी भी प्रकार के कार्य के लिए पहुँचा हो. उसके आतिथ्य के प्रति वे सदैव ही तत्पर रहते थे। उस यात्रा में शमशेरजी को मैं अपनी आँखों से नहीं परन्तु उस व्यक्ति की आँखों से देख रही थी जिनके माध्यम से मैं वहाँ पहुँची। अतः मेरा उनके प्रति भाव पक्षपात से भरा हो, यह स्वाभाविक है। मैंने ख़ुद अपने ढंग से अपने अनुभव से तो शमशेरजी को बाद में जाना।
शमशेरजी के साथ मेरे अपने अनुभव उज्जैन और बाद में सुरेन्द्रनगर आदि के दिनों... वर्षों के हैं। ये अनुभव कई प्रकार के हैं। जिनमें शमशेरजी के साथ मेरे अपने, मेरे परिवार के साथ के, शमशेरजी के साथ उनके परिवार के, साहित्यकारों के साथ के आदि आदि। शामिल हैं। मैं उन्हीं में से कुछ आपके बीच बाँटना चाहती हूँ।
उज्जैन के दिनों की बातें मैंने इसके पहले भी कहीं-न-कहीं लिखी हैं। मैं यह भी जानती हूँ आज की यह कोई अनंत बैठक नहीं है कि मैं अपनी बातें कहती चली जाऊं। मुझे इस बात का भी एहसास है कि संभवतः बीमारी और उसके बाद के दिनों में शमशेरजी की क्या स्थिति थी और उनका जीवन किस तरह बीतता था यही जानने की उत्सुकता संभवतः लोगों के बीच अधिक है। मैं यह भी जानती हूँ कि एक यह उत्सुकता भी, शायद, हिन्दी प्रेमियों के बीच है कि आखिरकार धुर उत्तराखंड का जीव पश्चिमी खंड में कैसे जा कर बसा। फिर कौन है यह रंजना ? सैकड़ों शोध-छात्रों में यह एक शोध-छात्रा । हमारे समाज की यह भी एक विडंबना है कि इन्सान जब बदहाली से बच जाता है, तो अचानक उसकी ओर हमारा ध्यान जाता है। अरे! ! वरना यह चर्चा तो आम है कि हम अक्सर यह अफ़सोस जताते रहे हैं कि फ़लां कवि/लेखक के अंतिम दिन बड़े कष्ट में बीते। यह हमारी नकारात्मक भावनाओं का पोषण करती है और हमें एक तरह का संतोष भी देती है, कहीं-न-कहीं। हिन्दीतर भाषी परिवार में हिन्दी के इस महत्वपूर्ण कवि के दिन कैसे बीते होंगे, यह उत्सुकता अगर कौतुहल का मुद्दा रहा है, तो इस बात पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं है। मैं इसे स्वाभाविक ही मानती हूँ।
3
इस भूमिका के बाद अब मैं अपनी स्मृतियों को टटोलती हूँ तो मुझे दिखाई पड़ते हैं वह शमशेरजी जिनके साथ रहते हुए मुझे हमेशा यह लगा कि I was the chosen one!.
अहमदाबाद से उज्जैन अगर पास नहीं तो दूर भी नहीं था। एक रात का सफ़र। जाने के लिए गाड़ी तो तब एक ही थी, पर बसें दो-चार तो थी हीं। बस की यात्रा बहुत आरामदायक नहीं थी, क्योंकि राज्य परिवहन की सामान्य बसें तो जैसी थीं, वैसी थीं। और यह कोई आजकल की बात तो नहीं है। 1980 में हड्डियां दुखाने वाली सडकों पर चलती ये बसें मुझे कभी कष्टदायक नहीं लगी थीं क्योंकि एक तो उम्र ऐसी थी और दूसरे कोई विकल्प भी नहीं था। शाम होने से पहले यानी 6 बजे से पहले अगर मन में इच्छा हो जाती तो साढ़े सात की बस पकड़ कर उज्जैन के लिए चल देती थी। शमशेरजी के यहाँ सभी के लिए जगह थी। उनकी आवभगत का अनुभव मैं दिल्ली में कर चुकी थी। चाय के लिए मना करने पर दूध का आग्रह रखने वाले शमशेरजी के यहाँ जाने के लिए भला संकोच होने का कोई कारण नहीं था। ऐसी ही अनेक बार की यात्राओं में शमशेरजी से बढ़ता हुआ परिचय एक अधिकार-भरी आत्मीयता में बदलने लगा। शमशेरजी का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि इस तरह का अधिकार-भाव रखने वाले कितने ही लोग उज्जैन में मैंने देखें हैं। शमशेरजी सभी के लिए बाहें खोल कर ऐसे उपस्थित हो जाते कि हर कोई यह मानता कि शमशेरजी उनके विशेष निकट हैं। शमशेरजी से मेरा नाता कविता के माध्यम से जुड़ा था और मैंने यह पाया कि उन्हें कविता की मेरी समझ के प्रति विश्वास एवं आदर था जो वे अक्सर मेरे शोध-निर्देशक आदरणीय डॉ. भोलाभाई पटेल की तारीफ़ करते हुए प्रकट करते थे। इसी का परिणाम यह हुआ कि एक दिन उन्होंने मुझसे यह कहा कि जब यहाँ का ( प्रेमचंद पीठ) कार्यकाल पूरा हो जाएगा तो मैं अपना सारा सामान तुम्हारे यहाँ रखूंगा और मैं स्वतंत्र हो कर जहाँ मेरी इच्छा होगी , घूमूंगा। भविष्य की बात थी, मैंने उसे उतना ही महत्व दिया , जितना उस समय के लिए योग्य था। पर हाँ, मुझे ख़ुशी हुई कि शमशेरजी का मुझ पर भरोसा है। उनकी इस बात के पीछे नियति का क्या खेल था मैं तब नहीं जान पायी थी।
मैंने यह पहले लिखा है पर मुझे कहने का मन होता है कि उज्जैन में शमशेरजी अकेले रहते थे पर उनके यहाँ रोज़ चार लीटर दूध तो कम-से-कम आता था। फिर फल आदि की इफ़्रात। उनके घर के आँगन के पिछवाड़े एक बग़ीचा था जिस में अमरूद के पेड़ थे। उन पर अमरूद लगा करते थे। उस बग़ीचे के अमरूदों, गिलहरियों, चिड़ियों साँपो, मोर ( कभी - कभार आने वाले), अमरूद के पेड़ों से छनती आती धूप-छांही, सभी शमशेरजी की बातचीत का हिस्सा थे। उस आँगन में मैंने उन्हें योगासन करते हुए देखा है। आसन करते हुए बीच-बीच में वे आसनों की प्रक्रिया में होने वाली अनुभूतियों की बात करते और मुझे स्मरण आती उनकी वे कविताएं – सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता....। मुझे प्लॉट का मोर्चा का वह रेखा चित्र भी याद आता और समझ में आता कि इन कविताओं में जो बिम्बों की जटिलता है वह एक विशिष्ट अनुभूति के कारण है। उस अनूभूति को समझ लेने पर कविता एकदम सरल हो जाती है। फ़्रांसिसी प्रतीकवादी कवियों ने प्रतीकों की जिस निजता की बात की है उसका रहस्य भी तभी समझ में आता है। शमशेरजी का नहाने का तरीक़ा बड़ा विशिष्ट था। अपना पायजामा ऊपर तक, लगभग जांघों तक, चढ़ाए, एक मग्गे में पानी ले कर, छोटा-सा तौलिया गीला कर के उस पर पीयर्स साबुन लगाते थे। पहले वे सूखे तौलिए से अपना बदन रगड़ते थे , फिर साबुन लगे गीले तौलिए से अपना बदन साफ़ करते थे और फिर एक बार साफ़ पानी में तौलिया भिगो कर बदन पर लगा साबुन साफ़ करते और अंत में एकाध मग्गा पूरे शरीर पर डाल लेते। यह उनका किफायती स्नान का प्रत्यक्ष उदाहरण था। (किफायत पानी की, समय की नहीं) यही किफ़ायत सुरेन्द्रनगर जैसे शहर में बड़ा वरदान साबित हुई थी।
शमशेरजी अमरूदों को देखते हुए इलाहाबाद को याद करते और इलाहाबाद को याद करते हुए बहुत कुछ उनकी स्मृति पटल पर खिंच जाता। ऐसे में ही उहोंने मुझे भुवनेश्वर के जीवन की ट्रेजेडी के विषय में बताया था। मैने तो भुवनेश्वर को नहीं देखा , ज़ाहिर है, पर शमशेरजी ने भुवनेश्वर का जो चित्र खींचा था मुझे हमेशा ऐसा लगा है, और आज भी ऐसा लगता है कि मैं भुवनेश्वर से मिल चुकी हूँ। मेरे कहने का अर्थ यही है कि शमशेरजी अपनी बात को जिस गहन आत्मीयता से कहते थे कि चाहे प्रसंग की बारीकियां आपको याद न रहें उसके प्रभाव आपके चित्त पर स्थायी हो जाते थे। इलाहाबाद के सिविल लाईन्स इलाके में रात-बे-रात घूमते(भटकते) भुवनेश्वर का चित्र, मानों , मेरी अपनी स्मृति का हिस्सा बन गया है। 'वग़रना तू भुवनेश्वर...' कविता में शमशेरजी ने अपने समय के इस कलाकार के बारे में कहा ही है। पर इतना तो है कि भुवनेश्वर की कला के प्रति आदर होते हुए भी शमशेरजी भुवनेश्वर के ख़स्ताहाल के लिए ख़ुद भुवनेश्वर को ही एक हद तक ज़िम्मेदार भी मानते थे।
मैं जब शमशेरजी के यहाँ उज्जैन जाया करती थी तब रोज़ उनके साथ सुबह घूमने का अवसर मैं नहीं चूकती थी। इन्हीं प्रातः-चालों में कला और कृति के मर्म को समझने की बारीकियां मैंने सीखी होंगी। सौन्दर्य किसे कहते हैं- यह शमशेरजी की कविताओं से तो जाना ही है पर अपने चारों तरफ़ के परिवेश में उसे कैसे देखना , यह मैंने उन्हीं से सीखा है। किसी पेड़ की जड़ें ज़मीन के नीचे किस दिशा में होंगी जिसके कारण वह ज़मीन के बाहर किसी विशेष दिशा में बढ़ता है, पेड़ों पर लगे पत्तों की संरचनाएँ किस तरह अलग-अलग होती हैं जिनसे पेड़ों को पहचाना जा सकता है, उनकी डालियों के बढ़ने और आकारों आदि की वे अक्सर चर्चा करते थे। मुँड़ेर पर बैठी गिलहरी या आँगन में पड़ते धूप-छाँही के रेखाचित्रों के सौन्दर्य तथा उनके साथ गोया कोई आत्मीय रिश्ता हो कुछ इस तरह उन पर वे जब बोलते थे तो मैंने मानों पहली बार जाना कि 'कवि' किसे कहते हैं। शमशेरजी के पास इस तरह की इतनी बातें थी और उनको इस तरह सुनते हुए मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि धीरे-धीरे मैं सौन्दर्य-शास्त्र में दीक्षित हो रही हूँ। अपने आस-पास के परिवेश को कितनी बारिकी से किस तरह देखना चाहिए यह भी शमशेरजी के साथ की हुई प्रातः-चाल का ही परिणाम है।
लेकिन उज्जैन में चाहे आत्मीय ही सही, पर थी तो मैं एक मेहमान ही।
4
शमशेरजी का कार्यकाल जिस अप्रैल( 1985) में पूरा होने वाला था और नरेश मेहता आने वाले थे , मैं उनसे मिलने चली गई। मैंने सोचा था उनसे मिलते हुए फिर मैं कहीं घूमने निकल जाऊंगी , क्योंकि गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ने वाली थीं। मेरा एक स्वप्न था कि नौकरी करूंगी और छुट्टियों में भारत-भ्रमण का कार्यक्रम। पर सब कुछ बदल गया। शमशेरजी उज्जैन में नहीं थे। प्रेमलता वर्मा अपनी बेटी श्रुति के साथ आई हुईं थीं और शमशेरजी उनसे मिलने दिल्ली गए हुए थे। उनके नौकर रणजीत ने बताया कि वे दो-चार दिनों में आ जाएंगे । वह ख़ुद भी बाहर जाने वाला था। मैंने सोचा कि मैं रुक ही जाऊं और उनसे मिल कर फिर चल दूंगी। शमशेरजी आए। पर भयंकर लू लगने से बीमार। फिर तो सारा कार्यक्रम ही उलट-पुलट गया। रणजीत भी चला गया था। मैं वहीं रुकी। इस बीच नरेशजी भी आ गए थे। पीठ का कार्यभार संभालने के लिए। पर शमशेरजी इतने बीमार थे कि उनका जाना संभव नहीं था। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है उनके स्वजनों को मेंने चिट्ठी लिखी कि वे आ कर शमशेरजी को ले जाएं। पर नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था। मैंने भी सोचा कि शमशेरजी ने कहा भी था , सो मैं ही उन्हें ले जाती हूँ। फिर ठीक होने पर जैसी उनकी मर्ज़ी।
लेकिन उन दिनो उज्जैन में अपनी तीमारदारी के चलते मैंने काफ़ी अ-प्रियता कमा ली थी। डॉक्टर ने उन्हें पूरा आराम करने के लिए कहा था। पर स्वयं शमशेरजी और उनके मिलने वाले( जो उन्हीं की तरह थे) डॉक्टर की सलाह से बहुत वाक्फियत नहीं रखते थे। मुझे एक कड़ी नर्स का रोल करना पड़ा था। उसी समय यह गुनगुनाहट मैंने सुन ली थी कि 'रंजना ने शमशेरजी पर जैसे कब्ज़ा कर लिया है।' पर आप अगर नर्स हैं तो नर्स हैं। शमशेरजी से जब उनके लोग मिलने(समय-अ-समय) आते थे और मेरी रोक का सामना करते थे, तो वे ही नहीं, शमशेरजी स्वयं भी नाराज़ होते थे। पर बाद में कहते थे कि तुम बहुत अच्छा कर रही हो। मेरी रोक पर शमशेरजी की नाराज़गी तो लोगों ने देखी, पर बाद में जो वे कहते वो तो केवल मैं जानती थी। जंगल में मोर नाचा....। लेकिन मेरे लिए तसल्ली की बात यह थी कि डॉक्टर प्रसन्न थे और शमशेरजी ठीक हो रहे थे। लू से परेशान, अपनी स्थिति का बयान शमशेरजी इस तरह करते थे—'जैसे सिर में सैंकड़ो-सैंकडों चूरे हुए काँच के टुकड़े भरे हुए हों और वे चुभ रहे हों, इस तरह पीड़ा हो रही है।' इंतज़ार करने के बाद जब कहीं से कोई न आया, न ख़त ही मिला तो मैंने शमशेरजी के सामने यह प्रस्ताव रखा कि आप अपना सामान तो वैसे भी मेरे यहाँ रखने वाले थे, तो क्यों न आप अभी मेरे साथ चले चलिए, फिर ठीक होने पर जैसा अपको उचित लगे, कीजिए। शमशेरजी को यह बात जँच गई। पर उन्होंने एक शर्त रखी थी। मैं तुम्हारे साथ तभी आऊंगा जब मकान का किराया मैं दूंगा। मुझे पहले तो हँसी आई। मैंने पूछा इससे फ़र्क क्या पड़ता है। उन्होंने इसका कोई कारण तो नहीं बताया पर अपने आग्रह पर वे अटल रहे। मैंने सोचा यह बात बीच में नहीं आनी चाहिए, अतः मैंने उनकी बात मान ली। फिर जब उस पर मैंने सोचा तो मुझे लगा कि इसका संबंध उनके स्वाभिमान और स्वतंत्रता की भावना से है। वे मेरे घर में नहीं रहना चाहते थे पर अपने घर में मुझे रखना चाहते थे। मुझे यह बात अच्छी भी लगी और समझ भी आ गई क्योंकि मेरे अपने घर में शमशेरजी से कम-से-कम 10-12 वर्ष बड़े दादाजी थे। अतः शमशेरजी की बात मुझे स्वाभाविक भी लगी।
5
मैं उस दुर्भाग्यपूर्ण शाम को नहीं भूल सकती जब पहली बार शमशेरजी को डिमेन्शिया का दौरा पड़ा। हम सुरेन्द्रनगर में थे और रोज़ की तरह शाम को टहलने निकले थे। शमशेरजी अभी अपने लू के प्रभाव से नाज़ुक हुई तबीयत से पूरी तरह उबरे नहीं थे। चलते-चलते अचानक उन्होंने कहा अब घर चलना चाहिए। मैंने कहा ठीक है। फिर उन्होंने कहा कि देखो घर जल्दी चलो कितने सारे तोते उड़ रहे हैं। मैंने देखा, एक भी नहीं था। फिर मैं समझी कि मज़ाक़ कर रहे हैं। मैंने पूछा कहाँ हैं। तो उन्होंने कहा देखो सब जगह। मैं थोड़ी घबराई। मैंने पूछा कहाँ। तो ऊपर इशारा किया और चलने लगे। मैंने भी कहा चलिए। पर थोड़ी चिंता हुई। पर चिंता बढ़ी तब, जब हम घर पहुँचे। घर पहुँचे तो उन्होंने कहा चलो घर चलें। मैंने कहा घर तो आ गया है। कहने लगे कि नहीं घर चलो। अब तो मेरे ही मानों तोते उड़ गए। मेरी कुछ समझ में नहीं आया पर इतना मैं जान गई कि कुछ गड़बड़ है। मैने सोचा कुछ देर इंतज़ार ही कर लिया जाय। हो सकता है यह स्थिति देर तक न भी रहे। । थोड़ी देर के बाद उन्होंने रंग और कागज़ माँगा, और कुछ बनाने लगे। मैंने देखा कि उनका हाथ अस्थिर था, रेखाएँ ठीक से बन नहीं रहीं। लिखावट अस्पष्ट-सी। जो बन रहा था वह मेरी समझ से परे था। मैंने पूछा कि क्या बना रहे हैं। कहने लगे तोते.... उड़ रहे हैं। वही बना रहा हूँ। हरी स्केच पेन से बनी वे रेखाएं मानों आने वाले विकट समय का मानों संकेत थीं। अब मेरा दिल बैठ गया। डॉक्टर को बुलाया। उन्होंने कंपोज़ दे कर सुलाया। और कहा कि चिंता न करें, सुबह तक ठीक हो जाएगा । कुछ हो, तो बुला लेना। तब फोन की सुविधा नहीं थी। यहाँ शमशेरजी घर में अकेले। और मैं निपट अकेली। सोचा एक पत्र अशोकजी को लिखूँ, लिखा भी पर पोस्ट नहीं कर सकी। अशोकजी से मेरी कोई आत्मीयता या कोई गहरा परिचय तो था नहीं, पर मुझे इतना पता था कि शमशेरजी को उन पर भरोसा था और वे शमशेरजी का बेहद आदर करते थे।
शमशेरजी स्वस्थ रहें यह मेरी ज़िम्मेदारी थी ; पर उन पर मेरा ऐसा कोई सामाजिक या अन्य अधिकार वाला रिश्ता नहीं था कि मैं जो चाहूँ कर सकूँ- साहित्यिक-समाज के प्रति मेरी एक जवाबदेही भी बनती थी। मुझे याद है वह प्रसंग एक दिन जब सुबह की प्रात-चाल में मैं शमशेरजी के साथ थी। रास्ते में एक बुज़ुर्ग मिले जिन्होंने पैनी दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए शमशेर जी से पूछा- ये कौन हैं आपकी। शमशेरजी ने तुरन्त कहा –बान्धवी। बुज़ुर्ग महाशय बान्धवी शब्द के अर्थ की चर्चा देर तक करते रहे। खैर। यही वह संबंध था, जिसे शमशेरजी ने अपने तई तय किया था। पर मैंने तो ऐसा कुछ भी तय नहीं किया था। उनके साथ अपने जुड़ाव को मैं एक ऋणानुबंध मानती रही हूँ जो पूर्व-जन्म के किसी अ-जाने शेष संबंध की पूर्ति था। इसे आप मेरी मान्यता और प्रतीति का सच कह सकते हैं, वैज्ञानिक सच तो यह नहीं ही कहा जा सकता। न ही यह कोई साहित्यिक सच था। पर उस समय इससे कोई फ़र्क तो पड़ता नहीं था क्योंकि तब ज़रूरी यह था कि शमशेरजी को जल्द-से-जल्द स्वस्थ करना है। परन्तु दूसरा दिन तो अधिक चिंता-भरा था शमशेरजी लगभग उसी स्थिति में रहे। वे किसी को पहचान नहीं रहे थे। मेरा नाम भूल गए थे। उन्हें याद नहीं था कि वे कहाँ हैं। न अपने भाई तेजबहादुर का उन्हें कोई स्मरण था, न ही शोभादीदी का। बस अपनी एक भांजी का उन्हें स्मरण था।
क्या करूं क्या न करूं ...सोचने हुए मैं तब पहली बार पोस्ट – आफिस गई और श्री अशोक वाजपेयी जी को फोन किया। अशोकजी तब भोपाल में थे। उन्होंने मध्य-प्रदेश सरकार के माध्यम से गुजरात सरकार से कह कर शमशेरजी के इलाज की उत्तम व्यवस्था करवा दी। तब हमारे यहाँ राज्यपाल डॉ स्वरूप सिंह थे। शमशेरजी की मृत्यु पर राज्यपाल के यहाँ से पुष्पांजलि आई थी, जिससे यहाँ के साहित्यकारों के बड़ा आश्चर्य हुआ था।
