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बुधवार, 7 मई 2014

आपको बाज़ार से जो कहिए ला देता हूँ मैं.......

 

 Writing on the wall अर्थात् किसी के भी बारे में एक तरह का निर्णयात्मक लेखन। कई बार किसी पुस्तक के फ्लैप पर लिखी सामग्री writing on the wall जैसी हो जाती है। मुझे नहीं पता कि सेप्पुकु उपन्यास का फ्लैप लेखन किसने किया है, पर इस उपन्यास के संभवित पाठकों को यह 'भित्ति-लेख' तो पढ़ना ही पड़ेगा; अगर पहले नहीं, तो चाहे वह उपन्यास पढ़ लेने के बाद ही उसे पढ़ें ; क्योंकि संभवतः इस उपन्यास को समझने के लिए भी फ्लैप का पढ़ा जाना आवश्यक है;  कुछेक सूत्र तो आपको अवश्य मिल सकते हैं।

यह कहना आवश्यक है कि 'सेप्पुकु' कोई मस्ट रीड उपन्यास नहीं है। आप उसे नहीं भी पढेंगे, तब भी आपके जीवन में कुछ अधूरा या सूना नहीं रह जाएगा। उसी तरह, उसे पढ़ लेने के बाद, आप जीवन के किसी अमूल्य सत्य या विलक्षण अनुभूति से नहीं गुज़रने वाले। तो सवाल यह है कि क्या सेप्पुकु को पढ़ा जाना चाहिए और अगर पढ़ा जाना चाहिए तो क्यों? इन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर में ही इस प्रश्न का उत्तर नहित है कि मुझे 'सेप्पुकु' पर लिखना क्यों ज़रूरी लगा।'सेप्पुकु' विनोद भारद्वाज द्वारा लिखित संभवतः एक, न भूतो न भविष्यति कृति है। इस विधान को आप एक सूत्रात्मक वाक्य के रूप में लें, गुणात्मक वाक्य के रूप में न लें। क्योंकि इस कथन से उपन्यास की गुणवत्ता नहीं बढ़ती, बल्कि, उपन्यास को समझने में मदद मिलती है। न भूतो न भविष्यति  इसलिए कि यह हमारे वर्तमान जगत में से एक अत्यन्त कठिन एवं जटिल कथ्य को लेकर लिखा गया उपन्यास है। सामान्य आदमी को बाज़ार जिस तरह प्रभावित करता है, उस तरह कला से जुड़े लोगों को नहीं करता। बाज़ार आम आदमी का भौतिक जीवन दुःसह  बना देता है। फिर भी उसके जीवन  मूल्यों पर अधिक असर नहीं पड़ता। पर बाजार जब कला जगत में प्रवेश करता है तो वह उसकी जड़ों तक जा कर उसके मूल्यों को ख़त्म कर देता है;  जो कहीं- न- कहीं समाज की मूल्य व्यवस्था पर असर डालता है। कला अगर संस्कृति का हिस्सा है, तो बाजार इस संस्कृति की जड़ों को किस बेशर्मी से नष्ट करता है, इसका उदाहरण यह उपन्यास है।
विनोद भारद्वाज को कला की दुनिया का चार दशकों का अनुभव है, जो पिछले कई वर्षों से लिखे जाने पर भी अगर यह 100 पृष्ठों में ही आ पाया है (पृ 7-पृ 103 तक) तो सोचना यह है कि शिल्पी (विनोद भारद्वाज) ने कितना अनावश्यक पत्थर काट कर तराशा होगा और यह मूर्ती गढ़ी होगी। आधुनिक काल से लेकर यानी नयी कला से ले कर उत्तर- आधुनिक कला- दुनिया की यात्रा का सारा निचोड़ इन 100 पृष्ठों में उपन्यासकार ने प्रस्तुत कर दिया है। इस उपन्यास में कुल 11 अध्याय हैं। अतिम चार पृष्ठों के अध्याय को छोड़ें तो प्रत्येक अध्याय 7-10 अथवा 11 पृष्ठों की सीमा में है। आधुनिक काल में आत्महत्या का दार्शनिक मुद्दा बहुत प्रसिद्धा हुआ था उसका वैचारित बिन्दु (अस्तित्ववादी जीवन दर्शन)  विद्रोह, क्रांति और सिस्टम से लड़ने का एक हथियार था,  वह, उत्तर-आधुनिक काल में आ कर अपना अर्थ बदल देता है। व्यवस्था का विरोध अब शर्म का पर्दा बन जाता है। अपने अपयश को छिपाने के लिए आत्महत्या को सेप्पुकु जैसे शब्दों में लपेटकर प्रस्तुत किया जाता है। यहाँ तक पहुँच कर आत्महत्या कलाकार के विद्रोह का नहीं अपितु बेचारगी का सबब बन जाता है, जिसे, दुर्भाग्य से इस बाज़ार में बेचा जा सकता है। इसे पिछले ज़मानें के बचे रह गए व्यवस्था-विरोध के मूल्य का अवशेष माना जा सकता है; पर वास्तव में सत्य यह है कि आत्महत्या करना आज कलाकार की कला-नियति भी हो सकती है। इसे किसी भी तरह के अच्छे या बुरे अथवा नैतिकता या अनैतिकता जैसे मूल्यों के रूप में नहीं देखना चाहिए।