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सोमवार, 18 मई 2009

उत्तर-आधुनिक समाज और साहित्य
रंजना अरगड़े

"हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमें अपने जीते-जी इस समय में आना पड़ेगा। जीना पड़ेगा । ऐसा भी कोई समय आ सकता है, इसका हमें अंदाजा भी नहीं था ":शमशेर बहादुर सिंह-( बाबरी ध्वंस के बाद)


मैं अपनी बात का आरंभ एक संभावना युक्त प्रश्न से करना चाहती हूँ। क्या ओबामा के अमरीकी राष्ट्रपति के रूप में चुना जाना उत्तर-आधुनिक समय की समाप्ति का आरंभ माना जा सकता है? संभवतः हाँ! अपने समर्थकों की भारी भीड़ की उपस्थिति में अन्य बातों के साथ-साथ ओबामा अपनी छोटी बेटी से वादा करते हैं कि उसके लिए वे मन-पसंद कुत्ता अवश्य खरीद देंगे और दूसरे दिन अख़बारों में यह सकारात्मक चिंता प्रकट होती है कि ओबामा एक ऐसे कुत्ते की खोज में है कि छोटी बेटी से किया गया वादा भी पूरा हो और बड़ी बेटी को एलर्जी भी न हो। ओबामा की जीत में उनकी पत्नी, नानी और बहनों के योगदान का भी अख़बारों में जि़क्र था।
ऐसा पहली बार हुआ। समग्र उत्तर-आधुनिक दौर अ-श्वेत के अस्मिता-संघर्ष का और अ-श्वेत स्त्री-संघर्ष की गाथाओं से भरा पड़ा है। ओबामा का संघर्ष जहाँ एक ओर अनेक अ-श्वेत पीढ़ियों के संघर्ष की फल-प्राप्ति के रूप में देखा जा सकता है तो दूसरी तरफ़ स्वयं ओबामा के अपने पारिवारिक संघर्ष की अमरीकी समाज द्वारा स-हर्ष स्वीकृति के रूप में भी देखा जा सकता है। अ-श्वेत की बौद्धिक, सामाजिक एवं राजनैतिक स्वीकृति का यह एक ठोस उदाहरण माना जा सकता है। बैल हूक्स( मूल नाम ग्लोरिया जीन वॉटकिन्स, 1952(ज) ) का नाम एफ्रो-अमरीकी बौद्धिक के रूप में सन् 1980 के आसपास उभरा। उसने उत्तर-आधुनिक समय में अ-श्वेत स्थितियों का बौद्धिक आकलन किया। उसकी दृष्टि में उत्तर-आधुनिक अ-श्वेतपन अन्यता (अदरनैस) और अन्तर(डिफरंस) के बोध में देखा जा सकता है। उसका यह अपना अनुभव रहा कि कैसे सभाओं में जहाँ श्वेत लोगों की अधिकांश उपस्थिति होती है, अश्वेत की सोच और चिंतन क्षमता को हास्यास्पद ढंग से देखा जाता है। पर आज सन् 2008 में उसे लगभग समाप्त का आरंभ मानना चाहिए क्योंकि ओबामा के पक्ष में सभी जाति और नस्लो के लोगों ने अपना मत दिया। यह एक जादुई चित्र की तरह है – श्वेत बुश के स्थान पर अ-श्वेत ओबामा और अ-श्वेत राईस के स्थान पर श्वेत हिलैरी स्थानापन्न हो जाती है। लेकिन निश्चय ही यह एक रात का जीदू नहीं है। सन् 1960 से जिस उत्तर-सरंचनावादी दौर में हम आए हैं उसे हम सन् 1980 के बाद मोटे तौर पर उत्तर-आधुनिक समय के रूप में जानते हैं।
लेकिन क्या हमारा समाज उत्तर-आधुनिक है? यह प्रश्न हमें इसलिए होता है कि हमारी अपनी मायावती जब अपने जन्म-दिन पर केक काटती है या हीरे के गहने बनवाती है तो हमारे अख़बार उसे अश्लील (वल्गर) मानते हैं। पश्चिमी समाज जहाँ उत्तर-आधुनिक समाज की समाप्ति के कगार पर खड़ा है वहाँ हम संभवतः उत्तर-आधुनिक संघर्ष के बीच में हैं। अभी परिधि पर के लोगों को अस्मिता संघर्ष के लिए लड़ना आवश्यक है। अतः हमारे यहाँ का