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शुक्रवार, 22 मई 2009

Translation as Knowledge itself

Translation as Knowledge itself
रंजना अरगडे

हम लोग एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ हर चीज़ को देखने का हमारा नज़रिया बदल गया है। ज़ाहिर है इस बदलाव के लिए कई बातें ज़िम्मेदार हैं। मध्यकाल से आधुनिक काल में आना यानी विश्वासों, मान्यताओं एवं अंधविश्वासों से तर्कबद्धता और वैज्ञानिक विश्वासों की ओर जाना। नई खोजों के फलस्वरूप हमने अपने चारों तरफ़ की दुनिया और उसकी तब तक हासिल की गई जानकारी के बारे में कुछ ऐसी तब्दीली पाई, एक ऐसा नया संदर्भ जुड़ते हुए देखा, जो हमें पुराने समय से खींच कर एक नए समय में ले आया। धर्म, राजनीति तथा समाज-व्यवस्था की चली आती मान्यताएं इस कारण बदल गई कि अवकाश, पृथ्वी, जल, जीवन का एक नया सत्य हमारे सामने उजागर हुआ। इसके फलस्वरूप हमारी जीवन-पद्धति को हमने एक नई पीठिका पर खड़ा पाया। आज तक जिसे हम पूर्व जन्म के कर्म और भोग मानते थे वह वास्तव में शोषण की विभिन्न स्थितियां हैं- यह अब हमारी समझ में आ गया। व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार के कारण उसके अवचेतन की गहराई में छिपे होते हैं और पृथ्वी की हलचलों और हरकतों के लिए अवकाश मंडल और उसकी व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है, कारणभूत है – यह तथ्य भी हमारी समझ का हिस्सा बना। दुनिया भर के देशों, उनके लोगों, उनके साहित्य, कला, चिंतन आदि में उन्हीं सब कारणों से परिवर्तन हुआ; लेकिन सामाजिक ढाँचे में, उसकी संरचना में कोई मौलिक परिवर्तन या बदलाव नहीं आया। किन्तु समाज का स्तरीकरण इतना चुस्त हो गया कि नई संरचना तथा नए ढाँचे की खोज अवश्यंभावी हो गई।
सन् 1980 के आसपास विश्व समाज नए ढाँचे में आकार लेने लगा। हालाँकि इसकी भूमिका सन् 1960 से बनना शुरु हो गई थी। अगर 20वीं शती का महदांश विज्ञान और विचारधारा को समर्पित था तो उसके अंतिम दशक तथा नई शताब्दी का आरंभ नए सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के आकारी-कृत होने का माना जा सकता है। विचारधारा के स्थान पर विमर्श आए तथा शुद्ध विज्ञान तथा उद्योग का स्थान सूचना प्रौद्योगिकी ने ले लिया। जो अब तक परिधि में था केन्द्र में आ गया, आ रहा है। स्त्री, दलित, जन-जातियां, जीवनी आत्मकथा, अनुवाद, व्याकरण, भाषा-व्यवहार—आज सभी केन्द्र में है।
आज महत्व 'स्पेस' का है। पहले समय का महत्व था। पहले भूत और भविष्य महत्वपूर्ण था, अब वर्तमान महत्वपूर्ण है। यह वर्तमान अस्तित्ववादियों के 'क्षण' से अलग है। इस वर्तमान का अर्थ है- व्यक्ति का जीवन-काल( Complete Life-Time of a person)। भूतकाल पुस्तकों औ स्मृतियों में रह सकता है , भविष्य उम्मीदों और कल्पना में जगह पा सकता है, पर वर्तमान के लिए तो फ़िज़िकल स्पेस अधिक महत्वपूर्ण है। यह एक तथ्य है कि हमारे पास फिज़िकल स्पेस तो कम ही है। इस फिज़िकल स्पेस में अगर सब को जगह चाहिए तो या तो हम प्रदत्त स्पेस में एक और स्पेस निर्मित करते हैं या आभासित स्पेस बनाते हैं। वर्च्युएल स्पेस। इसका संबंध मायाजाल से है। अर्थात् इंटरनेट।