मूल्य- ह्रास से मूल्यहीनता(अथवा अ-मूल्यता ?) की तरफ जाने का अर्थ क्या होता है; तब, जब मूल्यहीन होने का अर्थ नेगिटिविटी नहीं, बल्कि अ-मूल्यता हो और यह अ-मूल्यता भी अपनी तरह का एक मूल्य बन जाए ; इस बात को अगर अत्यन्त तटस्थता से समझना हो तो यह उपन्यास पढ़ना आवश्यक है। इस उपन्यास का जो कथ्य है, उससे निकलने वाले जो अर्थ-संदर्भ हैं, वे किसी अन्य तरीक़े से किसी भी अन्य उपन्यास में आ नहीं सकते थे- ऐसा इस उपन्यास को पढ़ कर लगता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस उपन्यास की अर्थ-संरचना एकदम सधी हुई है।पिछले दौर की तुलना एवं समझदारी के संदर्भ में आज आज की घोर मूल्यहीन (पतनशील) स्थितियों को दर्शाता यह कथ्य, केवल कला-जगत को आधार बना कर ही लिखा जा सकता था; हम जिस समाज में रह रहे हैं उसमें किस हद तक मूल्यहीनता प्रवर्तमान है, यह बात कला की दुनिया के मार्फत इसलिए पता चलती है कि कला की दुनिया  सामान्य जीवन से अधिक छूट के साथ जीती है। पहले से ही कला और कलाकारों को यह छूट मिली हुई है कि वे सामान्य लोगों की तुलना में अधिक अमर्यादित जीवन जी सके। यह छूट एक तरह से समाज ने ही उनको दी हुई है; और चित्रकला के अलावा किसी अन्य कला में यह आंतरिक साहस एवं सुविधा ही नहीं है कि वह इस प्रकार के कथ्य के साथ दो-दो हाथ कर सके।दूसरी तरफ यह भी एक सत्य है कि कलाकारों  के प्रति समाज का एक अधिक सम्मान भरा दृष्टिकोण भी है। 'सेप्पुकु' उपन्यास उस सम्मान-रक्षा का आखिरी आवरण हटा देता है। अलग-अलग कला-क्षेत्रों को ले कर हिन्दी में इसके पहले भी इस तरह के उपन्यास लिखे गए हैं। जैसे फिल्म की दुनिया पर सुरेन्द्र वर्मा का 'मुझे चाँद चाहिए' और नाटक की दुनिया पर निर्मल वर्मा का 'एक चिथड़ा सुख'। पर नाटक और फिल्म कंपोज़िट आर्ट होने के कारण उसका कथ्य ही अलग हो जाता है...। उसकी समस्या अलग हो जाती है। प्रस्तुति की कला होने के कारण उसका भीतरी कलात्मक परिवेश और बाहरी सामाजिक परिवेश अलग हो जाता है।  और फिर ये दोनों उपन्यास जिस समय रचे गए थे, तब, अभी कला जगत में भौंडेपन (वल्गैरिटी-  इसको कमीनगी भी पढ़ा जा सकता है) के उस बिन्दु पर नहीं पहुँचा था जहाँ 'सेप्पुकु' पहुँचता है। और चित्रकला एक कंपोज़िट आर्ट नहीं है। यह एकल कला है जिसमें कला का विचार और अभिव्यक्ति- दोनों चित्रकार की चेतना और होने का अंश है; जबकि इस उपन्यास में इसी को (विचार एवं अभिव्यक्ति) बाँट दिया गया है। सेलिब्रेटी चित्रकार सोचेगा और मज़दूर तदनुसार चित्र बनाएगा जिसकी क़ीमत कला के सौदागर तय करेंगे। औद्योगिक क्रांति के बाद मज़दूर का अपने उत्पाद से अलगाव हो जाता है क्योंकि वह उत्पादन की पूरी प्रक्रिया का एक हिस्सा भर है। पर आज के दौर में चाहे सर्जक चित्रकार हो, चाहे कर्मिक चित्रकार हो, गैलेरी की मालिक हों  खरीददार हो या बेचनवार, हरेक की रुचि केवल वर्तमान और भविष्य में प्राप्त होने वाले धन को केन्द्र में रखे हुए है। आधुनिक काल में पूँजी के चरित्र और उत्तर-आधुनिक काल में पूँजी के चरित्र के बीच रहे इस अंतर को विनोद भारद्वाज ने बताया है।