महिला या दलित लेखन इसके पहले कि अपनी अस्मिता को पूर्ण रूप से उजागर करें हम उसे हश-हश की मुद्रा में सब चुपचाप समेटना चाहते हैं। अभी तो डॉ. धर्मवीर प्रेमचंद को सामंत का मुंशी कह ही रहे हैं पर तभी दलित अस्मिता का स्त्री अस्मिता के साथ ऐसा ज़बरदस्त टकराव हो गया कि डॉ. धर्मवीर हमारे लिए अछूत हो गए ; हमारे लिए यानी सत्ता एवं विचारधारा-केन्द्री दलितों और सवर्णों के लिए। हम अभी इस उत्तर-आधुनिक स्थिति के आरंभ में ही हैं। हम अभी विचारधारा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
वैश्विक संदर्भ में अवश्य ही मनुष्य समाज उत्तर आधुनिक समाज बन गया है। इसे हम इस रूप में देख सकते हैं कि आज का मानव समाज जितना अधिक संचार क्रांति से जुड़ा है उतना इसके पहले कभी नहीं था। संप्रेषण के इतने अधिक संसाधन और मनुष्य-मनुष्य के बीच इतना अधिक दुराव, झूठ, संशय और अकेलापन इतना अधिक कभी नहीं देखा गया।
मनुष्य मात्र को समान मानने वाले संघर्ष, आंदोलन, कानून आदि इस उत्तर-आधुनिक दौर की विशेषता है। इसका बयान तथा इसके प्रति लोक-मत खड़ा करने की क्षमता जितनी इस युग में देख जा सकती है, इतनी इसके पहले कभी नहीं थी।
धर्म, भाषा, संस्कृति के प्रति नए सिरे से समाजों और देशों में रुचि जागती हुई देखी जा सकती है। लेकिन इनके पीछे रही राजनीतिक एवं बाज़ार-केन्द्री दृष्टि इसके पहले नहीं थी।
मुक्त-बाज़ार और संचार-क्रांति का लगभग हमारे यहाँ एक साथ आगमन हुआ। अतः 1980 के बाद का समय अपने पहले के समयों की तुलना में एक अलग रूप में हमारे सामने प्रकट हुआ। यह अलग बात है कि साहित्य में इन का प्रवेश कुछ बाद में होता है। इस समय के आरंभिक दौर में अवसर एक बड़ी बात थी। सीमित हाथों एवं संस्थाओं से निकल कर अवसर ज़्यादा हाथों में पहुँचे। केवल सेवा-भावी अथवा सरकारी तंत्रों से हट कर अवसर ग़ैर-सरकारी संस्थानों में भी पहुँचे। विदेशी पूंजी कई स्रोतों से बहते हुए भारत की भूमि को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आप्लावित करती रही। एक तरफ़ अपने ढाँचे में सब को समा लेने का अंतर्राष्ट्रीय उपक्रम तो दूसरी तरफ़ अपनी पहचान के लिए संघर्ष की भूमिका बनाते जाति एवं छोटे राष्ट्रों के समूह कार्यरत हुए। अपनी पहचान को अपनी जाति की पहचान से मिलाते अ-श्वेत, दलित एवं नारी वादी और अपनी पहचान को अपनी ज़मीन से जोड़ते उत्तराखंडी, झारखंडी, छत्तीसगढी – यह सब एक ही समय में घट रहा है। जिन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का निर्माण विश्व-शांति एवं विकास पर केन्द्रित था वे संस्थाएं बली राष्ट्रों की राजनीतिक उपयोगिता के लिए व्यापक सहमति बनाते हुए काम करने लगी। परिभाषाओं को अपने ढंग से व्याख्यायित करने का इतना अद्भुत अवसर इसके पहले कभी नहीं आया। शब्दों के अर्थ तो हमेशा ही बदलते रहे हैं, परन्तु इसके पूर्व सच-झूठ को कभी एक ही भूमिका पर परस्पर का वेष बदलते किसी ने नहीं देखा होगा। मानों यह वही दुनिया है , परन्तु यह कोई और ही दुनिया है इसकी प्रतीति इस समय की सबसे बड़ी विशेषता है।