अनुवाद ने भी रचना के स्पेस में अपना स्पेस बनाया है। पहले अनुवाद रचना-घर का दरबान था, पर अब अनुवाद ख़ुद एक घर बन गया है। पहले अगर वह रचना-घर की केवल खिड़की था तो अब अनुवाद-घर की खिड़की वह ज्ञान है जिससे पूरी दुनिया में विकास की दृष्टि से परिवर्तन संभव हो सकता है। अब अनुवाद माध्यम न रह कर ख़ुद लक्ष्य बन गया है।
लगभग एक दशक पहले नॉलेज-ट्रांस्लेशन की परिकल्पना के बीज केनेड़ा में बोए गए। इसका संबंध मुख्य रूप से उनके स्वास्थ्य संबंधी विभाग से जुड़ा था। यानी हम कह सकते हैं कि अनुवाद के साथ ज्ञान शब्द तब से जुड़ा। लेकिन हम तो यह बात कर रहे हैं कि अनुवाद ख़ुद ज्ञान है। आज ज्ञान शब्द का एक केन्द्री-भूत निश्चित अर्थ है। ज्ञान यानी शक्ति और शक्ति यानी सत्ता। अतः जब हम अनुवाद को स्वयं ज्ञान अर्थात् नॉलेज इटसैल्फ कहते हैं, तब असल में हम अनुवाद को एक सत्ता के रूप में पहचानते हैं। सर्जनात्मक लेखन जैसे एक सत्ता है वैसे ही अनुवाद भी एक सत्ता है। राजकीय सत्ता साहित्य से या कहा जाए कला मात्र से भयभीत रहती हैं, ऐसा भूतकाल में कई बार हुआ है; क्योंकि कलाएं मनुष्य के मन को, उसकी सोच को बदलने की ताक़त रखती है।
पर अनुवाद के साथ स्थिति कुछ दूसरी है। अनुवाद देशों के आर्थिक-राजकीय विकास को बदलने और निर्धारित करने की सत्ता रखता है। वह विचारों को, संकल्पनाओं को एक देश से दूसरे देश में 'ले जाने' की ताक़त रखता है। यहाँ यह देखना रोचक होगा कि क्यों और कैसे अनुवाद एक सत्ता बन गया।
अनुवाद का व्यक्तित्व पहले दबा हुआ, सब्ड्यूड था। वह सर्जनात्मक लेखन की परछाईं था। स्रोत-पाठ के फ़्रेम-वर्क- चाहे वह भाव, भाषा या व्याकरण का हो-(उस) से वह बाहर नहीं जा सकता था। पहले उसका काम या तो धर्म-प्रचार था अथवा साहित्य-प्रसार। लेकिन नॉलेज ट्रांसलेशन की परिकल्पना के बाद वह देशों के आर्थिक तथा व्यावसायिक हित से जुड़ गया। वह धीरे-धीरे पत्रकारिता के आर्थिक हित का अभिन्न हिस्सा बन गया। हे तो यह माना जाता रहा था कि असफल सर्जक या तो समीक्षक बनता है या फिर अनुवादक। भारत जैसे बहु-भाषी देश में वह एक फालतू चीज़ की तरह कार्यालय में पड़ा रहा करता था। कार्यालय की उपयोगिता के कारण ही मुख्यतः धीरे-धीरे अनुवाद एक अलग विद्या-शाखा के रूप में विकसित हुआ। भारत में दक्षिण के लगभग सभी विश्व- विद्यालयों में आज 30 वर्षों से भी अधिक का समय हो गया होगा कि अनुवाद-प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यह राज-भाषा केन्द्रित होने के कारण हिन्दी की इसमें बड़ी भूमिका रही और हिन्दी का महत्व बना रहा। इसका सीधा-सादा मतलब यह हुआ कि यह मान लिया गया कि अनुवाद की तकनीक का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। अनुवाद सीखा जा सकता है। उसके लिए विशेष कुल-गोत्र में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है। पर यह केवल राज-भाषा तक सीमित रहा। शायद इसीलिए आज तक कई लोगों को यह ख़ुश-फहमी है कि बिना प्रशिक्षण के भी अनुवाद किया जा सकता है। साहित्यिक अनुवाद अवश्य किया जा सकता होगा ; क्योंकि यह उन साहित्य-सत्ता-केन्द्री लोगों की मान्यता रही है जो या तो स्वयं सत्ता थे या सत्ता के लिए भय अथवा लोभ का कारण, इसीलिए आदरणीय थे। तभी अनुवाद के अवसर भी कुछ ही लोगों तक सीमित रहे।