यह 1985 की बात है। 1985 से ले कर 1992 तक शमशेरजी की तबीयत ऐसी ही रही- कभी कम कभी ज़ियादा। उन दिनों की बात करना मुझे हमेशा ही कष्टकर लगता है। पर आज भी मुझे सोच कर कई बार हँसी भी आती है कि वे मुझे क्या-क्या नहीं समझते थे। कभी किसी ऐंबेसी में काम करती कोई सेक्रेटरी, कभी नरेन्द्र शर्मा, कभी मिसेस नरवणे ..... वे स्वयं कभी इलाहाबाद, कभी दिल्ली कभी बम्बई होते। उनके साथ जैसी बातचीत होती मैं समझ जाती आज शमशेरजी किस शहर में हैं। कई बार दिनों तक अंग्रेज़ी में बोलते थे, तो कई बार मुझे लगता था कि गोया मैं किसी नाटक के पात्र से बात कर रही हूँ। किसी तीसरे व्यक्ति को इस बात का अहसास तक नहीं हो पाता कि शमशेरजी मानसिक रूप से कब किस शहर में हैं और दूसरे को वे क्या समझ रहे हैं। देश और काल से परे कवि अपने ही वंडर लैंड में मज़े से जी रहे थे। कभी अचानक कहते कि रंजना मैं हिस्ट्री डिपार्टमैंट जा रहा हूँ। मैं पूछती कहाँ है। तो जैसे मैं उनके साथ कोई खेल न कर रही होउँ और उन्होने भाँप लिया हो, इस तरह हँस देते और आगे चल पड़ते। सामने का बंद दरवाजा वे खोल नहीं पाते अतः थोड़ी देर वहीं रुक कर वापस कमरे में चले जाते।
उन दिनों मैं जिस घर में रहती थी वह तीन कमरों का छोटा-सा मक़ान था। उसके चारों ओर बगीचे की खुली जगह थी। मैं घर तो खुला रखती थी पर बगीचे के फाटक पर ताला लगा देती थी। एक दिन दोपहर को कॉलेज से घर आई और बगीचे के दरवाज़े का ताला खोल कर अंदर गई। घर खुला था। अंदर जा कर देखा तो शमशेरजी कहीं नहीं थे । ढूँढते हुए बाहर आई तो देखती हूँ- 'पत्र हीन नग्न गाछ' की मुद्रा में खड़े कुछ सोच रहे थे। मैं हतप्रभ। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ। मैंने पूछा यहाँ क्या कर रहे हैं। तो मेरी ओर देख कर मुस्कराए और कहा कि सोचता हूँ लायब्रेरी चला जाऊँ। मैं कहने को थी कि आप... पर सोचा कि जो अपने वंडरलैंड में जी रहा है उसे इस दुनिया के रीति-रिवाज़ों से क्या लेना देना। मैंने कहा हाँ, चलिए। फिर उन्हें घर के भीतर ले आई। दरवाज़ा बन्द किया। पर मुझे ईमानदारी से कहना चाहिए कि बाहर से अन्दर आते हुए मैंने आस-पास देख लिया था कि लोग अपने मक़ानों के बाहर तो नहीं हैं। उस दिन के बाद से मैं कॉलेज जाती थी तो घर को ताला लगा कर जाती थी। यह मुझे अच्छा नहीं लगता था अतः एक ऐसे मक़ान की खोज करती रही जो बन्द होने पर भी खुलेपन का अहसास दे और सुरक्षित भी हो। ऐसा घर मुझे मिल भी गया जिसके पिछवाड़े बड़ा सा आँगन था और बरामदा जालियों वाला; ताकि ताला बन्द करने पर भी शमशेरजी को यह प्रतीत न हो कि वे बन्द हैं।
इसके बाद वह समय भी आया कि शमशेरजी लगभग पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे। हाँ बुढ़ापा अपने साथ कई तरह की तकलीफ़ें लाया था। फिर डिमेंशिया और पार्किन्सन्स के कारण जो ब्रेन सेल में नुक़सान हो गया था वह तो अपनी जगह था ही। पर मुझे तो याद आता है शमशेरजी का वह बच्चों-का सा हँसना, मज़ाक़ करना और लगातार नई नई भाषाओं को पढ़ने के सपने देखना और योजनाएं बनाना।
सुरेन्द्रनगर के दिनों में कुछ युवा लोगों का एक ग्रुप बन गया था। हम लोग हर गुरुवार को मिल कर शमशेरजी की कविताओं को गाते थे। हमारे एक मित्र मुकेश पंचोली का स्वर बहुत अच्छा था । यों मुकेश चित्रकार थे। इसके पहले वे दुष्यन्त की ग़ज़लें और गुजराती के कवियों की कविताओं को स्वर-बद्ध कर चुके थे। शमशेरजी की भाषा और उर्दू के उच्चारणों की चुनौति स्वीकार करते हुए छोटे से शहर में रहने वाले गुजराती भाषी मुकेश ने कई ग़ज़लें और कविताएं अलग-अलग अंदाज़ मे स्वर-बद्ध की हैं। उस हमारे पूरे मजमें में कई ऐसे लोग भी थे जिन्हें न हिन्दी साहित्य का परिचय था न ही इस बात का पता था कि शमशेरजी का हिन्दी साहित्य में क्या स्थान था और वे यहाँ क्यों हैं आदि। वे तो यही मानते थे कि बापाजी की ग़ज़ल बहुत अच्छी है। उनमें एक टेलीफोन ऑफ़िस का कर्मचारी था जो तंदुरुस्त कद-काठी का था और एक कपास का सामान्य व्यापारी जो बिहारी की नायिका की तरह न दिखने वाला। कपास के इस व्यापारी को बीड़ी पीने का शौक़ था और गाने सुनते हुए तो विशेष। बीड़ी का धुआँ तो दिखता था पर पीने वाला नहीं क्योंकि वह तंदुरस्त कद-काठी के पीछे छिप कर धूम्रपान का आनंद लेते थे। शमशेरजी के लिए यह बड़ी हैरानी की बात थी कि धुँआ तो दिख रहा है, बू भी आ रही है पर उसका स्रोत कहीं दिखाई नहीं दे रहा। वे परेशान हो कर यहाँ-वहाँ देखते पर समझ नहीं पाते। बाक़ी सब शमशेरजी की परेशानी समझते थे और मुस्कुराते भी थे । पर शमशेरजी ने इस बारे में कभी कुछ नहीं पूछा। न उस समय न बाद में कभी मुझे। उनकी समस्या यह नहीं थी कि बीड़ी क्यों पी जा रही है या कौन पी रहा है। पर जो हो रहा है वह उन्हें दिख नहीं रहा है। इन सभी सामान्य लोगों से शमशेरजी बड़ी आत्मीयता और आदर से मिलते थे। एक अर्थ-शास्त्र का विद्यार्थी भी था, मेरी एक सहेली और प्रवीण जो उस समय गुजराती कविता और नाटक के क्षेत्र में सक्रीय थे। नियमित रूप से कई वर्षों तक यह हमारी संगीत-मजलिस चला करती जिसमें शमशेरजी अपनी कविता-गान के प्रथम श्रोता थे क्योंकि बाक़ी सब गाते थे। उन्हें निश्चय ही अच्छा लगता था और इसीलिए वे मुकेश के प्रति उनका विशेष स्नेह था। उस पूरे दौर में मेरी भूमिका यह रहती थी कि मैं इन मजलिसों का सातत्य बनाए रखूं क्योंकि इन क्षणों में शमशेरजी को बड़ा आनंद मिलता था। शमशेरजी की मृत्यु के बाद भी कई वर्षों तक उनकी स्मृति में हर 13 जनवरी को हम मिल कर उन्हे गाते रहे। इन्हीं में मेरी माँ भी शामिल रहती, जब कभी वे मुझसे मिलने सुरेन्द्रनगर आतीं। शमशेरजी इस पूरी प्रकिया में हर व्यक्ति की विशेषताएं भी पहचान लेते थे। और हर व्यक्ति से उसी तरह बात भी करते। मुकेश से बात करने का उनका भाव जहाँ सम्मान से भरपूर था वहीं प्रवीण से बात करते थे तो लगातार उनके भीतर के नाटककार को चुनौति देते हुए और हवा से ज़मीन पर लाने की कोशिश करते हुए। असल में आने वाले संभवित ख़तरों से बचाने की कोशिश करते हुए, जिसको प्रवीण उस समय शायद न पहचान पाए हों पर बाद में उसकी व्यंजना और महत्व समझ गए।
मैं उस शहर में थी तब अविवाहित थी। अतः ऐसे कई लोग मुझसे मिलने आते थे जो बड़ी शराफ़त से टाईम-पास करने की कोशिश करते थे। मैं परेशान भी रहती थी। एक बार मैंने शमशेरजी से इस विषय में कहा। शमशेरजी चाहे बीमार और अस्वस्थ थे पर जैसे मेरी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी हो इस तरह वे उन लोगों से निपटते भी थे। एक बार देर रात को दो सज्जन मेरे घर आए। वे बैठे ही थे कि शमशेरजी अपने कमरे से बाहर आए और कहा- बहुत देर हो गई है , अब सोने का वक्त हो गया है। आप फिर कभी आएँ। उसके बाद इस संकट का मुझे सामना नहीं करना पड़ा।
शाम के समय अकेलेपन का अहसास शायद सबसे तीव्र होता होगा, इस बात को मैं शमशेरजी के साथ रहते हुए समझ सकी थी। उनका किसी बात का कोई आग्रह नहीं रहता था पर जैसे निवेदन के स्वर में वे कहते थे कि रंजना तुम शाम को कहीं जाया मत करो। एक बार मैंने कारण पूछा तो बड़े अनमने स्वर में कहा एक अजब किस्म की घबराहट होती है।
दिवाली और गर्मियों की छुट्टियों में हम प्रायः बडौदा चले जाते थे। अतः पूरे घर को व्यवस्थित कर के, बन्द करना एक बड़ा काम होता था। उस घर में बहुत खिडकियां थीं और एकाध भी खुली रह जाती तो कबूतरों की वंश-परम्परा का आरंभ हो जाता था। अतः एक बार मैंने यह आग्रह किया कि कबूतरों को उड़ा कर खिड़कियां पूरी तरह बंद कर दूं। शमशेरजी ने ठीक है..... पर अभी इस घोसलें में बच्चे हैं। उन्हें बड़ा हो कर उड जाने दो। मैंने कहा कि इनके उड़ने से पहले तो दूसरे अंडे तैयार होंगे। हाँ, यह तो है। पर खिड़कियां बन्द करने पर इन्हें दाना कौन डालेगा। मैंने तर्क तो किया पर अचानक मुझे ध्यान आया कि मैं एक कवि के साथ हूँ। कई बार ऐसा होता है कि आप व्यवस्था में इतने मुस्तैद हो जाते हैं कि जिन बातों का महत्व है उन्हीं का विस्मरण हो जाता है। मेरी चिंता घर गंदा होने की थी और उनकी चिंता कबूतरों के बच्चों की जान को ले कर थी। शमशेरजी के साथ होने का मतलब केवल धूप चिड़िया की बात करना नहीं पर उनकी संवेदना को व्यावहारिक स्तर पर खरा भी होते हुए देखना था, इस बात को मुझे समझना बाक़ी था। उसके बाद मैंने ऐसी कोशिश नहीं की।
शमशेरजी से मिलने हिन्दी के कई अनाम और नामी गिरामी लोग सुरेन्द्रनगर आए। ख़त आता और मैं कहती शमशेरजी फलाँ आ रहे हैं। ऐसे ही एक बार एक ख़त आया और शमशेरजी ने कहा रंजना किताबें ताले में रख दो और ज़रा देख लेना कि मेरी पांडुलिपियाँ कहीं बाहर तो नहीं हैं। मैं चौंकी। फिर उन्होने मुझे एक क़िस्सा सुनाया कि कैसे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार उनके घर आए थे। वे ग़ुसलख़ाने में थे। उनके बाहर आने तक तो वे सज्जन जाने की तैयारी कर चुके थे। ग़ुसलख़ाने से निकलने के बाद उन्होंने देखा कि उक्त सज्जन अपने कुर्ते के भीतर कुछ छिपा कर ले जा रहे हैं। वे इस मुग़ालते में थे कि शमशेरजी की नज़रें तो कमज़ोर हैं, उन्हें पता नहीं चलेगा। फिर शमशेरजी ने पड़ताल की तो पता चला कि किसी उर्दू कवि की पांडुलिपि जो शमशेरजी को देखने के लिए दी गई थी वह नदारद थी। बड़े नामों के छोटे कामों से मेरा परिचय यूं हो रहा था।
एक बार अज्ञेयजी का पत्र मेरे नाम आया । वत्सल निधि की ओर से उन्हें वे कुछ आर्थिक मदद करना चाहते थे। शमशेरजी की रुचि अज्ञेयजी से मिलने की थी। पर अफ़सोस, वह दिन नहीं आ सका क्योंकि जिस दिन अज्ञेयजी आने वाले थे, उसके कुछ दो-चार दिन पहले ही उनका अवसान हो गया। बाद में इलाजी आईं थीं। अज्ञेयजी के प्रति शमशेरजी के मन में बड़ा आदर था। इस बात को वे लिख भी चुके हैं। मुझे तो इन तमाम वर्षों में एक बात बड़ी विलक्षण लगी कि ताले वाले प्रसंग और एकाध कोई और प्रसंग होगा कि शमशेरजी ने ऐसी बात कही होगी । पर मैंने उन्हें किसी की भी निंदा करते हुए नहीं सुना। यह आश्चर्य की ही बात है क्योंकि चौबीस घंटो कोई साथ हो और निंदा रस का अभाव हो- यह अविश्वसनीय बात ही है।
उन्होंने अपने शेष जीवन का प्रोग्राम बना रखा था कि कौन-कौन सी किताबें पढ़नी हैं। हम लोगों ने सूरसागर, रामचरित मानस आदि का संयुक्त वाचन किया था। शेक्सपीयर–समग्र का जो एडिशन मेरे पास था वह दूसरी बार बाईंड किया हुआ था। एक दिन देखती हूँ शमशेरजी पन्ने अलग कर कर के पढ़ रहे हैं। मुझे देखते ही कहने लगे ऐसे पढ़ने में बड़ी सुविधा है। किताबों में ऐसी ज़िल्द होनी चाहिए कि आप मोड़ कर भी बड़े आराम से पढ़ सकें। ऐसी एक किताब उनके पास थी भी। पकड़े जाने पर शैतानी करता हुआ बच्चा जिस तरह की सफ़ाई देता है कुछ वैसी मुद्रा शमशेरजी की अक्सर हो जाती। एक बार जब वे उज्जैन में थे और मैं मिलने गई थी तो कहने लगे कि तुम्हें पता है यह मेरा संस्कृत हिन्दी शब्द कोश पुकार पुकार कर कह रहा था कि मुझे रंजना के यहाँ जाना है। अच्छा हुआ तुम आ गईं। तुम ले जाना। एक बहुमूल्य पुस्तक की प्राप्ति की अपेक्षा उसे मुझे देने का उनका अंदाज़ इतना विलक्षण और अमूल्य लगता है कि मेरे पास कोई शब्द नहीं कि मैं बयान कर सकूं। ग़ालिब की ग़ज़लें और ऋग्वेद की ऋचाएं उनके नियमित पाठ का हिस्सा थे। अंत तक इन दो पुस्तकों को तो वे पढ़ते ही थे। ऋग्वेद पढ़ना आस्था का आदर करना, मार्क्सवाद के नियमों में आता है या नहीं , मैं नहीं जानती पर जो सच है वह तो यही कि शमशेरजी ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में केवल और केवल गायत्री मंत्र सुनना और बुदबुदाते हुए उसका पाठ करना चुना था। उनकी डायरियों में भी इन मंत्रों को समझने की कोशिशें दिखाई देती हैं। असल में शमशेरजी ऋग्वेद को भी एक कलाकार की दृष्टि से ही समझना और पढ़ना चाहते थे, पढ़ते भी थे।
6
शमशेरजी को खिलाने का शौक़ तो था ही पर अच्छी चीज़ें खाने का भी शौक़ था। मिठाई, हलुआ, रबड़ी, जलेबी फल (ख़ास तौर पर आम और फिर पपीता और केले) दूध, शहद, हल्दी... इन सब का सेवन वे बड़े मज़े से करते। शहद वे इस तरह खाते कि शहद की बोतल को मुँह से लगा लेते। अपनी प्रिय वस्तुओं के सेवन के बाद उनके चेहरे पर जो आनंद और संतोष मैंने देखा है , इन भावों का इतना निर्मल स्वरूप मैंने कम लोगों में देखा है। हलुआ तो उन्हें इतना प्रिय था कि अगर वे सो रहे होते तो हलुए की ख़ुशबू जैसे उनकी नींद में चली जाती और वे उठ जाते। एक बार इसी तरह हम सहेलियाँ जाग कर काम कर रही थीं । रात को भूख लगी सो सोचा हलुआ बनाएँ। शमशेरजी तो सो रहे थे, हम यह सोच रही थीं कि अगर जागते होते तो अवश्य ही ख़ुश होते। थोड़ी देर में देखते हैं कि शमशेरजी कमरे के दरवाज़े पर खड़े हैं और बड़े भोलेपन से कह रहे हैं कि मुझे सपने में हलुए की खुशबू आई और मैं जाग गया। हम जी भर कर हँसे।
शमशेरजी की आम-प्रीति तो आज भी हमारे घर में याद की जाती है। प्रत्येक गर्मियों में शमशेरजी को याद करते हुए आम खाना हमारे घर की आदत में शामिल हो गया है। अच्छे भोजन की तरह उत्सवों और ऋतुओं के प्रति शमशेरजी के मन में हमेशा उत्साह रहता था। उनके चेहरे पर उत्सव का आनंद दिखाई पड़ता था। चाहे होली हो, दिवाली हो या ईद। होली पर रंगों में रंग जाना उन्हें प्रिय था। वे टेसू के फूलों के रंग से अपने को और दूसरों को बड़े प्यार से रँगते थे। दिवाली पर रँगोली बनाना और दिए के शीतल प्रकाश में आत्मस्थ होने के दृश्य मुझे भूलते नहीं। हम लोगों में दिवाली उस तरह नहीं मनती जैसे उत्तर प्रदेश में। पड़वे के दिन घर के पुरुषों को सुबह तेल की मालिश करना फिर उबटन से नहलाना...यह हमारे घर की परंपरा है। शमशेरजी जिन वर्षों में साथ थे और जिस दिवाली पर हम सब साथ होते तो माँ, बहन, भाभी और मैं.... हम सभी उन्हें तेल की मालिश करते। वे इस रिवाज़ में भी उतना ही आनंद लेते और कहते यह तो बहुत अच्छा रिवाज़ है। सभी जगह ऐसा ही रिवाज़ होना चाहिए। संभवतः इसका कारण यह होगा कि वे स्वयं मालिश प्रेमी थे। उनकी बनाई रंगोली मेरी स्मृति के साथ-साथ एक तस्वीर में भी क़ैद कर रखी है मैंने। वर्षा और वसंत शमशेरजी की प्रिय ऋतुएं थीं। मुझे लगता है वसंत ऋतु में पीले कपड़े खरीद कर पहनने की आदत मुझे शमशेरजी के साथ रहते हुए ही पड़ी है। मुझे ही क्यों, आज भी मेरी माँ और बहन मुझे पूछती हैं हर वसंत पंचमी पर कि इस बार क्या खरीदा।
7
दस वर्ष कम नहीं होते किसी के साथ रहते हुए, विशेष कर जो वर्ष आपके जीवन के सबसे अहम् वर्ष हों। मझे ख़ुशी इस बात की है कि इन वर्षों में मैंने जीवन और जगत के विभिन्न रूप देखे और उन्हें समझने का तरीक़ा भी सीखा। इन वर्षों में शमशेरजी के साथ रहते हुए मेरे भीतर का स्पेस उनकी उपस्थिति से कितनी दूर तक भर गया था उसका अहसास मुझे तब हुआ जब 12 मई 1993 की शाम को शमशेरजी इस दुनिया से विदा ले कर दूसरी दुनिया की राह पर चल पड़े थे और हम शेष लोग घर लौट आए थे। आज मई की शाम अकेली.... मेरे भीतर के उस खालीपन और अकेलेपन को अपने अलावा मेरे दादाजी की आँखों में झांकता हुआ भी मैंने देखा था। इन वर्षों में अगर शमशेरजी अपना जीवन सुख से बिता पाये थे तो उसके लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार थे। उनकी ज़िन्दादिली और जीवट ही उन्हें सुख से जिला रहे थे, जिसको बनाए रखने में मुझे मेरे परिवार का सहयोग मिला और उनकी अगर तीमारदारी मुझसे हो सकी तो इसके लिए अपने परिवार के अलावा मित्रों का साथ मुझे हमेशा याद रहेगा। शमशेरजी ने एक बार मुझसे कहा था कि माँ की मृत्यु के बाद परिवार का सुख मुझे यहीं तुम्हारे परिवार में मिला है। उनके इस भाव के लिए हमारा परिवार हमेशा ही अपने को सौभाग्यशाली मानता है।
शमशेरजी की कई तरह की यादें मेरे भीतर सोई पड़ी हैं...पर आज के लिए बस इतना ही।
धन्यवाद।