जिन बातों का हमने उल्लेख किया है उनके कारण समाज में क्या परिवर्तन आए और समाज के किन मूल्यों में बदलाव आया यह जानना और हमारे साहित्य में इसका प्रतिबिंबन कैसे हुआ यह जानना रोचक होगा। इसके लिए संभवतः साहित्य में उत्तर-आधुनिक विमर्श की भूमिका को समझना समीचीन होगा। स्वतंत्रता बाद के हमारे सभी वादों और विमर्शों की तरह, उत्तर-आधुनिक विमर्श भी पश्चिम के प्रभाव से हमारे यहाँ आया। उत्तर-आधुनिक विमर्श में जिन नामों का विशेष उल्लेख होता है वे प्रायः 1925-1952 के बीच पैदा हुए हैं –
गिल्स डिल्यूज़ (1925-1995), फेलिक्स ग्वातारी(1930-1992), ज़्याँ बॉद्रिलार्द,(1929) फ्रेडरिक जेम्सन(1934), जेराल्ड विज़नर (1934) बार्बरा क्रिश्चीयन,(1943) डॉन्ना हारावे, (1944), बैल हूक्स,(1952) ज़्याँ फ्रेंकोई ल्योतार्द, आदि।
इन रचनाकारों को पढ़ते हुए उत्तर-आधुनिक समाज का एक मुकम्मल चित्र हमारे सामने स्पष्ट होता है। फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार – आधुनिक का जन्म अगर साम्राज्यवादी पूँजीवाद का परिणाम था तो उत्तर-आधुनिक समकालीन ग्राहक-केन्द्री पूँजीवाद की रूपगत विचारधारा से वि-लक्षित की जा सकती है। अर्थात् हम साम्रज्यवाद से चल कर अब ग्राहक केन्द्री हुए। यूं अब यह नई बात नहीं है कि उत्तर आधुनिक को सर्व प्रथम वास्तुकला के संदर्भों से पहचाना गया। यहाँ महत्व दिए हुए स्पेस में अतिरिक्त स्पेस-निर्मिति का है। सन् 1980 के बाद हमारे यहाँ भी ऐसे मकान बनाने का प्रचलन हुआ जिसमें एक ही मंज़िल में एकाधिक मंज़िलों का आभास उत्पन्न किया गया। उत्तर-आधुनिक समय आभासी स्पेस-निर्मिति के समय के रूप में भी जाना जा सकता है। इस आभासी स्पेस-निर्मिति का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह दौर परिधि पर रहते कई सारे समूहों के लड़ने और अपना स्थान बनाने का है। इन्हीं समूहों को हम स्त्री, दलित, अश्वेत, जन-जातीय, ग्रे, लेस्बीयन आदि के नाम से पहचानते हैं।
ज़्याँ फ़्रेंकोई लियोतार्द उत्तर आधुनिक तथा आधुनिक के बीच अंत को तीन बिन्दुओं के जरिए अलगाते हैं। वे यूक्लीडियन मिथ को तोड़ कर नए आकारों की निर्मिति संभव बनाते हैं। यूक्लीडियन भूमिति में स्पेस को दो अथवा तीन आयामी माना गया है। जबकि फ़्रेंकोई लियोतार्द उत्तर-आधुनिक समाज में अनेक आयामी वास्तविकताओं का स्वीकार है। यहाँ मुझे एक बात जोड़नी चाहिए कि उत्तर-आधुनिक स्थितियों में हम केवल का, समाज-व्यवस्था, फ़िल्म, राजनीति, मीडिया या साहित्य तक ही सीमित न रहें, बल्कि इसमें विज्ञान को भी शामिल करना चाहिए क्योंकि उत्तर-आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि भी इसे स्वीकारती है। भौतिक-शास्त्र की चर्चित स्ट्रिंग-थियोरी भी उत्तर-आधुनिक है और वह भी बहु-अंतीय यथार्थ का समर्थन करती है। इसी String Theory के कारण विज्ञान-जगत में एक हलचल-सी मच गई थी।
इसी संदर्भ में यहाँ डॉन हारावे का विशेष उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि वह मूलतः विज्ञान की विद्यार्थिनी थीं; फिर उन्होंने भाषा और साहित्य का अध्ययन किया एवं जीव-विज्ञान तथा साहित्य का अन्तर्विद्याकीय विमर्श प्रस्तुत करने की कोशिश की। यों उत्तर-आधुनिक विमर्श अन्तर्विद्याकीय विमर्श बन जाता है। इस बात को आप इधर पाठ्यक्रमों की पहल में भी देख सकते हैं।
