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बुधवार, 29 मई 2013

गुजराती और हिन्दी अन्तःसंबंध के चौराहे पर



भाषाओं की नस-नस एक दूसरे से गुथी हुई है
(मगर उलझी हुई नहीं)
हमारी साँस-साँस में उनका सौन्दर्य है
(मॉ ड र्निस्  टिक्) कहो मत
अभी हमें लड़ने दो।[1]
गुजरात और हिन्दी के अन्तःसंबंध पर बात करते हुए अनायास ही  शमशेरजी की इस कविता का स्मरण हो आता है। विशेष रूप से इसलिए कि आज हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के परस्पर संबंध की जो भूमिका बन रही है उसे हमारे मनीषी कवि शमशेर बहादुर सिंह ने किस तरह देखा है-
यह स्टेज महान
मूर्खों के लिए है
आह  यह आधुनिक स्टेज
परिस्थितियाँ हीरो हैं
और यांत्रिक राजनीति हिरोइनें
जितने ही भाषा प्रदेश और देश उतने ही अंक हैं
इस नाटक के ![2]
मेरा आशय इस  पूरी कविता का विश्लेषण करने का नहीं है अपितु इस कविता के द्वारा कवि ने भाषाओं की राजनीति और उसके करुण परिणामों की ओर संकेत किया है, उसका निर्देश करना है। [i]  आज अपने ही भूमि पर गुजराती और हिन्दी की अन्तःसंबंधता पर  अपनी बात का आरंभ  करते हुए मैं कुछ उदासी-का –सा अनुभव  भी कर कर रही हूँ।  उदासी के कारणों की चर्चा फिर करेंगे  पहले तो मैं इस मंच की आभारी हूँ कि अन्तःसंबंधता की चर्चा के बहाने मैं पुनः गुजरात में हिन्दी की स्थिति के मुद्दे को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर ला पा रही हूँ।  आज मेरी ही तरह गुजरात के अन्य अनेक हिन्दी के अध्यापकों को यह भूल जाना पड़ रहा है कि हमारे राज्य की दूसरी राजभाषा हिन्दी है।  इस समय गुजरात में हिन्दी अध्यापन अध्ययन घोर संकटपूर्ण स्थितियों में है तथा राजकीय नीतियों के अनेक स्तर- प्रस्तरों के नीचे दब गया है। इतना कि उससे उबरने की कोई तात्कालिक उम्मीद नज़र नहीं आती।  इस बात का समर्थन यहाँ बैठे गुजरात में हिन्दी पढ़ा रहे  सभी अध्यापक करेंगे। मुझे इस बात का भी उल्लेख करना चाहिए कि दक्षिण गुजरात के हिन्दी प्राध्यापकों ने राज्य सत्ता की हिन्दी - नीति का विरोध करते हुए संगठित रूप से सबसे पहले  मशाल उठाई थी, जिसके प्रकाश -बिंब अब भी देखे जा सकते हैं ; यह आयोजन इसका उदाहरण है। सूरत से छप रहे ताप्तीलोक ने इस संकट को वाचा दी थी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि  व्यक्तिगत स्तर पर, सामाजिक स्तर पर अथवा  सांस्कृतिक स्तर पर जब भी चोट लगती है  उस पर कविता या साहित्य ही मलहम लगाता है। शमशेरजी  भी ज़माने की चोट खाए हुए थे संभवतः, तभी  भाषा-संबंधी, अभिव्यक्ति संबंधी विवादित तथा आहत मन की पीड़ाएं  वे जानते थे। उन्हीं की भाषा में कहूँ तो गुजरात में हिन्दी का अक्स बहुत गहरे तक उतर गया है। उसकी जड़ें गुजरात की धरती में गहरे तक उतर चुकी हैं। एक तरह से हिन्दी भाषा, गुजरात प्रदेश की पसलियों में उसी तरह समाहित है जिस तरह मनुष्य की पसलियों में व्यंजन तथा उनके बीच में स्वर होते हैं।
मगर मेरी पसली में हैं
व्यंजन
और उन्हीं के बीच में हैं स्वर[3]
(उसे मेरा ही कहो फिलहाल)
गुजराती और हिंदी के अंतः संबंध को समय के कुछ चौराहों में बाँट दें तो उन पर रुकते हुए चलने का एक आनंद तो मिलेगा ही।