सोमवार, 22 नवंबर 2010


सावन
मैली, हाथ की धुली खादी
सा है
आसमान ।
जो बादल का पर्दा वह मटियाला धुँधला-धुँधला
एक – सार फैला है लगभग :
कहीं - कहीं तो जैसे हलका नील दिया हो ।
उसका हलकी-हलकी नीली झाँइयाँ
मिटती बनती बहती चलती हैं। उस
धूमिल अँगनारे के पीछे, वह
मौन गुलाबी झलक
एकाएक उभर कर ठहरी, फिर मद्धिम हो कर मिट गई :
जैसे घोल गया हो कोई गँदले जल में
अपनी हलकी-मेंहदी वाले हाथ

मैली मटियाली मिट्टी की चाक
भीगी है पूरब में
------ सारे आसमान में


नीली छाया उसकी चमक रही है
जैसे गीली रेत
( यह जोलाई की पंद्रह तारीख है :
बादल का है राज)
या जैसे , उस फ़ाख़्ता के बाज़ू के अंदर का रोआँ
कोमल उजला नीला
(कितना स्वच्छ !)
जिसको उस शाम हमने मारा था !
*
सावन आया है :
ख़ूब समझता हूँ मैं
सावन की यह पलकें
मूँद रही हैं मुझको
(सिंह श. ब., प्रतिनिधि कवताएँ) 


इसका मतलब तो यह हुआ कि हमने मान लिया है कि शमशेर के शब्दों की काया बिम्ब-स्वरूप है। यहाँ दो सवाल हैं- पहला यह, कि शमशेर, यानी कि कवि के शब्दों की काया बिम्ब के अलावा भी कोई है? हो सकती है? अगर है, तो कवि-शब्द की काया के कितने स्वरूप होते हैं? दूसरा सवाल है कि क्या ऐसा कहना यानी शमशेर की कविता पर अपनी सोच को मर्यादित करना है ? क्या यह शमशेर के काव्य की प्रशंसा है अथवा उसकी यथा-तथता? या फिर कहीं हम बिम्बों के माध्यम से उनकी कविता के उस बिन्दु तक तो नहीं पहुँचना चाहते हैं, जहाँ से हम उनकी कविता को समझने की प्रक्रिया मे आते हैं? आज की अपनी बात को मैंने इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द रखने का प्रयत्न किया है।
इन सारे प्रश्नों की पृष्ठभूमि में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का 'कविता क्या है' निबंध का यह कथन तो है ही- "काव्य में मात्र अर्थ-ग्रहण से काम नहीं चलता, बिम्ब ग्रहण अपेक्षित होता है"। (रामचंद्र शुक्ल, 1998) अर्थात् बिम्ब ही कविता का वह तत्व है जो उसको कविता के रूप में पहचान देता है।
1

किसी भी कविता में, प्राथमिक स्तर पर, शब्द सुना और देखा जाता है। इसे थोड़ा और विस्तार दें तो शब्द छुआ भी जाता है और समझा भी जाता है। इसके बाद के स्तर पर अगर श्रवणेन्द्रियों से होता हुआ शब्द, मधु-सा टपकता है तो मीठा लगता है और तीखा हो तो कडुआ, तीता। यों कवि के शब्दों की काया दृश्य के अलावा ध्वनि हो सकती है , प्रज्ञा हो सकती है। प्रतीक या मिथक भी हो सकती है, जहाँ पहुँच कर शब्द संस्कृति बनता है। लेकिन शब्दों के खरदुरे या मुलायमियत होने का अनुभव अथवा उसके मीठे-तीते का अनुभव करना और कराना एक विशेष कौशल है । यह कौशल ही उसे छलावा भी बनाता है। जो जैसा नहीं है , उसे वैसा बताना एक ऐसा छलावा है जो मनुष्य न जाने कब से बड़े शौक़ से किये जा रहा है और इस पर किसी को कोई गंभीर आपत्ति भी नहीं है। इस बीच आपत्ति उठाने वाले प्लेटो आदि से ले कर यथार्थवादियों की एक लम्बी परंपरा भी आ गई । परन्तु इससे कोई बहुत फर्क पड़ा हो ऐसा नहीं है। साहित्य भी तो, अधिकांशतः, जो जैसा नहीं है उसे वैसा बताता है। यह छलावा उसके कलात्मक होने भर से नहीं सिद्ध होता; अपने आदर्श और यथार्थ रूप में भी साहित्य छलावा तो है; असल में अनुभव का साहित्य में रूपांतरण होना ही उसे छलावा बनाता है। रूपांतरण यानि जो जैसा है उससे कुछ अलग बताना यानि छलावा। इसीलिये, तमाम तर्कों और हक़ीकतों के बावजूद साहित्य कला है, कला है और कला है। वह कुल जीवन तो नहीं है आपका, न ही कुल समाज, न कभी वह ऐसा था ! साहित्य और जीवन के संदर्भ में कौन किससे बड़ा है या छोटा है – यह प्रश्न नहीं है। किस को किस की तरह होना चाहिये या नहीं होना चाहिये, यह भी प्रश्न नहीं है। प्रश्न तो यह है कि यह जो रचनाकार है , वह जिस शब्द का प्रयोग करता है, वह उसके रचना-तंत्र(क्रिएटिव सिस्टम) में किस रूप को धारण करके कविता आदि के विश्व में अपनी जगह बनाता है। वह प्राथमिक रूप से क्या है और रचना प्रक्रिया से गुज़रते हुये कालांतर में समझ के किस स्तर पर उसके रूप में क्या परिवर्तन होता है। प्रश्न तो ये हैं ।
यह तो सहज है कि आप क्रमशः पहली फिर दूसरी फिर तीसरी....यूं सीढ़ियाँ चढें। ऐसा भी हो सकता है कि आप पहली के बाद पाँचवी फिर आठवीं फिर दसवीं.... यूं कूदते लाँघते चढ़ जाएँ। पर ऐसा सोचना, करना और देखना भी घबराहट भरा हो सकता है कि आप पहली के बाद आठवीं फिर चौथी फिर बारहवीं फिर नौवीं....यूं चढ़ें। अर्थात् – कविता को पहले आप सोचें और फिर देखें और फिर समझें और फिर सुनें और फिर पढ़ें.... । आपको पहले या तो कविता दिखाई पड़ेगी या सुनाई, तभी आप समझ और सोच सकते हैं। पर शमशेरजी की कविता तो....? बादलों की सीढ़ियों के उलझे पुलझे पथों पर चढ़ना उतरना है- ऐसा अगर कहेंगे तो यह शमशेरजी की कवि-शक्ति की निंदा नहीं है बल्कि यह उनकी कविताओं की एक पहचान भी है। कविता का रास्ता राजमार्ग तो नहीं है कि बिना धूल-धक्कड़ के साफ़ सुथरे आप निकल जाएं- जैसे राजधानी के फर्स्ट ए.सी में सफ़र किया हो।
2
शब्दों की काया..... बिम्ब । शब्द तो खुद ही काया है। तो इस काया की कौन-सी काया! काया केवल त्वचा तो नहीं कि छिलका अलग कर के भी फल का आस्वाद ले लिया। काया में त्वचा से लेकर धमनियों के भीतर बहते रक्त-कण, जिनके नीचे अस्थियाँ-सभी कुछ तो है।। शमशेरजी उन अस्थियों के मौन को सुनना और सुनाना चाहते हैं जैसे अरावली के नीचे की गहरी दरारें भी दिखाना चाहते हैं। इन सबका समावेश है- काया में –
मगर
मेरी पसली में हैं- गिन लो
व्यंजन: और उनके बीच में हैं
स्वर........
हाँ मगर
वह
स्व

एक फ़नल
धुँधुवाता
विशाल आकाश में (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं)
अरावली के पुरातन तम पहाड़ों के नीचे, गहरे धरती के अंदर तक दरारें इस तरह एक स्थिर चक्कर में चली गई हैं जैसे कविता की पंक्तियाँ ; और स्वर विशाल आकाश में धुँधुवाते-से हैं; वह स्वर जो उन व्यंजनों के बीच में थे जो कवि की पसलियों में हैं ; और कवि तीनों कालों के बीच- है, भवता, था- के व्याप में उलझे-पुलझे पथों पर भटक रहा है अपनी कविता को मूर्तरूप देने , उसे आकारित करने के लिये। यह जो कवि की , किसी भी कवि की, काव्य रचना के लिये जो उलझन है, उसे शमशेर जिन बिम्बों के द्वारा व्यक्त करते हैं , वह इसलिए हमें विलक्षण लगते हैं क्योंकि काव्य रचना-प्रक्रिया अपने आप में जटिल ही होती है। विलक्षणता उसकी जटिलता में है- और हम प्रभावित होते हैं, कवि की सफलता पर। कवि धरती के भीतर, मनुष्य- देह के भीतर और आकाश में कहीं उलझे-पुलझे पथों में----- विचरता है, अपने साथ कुछ बिम्बों को लेकर, और यह सब टैंजिबल(स्पर्शक्षम) लगता है। कवि कहीं न कहीं यह इंगित करना चाहते हैं कि कविता की रचना-प्रक्रिया भी वैसी ही टैंजिबल है। शमशेर के यहाँ उस प्रतीति और अनुभूति को मूर्त रूप मिलता है ।
या जब कवि कहता है सौन्दर्य त्वचा में नहीं, थिरकते रक्त में नहीं, कहीं इनके पार.... (सिंह श. ब., चुका भी हूँ मैं नहीं) तो पार कहाँ? वहाँ जहाँ आत्मा होती है? या वह जिसे सर्जनात्मकता कहते हैं ? आत्मा के चक्कर में बुद्धिमानों को नहीं पड़ना चाहिये। हाँ, सर्जनात्मकता की बात की जा सकती है।
3
सर्जनात्मकता। कॉलरिज के लिये कल्पना ही सर्जनात्मकता है। कल्पना=सर्जनात्मकता। जो नव-सर्जन के लिये काव्यगत पदार्थों को मिलाती है, बिखराती है, पिघलाती है, अथवा नया प्रत्यय ढूँढ़ती है—वह कल्पना शक्ति है। प्रश्न तो हमारा यही है कि यह सर्जनात्मकता कवि के सृजन-व्यापार में किस रूप में आती है। आचार्य शुक्ल कल्पना को भावना कहते हैं। उनके अनुसार " कल्पना दो प्रकार की होती है- विधायक और ग्राहक। कवि में विधायक कल्पना अपेक्षित होती है और श्रोता या पाठक में अधिकतर ग्राहक। अधिकतर कहने का अभिप्राय यह है कि जहाँ कवि पूर्ण चित्रण नहीं करता, वहाँ पाठक या श्रोता को भी अपनी ओर से कुछ मूर्ति-विधान करना पड़ता है।...किसी प्रसंग के अन्तर्गत कैसा ही विचित्र मूर्ति विधान हो , पर यदि उसमें उपयुक्त भाव संचार की क्षमता न हो तो वह काव्य के अन्तर्गत न होगा।" (शुक्ल) शमशेरजी के यहाँ उपयुक्त भावसंचार की उपस्थिति लगातार देखी जा सकती है, इसीलिये उनकी कविता पर लगे रीतिकालीन प्रभाव के आरोप बेमानी हो जाते हैं। यह भावसंचार प्रभावी बनता है उनकी बिम्बसृष्टि के औचित्य और समृद्धि और फलस्वरूप, इतना तो तय है। शमशेर की लगभग सभी महत्वपूर्ण कविताओं में पाठक को अपनी ओर से कुछ-न-कुछ मूर्तिविधान तो करना ही पड़ता है- जिसे नई कविता की शब्दावली में हम कहते हैं- अन्तरालों को भरना।
शमशेरजी के लिये कविता एक फ्लैश की तरह आती है। उनका कहना था कि अगर उस क्षण उन्होंने उसे लिख लिया तो लिख लिया , वरना वह ग़ायब हो जाती है। शमशेरजी की कविताओं में जो बिम्ब हैं ,वे बहुत ही फोर्सफुल है। ठीक उनके चित्रों की रेखाओं एवं रंगों की तरह।


शमशेरजी की कविताओं में भी आए इस तरह के फोर्सफुल चित्र हमारे मन में धँस कर रह जाते हैं –
तब छन्दों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्यास उँगलियों में विकल थी-
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे-- -- पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे नीलम की गरदनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं। (सिंह श. )
बिजली की चमक, हीरे नीलम की गरदन को विशेषता देती है। कवि कहना तो यही चाहता है कि मोर की हरी-नीली गरदन बिजली की तरह चमक रही थी अर्थात् गरदन की लोच में बिजली का आकार और बिजली की चमक से गरदन के हीरे-नीलम वाले चमकीले रंगों में और चमक आना- चित्र इस तरह निर्मित होता है कि मोर की हरे-नीले रंग की लोचदार और बिजली की तरह चमकती गरदन । उसी तरह छन्दों के तार खिंचे खिंचे थे , राग बँधा-बँधा था , प्यास उँगलियों में विकल थी----- कि मेघ गरजे... रचनात्मकता का वह क्षण है जिसमें रचना का जन्म होने ही वाला है-- (तुलनीय-अब गिरा अब गिरा...वह अटका हुआ आँसू की तरह )--- शमशेर की कविताओं में, उसका ऐसा अनुभूति सभर चित्रण शब्दों की इसी तरह की बिम्ब-काया में प्रत्यक्ष होता है ।