तकनीक जब विकसित हो जाती है तो लाभार्थी कोई भी हो सकता है। अनुवाद प्रशिक्षण की विकसित हुई तकनीक का वास्तविक लाभ आज मिल रहा है और वह कोई भी उठा सकता है। यह भी कह सकते हैं कि आज उसका इतना व्यापक महत्व समझ में आ रहा है। प्रशिक्षण के द्वारा अनुवाद तकनीक के सामान्यीकरण के फलस्वरूप आज अनुवाद सीमित हाथों से निकल कर व्यापक लोगों के बीच फैला है।
कुछ और कारण भी इसके लिए ज़िम्मेदार रहे हैं। भाषा-केन्द्री सोच- जो संरचनावादी और उत्तर-संरचनावादी समय की देन है, परिधि के केन्द्र में आने की घटना, आर्थिक उदारीकरण, मीडिया-विस्फोट ने अनुवाद के केन्द्र में ज्ञान को स्थापित किया। परिणामतः अनुवाद खुद ज्ञान यानी सत्ता बन गया। अनुवाद- प्रशिक्षण के कारण यह बात सामने आई कि विभिन्न प्रकार के अनुवादों के लिए विभिन्न प्रकार के कौश की ज़रूरत पड़ती है। यह ज़रूरी नहीं है कि रचनात्मक कृतियों का अच्छा अनुवादक समाज-शास्त्रीय पाठ का भी अच्छा अनुवादक हो; या वह वैज्ञानिक पाठ का अच्छा अनुवाद कर सकता है। इतना ही नहीं, जो प्रकाशन माध्यम का अच्छा अनुवादक होता है वह अनिवार्य रूप से मल्टी-मीडिया के माध्यमों में भी सफलता प्राप्त कर सके। अनुवादक के लिए केवल स्रोत-पाठ के विषय का ही ज्ञान होना ज़रूरी नहीं है उस माध्यम की तकनीक की भी जानकारी आवश्यक है जिसके माध्यम से वह अनुवाद कर रहा है। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण और प्रयत्न आवश्यक है। अब वह ज़माना लद गया कि मोटर तो ख़रीद ली है परन्तु उसका मैकनिज़म नहीं आता। आप देखिए, हर प्रोडक्ट के साथ उसका साहित्य आता है।
अनुवादक मुख्य रूप से पाठ की भाषा और उसकी संरचना से रू-ब-रू होता है। यह अंग बात है कि वह उसका आधार मूल-पाठ ही होता है – पर अनुवाद करने की प्रक्रिया तो सर्जनात्मक ही है। जिस तरह रचना के केन्द्र में संप्रेषणीयता होती है उसी तरह अनुवाद के केन्द्र में भी संप्रेषणीयता होती है। जैसे एक रचनाकार अनिवार्यतः दूसरे तक पहुंचने के लिए लिखता है उसी तरह अनुवादक भी दूसरे तक पाठ को पहुंचाने के लिए अनुवाद कार्य करता है। पाठ के चुनाव में ही उसकी रचनात्मकता का बीज छिपा होता है। तमाम पाठों को छोड़ कर जब वह एक विशेष पाठ को चुनता है- यही इस बात का संकेत है कि अनुवाद एक रचनात्मक कार्य है। वह एक अलग भाषा(लक्ष्य भाषा) की संरचना, व्यवस्था और व्याकरण में प्रवेश करता है। यानी कि ह एक समाज से दूसरे समाज में प्रवेश करता है। उसे अर्थ को स्थानांतरित तो करना है, पर अब जब वह जान गया है कि शब्द अर्थ की दृष्टि से अनेक-अंतीय होते है, जब अनुवाद-कार्य भी एक अलग अस्तित्व प्राप्त कर चुका होता है। पहले सब तय, तर्क-बद्ध, निश्चित था, अब सब वैसा नहीं रहा; अनेक-अंतीय और प्रवहमान हो गया। देखिए न, पहले बाजा अलग था, बाँसुरी अलग थी, वीणा अलग थी; अब सब एक ही सिंथेसाईज़र में मौजूद हैं- एक भी हैं और अलग भी। पहले बैठक और शयन-कक्ष अलग थे, अलमारी और मेज़ अलग थे; पर अब अलमारी का दरवाज़ा मेज़ का काम करता है।