 पहला चौराहा भाषा का है। भाषा और लिपि के संदर्भ में गुजराती और हिन्दी का नैकट्य बड़ा स्पष्ट एवं दृष्टव्य है। लिपियाँ भाषा का कउंटेनंस होती हैं। वे भाषा का वह चेहरा होती हैं जिससे भाषाएं अपनी एक पहचान भी स्थापित करती हैं।  उस दृष्टि से हिन्दी तथा गुजराती की लिपियों में केवल कुछ-एक स्वर व्यंजनों की लिखावट में भेद है। इस बात को तो भूला ही नहीं जा सकता है कि मध्यकाल में गुजराती देवनागरी में लिखी जाती थी । अर्थात्  मध्यकाल तक गुजराती ध्वनियाँ देवनागरी लिपि में पहचान पाती रही हैं। इन दो भाषाओं के बीच जो आपस में गहरा संबंध है उसकी जड़ है- शौरसेनी अपभ्रंश जिसमें से दोनों विकसित हुई हैं। शौरसेनी अपभ्रंश का क्षेत्र मथुरा के आस-पास का रहा है जहाँ की केन्द्रीय बोली ब्रज है। ब्रज का महत्व भक्ति तथा संगीत के कारण इतना अधिक रहा कि उसे भाषा का दर्ज़ा मिला। [4] गुजराती तथा हिन्दी का यह संबंध इन भाषाओं के  परस्पर स्रोत, उच्चारण, लेखन,  साहित्यिक स्वरूपों तक ही सामित नहीं है अपितु व्याकरणगत भी अनेक समानता लिए हुए है। यही कारण है कि गुजरात में हिन्दी कभी भी एक अजनबी अथवा परायी भाषा नहीं रही। 
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ
क ख ग घ , च छ ज झ, ट ठ ड ढ. प फ ब भ म, य र ल व , श, ष स ह, क्ष त्र ज्ञ
અ, આ ઇ ઈ ઉ ઊ એ ઐ ઓ ઔ
ક ખ ગ ઘ, ચ છ જ ઝ, ટ ઠ ડ ઢ પ ફ બ ભ મ, ય ર લ વ, શ ષ સ હ, ક્ષ ત્ર જ્ઞ
उपरोक्त दृष्टांत से यह स्पष्ट है स्वरों की पहचान, शिरोरेखा की अनुपस्थिति एवं कुछेक व्यंजनों की पहचान में फ़र्क है जैसे झ, ज, फ ख, आदि। यूं गुजराती हिन्दी ध्वनियों के पहचान पत्र भी मिलते जुलते हैं। यही वह द्वार है जिसमें से होकर हिन्दी गुजराती का परस्पर जुड़ाव सघन होता गया। मध्यकाल में तो जो गुजराती लिखी जाती थी उस पर शिरोरेखा भी लगती थी।
भाषा के संदर्भ में गुजराती तथा हिन्दी की अंतः संबंधता की स्थिति को समझने के लिए एक समानांतर उदाहरण लिया जा सकता है। हिन्दी प्रदेशों में जब उर्दू हिन्दी की बात होती है तब एक मत यह भी होता  है कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं । इसी तरह यह कहा जा सकता है कि गुजराती भाषा में उर्दू की जड़ें भी उतनी ही गहरी हैं। गुजराती के साथ उर्दू इस कदर घुल मिल गई है कि यह सोचना असंभव लगता है  कि  अगर गुजराती भाषा में से उर्दू  (फारसी) के शब्द निकाल दिए जाएं तो उसकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य कितनी कम हो जाएगी।  गुजराती भाषा एक तरह  से श्रीहीन भी हो जाएगी,ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं माना जाए । अगर यह कहा जाए कि हिन्दी में उर्दू शब्दों के प्रमाण का जितना प्रतिशत है, गुजराती में यह प्रतिशत उससे अधिक ही होगा,  कम तो बिल्कुल भी नहीं होगा ।  इतिहास में इसके कारण मौजूद हैं ही। अतः इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है।