इसी तरह का एक और उदाहरण है-
एक नीला आईना
बेठोस –सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में। (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं, 1990,1994)
चाँदनी में चलने का भौतिक अनुभव कविता में 'बेठोस' शब्द के प्रयोग से इसलिए विशिष्ठ बन जाता है, क्योंकि आसमान को' नीला आईना' कहा है। आईना ठोस है, और पारदर्शी है; चाँदनी अठोस है, पारदर्शी है और आसमान में है; और आईने से प्रतिबिंबित हो कर जब धरा पर उतरती है तो वह पारदर्शी चाँदनी, जो ठोस नहीं है, कवि उसे अठोस कहता है । अठोस शब्द का प्रयोग कहीं न कहीं ठोसत्व का 'बोध' देता है, अर्थ नहीं। अर्थ तो उसका अठोस ही है , पर काव्यगत बोध में ठोसत्व का अर्थ शामिल हो जाता है, जैसे झूठ को असत्य कहने से सत्यत्व का बोध होने लगता है। नकारवाची शब्द प्रयोग में स्वीकारवाची अर्थबोध, बिम्बों के कारण अधिक प्रतीतिजनक लगने लगता है।
4
शमशेरजी की कविताओं में बिम्ब की उपस्थिति उस सर्जनात्मक बिन्दु की आवश्यकता है जो काव्य-रचना के लिये ज़रूरी है। कभी बिम्ब ही सीधे-सीधे कविता को आकार देते हैं, जैसे ऊषा, संध्या, योग आदि कविताओं में, तो कभी कविता के भाव तक पहुँचने के लिये कवि घुमावदार रास्तों से होता हुआ वहाँ पहुँचता है। अलबत् उन घुमावदार रास्तों में भी मिलते तो बिम्ब(शायद मेरे ही अनेक बिम्ब मात्र) ही हैं। इस संदर्भ में उनकी 'टूटी हुई बिखरी हुई' कविता का उदाहरण लिया जा सकता है।
यह कविता प्रेम की असफलता में भी अपने मनुष्य होने की गरिमा को सुरक्षित रखने के प्रयास की कविता है। प्रेम की असफलता की पीड़ा से कविता का आरंभ होता है- अतः पाठक को कवि जिन रास्तों से ले जाता है, वे निहायत कष्टकर हैं ।कवि डाउन टू अर्थ, ज़मीनी बात करता है। उनमें है चाय की दली हुई कुचली हुई पत्तियां हैं, ठंड है, ठेलेगाडियां हैं, खाली बोरे हैं- जिन्हें सूजों से रफू किया जा रहा है.....प्रेम की अनुभूति जहाँ व्यक्ति को सातवें आसमान पर चढ़ा देती है, वहीं उसकी असफलता उसे डाउन टू अर्थ पर भी ले आती है। इन रास्तों से होते हुए वह प्रेम की उन अनुभूतियों में हमें ले जाते हैं जो बेहद रंगीन और आकर्षण से भरपूर हैं। कबूतरों की ग़ज़ल, इत्रपाश, आसमान में आईने की तरह हिलती और चमकती गंगा की रेत, जंगली फूलों की दबी हुई ख़ुशबू, प्यास के पहाड़ों पर झरने की तड़प, नाव की पतवार बनती बाँसुरियाँ, ऊषा की खिलखिलाहटें, शाम के पानी में डूबते ग़मगीन पहाड़ , पलकों के इशारे में बसी हुई ख़ुशबुएँ ......बिम्बों का यह ऐसा मनोहारी मायावी संसार है जिसका यथार्थ है वह दली हुई कुचली हुई चाय की पत्तियाँ वगैरह। लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकती। शमशेर की शब्द-काया अपनी विशिष्ट अभिव्यक्तियों के द्वारा ऐसे भाव- प्रवाह में ले जाती है कि वहाँ याददाश्त गुनहगार बनी हुई है, रंगों के लपेट खुलते ही नहीं हैं और उन्हें जला देने के सिवा कोई चारा नहीं रहता। किसी पिकनिक में दाँतों में चिपकी रह गई दूब की नोक जो बरसों बाद भी गड़ने की प्रतीति कराती है.... पूरी कविता में मणि-समुद्र की मानिंद बिम्ब बिखरे पड़े हैं..... अपनी निजि पीड़ा को प्रस्तुत करने का ऐसा सुंदर तरीक़ा कि लोग कहें, शमशेर के ही शब्दों में- 'हो चुकी जब ख़त्म अपनी ज़िन्दगी की दास्ताँ, उनकी फ़रमाइश हुई है इसको दोबारा कहें।'
5
शमशेर की कविता में शब्दों की बिम्ब-काया के रूप और तरीके भिन्न हैं। इस बात को उनकी तीन कविताओं के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगे। 'एक पीली शाम', 'रोम सागर के बीचोबीच' तथा 'घनीभूत पीड़ा'।
'एक पीली शाम' कविता अत्यन्त सुगठित-सी कविता है जिसका आरंभ ही एक बिम्ब से होता है। 'एक पीली शाम/पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता/शान्त।' कविता पढ़ लेने के बाद हमें यह प्रतीति होती है कि कविता में रहे भाव-विश्व को बिम्बों के माध्यम से अत्यन्त सुचारु रूप से प्रस्तुत किया गया है। अतः इस कविता का सौन्दर्य हमारे सामने मानों बड़े ही गाणितिक रूप से उभरता है। यथा- अटका हुआ आँसू= अटका हुआ पत्ता, सांध्य-तारक=आँसू, ज़रा अटका हुआ पत्ता=अटका हुआ आँसू इत्यादि हमारी समझ में आता है। कविता निश्चय ही संवेदना से भरपूर है पर इसमें निहित कलात्मकता उसे क्लासिक बनाती है। निश्चय ही यह शमशेरजी की उत्तम कविताओं में से एक है। क्लासिक कविता की तरह इसमें भावनाओं को इस तरह प्रस्तुत किया है कि लगे ही नहीं कि भावनाएँ हैं। हमारा ध्यान कविता में व्यक्त भावनाओं से पहले कविता के सौन्दर्य-विधान की ओर जाता है। कविता की कलात्मकता की शब्द-काया बिम्बों का रूप धर कर आती है।
लेकिन 'रोम सागर के बीचोबीच' कविता का आरंभ तो एक सामान्य कथन से ही होता है। सहज रूप से कही गई अपनी बात की पुष्टि के लिये कवि तुरंत ही अलंकारों का सहारा लेता है ; एकदम नए किस्म के । कवि की कल्पना है कि रोम सागर के अंदर हमारे किसी प्राचीन पूर्वी देश की भूखी आत्मा इधर-उधर भटक रही है, जैसे घोर वर्षा में डाल से विच्छिन्न घोंसलें का तिनका टूटकर गिरा हो। आत्मा को तो भटकते हुए हमने अपनी मान्यताओं में सुना है, संस्कारों में ग्रहण किया है। पर आत्मा किसी प्राचीन पूर्वी देश की हो और भूखी हो, यह बात हमें चौंकाती है। और वह भटक कैसे रही है, कवि कहता है - घोर वर्षा में डाल से विच्छिन्न घोंसले के तिनके-सी, जो ज़रा सी हवा में भटक सकते हैं। सैद्धांतिक रूप से 'सा' का प्रयोग अलंकार का बोध देता है। पर यह अंश पढ़ कर जितने फोर्सफुल तरीक़े से घोंसले का बिम्ब हमें प्रभावित करता है, उतना ही प्राचीन देश की पूर्वी आत्मा का बिम्ब भी हमें एक कौतुहल में डालता है। यह कविता डॉ. इरीना ज़ेहरा के लिये है। इरीना ज़ेहरा का जाना, कवि के लिये हमारी संस्कृति के एक अंश का जाना है, जैसे और भी कवि-कलाकारों का जाना होता है, दाहरण के लिये आर.एन.देव, बन्नेभाई, मुक्तिबोध आदि। कवि के भीतर भी कुछ मर जाता है। कविता में इस मृत्यु-बोध का एक अद्भुत् बिम्ब रचा गया है। इस बिम्ब में जटिलता है, पर यह जटिलता जीते-जी मर जाने के बोध को दर्शाने के लिये है। कवि को लगता है कि वे एकाएक किसी सुलगते हुए घर में एक बहुमूल्य कलम की तरह गुम हो गये हैं। वे एक साथ लपटों और ख़ामोश रिमझिम का अनुभव करते हैं। चारों तरफ़ पहाड़ के झरनों का शोर है और वे स्वयं किसी प्राचीन गूँज में डूब गये हों, ऐसा उन्हें लगता है। कविता में साथी के छूट जाने का बोध, जो डाल से टूटे घोंसले के तिनके जैसा है, उसके कारण, जो एक शून्यता की प्रतीति होती है, वह इतनी तीव्र है, कि सगे भाई का , छः सौ मील दूर से आना और बहनों-बेटियों की पत्र के लिये प्रतीक्षा भी उन्हें विचलित नहीं करती। कवि मानों सुन्न हो गया है। इस अनुभव को साक्षात्कृत कराने के लिये इस तरह के बिम्ब के अलावा कवि के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
वहीं, 'घनीभूत पीड़ा' कविता एकदम ही अलग है। शमशेर का चित्रकार शमशेर के कवि की मदद के लिये आगे आता है। कवि की चेतना रचनात्मक क्षण से लबालब है, पर कवि को शब्द नहीं मिल रहे .... तो अपनी भावानुभूति को उन्होंने रेखाओं से उकेरना आरंभ कर दिया। कुछ टूटे-अधूरे चित्र से बनते हैं। कुछ शब्द प्रकट होते हैं। कुछ देर में फिर शब्द गायब और चित्र उपस्थित ..... यह प्रक्रिया पूरी कविता में चलती रहती है। कविता रेखांकन से आरंभ हो कर रेखांकन पर समाप्त होती है। असल में एक गहन व्यथा का भाव कवि के हृदय में भरा हुआ है जिसका कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है। पर यह सघनता कवि को बेचैन भी करती है। कविता में रेखाएं हैं और रेखाओं को व्याख्यायित करते शब्द । कवि को जो कहना है वह कविता के अंत में इस तरह आता है-' देखा था वह प्रभात/तुम्हें साथ, पुनः रात/ पुलकित ..... फिर शिथिल गात,/तप्त माथ, स्वेद, स्नात/मौन म्लान , पीत पात/पुनः अश्रु बिम्ब लीन/शनैः स्वप्न-कंप वात/हे अगोरती विभा/जोहती विभावरी/ हे अमा उमामयी/भावलीन बावरी/ मौन-मौन मानसी/मानवी व्यथा भरी।' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं)
इन तीनों कविताओं में विरह जनित पीड़ा मुख्य है। कोई था, जो अब नहीं है। और जो नहीं है, वह कवि के बहुत निकट था।( इसी क्रम में 'आओ' कविता भी शामिल की जा सकती है।) पर जहाँ 'एक पीली शाम' के बिम्ब ग़ज़ब के क्लासिक हैं, उसमें विरह-जनित अभाव की अभिव्यक्ति में अद्भुत संयम है, वहीं' रोम सागर के बीचोबीच ' में एक शॉक, एक शून्यता, एक तरह के सांस्कृतिक अभाव की प्रतीति है और 'घनीभूत पीड़ा' में एक रूमानियत है- अपने निजि अभाव को व्यष्टि के अभाव में बदलते हुए भी उसमें अपनेपन की मुद्रा बनी रहती है ,जो कविता के आरंभ और अंत में आए अशआरों में व्यक्त होती है- 'लजाओ मत अभाव की परेख ले, समाज आँख भर तुम्हें न देख ले' तथा ' ज़बाँदराज़ियाँ ख़ुदी की रह गईं, तेरी निगाहें जो कहना था सो कह गईं ।'
बिम्ब, शमशेर के शब्दों की काया ही नहीं बल्कि आत्मा भी हैं – बिम्ब स्वयं ही कविता बन जाते हैं उनकी रचनात्मकता में। 'अम्न का राग' कविता में भी, जैसा कि शमशेर की कविताओं के पाठकों को पता है, अनेकानेक बिम्ब हैं। पर उनकी इस कविता में कुछ ऐसे बिम्ब हैं, जिनकी व्यंजनाएं दूर तक जाती हैं। जैसे- 'आज न्यूयोर्क के स्कायस्क्रेपरों पर/ शांति के डवों और उसके राजहंसों ने/ एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा /और शोर पैदा कर दिया है।' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं, 1990,1994) शांति के डव और उनके राजहँस- में एक व्यंजना तो छिपी हुई है ही। पर उन डवों ने क्या किया है- उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा और शोर पैदा कर दिया है- आप देखिये, उजले सुख का हल्का-सा अँधेरा – शब्दों से जो बिम्ब निर्मित होता है- हाँ, बिम्ब , क्योंकि यह हल्का-सा उजला अँधेरा बहुत सारे कबूतरों के एक साथ आसमान में उड़ने का परिणाम है, और शोर उन डवों के पंखों की फड़फड़ाहट है। इस अभिधा- मूला व्यंजना को साकार करता है आसमान में उड़ता यह डव-समूह । राजहंस एक भिन्न संस्कृति है और डव एक अलग संस्कृति है..... कवि दोनों को साथ देख रहे हैं। उस समय कवि ने संभव है कुछ और सोच कर लिखा हो; आज हम उस उजले सुख के हल्के अँधेरे को गहरा होते हुए देख रहे हैं और उसे गहरा बनाने में डवों और राजहंसों की समान भूमिका भी हमें दिखाई दे रही है। शमशेर अपनी कविता में इस तरह दूर तक जाती व्यंजनाओं के अद्भूत् बिम्ब निर्मित करते हैं, जिससे जीवन-गत यथार्थ काव्य-गत सच में परिणमित हो जाता है।
शमशेरजी ने अपनी कविताओं में हमारे वर्तमान समय के जो बिम्ब खड़े किए हैं, वे हमें अंदर तक हिला देते हैं। 'बाढ़-1948' (सिंह श. ब., प्रतिनिधि कविताएं) इस संदर्भ में उनकी मार्मिक रचना है। इस जनतंत्र में वर्ग-विभक्त समाज में कितने कल्चर्स एक साथ हैं- उसका बयान और कवि की उन पर टिप्पणी- हमें सोचने पर बाध्य करती है। महादेवी साहित्य के पृष्ठों से निकल कर बाढ़-पीडितों में चने बाँट रही जो न जैनेन्द्र कर रहे हैं न अज्ञेय, न कृष्नचंद्र, न नेमिचंद्र। हमारा बौद्धिक वर्ग आज भी ऐसे समय राजनीति और चिंतन करता है। पर एक वर्ग, बहुत बड़ा वर्ग, जो जनता का है वह संकट समय में केवल स्वजनों के साथ होना चाहता है- जो अक्सर संभव नहीं हो पाता, आज भी। मगर इसकी चिंता न लेखकों को है न राजनेताओं को और न ही बौद्धिकों को, न ही कभी थी। कवि ने, एक बन रही , निर्मित हो रही संस्कृति को, बाढ़ के ज़िन्दा दृश्यों से बने जिस बिम्ब द्वारा हमारे सामने रखा है – वह दिल दहलाने वाला है। उसमें हम साफ़-साफ़ बौद्धिकों का दंभ, स्वार्थ और संवेदनहीनता देख सकते हैं - जो आज हमारा सामान्य जीवन बन गया है- और जैसा कि शुक्लजी कहते हैं –मूर्त और गोचर रूप में।
असल में बहुत कुछ कहा जा सकता है और भी। कितनी ही कविताएं जैसे होलीःरंग और दिशाएं, न पलटना उधर, सौन्दर्य, , शिला का खून, सींग और नाखून..हैं ; इन सभी कविताओं की चर्चा के माध्यम से शमशेर के शब्दों की बिम्ब-काया के स्वरूपों पर बात हो सकती है- पर बात को एक जगह पर आ कर रोक देना ज़रूरी है- अतः मैं अपनी बात को इस समय के लिये यहीं रोक देना उचित समझती हूँ। धन्यवाद।
संदर्भ-
रामचंद्र शुक्ल. (1988, वर्तमान संस्करण2009). रामचंद्र शुक्ल संचयन. (नामवर सिंह, सं.) दिल्ली: साहित्य अकादेमी.
शमशेर बहादुर सिंह. (1975). चुका भी हूँ मैं नहीं. दिल्ली: राधा कृष्ण प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990, पुनर्मुद्रण 1994). प्रतिनिधि कवताएँ. राजकसन प्रकाशन, दिल्ली.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990, पुनर्मुद्रित 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिन्नी: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेर बहादुर सिंह. (1990,1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
शमशेरबहादुर सिंह. (1990, 1994). प्रतिनिधि कविताएं. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
संपादक नामवर सिंह रामचंद्र शुक्ल. (1998). रामचंद्र शुक्ल संचयन. (नामवर सिंह, सं.) दिल्ली: साहित्य अकादेमी , दिल्ली.

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

बेदखली

वह मुझसे बेइन्तिहा प्यार करता है

मेरे वर्तमान, भूत और भविष्य की भी,
सुख-सुविधाओं और दुख-दर्दों की चिंता करता हुआ...
नहीं करता वह बिल्कुल भी चिन्ता अपने
बढ़ते हुए रक्त-चाप और ख़ून में पड़ी अ-पची शकर की मात्रा की।

वह मेरी इज्जत करता है,
मेरी आबरू के लिए अच्छों-अच्छों को धूल चटा देता है,
मेरे लिए लौकी की सब्ज़ी तक खा लेता है।
वह मुझसे बेइन्तिहा प्यार करता है।

मेरी तरक्क़ी के लिए वह
अत्यन्त चिंतित रहता है, हमेशा ही।
मैं लिखूं और पढ़ूं और अपना काम करूं- इसी कारण अपने दिन और अपनी रातें भी बरबाद करता है।
वह स्वीकार करता है – मेरी बुद्धिमत्ता,
अपने से अधिक, मुझे अकलमन्द मानता है।
जबकि
हर संकट से उबरने का रास्ता वही सुझाता है।
ज़रूरत पड़ने पर, दुनिया से दो-दो हाथ करने की तैयारी के साथ...।

मेरी इच्छा के विपरीत
वह न मुझे छूता है, न कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती ही करता है।
मेरी भावनाओं की कद्र करता है।
औरत होने के मेरे अधिकारों को स्वीकारता है।
अपने रक्त-चाप की ऊँचाई पर बैठ कर !

ऐसा नहीं कि उसे मुझसे कोई शिकायत नहीं है।
मुझसे उसे जो-जो हैं, उन
बहुत सारी शिकायतों को
गाहे-बगाहे व्यक्त भी करता है।
पर इसमें कोई शक़ नहीं कि वह मुझसे भरपूर प्यार करता है।

मेरे भूतकाल में
मेरी मर्जी के विरुद्ध
वह कभी नहीं झांकता ।
मुझे दुख पहुँचे, इस तरह मेरे घावों को कुरेदता भी नहीं है।
तमाम नुकीले प्रश्नों की बाण-शैया पर ता-उम्र लेट कर
अनखोली और उपेक्षित, अपमानित भावनाओं की गठरी
अपने हदय के सिरहाने रख
मेरा हौंसला बढ़ाता रहता है.......

वह, मेरा जीवन साथी

कभी नहीं समझता कि मेरी
वह जगह अब नहीं रही मेरे पास
जिस पर पाँव जमाकर कभी मैं साँस लेती थी।
वह जगह -
उसके प्रेम, चिंताओं और मेरी सुरक्षा में बिछे उसके पलक-पाँवडों
में कहीं दब गई है।
• * * * * * * * * * * * * * * *

मैं उस जगह का क्या करूंगी ?
यह सवाल मैं पूछती हूँ अपने आप से

ऐसा क्या है जो शेष रहता है करने के लिए
किसी के इतना सब कुछ कर लेने के बाद !