उत्तर-आधुनिक विमर्श को वास्तुकला के साथ-साथ समाज की विकास संबंधी अवधारणा के साथ भी देखने का प्रयत्न किया है। पिछली दो शताब्दियों से प्रचलित विकास की यह अवधारणा – कि- कला, तकनीक, ज्ञान और मुक्ति समग्र मानवता का विकास करेगी- का क्षरण हुआ। यह आधुनिकता की परियोजना थी। देखा यह गया कि विश्व-युद्ध, आर्थिक एवं राजनीतिक मुक्ति-गाथाएँ, विभिन्न प्रकार के मार्क्सवादी विचार- किसी के भी द्वारा समग्र मानवता का विकास नहीं हुआ। असल में आधुनिकता ने समग्र मानव-जाति को दो भागों में बाँट दिया। एक मानव-समाज वह था जो जटिलताओं की चुनौती से टकराता रहा और दूसरा वह जो जीवित रहने की आदिम स्थिति से जूझता रहा।
आधुनिकता में आँवागार्द की बड़ी महिमा थी। आँवागार्द- जो परंपरा, प्रचलन और स्वीकृति को नकारता हुआ-सा एकदम अलग नेतृत्व करता दिखाई पड़ता था। लियोतार्द ने इसी को तीसरा बिन्दु बताते हुए कहा है कि अब आँवागार्द मज़ाक़ और ठिठोली का विषय है। अब कोई आँवागार्द नहीं बनना चाहता। यह भूतकाल है। अब उत्तर-आधुनिक दौर में समूह का नेतृत्व है। फिर चाहे वे अ-श्वेत के हों, दलित के हों, ग्रे-लेस्बीयन के हों या स्त्रियों के हों। इसी बात को हम अपने यहाँ भी देख सकते हैं। हमारी ही मिली-जुली सरकार 1979 में आई थी। उसके बाद संभवतः एकाध अपवाद को छोड़ कर, एक पार्टी सरकार हमें आज तक नहीं मिली है।
उत्तर-आधुनिक समाज मुख्यतः अनुपस्थिति को दर्ज करता समाज है। जो अब तक अनुपस्थित था वह इस दौर में उपस्थित होने की प्रक्रिया में है। यह अंग बात है कि इस उपस्थित होने की प्रक्रिया में वह कई बार अपनी मुक्ति/स्वतंत्रता और व्यक्तिगत पहचान को खो देता है। पर जैसा हमने देखा कि कहीं-न-कहीं उत्तर-आधुनिक व्यक्तिगत पहचान को महत्वपूर्ण इस अर्थ में नहीं मानता कि यह विभिन्न समूहों के अधिकारों की, पहचान की लड़ाई एवं संघर्ष का समय है। बहरहाल। जेराल्ड विज़नर ने अपनी पुस्तक मैनीफैस्ट मैनर में सभ्य समाज में ज-जातीय अनुपस्थिति को प्रभावी ढंग से रेखांकित किया है। राष्ट्रीयता के नाम पर तमाम संस्कृतियां होम हों गई। इस उत्तर-आधुनिक दौर में इतिहास को देखने की दृष्टि भी परिवर्तित हो गई है। अब इतिहास को आधिपत्य की आभासी प्रतीतियों के रूप में देखा जा सकता है। इन आभासी प्रतीतियों में से एक है- जन-जातीय की उपस्थिति। अर्थात् अब हम इतिहास को एस तरह देखते हैं अथवा देख सकते हैं कि किस के कारण कौन अनुपस्थित हुआ। यानी कि हम कह सकते हैं कि अँग्रेज़ आधिपत्य के कारण भारतीय अनुपस्थित हुआ; पुरुष-वर्चस्व के कारण स्त्री अनुपस्थित रही; सवर्ण के वर्चस्व के कारण दलित अनुपस्थित रहा; राजनीतिक आधिपत्य के कारण जनता अनुपस्थित रही आदि आदि। इसी अनुपस्थिति से लड़ने के लिए उत्तर-आधुनिक समाज में छोटे-छोटे समान सामाजिक अथवा राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक अथवा बॉयोलॉजिकल समूह सक्रिय हुए हैं। इन्हें हम परिधि के लोग कहते हैं। उत्तर-आधुनिक समय इन्हीं की अभिव्यक्तियों का समय है।