ईमानदारी की बात तो यह है कि इस उपन्यास के शीर्षक ने ही सबसे पहले मुझे आकृष्ट किया था। (जब किताब का मुखपृष्ट नहीं देखा था, तब भी)। इस उपन्यास का सेप्पुकु  के अलावा कोई और शीर्षक संभव ही नहीं था। कला जगत के घिनोने और भोंडे यथार्थ के लिए ऐसा ही एक पहेली जैसा नाम अपेक्षित था।[i] उपन्यास में लेखक ने 'सेप्पुकु' का अर्थ समझाया है। यह एक तरह की हाराकीरी है। हाराकीरी यानी आत्महत्या। इस उपन्यास का दूसरा ही अध्याय इस नाम से है। 'सेप्पुकु का संबंध कॉर्पोरेट कला से है, आर्ट मार्केट से है और यही कला बाज़ार जब फलता-फूलता है और तो फेक आर्ट का धंधा भी फलने फूलने लगता है।' कला का कॉर्पोरेट अवतार, फेक कला और पेज थ्री संस्कृति ने कला की असली ज़मीन ही बदल दी है। अब कला की दुनिया में आर्ट गैलेरी के मालिक और मालकिनें, सेलीब्रेटी चित्रकार होना, फेक कला, कला को ऑथेंटिकेट करने का चक्कर, नकली ख़रीददारी, कला की मजदूरी करने वाले कलाकारों का जीवन और नैतिकता जैसे मुद्दों को इस उपन्यास में स्थान मिला है। कॉर्पोरेट कला -- यह एक नयी बात आयी। जैसे एक स्थपति इमारत बाँधने के लिए पहले योजना बनाता है और मज़दूर उसके अनुसार काम करते हैं, उसकी कल्पना को साकार करते हैं, वैसा ही चित्रकला के क्षेत्र में हुआ है। चित्रकला में विचार और रंग संयोजन सेलीब्रेटी कलाकार का होता है, उस पर काम यानी मज़दूरी तो अन्य कलाकार करते हैं। जब चित्र तैयार होता है, तो चित्रकार उस पर अपने हस्ताक्षर करता है। चित्र की कीमत हस्ताक्षरों के ऑथेंटिकेशन से तय होती है। चित्रकार की अनुपस्थिति में कोई निकटस्थ भी यह काम कर लेता है। इन सभी के लिए पैसों का लेन-देन होता है। चित्रकला की इस घिनौनी दुनिया में धन और सेक्स का जितना भौंडा रूप हो सकता है, उसे विनोद भारद्वाज ने खुले ढंग से लेकिन फिर भी यथा संभव संयमित तरीक़े से( संक्षेपीकरण भी एक तरह का संयम है) प्रस्तुत किया है। जैसे न्यूड पेंटिंग होते हैं। न्यूड होने के कारण वे खुले ही होते हैं परन्तु पेंटिंग होने के कारण वे कलात्मक संयम के साथ प्रस्तुत होते हैं।इस उपन्यास में बलदेव और प्रतापनारायण के माध्यम से दो छोटी जगहों से आने वाले कलाकारों की कला यात्रा को आधार बना कर पूरे चित्रकला जगत की उन सच्चाइयों को उजागर किया है जिसे विनोद भारद्वाज जैसा ही कोई बता सकता था; क्योंकि उनका संबंध इतने लंबे समय से इस कला की दुनिया से रहा है। विनोद भारद्वाज ने चित्रकला जगत में व्याप्त सभी तरह के व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक संबंधों को बेरहमी से प्रस्तुत किया है। कॉर्पोरेट जगत के चित्रकला में प्रवेश के कारण जिस तरह बलदेव जैसे लोग, अधिक क्षमतायुक्त होने के बावजूद एक दलाल बन कर रह जाते हैं और कमर्शियल आर्ट सीखा हुआ सामान्य व्यक्ति , प्रतापनारायण कला जगत में सेलीब्रेटी बन जाता है; लेखक ने इसकी करुण कथा अत्यन्त निर्ममता से उजागर की है। 