करने के लिए कुछ रहना चाहिए या नहीं
यह भी एक सवाल मेरे भीतर उठता है ?
क्योंकि मुझ जैसी आलसी, नहीं आलसिन, के लिए यह संतोष का विषय होना चाहिए-
कि कोई है उसके पास जो उस से बेइन्तिहा प्रेम करता है-
सब कुछ के बावजूद।

मैं उस खो गई जगह का क्या करना चाहती हूँ ?
कुछ भी तो नहीं !
फिर क्यों उस छिन गई जगह के लिए मेरे मन में कचोट है, अब भी।
क्या अपनी स्मृतियों के कब्रिस्तान के लिए मुझे चाहिए वह जगह ?
ताकि हर वर्ष चढ़ा सकूं फूल, जला सकूं मोमबत्ती, अगरबत्ती....?
मैं सोचती हूँ क्या करूंगी, उन स्मृतियाँ का भी
जिनसे सिवा दुख, पराजय और धोखे के, कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
वह जगह
जहाँ मैं केवल रपट कर गिरी ही हूँ।
बार-बार.... कितनी ही बार।
वह जगह
जिसने मुझे यही बोध दिया है
कि कितनी बेवकूफ़ थी मैं
कि भरोसा करती थी जिस किसी पर, तो बस करती ही चली जाती थी।
धोखा खा कर भी अविश्वास करने में, बरसों निकाल देती थी।

यूँ ज़िन्दगी के बहुत वर्ष ज़ाया किए।

आत्महत्या के दरवाज़े तक पहुँच कर लौट आई ज़िन्दगी के लिए इससे बेहतर वर्तमान क्या हो सकता है ?

एक हल्का-फुल्का जीवन
जिसमें न बिल भरने की चिंता, न आटे-दाल की फिक्र,
न बच्चे को बड़ा करने का भार
न रीति-रिवाज़ों की बंदिशें
जिसमें चर्चा करने की छूट, असहमत होने की भी अनुमति...

फिर क्यों चाहिए मुझे वह जगह
जो मैंने खुद कभी छोड़ दी थी।
धीरे-धीरे खुद ही अपने को समझाया है मैंने,
कि वह एक बेहद मूर्खता भरी ज़िन्दगी थी
जो मैंने जी थी कभी।
इन्सानी ज़िन्दगी के वे उम्र के, सबसे बेहतरीन वर्ष, अर्थहीन हो गए थे।
मेरा यौवन, मेरा वसंत, मेरी बहारें
अन्तहीन रेगिस्तान में बने रेत के महल की मानिंद हो गए थे।
जिस पर
मुँह बिराता, मृगजल – सा मेरा विश्वास
मेरे भरोसे को बड़ी सफाई से तोड़ दिया गया है।
मैंने जाना था कि
अमृत का वह स्वाद एक स्वप्न था जो आँख खुलते ही अफसोस बन कर रह गया।
***********

जीवन के उस उजाड़ किनारे पर
मिला था वह, जो मुझे बेइन्तिहा प्रेम करता था...
बरसों से , मेरे ही अन्जाने।
उस उजाड, ध्वस्त और परती भूमि के साथ
मैं ही तो गई थी उसके पास....'पथ नहीं मुड़ गया था...'।

फिर अब क्यों मुझे चाहिए अपनी वह जगह !

मृत स्मृतियों में अँखुएँ नहीं फूटते
बीते जलों से सींचन नहीं होता
परती ज़मीनों पर कुछ भी उगाना नामुमकिन है।
तो क्यों चाहिए मुझे अपनी वह परती ज़मीन
जबकि किलकारियों से लहलहा रहा है मेरा आँचल।

संसार भर के संघर्ष ज़मीन के लिए ही तो होते है।
मैं क्यों तब चाहती हूँ वह शापित ज़मीन
जिसने हर लिया था मेरा सब कुछ ?
मेरी आर्द्रता, मेरी कोमलता, मेरी चंचलता,
मेरी दृढता, मेरा ज़मीर, मेरे आत्मज....

मेरा वह अजन्मा भविष्य,
जो आज भी
मेरे सफल एवं उज्जवल वर्तमान की तरफ़
अपनी पराजित पर अजिंक्य मुस्कान के साथ, मेरी ओर देखता-सा है..
मुझे एक ऐसे अफ़सोस में भिगोते हुए
(जो कि मुझे मालूम है कि कितना व्यर्थ है)
सचमुच, कितना अच्छा हुआ कि वह भविष्य,
अजन्मा ही रहा...
क्या पता मैं सम्हाल भी पाती उसे, अगर वह होता.....
और यह नहीं होता
जो है.........
वही मेरी वर्तमान,
जो मुझे बेइन्तिहा प्यार करता है।

पर
मुझे मालूम है
जब भी मरूंगी मैं,
मेरे प्राणहीन रोमों में
उस जगह के न होने की टीस बराबर बनी रहेगी
जिससे सर्वथा अन्जान
वह,
जो मुझे करता है बेइन्तिहा प्यार
संभवतः
सोच रहा होगा कि अपने तई,
(अपनी कला भर की जगह छोड़ कर,)
अपनी जान से भी अधिक उसने मुझसे किया प्रेम।

क्या उसे कभी याद आएगी, वह जगह, जो मेरी थी और
उसके पास महफूज़ रखी थी।

वह इस पूरे समय मानता रहा,
संभवतः,
उस जगह से छिलेगा हमारा वर्तमान
लगेगी चोट, होगी पीड़ा...अतः रखी रह गई महफूज़ ... यों इन सारे वर्षों तक...
अँधेरे में पंख फड़फड़ाती,
विस्मृत-सी वह जगह, उसी के पास
जिसे पूरा जीवन, भूलने की कोशिश में, अपने भीतर
समय की कब्रगाह में गाड़ती.... मैं -
यह सोचती रही,
कि चाहे हुए क्षणों की, खिलखिलाते कणों की
अनचाही और व्यर्थ सी जगह का, आखिर क्या करती मैं
गर मान लो, मिल जाती मुझे !
वह जगह जो मेरी है, पर मेरे पास नहीं है ...... महफूज़ ।
रंजना अरगडे
9/8/2010

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

शमशेर जनम शती

शमशेरजी को याद करना यानी अपनी भाषा के सामर्थ्य तथा अपनी भावनाओं, संवेदनाओं की सूक्ष्मताओं को पहचानना है। जिस समय में हम सांस ले रहे हैं और अपने को ज़िन्दा समझ कर जीने का दंभ भर रहे हैं उस समय मेंएक ऐसे कवि को याद करना सचमुच बहुत मूल्यवान होता है जिसने जीवन को आखिरी दम तक जिया है। शमशेरजी को जहाँ तक मैं जानती हूँ , उन्होंने नितांत विपरीत जीवन-स्थितियों में अपने को जीवन से जोड़े रखा । यही जीवन का वह माद्दा था जिसे देख अनुभव कर लगता है कि जैसे वे किसी अन्य लोक के जीव थे। जीवन में कितना ही बार अपने प्रेम को उन्होंने अपने पास से सरकते हुए कहीं और जाते देखा होगा, कौन कह सकता है। पर द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास फिर भी मैं करता हूँ प्यार ..... जैसी कविता क्योंकर लिखी होगी, यह प्रश्न मन में उठे बिना नहीं रहता। प्रेम में धन का क्या मूल्य है यह तो कहना मुश्किल है पर मैली हाथ की धुली खादी जैसी उपमा aur टूटी हुई बिखरी हुई के आरंभिक बिम्ब निश्चय ही इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यह भौतिक अर्थ में मुफ्लिसी में जीता कवि अपने शब्द एवं भाव वैभव में किसी राजा-महाराजा से कम नहीं रहा होगा। शमशेर शब्द के कलाकार हैं। शब्दों को वे अपनी कविता में इस तरह प्युक्त करते हैं जैसे कोई जादूगर झूठ-मूठ की दुनिया बनाते-बनाते सचमुच की दुनिया गढ़ लेते ।
इस शताब्दी वर्ष में उनको याद करना हिन्दी के उन तमाम पाठकों को याद रना जिसके लिए कवि ने कहा है- उसे मरे ही कहो, फिलहाल।

शनिवार, 29 मई 2010

जिन खोजा तिन पाइयाँ ..............
'भारत मेरा देश है और हम सब भारत-वासी भाई-बहन हैं------' स्कूल में की गयी यह प्रतिज्ञा संस्कारों में इस क़दर धंस गई है कि अभी-अभी तक यह बोध भी नहीं होता था कि मैं कोई अन्य हूँ और कहीं और रहती हूँ । मैं जो भी हूँ और जो भी मेरा मूल प्रदेश है, इससे मुझे कभी कोई फ़रक नहीं पड़ा था; क्योंकि पहले राजस्थान और बाद में इतने वर्षों से गुजरात में रहते हुए मुझे कभी यह नहीं लगा कि मैं अपनी भूमि पर नहीं रहती। अब भी नहीं लगता। पर अब इधर कुछ और-और-सा लगने लगा है। यानी पहले मुझे इस बात के प्रति कोई रुचि नहीं थी कि मैं महाराष्ट्र प्रदेश , मराठी-भाषा, मराठी साहित्य आदि के बारे में जानूं। बल्कि अगर कोई मराठी-मराठी करने लगता तो मुझे बड़ी कोफ़्त होती। अपनी मराठी अस्मिता , पहचान को मैं बहुत प्रकट नहीं करना चाहती थी। बल्कि मझमें मराठी अस्मिता जैसा कुछ था भी नहीं। मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि ऐसा करना संकीर्णता है, क्योंकि हम तो भारत वासी हैं। फिर जिस प्रांत में रह रहे हैं, उससे भी मेरा ऐसा लगाव नहीं था कि उस - मय हो जाऊँ। यानी एक तरह से मैं इस मामले में सेक्यूलर थी !
पर इधर देखती हूँ, पूरे देश का भावात्मक नक्शा बदल रहा है। लोग अपनी अस्मिता को ले कर इतने सजग हो गये हैं कि समाज मे रह रहे परिधि पर के ही नहीं, जो केन्द्र में हैं (अथवा अब तक थे) वे भी अपनी अस्मिता को ले कर झंडे उठाने लगे हैं। ख़ैर। मैं अब तक तो अपने आप को संयोग से मराठी और संयोगवशात् गुजरात का समझती रही हूँ। फिर मैंने विवाह भी एक गुजराती परिवार में किया, जो संयोग से ब्राह्मण है। इसी तरह जीवन का क्रम चल रहा था और है भी।
जब वर्षों पहले असम में आंदोलन हुआ और ग़ैर असमियों के लिये असम में रहना मुश्किल हो गया, तब मैं इतनी समझदार(!) नहीं थी और सोचती थी कि यह राष्ट्र के प्रति द्रोह करने जैसा है। अब जब अपने जीवन के पचास से कुछ अधिक साल पूरे कर चुकी हूँ और ऐसा मानती हूँ कि कुछ अकल में बढ़ोतरी हुई है तो पाती हूँ कि यह बढ़ोतरी आदर्श से यथार्थ और उदारता से संकीर्णता की ओर जाने वाली है। क्या सचमुच अब समय और परिस्थितियां बदली हैं या मुझे अब वह दिखायी देने लगी हैं !

मुझे पहला धक्का तब लगा जब एक बार हमारे भूतपूर्व कुलपतिजी ने बिना किसी भूमिका के मुझसे कहा कि मैं आपको हिन्दी से जुड़ी किसी समिति में नहीं रख सकता क्योंकि यह आदेश है कि हिन्दी भाषियों को न रखा जाये। मैंने तुरंत हँस कर कहा- 'सर, फिर तो मैं फ़्रेम के बाहर हूँ, क्योंकि न तो मैं हिन्दी भाषी हूँ और न ही गुजराती। मैं मराठी भाषी हूँ।' लेकिन तब पहली बार मुझे लगा कि मुझे कम-से-कम उस भाषा, उस प्रजा उसकी संस्कृति, साहित्य के बारे में जानना चाहिये, जिसकी बदौलत लोग मुझे पहचानते हैं, या मैं पहचानी जाती हूँ। जब भी यह प्रयत्न किया तो अचानक बैकग्राऊंड में बिगुल की आवाज़ और छत्रपति शिवाजी महाराज की जय सुनाई पड़ती। मुझे शिवाजी पर गर्व होना ही चाहिये और है भी और जानती हूँ कि यह कहना भी चाहिये क्योंकि अभी मुझे अपने बेटे को बड़ा भी करना है। पर एक सवाल मेरे मन में हमेशा उठता था कि क्या शिवराया के पहले महाराष्ट्र में कुछ नहीं था। कोई नहीं था। इधर मुंबई में आमचा महाराष्ट्र की जो हिंसक लहर उठी है उसके फलस्वरूप मेरी यह जिज्ञासा तीव्र हुई। मेरा बचपन का आदर्शवाद, भारत को एक राष्ट्र मानने की भावना, बुढ़ापे तक आते आते बीते जन्म की कहानी न हो जाये , ऐसा डर मुझे कई बार लगता है। ख़ैर।
लेकिन इतिहास के पास सभी बातों का उत्तर होता है। एक बार भारतेन्दु ग्रंथावली में मैंने भारतेन्दुजी के द्वारा लिखा मराठों का इतिहास पढ़ा। पर उससे मेरी मूल जिज्ञासा शांत नहीं हुई। पर मुझे अच्छा भी लगा कि एक हिन्दी भाषा के लेखक को यह आवश्यकता महसूस हुई कि वो मराठों का इतिहास लिखे। ऐसा नहीं कि उन्होंने मराठों के बारे में बहुत अच्छा लिखा हो , पर लिखा, यह महत्वपूर्ण है ।
मुझे याद है एक बार , बल्कि कई बार , हम दोनों बहनें मराठियों की जाति व्यवस्था आदि के बारे में चर्चा करतीं हैं। और हमें यह प्रश्न होता कि मराठियों में वैश्य जाति के सरनेम क्या होते होंगे। घर में चर्चा की तो अंत में यह निष्कर्ष निकला कि मराठे युद्धवीर थे अतः वहाँ अन्य लोगों ने आ कर व्यवसाय किया। वहाँ वैश्य जाति नहीं है। हमारे लिये तो यह निष्कर्ष भी आल्हादक था, कि हम औरों से अलग हैं। यह सारी जिज्ञासाएं हम उन बहनों की हैं जो पूरी ज़िन्दगी मराठी होते हुए भी, महाराष्ट्र में नहीं रहीं और इस संबंध में अज्ञान थीं। असल में हमें कभी इसकी आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई। इसलिए इस संबंध में कुछ भी नया जानना हमारे लिये किसी डिस्कवरी से कम नहीं होता था !
हम बहनें अपने में रही संगीत एवं कला-प्रीति को अपने मराठी-पन से जोड़ती हैं और भाषा-उच्चारण की शुद्धता को भी इसी विरासत की देन मानती हैं। 'एक वार- दो टुकड़े' के अपने रुखे स्वभाव को भी मैं इसी विरासत की देन मानती हूँ।
इसी क्रम में मुझे पता चला कि मराठी के ख्यातनाम विद्वान और लेखक (स्व)कृष्णाजी पांडुरंग कुलकर्णी(1893-1964) मेरी माँ के सगे फुफेरे भाई लगते थे। उन्होंने मराठी भाषा पर कुछ लिखा है- ऐसा मेरी 78 वर्षीय माँ ने इन गर्मियों की छुट्टियों में बातों-बातों में मुझे बताया। 86 वर्षीय पिताजी ने दावा किया कि उन्होंने उनकी किताब पढ़ी ही नहीं, बल्कि साक्षात् कृ.पां जी को सुना भी है। बस फिर क्या था---- फ़ोन, नेट, पद्मजा घोरपड़े, मेहता पब्लिशर्स, ......करते-करते उनकी एक किताब और काफ़ी सारी जानकारी प्राप्त कर ली। किताब मैंने पढ़ी।' मराठी भाषा उद्भव व विकास' ।
इतनी लंबी भूमिका का कारण यह है कि मेरे सारे सवालों तथा जिज्ञासाओं के उत्तर मुझे मेरे ही पूर्वज की पुस्तक से मिल गए। मैंने जाना कि पाणिनी-काल के बाद में महाराष्ट्र में जो बस्तियाँ बसीं और व्यवस्थित रूप से मराठी भाषा, मराठी धर्म और मराठी साहित्य की रचना का आरंभ हुआ, वह यादव-कालीन महाराष्ट्र से होता है । ये वे यादव हैं जो उत्तर से आ कर महाराष्ट्र में बस गये थे। भिल्लम पहले राजा थे, जिनके राज्यकाल में मराठी-जन की समृद्ध विरासत ने आकार ग्रहण किया। लगभग इस वंश के आठ राजा हुए जिनके राज्यकाल में मराठी साहित्य का उद्भव और विकास का आरंभिक चरण संपन्न हुआ। यही महानुभावों का भी समय था और यही ज्ञानेश्वरी का भी समय था। इस विरासत को तो हम संसार भर में रह रहे मराठी अपने हृदय का अंश मानते हैं। पर इतिहास कहता है कि 100 वर्षीय यादव कालीन साम्राज्य में यह सब हुआ। ख़ैर, यह तो इतिहास की बात हुई। मेरी समझ में यह आया कि सांस्कृतिक और धार्मिक महाराष्ट्र की पहचान यादव-कालीन ज्ञानेश्वरी से होती है और राजनैतिक महाराष्ट्र की अस्मिता शिवाजी से पहचानी जाती है। संस्कृति पर यों भी राजनीति केवल महाराष्ट्र में नहीं , पूरे भारत में हो रही है। यह जय हे की कर्ण-भेदी ध्वनि कश्मीर से ले कर तमिलनाडु तक सुनाई पड़ रही है। यह हमारी अपनी परंपरा है- संस्कृति–धर्म-राजनीति की समेकित परंपरा, कौरवों-पांडवों से ले कर अंबानियों और ठाकरे बंधुओं तक बनी हुई है, इसमें कोई क्या कर सकता है।
मैंने जिस बात की ओर इशारा किया वह यह कि इस पुस्तक में लेखक ने इतने वैज्ञानिक ढंग से उस भूमि के बारे में, जिसे आज हम महाराष्ट्र के नाम से जानते हैं, उस पर कब-कब और किस-किस तरह लोग आए, बसे, किस तरह जातियों का निर्माण हुआ, किस तरह मराठी भाषा बनी---- आदि जानकारी दी है कि मुझे कभी हजारीप्रसादजी याद आते तो कभी रामविलासजी। हिन्दी जाति के विषय में जिस तीव्रता से रामविलासजी की जिज्ञासा जगी होगी उतनी ही तीव्र निष्ठा से इस पुस्तक में मराठी जाति के विषय में दिखाई पड़ती है।
मुझे यह जानकारी मिली कि वर्षों तक यह पुस्तक एम.ए के पाठ्यक्रम में रही है। अब पिछले कुछ वर्षों से नहीं है। लेकिन मेरे लिये यह अधिक महत्वपूर्ण था कि मैं जिन उत्तरों की खोज में थी उन तक मैं पहुँच सकी।
एक बार एक ज्योतिषी ने मुझे बताया था कि आपका अपने ननिहाल से गहरा ऋणानुबंध रहेगा। इससे गहरा ऋणानुबंध क्या होगा जो मुझे ठेठ अपनी अस्मिता की जड़ों तक ले गया !