इमसें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि रचना के स्तर पर आज गुजराती में सबसे अधिक लोकप्रिय अगर कोई काव्य विधा है तो वह ग़ज़ल ही है। उसकी जडें भी कितनी दूर तक गयी हैं  ।  वली को आप चाहे दकनी कहें या गुजराती बात एक ही है। तभी  मज़ार टूटी थी तो अन्तः संबंध के इतने पुराने और गहरे संबंध को राजनीति के हथियार से आघात पहुँचाया गया था। पर ग़ज़ल का कोई क्या कर सकता है। गुजरात में ग़ज़ल लाने का श्रेय ही वली को जाता है।  संभवतः इसी के फलस्वरूप  गुजराती भाषा और संवेदना में इस क़दर उर्दू समाविष्ट है, घुली-मिली है कि जो लोग कहते हैं कि गुजरात की रक्तवाहिनी में मुसलमानों के लिए  घृणा बहती है  उन्हें समय के इन चकित चौराहों पर स्थित प्रेम की वाणी को पढ़ लेना चाहिए।[ii] ग़ज़ल प्रेम की ही तो बात करने के लिए पैदा हुई है।   गुजरात में हिन्दी का संबंध सत्ता के कारण नहीं बना है। वह सामान्य जन के , लोक के द्वारा जाँचा तथा परखा गया है। इस लोकतांत्रिक समय में यह सोचना भी  लगभग असंभव-सा लगता  है कि लोक की साख,  सत्ता के कारण गिरे।  अर्थात् सत्ता की भाषा नीति जो भी हो, पर अगर लोक ने किसी बात को मान्य रख लिया है तो सत्ता कुछ नहीं कर सकती। भाषा की सत्ता जब-जब  लोक  की  रही है, वह पराजित नहीं हुई है।  ख़ुसरो से वली तक की हिन्दवी, गूजरी  और दकनी भाषा- परंपरा  वह मूल उत्स है जिससे आगे चलकर हिन्दी और उर्दू दोनों का विकास हुआ है। अतः हिन्दवी भाषा और उसके साहित्य को उर्दू मान बैठना उचित नहीं है।  उसका जितना संबंध उर्दू से है  उससे कहीं अधिक संबंध हिन्दी से है। दकनी हिन्दी के अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है। गूजरी- हिन्दी, हिन्दवी, और दकनी के बीच की कड़ी और दकनी का पूर्व रूप है। [5]  जैसा कि अभी उल्लेख किया कि हिन्दी उर्दू में जो सगापन है वही गुजराती उर्दू में भी है, इस नाते भी गुजराती और हिन्दी में एक अन्तर्संबंध स्थापित होता है।
आज समय के चौराहे पर यहाँ, गुजरात में, और देश में भी, भाषा विवाद, माध्यम विवाद की राजनीतिक तथा लालफीताशाही दुकानें खुली हुई हैं और किंकर्तव्यविमूढ-से  हम मानों अपनी ज़मीन   खो चुके हैं, इस मुद्रा में अपने आप को पाते हैं। । राजनीतिक दाँव-पेंच की  उलझाव भरी सीढियों पर  चढ रहे हैं, उतर रहे हैं। किंतु फिर भी  हमें विश्वास है कि समय के इसी  चौराहे पर हम जो गुजरात में रह रहे हैं अपनी हिन्दी अस्मिता को प्राप्त कर सकेंगे क्योंकि हमें पता है कि गुजरात की धरती तथा रचनात्मकता में हिन्दी की जड़ें बहुत गहरे तक उतर गयी हैं।
दूसरा चौराहा है माध्यम। यह बात भी नई नहीं है कि मध्यकाल में  (लगभग रीतिकाल में )कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला प्रसिद्ध थी।  इस पाठशाला की विधिवत् स्थापना सन् 1747 ईस्वी में आचार्य कनक कुशल एवं उनके शिष्य कुँवर कुशल के संचालन में की गई। ये दोनों राजस्थान के निवासी एवं पिंगल शास्त्र में पारंगत जैनाचार्य थे।  महाराव लखपतसिहजी ने उनकी विद्वत्ता से प्रभावित हो कर उन्हें ससम्मान कच्छ में आमंत्रित किया व उन्हें  रेहा  नामक जागीर एवं भट्टारक की पदवी से समलंकृत करके ब्रजभाषा काव्य-शाला के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।[6]  यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि इस पाठशाला के विकास एवं संवर्द्धन में  जैनाचार्य एवं कच्छ की राज्य सत्ता ने सक्रीय भूमिका निभाई। विद्यार्थियों के पढ़ने एवं रहने का खर्च राज्य उठाता था। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात उसके पाठ्यक्रमों की है। यदि पाठ्यक्रमों के आधार पर किसी शैक्षणिक संस्था की महत्ता निर्धारित की जा सकती है तो ब्रज-पाठशाला एक उच्च कोटि की शिक्षा संस्था थी।