'एक ग्रेटकैशर की आत्मकथा'  शीर्षक वाले अध्याय में लेखक ने इस करुण कथा का बयान किया है। जिसे मार्केट उठाता है उसे जीवन में सब कुछ मिलता है और जिसका मार्केट नहीं है उसकी अपनी कला भी उसकी सगी  नहीं है। मार्केट ही तय करता है कि कौन अधिक क्षमतायुक्त है। अपना खराब समय आने की भनक पाते ही प्रताप जैसे कलाकार को सेप्पुकु कर लेना पसंद करना पड़ता है। प्रताप का कोमा में जाना और मरना एक तरह से इस बात का संकेत है कि आज के समय में बाज़ार ही आपको कोमा में डालता है और आपको आत्महत्या की दिशा में ले जाता है। मार्केट आपको एक तरह से मार डालता है। मार्केट के द्वारा की गयी हत्या कलाकार की आत्महत्या के रूप में दिखती है। प्रताप की मृत्यू तब होती है जब वह अपनी प्रसिद्धी के शिखर पर होता है अतः उसकी मृत्यू इतनी करुण नहीं जितनी सुहास हाडे की, जो किसी समय पेज थ्री का सेलीब्रेटी था और मरने पर उसी की गैलेरी में आयोजित प्रदर्शनी में उसका ज़िक्र नहीं होता। बाजार मरने के साथ तभी सहानुभूति रखता है जब उसका उसमें कोई लाभ हो। फिर इसमें सुभाष बाबू, नरेश बाबू और न जाने कितने ही नामी अनामी बाबू हैं जो इस कला बाज़ार के डेली वेजर्स हैं। कला बाजार में आयी, तो जिन्स बन गयी और तो और कितनी भोंडी बन गयी इसकी प्रतीति इस उपन्यास को पढ़ कर होती है।लेखक ने इसकी वस्तु को प्रतापनारायण और बलदेव इन दो पात्रों के कला जीवन के इर्द-गिर्द बुना है। इसके साथ उपन्यास के अन्य कथा अंश जोड़े हैं; कला जगत के अनेक अनुभवों को जोड़ उसकी तमाम आंतरिक सच्चाइयाँ उजागर की हैं। इसमें कुछ वास्तविक कलाकारों का भी उल्लेख है पर चूंकि यह एक कलाकृति है अतः माना जा सकता है कि उनके नाम वास्तविक होंगे, घटना प्रसंग नहीं। फिर इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। कलाकारों को विदेश भेजना, उनकी प्रदर्शनियाँ लगवाना, उनको पुरस्कार दिलवाना, उन पर समीक्षा लिखना और लिखवाना --- इसका संबंध कला के मेरिट से नहीं है, बल्कि कला की राजनीति और कला के बाजार से जुड़ी है यह पता चलता है।अचानक हमें लगता है कि साहित्य में भी तो ऐसा ही होता है—कमोबेश। चित्रकला का जगत दृश्यमान (विजुएल) अतः यहाँ भी सब दिखाई पड़ता है।  साहित्य में वह इतना दृष्टिगोचर नहीं है। केवल चिंतन और चेतना के स्तर पर विद्यमान है। बस यही इस उपन्यास की सफलता है ! विनोद भारद्वाज नें असल में कॉर्पोरेट दुनिया और मार्केट के कला में दखल को इस तरह खोल कर रख दिया है कि यह उपन्यास हमारे उत्तर आधुनिक समय का एक कलापरक दस्तावेज़ बन गया है। आधुनिक काल तक तो शर्म, हया जैसे मूल्यों के ह्रास की चिंता कवियों और आलोचकों को थी; यानी कि वो मूल्य थे ; परन्तु बाजार के इस दौर में इनकी न आवश्यकता है,  न ही कोई ज़िक्र...... दे जस्ट डोन्ट एग्ज़िस्ट .... । अपने पाँव जमाने की कोशिश करता प्रताप नारायण रस्तोगी जैसा चित्रकार इस बात से शर्मसार नहीं है कि किसी समय अपने गुरुवत् रहे अध्यापक से बड़े शहर में एक घंटा बिताने के पैसे ले। साथ में खाना पीना भी। वहाँ दूसरी ओर गुरु भी कम नहीं है। इसके पहले कबी उसने रस्तोगी के सामने चूम लेने की चाहना जैसा निवेदन किया था। गुरु –शिष्य के संबंधों में आयी परिवर्तन की वास्तविकता का भी यहाँ निदर्शन है।  किसी के साथ बिताए हुए समय की कीमत वसूलने की हकीकत आधुनिक काल तक वेश्याओं या कॉल गर्ल्स तक सीमित थी; पर इस मूल्यहीनता अथवा अ-मूल्यता के दौर में इसका भी विस्तार हो गया है।
           

[i] सेप्पुकु, विनोज भारद्वाज, वाणी प्रकशन, दिल्ली, 2014 प्रथम संस्करण, मूल्य 200 रूपए, हार्ड बाउंड, 103 पृष्ठ, आइ.एस.बी.एन