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

विस्थापन

विस्थापन का साहित्य
विस्थापन का विस्तार कहाँ से कहाँ तक हो सकता है, तो इस प्रश्न का उत्तर संभवतः यही होगा- अपने घर-गाँव से जबरिया फेंके जाने एवं सांस्कृतिक चौपाल का ई-चौपाल में बदलने (उमा वाजपेयी, 2007) से लेकर बाज़ारवाद के फलस्वरूप अपने भीतर आई बेदख़ली (रामरतन ज्वेल, 2007) तक; लेकिन इस विस्तार तक जाने का खतरा यह है कि विस्थापन का जो वर्तमान प्रसंग है, वह एक तरफ़ रह जाएगा । मुद्दा ठोस न रह कर कुछ वायवीय हो जाएगा। सांस्कृतिक चौपाल का ई-चौपाल में बदलना अथवा बाज़ारवाद के फलस्वरूप अपने भीतर आई बेदख़ली पर व्यक्ति का वश तो नहीं है, पर उसकी हिस्सेदारी अवश्य है और प्रकारांतर से सहमति भी ; पर अपने घर-गाँव से जबरिया फेंके जाने में व्यक्ति की सहमति कदापि नहीं है, हाँ उसका वश चाहे न हो।
जम्मू-कश्मीर का समकालीन सृजन, जो मुख्यतः विस्थापन को लेकर है, पर सोचते हुए, सबसे पहले जो बात विशेष रूप से आश्चर्य में डालती है, वह यह कि वहाँ कश्मीरी भाषा के अलावा डोगरी, हिन्दी,पंजाबी,उर्दू, अंग्रेजी एवं गोजरी भाषा में भी साहित्य-सृजन हो रहा है। एक ही प्रदेश में इतनी सारी भाषाओं में साहित्य रचा जाना एक विलक्षण तुलनात्मक परिस्थिति का निर्माण करता है। किसी एक प्रदेश में अनेक भाषाओं में सृजन होना संभवतः विलक्षण बात नहीं लगेगी ; पर जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक और भौगेलिक स्थिति और उसके वर्तमान विस्थापन के संदर्भ में यह अवश्य ही विलक्षण बन जाती है। राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी चेतना को इन भाषाओं के साहित्य में देखना निश्चय ही रोचक हो सकता है।
इन रचनाओं में विस्थापन की स्थिति के अनुभव कई तरह के हैं। ये अनुभव दहशत, आशंका, पीड़ा, अविश्वास से लेकर आशा, आस्था तथा नव-निर्माण के स्वप्न तक फैले हुए हैं। उनमें एक अनुभव जम्मू कश्मीर की इस अंग्रेज़ी कविता में देखा जा सकता है- "कभी वहाँ मेरा घर था/ ग्यारह बर्फ़-जाडों के बाद / जहाँ मैं लौट आया था / एक सैलानी की तरह"। (संतोष, 2007) वह थोड़ी सी जगह कवि को मासूम बच्चों की मुस्कानों, कुछेक नवयुवकों की आँखों में और उन बूढों में मिली जो अपनी धरती से बे-पनाह प्यार करते हैं। कवि भविष्य के प्रति निराश नहीं है। हाँ, पर पूरी तरह सावधान, क्योंकि कभी भी कोई ज़ेहादी आ कर बंदूक का ट्रिगर दबा सकता है।
विस्थापन की इन कविताओं में दहशत का भाव विद्यमान है। इस दहशत के भाव के कारण हो सकता है कि इन्हीं कविताओं को आतंकवाद से प्रभावित भाव-बोध की कविता भी कहा जाए। पर कश्मीर के संदर्भ में, जैसे अन्य इसी प्रकार की स्थितियों में जी रहे देशों में भी, ये कविताएं अथवा साहित्य विस्थापन की भूमिका वाला साहित्य हो जाता है ; क्योंकि यहाँ, यही दहशत तो विस्थापन के मूल में है। इस संदर्भ में डॉ.मनोज की डोगरी कहानी दस्तकें एवं एम.के वकार की गोजरी कहानी आदमी नहीं उल्लेखनीय हैं। दरवाज़े पर होती ठक-ठक कितनी दहशत पैदा कर सकती है, उसे एक छोटी सी कहानी में एम.के वकार बताते हैं ; उसी को कुछ विस्तार से डॉ मनोज ने वर्णित किया है। यह दहशत आदमी नहीं कहानी के एक खानाबदोश को उतना ही सकते में डालती है, जितना कि दस्तकें कहानी के एक स्थायी निवासी को। (वकार, 2007) इन कहानियों में उन पात्रों का संदर्भ है, जो कम-सेकम अभी तक तो निर्वासित नहीं हुए हैं। लेकिन कब हो जाएँगे इस संदर्भ में कुछ कहा नहीं जा सकता। पर वे जो निर्वासित हो चुके हैं और कहीं और , किसी अन्य भूमि पर बसते हैं उनके लिए तो खुली पीठ पर कोड़े की मार सहने जैसा अनुभव ही है। किन्तु ऐसी स्थिति में भी वे आशावादी हैं- "ज़लावतन होना /अर्थात्/ रेल्वे प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना / किसी ऐसी ट्रेन की /जो तुम्हें अपनी जडों तक ले जाए/ और साथ ही अपने भीतर की यात्रा पर भी/कि नहो तुम्हें विस्मृत/अपना अतीत/अपनी शिनाख़्त /अपने देवता/अपनी जन्म भूमि।" यह आशावाद इन पंक्तियों में भी देखा जा सकता है-"मुझको यकीन है कि वो मंज़िल भी आएगी/ पूछेगा मुझसे मेरा सफ़र , रास्ता कहाँ"। (ज़ाफ़री, 2007)
जलावतनी का गीत गाते ये निर्वासित कहते हैं- "मैं पहनता हूँ/ अपने ही देश के जूते/पर यह कल्पना करता हूँ/अपनी धरती पर चल रहा हूँ/ " इस ख़ूबसूरत ख़याल के बाद वे कहते है- "मैं पहनता हूँ अपने ही देश के जूते/जो मुझे कहीं भी ले जा सकते हैं/ सिर्फ़ वहाँ नहीं/ जहाँ से हमें निकाला गया"। (संतोषी, 2007) जलावतनी का अर्थ होता है- अपनी जड़ों से कट जाना, अपनी अस्मिता खो देना, निरंतर अनिश्चय में जीना, अपने पद, प्रतिष्ठा और इतिहास से वंचित हो जाना, अपने अस्तित्व, आस्था, मूल्य तथा मानवीय गरिमा के खतरे में पड़ जाने का और जीवन की तलछट का अनुभव करना; अथवा तो फिर इन्हीं परिस्थितियों में जिजीविषा के साथ नयी संभावनाओं को तलाशना। जलावतन होने का अर्थ है एक ऐसी ट्रेन प्रतीक्षा करना जो फिर जड़ों तक ले जाए और साथ ही अपने भीतर एक ऐसी यात्रा लगातार करना कि जिससे अपना अतीत, अपनी पहचान, अपने देवता और अपनी जन्मभूमि का विस्मरण न हो जाए। (चौधरी, 2007)
लक्ष्य प्राप्ति के लिए मृत्यु और दुख की आकांक्षा करता कश्मिरी कवि कहता है-"अरे, मेरा करो अपहरण/ले जाओ मुझे अपने यातना शिविर में / कुछ नहीं कहूँगा मैं/करो जो कुछ भी करना है / मेरे शरीर के साथ/ जिन्दा जलाओ, काटो/या दफ़न करो..../ तरस गया हूँ अपनी ज़मीन के स्पर्श के लिए" (अग्निशेखर, तड़प,,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, 1996)। भौतिक सुविधाओं को प्राप्त करना कहीं न कहीं उस दुख को भूल जाना है, जिसका होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि अभावों के अँधेरों में पैदा हुआ यह दुख ही दूसरों की खुशी का अहसास कवि को देता है। इस दुख में जीवन की बंद स्मृतियाँ सँजोई पड़ी हैं, जिसे कवि ने अपने जिगर में पाल रखा है। (अग्निशेखर, साईकल ,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, 1996)
अपनी ज़मीन के लिए संघर्ष करते इन विस्थापितों के लिए निराशा नहीं, अपितु आशावादिता का होना आवश्यक है। यह एक बहुत बड़ा अंतर है आधुनिक काल के अस्तित्ववादियों एवं इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों में। आधुनिक काल में प्रचलित अस्तित्ववादी चिंतन में मृत्यु ही जीवन का परम लक्ष्य माना गया था ; पर राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए मृत्यु तभी स्वीकार्य है अगर लक्ष्य –प्राप्ति के लिए वह अनिवार्य साबित हो; और उनका लक्ष्य है, अपनी मातृभूमि में वापस लौटना। इस हेतु वे किसी भी क़ीमत पर अपने भीतर जग रही आशा को खोना नहीं चाहते हैं। आशा को ही खो देंगे तो कैसे चल सकता है। "मेरी सोयी हुई माँ के चेहरे पर/ किसी छिद्र से पड़ रहा है /थोड़ा –सा प्रकाश/हिल रही हैं उसकी पलकें/कौन कर रहा है इस अँधेरे में / सुबह की बात" (अग्निशेखर, थोडा सा प्रकाश, 1996) यह आशावादिता निर्वासन भोग रहे एक कवि की है तो इसी को एक कहानी में भी देखा जा सकता है, जिसकी नायिका को आतंकवादी उठा कर ले ही नहीं गए थे, बल्कि उस पर इतना अत्याचार किया और उसे गर्भवती भी बनाया। नायिका उनसे बच निकलने के लिए लगातार प्रयत्नशील है। वह अपने इस प्रयास में कामयाब भी हो जाती है ; यह जानते हुए कि अब उसे कोई स्वीकरेगा नही। अपने साथ अन्याय करने वालों को ठिकाने लगा कर जब वह बच निकलती है तो कहानी के अंत में लेखिका ने लिखा है- "गु गू गु.... पूर्वी आकाश में उजास फूटा। चिनार के पत्तों के बीच छिपी गुगी ने कुहुक कर उसका ध्यान खींचा। .....साफ़ तलैया के पास पहुँच कर उसने बच्ची को चौड़ी चट्टान पर लिटा दिया। बच्ची सख़्त स्पर्श पा कर पहले कुनमुनाई, बाद में चीख़ मार कर रोने लगी। विनी को उसके रुदन की आवाज़ अनूठी लगी। जैसे पहली बार सुन रही हो। उसने हथेली भर-भर पानी बच्ची पर उछाला और उसकी ऊँची उठती आवाज़ों के खंड़हर में गूँजते और आसमान को छूते देखती रही। के दिल से सारा डर निकल गया।" (चंद्रकांता, 2007) यहाँ आवाज़ और अभिव्यक्ति का महत्व इसलिए है कि दहशतगर्दों के साथ रहते हुए, पकड़े जाने के भय से उस बच्ची का मुँह कस कर बाँध दिया गया था। यह आवाज़ एक तरह से मुक्ति की आवाज़ थी।
इतिहास एवं सांस्कृतिक बोध की अनिवार्य उपस्थिति अगर अग्निशेखर की कविता में है तो तन्हा निज़ामी की कविता में भी है। ललद्यद को याद करते हुए तन्हा निज़ामी कहते हैं- "न हो आद्य कवियित्री ललद्यद की पीड़ा का स्मरण किसा को/ ओ मेरे देश/तुम्हें सींचा है मैंने अपने रक्त से/ मेरी आत्मा में रचे बसे सुगंधित वन/ये नदियाँ/ ये पेड़/ ये मौसम हैं तुम्हारा श्रृंगार/जिनकी मैं करता हूँ वंदना" (निज़ामी, 2007) तन्हा निज़ामी ललद्यद की जिस पीड़ा को याद नहीं करना चाहते उसे अग्निशेखर याद करते हैं – "तुमने समय के तंदूर में मारी छलांग/ और उदित हुई तन ढंककर/स्वर्ग के वस्त्रों में/ बिखेरते हुए बर्फ़-सा प्रकाश कहा तुमने/ कौन मरेगा और मारेंगे किसको.......विकल्प की आग में छलांग है हमारा निर्वासन" (अग्निशेखर, ललद्यद के नाम, 1996)। अग्निशेखर ने यह कविता निर्वासन में लिखी है। पीड़ा को जिलाए रखना इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी कविताओं का लक्षण बन जाता है।
कश्मीरी पंडितों की अपने इतिहास में जो यात्रा हुई है उसका एक वर्णन "पनुन कश्मीर" कविता में अयाज़ रसूल नाज़की करते हैं। कविता में शारिका पीठ से हारी दरवाज़े तक आते-आते कश्मीरी पंडित यह भूल जाते हैं कि आज अष्टमी है और मीट नहीं खाना है। (नाज़की, 1997) यह कहना मुश्किल है कि इसमें कवि इन दो विपरीत स्थितियों के माध्यम से क्या कहना चाहता है। पर शारिका पीठ और हारी दरवाज़ा इतिहास के दो काल-खंड हैं, जिनमें से होते हुए आए इन पंडितों के रहन-सहन में भी अब बरसों अंतर आ गया होगा। क्या यह पहचान के धीरे-धीरे बदल जाने का संदर्भ है जिसको पाठकों के समक्ष रख कर पनुन कश्मीर की व्यर्थता बता रहा हो ? या यह केवल एक तथ्यगत संकेत है? यह भी एक प्रश्न है। परन्तु पहले अपनी नदी और अब अंत में अपनी मातृभूमि छीन लिए जाने की आशंका से घिरा कवि उस धीमे और क्रमशः बदलते कश्मीर के चेहरे में कहीं अपने अस्तित्व और भूमिका को नए सिरे से जाँच और तलाश रहा है- संभवतः।
विस्थापन की इन कविताओं में एक बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि क्या घाटी के भीतर के और घाटी के बाहर के कवि – यानी निर्वासित पंडित और घाटी में रह गए मुसलसानों- के बीच क्या रिश्ता है ? यह अत्यन्त संवेदनशील मुद्दा इसलिए भी है कि आज यह संघर्ष कहीं न कहीं धार्मिक भी हो गया है; जबकि कश्मीर अपनी प्रकृति से धर्म-निरपेक्ष रहा है। क्या वर्तमान दहशत उसके इस मूल स्वभाव को बदल देना चाहती है? इस संदर्भ में बशीर अतहर अपनी एक कविता में कैसी मार्मिक संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं, उसे तो पूरा ही देखना आवश्यक है-
मेरा क्या होगा
तुम्हॆं लगता है
तुम्हारे विस्थापन पर ख़ुश हुआ था मैं

तुम्हें यही लगता है
कि हडप कर तुम्हारी घर-गृहस्थी
मालामाल हो जाने की स्वप्न था मेरा
तुम्हारे विरसे का स्वामित्व
पृथ्वी का एकाधिकार पाऊँगा मैं
आकाश को खींचकर कदमों तले
बिछाऊँगा मैं

तुम्हें यही लगता है
कि इसी ताक में था मैं
कि सपनें के महल बनाऊँगा
शमशानों पर
तुम्हारी हर स्मृति
हर चीज़ को मिटाकर
छोडूँगा उन पर छाप अपनी

पर तुम्हें नहीं पता
कि ज़रूर किये मैंने शमशानों पर खड़े
अपने स्वप्न महल
और मेरे अपने ही सपने हुए भस्म
मैंने ओढ़ लिया तुम्हारा फ़िरन
वो बन गया कफ़न मेरा
मैंने बाट ली तुम्हारी शिखा की रस्सियाँ
इस तरह मिटाते हुए तुम्हारे निशान
मिट गई मेरी अपनी अस्मिता
रेत से जैसे पदचिह्न
लील जाते हुए तुमहारा वजूद
जाने कहाँ गया मेरा होना
कल ही बनाई मैंने
एक नयी मोहर
और हर उस चीज़ पर लगा दी
जो तुम्हारी थी
पर सोचा नहीं
इन कब्रिस्तानों का क्या करूँ
जो फैलते जा रहे हैं रोज-रोज
इतनी है लाशें

तुम तो चिता की आग में
एक दिन हो जाओगे लीन
मगर मेरी कब्र...
क्या होगा उसका (अतहर, मेरा क्या होगा, 2007)
यह कविता कश्मीरी पंडितों के नाम है। यह एक तरह से अपराध-बोध की सकारात्मक अभिव्यक्ति भी है, जो मन को छूती है।
कश्मीर में रहने वाले मुसलमान बाशिंदों में और दहशतगर्द मुसलमान में जो अंतर है वह भी इस और अन्य कविताओं में साफ़ देखा जा सकता है , क्योंकि धर्म चाहे जो हो, ज़मीन तो दोनों की कश्मीर है। कश्मीर के सौन्दर्य और कश्मीर की संस्कृति के नष्ट हो जाने का सभी को समान अहसास है। (आज़ाद, 2007)
इस कविता के साथ-साथ उन कहानियों को भी देखा जा सकता है जो डोगरी भाषा में लिखी गई हैं, जिनके सारे चरित्र मुसलमान हैं और वे बहुत अच्छे हैं; इस मायने में कि घाटी में जिस तरह की परिस्थिति है उसके लिए आम मुसलमान ज़िम्मेदार नहीं है। ये सारी कहानियाँ गैर-मुसलमानों के द्वारा लिखी गई हैं।
जैसे कि पहले बताया गया है कश्मीरी विस्थापन की कविताओं की विशेषता यह है कि इसमें एक साथ आठ भाषाओं की कविताएँ मिलती हैं। कश्मीरी, हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू. डोगरी तथा गोजरी। विस्थापन के अनेक आयाम इन कविताओं में मिलते हैं । वास्तविक धरातल पर जिसे राजनीति ने पक्ष-प्रतिपक्ष बना दिया है , कविता में भी दोनों ही अलग-अलग भूमिका के साथ मौजूद है पर विस्थापन का भाव दोनों में है। एक दूसरे के प्रति संबंध का भाव दोनों में है। अगर कश्मीर के मुसलमान को हिन्दु की पीड़ा महसूस होती है तो तमाम दूरियों के बाद भी जलावतन हुए कश्मीरी मुसलमान के लिए एक हिन्दु कवि भी उतना ही दुखी है क्योंकि जलावतनी में स्थितियाँ तो सभी के लिए एक जैसी हैं।
लेकिन जो जलावतन नहीं हुआ है, उससे भी कवि पूछना चाहता है कि कैसे हो? क्योंकि भीतर से दोनों ही लहुलुहान हैं। (अग्निशेखर, कश्मीरी मुसलमान 1,2, 1996)
मातृभूमि की ही तरह माताएं भी इन रचनाओं में एक जैसी ही हैं- माताएँ इंतज़ार कर रही हैं, सीमापार गए बच्चों की, माताएँ ,जो बिलख रही हैं, कुचली जा रही हैं और कवि को चिंता है कि क्यों कोई माताओं के मानवाधिकार का प्रश्न नहीं उठा रहा है (अग्निशेखर, माताएँ, 1996) या फिर यह एक और माँ भी है - "वह गरिमामय/हर शाम दरवाज़ा खोले / बाट जोहती अपने छोटे-छोटे राजकुँवरों की/ ----------"वह कुछ लज्जित और आशंकित भी है पर "घुप्प अँधेरे में पड़ोसियों ने एक लंबी दहाड़ सुनी कि मरो नहीं रे/ अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है/ अभी तो तुम्हारे नाख़ूनों पर गीली है मेहँदी।" (शफाई, 2007)
राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अपने मिथकों और अपने इतिहास को बार-बार दोहराना आवश्यक है। ऐतिहासिक ललद्यद की तरह ही सतीसर के मिथक पर लिखी अग्निशेखर की लंबी कविता इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। इसमें नागों के साथ हुई वंचना को लेखक ने बहुत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। नाग पहले राक्षसों से, फिर कश्यप ऋषि से और फिर देवताओं से भी ठगे जाने का अनुभव करते हैं और इसीलिए विरोध को जिलाए रखते हैं- "मेरे विरोध में/छिपा है/ मेर जीवन का स्वप्न" (अग्निशेखर, सतीसर-चैंतीस, 2006) सत्ता किस तरह भोले आम आदमी को ठग लेती है , इस बात को कवि ने विष्णु के मिथक से भली भाँति रेखांकित किया है।
इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अपनी आस्था और संस्कृति, अपने मिथक और अपने देवता अपना इतिहास और अपना वर्तमान इसलिए भी मूल्यवान हो जाता है क्यों कि अपनी ज़मीन के लिए केवल वही संघर्ष नहीं कर रहे बल्कि शरणार्थी शिबिर में रह रही उनकी अगली पीढ़ी भी कर रही है। वह पीढ़ी, जो किसी अस्थाई व्यवस्था की अपेक्षा अपने कर्तृत्व पर अधिक भरोसा रखना सीख गई है-
इस बारिश में
कैंप के पिछवाडे
मुर्दा भैंस के कंकाल में छिपाकर
रख आता है एक बच्चा
उपनी पतंग
तंबू से उठ गया है
उसका विश्वास (अग्निशेखर, शरणार्थी शिविर में-12, 2006)
संदर्भ सूची