मूल-पाठ में जिस तरह अनेक-पाठीयता संभव है, वैसे ही अनूदित-कृति में भी अनेक-पाठीयता संभव है। पर इस अनेक- पाठीयता का कारण कमज़ोर या गलत अनुवाद न हो कर भाषा की अपनी प्रकृति है जिसे उत्तर-आधुनिक समय में पहचाना गया है। यानी अनुवादक को लगाम हीन स्वतंत्रता नहीं मिलती परन्तु वह मूल-पाठ का जो भी अर्थ करता है, उसके अनुसार अनुवाद करने की स्वतंत्रता अवश्य मिल सकती है। अतः एक ही कृति के अनेक अनुवादों का मूल्यांकन करते समय जब सही और गलत का निर्णय किया जाता है अथवा मूल के सर्वाधिक निकट का आग्रह रखा जाता है तब उत्तर-आधुनिक दृष्टि यह प्रश्न-चिह्न भी लगाती है कि मूल वास्तव में क्या है? इसका कौन निर्णय करेगा? इससे एक केओस (अफ़रातफ़री) भी निर्मित होने की संभावना है। अतः जैसे काव्यार्थ विवेचन के लिए सहृदय तथा तद्विद् की आवश्यकता होती है वैसे ही अनुवाद-मूल्यांकन के लिए भी तद्विद् की आवश्यकता होती है।
उदार अर्थ-नीति के कारण समय की गति भी तेज़ हो गई। स्पर्धा बढ़ गई है। अतः यह ज़रूरी नहीं रह गया है कि अपनी भाषा में ज्ञान का निर्माण किया जाए। उसकी अपेक्षा अनुवाद के द्वारा निर्मित ज्ञान का निर्माण अधिक सरल और तीव्र गति से संभव हुआ है। इस दौर में अनुवादक जितनी अधिक भाषाओं को जानता है वह उतने अधिक समाजों तथा उनके लोगों की जानकारी रखता है। आज जो जितनी अधिक जानकारी रखता है उसके पास उतनी अधिक सत्ता है।
हमारे रीति-कालीन आचार्यों ने जब संस्कृत काव्य-शास्त्र को ब्रज में प्रस्तुत किया तब असल में उन्होने काव्य-शास्त्रीय ज्ञान का निर्माण हिन्दी में किया जैसे भारतेन्दु ने संस्कृत नाट्य-शास्त्र का निर्माण खड़ी-बोली में किया। एक सजग और अच्छा अनुवादक आज यह अच्छी तरह जानता है कि विकसित राष्ट्रों में क्या हो रहा है। उसका यह ज्ञान उसके अपने देश के विकास के लिए केन्द्रीय महत्व का बन जाता है।
तभी राष्ट्रीय ज्ञान योग ने भी अपनी रिपोर्ट में पहले स्थान पर पुस्तकालयों को रखा है और दूसरे स्थान पर अनुवाद को जगह दी है। यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि अनुवाद के लिए आयोग ने 250 करोड़ रुपये आबंटित किए गए हैं। राष्ट्रीय अनुवाद आयोग ने मुख्य चार हेतु निर्दिष्ट किए हैं-
1-अनुवाद प्रशिक्षण, 2- सूचना प्रसारण, 3- अच्छे अनुवादों को प्रोत्साहित कर उसका प्रचार करना तथा 4- मशीनी अनुवाद को बढ़ावा देना।
सूचना-क्रांति और सूचना-प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप आज मशीनी अनुवाद सबसे अधिक संभावना तथा चुनौती वाला क्षेत्र है। हिन्दीतर भाषी क्षेत्र अनुवाद-कार्य के लिए सबसे अधिक उपजाऊ माने गए हौं पर साथ ही उन्हीं क्षेत्रों में हिन्दी भाषा को सही-सही रूप में विद्यार्थियों तक ले जाने की ज़िम्मेदारी भी है। अतः हमें अनुवाद प्रशिक्षण की दिशा में बढ़ने के लिए अपनी(हिन्दी) भाषा, व्याकरण, उसकी संरचना और उसके विभिन्न व्यवहारों के प्रति – यानी कि कुल मिला कर भाषा प्रशिक्षण के प्रति गंभीरता से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

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