[7] यानी आज के नैक ग्रेडिंग में ए प्लस तो मिल ही जाता! पर हमें यह याद रखना होगा कि यह राज्याश्रयी थी, राज्याधीन नहीं। राज्याश्रयी होने के कारण उसका समुचित विकास हो सका ,अगर राज्याधीन होती तो आज इतिहास में इसका कहीं उल्लेख भी नही होता।  अभी 21  फरवरी  को सर्वत्र मातृभाषा दिवस मनाया गया। पर हमारा अनुभव यह बताता है कि जब जब कोई मुद्दा किसी दिन में सीमित और समर्पित हो गया , समझिए उस मुद्दे का अंत हो गया। अपनी समग्र चेतना और शक्ति से अंग्रेज़ी माध्यमों का समर्थन करते हुए हम किस तरह से मातृभाषा के महत्व को स्थापित कर सकेंगे , यह भी एक प्रश्न है।
            तीसरा  चौराहा है साहित्य । केवल अपभ्रंश के कारण यानी मूल की समानता के कारण ही नही, भाषा की एक सांस्कृतिक साझी विरासत भी होती है । गुजराती हिन्दी की यह सांस्कृतिक  विरासत  धर्म, आस्था तथा सामाजिक रहन सहन के रूप में समाज में उजगर हुए हैं। साहित्य के माध्यम से यह सभी प्रकट होता रहा है।  गुजरात में मध्याकाल में ब्रज तथा राजस्थानी में बहुत कुछ लिखा गया। अतः इसके संदर्भ में जितना कहा जाए कम ही है। इसके पूर्व डॉ. अम्बाशंकर नागर, डॉ. गोवर्द्धन शर्मा, दयाशंकर शुक्ल, डॉ रामकुमार गुप्त, महावीरसिंह चौहान, ओमानंद सारस्वत आदि ने इस क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण काम किए हैं, जिनको दोहराने अथवा उसकी फेहरिस्त देने का इस समय कोई औचित्य नहीं है।  लेकिन इस संदर्भ में एक संकेत अवश्य करना चाहूँगी कि मध्यकाल में प्रचलित ब्रज, पुरानी गुजराती तथा राजस्थानी एवं संतों की सधुक्कडी कुछ इस तरह प्रवर्तमान थीं कि जैसे एक ही व्यंजन, विभिन्न  सम्मिलित स्वाद  से युक्त  हो।
       मोटे तौर पर समाज में भाषा के दो मुख्य उपयोग निश्चित हैं। एक तो जब मनुष्य उसे अपने  नित्य-प्रति के व्यवहार तथा संबंध प्रस्थापन में उपयोग में लाता है। अपनी छोटी-छोटी लौकिक इच्छाओं तथा सपनों को अभिव्यक्त करता है। दूसरा उपयोग यह कि मनुष्य अपनी संवेदनाओं एवं विचारों की गहराई तथा व्याप को आकारित करने के लिए सृजन-धर्मी हो जाता है। वह जो कुछ लिखता है, सृजन करता है उसे वह अपनी ज़मीन की भाषा से जोड़ता है अथवा अपनी परम्परा तथा संस्कृति की ज़मीन से जोड़ता है।(स्व) डॉ. अंबाशंकर नागर  तथा डॉ महावीर सिंह चौहान ने गुजरात के हिन्दी में लिख रहे रचनाकारों को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा है-एक वे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है एक वे जिनकी मातृभाषा हिन्दी है और जो उत्तर प्रदेश बिहार, राजस्थान मध्यप्रदेश आदि हिन्दी भाषा-भाषी राज्यों से हिन्दीतर प्रदेशों में आकर बसे हैं। [8] गुजरात की समकालीन हिन्दी कविता- युग संपृक्ति[9] में डॉ महावीर सिंह चौहान ने एक बहुत मार्मिक प्रश्न उठाया है कि क्या गुजरात की समकालीन हिन्दी काव्य परंपरा गुजरात की मध्यकालीन हिन्दी रचनाशीलता का ही सहज परिणाम है ? इस प्रश्न में एक और नुक़्ता जोड़ना अर्थपूर्ण होगा कि रचनात्मकता के स्तर पर आज लिखा जाने वाला हिन्दी साहित्य अपनी स्तरीयता में मध्यकाल में लिखे जाने वाले हिन्दी साहित्य के समकक्ष है ? इस संदर्भ में डॉ शिवमंगल