1. अग्निशेखर. (2006). कालवृक्ष की छाया में. दिल्ली, भारत: सारांस प्रकासन.
2. अग्निशेखर. (2006). कालवृक्ष की छाया में. दिल्ली: सारांश प्रकाशन.
3. अग्निशेखर. (1996). तड़प,,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली: शारदापीठ प्रकासन.
4. अग्निशेखर. (1996). थोडा सा प्रकाश. अग्निशेखर में, मुझसे छीन ली गयी मेरी नदी (पृ. 10). दिल्ली: शारदा पीठ प्रकाशन.
5. अग्निशेखर. (1996). मुछसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली, दिल्ली, भारत: शागदापीठ प्रकाशन.
6. अग्निशेखर. (1996). मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली, भारत: शारदापीठ प्रकाशन.
7. अग्निशेखर. (1996). ललद्यद के नाम. In अग्निशेखर, मुझसे छीन ली गई मी नदी (pp. 56-58). दिल्ली: शारदापीठ प्रकाशन.
8. अग्निशेखर. (1996). साईकल ,मुझसे छीन ली गई मेरी नदी. दिल्ली: शारदापीठ प्रकाशन.
9. अतहर, ब. (2007, जुलाई-सितंबर). मेरा क्या होगा. वसुधा , p. 74.
10. आज़ाद, न. (2007, जुलई-सितंबर). धेरे में. वसुधा , pp. 279-280.
11. कुंदनलाला चौधरी. (जुलाई-सितंबर 2007). जलावतन. वसुधा , पृ. 305.
12. चंद्रकांता. (2007, जुलाई-सितंबर). आवाज़. (क. प. संपादक-अग्निशेखर, Ed.) वसुधा , 74 (वर्ष-4 अंक 2), pp. 231-238.
13. ज़ाफ़री, ल. (2007, जुलाई-सितंबर). हिज़रत. वसुधा , p. 283.
14. नाज़की, अ. र. (1997, जुनाई सितंबर). पनुन कश्मीर. वसुधा , p. 73.
15. निज़ामी, त. (2007, जुलाई-सितंबर). ओ मेरे देश. (क. प. अग्निशेखर, Ed.) वसुधा , 2 (2), pp. 76-77.
16. नीरज संतोष. (जुलाई-सितंबर 2007). थोडी सी जगह. (अतिथि संपादक अग्निशेखर, मोहन सिंह कमलाप्रसाद, सं.) वसुधा (2), पृ. 308.
17. बशीर अतहर. (जुलाई-सितंबर 2007). मेरा क्या होगा. वसुधा , पृ. 74.
18. राजेन्द्र शर्मा उमा वाजपेयी. (2007). गतिविधियाँ. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.
19. राजेन्द्र शर्मा. (2007). गतिविधियां. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.
20. रामरतन ज्वेल, र. श. (2007). गतिविधियाँ. भोपाल: प्रगतिशील लेखक संघ.
21. वकार, म. (2007, जुलाई-सितंबर ). वसुधा , pp. 128-136( दस्तकें)312-314(आदमी नहीं).
22. शफाई, न. (2007). बैन-विलाप. वसुधा , 69.
23. संतोषी, म. क. (2007, जुलाई-सितंबर). जलावतनी का गीत. वसुधा , p. 209.


बलकाक और नोनो-वेद राही,दस्तकें –डॉ.मनोज, धूप-तेजाब-डॉ. सुशील, अर्थ वर्क- चमन अरोरा, मिनार, दरिया और राजनाथ-बन्धु शर्मा, उत्तर क्या है- नरसिंह देव जम्वाल, फिरौति- प्रवीश केसर, यह तोता है- अर्चना केसर, माई-देशबन्धु डोगरा, अतीत की फाँस-ओम गोस्वामी

Kashmir

शनिवार, 13 मार्च 2010

हिला हिलबिला हिला क्या बिल... महिला

हिला कर रख दिया है महिला बिल ने सभी को। यही हमारे समाज
की लिटमस परीक्षा है। कौन कितने पानी में है महिलाओं की स्वतंत्रता
और अधिकारों के प्रति यह अब खुलने लगा है। मैं तो कहती हूँ हो
जाये हिसाब किताब। अगर हमारे धर्माचार्यों को( दोनों ) को कुबूल नहीं कि
महिला आरक्षण हो, तो मैं कहती हूँ धर्म और भगवान का भी बँटवारा
हो जाए। महिलाएं अब अपना अलग मंदिर बनाएँ। पुजारी भी वही हों,
इसमें पुरुषों को प्रवेश न हो। सारी देवियाँ महिलाओं के हिस्से।अब से
अंबा, दुर्गा, भवानी, ग्राम-देवियाँ, सरस्वती, गायत्री किसीको भी पूजने का
हक़ पुरुषों को न हो। विष्णु आप लें , लक्ष्मी हम ले लेते हैं। रिद्धि-
सिद्धि हमारी, गणेशजी आपके। राधा हमारी , कृष्ण आपके। पार्वती
तथा आधे शंकर हमारे आपके केवल आधे शंकर। महिलाएँ मरें तो
महिला पुजारी सब करें-विधि-विधान। इस संदर्भ में और भी बहुत कुछ
कहा जा सकता है। पर पहले इतना तय हो जाए--फिर आगे की बात।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

मोरनियां

मोरनियाँ

मोर के रंगों को धारण कर,
मोरनियां बन जाती हैं चोरनियां
चोरनियां...........दिल चोरनियां

कैसे हो जाती हैं

दिल-चोरनियां..........मोरनियां ?

– मटमैली एकदम सादी-सी मोरनियां
होती हैं साधारण

मैंने

पहले भी कहा था
सुंदर नहीं होती हैं मोरनियां
फिर भी ... किस क़दर दिल चोरनियां !

के रंगों में धीरे-धीरे
रिम-झिम, रिम-झिम सराबोर हो जाना – आद्यंत – सरापा
उनकी नीली-हरी गरदनों की लचक में
झूम-झूम झूमना


रिम-झिम, रिम-झिम ......टे हें ओ ..... टे हें ओ ......
यही तो है, मोर के रंगों को धारण करना !

मोर –पाखी आँखों में झिल-मिल....झिल-मिल...मिलना
झिप-झिप झिप-झिप......
चुप-चुप …… …… चुप-चुप


बनती है चोरनियां........ये मोरनियां
मयूर-रंग में पगी.......... ये मोरनियां .....

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

कश्मीर

राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादी चेतना : सौन्दर्य-चेता धरती का वर्तमान विमर्श
रंजना अरगडे
वर्तमान समय, साहित्य के विविध पक्षों और स्वरूपों के माध्यम से हम तक पहुँच रहा है। केन्द्र का साहित्य और हाशिए का साहित्य- इसकी प्रमुख पहचान बन गया है। साहित्य को देखने के हमारे परंपरागत दृष्टिकोण में इससे बहुत अंतर आया है। अब हम भाषा, संवेदना और विचार के स्तर पर उस तरह नहीं सोचते जैसे दो-एक दशक पूर्व सोचते थे। हाशिए के सारे मुद्दे अब चर्चा के केन्द्र में हैं। यह अलग बात है कि इन मुद्दों पर सोचते हुए हम कितने मानवीय बने रहते हैं और कितने बाज़ार से प्रभावित होते हैं। लगभग हम सभी इस बात को जानते हैं कि बाज़ार वही बेचता है, जो बिकता है। उसी की माँग खड़ी होती है और की भी जाती है। स्त्री, दलित, अ-श्वेत जब तक बाज़ार के लिए उपयोगी होंगे तब तक एक उत्पाद के रूप में वे खूब बिकेंगे ; और वह बिकते रहें इसकी कोशिश भी बाज़ार की ताक़तें करती रहेंगी, इसमें कोई संदेह नहीं।
अभिव्यक्ति के इन सभी पक्षों में एक प्रश्न विस्थापितों का भी है। विस्थापितों का प्रश्न अन्य विमर्शों से भिन्न है, अपनी प्रकृति में और अपने व्याप में। विस्थापित किसी भी सत्ता के लिए उस काँटे की तरह हैं, जो दुखता भी है, दिक भी करता है, पर संभवतः वह कभी नासूर नहीं बन सकता, ऐसा उन्हें भरोसा है। सत्ता का यह विश्वास कितना स्थाई है यह तो समय ही बता सकता है। फिर अभी तक तो वह बाज़ार की आवश्यकता नहीं बना है, क्योंकि राजनैतिक रूप से वह एक न सुलझने वाला गुंजलक भी है।
किसी भी भाषा का समाज जब अपने अस्तित्व(होने) की ज़द्दोज़ेहद एवं संकट से उबरने के लिए लड़ रहा होता है, जूझ रहा होता है, तभी उस भाषा में सर्वोत्तम साहित्य रचा जाता है। इलीयट की यह बात सच ही होनी चाहिए क्योंकि आज के संघर्षशील दौर में विभिन्न देशों में, अपने ज़मीनी अस्तित्व के लिए जी-जान से लड़ने वाले, जब अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर रहे हैं, अपनी ज़मीन को बचाने के लिए उनकी जो आवाज़ें सुनाई पड़ रही हैं, वे इस बात की गवाह हैं कि इसके पहले इस तरह की अभिव्यक्तियां हमने नहीं सुनी थीं। ये सारी अभिव्यक्तियां हमारे अपने समय की महाकाव्यात्मक अभिव्यक्तियां हैं क्यों कि इनमें मानवीय संवेदना और अ-मानवीय सत्ता के बीच की गहरी खाई को रेखांकित किया गया है। अलग-अलग भाषा-वैज्ञानिक कुल-कुनबों मे बंटी ये सारी भाषाएं वास्तव में विस्थापितों की भूमि पर आ कर एक हो जाती हैं, क्योंकि इन सभी में उसी एक अमानवीय-सत्ता और स्थिति के प्रति संघर्ष और संवाद का बिन्दु है। इस उत्तर- आधुनिक समय में, वैश्विकीकरण के इस दौर में इन सभी अभिव्यक्तियों को एक मान कर चलना चाहिए, फिर चाहे इन अभिव्यक्तियों के देश, रंग, धर्म, जाति और नस्ल अलग-अलग ही क्यों न हो।