यहाँ एक बात की और ध्यान दिलाना आवश्यक है कि उत्तर-आधुनिक समय अगर राजनैतिक एवं सामाजिक लघुमतियों की अभिव्यक्तियों का दौर है तो उसे समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि इस दौर की ये अभिव्यक्तियां अपने पूर्ववर्ती दौर से कैसे अलग थीं? डिल्यूज़ और ग्वात्तारी का कहना है कि काफ़्का ने सत्ता की भाषा में अपनी यहूदी लघुमति संस्कृति को चाहे अपनी कृतियों में प्रकट किया; पर इतना काफ़ी नहीं है। क्योंकि वह असल में सत्ता की ही भाषा में सत्ता की ही सोच को लघुमति संस्कृति से मिला कर लघुमति का साहित्य निर्मित करता है। डिल्यूज़ और ग्वात्तारी के अनुसार यहूदी होना ही काफ़ी नहीं है; यहूदी बना और बने रहना ज़रूरी है। इस परिप्रेक्ष्य में म हिन्दी समीक्षा की इस पहेली को संभवतः सुलझा सकते हैं कि दलित साहित्य और नारी साहित्य की परिभाषा में कौन-सा साहित्य शामिल किया जा सकता है। दलित या स्त्री होना काफ़ी नहीं है; वैसा होना, बनना और बने रहना ज़रूरी है। अगर हम दलित हैं, बनते हैं और बने रहते हैं तब हमारी संवेदना उत्तर-आधुनिक संवेदना मानी जा सकती है। प्रेमचंद के कथा-साहित्य के दलित और मनोहर श्याम जोशी के 'क्याप' का दलित इस मायने में अलग है। अमृत लाल नागर की निर्गुण को इस संदर्भ में देख सकते हैं। वह थी नहीं, पर बनी और बने रहने की उसने कोशिश भी की। पर यहाँ प्रश्न यह भी है कि प्रेमचंद या मनोहर श्याम जोशी या अमृत लाल नागर का दलित या जगदीश चंद्र का धरती धन न अपना का काली, ओम्प्रकाश वाल्मीक के दलित से क्या भिन्न नहीं होगा? उसी तरह डॉ हजारीप्रसाद का कबीर क्या डॉ. धर्मवीर के कबीर से अलग होगा?
अगर हम कुछ देर के लिए लौट कर ओबामा पर आएं, तो अब साहित्य के क्षेत्र में भी यह समझने का वक़्त आ गया है कि डॉ. धर्मवीर का कबीर जब तक सर्व-स्वीकृत कबीर नहीं बनता तब तक यहाँ उत्तर आधुनिक संघर्ष का आरंभिक काल ही बना रहेगा। यहाँ अभी उत्तर-आधुनिक की समाप्ति के आरंभ में देर है। हम असल में आज भी कई सारी शताब्दियों में एक साथ जीने वाले देश के लोग हैं।
काम के विषय में तथा काम-जन्य संबंधों के संदर्भों में डिल्यूज़ और ग्वात्तारी का कहना है कि लोगों की दृष्टि में हम काम के विजातीय वर्ग में चाहे आते हों, पर संभव है कि निजी तौर पर हम सजातीय हों और हो सकता है कि अंत में हम ट्रांस् -सैक्श्युलिटी की दिशा में जाएं। मनुष्य के अस्तित्व को लेकर रही इस मूल भावना के संबंध में उत्तर-आधुनिक समाज अपने पूर्ववर्ती समाज से काफी भिन्न है। यह वही समय है जब विश्व-भर में गे, लैस्बीयन एवं ट्रांस्सैक्श्युअल समाजों ने अपनी स्वीकृति तथा सामाजिक एवं राजनैतिक अधिकारों को ले कर संघर्ष किया था।