सिंह सुमन का यह  कथन अर्थपूर्ण है - हिन्दी भाषी प्रांतों में रहने वाले हिन्दी के कवि और लेखक इस तथ्य का अनुमान भी नहीं कर सकते हैं हिन्दीतर प्रांतों में रहने वाले  कवियों और लेखकों के क्या अभाव –सभाव हो सकते हैं। इसमें अड़चनें और सुविधाएं दोनों साथ-साथ होती हैं। अड़चन तो यह है दैनंदिन व्यवहार में न आने के कारण ऐसी रचनाओं में हिन्दी मुहावरों की पकड़ प्रयत्न साध्य हो जाती है और सुविधा यह है कि अन्य प्रांतीय भाषाओं का भाव सौकार्य और समृद्धि उसे अनायास ही प्राप्त हो जाती है  जिससे हिन्दी का मानस प्रसार और अधिक व्यापक हो कर भारत की विभिन्न साधनाओं की समन्वय भूमि  बनने का आधार प्राप्त करता है। [10][11]
       नागरजी ने जो विभाजन किया है उसे वर्तमान समय में थोड़ा इस तरह से विस्तृत किया जा सकता है।
लेखक की स्थानीयता की दृष्टि से-
1-      गुजरात में जन्में हिन्दीतर भाषी रचनाकार
2-      गुजरात में प्रवासी की हैसियत से आए हिन्दी भाषा-भाषी रचनाकार
3-      गुजरात में आकर स्थायी रूप से बस जाने वाले पर प्रांतीय रचनाकार
4-      गुजरात में जन्में हिन्दी भाषी रचनाकार
व्यवसाय की दृष्टि से
5-      अध्यापक
6-      व्यवसायी
7-      व्यापारी
8-      मुक्त लेखक
हिन्दी गुजराती के बीच आज भी भाषा तथा संस्कृति गत अन्तर्संबंध, राजनीतिक तथा सामाजिक अन्तर्संबंध बना हुआ है।
मध्यकाल में मीराबाई एक ऐसा नाम है जो हिन्दी तथा गुजराती दोनों ही साहित्यों के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान को प्राप्तपर प्रतिष्ठित हैं। प्रणामी संप्रदाय के जामनगर निवासी, स्वामी प्राणनाथ ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में पहली बार पहचाना था। वे भी गुजराती थे।  गद्य के उन्नायकों में से एक लल्लूलाल, गुजराती थे। स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी- ये सभी गुजराती थे, हिन्दीकी राष्ट्रीय अस्मिता तथा  विकास के लिए प्रतिबद्ध थे। ये सभी राष्ट्रीय स्तर पर जाने  जाते थे। आज गुजरात में रहने वाले और हिन्दी में लिखने वाले, हिन्दी  के लिए  काम करने वाले  लोगों की राष्ट्रीय पहचान क्या है?  मीरा की पहचान कृष्ण भक्ति थी, भाषा माध्यम थी, प्राणनाथ की पहचान उनकी अपनी धार्मिक – सांस्कृतिक भूमि थी, भाषा माध्यम थी।  फोर्ट विलियम कॉलेज ने लल्लूलाल को पहचान दी, राजनीति ने गांधीजी को पहचान दी तथा स्वामी दयानंद सरस्वती को राष्ट्रीय नवजागरण ने पहचान दी।  
             आज समकालीन हिन्दी साहित्य के पास ऐसी क्या आधार भूमि है, जो उसे पहचान गे सकता है? आज राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्य में गुजरात का प्रतिनिधित्व क्या है ? गुजरात में लिखी जाने वाली कविताएं, कहानियाँ तथा उपन्यास, समीक्षा आदि मुख्यधारा का एक हिस्सा बन सके हैं ?  स्वतंत्रता के पूर्व गुजरात में जो कुछ भी हिन्दी संबंधित हुआ वह मुख्यधारा के समानांतर था। आजादी के बाद भारत में विभिन्न प्रदेश बने अतः एक विभाजन तो अपने आप हो ही गया।  