1
यह बात सर्वविदित है कि आधुनिकता से उत्तर-आधुनिकता तक आते-आते संवेदना-बोध का केन्द्र बदल गया है। पहले व्यक्ति अपने सुख-दुख,पहचान, अस्तित्व, स्वतंत्रता की चाहना के लिए चिंतित था। पहले व्यक्ति केन्द्र में था, समाज हाशिये पर; व्यक्ति अपनी सोच और ऐषणाओं से बद्ध था। उसकी प्राप्ति के लिए कार्यरत । उसकी बौद्धिकता और हार्दिकता के केन्द्र में केवल वह खुद था। उसका कोई वर्ग नहीं था- न कोई जाति, देश , लिंग, धर्म, समूह। जैसे आधुनिकतावादी। या फिर अगर था भी कोई वर्ग, तो उसका आधार भी न तो स्वमान ही था, न ही आत्म-गौरव - बल्कि पूँजी और उसका वितरण। जैसे मार्क्सवाद। मार्क्सवाद जिन शोषितों की बात करता है उनका भी तो, न कोई रंग, देश जाति, नस्ल, धर्म या समूह ही है । पर उनका कोई ऐसा, ज़मीन या धरती के किसी टुकड़े विशेष के लिए संघर्ष का मसला भी तो नहीं , क्यों कि उनके यहाँ तो दुनिया के मज़दूरों को एक करने की बात है। वहाँ स्पेस शासन के लिए, सत्ता के लिए चाहिए था। हाँ, वह सत्ता –व्यक्ति- विशेष की न हो कर प्रोलेतेरियत की हो, ऐसा उनका यूटोपीयन स्वप्न अवश्य था। अतः व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विचारधारा का रिश्ता था, कोई ज़मीनी रिश्ता नहीं था। दूसरी ओर, नाकामियां, दुख-दर्द, पीड़ा, मरने की उत्सुक अभिलाषा, समाज व्यवस्था के प्रति विद्रोह, जीवन के प्रति व्यर्थता का बोध, अलगाव-बोध आदि अस्तित्ववादी चिंतन के केन्द्र में भी व्यक्ति ही रहा ।
व्यक्ति से समूह की ओर आती उत्तर-आधुनिकता की सोच और चिंतन की दिशाओं में भी बदलाव आया। अस्तित्व वादी अनुभूतियों का एक नया विकसित रूप, उत्तर-आधुनिक समय की अपनी प्रकृति के अनुसार, आज समूह-केन्द्री हो गया है। चूंकि उत्तर आधुनिक की ज़मीन अलग है अतः इस अस्तित्ववादी भाव-भूमि का स्वरूप भी अलग दिखाई पड़ता है। इसे हम राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी चेतना कह सकते हैं। यहाँ दुःख – दर्द की इच्छा नहीं है। इच्छा तो सुख की है। उससे भी आगे बढ़ कर शांतिमय अस्तित्व की। पर यह सुख, यह शांति मिलेगी कि नहीं , या कब मिलेगी, कोई नहीं जानता। पर हाँ, अगर दुःख-दर्द नहीं होगा, तो कोई उनकी ओर देखेगा भी नहीं। और दुःख दर्द भी सामान्य नहीं बल्कि मरने-मारने जितना। ये राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी स्वेच्छा से ही दुःख दर्द चाहते हैं, पर इसका आधार एवं कारण जीवन की व्यर्थता न हो कर दूसरी ज़मीन पर रहते हुए महसूस होती वर्तमान जीवन की व्यर्थता का बोध है। अपनी जन्म-भूमि के अलावा अन्य ज़मीन पर ज़बरन रहने को विवश इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए दुःख दर्द ही वह एक रास्ता है जो संभवतः इन्हें अथवा इन की आने वाली पीढियों को उस ज़मीन पर रहने का अवसर बना सकता है, जिसका वे स्वप्न देख रहे हैं और उस स्वप्न को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
पीड़ा का बोध इन राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए इसलिए आवश्यक है क्योंकि लंबे अंतहीन एवं परिणाम विहीन लगने वाले संघर्ष से कहीं घबरा कर, अगर थोड़ी देर के लिए भी मन हटा-सा, तो सुविधाओं से भरा और अंधा कर देने वाली हार-मालाएँ पहनाता बाज़ार का आकर्षण उन्हें दबोच न ले। एक विचित्र डिक्टॉमी भी है। एक ओर जहाँ बाज़ार का प्रचार करने वाले प्रचार –माध्यम इन आंदोलनकर्ताओं की बात का प्रचार करने के लिए उपयोगी हैं, वहीं इनको पथ से हटाने के लिए भी सक्षम भी हैं। अतः राष्ट्र-धर्मी अस्तित्ववादियों का बाज़ार के साथ एक दोहरा संबंध है। विशेष रूप से आंदोलनों में जब समूह कार्यरत रहता है तो ऐसे अवसर आने की संभावना अधिक रहती है। पीड़ा के इस बोध के लिए आवश्यक है कि अपनी वर्तमान दशा को बार-बार चित्रों, फ़िल्मों ,साहित्य, नाटक, आंदोलन आदि के द्वारा जीवित रखा जाए। मीडिया के द्वारा इसे हर संभव प्रयत्न द्वारा अलग-अलग समूहों तक पहुँचाया जाए।
विस्थापितों के लिए अपनी ज़मीन की माँग रखना उस फ़ासीवादी मानसिकता से बिल्कुल अलग है जो अपनी ज़मीन पर अपने और अपने-जैसों के अलावा और किसी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं कर सकते। बल्कि वे पीड़ा में इसलिए रहते हैं अथवा रहने की परिस्थिति में पहुँच गए हैं कि उन्हें तो अपनी ज़मीन की दरकार है। वे मग़रूरी से नहीं बल्कि पीड़ा के रास्ते से अपना ध्येय प्राप्त करना चाहते हैं। ज़मीन के अभाव के कारण मग़रूरी का अभाव है, ऐसा नहीं है , परन्तु जहाँ-जहाँ विस्थापन है उन समूहों का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है और एक गरिमामयी संस्कृति भी रही है। उन ऐतिहासिक स्मृतियों के कारण भी इन विस्थापितों की पीड़ा, विवश पीड़ा न रह कर मानवीय पीड़ा के रूप में उभरती है।
यही गरिमामयी पीड़ा उन्हें अपने ध्येय-प्राप्ति के लिए मरने की उत्सुक अभिलाषा तक ले जाती है। शांति भरा जीवन और सुख के कुछ रंग चाहते इन राष्ट्र–धर्मी अस्तित्ववादियों के लिए मृत्यु एक उत्सुकता भरी अभिलाषा बन कर आती है। यही कारण है कि वे यथा संभव अपनी संस्कृति और कला में, जीवन के चित्रों को पैनेपन के साथ उकेरते हैं । अपनी परंपरा एवं इतिहास का सतत स्मरण उनकी पीड़ा, दुःख-दर्द, मृत्यु की अभिलाषा – सभी के लिए आवश्यक है। साथ ही उन के लिए यह अनिवार्य है कि वे वर्तमान का यथार्थ भी सतत अपने ज़ेहन में रखें। अतः राष्ट्र धर्मी अस्तित्ववादी, एक साथ तीन बिन्दुओं पर जीते हैं। ये तीन बिन्दु हैं :
1-अतीतगामिता
संघर्ष भावना की लौ की आधार-भूमि यही अतीतगामिता है। ध्येय प्राप्ति के लिए अतीतगामिता अनिवार्य है ।
2-संवाद-धर्मिता
संवाद-धर्मिता की भूमि राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियो के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। विस्थापितों के संघर्ष के मानवीय पक्ष तथा संवेदनशीलता के लिए साहित्य, कला तथा संप्रेषण के आधुनिकतम माध्यमों को बेहतर से बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल करना एवं विभन्न प्रकार के नेट-वर्किंग के द्वारा बहु-संख्यकलोगों तक पहुँचना राष्ट्रधर्मी अस्तित्ववादियों के लिए अनिवार्य है।
3-वर्तमान का यथार्थ-बोध
इन रा.ध. अ. के लिए ध्येय-प्राप्ति हेतु सतत वर्तमान में जीना अनिवार्य है । वर्तमान राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं एवं राजनीति के बरक्स रणनीति गढ़ कर अपने मूल उद्देश्य के प्रति सजग रहना। विस्थापितों के भविष्य एवं वर्तमान का निर्णय हमेंशा ही वे लोग नहीं करते जो विस्थापित हैं या जो कार्यकारी एवं सीधे ज़िम्मेदार, सत्ता पर बैठे हैं। वे लोग जो कहीं और बैठे हुए हैं, वे लोग तय करते हैं कि फिलिस्तीनियों का क्या होगा, कश्मिरियों का क्या होगा, बांग्लादेशियों का क्या होगा...... इत्यादि, इत्यादि। इस अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में बाज़ार की केन्द्रीय भूमिका रही है। उत्पाद, वितरण और उपभोक्ता – का निर्णय कोई एक, कहीं बैठे , किसी के लिए कर रहा है। यह उत्पाद- वितरण आदि, ज़ाहिर है, चीज़-वस्तुओं तक सीमित नहीं है- यह सत्ता और शासन-प्रकारांतर से जन-संस्कृति तक फैल गया है। इसीलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कि बाज़ार के माध्यम से अन्य देशों के निर्वासित और विस्थापित कौन होंगे , इस निर्णय को प्रभावित कोई और ताक़त कर रही है।
अर्थात् रा.अ. एक साथ वर्तमान, अतीत एवं कला- लोक में बने रहते हैं। एक साथ तीन बिन्दुओं पर जीना निश्चित ही सरल काम नहीं है ।
2
मानवीय संवेदना और अ-मानवीय सत्ता के बीच की गहरी खाई इन रा.ध.अ के लिए सबसे अधिक चुनौति वाली जगह है। क्योकि यह अ-मानवीय सत्ता विदेशी नहीं है। यहाँ किसी उपनिवेशवादी ताक़त के साथ या किसी राजा-महाराजा से लड़ना नहीं है, बल्कि अपनी ही चुनी हुई सरकार से, अपनी ही शर्तों पर, अपनी ही ज़मीन के लिए, अपने ही लोगों से संघर्ष करना है। यानी एक तरह से यह अपनों के साथ अपनों की लड़ाई है। यह तथ्य इस आंदोलन को वैचारिक स्तर पर अपने पूर्व-वर्ती आधुनिक और भावनात्मक स्तर पर, उसके भी पूर्व-वर्ती स्वतंत्रता आंदोलन से अलगाता है।
अलगाव-बोध की भूमि पर इन रा .अ को दूसरी ज़मीन पर अ-लगाव के साथ रहते हुए अपनी भूमि के प्रति लगाव की भावना में देखा जा सकता है।
आधुनिकता के दौर में जो ईश्वर बैक-फुट पर चला गया था वही उत्तर-आधुनिकता में दृश्य फलक पर उपस्थित दिखाई पड़ता हैं । विस्थापित, चूँकि अपनी परंपरा को भूल नहीं सकते, भूलना नहीं चाहते, अतः वे अपने ईश्वर, अपनी पूजा-उपासनाओं को भी नहीं भूल सकते। फिर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि चाहे आधुनितावाद हो या मार्क्सवाद, किसी ने भी ईश्वर की अनुपस्थिति में मनुष्य को बेहतर जीवन तो नहीं ही दिया है। और यह बात शीशे जितनी साफ़ है। जहाँ तक वैज्ञानिक खोजों का प्रश्न है, उसके संपन्न होने में ईश्वर की उपस्थिति कहीं भी बाधा रूप नहीं है।
अपनों के साथ अपनों की लड़ाई हमेशा ही दुःखदायी रही है। विशाल स्तर पर इसे हम कौरवों-पांडवों की लडाई के साथ भी जोड़ सकते हैं , क्योंकि वहाँ भी मसला सुई की नोक के बराबर की ज़मीन का रहा है। इसे यहूदियों के आरंभिक निष्कासन से भी जोड़ सकते हैं। वह घटना आज तक यहूदियों की नियति की नियंता बनी हुई है। बिना उस पीड़ा और अलगाव के दर्द की गहराई को समझे, हम कभी भी यहूदियों को पूरी तरह समझ नहीं सकते।
उसी तरह इस्लामियों के विस्थापन को हम मोहम्मद पैगंबर के मक्का से मदीना जाने और फिर से इस्लाम जैसे नए धर्म के साथ मक्का लौटने से भी जोड़ सकते हैं। पर इस लौटने में उद्देश्य की रचनात्मक सफलता का दर्शन किया जा सकता है।
यह सफलता उन तिब्बतियों को नहीं मिल सकी है जो आज तक ज़िलावतनी(एक्ज़ाईल) में जी रहे हैं।
यहां एडवर्ड सईद के ओरिएंटलिज़म को भी याद किया जा सकता है। सईद अपने को अपनी तरह देखने और समझने की शुरुआत करने के लिए कहता है। जब हम अपने को अपनी तरह देखेंगे तो सबसे पहले अपनी ज़मीन ही दिखेगी जिस पर खड़े रह कर अपने बारे में अपनी तरह सोचा जा सकता है।
3
विस्थापन अ-सीम और काल-मुक्त है। वह एक वैश्विक फ़िनोमिनन है। यों भी कहा जा सकता है कि विस्थापन मनुष्य की नियति है। मनुष्य के होने के मूल में ही विस्थापन है। एक अर्थ में जीव मात्र के होने का कारण उसका विस्थापन ही है। दार्शनिक स्तर पर ब्रह्म से विस्थापित होता है, तब जीव, अस्तित्व में आता है। अगर हमें यह बात अच्छी नहीं लगती तो हम कह सकते हैं कि माता के गर्भ से विस्थापित हो कर बच्चा अस्तित्व धारण करता है। यानी कि बिना विस्थापित हुए अस्तित्व संभव नही है। होने के लिए विस्थापन आवश्यक है। लेकिन यह तर्क वैसा ही है जैसे इसाई धर्म मे यह बात आई कि स्वर्ग का राज्य तो ग़रीबों के लिए है तो पृथ्वी पर से उन्हें खत्म करो और स्वर्ग भेजो। ऐसे सिद्धांत उन लोगों के लिए हमेंशा ही लाभदायी रहते हैं, रहे हैं, जो अपने लिए और अपने वंशजों के लिए अमाप सत्ता की कामना अपना एकाधिकार समझते हैं। हम, एक मानव समाज के रूप में उस मायाजाल से तो निकल आए हैं। परन्तु साथ ही यह भी देख रहे हैं कि इससे बचाने वाली सोच ने भी अन्ततः तो ऐसा कुछ किया नहीं कि मनुष्य अपनी बदहाली से बच सके। उत्तर आधुनिक दौर तक आते आते , यह हम लोगों के सामने स्पष्ट हो गया है कि आत्म-गौरव , आत्म-रक्षा तथा अधिकार हर व्यक्ति को अथवा मानव समूह को अपने बूते पर, संघर्ष कर के, लड़ कर अथवा अन्यथा प्राप्त करना होगा। अतः उसे अपने पूर्वानुभवों तथा अब तक प्राप्त समझ के सहारे ही अपना रास्ता तय करना होगा। रा.ध अ भी इसी मार्ग पर चलते हुए अगर ईश्वर पर भरोसा रखते हैं अथवा अपनी परंपराओं को जीवित रखते हैं, तो यह उनका अपना सोचा और चुना हुआ मार्ग है। इससे एक संकेत यह भी मिलता है कि वर्तमान व्यवस्थाओं ने अलग-अलग रूपों में अलग-अलग समूहों को निराश ही किया है।
यह विस्थापन देशों और राष्ट्रों की सीमाओं को पार करने वाला भी है और आंतरिक विस्थापन भी इसमें शामिल है। विभिन्न प्रकार के विस्थापन को समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे विस्थापन के स्वरूप को ठीक तरह समझा जा सकता है। विस्थापन के मुख्यतः दो कारण देखे जा सकते हैं। धर्म-सत्ता और राजनीतिक सत्ता। वर्तमान समय में विकास के कारण भी विस्थापितों की एक नई जमात बनती जी रही है। चाहे जंगलों में बड़े बाँधों के निर्माण की बात हो या शहर के बीचोबीच नदियों को ख़ूबसूरत बनाने की योजना हो – इन योजनाओं के कारण विस्थापित हुए जन-समूहों को विकास के नाम पर अपनी ज़मीन से बेदख़ल होना पड़ रहा है। औद्योगिक विकास आधुनिक काल से यात्रा करते-करते जब उत्तर-आधुनिक काल में आता है , तब तक समूह जागृत हो चुके हैं। अतः आधुनिक काल में इस प्रकार के विस्थापन को ले कर जितना उहा-पोह नहीं हुआ, उत्तर आधुनिक काल में यह अन्तर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करने लगा है।
4
इस बिन्दु पर आ कर विस्थापन और अप्रवासी के बीच का अन्तर और एक बिन्दु पर उनके बीच के संबंध-सूत्र को भी समझना चाहिए। जब अपनी इच्छा से अपने विकास के लिए पराई भूमि में कोई बसता है, तो वह अप्रवासी के अन्तर्गत गिना जा सकता है। हम जहाँ अपने लाभ, अपने विकास के लिए जाते हैं, तो हमें उस भूमि की शर्तों पर रहना होता है। अपनी इच्छा से , अपने विकास के लिए किया हुआ स्थलांतर भी कालांतर में हमें ऐसा बोध दे सकता है कि हमारे साथ परायेपन का व्यवहार हो रहा है। यह भी दुःखद और एक हद तक कभी-कभी अ-मानवीय हो सकता है। पर यह चूँकि हमारा चुनाव है, अतः इनसे लड़ने का हमारा तरीका अलग हो सकता है। भारत जैसे बहु- प्रांतीय राष्ट्र में यह आंतरिक प्रवासी कहाए जा सकते हैं , जैसे विदेशों में अपनी आजीविका तथा बेहतर भविष्य की तलाश में रह रहे भारतीय समूह के लोगों को हम अप्रवासी के रूप में पहचानते हैं। निश्चित ही उनकी अपनी समस्याएं होंगी और हो सकती हैं, पर फिर भी वे विस्थापित नहीं हैं, बल्कि अपनी इच्छा से किसी और ज़मीन पर स्थापित होने के पूर्ण प्रयास में रत। अतः महाराष्ट्र में रहते उत्तर-वासियों का संघर्ष, या श्रीलंका में रहते तमिळों का संघर्ष, पाकिस्तान में रहते अफ़ग़ानी या मुहाजिर अथवा उत्तराखंड(वर्तमान) में रहते तराई के लोगों की समस्याएं इन विस्थापितों की समस्याओं से और स्थिति से बिल्कुल ही अलग हैं। उसी तरह बिहार में से झारखंड की माँग, उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड की मांग, मध्य-प्रदेश से छत्तीसगढ़ का बनना या अब तेलंगाना- इनमें और विस्थापितों में जो अंतर है वह एक ज़मीन को दो में बाँटने की अनिवार्यता- क्योंकि हक़ और अधिकार और सुविधाओं का सही वितरण नहीं हो रहा था- ऐसी भावना घर कर गई थी। इसके राजनीतिक पहलू भी हैं जिनकी चर्चा यहाँ अनिवार्य नहीं है। इन सबका संबंध तत्कालीन राजनीतिक हवाओं एवं ऐषणाओं से ही जुड़ा है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा।
हाँ, लेकिन इन अप्रवासियों में तथा विस्थापितों के बीच एक विचित्र संबंध-सूत्र है। अपनी इच्छा से विदेश गए समूह अ-प्रवासी कहाते है। वहाँ वे और उनकी पीढ़ियां रहती हैं और वे वहीं के नागरिक भी हो जाते हैं। पर किसी राजनीतिक अथवा अन्य कारण से अगर उन्हें लौटना पड़े तो अपने ही मूल देश में वे विस्थापित हो जाते हैं।
5
विस्थापन के मुद्दे को हम सांप्रदायिक मसले के साथ नहीं जोड़ सकते क्योंकि वहाँ ज़मीन से अधिक, राजनीतिक सत्ता में लिपटे धार्मिक मत-भेद की लड़ाई है। धार्मिक मत-भेद भारत में कोई नया मसला नहीं है। इसमें राजनीति का हस्तक्षेप भी नया नहीं है। परन्तु अन्तर तब आता है जब,अब राजनीति का ढाँचा बदल गया है, शासन किसी शाही परिवार अथवा किसी विदेशी सत्ता का नहीं है। अब तो लोगों द्वारा चुनी , लोकतांत्रिक सत्ता है, तब , धर्म और राजनीति के मायने सैद्धंतिक रूप से न मध्य-कालीन रहते हैं, न ही उपनिवेशवादी। संभवतः इसीलिए यह संघर्ष अधिक पीड़ा दायक कहा जा सकता है। इसीलिए इस रा.अ का रास्ता भी पीड़ा से हो कर गुज़रता है। जिन समुदायों ने संघर्ष के स्थान पर मुख्य धारा में अपने को शामिल कर लिया अब उनके विस्थापन को लोग भूल भी चुके हैं। सिंधी बोलने वाला समूह हमारे देश का एक मात्र ऐसा समूह है जिसका कोई प्रांत नहीं है। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए बंगाली, पंजाबी, सिखों की तुलना में सिंधियों की स्थिति इसलिए भिन्न रही क्यों कि शेष सभी अपने-अपने भाषा-प्रांत के साथ अपनी पहचान को सरलता से जोड़ कर एक हो गए। सिंधियों का कोई भाषा-प्रांत यहाँ था नहीं और विभाजन की विभीषिका से गुज़रने के बाद स्वतंत्र भारत की ज़मीन पर आ कर अपने लिए अलग प्रांत माँगने की कोई भूमिका बनने का तब प्रश्न भी खड़ा नहीं हुआ। भारत की अपनी सांस्कृतिक प्रकृति ही ऐसी रही है कि यहाँ जो भी आया उसका हमेंशा स्वीकार ही हुआ है। धीरे-धीरे सिंधियों ने अपने आप को पूरे भारत में फैला लिया। यह उनका अपना चुनाव रहा है। इस चुनाव से उनको कोई शिकायत भी नहीं है। उन्होंने धर्म को तरजीह दी और भारत में आने का चुनाव किया। उसके बरक्स भारत में रहने वाले इस्लाम को मानने वालों ने ज़मीन के टुकड़े के साथ भारत से अलग अपना अस्तित्व चाहा और प्राप्त किया। हो सकता है कि कहीं न कहीं इसके साथ मध्य-काल की अपने शासन की स्मृतियों की भूमिका हो।
6
कश्मिरी विस्थापितों का प्रश्न धर्म से नहीं जुड़ा है बल्कि, ज़मीन से जुड़ा है। उस ज़मीन से जो उनकी थी और जहाँ से उन्हें ज़बरन हट जाना पड़ा है। चूँकि आज 1947 नहीं है, समय और स्थितियां भी बदल गई हैं। फिर, कश्मीर भारत की वैचारिक, कलात्मक एवं दार्शनिक परंपराओं का एक सशक्त उत्स भी रहा है। जिस भूमि पर प्रत्यभिज्ञा दर्शन का अवतरण करने वाली अभिनवगुप्त जैसी प्रतिभा ने जन्म लिया हो ; कश्मीर वह धरती है जहाँ गए बिना शंकराचार्य, 'शंकराचार्य' नहीं होते - कम लोग जानते होंगे कि मूल कश्मिरी अपना प्रकृति से ही धर्म-निरपेक्ष रहे हैं; उस भूमि के बाशिंदे अगर अपनी ज़मीन के मूलभूत सौंन्दर्य को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो यह सहज और स्वाभाविक ही कहा जा सकता है। उनमें वह ताक़त है ; उनकी अस्मिता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वर्तमान अवसरवादी राजनीति सर पटक कर रह जाएगी, पर इन रा.ध.अ को अपने लक्ष्य में सफलता तो मिलेगी ही। जिस तरह इज़राईल में दुनिया भर के यहूदी लौटे और जिस तरह पैगंबर साहब मदीने से मक्का सफ़ल हो कर लौटे , उसी तरह कश्मिरियों को अपने कश्मीर में लौटने का अवसर मिलेगा। इस बात को ये रा.ध.अ. जानते हैं, इसीलिए वे भूतकाल का विस्मरण नहीं करते। वे मानव-धर्मी पीड़ा के जरिए अपनी अस्तित्व की लडाई लड़ रहे हैं। जिस तरह इंतज़ार हुसैन मानते हैं कि स्मृतियों में जीते रहना इसलिए आवश्यक है कि इससे भविष्य- निर्माण की संभावनाएं सर्जनात्मक स्तर पर बनी रहती हैं। जब कोई समूह अपने अस्तित्व के लिए इस तरह लड़ रहा होता है तब अपनी इस लड़ाई में वह अकेला ही होता है। इस अकेलेपन के साथ लड़ने के लिए आस्था का होना, आशावादिता का होना निहायत अनिवार्य है ; यह आस्था और आशावादिता वर्तमान राजनीति से नदारद है अतः ये रा.ध.अ जिन बिन्दुओ पर एक साथ जीते हैं उनकी आधार-भूमि ये तीन बिन्दु बनते है-
1-वर्तमान की रक्षा तथा भविष्य- निर्माण के लिए इतिहास-बोध की अनिवार्य उपस्थिति।
2-मानवीय-गरिमा की रक्षा के लिए संस्कृति-चेतना को लोक कला-साहित्य वैचारिक संपन्नता के दीप द्वारा जलाए रखने का आकंक्षा।
3- कठोर-संवेदनहीन एवं बहरी राजनीतिक ताक़तों के स्वार्थ एवं षड्यंत्रों के विरुद्ध ईश्वर में दृढ आस्था बरक़रार रखना।