[i] भारत में भी इसका प्रभाव देखा गया। हिन्दी साहित्य में भी इसके कुछ उदाहरण मिल जाएंगे। राजकमल चौधरी का ‘मछली मरी हुई’ इसके आरंभिक उदाहरणों में गिना जा सकता है। आज अनेक फिल्मों में इस कथ्य को आ देख सकते हैं। इसकी संवेदना पूर्ण शुरुआत आप कुँवारा बाप में देख सकते हैं। आज फिल्मों में पुरुष चरित्रों द्वारा स्त्री वेष धारण करना आम बात हो गई है। पहले स्त्री की अनुपस्थिति के कारण नाटकों, लोक-नाट्यों में पुरुष, स्त्री किरदार निभाते थे। आज कहानी या प्लॉट के एक भाग के रूप में चाची 420 जैसी फिल्मों में यह बात एक नए अर्थ में देखी जा सकती है। डिल्यूज़ और ग्वात्तारी पश्चिमी समाज की वंश-वृक्ष की परिकल्पना को सिरे से नकारते हैं, क्योंकि उसमें स्त्री की उपस्थिति नहीं है। इसके स्थान पर वे ‘रिझोमेटिक चिंतन’ की दिशा में जाते है, जहाँ स्त्री का भी समावेश होता है - चाहे वह नैतिक/वैध संबंधों के कारण अथवा अनैतिक संबंधों के कारण परिवार से जुड़ती है। रिझोमेटिक –एक ऐसी वानस्पतिक परिकल्पना है, जिसका कोई निश्चित केन्द्र नहीं है और जिसके अनेक सिरे हो सकते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि आज इसी समाज में वेश्या, कॉल-गर्ल, रखेल से अलग लिव-इन संबंधों की स्त्री भी मौजूद है; जो न पत्नी है, न ही प्रियतमा। आज उसके भी वैध अधिकारों की बात उठ रही है। ‘रिझोमेटिक चिंतन’ यानी है की अपेक्षा ‘होना’ और ‘होते जाना’।
उत्तर-आधुनिक साहित्य में अर्थ को महत्व नहीं देते अपितु रचनाकारों को पढ़ते हुए वे उन बिंदुओं को खोजने की कोशिश करते हैं जहाँ रचनाकार सत्ता की संस्कृति से अपने को अलगाते हैं। यहीं से संभवतः एक अन्तर-पाठीयता का प्रवेश होता है। एक पाठ में दूसरा पाठ पढ़ना। परंपरागत पुरुष-पाठीय साहित्य में स्त्री-पाठीय शोषण और अधिकारों के बिंदु देखना। यही उत्तर-आधुनिक साहित्य दृष्टि है।
आज साहित्य के पाठ में मीडिया का अपना पाठ है। एक और जहाँ प्रेमचंद की ईदगाह कहानी में विज्ञापन का पाठ एक सकारात्मक पक्ष है वहीं महाभारत की द्रौपदी के अपमान प्रसंग को ऊनी कपड़ों के विज्ञापन में इस्तेमाल करना, साहित्य का विकृत मीडिया पाठ है। बहरहाल, हिन्दी में उस दीवार में एक खिड़की रहती थी (विनोद कुमार शुक्ल), कसप, क्याप (मनोहर श्याम जोशी), एक ब्रेक के बाद (अलका सरावगी का) हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक उदाहरण हैं। उत्तर-आधुनिक तक आते-आते हम यथार्थ की नई भूमि पर आ गए हैं। आदर्शवादी यथार्थ से चलते हुए प्राकृत यथार्थवाद, ऐतिहासिक यथार्थवाद, भौतिक यथार्थवाद, अति-यथार्थवाद और अब वर्च्युएल यथार्थवाद। आभासी यथार्थवाद का यह उत्तर-आधुनिक समाज, जीवन का वास्तव बन चुका है। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है और कोई चुनाव भी नहीं है; क्योंकि हम इस उत्तर-आधुनक समय में हैं, और हैं ही।

[i] यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है कि समाज के इन लोगों के वर्ग पहचाने गए। आधुनिक काल तक ये सब अकेले, अलग-थलग पड़े रहते थे। आधुनिक काल में जहाँ स्थापित समाज के सदस्य आँवागार्द बन कर अलग दिखने का प्रयत्न कर रहे थे, वहीं उत्तर-आधुनिक समय में उपेक्षित अ-पहचाने ये अलग-थलग पड़े लोग समूह बना कर अपनी पहचान स्थापित करने में लगे थे।

2 टिप्‍पणियां:

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