विश्वविद्यालयों में हिन्दी अध्यापन का आरंभ हुआ अतः हिन्दी-सेवी की संख्या में वृद्धि हो गयी। हिन्दी में पढ़ना लाभदायी है- तो हिन्दी में और हिन्दी का  अध्ययन किया गया। स्वतंत्रता मिल गई अतः राष्ट्र भक्ति मसला नहीं रहा, आधुनिकता के कारण भक्ति मसला नहीं रहा, अतः अन्तः संबंध के आधार प्रश्नचिह्न के घेरे में आ गए। फिर हिन्दीतर प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के अनुदान एवं  हिन्दीतर होने की सत्ता ने हिन्दी के विकास में बाधा पहुँचायी। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हिन्दी के साथ किसी-न-किसी रूप से संबंधित लोगों का संख्या पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है, परन्तु इन सभी में हिन्दी भाषा की अस्मिता के लिए  समर्पित लोगों की संख्या कितनी ? पूरी ज़िन्दगी हिन्दी का लाभ और हिन्दी से रोटी कमाने वाले हिन्दी के लोग आज अपनी मातृ-भाषा के संवर्द्धन में लगे हैं, अवसर मिलने पर अंग्रेज़ी के समर्थक भी हो जाते हैं.....पर इन सब में  हिन्दी तो रघुवीर सहाय के शब्दों में 'दुहाजू की बीबी' ही बनी रहती है। यह स्थिति बहुत चिंताजनक है।
             आज गुजराती और हिन्दी का अन्तःसंबंध सबसे सशक्त रूप से अगर स्थापित हो सकता है तो वह अनुवाद के माध्यम से। गुजरात में रहने वाले , जो हिन्दी पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं उन्हें एक आंदोलन के स्तर पर अनुवाद का कार्य करना चाहिए। गुजराती और हिन्दी के परस्पर अनुवादों से संवेदना के तार नई भूमिका पर  जुड़ सकते हैं। हिन्दी के माध्यम से भारत में गुजराती की अस्मिता को प्रतिष्ठित कर सकते हैं और गुजराती के माध्यम से मुख्य धारा की संवेदना को समझ कर, ग्रहण कर के अपनी संवेदना का विस्तार कर सकते हैं।
            
  



[1] भाषा, शमशेर बहादुर सिंह, चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ 65
[2] वही
[3] एक नीला दरिया बरस रहा है, शमशेर बहादुर सिंह, चुका भी हूँ मैं नहीं
[4] गुजराती की समकालीन कविता में हास्य व्यंग्य, माणिक मृगेश, अभिनंदन ग्रंथ पृ- 115
[5] हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान, डॉ अंबाशंकर नागर,अभिनंदन ग्रंथ,हिन्दी साहित्य हिन्दी साहित्य का परिषद् अहमदाबाद, 1985
[6] हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान, डॉ. अंबाशंकर नागर अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ-316
[7] वही, पृष्ठ 317
[8] गुजरात का समकालीन हिन्दी साहित्य, आचार्य रघुनाथ भट्ट अभिनंदन ग्रंथ
[9] आचर्य गघुनाथ भट्ट अभिनंदन ग्रंथ पृ-270

[10] आचर्य गघुनाथ भट्ट अभिनंदन ग्रंथ पृ-270
[11] चंद्रमा मनसो जातः, डॉ शिवमंगलसिंह सुमन,हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में गुजरात का योगदान पृ 54


[i] शमशेरजी ने जिन रक्त-रंजित (लहु लुहान) ज़ख़्मों को खोल कर दिखाया है वह आश्चर्यजनक रूप से सईद के ओरिएंटलिज़्म  की संकल्पना के समानांतर है। असल में भाषाओं को ले कर एक उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण कवि का दिखाई पड़ता है- सैद्धांतिक स्तर पर।  अपनी भाषाओं तथा संस्कृति को ले कर हमें अपनी परंपरा के अनुसार देखना चाहिए , पश्चिमी दृष्टि से नहीं- इस बात को एक गहरे व्यंग्य के साथ कवि ने यहाँ प्रस्तुत किया है.

[ii] प्रसिद्ध भाषा-विद् गणेश देवी ने गुजरात दंगों के बाद एक साक्षात्कार में यह कहा था कि गुजरात के लोगों के खून में घृणा है। इस बात पर बहुत विवाद हुआ था।